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Thursday, December 13, 2018

धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब





धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब 


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.com     वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet”



प्राय: लोग भ्रमित होते है और पंथ सम्प्रदाय और धर्म को एक समझने की भूल कर बैठते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अंग्रेजी भाषा का बहुत सीमित होना। अब यह देखें संस्कृत भाषा विश्व में कहीं भी बोली जाये। इसकी स्वर ध्वनि एक ही रहेगी पर अन्य भाषा की स्वर ध्वनि आदमी के हिसाब से ही बदल जाती है। कारण संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है।  पढनेवाले प्राय: भारतीय दर्शन को अंगेजी में पढते हैं और अनुवाद करने में मूलता बदल जाती है।  दूसरे कुरान और बाइबिल मात्र एक व्यक्ति के विचारों का संकलन है।  और उसकी सत्यता को चुनौती देना असम्भव जबकि संस्कृत साहित्य में लाखों ऋषियों का योगदान तर्क वितर्क और मंथन के बाद निकला अमृत ज्ञान। समय के साथ बदलती शैली का समावेश और मान्यता।

धर्म अर्थात जो धारण करने योग्‍य है। हम फिलहाल 'धर्म' और 'पंथ' को लेते हैं। 'धर्म' संस्कृत के 'धी' धातु से जन्मा है, जिसका अर्थ होता है, 'जो धारण करे।' हमारे दार्शनिकों ने (धर्मशास्त्रियों ने नहीं) इसकी परिभाषा दी 'धारयेति इति धर्म।' जो जीवन को धारण करे, जो जीवन में धारण करने योग्य है, वह धर्म है। 

आप यूं समझें।
धर्म ------------------------ अंतर्गत ------------- सम्प्रदाय -----------------अंतर्गत ----------- पंथ 

मानव धर्म (सनातन)   --- हिंदू, जैन, बुद्ध, सिख---   कबीर, नानक, बौद्ध, ब्रह्म कुमारी, राधा स्वामी, वारकरी, लिंगायत

जैसे मुस्लिम और ईसाई  सम्प्रदाय  और पंथ है धर्म नहीं।

सनातन धर्म में चार पुरूषार्थ हैं।  जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष।
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष।

गौतम ऋषि कहते हैं - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।' (जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। )

मनु ने मानव धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥

धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।

जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।

उपरोक्त मानव धर्म का पालन करने वाला हिन्दू समुदाय विश्व के सभी बड़े समुदायों में सबसे पुराना है। यह समुदाय पहले आर्य (श्रेष्ठ) नाम से संबोधित किया जाता था। इस समुदाय की कई मान्यताएँ वेदों पर आधारित है, यह समुदाय अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय को मानने वालों को समेटे हुए हैं। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा समुदाय है, पर इसके ज़्यादातर लोग भारत में हैं और विश्व का सबसे अधिक हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल में है। हालाँकि इस समुदाय के लोगों द्वारा कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है।

इस समुदाय के लोग स्वयं को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म मानने वाला कहते हैं। इंडोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। लोगों का मानना है कि "हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दू" अर्थात जो अपने मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दू है।

वात्स्यायन ने धर्म और अधर्म की तुलना करके धर्म को स्पष्ट किया है। वात्स्यायन मानते हैं कि मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।
  • शरीर का अधर्म : हिंसा, अस्तेय, प्रतिसिद्ध मैथुन
  • शरीर का धर्म : दान, परित्राण, परिचरण (दूसरों की सेवा करना)
  • बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा अधर्म : मिथ्या, परुष, सूचना, असम्बन्ध
  • बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा धर्म : सत्व, हितवचन, प्रियवचन, स्वाध्याय (self study)
  • मन का अधर्म : परद्रोह, परद्रव्याभिप्सा (दूसरे का द्रव्य पा लेने की इच्छ), नास्तिक्य (denial of the existence of morals and religiosity)
  • मन का धर्म : दया, स्पृहा (disinterestedness), और श्रद्धा
महाभारत के वनपर्व (३१३/१२८) में कहा है-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।

