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Thursday, December 6, 2018

बिना स्वार्थी बने योग नही हो सकता



बिना स्वार्थी बने योग नही हो सकता

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"
 
आप शीर्षक देखकर अवश्य चौंक गये होगें। कहीं विपुल का दिमाग तो नहीं सटक गया। वहीं मैं यदि आपको सर्वश्रेष्ठ दुआ दूं तो यही दूंगा “प्रभु आपको स्वार्थी बनाये”

जी आप स्वार्थ के अर्थ स्वार्थी होकर ही लगा रहें अत: आपको यह अटपटा लग रहा है। अब फिर वही बात मैं तो कहूंगा “बिना स्वार्थी बने तुम स्वार्थ को त्याग ही नहीं सकते। जब तुम स्वार्थी बन ही नहीं सकते तो योगी क्या बनोगे”। 

जब कोई अपने जीवन के भौतिक सुखों, लाभ एंव हित के लिए कार्य करता है, समाज की और अन्य को अनदेखा करता है तो वह उसका स्वार्थ कहलाता है। स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात खुद + लाभ = खुद का लाभ जो स्वार्थ कहलाता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हित का कार्य करता है जैसे अपने जीवन की रक्षा करना तथा जीवन निर्वाह करने के लिए भोजन तलाश कर खाना जिसके लिए अनेक जीव दूसरे जीवों का भक्षण करते हैं । जीवों का आपस में भक्षण करना कोई पाप नहीं है क्योंकि प्रकृति ने सभी जीवों को जीने का अधिकार दिया है जिसके लिए प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता अनुसार अपना भोजन ग्रहण करता है वह शाकाहारी है तो शाकाहारी यदि मांसाहारी है तो मांसाहारी भोजन खाता है।

उदर पूर्ति का स्वार्थ सभी जीवों की स्वभाविक क्रिया है इसके अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए या अन्य आवश्यकताओं के लिए सभी प्राणी अपना स्वार्थ पूर्ण करते हैं। संसार में अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वार्थ सिद्ध करना आवश्यक है परन्तु स्वार्थ की भी अपनी मर्यादाएं हैं यदि मर्यादा में रह कर स्वार्थ पूर्ति करी जाए तो स्वार्थ कोई पाप नहीं है।

वहीं ज्ञानी के लिये स्वार्थ शब्द का अर्थ बड़ा प्यारा है। स्वार्थ का अर्थ होता है  स्व+ अर्थ। मतलब हमारा जीवन क्या है हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। अर्थ के दो अर्थ है एक है धन और दूसरा मायने यानी मीनिंग। अब आप सोंचे स्व के अर्थ क्या हैं। अपने को जानना। अपने को पहचानना। जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त  करना। है न कितने सुंदर अर्थ और व्याख्या। पर मानव जगत की लालसाओं के चश्में से देखकर इसके अनर्थ लगाता है। 

स्वार्थी का अर्थ । स्व+अर्थी। मतलब जिसने अपने अहंकार की सांसारिक लालसाओं की अर्थी निकाल दी वह हुआ स्व अर्थी। 

अब समझे क्यों मैं स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है। और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे ही परमार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परमार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा!  

इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको,  कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो।

स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है किसी को स्वार्थी कहना उसके लिए अपशब्द के समान है जबकि संसार का प्रत्येक इन्सान स्वयं स्वार्थी होता है क्योंकि इन्सान द्वारा कर्म करने का आरम्भ ही स्वार्थ के कारण है यदि मानव का स्वार्थ समाप्त हो जाए तो उसे कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है? मानव को जब अपने तथा अपने परिवार के पोषण के लिए अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है तो उसमे स्वार्थ उत्पन्न होता है जिसके कारण वह कर्म करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है अर्थात मानव की आवश्यकता ही स्वार्थ है एंव स्वार्थ ही कर्म है यदि आवश्यकता ना हो तो स्वार्थ समाप्त एंव स्वार्थ ना हो तो कर्म समाप्त अर्थात स्वार्थ के कारण ही संसार का प्रत्येक प्राणी कर्म करता है इसीलिए संसार को स्वार्थी संसार कहा जाता है। यह मानव एंव अन्य जीवों का जीवन निर्वाह करने का स्वार्थ सिद्ध करना स्वभाविक तथा मर्यादित कार्य है जो संसार का संचालन अथवा कर्म है ।

