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Tuesday, November 20, 2018

कुछ प्रश्न कुछ उत्तर



कुछ प्रश्न कुछ उत्तर


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


किसी मित्र ने पूछा था कि शिव और शक्ति का मानव रूप में आना सम्भव क्यो नही। 
देखो मित्र कृष्ण विष्णु के रूप। विष्णु इस दृश्यमान जगत के मालिक। क्योकि उनकी पत्नी कौन शक्ति कौन लक्ष्मी। लक्ष्मी की आवश्यकता पड़ती है जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व तक बस। यानि विष्णु मालिक जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व। तो इस रूप में कौन आ सकता है। 
दूसरे मानव यानि आठ कला का पुतला। उसका मालिक विष्णु। इस कला में क्षमता नही कि शिव और शक्ति की कला जो आठ से अधिक उसको वहन कर सके। पर सिद्ध पुरुष 12 कला तक यानि वे शिव शक्ति से सायुज्य प्राप्त कर सकते है। पर पूरे शिव नही।
अतः श्री कृष्ण जो 16 कला के थे सिर्फ उन्हीं का रूप मानव की 8 कला तक की योनि में आ सकता है।

एक बात और यदि आप साकार में किसी की भी पूजा करे। आपके बजरंग बली सहायक रहते है। पर कृष्ण भी साकार में स्वतः आकर आपको निराकार का अनुभव करा देते है। 
ग्रुप के एक सदस्य की माँ माता जी के सायुज्य में है। पर उनको कृष्ण दर्शनाभूति हुई। वे परेशान। मेरे पास सन्देश आया। पर इसका अर्थ है अब उन्हें शीघ्र ही निराकार की अनुभूति कृष्ण करायेगे।
एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी । उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया।
वही थोड़ी दूर पर एक साधु हाथ में माला लेकर मनको को गिन गिन कर माल फेर था। तभी उसकी नजर ग्वालन पर पड़ी और उसने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा ।
उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम करती है इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया ।
यह बात साधु के दिल को छू गयी और उसने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है तो उसका हिसाब नही रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हुँ, उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हुँ। मुझसे तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उसने माला तोड़कर फेंक दी।

जीवन भी ऐसा ही है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है, और जहाँ हिसाब किताब होता है वहाँ प्रेम नही होता है, सिर्फ व्यापार होता ।
अतः प्रेम भलेही वो पत्नी से हो , भाई से हो , बहन से हो , रिश्तेदार से हो, पडोसी से हो , दोस्त से हो या फिर भगवान से । निस्वार्थ प्रेम कीजिये जहाँ कोई गिनती न हो , बस प्रेम हो ।

कुछ मत मांगो कुछ मत बोलो। सब स्वतः मिल जाता है। माँगनेवाला तो भिखारी होता है। प्रभु से भीख नही प्रभु को मांगो। बल्कि मांगना तो प्रभु पर सन्देह करना होता है।

आज मेरा मन व्यथित हुआ। मतलब अच्छा नही लगा। ग्रुप के एक सदस्य को क्रिया हो रही है। पर उनके पास इतना धन नही कि वे रेलवे टिकट ले सके और दीक्षा के लिए जा सके। उनको सहायता की पेशकश मैने नही की। क्योकि उनको बुरा न लगे। अतः मैंने उनकी माँ जिनको माता जी का सायुज्य प्राप्त है। पर वे गुरू नही है। उन्ही को गुरू मानने को बोल दिया। ताकि इनकी शक्ति अपनी माता जी की शक्ति से जुड़ जाये और इनकी क्रिया नियंत्रित हो सके।
कारण इनकी माँ को कोई ऐसी क्रिया या आवेग नही होता है जो अनियंत्रित हो। मतलब वह माँ जगदम्बे की शक्ति को संभाल पा रही है। 
उनकी माता बिना पढ़ी लिखी है। बचपन से माता का जाप करती आ रही है। अनिको अनुभव और दर्शनाभूति कर चुकी है। याबी उनको कृष्ण दिखते है। मतलब वे निराकार का भी अनुभव करनेवाली है मुझे ऐसा लगता है।
कभी कभी स्वतः ज्ञान प्राप्त बिना गुरू के भी भक्ति की पराकाष्ठा में पहुँच कर उस स्तर पर पहुँच जाते है जहाँ शक्ति स्वयं गुरु बन जाती है। ऐसा कम होता है पर होता है।
जैसे रमण महृषि, अरविंद घोष इत्यादि।

