अध्यात्म में भक्ति क्या होती
है
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
स्वामी
शिवोमतीर्थ जी महाराज के शब्दों मे जो विभक्त नहीं वह भक्त।
मानव चिरकाल से इस एक अनादि सत्ता
(ब्रह्म) में विश्वास करता आया है। भक्ति साधन तथा साध्य द्विविध है। साधक, साधन में ही जब रस लेने
लगता है, उसके फलों की ओर से उदासीन हो जाता है। यही साधन का
साध्य बन जाता है। पर प्रत्येक साधन का अपना पृथक् फल भी है। भक्ति भी साधक को
पूर्ण स्वाधीनता, पवित्रता, एकत्वभावना
तथा प्रभुप्राप्ति जैसे मधुर फल देती है। प्रभुप्राप्ति का अर्थ जीव की समाप्ति
नहीं है, सयुजा और सखाभाव से प्रभु में अवस्थित होकर आनंद का
उपभोग करना है।
भक्ति
के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। इस पर
सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- भागवतपुराण। इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, श्रीमद्भागवदगीता, पांचरात्रसंहिता,
सात्वतसंहिता, शांडिल्यसूत्र, नारदीय भक्तिसूत्र, नारदपंचरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्वसंहिता;
रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ
द्रष्टव्य हैं।
वास्तव
में भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्'
धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता
के प्रति आसक्ति ही होती है भक्ति।
नारदभक्तिसूत्र
में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य,
संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति
ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता
है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि
में आनन्द का अनुभव-ये सभी उपादान वेदों
में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर
मात्रा में विद्यमान हैं।
सवै
पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे। अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति।। 11.2.6
भगवान् में
हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से
आत्मा प्रसन्न होती है।
'भक्तिरसामृतसिंधु',
के अनुसार भक्ति के दो भेद हैं: गौणी तथा परा। गौणी भक्ति
साधनावस्था तथा परा भक्ति सिद्धावस्था की सूचक है। महर्षि दयानंद लिख्ते हैं :
जिस प्रकार अग्नि के पास जाकर शीत की निवृत्ति तथा उष्णता का अनुभव
होता है, उसी प्रकार प्रभु के पास पहुँचकर दु:ख की निवृत्ति
तथा आनंद की उपलब्धि होती है। 'परमेश्वर के समीप होने से सब
दोष दु:ख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव पवित्र
हो जाते हैं। परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना से
आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि पर्वत के समान दु:ख प्राप्त होने पर भी वह नहीं
घबराएगा और सबको सहन कर सकेगा।
भक्ति
भजन है। किसका भजन? ब्रह्म का, महान
का। महान वह है जो चेतना के स्तरों में मूर्धन्य है, यज्ञियों
में यज्ञिय है, पूजनीयों में पूजनीय है, सात्वतों, सत्वसंपन्नों में शिरोमणि है और एक होता
हुआ भी अनेक का शासक, कर्मफलप्रदाता तथा भक्तों की
आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला है।
(मोटे तौर से मध्ययुग का काल पश्चिमी यूरोप में पाँचवीं शताब्दी के
प्रारंभ से पंद्रहवीं तक कहा जा सकता है। 11वीं शताब्दी के पहले का युग सतत संघर्षों, अनुशासनहीनता,
तथा निरक्षरता के कारण 'अंधयुग' कहलाया) (11वीं शताब्दी के अंत से 15वीं शताब्दी तक के उत्तर मध्य युग में मानव प्रत्येक दिशा में उन्नतिशील
रहा)
मध्ययुग
में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवर्तित हुए:
1.
श्रीसम्प्रदाय: रामानुजाचार्य के द्वारा प्रचलित 2.