स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ही उचित है अन्यथा स्वार्थ की अधिकता होते ही जीवन में तथा समाज में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं अपितु संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं सभी इन्सान के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हैं। इन्सान में जब स्वार्थ की अधिकता उत्पन्न होनी आरम्भ होती है तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है जो उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरम्भ होता है जिसके अधिक बढने से इन्सान धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है।

मानव के स्वार्थ में लोभ का जितना अधिक मिश्रण होता है इन्सान उतना ही अधिक भयंकर अपराध करने पर उतारू हो जाता है यह स्थिति इन्सान में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता होने पर अधिक भयंकर होती है क्योंकि इन्सान परिणाम की परवाह करना छोड़ देता है या परिणाम से बेखबर हो जाता है जो उसके विनाश का कारण बन जाता है।

मानव में स्वार्थ की अधिकता का कारण उसके मन की चंचलता एंव लोभ है  स्वार्थ की वृद्धि मन करता है तो उसमे रंग भरने का कार्य इन्सान की कल्पना शक्ति करती है तथा क्रियाशील करने का साहस भावना शक्ति के कारण उत्पन्न होता है व स्वार्थ पूर्ति को अंतिम रूप इच्छाशक्ति प्रदान करती है। यदि इन मानसिक शक्तियों में आपसी तालमेल न हो तो स्वार्थ मानव  के मन में अवश्य रहता है परन्तु वह अपने स्वार्थ को क्रिया शील नहीं कर सकता। मानव यदि विवेक द्वारा अपनी स्वार्थी कामनाओं की पूर्ति करता है तो वह परिश्रम एंव बौद्धिक बल द्वारा जीवन में अनेकों संसाधन एंव धन एकत्रित कर सफलता प्राप्त करता है जो जीवन को खुशहाल बनाता है परन्तु विवेक की कमी या हीनता हो तो विवेक नकारात्मक भूमिका में सक्रिय हो तो वह फरेब, धोखेबाजी, ठगी, चोरी व लूट जैसे कार्यों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने की ओर अग्रसर होता है जो उसे अपराधी बनाकर विनाश की राह पर ले जाता है।

जो स्वार्थ के नशे में अपराधिक कार्यों को अंजाम देते हैं वह कितने भी घातक हो सकते हैं ऐसे लोगों के लिए रिश्तों एंव भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती । जीवन में इन्सान को अनेक रिश्ते व सम्बन्ध एंव मित्र स्वार्थ की अधिक मात्रा से भरपूर मिलते हैं जो अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए हानिकारक बन जाते है बुद्धिमानी ऐसे इंसानों से दूरी बनाकर रखने एंव उनसे सतर्क रहने में है। रिश्तों में अपनापन समझकर किसी के स्वार्थ को सहन करना वास्तव में मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं होता क्योंकि लुटने या बर्बाद होने के पश्चात सावधानी दिखाने का कोई लाभ नहीं होता।

मन में जब स्वार्थ की वृद्धि होने लगे यदि उसी समय मन को शांत किया जाए तो सहजता से शांत किया जा सकता है अन्यथा स्वार्थ पोषित होकर जीवन को विनाश के मार्ग पर ले जाता है एवं परिणाम भुगतने के समय जब अहसास होता है तब तक बहुत देरी हो जाती है। स्वार्थ के लिए हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जीवन में स्वार्थ पूर्ति द्वारा भौतिक सुख तो जुटाए जा सकते हैं परन्तु स्वार्थी का सम्मान धीरे धीरे समाप्त हो जाता है तथा उसका सामाजिक पतन भी निश्चित होता है क्योंकि स्वार्थ व सम्मान की आपसी शत्रुता होती है जो सदैव रहेगी यदि सम्मान चाहिए तो स्वार्थ का संतुलन बनाकर रखना आवश्यक है।

अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं तो देश और समाज का कल्याण हो जाये। जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदा हुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया।


उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी ही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां,  वे तुम्हें सौंप गए,  तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे। कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको,  उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।

मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है। तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।

इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए। अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?' निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!

तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।

इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ। फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।' क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे? और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो!



 (शब्द और कथन गूगल से भी साभार)

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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महाराष्ट्र के संत: श्री स्वामी समर्थ !



