अघोर पंथ : क्या, क्यों
और कैसे
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कविई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो. 09969680093
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“केवलं शिवम् सर्वत्रम । सर्वस्व शिव स्वरूपं ।।”
वास्तव में यह अघोर पंथ का महावाक्य या मुख्य वाक्य सिद्दांत
है। मोटे तौर पर वह जो
कापालिक क्रिया करते हैं। वह जो तांत्रिक साधना मरघट में
करते हैं और वह जो भस्म से लिपटे होते हैं जिनसे आमजन स्वाभाविक तौर पर डरते हैं।
अघोर भारत के प्राचीनतम 'शैव संप्रदाय' (शिव साधक) व् शाक्त संप्रदाय (शक्ति साधक) दोनों के मिलन से संबधित हैं। अघोर तंत्र
का मुख्य केंद्र तारा पीठ, काली घाट व् कामाख्या मंदिर गुवाहाटी रहा है। सहज ही
प्रश्न उठता है कि औघड़ कौन हैं ? औघड़ (संस्कृत रूप अघोर) शक्ति का साधक होता है। चंडी, तारा, काली यह सब शक्ति के ही रूप हैं, नाम हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में रुद्र की कल्याण कारी मूर्ति को शिवी
की संज्ञा दी गई है, शिवा को ही अघोरा कहा गया है। शिव और शक्ति संबंधी
तंत्र ग्रंथ यह प्रतिपादित करते हैं कि वस्तुत: यह दोनों भिन्न नहीं, एक अभिन्न तत्व हैं। रुद्र अघोरा शक्ति से संयुक्त होने के कारण ही शिव
हैं।
एक सच्चा अघोरी कभी डींगें नहीं हांकता कि वह कुछ भी कर सकता है। वह कभी किसी से कुछ मांगता नहीं और न पैसा लेता है। वह सिर्फ देता है। वह फेस बुक पर आई डी बनाकर नये नये रूप बनाकर पैसे नहीं ऐठता है। वह जन कल्याण को व्यापार नहीं बताता और बनाता है। वह शिव स्वरूप बनने की कोशिश करता है। मान सम्मान से ऊपर होता है। अपनी शेखियों और ज्ञान के पोस्ट डालकर ग्राहक नहीं ढूढता है। मैं ढोगियों को खुली चुनौती देता है।वे किसी का हित अहित नहीं कर सकते।
एक सच्चा अघोरी कभी डींगें नहीं हांकता कि वह कुछ भी कर सकता है। वह कभी किसी से कुछ मांगता नहीं और न पैसा लेता है। वह सिर्फ देता है। वह फेस बुक पर आई डी बनाकर नये नये रूप बनाकर पैसे नहीं ऐठता है। वह जन कल्याण को व्यापार नहीं बताता और बनाता है। वह शिव स्वरूप बनने की कोशिश करता है। मान सम्मान से ऊपर होता है। अपनी शेखियों और ज्ञान के पोस्ट डालकर ग्राहक नहीं ढूढता है। मैं ढोगियों को खुली चुनौती देता है।वे किसी का हित अहित नहीं कर सकते।
घोरी-अघोरी-तांत्रिक
श्मशान के सन्नाटे में जाकर तंत्र-क्रियाओं को अंजाम देते हैं। घोर रहस्यमयी
साधनाएं करते हैं। वास्तव में अघोर विद्या डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना
होता है। अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो,
डरावना नहीं हो,
जो सरल हो,
जिसमें कोई
भेदभाव नहीं हो।
अघोर
बनने की पहली शर्त है अपने मन से घृणा को निकालना। अघोर क्रिया व्यक्त को सहज बनाती
है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जो शमशान जैसी भयावह और विचित्र जगह पर भी
उसी सहजता से रह सके जैसे लोग घरों में रहते हैं।
ऐसा
माना जाता है कि अघोरी मानव के मांस का सेवन भी करता है। ऐसा करने के पीछे यही तर्क
है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए। जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी
उन्हें अपनाता है।
वास्तव
में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। उनका अपना विधान है,
अपनी विधि है,
अपना अलग अंदाज है जीवन को
जीने का। अघोरपंथी साधक अघोरी कहलाते
हैं। खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं होता। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी
