बिना स्वार्थी बने योग नही हो सकता
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
आप शीर्षक देखकर अवश्य चौंक गये होगें। कहीं विपुल का दिमाग तो
नहीं सटक गया। वहीं मैं यदि आपको सर्वश्रेष्ठ दुआ दूं तो यही दूंगा “प्रभु आपको
स्वार्थी बनाये”।
जी आप स्वार्थ के अर्थ स्वार्थी होकर ही लगा रहें अत: आपको यह
अटपटा लग रहा है। अब फिर वही बात मैं तो कहूंगा “बिना स्वार्थी बने तुम स्वार्थ को
त्याग ही नहीं सकते। जब तुम स्वार्थी बन ही नहीं सकते तो योगी क्या बनोगे”।
जब कोई अपने जीवन के भौतिक सुखों,
लाभ एंव हित के लिए कार्य
करता है, समाज की और अन्य को अनदेखा
करता है तो वह उसका स्वार्थ कहलाता है। स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात खुद + लाभ =
खुद का लाभ जो स्वार्थ कहलाता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हित का कार्य करता है
जैसे
अपने जीवन की रक्षा करना
तथा जीवन निर्वाह करने के लिए भोजन तलाश कर खाना जिसके लिए अनेक जीव दूसरे जीवों का भक्षण करते हैं ।
जीवों का आपस में भक्षण
करना कोई पाप नहीं है क्योंकि प्रकृति ने सभी जीवों को जीने का अधिकार दिया है जिसके लिए प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता
अनुसार अपना भोजन ग्रहण
करता है वह शाकाहारी है तो शाकाहारी यदि मांसाहारी है तो मांसाहारी भोजन खाता है।
उदर पूर्ति का स्वार्थ सभी जीवों की स्वभाविक क्रिया है इसके अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए या अन्य आवश्यकताओं के लिए
सभी प्राणी अपना स्वार्थ पूर्ण करते हैं। संसार में अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वार्थ सिद्ध करना आवश्यक है परन्तु स्वार्थ की भी
अपनी मर्यादाएं हैं यदि
मर्यादा में रह कर स्वार्थ पूर्ति करी जाए तो स्वार्थ कोई पाप नहीं है।
वहीं ज्ञानी के लिये स्वार्थ शब्द का अर्थ बड़ा प्यारा है। स्वार्थ का अर्थ होता है स्व+ अर्थ। मतलब हमारा जीवन क्या है हमारे जीवन का
उद्देश्य क्या है। अर्थ के दो अर्थ है एक है धन और दूसरा मायने यानी मीनिंग। अब आप
सोंचे स्व के अर्थ क्या हैं। अपने को जानना। अपने को पहचानना। जीवन के वास्तविक उद्देश्य
को प्राप्त करना। है न कितने सुंदर अर्थ और
व्याख्या। पर मानव जगत की लालसाओं के चश्में से देखकर इसके अनर्थ लगाता है।
स्वार्थी का अर्थ । स्व+अर्थी। मतलब जिसने अपने
अहंकार की सांसारिक लालसाओं की अर्थी निकाल दी वह हुआ स्व अर्थी।
अब समझे क्यों मैं स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं
देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है। और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे ही परमार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परमार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा!
इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख
की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि
दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो।
स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है किसी को स्वार्थी कहना
उसके
लिए अपशब्द के समान है
जबकि संसार का प्रत्येक इन्सान स्वयं स्वार्थी होता है क्योंकि इन्सान द्वारा कर्म करने का आरम्भ ही
स्वार्थ के कारण है यदि मानव का स्वार्थ समाप्त हो जाए तो उसे कर्म करने की आवश्यकता
ही क्या है?
