Search This Blog

Monday, December 17, 2018

कर्म, अकर्म और विकर्म



कर्म, अकर्म और विकर्म

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818   
vipkavi.com     वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 
योग योगेश्वर कृष्ण द्वारा जो कर्म समझाये गये उनमें जाने के पूर्व मैं अपनी बुद्धि तर्क और वैज्ञानिक सोंच के द्वारा कर्म को परिभाषित करने का प्रयास करता हूं। वास्तव में इस जगत में सब चलायमान है। जहां जीव द्वारा कोई क्रिया है वहां कर्म है। बिना कर्म किये तो यह प्रकृति भी नहीं पाती तो जीव की बात क्या। यहां कर्म जीव हेतु ही परिभाषित होता है। मानव योनि को कर्म योनि कहते हैं बाकी सब भोग योनि। मतलब मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा देव और दानव बन सकता है। पर अन्य जीव नहीं। अत: कर्म की चिंता और चिता दोनो मानव योनि हेतु ही हैं। 

कर्म को मैं दो भागों में विभाजित करना चाहूंगा। 1. प्राकृतिक कर्म 2 प्रेरित कर्म
1. प्राकृतिक कर्म : जैसे सांस लेना देखना सुनना भूख प्यास लगना और इसके हेतु कर्म हो जाना।  इत्यादि। क्योकिं इन पर मानव का बस नहीं। 
2 प्रेरित कर्म : अपने मन के अनुसार प्रेरित होकर कर्म करना। यहां अच्छा बुरा पाप पुण्य यह पाप करने हेतु इंद्रियों को प्रेरित करते हैं। 

इन्ही प्रेरित कर्मों की व्याख्यायें की जाती हैं क्योकि इनमें कर्ताभिमान हो सकता है।
अकर्म : यानी जो कर्म नहीं। वह कैसे । मतलब जिसमें हमारा चित्त तरंगित न हो। कर्मफल की चिंता न हो। यानि निष्काम कर्म ही अकर्म है। क्योकिं इसमें कर्ता का आत्मिक स्तर पर भाग लेना हुआ ही नहीं। साथ यह कर्म समाज हित में हो। यह कर्म तो शरीर कर रहा है। अहंकार नहीं। इसी बात पर एक भजन याद आ रहा है।

सीता राम सीता राम सीताराम कहिये, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये |

मुख में हो राम नाम राम सेवा हाथ में, तू अकेला नाहिं प्यारे राम तेरे साथ में |
विधि का विधान जान हानि लाभ सहिये, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ||

किया अभिमान तो फिर मान नहीं पायेगा, होगा प्यारे वही जो श्री रामजी को भायेगा |
फल आशा त्याग शुभ कर्म करते रहिये, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ||

ज़िन्दगी की डोर सौंप हाथ दीनानाथ के, महलों मे राखे चाहे झोंपड़ी मे वास दे |
धन्यवाद निर्विवाद राम राम कहिये, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ||

आशा एक रामजी से दूजी आशा छोड़ दे, नाता एक रामजी से दूजे नाते तोड़ दे |
साधु संग राम रंग अंग अंग रंगिये, काम रस त्याग प्यारे राम रस पगिये ||
विकर्म : वह कर्म जो विषय वासना की पूर्ति हेतु, स्वार्थ हेतु किया जाये। जिसमें कर्ता का शरीर और उसका चित्त दोनों लगे हैं। वह विकर्म होता है। 

गीता में भगवान कहते हैं।
मां कर्माणि लिम्पन्ति मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न बध्यते॥ 4 /14

‘‘
मुझे कर्म लिप्त करते हैं, ही मुझे कर्मफल की लालसा है। जो मुझे इस प्रकार तत्त्व से जान लेता है, वह कर्मों के बंधन को प्राप्त नहीं होता।’’