सभी चीजों का भक्षण करते हैं। अघोरपंथ में
मरघट साधना का विशेष महत्व है,
इसीलिए अघोरी शमशान वास करना ही पंसद
करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है।
अघोर विद्या भी व्यक्ति को हर चीज़ के
प्रति समान भाव रखने की शिक्षा देती है। अघोर
पंथ को बुरा समझने वाले शायद यह नहीं जानते हैं कि इस विद्या में लोक कल्याण की भावना
है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर
हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।
अघोर विद्या के जानकारों का मानना है
कि जो असली अघोरी होते हैं वे कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वे
केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हैं। अघोरियों की पहचान ही यही
है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है।
मनुष्य देह दुर्लभ से भी दुर्लभतम मानी गयी है मोक्ष प्राप्ति के
क्रम
में। सकल ब्रम्हांड की
समस्त जीवात्माएं देव आदि भी केवल इसी मनष्य देह के आश्रय से योनिमुक्त होकर मोक्ष के भागी होने की
अनिवार्यता के कारन मानव देह से अत्यधिक आकर्षित होते हैं। इसे परम आकर्षण कहा गया है।
क्योकि शिव
शक्ति का अंश होकर भी जीव
इस देह के आकर्षण में माया में डूब जाता है। इस परम आकर्षण से भी विरत होने की क्रिया शव साधना है। जिस
से अघोरी समस्त उच्चतर
योनियों के क्रम सिद्धांत को भी विजय कर सद्य महाकाल और काली में अपनी सन्निधि को सिद्ध करता है। यह बहुत विस्तृत विषय
है और पूर्ण गोपनीय भी। अघोर पंथ भारत वर्ष की अद्भुत विद्या है | इसे पुरातन भारत की धरोहर भी कहा जा सकता है, या यूं कहें कि उसी ज्ञान की परछाई आज का विज्ञान है।
अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं
अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान
दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरु माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते
हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के
अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार
लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति
शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव
स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और
जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान
कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
अघोर
संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को
पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और
चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान
भेद भी नहीं होता अर्थात महल या घाट एक समान होते हैं।
वाराणसी
या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की
स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की
है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त
गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को
अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं।
अघोरियों
के बारे में मान्यता है कि बड़े ही
रूखे स्वभाव के होते हैं लेकिन भीतर उनमें जन कल्याण की भावना छुपी होती है। अगर किसी पर
मेहरबान हो जाए तो अपनी सिद्धि का शुभ फल देने में भी नहीं हिचकते और
अपनी तांत्रिक क्रियाओं का रहस्य भी उजागर कर देते हैं। यहां तक कि कोई
उन्हें अच्छा लग जाए तो उसे वह अपनी तंत्र क्रिया सीखाने को भी राजी हो जाते हैं