महाराष्ट्र के संत: श्री स्वामी समर्थ !
अक्कलकोट के श्री स्वामी समर्थ ! (प्रकटकाल : इ.स. १८५६-१८७८)


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि

सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
- मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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श्री गुरुचरित्र” इस पवित्र ग्रंथ में उल्लेख है की सन 1458 में श्रीमद नरसिम्हा सरस्वती ने कर्दालिवन में महासमाधि ली थी। 300 साल से भी अधिक समय तक वो उस समाधी में रहे। लेकिन एक दिन वहा पर एक लकडहारा आने से और उसके पेड़ काटने की वजह से श्रीमद नरसिम्हा सरस्वती अपनी लम्बी समाधी से जागृत हो गए। उस दिव्य शक्ति को आज हम श्री स्वामी समर्थ नाम से जानते है। समाधी से निकलने बाद श्रीमद नरसिम्हा सरस्वती ने सम्पूर्ण देश की यात्रा की। प्रथम वे काशी में प्रकट हुए। आगे कोलकाता जाकर उन्होंने कालीमाता का दर्शन किया  इसके पश्चात गंगातट से अनेक स्थानों का भ्रमण करके वे गोदावरी तटपर आए। वहां से हैदराबाद होते हुए बारह वर्षों तक वे मंगलवेढा रहे। तदुपरांत पंढरपुर, मोहोळ, सोलापुर मार्ग से अक्कलकोट आए। वहां पर उनका निवास अंत तक था।
कहा जाता हैं स्वामी समर्थ कर्दाली जंगल में से आये है। उन्होंने कई बार जगन्नाथ पूरी, बनारस (काशी), हरिद्वार, गिरनार, काठियावाड़ और रामेश्वरम और साथ ही चीन, तिब्बत और नेपाल जैसे विदेशो में भेट दी। अक्कलकोट में स्थापित  होने से पूर्व वो मंगलवेढ़ा शहर जो पंढरपुर(सोलापुर जिला) के निकट  है वहा पर रहा करते थे। 22 साल तक वो अक्कलकोट के बाहरी हिस्से में रहे। कर्नाटक के गणगपुरा में लम्बे समय तक रहने के पश्चात उन्होंने अपनी निर्गुण पादुका अपने शिष्यों की दे दी और उसके बाद वो कर्दाली जंगल में जाने के लिए रवाना हुए। सन 1878 में चैत्र माह (अप्रैल-मई) के तेरावे दिन श्री स्वामी समर्थ ने समाधी ली।
दत्त संप्रदाय में श्रीपाद श्रीवल्लभ तथा नृसिंह सरस्वती दत्तात्रेय के पहले तथा दूसरे अवतार माने जाते हैं। अत: श्री स्वामी समर्थ ही नृसिंह सरस्वती हैं अर्थात दत्तावतार हैं। अक्कलकोट के परब्रह्म श्री स्वामी समर्थ अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन देते हुए कहते थे, ‘डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं।’  भक्तों को आज भी इसकी अनुभूति होती है।
श्री स्वामी समर्थ अक्कलकोट में खंडोबा के मंदिर में इ.स. १८५६ में प्रकट हुए। उन्होंने अनेक चमत्कार किए। जनजागृति का कार्य किया। ‘जो मेरा अनन्य भाव से चिंतन, मनन करेगा, उस अनन्य भाव के चिंतन की उपासना, सेवा मुझे सार सर्वस्व समझ के अर्पण करेगा उन नित्य उपासना करनेवाले मेरे प्रिय भक्तों का मैं सब प्रकार से योगक्षेम चलाउंगा,’ उन्होंने भक्तों को ऐसा आश्वासन दिया।
स्वामी समर्थ क्षण में अदृश्य होते थे तथा अचानक प्रकट भी होते थे। स्वामी गिरनार पर्वत पर अदृश्य हुए तथा दूसरे ही क्षण आंबेजोगाई में प्रकट हुए। हरिद्वार से काठेवाड के जीविक क्षेत्र स्थित नारायण सरोवर के बीचोबीच सहजासन में बैठे दिखाई दिए। तदुपरांत भक्तों ने उन्हें पंढरपुर की भीमा नदी की बाढ में चलते हुए देखा।