दूसरे शब्दों में, जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है। और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।

कृष्‍ण ने धर्म को कर्म से भी जोड़ा। गीता में कृष्ण ने 'धर्म' को और भी व्यापक बनाकर उसे प्रकृति और कर्म से जोड़ दिया। गीता के अंतिम अठारहवें अध्याय के 47 वें श्लोक के अंत में वे अर्जुन को आश्‍वस्त करते हैं कि 'स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूपीकर्म को करता हुआ मुनष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।' यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि अग्नि का स्वभाव है जलाना। यही उसका धर्म (स्वधर्म) है। इसलिए यदि अग्नि किसी को जलाती है, तो उसे इसका पाप नहीं लगेगा। कृष्ण ने आगे कहा कि इस शरीर का धर्म है, कर्म करना। यदि यह शरीर अपना कर्म नहीं करेगा, तो यह नष्ट हो जाएगा। यानी कि अपने धर्म का पालन न करने वाला खत्म हो जाएगा। इसलिए अक्सर लोग अन्य क्षेत्रों के साथ 'धर्म' शब्द को जोड़ देते हैं-राजनीति का धर्म, गुरु-धर्म, पितृ-धर्म आदि-आदि।


जैन दर्शन ले अनुसार  १० धर्म है
उत्तम क्षमा,  उत्तम मार्दव,  उत्तम आर्जव,  उत्तम शौच,  उत्तम सत्य,  उत्तम संयम,  उत्तम तप,  उत्तम त्याग,  उत्तम आकिंचन्य,  उत्तम ब्रह्मचर्य। 


पंथ इससे अलग है- आचरण का नियम बना लेना। यानी कि संहिताबद्ध रूप है। धर्म वाले सन्दर्भों में कहें तो पूजा पाठ, सम्पत्ति अंतरण, जन्म से मृत्यु तक के संस्कार वाला रूप. ऊपर वाला उदाहरण लें तो बिच्छुओं का कोई समूह अगर तय कर ले कि अब रास्ते में पड़ जाने पर ही डंक नहीं मारना है या दौड़ा के डंक मारना है तब वह पंथ हो जाएगा। 


पंथ अर्थात मंजिल तक पहुंचाने वाला मार्ग अब हम आते हैं  'पंथ' पर। गीता के चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक की दूसरी पंक्ति में कृष्ण कहते हैं, 'लोग भिन्न-भिन्न मार्गों द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।' 'पंथ' अर्थात मार्ग, रास्ता, सड़क, रोड, जो मंजिल तक पहुंचाता है। यहां मंजिल है-धर्म। अब तक की मुख्य और मनोवैज्ञानिक चुनौती यह रही है कि आदमी के अंदर धर्म के इन दस लक्षणों में से अधिक से अधिक को कैसे स्थापित किया जाए। इन्हीं उपायों को गौतम बुद्ध ने अपनी तरह से बताया, तो महावीर स्वामी, गुरुनानक देव, नारायण स्वामी आदि महान एवं पवित्र आत्माओं ने अपनी-अपनी तरह से। ये उपाय ही हैं  'पंथ', जिसे संविधान की प्रस्तावना में 'विश्‍वास एवं उपासना' कहा गया है। 'पंथ' को हम धर्म तक पहुंचने का विधान कह सकते हैं, पद्धति कह सकते हैं।

उन अर्थों में भारत में कभी कोई धर्म (हकीकतन पंथ) रहा ही नहीं। अंग्रेजों के आने तक तो क्षेत्रीय ही नहीं (जैसे तमिल और काश्मीरी) एक ही क्षेत्र के हिन्दुओं में इतने फर्क थे कि वह एक मोटीमोटी जीवनशैली तो था पर धर्म नहीं था।  बस एक उदाहरण लें तो अंग्रेज न आये होते तो (तथाकथित) पिछड़ी जातियों में स्त्रियों को पति के जिन्दा रहते भी पुनर्विवाह का अधिकार था जबकि (तथाकथित) उच्च वर्णीय जातियों में पति के मर जाने पर भी काशी के अलावा बस चिता का ही रास्ता था। 