ब्रह्मसम्प्रदाय: मध्वाचार्य के द्वारा प्रचलित 3. रुद्रसम्प्रदाय: विष्णुस्वामी
के द्वारा प्रचलित और 4. सनकादिकसम्प्रदाय: निम्बार्काचार्य के द्वारा
स्थापित।
इन सभी
सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसन्न्यास का खण्डन
कर भगवान की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका
भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए।
मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का
इतिहास भागवतपुराण के माहात्म्य में इस प्रकार से दिया हुआ है:
उत्पन्ना
द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटक के गता। क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्रे गुर्जरे
जीर्णतां गता।।
तत्र धोरकलेर्योगात् पाधण्डै: खण्डितांगका। दुर्बलाहं चिरं जाता
पुत्राभ्यां सह मन्दताम्।।
वृन्दावनं पुन: प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक्
प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्।।
"मैं वही (जो मूलत:
यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लाई गई थी) द्रविड़ प्रदेश में
(रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई। महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण)
हुआ। गुजरात में वृद्धा हो गई। वहाँ घोर कलियुग (म्लेच्छ
आक्रमण) के सम्पर्क से पाखण्डों द्वारा खण्डित अंगवाली मैं दुर्बल होकर बहुत दिनों
तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो गई। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर
सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और
सम्यक् प्रकार से सुन्दर हो गई।"
गौणी
भक्ति भी दो प्रकार की है : वैधी तथा रागानुगा। प्रथम में
शास्त्रानुमोदित विधि निषेध अर्थात् मर्यादा मार्ग तथा द्वितीय में राग या प्रेम
की प्रधानता है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित विहिता एवं अविहिता नाम की
द्विविधा भक्ति भी इसी प्रकार की है और मोक्ष की साधिका है।
भागवत
उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र के शांकर भाष्य में
पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से उपासना करते हुए भक्त
भगवान को प्राप्त करता है।
'ज्ञानामृतसार'
में छ: प्रकार की भक्ति बतलाई गई हैं-(1) स्मरण,
(2) कीर्तन, (3) वन्दन, (4) पादसेवन, (5) अर्चन और (6) आत्मनिवेदन।
उपर्युक्त
छ: में तीन-श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये हैं।
पांचरात्र
संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवत धर्म चार खण्डों में विभक्त है: (1)
ज्ञानपाद (दर्शन और धर्म विज्ञान),
(2) योगपाद (योगसिद्धान्त और अभ्यास), (3) क्रियापाद
(मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना), (4) चर्यापाद
(धार्मिक क्रियाएँ)।
श्रीमद्भागवत्
में नवधा भक्ति का वर्णन है :
श्रवणं
कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। 7,5,23
निगुर्ण
या अव्यक्त तथा सगुण नाम से भी भक्ति के दो भेद किए जाते हैं। गीता, भागवत तथा सूरसागर ने निर्गुण भक्ति को अगम्य तथा क्लेशकर कहा है, परंतु वैष्णव भक्ति का प्रथम युग जो निवृत्तिप्रधान तथा ज्ञान-ध्यान-परायणता
का युग है, निर्गुण भक्ति से ही संबद्ध है।
ईसाई प्रभु में पितृभावना रखते हैं क्योंकि पाश्चात्य विचारकों के अनुसार जीव को
सर्वप्रथम प्रभु के नियामक, शासक एवं दंडदाता रूप का ही
अनुभव होता है।
ब्रह्मांड
का वह नियामक है, जीवों का शासक तथा उनके शुभाशुभ
कर्मो का फलदाता होने के कारण न्यायकारी दंडदाता भी है। यह स्वामित्व की भावना है
जो पितृभावना से थोड़ा हटकर है। इस रूप में जीव परमात्मा की शक्ति से भयभीत एवं
त्रस्त रहता है पर उसके महत्व एवं ऐश्वर्य से आकर्षित भी होता है। मुस्लिम धर्म की
कुरान में कहा है “अल्लाह से डरो”। अपनी क्षुद्रता,