स्वामीजी ने मंगळवेढा स्थित बसप्पा का दारिद्र्य नष्ट किया। उसके लिए सर्पों को सुवर्ण में बदल दिया। उस गांव के बाबाजी भट नाम के ब्राह्मण गृहस्थ का सूखा कुआं पानी से भर दिया। पंडित नाम के अंधे ब्राह्मण के नेत्रों की ज्योति वापस लाई। स्वामी समर्थ ने ये सारे चमत्कार लोगों में भक्तिमार्ग की जागृति लाने हेतु दिखाए। संत लोगों के कल्याण हेतु, लोगों के भाव हेतु तथा लोगों के आत्मिक एवं पारमार्थिक ऐश्वर्य हेतु तथा दूसरों के सुख में सुख माननेवाले होते हैं।
स्वामी समर्थ ने समाज की दुष्ट प्रवृत्ति नष्ट कर सत् विचारों की पुनर्स्थापना की। दुखी एवं पीडित लोगों पर कृपा की वर्षा की। इच्छुक भक्त सदा स्मरण करें ऐसा अनुभव देकर उन्हें प्रेमबंधन से अपना लिया। स्वामी समर्थ की दृष्टि में धनवान तथा निर्धन सब एक जैसे ही थे। उन्हें सीधा-साधा भोला भक्तिभाव बहुत अच्छा लगता था। उनके ह्रदय में सामान्य लोगों के लिए बहुत प्रेम था। स्वामी समर्थ बहुत तेजस्वी थे। उनके मुखमंडल पर कोटि सूर्यों का तेज शोभायमान होता था। उनके नेत्रों में अपरंपार करुणा थी। भक्तों पर आए संकट वे दूर करते थे। पर वे शब्दों में गाली गौलज भी खूब करते थे। वास्तव में यही उनके प्रेम प्रदर्शन का तरीका था। गाली देकर डांटते फिर उसकी समस्या हल कर देते।
एक बार स्वामी समर्थ के दर्शन हेतु अक्कलकोट के महाराज मालोजीराजे हाथी पर बैठकर आए थे। उन्होंने जब स्वामी समर्थ के चरणोंपर मस्तक रखा, तो स्वामीजी ने मालोजीराजे के गाल पर एक तमाचा जड दिया तथा कहा, ‘तुम्हारा बडप्पन तुम्हारे घर में। उसका यहां क्या काम ? हम ऐसे बहुत से राजा बनाते हैं।’ तबसे मालोजीराजे स्वामी समर्थ के दर्शन हेतु पैदल ही आते थे।
अक्कलकोट संस्थान के मानकरी सरदार तात्या भोसलेजी का मन संस्थान से, संसार से ऊब गया, तब वे स्वामी समर्थ के चरणों में रहकर भक्तिभाव से उनकी सेवा करने लगे। एक बार वे स्वामी समर्थ के निकट बैठे थे तब स्वमीजी ने तात्या भोसलेजी से कहा, ‘तुम्हारे नामकी चिट्ठी आई है।’ तात्या भोसलेजी ने स्वामी समर्थ से प्रार्थना की, ‘मुझे आपकी और सेवा करनी है!’ तात्या भोसलेजी ने यमदूत को देखा, तथा वे डर गए। अपने भक्त की तडप देखकर स्वामी समर्थ ने यमदूत से कहा, ‘यह मेरा भक्त है। इसे स्पर्श मत करना। उस ओर बैठे बैल को ले जाओ!’ उस बैल के प्राण गए तथा वह भूमिपर गिर गया ।
श्री स्वामी समर्थ भक्तकाम कल्पद्रुम हैं, भक्तकाम कामधेनु हैं, चिंतामणि हैं। उनके हृदय में करुणा का सागर है  उन्हें आवाज दो, वे सदा तुम्हारे पास हैं। स्वामी समर्थ अपने भक्तों के कल्याण हेतु सदैव जागृत रहकर भयंकर संकटों से उन्हें मुक्त कराते हैं।
अक्कलकोट में मोरोबा कुलकर्णी नाम का एक स्वामीभक्त था। उसके आंगन में श्री स्वामी समर्थ अपने सेवकों समेत सोए थे। मोरोबा की पत्नी को रात के समय पेट में पीडा आरंभ हुई। उसे असह्य कष्ट होने लगीं। वह कुएं में जान देने निकली। स्वामी समर्थ एकदम जग गए तथा सेवकों से कहा, ‘अरे, कुएं में कौन जान दे रहा है देखो। उसे मेरे पास ले आओ!’ सेवक कुएं के पास गए तो मोरोबा की पत्नी कुएं में कूदने की स्थिति में दिखी। वे उसे लेकर स्वामी समर्थ के समक्ष आए। स्वामीजी ने उसकी ओर कृपादृष्टि से देखा। उसके पेट की पीडा समाप्त हो गई।