हुआ यह कि अंग्रेज ये बात समझ नहीं पाये और धीरे धीरे अपने पंथ को भारत का धर्म बनाते गए, और फिर वह धर्म तो ब्राह्मणों वाला ही पंथ होना था- एक तरफ के ही नहीं, मुसलमानों वाले ब्राह्मणों का भी. (अंग्रेजों के ज़माने में सभी उच्च न्यायालयों में धार्मिक  मामलों में जज की मदद करने को धर्म विशेषज्ञ नियुक्त किये जाते थे और क्या यह  कहने की जरुरत है कि वह पंडित/मौलवी ही होते थे- यानि जाति पंचायतों के अपने  नियमों को खारिज कर ऊपर वालों के पंथ को अंग्रेजों ने धर्म बना दिया। (देखें जानकी नायर, वीमेन एंड लॉ इन कोलोनियल इंडिया, ऑक्सफ़ोर्ड, 1996) 



बाकी उन्होंने ये साजिशन नहीं किया। दलित/पिछड़े समुदाय के प्रति अपनी सनातन असहिष्णुता (स्त्रियों के प्रति तो दुनिया भर के धर्मों की थी ही) को छोड़ सनातनियों को कुछ भी एक नहीं करता था, नहीं करता है।  यह अंग्रेजों को कहाँ मालूम जो भारी संहिताबद्ध धर्म से आये थे।  अत: उन्होंने अपने लिए सहज अनुवाद कर दिया- रिलिजन माने धर्म। 



यहां यह एक बात बिल्कुल साफ है कि धर्म हमारे सार्वभौमिक एवं  सार्वकालिक आंतरिक मूल्यों का विशाल महासागर है। इसीलिए विश्‍व के सभी धर्मों में ये सभी तत्व मिलते हैं। यहां दो बातें स्पष्ट हैं। पहला यह कि मनुष्य का जीवन और धर्म अभिन्न हैं। दूसरा यह कि अलग-अलग होते हुए भी सभी धर्म मूलतः एक हैं। जो अंतर है, वह भाषा का है, कहने की शैली का है, बातों का नहीं।



संविधान के अनुच्छेद 51 (क) के खण्ड (च) में प्रयुक्त अभिव्यक्तिसामासिक संस्कृति’ का प्रयोग किया गया है। यह शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसके विषय में स्पष्ट किया है कि इस सामासिक संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा साहित्य है, जो इस महान देश के भिन्न भिन्न जनों को एक रखने वाला सूत्र है और हमारी विरासत के संरक्षण के लिए शिक्षा प्रणाली में संस्कृत को चुना जाना चाहिए। ‘सामासिक संस्कृति’ के विकास में हमारे संविधान निर्माताओं ने देश का भला समझा था और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सही ढंग से परिभाषित भी कर दिया। 
 
 
देश में धर्मनिरपेक्षता के पक्षाघात से पीड़ित सरकारों ने अपना राजधर्म नही निभाया। उन्हें संस्कृत भाषा और उसकी शिक्षा प्रणाली अपने ‘सैकुलरिज्म’ के खिलाफ लगती है इसलिए इस दिशा में कोई ठोस पहल नही की गयी। फलस्वरूप संस्कृत भाषा, उसके साहित्य और उसकी शिक्षा प्रणाली का विरोध करना यहां धर्मनिरपेक्षता बन गयी। इसी को आत्म प्रवंचना कहते हैं। राजधर्म है जनता में या देश के नागरिकों में समभाव, सदभाव और राष्ट्रीय मूल्यों का विकास करना और सम्प्रदाय है राजनीति को किसी जाति अथवा सम्प्रदाय के लिए लचीला बनाना उसके प्रति तुष्टिïकरण करना और तुष्टिïकरण करते करते किसी एक वर्ग के अधिकारों में कटौती करके उसे दे देना। यह राक्षसी भावना है और यदि यह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया जाता है तो उसे भी हम इसी श्रेणी में रखेंगे।

