साधन साधना में अंतर: योग और कुछ उत्तर
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
साधन और साधना में जमीन आसमान का फर्क
होता है।
शक्तिपात दीक्षित यह अनुभव कर सकते है
कि दोनों में क्या अंतर होता है।
कितना भी जोर लगा लो जब साधन होता है
तो साधना कर ही नही पाते। हालांकि यह आरम्भ में होता है। अभ्यास के बाद साधन रोककर
साधना कर सकते है वैसे ही साधना करते करते स्वतः साधन होने लगता है।
प्रायः जगत में साधन और साधना को लोग समझ
नही पाते तो आप यू समझे।
आपने कोई भी अंतर्मुखी होने की साधना की
मान लीजिए मन्त्र जप किया।
फिर अंतर्मुखी हुए।
फिर और जप या साधना करते करते जब आपकी
कुण्डलनी जागृत हुई।
वह भी सौभाग्य से।
क्योकि कई जीवन बीत जाते है कुण्डलनी
जागृत नही होती अतः मनुष्य साधना ही करता रहता है।
साधना में आप खुद कुछ करते है जोर
लगाते है आपके अंदर कर्ता भाव भी रहता है।
पर जब स्वतः कुण्डलनी जागरण, जो बेहद कम होता है, या समर्थ गुरु अपनी शक्ति से
शक्तिपात कर आपकी कुण्डलनी जागृत कर दे।
तब आप जब आसन पर बैठते है तब आपको
स्वतः बिना कुछ किये अनेको अनुभव होने लगते है।
अतः इसे साधन कहते है क्योकि आप कुछ
नही करते सिर्फ गुरु शक्ति खेल दिखाती है।
आप उसके आश्रित होकर सिर्फ दृष्टा भाव
से फ़िल्म देखते है या अनुभव करते है।
मतलब साधना में आपका जोर कर्ता भाव फिर
कुडंलनी जागरण फिर जो स्वतः होता है जिसमे आपके कर्तापन नष्ट होता है वह हुआ साधन।
वही साधना में संस्कार संचित होते है।
साधन में क्रिया के माध्यम से नष्ट होते है।
अब यह समझे इस जगत में हम कर्म करते है
क्रिया नही। क्रिया स्वतः होती है।
हम कुण्डलनी जागरण तक जो प्रयास या तप
या अन्तरमुखी होने का प्रयास करते है वह कर्म है। हम जगत में जो करते है सब कर्म
है।
क्रिया तब होती है जब कुण्डलनी जागृत
हो आप ध्यान में सिर्फ आसन पर बैठे उस समय आपके साथ आपके शरीर के आंतरिक या वाहीक जो
घटित होता है वह क्रिया है। मतलब आपके संस्कार को नष्ट करने हेतु जो स्वतः कर्म इस
शरीर द्वारा हो वह क्रिया है। बाकी नही।
क्रिया बन्द आंख या खुली आंख से भी
होती है।
आप सिर्फ यह देखते है अरे यह क्या हो रहा
है मैं कुछ नही करता हूँ।
यह अपनेआप हो रहा है।
उस अवस्था मे मनुष्य का कर्ताभिमान
नष्ट होता है।
कर्म से कर्ताभिमान बढ़ता है क्रिया में
नष्ट होता है।
अभ्यास होने के साथ आप जगत का व्यवहार
करते हुए भी दृष्टा भाव ला सकते है। उस वक्त आसन इत्यादि गौण हो जाता है। तब आप
जगत कर्म करते हुए भी साधन रूप में आ जाते है तब आपके कर्म और क्रिया एक हो जाते
है।
संस्कार जो पैदा होते है। वह तुंरन्त
कर्म रूपी क्रिया द्वारा नष्ट हो जाते है।
यही निष्काम कर्म है।
आप उस वक्त कर्मयोग में हो जाते है।
जैसे आप देखे। जब मैं बेंगलोर में बेटी
दामाद के साथ सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर गया तब अभ्यास न होने कारण मोटापे और कुछ
एसयू के कारण मात्र 10 सीढी में हांफ गया। तब मैने माँ
भगवती की प्रार्थना की गुरू महाराज गुरू शक्ति को याद किया। और साधन के भाव मे आने
की प्रार्थना की। जिस कारण मेरा चढ़ना एक क्रिया बन गया मेरा शरीर दृष्टा। अतः मैं
बिना थकान ऊपर जाकर आराम से लौट आया।
मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ जब लौटकर आने
के बाद भी थकान रहित था।
यह उदाहरण था कर्म और क्रिया का।
यही अभ्यास करना है।
एकांत अर्थ यह नही लोग न हो। एकांत का अर्थ