लेकिन इनका क्रोध प्रचंड होता है।
इनकी
वाणी से सावधान रहना चाहिए। इनके आशीर्वाद शीघ्र प्रतिफलित होते हैं। यह अगर खुश हो जाए तो आपकी किस्मत बदलने
की क्षमता रखते हैं। आमतौर पर यह किसी से खुलकर बात नहीं करते। अपने आप
में मगन रहने वाले यह तांत्रिक, समाज से दूर रहते हैं, हिमालय की कठिन तराइयों में इनका वास होता है। कहते हैं इन्हें साक्षात शिव भी दर्शन देते हैं।
और जब तक इन्हें ना छेड़ा जाए किसी का अहित नहीं करते।
अघोरी
श्मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं –
श्मशान
साधना,
शिव
साधना,
शव
साधना।
ऐसी
साधनाएं अक्सर तारापीठ के श्मशान, कामाख्या पीठ के श्मशान, त्र्यम्बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्मशान में होती है।
अघोर
पंथियों के 10 तांत्रिक पीठ माने गए हैं।
अघोरपन्थ की तीन शाखाएँ प्रसिद्ध हैं -
औघड़,
सरभंगी,
घुरे। इनमें से पहली शाखा में
कल्लूसिंह व कालूराम हुए, जो किनाराम बाबा के गुरु थे। कुछ लोग इस पन्थ को गुरु
गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका सम्बन्ध शैव मत के पाशुपत
अथवा कालामुख सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं।
बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस ज़िले के समगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे। बाबा किनाराम ने 'विवेकसार' , 'गीतावली', 'रामगीता' आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहान्त संवत 1826 में हुआ।
अघोराचार्य बाबा कीनाराम द्वारा 200 वर्ष पूर्व लिखे गए ग्रंथों की पांडुलिपियां आज भी रासायनिक पदार्थो के जरिये लॉकर में सुरक्षित रखी हुई हैं। समय-समय पर इन पांडुलिपियों को निकाला जाता है और फिर रासायनिक पदार्थो को लेपन कर सुरक्षित रख दिया जाता है।
क्रींकुंड के पूर्व पीठाधीश्वर जयनारायण राम महाराज के शिष्य बाबा गुलाबचंद्र महाराज ने 1916 में चेतगंज के सेनपुरा में अपने गुरु की स्मृति में मंदिर व मठ की स्थापना की। क्रींकुंड में बाबा जयनारायण राम के दूसरे शिष्य अवधूत बाबा कीनाराम थे। बाबा कीनाराम ने सन् 1810 में कुछ ग्रंथ खुद लिखे थे। ये बेशकीमती पांडुलिपियां सेनपुरा आश्रम की देख-रेख में लॉकर में आज भी सुरक्षित हैं। आश्रम के बाबा राधेकृष्ण आनंद व उनके सहयोगी लालबाबू ने बताया कि बाबा कीनाराम ने ही उन पांडुलिपियों को महाराज गुलाब चंद्र आनंद महाराज को दी थी। इसमें बाबा कीनाराम द्वारा लिखी गईं 'विवेकसार', 'राम गीता', 'राम रसाल' व 'गीतावली' हैं। माना जाता है कि ये पांडुलिपियां 30 जून सन् 1810 में लिखी गई थीं।
सन् 1916 में अघोराचार्य बाबा गुलाब चंद्र आनंद महाराज को मिली थीं। इसी के बाद से इन्हें सुरक्षित रखा गया। बाबा गुलाब चंद्र के बाद बाबा गोपालचंद्र आनंद और वर्तमान में बाबा राधेकृष्ण आनंद तथा उनके सहयोगी लालबाबू बाबा कीनाराम की इस थाती को संभाल रहे हैं। सेनपुरा में वर्ष 1916 में निर्मित यह आश्रम जयनारायण सत्संग मंडली मठ के नाम से विख्यात है।
'विवेकसार' इस पन्थ का एक प्रमुख ग्रन्थ है,
जिसमें बाबा किनाराम ने 'आत्माराम' की वन्दना और अपने आत्मानुभव की चर्चा
की है। उसके अनुसार सत्य पुरुष व
निरंजन है, जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्त
रूपों में वर्तमान है और जिसका
अस्तित्व सहज रूप है। ग्रन्थ में उन अंगों
का भी वर्णन है,
जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टि रहस्य,
काया परिचयय,
पिंड
ब्रह्मांड,
अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है।