वेदों द्वारा सिर्फ मार्ग दर्शन हो सकता है। ज्ञान प्राप्त नही हो सकता सब मात्र शब्द है।
ज्ञान तो तब ही होता है जब हम अपने अंदर से होकर अपने को पढ़ने लगते है।
पर यू समझो। एक समय था कि सँस्कृत मात्र जन्मने ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे। उस समय जन्मे गोरखनाथ ने पूर्वी भाषा मे शक्ति देकर कुछ शब्दों को मन्त्र का रूप दे दिया। जो शाबरी मन्त्र कहलाते है।
देखो जब कोई सिद्ध अपनी शक्ति से किसी शब्द को जागृत कर देता है तो वह जागृत ही रहता है।
जैसे आज के समय सारे मन्त्र सारे शब्द नाम जप सब सिद्ध हो चुके है क्योंकि इतने सन्तो ने इनको जपा की ये जागृत ही हो गए है।

चलो बताता हूँ। मैंने ओशो की मैगजीन में एक महिला की बात सुनी तो दंग रह गया। उसने बताया था साधना कक्ष में उसने 200 से अधिक लोगो से सम्पर्क बनाया था।
यह क्या है साधना या इसकी आड़ में वेश्यालय।

जी आप mmstm करे पहले। निडर होकर। व्यर्थ की चिंता और प्रश्न छोड़कर।
जप तो किसी भी अवस्था मे किया जा सकता। अब यह क्या मुठी बन्द खुली। इसका क्या महत्व है। सुखासन में करे। मतलब जो आपको उचित लगे। बैठे रहे फिर लेट जाएं कोई फर्क नही। कैसे भी जप में देहभान न रहे।
कोई नई बात नही है। करते रहो।
जो तुमने महसूस किया वो ही है।
यह नाद है।
देखो ईश शक्ति तुम जिस रूप में पूजती हो मन्त्र जप करती हो उसी रूप में प्रायः प्रकट होती है।
मित्रो। कल चर्चा में लोगो ने " आत्म अवलोकन और योग" नाम की पत्रिका निकालने का सुझाव दिया।
विचार अच्छा लगा। आपकी क्या राय है।
कृपया मूल्य सदस्यता शुल्क इत्यादि पर भी विचार व्यक्त करें। क्योकि बिना धन कोई कार्य नही होता है। हर मनुष्य की धर्मार्थ एक सीमा होती है। मेरी भी है।
नही अधिक नही। मात्र लागत शुल्क वह भी न्यूनतम वार्षिक। पर अधिकतर आजीवन सदस्य।
टेबलेट साइज में छापा जाय।
बच्चे यथार्थ में आओ। 
5 रुपये का तो डाक टिकट लग जाता है।
देर आये दुरुस्त आये। यदि लंबा चलना है तो लंबा सोचना पड़ेगा।
प्रिंटर को बुलाया है। प्रारूप तय करता हूँ।
पुस्तक हमेशा चार के गुणन में रहती है।
कारण बाइडिग भी कीमत बढ़ाती है। सेंट्रल पिन सबसे सस्ती पड़ती है।
साइड पिन और स्पिनिग महंगी गिर जाती है।
श्री मिश्र जी हिंदी विज्ञान साहित्य परिषद के उपाध्यक्ष है।
श्री मिश्र जी हमारे सहयोगी सदस्य रहेगे। आरम्भ में श्री मिश्र ने रुपये 5000 देने की घोषणा भी कर दी।
मैं समझता हूँ। आजीवन हीरक सदस्य की राशि यही रखी जाए।
मैं सोंचता हूँ। आजीवन सदस्य हेतु
हीरक सदस्य 5000
स्वर्ण 4000
रजत 3000
सामान्य 2000
वार्षिक 200
एक अंक 25
यह मात्र सुझाव है।
ग्रुप में गुड मॉनिग कट पेस्ट और फोटो वर्जित है। 
सिर्फ अनुभव और स्व लेखन का स्वागत है। सार्थक वार्तालाप सिर्फ सनातन अनुभव परेशानी अनुभूति इत्यादि ही पोस्ट करे।
शब्दो के माया जाल से, ज्ञान नही मिल जाय।
विपुलन मूरख ही भला, मन ही मन मुस्काय।।