है जहां एक भी अंत। यह शिवओम तीर्थ जी महाराज कहते थे। आगे महाराज ने कहा कि जगत
कर्म यदि साधन रूप में हो तो यह क्रिया बन जाते है।
यह लेख उनके लिए बहुत सहायक है जो
अष्टांग योग मार्ग पर चलते है। मतलब प्रणायाम और आसन करते है।
अब देखो अपनी परम्परा के एक सन्यासी
गुरू प्रतिवर्ष नर्मदा नदी की परिक्रमा करते हैं। चलने के कर्म को क्रिया रूप में
उतारकर पूरी नदी का चक्कर।
उनका शरीर कृश हो जाता है। पर इतने
लंबे साधन के बाद मॉनसिक स्थित कितनी प्रभावशाली।
प्रायः लोग मनुष्य और प्रकृति के स्वभाव को
क्रिया समझ लेते है। व्याकरण के अनुसार यह सही है।
परन्तु मेरे हिसाब से योग के अनुसार क्रिया
संस्कार नष्ट करने हेतु होती है।
यदि जगत के प्राकृतिक कर्म को क्रिया माने
तो हम पाते है।
इसमें हमारी संलिपता होती है यानि भोजन
अच्छा बुरा खट्टा मीठा यह भाव उदित होकर निष्काम कर्म की व्याख्या में फिट नही
बैठता।
अतः यह क्रिया नही हुए।
हा बेहद कम या नगण्य लोग ही जगत के क्रम करते हुए लिप्त नही होते उनके लिए
वह कर्म तुंरन्त क्रिया रूप में परिणित होकर नष्ट हो जाता है।
क्रिया वह जिसमे हम कुछ न करे स्वतः हो और वह क्रिया।
इस हिसाब से हम क्रिया को दो भागों बांट सकते है।
पहली प्राकृतिक क्रिया जैसे भूख नीद प्यास इत्यादि।
इसको करने में संस्कार पैदा नहीं होते है और हमारा भाव दृष्टा नही रहता।
यह कर्ताभिमान के साथ हो सकता है।
दूसरी यौगिक क्रिया जो स्वतः हो और प्राकृतिक न हो। इसके होने में संस्कार
नष्ट होते है। दृष्टा भाव रहता है। इसमें कर्ताभाव नष्ट होता है।
प्रायः जगत में लोग प्राकृतिक क्रिया को समझ पाते है।
यौगिक क्रिया हेतु कुण्डलनी जागरण अनिवार्य है।
अब कुण्डलनी किंतने कम लोग जागृत कर पाते
है।
बस उससे कम संख्या में लोग यौगिक क्रिया को समझ पाते है।
क्योकि यह मात्र अनुभव है शाब्दिक नही।
कुछ सम्प्रदाय जैसे आर्यसमाज, ब्रह्मा बाबा और जहाँ तक राधा स्वामी सहित तमाम
लोग कुण्डलनी को मानते ही नही तो वह यौगिक क्रिया को मात्र नेति द्योति कुंजर या
जन नेति ही समझेंगे।
पर यह वाहीक यौगिक क्रिया है। आंतरिक
नही।
नवरात्रि शक्ति पर्व है। सर भारी होना सही
संकेत है। आप मन्त्र जप करते रहे।
कुण्डलनी शक्ति जागृत होने के बाद को जब
साधन होता है स्वतः तब विभिन्न प्रकार से शरीर तोड़ मोड़ के क्रियाये होती है।
जिनमे कुछ को खेचरी जलन्धर उड्डयन बन्ध
इत्यादि स्वतः सहज भाव से लगने लगते है। यही तो शक्ति का क्रियात्मक खेल है।
जो जिंदगी भर प्रयास करके नही होता है वह एक
क्षण में खुद हो जाता है।
कुछ तो ऐसा होता है कभी कभी जो रामदेव के
बड़े बड़े नही कर सकते। जैसे नाभि में नाक का घुस जाना। गर्भ जी अवस्था की तरह सिकुड़
जाना।
व्यर्थ में जानकर कर क्या करना है।
प्रचार क्यो करना है। जिसकी जैसी अवस्था होती है उसे कई जगह भेजता हूँ।
सत्य वह जो समय के साथ परिवर्तित न हो।
असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये।
यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य।
अब अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही
अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब आत्मा ही परमात्मा है।
यानि योग की अनुभूति।
वेदान्त महावाक्य है आत्मा में
परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है।
यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा
यह अनुभूति देता है।
जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है
तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है।
कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस
परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही।
यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर
भोग रहा है मैं नही।
मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा
हूँ।
वो ही सब करता है। मैं कुछ नही।
यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है।
यही ज्ञान और अनुभव होना योग है।
ईश का अंतिम स्वरूप निराकार ही है। वह
निर्गुण ही है।
यह अनुभव करना।
साकार तो सिर्फ आनन्द हेतु जीवन मे रस
हेतु आवश्यक है।
मतलब दोनो क्या है यह समझ लेना।
अनुभव के लेना ही अंतिम ज्ञान है।
सिद्धियां तो बाई प्रॉडक्ट है और
भटकाने के लिए होती है।
यह हीरे जेवरात हमे भटकाने के लिए होते
है।
हमे यदि स्वतः हो जाये तो इन सिद्धियों
का अनुभव ले कर इनको भूल जाना चाहियें।
इसमें फंसना यानी गिरना। मुक्ति में
बाधा।
यह ज्ञान प्राप्त करनेवाला योगी है और
मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद
"शुकरहस्योपनिषद " मेंमहर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके
पुत्रशुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं: (महावाक्य का अर्थ होता है
कि अगर इस एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो
जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं)
समझ कर नही अनुभव कर।
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् :
"सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त
उपासीत। अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके। पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य
भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
"दीखने वाला जगत आनंद से ही
उत्पन्न हुआ है, उसी आनंद से ही स्थित हो रहा है और उस
आनंद में ही लीन होता है इस तरह उल्लिखित आनंद से (जगत) भिन्न कैसे हो सकता
है।।"
राजा, वामदेव जी के चरणों को
प्रणाम कर बोले,"सर्वं खल्विदं ब्रह्म का क्या अर्थ है!
इस महावाक्य का क्या प्रयोजन है ? क्या यह मुँह से बोलने का
ही वाक्य है या सब ब्रह्ममय है। समाधान के लिए स्थिर बुद्धि से देखना है कि सारा
जगत ब्रह्म से ही पैदा हुआ है,ब्रह्म में ही रमता है और लय
होता है आदि भी ब्रह्म और अंत भी ब्रह्म है तथा इसी से कहते हैं कि वह ब्रह्मरूप
अथवा ब्रह्ममय है। मूल रूप से देखने से ब्रह्म एक है।
यह ब्रह्म ही सबकुछ है । यह समस्त
संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में
लीन हो जायेगा। ऐसा ही जान कर उपासक को शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म
की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर वैसा ही हो जाता है।
योग होने के बाद के अनुभव कितने प्रकार
के हो सकते है जिसको प्राप्त कर मनुष्य यह जान सकता है कि योग हो गया। जिनका वर्णन
महावाक्यों और कुछ अन्य जगह मिलता है।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद
"शुकरहस्योपनिषद " मेंमहर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके
पुत्रशुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं: (महावाक्य का अर्थ होता है
कि अगर इस एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो
जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं)
1.
अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद
१/४/१० - यजुर्वेद)
इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि'शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता
है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप
हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
अहम ब्रम्हास्मि एक अदभुत अनुभूति है।
जो हमें ब्रह्म होने का अनुभव कराती है। हमें हमारा वास्तविक स्वरूप जो प्रभु ने
निर्मित किया था उसका अनुभव कराती है। जब यह अनुभूति होती है। उस समय हमारे मन
बुद्धि अहंकार सहित हमारे आकाश तत्व की सभी विमायें पूरे होशोहवास में रहती है पर
सब ही तरफ यह महसूस होता है कि हम ही ब्रह्म हैं। जैसे मन बुद्धि एक तरह से जड़ हो
कर सिर्फ ब्रह्म के भाव मे आ जाती है। मुख से स्वतः वह शब्द जो कभी पढ़े होंगे। अहम
शिव अहम दुर्गा अहम सृष्टि अहम सूर्य इत्यादि निकलने लगते है। यदि हम शिव की
अनुभूति में हो तो हाथ मे ऐसा लगेगा जैसे त्रिशूल आ गया हो। विष्णु में जैसे ऊंगली
में चक्र घूम रहा हो। उस वक्त ऐसा लगता है जैसे हम ही सब कुछ है। यदि यह अस्त्र
किसी का नाम लेकर चला दें तो जैसे उसकी मृत्यु तक हो सकती है। बाकी सब छोटे और
चीटी समान दिखने लगते हैं। यह आवेग कुछ मिनटों तक चलता रहता है। शरीर के अंदर ऐसा
लगता है जैसे कोई घुस गया और मैं शक्तिशाली हो गया होऊँ।
2. तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु
है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद)
तत्त्वमसि का अर्थ है, वह तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह महावाक्य है। इस
महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित,
नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप,अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही
ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि'
कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है,
किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत
में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
3. अयम् आत्मा ब्रह्म:"यह आत्मा
ब्रह्म है"(माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष
(प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं'पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित
रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही'आत्मा' है।
वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण
चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के
रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
4. प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह
प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
यह हिंदू शास्त्र 'ऋग्वेद' का 'महावाक्य' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - "ज्ञान ही ब्रह्म
है"। चार वेदों में चार महावाक्य है। इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म
जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य,
ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी
देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को
प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह
सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला
है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है,
वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
मुझको तुम्हारी स्थिति का पूरा ज्ञान