अगले तीन में योगसाधना,
निरालंब की स्थिति,
आत्मविचार,
सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा
शेष दो में सम्पूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया,
विवेक आदि के अनुसार
चलने के विषय में कहा गया है। बाबा
किनाराम ने इस पन्थ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश: चार मठों की स्थापना
की। जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है।
असम, जिसे कभी कामरूप प्रदेश के
नाम से भी जाना जाता था, ऐसा ही एक स्थान है जहां रात
के अंधेरे में शमशाम भूमि पर तंत्र साधना कर पारलौकिक
शक्तियों का आह्वान किया जाता है। यहां होने वाली तंत्र साधनाएं पूरे भारत में प्रचलित हैं। यूं तो अभी
भी कुछ समुदायों में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था चलती
है लेकिन कामरूप में इस व्यवस्था की महिलाएं तंत्र विद्या में बेहद निपुण हुआ करती थीं।
तारापीठ : तारापीठ को तांत्रिकों,
मांत्रिकों,
शाक्तों,
शैवों,
कापालिकों,
औघड़ों आदि सबमें समान रूप से
प्रमुख और पूजनीय माना गया है। इस
स्थान पर सती पार्वती की आंखें भगवान
विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी
थीं इसलिए यह शक्तिपीठ बन गया।
हिंगलाज
धाम : हिंगलाज धाम अघोर पंथ के प्रमुख
स्थलों में शामिल है। हिंगलाज धाम वर्तमान में विभाजित भारत के हिस्से पाकिस्तान के
बलूचिस्तान राज्य में स्थित है। यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से 120
किलोमीटर और समुद्र से 20
किलोमीटर तथा कराची नगर के
उत्तर-पश्चिम में 125 किलोमीटर की दूरी पर
हिंगोल नदी के किनारे स्थित है। माता
के 52 शक्तिपीठों में इस पीठ को भी
गिना जाता है। यहां हिंगलाज स्थल पर
सती का सिरोभाग कट कर गिरा था। यह अचल
मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को
मरुतीर्थ भी कहा जाता है। इसे भावसार
क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है।
विंध्याचल : विंध्याचल की पर्वत श्रृंखला जगप्रसिद्ध है। यहां पर
विंध्यवासिनी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थल में तीन मुख्य
मंदिर हैं- विंध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा। इन मंदिरों की स्थिति त्रिकोण
यंत्रवत है। इनकी त्रिकोण परिक्रमा भी की जाती है। कहा जाता है कि
महिषासुर वध के पश्चात माता दुर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गई थीं।
भगवान राम ने यहां तप किया था और वे अपनी पत्नी सीता के साथ यहां आए थे। इस
पर्वत में अनेक गुफाएं हैं जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं। आज भी
अनेक साधक, सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहां भेंट हो सकती है।
चित्रकूट : अघोर पथ के अन्यतम आचार्य दत्तात्रेय की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिए तीर्थस्थल है। औघड़ों की कीनारामी परंपरा की उत्पत्ति यहीं से मानी गई है। यहीं पर मां अनुसूया का आश्रम और सिद्ध अघोराचार्य शरभंग का आश्रम भी है। यहां का स्फटिक शिला नामक महाश्मशान अघोरपंथियों का प्रमुख स्थल है।
कालीमठ
: हिमालय की तराइयों में नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है। यहां अनेक साधक रहते हैं।
यहां से 5,000 हजार फीट ऊपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक
स्थल है, जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। कालशिला में भी अघोरियों का वास है। माना जाता