भगवान् यहाँ कह रहे हैं, कर्म तभी उचित सिद्ध हो पाते हैं जब भावना शुद्ध होती है। यदि अंदर की भावना इंद्रिय तुष्टि की है, तो उससे अधिकाधिक मानसिक बंधन ही उत्पन्न होंगे। निस्वार्थ समर्पित कर्म वासनाओं के क्षय का कारण होते हैं। ऐसे कर्म करने वाले व्यक्तित्व मुक्त होकर अनंत आत्मा की स्वतंत्रता और विस्तार को प्राप्त होते हैं। कर्मों में यज्ञीय भाव कैसे बनाया जाए, इस पर भगवान् समझाते हुए कहते हैं, ‘‘कर्मफल की लालसा मत रखो एवं उनमें लिप्त मत होओ।’’ भगवान् स्वयं अपने बारे में कहते हैं कि मुझे कभी भी किसी भी प्रकार की कर्मफल की लालसा नहीं है। ( मे कर्मफले स्पृहा )|


सूर्य प्रकाशित होता है तो दोनों को ही प्रकाश देता है, गंदे जल वाले तालाब को और निर्मल पावन गंगा के शुद्ध जल को। यदि यह ज्ञान हमें हो सके कि हमारी आत्मसत्ता सभी क्रियाओं का केंद्र अवश्य है, पर उसके परिणामों से अलिप्त है, तो संसार की सभी गतिविधियों का संचालन करते हुए भी हम आत्मा में ही स्थित रहते हैं एवं भगवत् कार्य करते हुए जीवन को सार्थक ढंग से जीते हैं। भगवान् कहते हैँ ‘‘जो मुझे इस तरह से जानता है (इति मां योऽभिजानाति) वह कभी कर्मों के बंधनों में नहीं फँसता (कर्मभिः बध्यते)।’’ कितना सुंदर स्पष्टीकरण है। जीवन जीने की कला का अनुपम शिक्षण है। भगवान् को जानना है, तो हमें इस तरह तत्त्व रूप में जानना चाहिए। फिर हमारे सभी कर्म यज्ञीय भाव से होते रहेंगे। ज्ञानीजन यही कहते हैं कि हमें निष्काम कर्म में लिप्त कर ब्राह्मण बनाना चाहते हैं। जीवन भर उनकी साधना इसी निमित्त नियोजित होती रही। ब्राह्मण वह जो ब्रह्म में विचरण करे, जो कर्मों के बंधन से ऊपर चले।


कर्म वास्तव में हमारे व्यक्तित्व को अपने पीछे छोड़ी हुई वासनाओं की हथकड़ियों से बाँधते हैं। नए कर्म नई वासनाएँ उत्पन्न करते हैं, इससे हमारी विचार करने की और कर्म करने की स्वतंत्रता जकड़ जाती है। फिर हम अपने ही द्वारा विगतकाल में किए गए कर्मों का एक मकड़जाल मात्र बनकर रह जाते हैं। इसमें हमारे लिए स्वतंत्र रूप से कर्म करने का कोई अवसर नहीं बचा रहता। कई लोग आदतों के गुलाम होते हैं एवं बार- बार कहते हैं कि मैं असहाय हूँ, इनसे मुक्त होना चाहता हूँ, पर हो नहीं पा रहा हूँ। आदत चाहे वह झूठ बोलने की हो, कड़ुआ बोलने की हो या शराब पीने की हो, पड़ तो सहज भाव से जाती हैं, पर उनकी दासता से छुटकारा पाना अत्यंत कठिन है। यह ज्ञान की उपलब्धि कि मनुष्य आत्मा में स्थित है, वह अपने शरीर के कर्मों से लिपायमान नहीं होता, वह मात्र एक साक्षी के रूप में जीवन जी रहा है, मनुष्य के अहंकार को परिष्कृत कर देता है। तब कर्म बिना कर्त्ता भाव से किए जाते हैं। कर्त्ताभाव अर्थात् अहंकार। इस भाव से किए गए कर्म फिर वासनाओं को जन्म नहीं देते, हमारे अहंभाव को नहीं बढ़ाते। ऐसे दिव्य कर्मों से मनुष्य बंधनों को नहीं प्राप्त होता। दिव्य कर्म आत्मा से उद्भूत होते हैं और केवल आत्मा के प्रकाश में ही पहचाने जाते हैं।


एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।  कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥ 4 / 15  