विवशता एवं अल्पज्ञता की दु:खद स्थिति उसे सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ एवं महान प्रभु की ओर खींच ले जाती है।
भक्ति
में दास्यभाव का प्रारंभ स्वामी के सामीप्यलाभ का अमोघ साधन समझा जाता है। प्रभु
की रुचि भक्त की रुचि बन जाती है। अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का परित्याग होने लगता
है। स्वामी की सेवा का सातत्य स्वामी और सेवक के बीच की दूरी को दूर करनेवाला है। इससे
भक्त भगवान के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगता है और उसके परिवार का एक अंग बन
जाता है। प्रभु मेरे पिता हैं, मैं उनका पुत्र हूँ,
यह भावना दास्यभावना से अधिक आकर्षणकारी तथा प्रभु के निकट लानेवाली
है।
वात्सल्यभाव
का क्षेत्र व्यापक है। यह मानवक्षेत्र का अतिक्रांत करके पशु एवं पक्षियों के
क्षेत्र में भी व्याप्त है। पितृभावना से भी बढ़कर मातृभावना है। पुत्र पिता की ओर
आकर्षित होता है, पर साथ ही डरता भी है। मातृभावना में
वह डर दूर हो जाता है। माता प्रेम की मूर्ति है, ममत्व की
प्रतिमा है। पुत्र उसके समीप नि:शंक भाव से चला जाता है। यह भावना वात्सल्यभाव को
जन्म देती है। रामानुजीय वैष्णव संप्रदाय में केवल वात्सल्य और कर्ममिरश्र
वात्सल्य को लेकर, जो मार्जारकिशोर तथा कपिकिशोर न्याय द्वारा
समझाए जाते हैं।
स्वामी
तथा पिता दोनों को हम श्रद्धा की दृष्टि से अधिक देखते हैं। मातृभावना में प्रेम
बढ़ जाता है, पर दांपत्य भावना में श्रद्धा का
स्थान ही प्रेम ले लेता है। प्रेम दूरी नहीं नैकट्य चाहता है और दांपत्यभावना में यह
उसे प्राप्त हो जाता है। शृंगार, मधुर अथवा उज्जवल रस भक्ति
के क्षेत्र में इसी कारण अधिक अपनाया भी गया है। वेदकाल के ऋषियों से लेकर
मध्यकालीन भक्त संतों की हृदयभूमि को पवित्र करता हुआ यह अद्यावधि अपनी व्यापकता
एवं प्रभविष्णुता को प्रकट कर रहा है।
भक्ति
क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है।
प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और
परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य,
वात्सल्य, दांपत्य आदि सीढ़ियों को पार करके
पुन: सखाभाव को प्राप्त कर लेता है। इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन
है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य
वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा
पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें
पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु
मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में
ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।
भक्ति
का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। वैष्णव संप्रदाय
भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त
वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर नारद
भक्तिसूत्र तथा शांडिल्य भक्तिसूत्र जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। पराधीनता के समय
में भी महात्मा रूप गोस्वामी ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया।
भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत:
अपेक्षित है।
चतुर्थ
युग में प्रतिमापूजन, देवमंदिर निर्माण, शृंगारसज्जा तथा षोडशोपचार (कलश-शंख-घंटी-दीप-पुष्प आदि) पद्धति की
प्रधानता है। इसमें बहिर्मुखी प्रवृत्ति है। पंचम युग में भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम के अतीव
आकर्षक दृश्य दिखाई देते हैं। वेद का यह पुराण में परिणमन है। इसमें निराकार साकार
बना, अनंत सांत तथा सूक्ष्म स्थूल बना। प्रभु स्थावर एवं
जंगम दोनों की आत्मा है। फिर जंगम चेतना ही क्यों ? स्थावर
द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति और भक्ति क्यों न की जाय ?
