क्या है
षट्दर्शन और भारत का ज्ञान
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
'दर्शन' शब्द पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'दृशिर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना,
‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ
केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनि ने धात्वर्थ में
‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं
द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस
प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन
सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही
होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन,
मीमांसा दर्शन आदि-आदि।
दर्शन ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से
निष्पन्न है।
देखिये सनातन का ज्ञान वैदिक कहलाता है।
मतलब पहले वेद आये।
फिर उनपर ऋषियों ने शोध किया अनुभव किया तब हुआ उपनिषदों का निर्माण।
जो हजारों थे। नष्ट होने के बाद भी करीबन 108 उपनिषद मिल जाते हैं।
कुछ वैसे ही जैसे आजकल पी.एच.डी.
करते है। थीसिस लिखते हैं। आप भाग्वत का यह श्लोक देखें। ज्ञानं परमगुह्मं में यद्
विज्ञानसमंवितम्। सर्हस्यं तदंग च गृहाण गदितं मया॥
इस
श्लोक की व्याख्या स्व. जयदयाल गोयनका (गीताप्रेस, गोरखपुर) ने बहुत सुदर करते हुये कहा है।
“ ब्रह्मन! मेरे निर्गुण-निराकार
सच्चिदानन्द स्वरूप के तत्व, प्रभाव, माहात्म्य का यथार्थ ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
“मेरे
सगुण-निराकार और दिव्य साकार-स्वरूप के लीला, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य
और माहात्म्य का वास्त्विक ज्ञान ही “विज्ञान” है।
मतलब तब का विज्ञान वेदों से ही था अत: शोध और प्रयोग
और पी.एच.डी. भी वेदों पर।
अत: उपनिषद को वेदांत कहते हैं।
फिर आये शास्त्र जो और अधिक विद्ध्यार्थियों द्वारा शोधित
हुये तो बने पुराण। वहीं वेदों को गुणवत्ता के आधार पर छह दर्शनों में बांटा।
नीचे प्रमुख दर्शनशास्त्रों के प्रथम सूत्र दिये गये
हैं जो मोटे तौर पर उस दर्शन की विषयवस्तु का परिचय देते हैं-
अथातो धर्मजिज्ञासा (पूर्वमीमांसा)
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। (वेदान्तसूत्र)
अथ योगानुशासनम्। (योगसूत्र)
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। (सांख्यसूत्र)
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात्निःश्रेयसाधिगमः
। (न्यायसूत्र)
(अर्थ : प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन,
दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय,
तर्क, निर्णय, वाद,
जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास,
छल, जाति और निग्रहस्थान का तत्वज्ञान
निःश्रेयस या परम कल्याण का विधायक है।)
भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। "वेद"
भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति,
साहित्य आदि सभी के मूल स्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक
कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है।
अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण
मानते हैं।
आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह
सकते।
वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन
है।
उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश
है।
वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार
भी मिलते हैं।
चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की
वनराजियाँ विकसित हुई हैं।
अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते
हैं।
ये "आस्तिक दर्शन" कहलाते हैं।
प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के
अंतर्गत हैं।
जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र
मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्राय:
पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना
है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000
ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं।
इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं
के समय का अनुमान करना कठिन है।
प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के
विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे,
इसमें कोई संदेह नहीं।
उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक
छोटा सा अंश है।
प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं
हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया
होगा।
वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि
उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है।
निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा।
वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति "वेद" किसी एक ग्रंथ का नाम
नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं।
"वेद" एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल
परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक
परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना
जाता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान
सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।
वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है।
ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते
हैं।
मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को
"संहिता" कहते हैं।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ
के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक
कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है।
इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण,
सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं
की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं।
यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था।
वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान सन्यासप्रधन
नहीं है।
वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास
ओतप्रोत है।
जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है।
ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है।
वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान,
स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय
आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय
लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्
ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी
लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके
प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में
आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है,
ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं।
उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है।
चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते
हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं।
ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते
हैं।
इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ,
प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य
आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है।
ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है।
ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं।
"आत्मा" विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों,
मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक
अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है।
अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत्
में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है।
आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है।
उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त
हो जाता है।
अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से
जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है,
इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है।
किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों
के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत
है।
दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन
वेदांत मतों का आधार बना।
वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को
"वेदांत" भी कहते हैं।
उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और
संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है।
अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों
में व्यक्त हुए हैं।
उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है।
ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है।
वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है।
गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है।
तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का
साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है।
सन्यास, वैराग्य, योग, तप,
त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है।
इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत
दिखाई देता है।
तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों
की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन
हैं।
हिन्दू दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के आस्तिक
दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ भी विद्यमान रहीं
हैं।
1. न्याय दर्शन
महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान
से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की
निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति
होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि
का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।
इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें
जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
2. वैशेषिक दर्शन
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप
का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को
धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता
है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से
मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है,
जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके
अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों
ही चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों
को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
3. सांख्य दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें
सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका
प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है।
सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से
सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के
परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित २४ कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष
२५ वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का
कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो
प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति
स्वयं भोक्ती नहीं है।
4. योग दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग
क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के
क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत
के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां
बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार
परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से
परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
5. मीमांसा दर्शन
मीमांसासूत्र इस दर्शन का मूल
ग्रन्थ है जिसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं।इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा
यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का
उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से
राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड
मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन
भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान
का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है।
उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं
समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
6. वेदांत दर्शन
वेदांत का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। महर्षि
व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल
ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत
का कर्ता-धर्ता व संहार कर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न
कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से
रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो
ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा
है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा
स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा
हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे
भिन्न है।
आगे चलकर वेदान्त के अनेकानेक सम्प्रदाय (अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत,
विशिष्टाद्वैत आदि) बने।
षड दर्शनों के अलावा लोकायत तथा शैव एवं शाक्त दर्शन
भी हिन्दू दर्शन के अभिन्न अंग हैं।
वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का भी नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न
पा सका।
इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है।
"बृहस्पति सूत्र" के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के
उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और
भौतिकवाद है।
इसके अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।
अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं।
प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है।
आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं।
भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है।
देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है।
आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का
लक्ष्य होना चाहिए।
उपनिषदों के अध्यात्मवाद तथा तपोवाद में ही वैदिक
कर्मकांड के विरुद्ध एक प्रकट क्रांति का रूप ग्रहण कर लिया। उपनिषद काल में एक ओर बौद्ध और जैन
धर्मों की अवैदिक परंपराओं का आविर्भाव हुआ तथा दूसरी ओर वैदिक दर्शनों का उदय हुआ।
ईसा के जन्म के पूर्व और बाद की एक दो शताब्दियों में अनेक दर्शनों की समानांतर
धाराएँ भारतीय विचारभूमि पर प्रवाहित होने लगीं। बौद्ध और जैन दर्शनों की धाराएँ
भी इनमें सम्मिलित हैं।
जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ।
महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे।
महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों
का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है।
इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का
प्रवर्तन किया।
वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को
"नास्तिक दर्शन" भी कहते हैं।
इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के
उपदेशों के रूप में है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है
तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके
अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ।
बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे।
युवावय में ही सन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का
उपदेश और प्रचार किया।
उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है।
जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी
उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन
धर्मों की विशेषता है।
अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं।
फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने
का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर
जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है।
महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम
सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक
शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं।
सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी
तथा दसरी ओर भौतिकवादी है।
वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है।
जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और
विस्तारशील है।
पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और
विस्तार होता है।
स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है।
वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों
के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान।
पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की
अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान
है। यही ज्ञान "प्रमाण"
है।
किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान
"नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता
जैन दर्शन का सिद्धांत है।
यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता
को संभव बनाती है।
सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते
हैं।
पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है।
वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा
का कैवल्य है।
कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को
आच्छादित करती है।
यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन
है।
तप, त्याग और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा
संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है।
इसका अंत "निर्वाण" में होता है।
निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद
प्रकाशित होता है।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं।
ये
सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं।
ये
पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं।
क्रियाशील
सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है।
बुद्ध
के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है।
पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई
अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है।
बाह्य
और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है।
बाह्य
पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं।
आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है।
इस
प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की
स्थापना की गई है।
आत्मा
का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं।
दु:ख
से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा।
अविद्या,
तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण
का मार्ग बताया।
अनात्मवादी
होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ।
इस
विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा।
किन्तु
एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ।
बुद्ध
के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए।
सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन
प्रसिद्ध हैं।
इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में
हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है।
योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में
हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों
में हुआ।
इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ।
इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का
आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है।
पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में
उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे।
वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के
रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है।
अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा
"सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं।
सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है।
अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं।
योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं।
हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है।
योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है।
माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है।
सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है।
शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट
आ जाता है।
कुल मिलाकर आप देखेगें कि भारत
की महान भूमि को सम्पूर्ण जीवन रहस्य की धरोहर दी है। अत: जो इसको समझ पाता है वह दीवाना
हो जाता है। शायद यही कारण रहा है कि भारत विश्व का धर्म गुरू रहा। बीच में अनूकूल
वातावरण न होने के बावजूद भी यह पनपता रहा\ आगे अनूकूल वातावरण मिलने के कारण यह
पुन: विश्व का धर्म गुरू बनकर विश्व शांति का मार्ग दिखायेगा।
जय गुरूदेव महाकाली।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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