‘‘
पूर्वकाल में भी इसी तत्त्वदर्शन को जानकर प्राचीन मुमुक्षुओं ने कर्म किए हैं। तुम भी जैसे पूर्वकाल में पूर्वजों ने किया, ऐसे ही कर्मों का संपादन करो।’’ भगवान ने यहाँ नमूना सामने रख दिया है। वे स्पष्ट कह रहे हैं कि किस तरह कर्म करना, इसमें कहीं किसी प्रकार के भ्रम में- असमंजस में पड़ने की जरूरत नहीं है। पूर्वकाल के मुमुक्षु यथा- जनक आदि एवं पूर्वजों- ऋषिगणों की जीवनचर्या से शिक्षण लो। ‘‘एवं ज्ञात्वा’’ जहाँ प्रभु ने कहा है, वहाँ वे कह रहे हैं कि यह जानकर कि वास्तविक आत्मा ही हमारे भीतर चैतन्यरूप में विद्यमान है, उसे किसी भी प्रकार के कर्मफल की लालसा है एवं वह ही किसी से लिप्त है, प्राचीन मुमुक्षुओं ने कर्मों का संपादन किया एवं समाजोपयोगी जीवन जिया है। कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। ऐसे में अर्जुन को कोई बनावटी जिंदगी नहीं जीनी है। वे तो एक शास्त्रविहित मार्ग बता रहे हैं, जिसका पूर्व मुमुक्षुओं ने श्रद्धापूर्वक अनुसरण किया है। यह एक जाना- माना पथ है, परीक्षित मार्ग है एक ऐसा राजमार्ग, जिस पर चलकर बहुतों ने अपनी मानसिक आसक्तियों से, भवबंधनों से छुटकारा पाया है।

ऐसे अनुकरणीय जीवन को चाहे वह भगीरथ का हो, विश्वामित्र का हो अथवा श्रीराम का, लक्ष्मण जी का अथवा हनुमान जी का, जनक का अथवा अष्टावक्र का, जीवन जीकर वह अपने कर्मों का संपादन कर सकता है। ऐसे क्षणों को जब हम जीते हैं, तो हम अहंभाव से ऊपर उठकर कृष्ण चैतन्य में निवास करने लगते हैं, साथ ही भीतरी परम सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। ऐसे कर्म ही वास्तव में कर्मरहित कर्म की उपाधि पाते हैं, जिनसे व्यक्ति शुद्ध आध्यात्मिक जीवन की सहज स्थिति में पहुँच जाता है।


दो कहावतें याद रखो। बोया पेड बबूल का आम कहां से होय। और अब पछ्तावे का होत जब चिडिया चुग गई खेत। इनके अर्थ समझ कर जीवन में उतारना ही श्रेष्ठ जीवन की ओर ले जाता है।

‘‘मनुष्य का जीवन एक खेत है, जिसमें कर्म बोए जाते हैं और उन्हीं के अच्छे- बुरे फल काटे जाते हैं। जो अच्छे कर्म करता है, वह अच्छे फल पाता है। बुरे कर्म करने वाला बुराई समेटता है। कहावत है, आम बोएगा वह आम खाएगा, बबूल बोएगा वह काँटे पाएगा। बबूल बोकर आम प्राप्त करना जिसप्रकार प्रकृति का सत्य नहीं, उसी प्रकार बुराई के बीज बोकर भलाई पा लेने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’’ कैसे कर्म करें, इस संबंध में बड़ा सही मार्गदर्शन है।


तपोनिष्ठ संत आचार्य श्री राम शर्मा कहते हैं। श्रम और समय भगवान् के खेत में, चारों ओर समाज के रूप में तुम्हारे आसपास विद्यमान है, बो डालो। दूसरा बुद्धि की सारी सामर्थ्य भगवान के निमित्त लगा दो। तीसरी चीज है भावनाएँ। भगवान् के खेत में इन्हें बो दो, तुम्हें प्रत्युत्तर में सौ गुना मिलेंगी। धन जो भी तुम्हारे पास है, भगवान के खेत में बो दो, यह सौ गुना होकर तुम्हें मिलेगा।’’ इसके पश्चात् पूज्यवर लिखते हैं,‘‘मैंने यही किया एवं तब से बराबर ऋद्धि- सिद्धियों के लाभ पा रहा हूँ।’’ यही उस कर्म का सिद्धांत है, जिसे योगेश्वर कृष्ण ने पंद्रहवें श्लोक में बताया है।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् 4/16  
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं विकर्मणः।अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः 4/17  