देखिये मित्र। आपका ध्यान परिपक्व होना चाहता है। चूँकि आपने निराकार ध्यान किया अतः आपको शक्ति किस रूप में सहायता करे। ध्यान हमेशा साकार सगुण ही श्रेष्ठ है बिना गुरू के। क्योकि तब शक्ति उसी साकार मन्त्र रूप में सहायता करती है।
खैर आप ग्रुप डेस्करप्शन में दी गई mmstm विधि द्वारा अपनी अवस्था को चेक कर सकते है।

आपके अनुभव के अनुसार आपको शक्तिशाली गुरू तक पहुँचा दूंगा। 
जहां आपकी शक्तिपात दीक्षा के बाद कुण्डलनी भी जागृत हो जाएगी।
तब आपको कष्ट नही आनन्द की प्राप्ति होगी। विज्ञान के परे अनुभूतिया अनुभव होंगे।
यार आशीर्वाद में भी दादागिरी। वैसे बालक तुम घुघरू की आवाजों से परेशान थे।

मैं फकीरी को गजल में आशिकी लिखता रहा।
कतरा कतरा खुदकशी को जिंदगी कहता रहा।। 

समझनेवाले दिल पर आघात महसूस करेंगे।
सोंचता हूँ दत्त जयंती को पहला अंक निकाल दू। देखता हूँ बाकी इच्छा भगवान की।
यार एक दिन में सब नही होता है। तुम ही डिजैन कर भेजो।
यही मेरा विचार है।
किस तरह की बीमारी। या तीव्र ज्वर इत्यादि।

मेरे एक मित्र है। mmstm के विरोध में चर्चा में कहने लगे मैं पिछले 35 साल से रोज 100 से 1000 गायत्री मन्त्र कर रहा हूँ। इसके अलावा महामृत्यंजय मन्त्र भी कर रहा हूँ। मुझे आज तक दर्शन नही हुए। mmstm से कैसे होंगे। दर्शन वर्शन सब गलत है कुछ नही होगा क्योकि होता ही नही है।
मैं चुप रहा। बस मैंने कहा भाई mmstm में यश अनुभूति या दर्शन क्यो होते है मुझे नही पता पर मेरी चुनौती नास्तिक आस्तिक सबको है करो तो। 
तो वे मजाक बनाने लगे। यह क्या है आंख बंद करो फिर खोलो जाप करो वगैरह वगैरह।

अब मित्रो इसका क्या जबाब दू। मैं उनको जानता हूँ जो एक दिन में 1000 से अधिक माला तक करते है नवार्ण मन्त्र की। कारण यह भी है कि यह जगत का सबसे शक्तिशाली मन्त्र है अदीक्षित के लिए। साथ ही छोटा है। जो महामृत्युंजय और गायत्री की तुलना में कम समय लेता है अतः अधिक किया जा सकता है।

एक बात और यदि तुम अपने मन्त्र जप का अपने अध्य्यन का अहंकार करोगे तो ईश तुमको न मिलेगा न दिखेगा।

Mmstm विधि में मेरा कोई क्रेडिट नहीं सब प्रभु कृपा से होता है। न मेरी दखल और न औकात। सिर्फ प्रभु ने जगत में सत्य सनातन की शक्ति दिखाने हेतु इस साधारण सी विधि का अविष्कार करवाया।
अब आप बताये क्या गलत क्या सही।

वाह दुनिया का अर्थ प्रसाद का दोना भी छोटावाला होता है।
अहम ब्रह्मास्मि अहंकार की सर्वोच्च अवस्था है।
हो ही नही सकता। उस समय आता है बाद में चला जाता है। सब सामान्य।
नही। यह शांत है।
सिर्फ रोमांच।
हो ही नही सकता तब यह अनुभव होगा ही नही। अपूर्ण है। क्योकि शरीर मे आंतरिक कुछ अजीब तरह का होता है।
शरीर मे रोमांच उत्तेजना की तरह। ऐसा लगता है कि कुछ सर की तरफ चढ़ रहा हो। कुछ छड़ो के सोच इत्यादि सब ज़ैप हो जाती सिर्फ एक ही भाव की मैं ब्रह्म हूँ।
उस वक्त आप अन्य कार्य नही कर सकते।
वास्तव में मुझे 5 में से मात्र दो ही अनुभव पूर्ण हुए है। 3 बाकी है। ईश ने चाहा तो वह भी हो जाएगा।
अहम ब्रह्मास्मि वो भी साकारवाले। निराकार नही।
अयम आत्मा ब्रह्म। यह हुआ।
प्रज्ञान ब्रह्म, तत्वमसि और सर्ब खलुमिदम ब्रह्म नही हुआ।