मानव को जब अपने तथा अपने परिवार के पोषण के लिए अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है तो उसमे स्वार्थ उत्पन्न होता है
जिसके कारण वह कर्म करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है अर्थात मानव की आवश्यकता ही स्वार्थ है
एंव
स्वार्थ ही कर्म है यदि
आवश्यकता ना हो तो स्वार्थ समाप्त एंव स्वार्थ ना हो तो कर्म समाप्त अर्थात स्वार्थ के कारण ही संसार का
प्रत्येक प्राणी कर्म
करता है इसीलिए संसार को स्वार्थी संसार कहा जाता है। यह मानव एंव अन्य जीवों का जीवन निर्वाह करने का स्वार्थ सिद्ध करना
स्वभाविक तथा मर्यादित
कार्य है जो संसार का संचालन अथवा कर्म है ।
स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ही उचित है अन्यथा स्वार्थ की अधिकता होते ही जीवन में तथा समाज में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न
होने लगती हैं अपितु
संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं सभी इन्सान के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हैं। इन्सान में जब स्वार्थ की अधिकता
उत्पन्न होनी आरम्भ
होती है तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है जो उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरम्भ होता है
जिसके अधिक बढने से इन्सान धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है।
मानव के स्वार्थ में लोभ का जितना अधिक मिश्रण होता है इन्सान उतना ही अधिक भयंकर
अपराध करने पर उतारू हो जाता है यह स्थिति इन्सान में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता
होने पर
अधिक भयंकर होती है
क्योंकि इन्सान परिणाम की परवाह करना छोड़ देता है या परिणाम से बेखबर हो जाता है जो उसके विनाश का कारण बन
जाता है।
मानव में स्वार्थ की अधिकता का कारण उसके मन की चंचलता एंव लोभ है स्वार्थ की वृद्धि मन करता है तो उसमे रंग भरने का
कार्य इन्सान की कल्पना शक्ति करती है तथा क्रियाशील करने का साहस भावना शक्ति के कारण
उत्पन्न
होता है व स्वार्थ पूर्ति
को अंतिम रूप इच्छाशक्ति प्रदान करती है। यदि इन मानसिक शक्तियों में आपसी तालमेल न हो तो स्वार्थ मानव के मन में अवश्य रहता है परन्तु वह अपने स्वार्थ को क्रिया शील नहीं कर
सकता। मानव यदि विवेक
द्वारा अपनी स्वार्थी कामनाओं की पूर्ति करता है तो वह परिश्रम एंव बौद्धिक बल द्वारा जीवन में अनेकों संसाधन एंव धन
एकत्रित कर सफलता प्राप्त करता है जो जीवन को खुशहाल बनाता है परन्तु विवेक की कमी या हीनता हो तो विवेक नकारात्मक भूमिका में सक्रिय हो तो
वह फरेब,
धोखेबाजी, ठगी, चोरी व लूट जैसे कार्यों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने की ओर अग्रसर होता है जो उसे अपराधी बनाकर विनाश की राह
पर ले जाता है।
जो स्वार्थ के नशे में अपराधिक कार्यों को
अंजाम देते हैं वह कितने भी घातक हो सकते हैं ऐसे लोगों
के लिए रिश्तों एंव भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती । जीवन में
इन्सान को अनेक रिश्ते व सम्बन्ध एंव मित्र स्वार्थ की अधिक मात्रा से
भरपूर मिलते हैं जो अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए हानिकारक बन जाते है बुद्धिमानी
ऐसे इंसानों से दूरी बनाकर रखने एंव उनसे सतर्क रहने में है। रिश्तों में
अपनापन समझकर किसी के स्वार्थ को सहन करना वास्तव में मूर्खता के अतिरिक्त
कुछ नहीं होता क्योंकि लुटने या बर्बाद होने के पश्चात सावधानी दिखाने
का कोई लाभ नहीं होता।
मन में जब स्वार्थ की वृद्धि होने लगे यदि उसी समय मन को शांत किया जाए तो सहजता से शांत किया जा सकता है अन्यथा स्वार्थ पोषित होकर जीवन को विनाश के मार्ग पर ले जाता है एवं परिणाम भुगतने के समय जब अहसास होता है तब तक बहुत देरी हो
जाती है। स्वार्थ के लिए हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जीवन में स्वार्थ पूर्ति द्वारा
भौतिक
सुख तो जुटाए जा सकते हैं
परन्तु स्वार्थी का सम्मान धीरे धीरे समाप्त हो जाता है तथा उसका सामाजिक पतन भी निश्चित
होता है क्योंकि स्वार्थ
व सम्मान की आपसी शत्रुता होती है जो सदैव रहेगी यदि सम्मान चाहिए तो स्वार्थ का संतुलन बनाकर रखना आवश्यक है।
अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं तो देश और समाज का
कल्याण हो जाये। जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो
बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।
समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदा हुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया।
उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने
अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी
ही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे। कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।
मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी
अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है।
तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता
है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने
बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न
सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न
डालोगे।
इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए। अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?' निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!
तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।
इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि
अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ। फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।' क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया
बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी
को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें
सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे? और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम
अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो!
(शब्द और कथन गूगल से भी साभार)
(शब्द और कथन गूगल से भी साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह
आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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