है कि कालीमठ में भगवान राम ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है।
कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।
कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।
अघोरी मूलत: तीन तरह की
साधनाएं करते हैं। शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना से अघोरी हर प्रकार की तंत्र साधनाओं में महारत
हासिल करते हैं, अघोरी क्षट् कर्मो के साथ
खेचरी व् परागमन साधनाओं को भी पूर्ण करते हुए महाकाल तंत्र साधना से काल विजयी हो जाते हैं तथा
भगवान् के श्री चरणों में ध्यान मग्न हो जाते हैं । शिव
साधना में साधक शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना करते हैं तथा ये साधना कई घंटों निर्जन
स्थान पर शव के साथ की जाती है, जिससे साधक ऋणात्मक ऊर्जा से
घनात्मक ऊर्जा का प्रवाह अपने मूलाधार से महसूस करता है तथा
इसे तंत्र अघोर साधना का पहला चरण कहा जाता है ।
बाकी दोनों तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं जो साधक
को आगामी चक्र की तरफ बढ़ाती हैं केंद्र को जागृत करती हैं। इस साधना का
मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पैर है। ऐसी साधनाओं में
मुर्दा जागृत हो जाता है तथा उन्हें प्रसाद स्वरुप में मांस और मदिरा चढ़ाई
जाती है व मेवा भी चढ़ाया जाता है।
शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है
श्मशान साधना, जिसमें आम
स्त्री पुरुष को भी शामिल किया जा सकता
है, इस साधना में मुर्दे की जगह
शवपीठ (जिस स्थान पर शवों का दाह
संस्कार किया जाता है) की पूजा की जाती
है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है।
यहां प्रसाद के रूप में भी मांस-मदिरा
की जगह मावा चढ़ाया जाता है,
तथा उसे सुगंध व फूलों से सजाया जाता
है।
हिन्दू धर्म में आज भी किसी 5
साल से कम उम्र के अप्राकृतिक मौत से
मरने वाले बच्चे, सांप काटने से मरे हुए लोगों,
आत्महत्या किए लोगों का शव जलाया
नहीं जाता बल्कि दफनाया या गंगा में
प्रवाहित कर कर दिया जाता है। पानी में प्रवाहित ये शव डूबने के बाद हल्के होकर पानी में
तैरने लगते हैं। अक्सर अघोरी तांत्रिक इन्हीं शवों को पानी से ढूंढ़कर
निकालते और अपनी तंत्र सिद्धि के लिए प्रयोग करते हैं।
अघोरियों के बारे में कई बातें प्रसिद्ध हैं जैसे कि
वे बहुत ही हठी होते हैं, अगर किसी बात पर अड़ जाएं तो उसे पूरा किए बगैर नहीं
छोड़ते। गुस्सा हो जाएं तो किसी भी हद तक जा सकते हैं। अधिकतर
अघोरियों की आंखें लाल होती हैं, जैसे वे बहुत गुस्सा हों,
लेकिन उनका मन उतना ही शांत भी होता
है। अर्ध नग्न अवस्था में काले वस्त्रों व श्मशान की भस्म
में लिपटे अघोरी गले में धातु तार में की बनी नरमुंड व् मानव हड्डियों की
माला पहनते हैं तथा इनको देखते ही आम इंसान की रूह कांप उठती है इसके
बिपरीत अघोरी जितने दिखने में डरावने लगते है उतने ही सौम्य व परोपकारी भी होते
हैं ।
ध्यान देनेवाली बात है कि अघोर के नाम पर आजकल अक्कसर
साधू भेष में लुटेरे भी घूम रहे होते हैं जो भोली भाली जनता को लुटते है, ध्यान रहे अघोरी संत कभी सांसारिक लोगों से कुछ मांगेगा नहीं क्योंकि वह तो स्वयं दाता है अतएव
सिद्ध संत भाग्यवान व्यक्ति को ही मिलते हैं ना कि आम घुमते हैं। अघोरी
अक्सर श्मशानों में ही अपनी कुटिया बनाते हैं या जंगलों में अपना समय साधना
में बिताते हैं। जहां एक छोटी सी धूनी जलती रहती है, क्योंकि अघोर साधना अग्नि के समक्ष ही की जाती है, इसके पीछे कारण है कि शव से शिव मात्र शक्ति यानी