चेक किया क्या।
देखो मेडिकली भी लापरवाही नही करनी चाहिए।
पहले चेक कराओ। हो सकता है वाइरल हो।
उसका ज्वर और दर्द अलग तरह का होता है। उसमें इतनी तकलीफ नही होती।
मैं सहमत नही। मन्त्र जप ही अनायास देव दर्शनाभूति करवाता है। साथ ही अहम साकार रूपेण ब्रह्म इसकी भी अनुभूति करवाता है।
मन्त्र के पीछा खुद छूटे तो चलेगा क्योकि यह देहभान जाने पर या प्रगाढ़ ध्यान या हल्की फुल्की समाधि कह लो उसमे खुद चला जाता है। 
पर हमको खुद मन्त्र जानबूझ कर नही छोड़ना चाहिए।
क्योकि मन्त्र एक रस्सी है जो हमको प्रभु से गुरू से बांधे रहती है

एक पंडीत रोज राणी के पास कथा करता था ।कथा के अंतमे सबको कहता कि " राम कहे तो बंधन टूटे "!
तभी पिंजरे में बंद एक तोता बोलता ... यू मत कहो रे पंडित झूठे । पंडीत को क्रोध आता कि ये सब क्या सोचेंगे ? रानी क्या सोचेगी ।
पंडित आपने गुरु के पास गया , गुरु को सब हाल बताय् । गुरु तोते के पास गये और पुछा तुम ऐसा क्यो कहते हो.... ?
तोते ने कहाॅ...  मै पहले खुले आकाश में उडता था। एक बार आश्रम में जहाॅ सब साधु - संत राम- राम - राम बोल रहे थे ।वहाॅ बैठा तो  मैने भी राम - राम बोलना शूरु कर दिया । एक दिन उसी आश्रम में राम - राम - राम बोल रहा था । तभी एक संत ने मूझे पकड कर पिंजरे में बंद कर दिया । फिर मुझे एक दो श्लोक सिखाये । आश्रम मे एक शेठ ने कुछ पैसे देकर मुझे खरीद लिया   और चांदी के पिंजरे में रखा , मेरा बंधन बढता गया । निकलने की कोई संंभावना नही रही । एक दिन उस सेठ ने राजा से कुछ काम निकलाने हेतू मुझे राजा को गिफ्ट कर दिया । राजा ने खुशीखुशी मूझे ले लिया क्यों की मै राम - राम जो बोलता था ! रानी धार्मिक प्रवृत्ती की थी   तो राजा ने रानी को दे दिया । रानी ने मूझे सोने के पिंजरे मे रख दिया । अब मै कैसे कहू कि.... राम - राम कहे तो बंधन टूटे .... ! तोते ने गुरु से कहा अब आप ही कोई युक्ती बताये  जिस से मेरा बंधन छूट जाए ।
 ' सतगुरु ' बोले आज तू चूपचाप सो जाओ ... जरा भी हिलना नही  रानी समझेगी कि,तू मर गया और तुझे छोड देगी । ऐसा ही हूआ ।
दुसरे दिन कथा के बाद जब तोता कुछ नहु बोला .... तब पंडित ने आराम की साॅस ली ।
रानी ने सोचा तोता गुमसुम पडा है , शायद मर गया । रानी ने पिंजरा खोल दिया ....
तभी तोता पिंगरे से निकलकर आकाश मे उडता हुआ बोलने लगा... 
" सतगुरु " मिले तो बंधन छूटें !!
 आप कोई भी शास्र पढलो ,कितना भी राम - राम ,हरे कृष्ण हरे कृष्ण जप कर लो... लेकिन सच्चे " सतगुरु " बिना बंधन नही छुटता ....!