राजधर्म के निर्वाह में सर्व सम्प्रदाय समभाव का प्रदर्शन तो उचित है, धर्मानुकूल है, परंतु एक सम्प्रदाय के किसी आतंकी के समर्थन में जब उसका पूरा सम्प्रदाय उसकी पीठ पर आ बैठे तो उस आतंकी के प्रति दयाभाव या क्षमाभाव का प्रदर्शन करना सर्वथा अनुचित है, अधर्म है राजधर्म के विपरीत है। राजधर्म का अभिप्राय कभी भी आतंकी के प्रति क्षमाभाव नही है। राजधर्म तो षठ के प्रति षठता के व्यवहार पर टिका होता है। क्योंकि प्रजा में असंतोष उत्पन्न न होने देना और हर स्थिति में शांति स्थापित रखना राजा का प्रथम कर्त्तव्य है।


मजहब उर्दू फारसी शब्द  है जो धर्म नहीं पंथ  या सम्प्रदाय  है। क्योकिं जैसा कि हमने देखा है कि धर्म सिर्फ  मानवता की  बात कर दया इत्यादि ही सिखाता है।  मजहब धर्म के रूप में एक गलत रूपांतरण  है, जो कदम कदम पर मानव को भरमाता और भटकाता है। क्योंकि ये किसी खास महापुरूष की शिक्षाओं के आधार पर चलता है। इसे कोई स्थापित करता है और इसके मानने वाले अपनी पुस्तक के प्रति हठी होता है।

इस पुस्तक में परमात्मा सृष्टि तथा मानव और मानव समाज के विषय में कोई विशिष्ट चिंतन होता है, जिसे इसके अनुयायी सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। उसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप या शंका को तनिक भी सहन नही किया जाता। संसार के सारे लोग व्यवहार और जीवन दर्शन को मजहबों के अनुयायी अपनी अपनी पुस्तकों से शासित करने का प्रयास करते हैं। इसीलिए देर सवेर मजहबों में वैचारिक टकराव होते हैं जो कालांतर में सैनिक टकराव में बदल जाते हैं। क्योंकि पंथों के अनुयायी ये मानकर चलते हैं कि उनके पंथ के अनुसार विश्व में सारी व्यवस्था चले और सारा विश्व उन्हीं के मत का अनुयायी हो जाए। यह प्रवृत्ति मजहबी है जो आतंक और तानाशाही को जन्म देती है। विश्व में घृणा का प्रसार करती है।

हमारे संविधान ने इस सोच पर प्रतिबंध लगाने के लिए राज्य को किसी सम्प्रदाय के प्रति लगाव रखने से निषिद्घ किया। क्योंकि हमारे संविधान निर्माता देश में कोई साम्प्रदायिक शासन स्थापित करना नही चाहते थे। जिसे मजहबी शासन कहा जाता है। जैसा कि विश्व में इस्लामी और ईसाई देशों में स्थापित है।
 
भारत के संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार की सोच को देश के लिए घातक माना था। इसलिए सबको विधि के समक्ष समान बनाने की बात कही थी। पर हमने ही ऐसी विसंगतियां पैदा कर लीं हैं कि जिनका ना तो संविधान ही समर्थन करता है और ना ही न्याय या नैतिकता। संविधान की मूल भावना पंथ निरपेक्षता की है, न कि धर्मनिरपेक्षता की।
 
 
अघोर पंथ : क्या, क्यों और कैसे  


(कथन, तथ्य गूगल से साभार) 





 MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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