ऊर्जा अग्नि के बिना संभव नहीं। जानवरों में वे सिर्फ कुत्ते पालना
पसंद करते हैं क्योंकि कुत्ते भैरव का वाहन माना जाता है तथा भैरव भगवान्
शिव का अघोर स्वरूप हैं व श्मशान के रक्षक हैं ।
अघोरियों के साथ उनके कुछेक शिष्य रहते हैं,
जो उनकी सेवा करते हैं तथा
अघोर का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अघोरी
अपने वचन के बहुत पक्के होते हैं, वे अगर किसी से कोई बात कह दें तो उसे पूरा करने की
सामर्थ्य रखते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि अघोरियों की साधना में इतना
बल होता है कि वे मुर्दे से भी बात कर सकते हैं किसी भी अनहोनी को होनी
में तब्दील करने की क्षमता रखते हैं,
यही कारण है कि अघोरी शिव स्वरूप माने
जाते हैं । ये बातें पढ़ने-सुनने में भले ही अजीब लगे,
लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी
नहीं जा सकता। उनकी साधना को कोई
चुनौती नहीं दी जा सकती।
अघोरी अमूमन आम दुनिया से कटे
हुए रहते हैं, वे अपने आप में मस्त रहने वाले, अधिकांश समय दिन में सोने और
रात को श्मशान में साधना करने वाले होते हैं। वे आम लोगों से कोई संपर्क नहीं रखते और ना ही
ज्यादा बातें करते हैं। वे अधिकांश समय अपना
सिद्ध मंत्र ही जाप करते रहते हैं तथा अपनी साधना में लीन रहते हैं। आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं
जो पराशक्तियों को अपने वश में कर के दुनियां के
लिए कोई भी विचित्र अनहोनी को टाल सकते हैं, मनुष्य जीवन के लिए बरदान से
बढ़ कर क्रियाएं कर सकते है जो विज्ञान की समझ से परे हैं ।
दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां
तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। ये हैं तारापीठ का श्मशान
(पश्चिम बंगाल), कामाख्या
पीठ (असम) का श्मशान,
त्र्यंबकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य
प्रदेश) का श्मशान । अघोरी जीवन मरण के चक्कर से मुक्त होकर खान
पान से भी परे चला जाता है परंतु सांसारिक जीवन व् ब्यक्तियों को तुच्छ
चीज़ों को अपने अंदर समाहित करते हुए दिखाते हैं तथा उसके दूसरी तरफ मानव
जाति व् पृथ्वी पर ज्ञान की ऊर्जा का विखराव करते रहते हैं।
अघोरपंथ के अनुयायियों के लिए मल मूत्र,
मांश,
अन्य तुच्छ बस्तुएं उतनी ही
महत्व रखती हैं जितनी अन्य संसार के
लिए विविध पदार्थ जिन्हें सांसारिक लोग
अच्छा समझते हैं। अघोर किसी भी बस्तु,
व्यक्ति स्थान,
व् समय को अच्छा
बुरा नहीं आंकता परंतु संसार की हर
बस्तु को उपयोगी मानकर सभी संसार की बस्तुयों, नियमों के साथ हर प्रकार के प्रणियों को समभाव की
दृष्टि से देखता है। वे श्मशान में रहना ही ज्यादा पंसद करते
हैं क्योंकि शमशान ही तंत्र शास्त्र के अनुसार शिव स्थान है । श्मशान में
साधना करना भी शीघ्र ही फलदायक होता है क्योंकि समशान में किसी भी प्रकार की
ऊर्जा नहीं होती ये स्थान पूर्ण जागृत होकर स्थगन मुद्रा में रहता है ।
श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विध्न पडऩे का कोई प्रश्न ही नहीं
उठता। उनके मन से अच्छे बुरे का भाव निकल जाता है,
संसार एक समान लगने लगता है,
स्त्री पुरुष का भेद मिट जाता है मात्र
शिव ओर शक्ति की ऊर्जा का ध्यान रखते हुए अपनी साधना में लीन होकर शक्तियों का समाहन
करते हुए आगे बढ़ते हैं।
अघोर पंथ के साधुओं के बारे में गलत बातें अधिक चर्चित हैं।
ज्यादातर लोगों को अघोर पंथी काफी भयावह, रक्त, मांस, मदिरा और मैथुन जैसे कृत्यों
में संलग्न नज़र आते हैं। अघोर पंथ के