कल रविवार अंशुमन भाई भाभी जी के साथ दोपहर का शानदार भोजन बनाकर पैक कर हमारे निवास पर आए। सबने भोजन किया और फिर लंबी चर्चा और अनुभवों का आदान प्रदान। चर्चा में यही निष्कर्ष निकाला कि शक्तिपात दीक्षा में शक्ति जागरण के बाद क्रिया रूप में वह आसन इतनी सहजता से लग जाते है जो लगभग असम्भव होते है। जैसे खेचरी उड्डयन जलन्धर बन्ध जो सपने में नही सोंचे। दांत एक नया आसन जो शायद कुछ अजीब होता है। नाक का नाभि में स्पर्श करना। 

क्रिया के करोड़ो रूप हो सकते है क्योकि संस्कार और कर्म करोड़ो। 
मूलाधार निवासिनी इहि पर सिद्धि प्रदे।
कालातीता काली कमला तू वर दे।।
नही यार यह व्यक्तिगत है।
लगता है आपने mmstm किया है।
घबराए नही। यह शक्ति है। जागरण के लक्षण है। आप का शरीर परिपक्व नही है। आपको दीक्षा की परम आवश्यकता है।
क्या होता है। जिस प्रकार वेट लिफ्टर धीरे धीरे अभ्यास से अपना वेट उठाने के लायक बनता है वैसे ही हमारा शरीर धीरे धीरे मन्त्र शक्ति उठाने लायक बनता है। हमारा शरीर हमेशा अपवित्र ही रहता है क्योकि हमारे विचार शुद्ध नही होते।
मन्त्र जप धीरे धीरे हमको शुद्ध करता है और मांत्रिक शक्ति को सहने लायक बनाता है।
कृपया लिंक पर लेख पढ़ ले। 3 लेख मन्त्र से सम्बंधित दिए है।
सिर कनपटी में दबाब भारीपन यह अच्छे लक्षण है। मतलब आप मन्त्र सही कर रहे हो।
पहली बात दीक्षा खाला का घर नही जब चाहो मिल जाये। आधो को मना हो जाती है। वर्ष में कुछ निश्चित तिथि पर होती है। तीन दिन रहना पड़ता है। आपके सोंचने से थोड़े ही म8ल जाएगी।
यह तो मैंने देखा। गुरु महाराज की मर्जी न भी दे।

मुझे भी यह महसूस होता था पर अधिक ध्यान नही दिया। पर आपकी बात से बल मिला। यह अन्य दो तत्व आकाश तत्व प्रधान ही होते है शायद।
आप बताये।
तप का अर्थ यह नही होता है कि अपने को भट्टी में जलाओ। यह भी नही होता कर्तव्य पूरे न करो और बैठ कर राम राम करो।
तप का अर्थ अपने लक्ष्य के प्रति सजगता और जागरूकता। इस कार्य मे जो बाधक है उनको दूर करना।
16 को पहुचना होगा। 17 की सुबह 3 बजे दीक्षा होगी। तीसरे दिन शाम तक वापिस लौट सकते हो। याबी देखो नव जीवन मे प्रवेश कर रहे हो। जहाँ सिर्फ अनुभव और अनुभव ही है। कोई वार्ता शब्द पढन नही सिर्फ आत्मानुभूति का रस मिलेगा।
नही डालो बिल्कुल डालो पर छोटे छोटे ज्ञान वर्धक सुबद के समय। जैसे सिर्फ एक प्रश्न एक उत्तर। साथ मे अपने विचार और सोच।
इससे तुमको भी चितन मनन का फायदा होगा।
देखो। कोई माँ के गर्भ से ज्ञानी नही होता। प्रयास करो। लेखन आ जायेगा।
प्रायः मैं खुद उठ जाता हूँ पर आलम लगाकर सोता हूँ। आज नही लगाया था। पर स्वप्न में किसी बालक ने हिलाकर जगाया। उठकर देखा तो 7.10 । कुछ ही लेट।

सही है। अर्थ। 
जब अहंकार था तो हरि थे ही नही। अब हरि है तो अहंकार नही।
कहने का अर्थ है 
हरिनाम ही पावनहारा।
सकल जगत को ये ही तारा।।
जय गुरूदेव महाकाली।  


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...