Search This Blog

Wednesday, December 12, 2018

सांख्य योग मीमांसा

सांख्य योग मीमांसा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.com     वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet”

        





जैसा कि हम जानते हैं कि योग यानी जुडना। किससे जुडना। वेदांत महावाक्य प्राथमिक द्वैत के अनुसार अवस्था बतलाता है आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है जो भक्ति मार्ग से सहजता से प्राप्त होता है। 

          
पातन्ज्ली समझाते है जो काफी आगे की बात चित्त में वृति का निरोध यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग पैदा हो हलचल हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में र्हे। 

          
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसका अर्थ समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग। 

          
वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्दी यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्दी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग 


           इनको जानने हेतु सत्युग में हजारो साल का तप द्वापर में कुछ सैकडो त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोडो में एक।


कपिल मुनि ने मीमांसा शास्त्र में सांख्य की बात की है जो सन्यासी के लिये श्री कृष्ण ने कहा है। 


         मैंने अपने चिंतन को परखने के लिये कलियुगी भौतिक महागुरु गूगल को इंटरनेट पर देखा तो मुझे लगा कि इसकी व्याख्या अधिकतर उन्होने करने का प्रयास किया है जो थे संस्कृत के महा पण्डित पर अपने को पढ पाये थे। अत: मेरी व्याख्या जो मैंनें बिना पुस्तक पढे गुरु महाराज की दया और शिव शक्ति की कृपा से आत्म गुरु से प्राप्त की है। 


           मेरे विवेक के अनुसार कपिल मुनि बेहद उच्च कोटि के ज्ञानी और विज्ञानी थे। वे महाकवि भी रहे होंगे। क्योंकि उनको समयकाल की गणना मालूम थी अत: उन्होने सांख्य शब्द का प्रयोग मीमांसा कर किया। यहां सोचने की बात है कि समय को उन्होने 24 भागो में बांटा यानी संख्या दी पर योग का नाम सांख्य क्यों रखा। इसकी व्याख्या नेट पर मिलेगी। अत: मैं गलत भी हो सकता हूं। यह तो आप विद्वान ही बतायेगे। 


           चलो यूं समझे शिव / शिवा, निर्झर / निर्झरा, राम / रमा, विपुल विपुला / सोना सोनी क्या समझे जब किसी सार्थक शब्द में की मात्रा लग जाती है तो वह पुरुष से स्त्री बन जाता है। यानी लिंग बदल गया। अत: संख्या जो गणना की शक्ति है वह गणन है अर्थात शिव। यानी आदमी पुरुष और स्त्री प्रकृति यानी औरत। शक्ति परा तो शिव पुरुष। यानी शिव ही शक्ति के साथ मिलकर सृष्टि का निर्माण करते है। और यह ही अर्ध नारीश्वर को भी समझाता है। 


          आज का विज्ञान कहता है पुरुष के शुक्राणु में में एक एक्स और एक वाई जीन होता है जबकि स्त्री में सिर्फ दोनो एक्स एक्स। यानी गुणसूत्र का जीन सिर्फ पुरुष के पास पर इनको धारण करने की शक्ति सिर्फ स्त्री के पास। मतलब पुरुष भी आधा स्त्री और आधा पुरुष होता है। 


          अब जब यह मानव का निर्माण करते हैं तव इसी शिव शक्ति से साथ जो मिलना होता है वह है योग। ध्यान दें जब यह योग अल्प कालिक होकर समय के 24 खंडो तक रहता है तब संन्यास की अवस्था आती है। गेरुआ वस्त्र, अपना पिण्डदान, नया नाम यह सब भौतिक रूप में होते है। 


           वास्तविक सन्यास यानी सं धन न्यास मतलब पौराणिक माने तो ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक मानस-पुत्र, सनई  [सं-स्त्री.] जूट की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा, सनई के पौधे का रेशा; श्वेतपुष्पा। सनक [सं-स्त्री.] पागलों की-सी प्रवृत्ति, धुन या आचरण, झक जुनून। मुहावरा  सनक सवार होना, किसी काम या बात की धुन चढ़ना। सनकना [क्रि-.] - पागल या उन्मत्त हो जाना, पगलानाझक्की हो जाना, वेग से हवा में जाना या फेंका जाना। सनकी [वि.] सनक से भरा, जिसे किसी प्रकार की सनक या धुन हो, ख़ब्ती, धुनी, झक्की। सनतकुमार [सं-पु.](पुराण) ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक, वैधात्र जैनों के बारह सार्वभौमों या चक्रवर्तियों में से एक, जैनानुसार तीसरे स्वर्ग का नाम, सदैव युवावस्था में रहने वाला तपस्वी। सनद [सं-स्त्री.] ऐसी चीज़ या बात जिसपर भरोसा किया जाए, सबूत, प्रमाण,  प्रामाणिक कथन, प्रमाणपत्र, उपाधि; डिग्री। 


           ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार   न्यास  का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की  स्थापना ही न्यास है। इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है, इसलिए इसे देव पूजा का तबतक अधिकार नहीं है जब तक यह शुद्ध एवम दिव्य हो जाये। जब तक इसकी (हमारे शरीर की ) अपवित्रता बनी  है, तब तक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि  का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही  कारण है कि मन तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही। इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 


          शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित  है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक  महा औषधि है। शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्र सिद्धि हो जाती है। 


          हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है मात्र इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।


           अब आप जो समझे सं और न्यास का जुडाव हुआ संन्यास। यह जुडाव समय के 24 ख़ंडो तक रहे दूसरे अर्थों में जो पाने के बाद हमेशा पाता रहे और गलता रहे। यह हुआ सरल भाषा में मेरे विचार से सांख्य योग। एक बात और योग की इस व्याख्या को जो बिना गुरु का या निराकार का उपासक है वो बिल्कुल समझ सकेगा अनुभव तो बहुत दूर की बात है। 


              यानी 24 घंटे वेदांत महावाक्य वाल योग होता है सांख्य योग। इस प्रकार के योगी को महायोगी कहा जा सकता है।


योग के दर्शनशास्त्र की मीमांसा की यही मीमांसा है।

                          श्री हरि विष्णु नम: 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 

Friday, December 7, 2018

शक्तिपात में क्रिया क्या होती है


शक्तिपात में क्रिया क्या होती है 
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
  विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी, 
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि 
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi

प्रायः लोग मनुष्य और प्रकृति के स्वभाव को क्रिया समझ लेते है। व्याकरण के अनुसार यह सही है।
योग के अनुसार क्रिया संस्कार नष्ट करने हेतु होती है।
यदि जगत के प्राकृतिक कर्म को क्रिया माने तो हम पाते है।
इसमें हमारी संलिपता होती है यानि भोजन अच्छा बुरा खट्टा मीठा यह भाव उदित होकर निष्काम कर्म की व्याख्या में फिट नही बैठता।
अतः यह क्रिया नही हुए।

क्रिया तब होती है जब कुण्डलनी जागृत हो आप ध्यान में सिर्फ आसन पर बैठे जिसे साधन कहते हैं साधना नहींउस समय आपके साथ आपके शरीर के आंतरिक या वाहीक जो घटित होता है वह क्रिया है। मतलब आपके संस्कार को नष्ट करने हेतु जो स्वतः कर्म इस शरीर द्वारा हो वह क्रिया है। बाकी नही।
क्रिया बन्द आंख या खुली आंख से भी होती है।
आप सिर्फ यह देखते है अरे यह क्या हो रहा है मैं कुछ नही करता हूँ।  
यह अपने आप हो रहा है।
उस अवस्था मे मनुष्य का कर्ताभिमान नष्ट होता है। 
कर्म से कर्ताभिमान बढ़ता है क्रिया में नष्ट होता है।

शिष्यों पर शक्तिपात होने के लक्षणों का वर्णन परम पूज्य गुलवर्णी महाराज ने किया है।

देहपातस्तथा कम्प: परमानन्दहर्षणे।  स्वेदो रोमाञ्च इत्येच्छक्तिपातस्य लक्षणम् ॥

शरीर का गिरना, कंपन, अतिआनंद, पसीना आना, कंपकंपी आना यह शक्तिसंचारण के लक्षण हैं।

प्रकाश दिखना, अंदर से आवाज सुनाई देना, आसन से शरीर ऊपर उठना इत्यादि बातें भी हैं । वैसे ही कुछ समय पश्चात प्राणायाम की अलग अलग अवस्था अपने आप शुरु होती हैं ।

साधकों को शक्ति मूलाधार चक्रसे ब्रह्मरंध्र तक जानेका अनुभव तुरंत होता हैं और मन को पूर्ण शांती मिलती हैं । वैसे ही साधक को उसके शरीर में बहुत बडा फ़र्क महसूस होता हैं । प