वैष्णव आचार्य, कवि एवं साधक स्थूल तक ही
सीमित नहीं, वे स्थूल द्वारा सूक्ष्म तक पहुँचे हैं। उनकी
रचनाएँ नाम द्वारा नामी का बोध कराती हैं। उन्होंने भगवान के जिन नामों रूपों
लीलाओं तथा धामों का वर्णन किया है, वे न केवल स्थूल
मांसपिंडों से ही संबंधित हैं, अपितु उसी के समान आधिदैविक
जगत् तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से भी संबंधित हैं। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और परमेश्वर, माया और ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शक्तिमान्, विद्युत् और मेघ, किरण और सूर्य, ज्योत्स्ना और चंद्र आदि सभी परस्पर
एक दूसरे में अनुस्यूत हैं। विरहानुभूति को लेकर भक्तिक्षेत्र में वैष्णव भक्तों
ने, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह साधक के
हृदय पर सीधे चोट करती है और बहुत देर उसे वहीं निमग्न रखती है।
लोक से कुछ
समय के लिए आलोक में पहुँचा देनेवाली वैष्णव भक्तों की यह देन कितनी श्लाघनीय है, कितनी मूल्यवान् है। और इससे भी अधिक मूल्यवान् है उनकी स्वर्गप्राप्ति की
मान्यता। मुक्ति नहीं, क्योंकि वह मुक्ति का ही उत्कृष्ट रूप
है, भक्ति ही अपेक्षणीय है। स्वर्ग परित्याज है, उपेक्षणीय है। इसके स्थान पर प्रभुप्रेम ही स्वीकरणीय है। वैष्णव संप्रदाय
की इस देन की अमिट छाप भारतीय हृदय पर पड़ी है। उसने भक्ति को ही आत्मा का आहार
स्वीकार किया है।
भक्ति
तर्क पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है।
पुरुष ज्ञान से भी अधिक श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक सत्य इस कथन में है
कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और अनुपात में उसका निर्माण होता
है। प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति भूमि से हटाकर
द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। घी के ज्ञान और कर्म दोनों
अर्थ हैं। हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित
होता है।
'आत्मनः भगवद्भावं
सर्वभूतेषु यः पश्येत्' अर्थात् आत्म स्वरूप में बैठे हुए
उस परमात्मा को जो एक शरीर में नहीं अपितु सभी प्राणियों में देखता हो, अपने अनुभव को आनन्द को सर्वत्र देखता हो वही प्रेमा स्वरूपा भक्ति को
प्राप्त हुआ होता है।
इस
विश्व में सबसे बड़ा रस प्रेम का है। इस की एक−एक बूँद के लिए आत्मा तरसती रहती है
और जहाँ कहीं उसे इस मधुर मधु की एक बूँद भी उपलब्ध हो जाती है वहीं वह उसकी बड़ी
से बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हो जाती है। बालक में प्रेम भाव की मान्यता करके
माता उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर करती है और कुरूप एवं गुण रहित होते हुए भी उसे
सुन्दर एवं गुणवान मानती है। पतिव्रता को अपना पति प्राण प्रिय होता है और
पत्नीव्रती पति अपनी धर्मपत्नी पर प्राण न्यौछावर करता है। हो सकता है कि इसमें स्वार्थ
का भी कुछ अंश मिला हुआ हो पर प्रधानता प्रेम की ही होती है। प्रेम रहित स्वार्थ
के लिए एक सीमा तक ही मनुष्य त्याग कर सकता है। पर सच्चा प्रेम जहाँ है वहाँ
प्रेमी की आत्मा उसका महान मूल्य स्वयमेव जान लेती है और उसके लिए बड़े से बड़ा
बलिदान करना भी सहज हो जाता है।
आत्मा
की सबसे बड़ी श्रेष्ठता प्रेम भावना है। उच्च स्तर पर जिनका अन्तःकरण पहुँच चुका
है उन्हें सभी के प्रति ममता एवं आत्मीयता होती है। सभी के प्रति प्यार उमड़ता है।
सेवा, दया, करुणा,
सहायता, सहयोग, क्षमा,
उदारता, दानशीलता जैसी अगणित सत्प्रवृत्तियाँ
प्रेम भावना की छाया मात्र हैं। जिस अन्तःकरण में दूसरों के प्रति प्रेम उमँगेगा,
जिसे दूसरे लोग भी अपने आत्मीय लगेंगे वही तो किसी के साथ उपकार
जैसा आचरण कर सकेगा, प्रेम के अभाव में दिखाऊ उदारता या तो
किसी को ठगने के लिए होती है या यश प्राप्त करने के लिए। यह दोनों प्रयोजन जहाँ
पूरे न होते होंगे वहाँ झूँठा प्रेम तुरन्त बदल जायेगा, किन्तु
जहाँ प्रेम का निवास ही है उस अन्तःकरण में से सौजन्य की सुगन्धित निरन्तर स्वयमेव
उड़ती रहेगी।
महान
व्यक्ति केवल प्रेमी ही हो सकता है। उसी में उच्च गुणों का सुस्थिर स्थायित्व रह
सकता है। दूसरे लोग शिष्टाचार की सज्जनता से—मोर जैसी मधुरता से—दूसरों को मोहित
कर सकते हैं पर परीक्षा की घड़ियों में उनकी कलई तुरन्त खुल जाती है। कठिन अवसरों
पर मनुष्य के पैरों को डगमगाना से बचाने और उच्च आदर्शों पर जमाये रखने की शक्ति
केवल प्रेम में है। आदर्शों के प्रति, मानवता के
प्रति, धर्म के प्रति, प्राणिमात्र के प्रति
प्रेम करने वाला ही अपने आपको खतरे में डालकर अपनी मूल्यवान प्रेम भावनाओं को
सुरक्षित रख सकता है। नीरस रूखे और स्वार्थी व्यक्ति दूसरों की पीर क्या जान सकते
हैं? और किसी के कष्ट में आँसू बहाने लायक तरलता उनके कठोर
मानस में कहाँ से आ सकती है?