है भान है। बीच बीच मे साधक भृमित हो जाता है । घबराओ नही यह होता है। थोड़ा घूम
फिर लो किसी देव स्थान पर जाओ। सब ठीक हो जाता है। कभी कभी गुरू शक्ति ही भृमित करती
है ताकि साधक अपने कर्म फल भी भोगता चले।
इसी लिए मैं कहता हूँ जब मौका मिले बीच
बीच मे अपने गुरू से मिलते रहो। ताकि तुम्हारी रिपेयरिंग होती रहे।
चार नही पांच।
चार शुकदेव महाराज ने एक वाम देव
महाराज ने।
प्रचलित चार के नाम से ही।
पहला अहम ब्रह्मास्मि मतलब मैं ही
ब्रह्म हूँ।
दूसरा तत्वमसि मतलब वह तत्व तू ही है।
तीसरा अयम आत्मा ब्रह्म मतलब मेरी
आत्मा ही परमात्मा
चौथा प्रज्ञान ब्रह्म मतलब जो कुछ भी
मुझे पृकृति का ज्ञान है वह ब्रह्म है।
पाँचवा सर्व खलमिदम ब्रह्म मतलब
मैं करता मुझे भासता है वह ब्रह्म है। यानि शिवोम महाराज का भजन
जिधर देखता हूँ अया देखता हूँ। मैं तेरा ही जलवा बया देखता हूँ।
कुछ यूं समझो सबने एक ही बात कही पर यह
लक्षण है योग होने के बाद के जो कुछ भिन्न हो जाते है।
प्रायः अहम ब्रह्मासमी का अनुभव साकार
उपासक को होता है।
अयम आत्मा ब्रह्म यह अनुभव ॐ का जाप
देता है। साकारवाले को भी होता है।
निराकार को प्रज्ञान ब्रह्म का अनुभव
होता है।
सर्व खलविदम ब्रह्म यह सभी अनुभवों में
अंतिम है और यह भी साकारवाले को होने की संभावना अधिक है।
क्योकि इसमें ही आकर मनुष्य साकार
निराकार द्वैत अद्वैत सगुन निर्गुण एक ही है यह अनुभव करता है।
तत्वम असि भी साकारवाले को आसानी से
निराकारवाले को देर में होता है।
कुछ यूं समझो जैसे वायु है। एक नए
अनुभव किया और कहा। यह जो बाहर वायु है हम इसी से सांस लेते है। दुसरे ने कहा जो
अंदर लेते है वो ही बाहर आती है और सर्वत्र फैल जाती है। तीसरे ने कहा जो अंदर
लेते है वह नाड़ियों में भी प्रवाहित हो जाती है। चौथे ने कहा अंदर लेकर वह अन्य
रूप धारण करती है।
वामदेव ने कहा हा जो तुम सबको अनुभव
हुए वो एक ही है। वो ही सर्वत्र है।
अपने आप।
मुख से सिर्फ ब्रम्हास्मि के रूप
निकलते है। अनुभव के साथ।
बाकी अनुभव है। कोई आवाज नही। आंखों से
दिखता है।
इनमे से कोई भी अनुभव हो सकता है।
हा सूक्ष्म रूप में अलग। कुल मिलाकर
वायु के उदाहरण के अनुभव।
पर अंत एक।
उसके ऊपर कुछ नही।
साधन करनेवाले को जैसे अचानक चारो ओर
जल ही जल का भरम जिसमे मैं डूबता हूँ उतराता हूँ। कुछ अजीब से।
हा यही समझो।
सर्व खलमिद ब्रह्म के बाद कुछ नही।
क्योकि यह अंतिम अनुभव है जो महाराज जी का भजन कहता है।
यह क्षणिक या कुछ मिनट का होता है।
प्रायः यह निराकार ही करते है।
साकार को जैसे कोई ईश दिखा फिर वह अन्य
देवो का रूप लेकर विभिन्न प्राणियों में बदलने लगा कभी प्रकाश कभी अंधकार इत्यादि।
यह भी अनुभव करवाता है कि हर प्राणी में तू ही है। प्रज्ञान ब्रह्म।
नही शून्य नही।
यह समझनेवाले की गलती होती है। शून्य
जगत में है ही नही।
जब आदमी अनुभव में कुछ नही देखता है तो
कहता है शून्य। पर यह सोंचो देखा किसने। यदि कोई देखनेवाला है तो शून्य कहां वहाँ
तुम तो थे।
बिल्कुल वैसे ही जैसे इलेक्ट्रान की
ऊर्जा कैसे नापोगे। नापने के लिए कुछ मापन हेतु उसपर ऊर्जा डालोगे। जब उस पर ऊर्जा
डालोगे तो इलेक्ट्रॉन विचलित होगा। तब उसकी सही स्थिति और ऊर्जा कैसे नापोगें।
शून्य यदि कुछ नही होता तो संख्या के
पीछे लगकर दस गुना कैसे होता।
शून्य एक गणितीय काल्पनिक और आज की
गणित में स्थान सहित सङ्ख्या ही है।
प्रभु जी शायद इसी लिए ईश ने मेरा चयन
किया है जो गणितीय और वैज्ञानिक तरीके से भी आध्यात्म समझा सके।
आपका वाक्य एक सूक्ति है। जो गलती से
हुआ पर संकेत दे रहा है।
संकेत है। नानी के आगे ननिहाल की बाते
करने से क्या फायदा।