स्वामी समर्थ द्वारा अपने रूप में तथा भक्त को उसके इच्छित देवता के रूप में दर्शन देने की जानकारी अनेक कथाओं द्वारा ज्ञात होती है। द्वारकापुरी में सूरदास नाम के महान कृष्णभक्त रहते थे । सूरदास जन्मांध थे । सगुण साकार श्रीकृष्ण का दर्शन हो, यह उनकी बडी इच्छा थी। स्वामी समर्थ सूरदास के आश्रम में जाकर खडे हो गए तथा सूरदास को आवाज दी। कहा, ‘तुम जिसके नाम से आवाज दे रहे हो, देखो वह मैं तुम्हारे दरवाजे पर खडा हूं। सूरदास, जरा देखो।’ इतना कहकर समर्थ ने उनके दोनों नेत्रों को हस्तस्पर्श किया। तभी सूरदास को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तथा उन्हें शंख, चक्र, गदाधारी श्रीकृष्ण का सगुण रूप दिखने लगा। सूरदास गदगद हो गए। थोडी देर के पश्चात चेतना वापस आनेपर स्वामी समर्थ ने उन्हें अपने वास्तविक रूप का दर्शन कराया। सूरदास भावविभोर हो गए तथा स्वामी समर्थ से कहा, ‘आपने मुझे दिव्यदृष्टि दी है। अब इस जन्ममृत्यु के चक्र से मुझे मुक्त कीजिए !’ स्वामी समर्थ ने सूरदास को, ‘तुम ब्रह्मज्ञानी बनोगे !’ यह आशीर्वाद दिया।
जगह-जगहपर स्वामी समर्थ के अगणित भक्त हैं । १८७८ में स्वामी समर्थ ने अक्कलकोट में अपने पार्थिव शरीर का भले ही त्याग किया हो, किंतु ‘मै गया नहीं हू, हमेशा आपके साथ हूं,’’ उनका यह वचन भक्तों का आधार है ।
श्री स्वामी समर्थ महाराज की दी गयी शिक्षा
श्री स्वामी समर्थ ने समय समय पर दिए हुए कुछ महत्वपूर्ण वक्तव्य नीचे दिए हुए है।
  • फल की अपेक्षा ना करते हुए कर्म करते रहो।
  • प्रामाणिक मेहनत करके ही अपनी उपजीविका का वहन करो।
  • जब भी आप किसी अध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले सक्षम मार्गदर्शक से मिलते हो, उससे ज्यादा से ज्यादा ज्ञान और उपदेश लेने की कोशिश करो। जिस तरह कोई भी खेत अपने आप कोई फसल नहीं देता उसी तरह हर कोई ज्ञानी व्यक्ति अपना ज्ञान स्वयं बाटते फिरता नहीं।
  • अध्यात्मिक मार्ग पर चलते समय यदि आपको अध्यात्मिक शक्ति मिल भी जाये तब भी आप उन शक्तियों का चमत्कार करने के लिए उपयोग ना करे।
  • अध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोगों का व्यवहार शुद्ध और धार्मिक होना चाहिए।
  • संतो द्वारा रचित वैदिक ग्रंथो को पढ़ना चाहिए और उन्हें दोहराना चाहिए।
  • शरीर की बाह्य पवित्रता टिकाने के लिए अपने मन को भी शुद्ध रखने का प्रयास करो।
  • केवल किताबों के आधार पर मिला हुआ ज्ञान आत्मज्ञान की प्राप्ति तक नहीं पंहुचा सकता। इसलिए प्राप्त किए ज्ञान का जीवन में उपयोग करो।
  • सभी अनुयायी में ढृढ़ विश्वास और भक्तिभाव होना चाहिए।
.................... क्रमश: ..............................................
(तथ्य, कथन गूगल से साभार) 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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