उपनिषदों
ने इस विश्व में प्रेम के रूप में परमात्मा के दर्शन किये हैं। “रसों वै स” की
घोषणा करते हुए शास्त्र ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रेम ही परमात्मा है।
परमात्मा का सजीव मूर्तिमान निवास यदि कहीं देखना हो तो प्रेमी का हृदय ही इसका
उपयुक्त स्थान हो सकता है। आत्मा का कायाकल्प प्रेम भावनाओं की रसायन सेवन करने से
ही होता है। वह इसे ही पी−पीकर परमात्मा बन जाता है। स्वाति की बूँद सीप के गर्भ
में जाकर मोती बन जाती है, आत्मा रूपी सीप
में जब प्रेम की स्वाति बूँद प्रवेश करती है तो वहाँ थोड़े ही समय में परमात्मा
रूपी मोती का दर्शन होता है। धूप की गर्मी पाते ही कली खिलकर फूल के रूप में परिणत
हो जाती है। आत्मा पर प्रेम का प्रकाश पड़ने से वह परमात्मा के रूप में, महात्मा के रूप में विश्वात्मा के रूप में विकसित हुई दृष्टिगोचर होने
लगती है। आत्म विकास का आधार आखिर प्रेम ही तो है।
परमात्मा
को पकड़ने का, वश में करने का, प्रेम
के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। भक्ति का अर्थ है प्रेम। भक्त और प्रेमी दोनों
शब्दों का तात्पर्य एक ही है। इस संसार का यह प्रकट रहस्य है कि जिस वस्तु को हम
प्रेम करते हैं वह मिल जाती है। विद्या, धन, स्वास्थ्य, कीर्ति, वासना,
विलासिता आदि जो कुछ हमें प्यारा है उसके लिए प्रयत्न किये जाते हैं
और उन प्रयत्नों के पीछे जितना उत्साह, विवेक, श्रम एवं मनोयोग लगता है उतनी उसमें सफलता भी मिलती है। अध्यात्म जगत में
ही यही नियम काम करता है। आत्म−कल्याण में, परमात्मा की
प्राप्ति में यदि हमारी प्रीति और प्रतीति सच्ची होगी तो उस लक्ष की प्राप्ति भी
सुनिश्चित ही हो जायगी।
सकाम
उपासना से लाभ नहीं होता ऐसी बात नहीं है। जब सभी को मजदूरी मिलती है तो भगवान
किसी भजन करने वाले की मजदूरी क्यों न देंगे? जब
भौतिक पुरुषार्थों का लाभ मिलता है तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ क्यों निष्फल जायेगा?
जितना हमारा भजन होगा जिस श्रेणी का हमारा भाव होगा उसके अनुरूप
हिसाब चुकाने में भगवान के यहाँ अन्याय नहीं होता। पर यहाँ यह ध्यान रखने की बात
है कि व्यापार बुद्धि से किया हुआ भजन, अपने अनुपात से ही
लाभ उत्पन्न कर सकता है।
निष्काम
भाव से आत्म−दान करने वाली पत्नी विवाह के बाद ही पति की विशाल सम्पत्ति की
अधिकारिणी बन जाती है। पर वेश्या को यह लाभ कहाँ मिलता है?