पहले दिन आनेवाले सभी अनुभव कितने भी घंटे रह सकते हैं । किसी को सिर्फ़ आधा घंटा तो किसी को तीन घंटे तक भी होकर बाद में ठहरते हैं ।

जब तक शक्ति कार्य करती हैं, तब तक साधक की आँखे बंद रहती हैं और उसे आँखे खोलने की इच्छा ही नहीं होती ।

अगर स्वप्रयत्न से आँख खोलने का प्रयास किया तो आपत्ती हो सकती हैं । परंतु शक्ति का कार्य रुकने पर अपने आप आँखे खुल जाती है । आँख का खुलना और बंद होना आदि बातें ‘शक्ति का कार्य चालू हैं’ यारुक गया है’ ये बताती हैं ।

साधक की आँखे बंद होते ही अपने शरीर में अलग अलग प्रकार की हलचल शुरु होने जैसा अहसास होने लगता हैं । उसे अपने आप होनेवाली हलचल का विरोध करना नहीं चाहिये । या फ़िर उसके मार्ग में बाधा ना लाये ।

उसे सिर्फ़ निरीक्षक की भाँती बैठकर क्रियाओं को नियंत्रित करने की जबाबदारीसे दूर रहना चाहिए । क्योंकि यह क्रियाएँ दैवी शक्ति द्वारा विवेक बुद्धिसे अंदरसे स्वत: प्रेरित होती हैं ।

इस स्थिती में उसे अध्यात्मिक समाधान मिलेगा और उसका विश्वास स्थिर एवं प्रबल होगा ।

अभ्यास होने के साथ आप जगत का व्यवहार करते हुए भी दृष्टा भाव ला सकते है। उस वक्त आसन इत्यादि गौण हो जाता है। तब आप जगत कर्म करते हुए भी साधन रूप में आ जाते है तब आपके कर्म और क्रिया एक हो जाते है।
संस्कार जो पैदा होते है। वह तुंरन्त कर्म रूपी क्रिया द्वारा नष्ट हो जाते है।
यही निष्काम कर्म है।
आप उस वक्त कर्मयोग में हो जाते है।

जैसे आप देखे। जब मैं बेंगलोर में बेटी दामाद के साथ सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर गया तब अभ्यास न होने कारण मोटापे और कुछ आयु के कारण मात्र 10 सीढी में हांफ गया। तब मैने माँ भगवती की प्रार्थना की गुरू महाराज गुरू शक्ति को याद किया। और साधन के भाव मे आने की प्रार्थना की। जिस कारण मेरा चढ़ना एक क्रिया बन गया मेरा शरीर दृष्टा। अतः मैं बिना थकान ऊपर जाकर आराम से लौट आया।
मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ जब लौटकर आने के बाद भी थकान रहित था।
यह उदाहरण था कर्म और क्रिया का।
यही अभ्यास करना है। 


हा बेहद कम या नगण्य लोग ही जगत के कर्म करते हुए लिप्त नही होते उनके लिए वह कर्म तुंरन्त क्रिया रूप में परिणित होकर नष्ट हो जाता है।
क्रिया वह जिसमे हम कुछ न करे स्वतः हो और वह क्रिया।
इस हिसाब से हम क्रिया को दो भागों बांट सकते है।
पहली प्राकृतिक क्रिया जैसे भूख नीद प्यास इत्यादि।
इसको करने में संस्कार पैदा नहीं होते है और हमारा भाव दृष्टा नही रहता।
यह कर्ताभिमान के साथ हो सकता है।


दूसरी यौगिक क्रिया जो स्वतः हो और प्राकृतिक न हो। इसके होने में संस्कार नष्ट होते है। दृष्टा भाव रहता है। इसमें कर्ताभाव नष्ट होता है।
प्रायः जगत में लोग प्राकृतिक क्रिया को समझ पाते है।
यौगिक क्रिया हेतु कुण्डलनी जागरण अनिवार्य है।

अब कुण्डलनी कितने कम लोग जागृत कर पाते है।
बस उससे कम संख्या में लोग यौगिक  क्रिया को समझ पाते है। 
क्योकि यह मात्र अनुभव है शाब्दिक नही।


कुछ सम्प्रदाय जैसे आर्यसमाज, ब्रह्मा बाबा और जहाँ तक राधा स्वामी सहित  तमाम लोग कुण्डलनी को मानते ही नही तो वह यौगिक क्रिया को मात्र नेति द्योति कुंजर या जन नेति ही समझेंगे। पर यह वाहीक यौगिक क्रिया है। आंतरिक नही।

 MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...