जिसके भेजे में गया ही नही उसको बताने
से क्या फायदा
जिसको जैसे आपको सब पता है उनको समझाने
से क्या फायदा।
जो नही जानते वे घटना को पटना जाने
जैसा ही समझने की भूल करेगे।
इसी लिए प्रयोगिता यानी probality
का जन्म हुआ।
प्र धन कृति। मतलब अपने
आप जन्म से जो कृति यानि कर्म हमारे साथ आते है। वैसे हर वस्तु प्राणी कुछ अपने
साथ लेकर आता है। शेर घास नही खाता पर खाने लगे तो पृवृती बन गई।
प्र धन वृत्ति । मतलब
हमारी पहले से दी वस्तु में अपनी वृत्ति को दाखिल कर देना।
जैसे मनुष्य सांस लेता है भूख लगती है यह
प्रकृति है।
वहीँ किसी को देखकर नाक टेढी कर सांस लेता
है तो यह प्रवृती।
जैसे फलाने की पृवृती है झूठ बोलने की। पर
पैदायशी ऐसा नही।
देखो। ध्यान से पढो।
यह सबसे सुंदर तरीका है। मन को
विश्रांति और शांति देने का। पर एकदम से नही होता है। क्योकि आंख बंद करते ही जगत
का कचरा घूमने लगता है। अतः मन्त्र जप का सहारा लो। धीरे धीरे अभ्यास से आंख बंद
करके ही रहने में मजा आने लगेगा।
बहुत पहले मुझे ट्रैन में एक वृद्ध सरदार
जी मिले थे। जिन्हीने बताया था कि उनकी आंख ही नही बन्द हो पाती है। एक सेकेंड बाद
खुल जाती है। मेरे पूछने पर बताया डिमॉग में तमाम बातें घूमने लगती है।
मन को राम नाम मे भिगो कर मन्त्र जप से
भिगोते रहो। यही एक रास्ता है।
एक ही बात है मन्त्र जप या नाम जप।
राम नाम का अर्थ ईश का नाम से होता है।
मूर्खाधिराज। एक ही बात। दीक्षित हेतु
गुरूमंत्र ही राम नाम है।
सिर्फ गुरु मन्त्र ही करो।
सब सही बस आप पूर्ण समर्पण से करे। यही
समर्पण मूल मन्त्र है किसी भी आराधना का।
कल रात्रि 1. 45 तक वार्ता चली। प्रसंग भी ठीक थे। किंतु सोने के समय सोना ही उचित होता
है।
अनिल की अवस्था सबसे अलग है। वह प्यासा
है उसमें तड़प भी है। यदि एक एक प्रश्न पूछे होते तो शायद उत्तर देना सम्भव था।
प्रश्नों की इस भीड़ में प्रश्नों को ढूढ़ना बड़ा काम होगा। मेरे पास उतना समय नही
होता है।
सनातन में कही भी पहले छुआछूत नही थी।
इतिहास देखें आज की तथाकथित निम्न जाति के किंतने राजा थे और ब्राह्मण उनके अधीन।
कारण जाती कर्म से थी जन्म से नही।
यह जाति प्रथा वास्तव में बौद्ध आगमन
और मुगलों से आई।
लोग अपना कर्म भूलकर मुफ्त में खाने के
लिए बौद्ध बनने लगे। ज्ञान के लिए नही।
गुरु जी से बात करो पहले। उनसे अपनी
व्यथा कहो। हो सकता है तुम्हे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिल जाये।
यूं समझो कुछ लोग सौ साल तक लोग आलसी हो गए। आवश्यकता पड़ने पर राजाज्ञा से
पुनः कर्म हेतु जब लोग ढूढे गए तो चलो भाई तुम्हारे पिता यह थे अतः तुम यह करो।
कुछ इसी भांति जन्म से जाति वाद फैलने लगा।
जैसे जैसे मुगल आये तो बचने के लिए। पर्दा इत्यादि भी आरम्भ हो गए।
बोला न गुरु जी बात करो। तुमको बोला है बल्कि सबसे बोला।
जब समय मिले अपने गुरू के पास जाओ कुछ दिनों के लिए। तुम्हारी रिपेयरिंग
होती रहेगी।
तुम कितनी बार गए। सारी छुट्टियां निकल गई। आश्रम जाने को आने को कोई मनाही
नही होती।
आश्रम कोई धर्मशाला या चिक्तित्सालय नही होता।
फिर भी गुरु से बात करो।
देखो कितनी बार कहा गुरु से आज्ञा लो। गुरु आज्ञा अवहेलना का पाप लोगे।
होता है। बाइक के वाइब्रेशन इसको आंदोलित कर देते है। artificial vibration द्वारा
भी कुण्डलनी जगाने के प्रयोग हुए है।
चलो प्रभु कृपा से देश मे पहला चेम्बूर रामलीला में आयोजित राम नामी कवि
सम्मेलन सुपर हिट रहा। यह रामकृपा का ही जलवा था।
आप सबको दशहरे की शुभकामनाये।
जय गुरूदेव महाकाली।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/