अनुयायियों के विषय में सामान्य मान्यता यह है कि वे दीन-दुनिया से दूर सांसारिकता से विरक्त एक खास
संन्यासी समुदाय हैं, जिनका कार्य केवल अपनी ईष्ट सिद्धि के लिए भयंकरतम कृत्यों
में रत रहना होता है। वास्तविक हालात कहीं जुदा हैं जो अघोरपंथी साधकों को सामान्य सोच से
हटकर दिखाते हैं। सबसे पहले हमें “अघोर” शब्द का
संधि विच्छेद करना चाहिए। आप पाएंगे कि अघोर शब्द की उत्पत्ति “अ” एवं “घोर” शब्दों के सम्मिलन से
हुई है।
यानि
कोई भी मनुष्य जो सहज, सरल, अबोध अवस्था में हो उसे अघोर कहा जा सकता है। यानि कि
दुनियावी मकड़जाल से जिसका पाला न पड़ा
हो और वह शिशु की तरह अबोध ग्रंथि रहित जीवन जीता हो तो ऐसे व्यक्ति को अघोरी की संज्ञा
दी जा सकती है।
यहां
अबोधता से आशय शिशु जैसी अबोधता नहीं वरन् जाग्रत व बोध युक्त
अबोधता से है। ग्रंथि रहित होने का तात्पर्य है कि वह व्यक्ति सत्-असत्,
क्रोध-लोभ-मोह-माया-राग-विराग आदि
दोषों से मुक्त जीवन जी रहा हो।
जागरण
की ऐसी अवस्था अघोरपंथी साधक अन्य पंथ के साधकों से कहीं
अधिक आसानी से हासिल कर लेते हैं। इसका कारण है कि वे दुनिया में रहते हुए
सांसारिकता को त्याग चुके होते हैं और ये क्रिया अन्य पंथियों के लिए
मुश्किल साबित होती है। अन्य पंथों में इस निर्दोषता और जागरण की अवस्था
प्राप्त करने के लिए सांसारिकता सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
आपने
बुद्ध व महावीर की निर्दोषता और जागरण के बारे में अच्छी तरह
सुना होगा। महावीर का नग्न होना एक सामान्य घटना थी न कि कोई विशिष्ट
उद्देश्य से संचालित सोची-समझी चाल। बस सहज भाव से उनमें बुद्धत्व घटित
हुआ और बुद्धत्व की इसी अवस्था में शिशु के समान निर्दोष हो गए।
ये
निर्दोषता सरल अवश्य थी किंतु शिशु की भांति जागरण रहित कदापि नहीं
थी। कुछ ऐसे ही हालात बुद्ध, ताओ, कंफ्यूशियस आदि के साथ भी थे। उन्होंने पूर्ण रूपेण
जागरण की अवस्था हासिल की और सहज बोध को प्राप्त हुए।
ध्यान
रहे कि सोचा-समझा कृत्य कभी भी स्वाभाविक अवस्था नहीं
प्राप्त करा सकता है। इसके लिए किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं बल्कि ये स्वयं घटित
होने वाली घटना है। मन के सभी स्तरों को पार कर जब मनुष्य सर्वोच्च
मनःस्थिति में पहुंच जाता है तब सहजता एक स्वभाव बन जाता है।
इस
दशा में राग-विराग सहित सभी वासनाओं का तिरोहण हो जाता है। ये
एक प्रवाहपूर्ण स्थिति है न कि स्थैतिक अवस्था। डायनमिक संचारण की ये
स्थिति किस तरह बहुत ही सरलता से बोध युक्त बना जाती है,
इसे जानना रुचिकर होगा।
अब
हम मूल संदर्भ पर वापस लौटते हैं जहां हमने अघोर पंथ की सरलता की
बात की थी। संसार में अघोरियों का प्रादुर्भाव (किसी भी छल व धोखे में
शामिल व्यक्ति को बहुरूपिया कहा जाएगा न कि अघोरी साधक) शैव कापालिक व
कालामुख आदि संप्रदायों से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा इसमें शाक्त
संप्रदाय की तांत्रिकता भी शामिल है।
पौराणिक
मान्यता के अनुसार अघोर पंथ को भगवान शिव ने स्थापित किया था।
अवधूत भगवान दत्तात्रेय को अघोर पंथ में प्रबल रूप से आराध्य माना
जाता है। ये पता होना चाहिए कि अघोरी साधकों को जनसामान्य की भाषा में औघड़
भी कहा जाता है। लेकिन आमजन की अक्सर ठग अघोरियों से मुलाकात होने की
वजह से विशिष्ट साधना का यह मार्ग बदनाम अधिक हुआ,
जिस कारण इस पर से लोगों का भरोसा उठ
ही चुका है।
अब
बात करते हैं अघोरी साधकों से रिलेटेड खास आयामों की। अघोर पंथ में
दो अलग-अलग साधनाएं अथवा क्रियाएं अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए
अपनाई जाती हैं। पहली है अघोर पंथ की शव साधना क्रिया और दूसरी है सात्विक
साधना क्रिया। सामान्यतया शव साधना क्रिया को अघोर पंथ से काफी अधिक जोड़ा गया
है।
साधना की इस विशेष विधि में श्मशान में मृत शरीर के ऊपर पैर रख कर चिता
भस्म लपेटे अघोरी उपासना के लिए कपाल और अंगुलि
माला का प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही वे मृत शरीर को खाते हैं तथा रक्तपान करते हैं। इसके पीछे
मान्यता है कि इससे समदर्शिता प्राप्त होती है।
इसके अलावा घृणा-द्वेष आदि विकारों का परिमार्जन भी होता है।
इसके
अतिरिक्त इसमें मैथुन का विशेष स्थान है। ये मैथुन जीवित इंसान
के साथ न होकर मृत शरीर के साथ होता है। इस साधना की विशिष्टता है कि
इसमें भेदाभेद का स्थान नहीं और इसके लिए वो सारे उपाय आजमाए जाते हैं जिनसे
मुक्ति मिलती है। वस्तुतः अघोरी साधक समानता और आजादी के बेमिसाल
प्रतीक हैं।
मनुष्य
की गरिमा को सर्वाधिक ऊंचा उठाने में इस साधना का खास महत्व
है। चिता, श्मशान, मृत शरीर, कपाल, चिता भस्म और मृत शरीर के साथ संभोग आदि की प्रतीकात्मकता
बहुत गहरी है। इसके हर एक भाव में अनेक अर्थ समाहित हैं।
मैथुन की सार्थकता इस तथ्य में निहित है कि प्रजनन और ब्रह्माण्ड की
असीमता अद्भुत हैं। इन्हें रोकने की कोई भी कोशिश
सृष्टि के लिए विनाशकारी साबित होगी। मैथुन मृत शरीर के साथ इसलिए क्योंकि शव और जीवित शरीर में
केवल आत्मा का भेद है और आत्मा को छोड़कर सब कुछ
नश्वर है। किंतु इस नश्वरता में भी सुंदरता है और मैथुन उस सुंदरता का सजीव चित्रण है।
अघोर
पंथ की ये साधना क्रिया आमजन में अधिक लोकप्रिय नहीं है। इस
साधना के दौरान यौगिक आसन में वेदोक्त पद्धति से मंत्रोपासना की जाती है। इस
दौरान साधक तन-मन से पूर्ण सात्विक जीवन व्यतीत करता है और उसका खानपान
तथा जीवन व्यवहार पूरी तरह कंद-मूल आदि पर निर्भर करता है।
हकीकत
ये है कि इन दोनों ही उपासना रीतियों की प्रभावशीलता बराबर होती
है। अंतर केवल शैली और व्यवहार का है किंतु उद्देश्य में कोई भी फर्क नहीं
होता। आमजन की इन दोनों पद्धतियों में आस्था हो सकती है किंतु जहां तक
भ्रम का सवाल है तो अधिकांश को इस साधना की दूसरी क्रिया के बारे में
अक्सर अंदाज़ा ही नहीं होता......
बाबा
किनाराम ने इसी अघोरा शक्ति की साधना की थी | बाबा कीना राम सिद्ध अघोर स्थल बनारस के समर्थ सिद्ध अघोरी हुए जिनका आसन आज भी स्वतः चलता है। ऐसी
साधना के अनिवार्य परिणामस्वरूप चमत्कारिक दिव्य सिद्धियाँ अनायास प्राप्त
हो जाती हैं, ऐसे साधक के लिए असंभव कुछ नहीं रह जाता। वह परमहंस पद
प्राप्त होता है। कोई भी ऐसा सिद्ध प्रदर्शन के लिए चमत्कार नहीं दिखाता ।
औघड़ साधक की भेद बुद्धि का नाश हो जाता है। वह प्रचलित सांसारिक मान्यताओं
से बँधकर नहीं रहता। सब कुछ का अवधूनन कर, उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है।
अघोरियों की कई बातें ऐसी हैं जिनको सुनकर आप दांतों
तले उंगली दबा लेंगे। में आपको अघोरियों की दुनिया की कुछ ऐसी ही बातें बताने
जा रहा हूँ, जिसको जानकर आपको एहसास होगा कि अघोर पंथ कितनी कठिन साधना
करते हैं तथा इससे मानव जाति को किस तरह से फायदा होता है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह
आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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(कथन, तथ्य गूगल से साभार)
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