वह अपने शरीर का इतने समय का इतना मूल्य ठहरा लेती है, फिर उसे उतना ही मिलता है। सारे जीवन अनेक पुरुषों को शरीर बेचते रहने पर
भी वह उतना नहीं कमा सकती जितना धर्मपत्नी का एक दिन में ही पति के कमाये हुए पर
उत्तराधिकार मिल जाता है। फिर वेश्या का आदर भी किसी की दृष्टि में क्या है?
पत्नी के बीमार होने पर पति उसकी चिकित्सा पर अपनी सारी कमाई खर्च
कर सकता है, अपना रक्त भी दे सकता है पर वेश्या के बीमार होने
पर कौन व्यभिचारी उसके लिए कुछ भी त्याग करने को इच्छुक होगा? भक्ति का वेश्यावृत्ति की तरह नहीं पतिव्रता की तरह प्रयोग करना चाहिए।
भक्ति भावना का, ईश्वर उपासना का मुख्य लाभ भौतिक सम्पदाऐं
जुटाना नहीं, आत्म-कल्याण ही है। भक्ति का उद्देश्य मानव
अन्तःकरण में प्रेम भावना की अभिवृद्धि करना है जिससे वह महान मानव बनकर अपने
चारों ओर सत्यं शिवं सुन्दरं से परिपूर्ण एक दिव्य वातावरण उत्पन्न कर सके।
निष्काम
उपासना में दुहरा लाभ है। घट−घटवासी सर्वव्यापी भगवान यह भली प्रकार जानते हैं कि
मेरे किस पुत्र को क्या कष्ट है। वे करुणा के सागर अनन्त वात्सल्य से ओत प्रोत हैं, प्राणिमात्र का निरन्तर हित साधन करते हैं तो फिर अपने भक्तों का क्यों न
करेंगे? हम स्वयं नहीं जानते कि हमारा हित किसमें और अनहित किसमें
है? रोगी को क्या पता है कि उसके लिए क्या आहार पथ्य और क्या
कुपथ्य है? इसे वैद्य ही जानता है। जो कुछ हमारे लिए आवश्यक
है वह मिलने ही वाला है। उस उपलब्धि को हम परमात्मा पर ही क्यों न छोड़ दें। अपना
कर्तव्य पालन करने की जिम्मेदारी निबाहते हुए फल का निर्णय उस करुणानिधान पर ही
क्यों न छोड़ दें जो अपनी सहज उदारता से हमें निरन्तर बहुत कुछ देता ही रहता है।
सच्चा
प्रेम निष्काम भावना की अपेक्षा करता है। स्वार्थपूर्ण प्रेम न संसार में सफल होता
है और न आत्मिक क्षेत्र में। उससे न कोई मनुष्य अपना बनता और न परमात्मा। प्रेम का
स्वरूप ही निस्वार्थ है। परमात्मा से स्वार्थपूर्ण कामना,
मिश्रित नकली प्रेम कहाँ तक निभ सकेगा? जैसे
मतलब की दोस्ती जरा−सी बात पर टूट जाती है वैसे ही सकाम कामना वाली भक्ति में भी
स्थायित्व कहाँ होता है? मतलब सिद्ध हो गया तो फिर भक्ति से
क्या प्रयोजन? और मतलब न निकला तो फिर पूजा पाठ में सिर
मारने से क्या लाभ? इस
प्रकार दोनों ही स्थितियों में स्वार्थपूर्ण भक्ति टूटती है। उसका अन्त असफलता में
ही होता है।
मेरे विचार और अनुभव से जब तक
आप्के प्रेमाश्रु न्ही निकलते हैं। तब त्क आप्की बह्क्ति परिपक्व नहीं हुई है आप यह
जान लें। जब प्रभु के नाम का वर्णन करते हुये रोमांच के साथ प्रेमाश्रु न गिरें। तब
तक आपको संतुष्ट नहीं होना चाहिये। यही प्रेमाश्रु आपको भक्ति के प्रेम की और विरह
की सच्ची अनुभुति करवाते हैं।
सच्चे
भक्तों को मैं शीश झुकाकर नमन करता हूं।
जय श्री
कृष्ण
जय महाकाली
गुरुदेव। जय महाकाल भक्तों को सम्भाल।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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