‘‘
यह निर्णय करने में बड़े- बड़े बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हैं कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसीलिए वह कर्मतत्त्व मैं तुम्हें भलीभाँति समझाकर बताऊँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ में अर्थात् कर्मबंधन से मुक्त हो जाओ।’’

‘‘
हे अर्जुन! तुम्हें भलीभाँति जानना चाहिए कि कर्म का स्वरूप क्या है? निषिद्ध कर्म क्या हैं तथा अकर्म क्या हैं? यह जानना इसलिए जरूरी है कि कर्म की गति बड़ी गहन है।’’

भगवान् स्वीकार कर रहे हैं कि हमारे शास्त्रों के गहन विचारक- चिंतक भी इस समस्या के विषय में बड़े भ्रमित से प्रतीत होते हैं कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है, विकर्म क्या है? (किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽपि अत्र मोहिताः)। यहाँ कवि से तात्पर्य ऋषि- मुनिगणों से है। इसीलिए वह कहते हैं कि तुम्हें पहले बताऊँगा कि कर्म क्या हैं। वास्तविक कर्म समझ में जाने पर हम अशुभ के- अशिव के मार्ग पर जाने से स्वयं को बचा सकेंगे।

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन दो भागों में बाँटा जा सकता है, क्रिया यानि कर्म, अक्रिया यानि अकर्म ।। क्रिया या कर्म को भगवान् पुनः दो भागों में बाँटते हैं, कर्म जीवन की वह क्रिया है, जो हमें करनी चाहिए, जिसे श्रीकृष्ण ने स्वधर्म कहा है या निष्काम कर्म नाम दिया है। विकर्म जीवन की वह क्रिया है, जो हमें नहीं करनी चाहिए। जो निषिद्ध है, जो नैतिक शास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। जिन्हें करने से मनुष्य पाप को प्राप्त होता है। मानवी गरिमा को लांछन लगाने वाले सभी कर्म निषिद्ध कर्म या विकर्म बताए गए हैं।


दूसरा शब्द है कर्म। हर क्रिया कर्म नहीं है। भोजन करना, अंगों का संचालन होना, पशुओं द्वारा सहज कार्य किया जाना कर्म नहीं है। तब तो चट्टानों के फिसलने पर भी यह कहा जा सकता है कि जड़ पदार्थ भी कर्म करते हैं। जब हमारा संकल्प और इच्छा क्रिया के साथ जुड़ जाते हैं, साथ ही उद्देश्य भी निर्धारित हो जाते हैं, तो वह कर्म बनता है। बिना संकल्प के कर्म में प्राण नहीं आता। कर्म में मूल तत्त्व है, उसका प्राण है संकल्प। संकल्पित कर्म ही हमारे प्रारब्ध का निर्माण करते हैं। यदि हमने संकल्पित कर्म नहीं किए हैं, तो हमने फिर कर्मयोग का संपादन नहीं किया है।

इसी कारण भगवान् कहते हैं कि तुम्हें जानना चाहिए कि कर्म क्या हैं? नहीं जानने से डर है कि कहीं कोई निषिद्ध कर्म को, सहज- स्वाभाविक कर्म को ही कर्म समझ बैठो। कुछ ऐसे श्रेष्ठ कर्म होते हैं, जो शास्त्रविहित हैं, जिनका परिपालन गौरवपूर्ण ढंग से उच्च कर्त्तव्यों के रूप में किया जाना चाहिए। कुछ ऐसे कर्म हैं जिनकी शास्त्रों द्वारा निंदा की गई है, उनकी उत्पत्ति हमारी निम्र प्रवृत्तियों से होती है, वे हमारे अहंभाव तथा दुर्वासनाओं से प्रेरित होते हैं, ऐसे कर्म विकर्म कहलाते हैं। उनसे बचना चाहिए।

अकर्म क्या है? अकर्म आलस्य की अवस्था को नहीं कहते। संकल्प रहित कर्म ही अकर्म हैं। ईश्वर की इच्छा ही जब हमारी इच्छा बन जाती है, तो यह अकर्म बन जाता है, जो स्वचालित ढंग से संचालित होता रहता है। जो ईश्वर चाहते हैं, जैसा चाहते हैं, वे ही संकल्प हमारे द्वारा मूर्त होने लगें, हमारे व्यक्तित्व के माध्यम से झरने लगें, तो ऐसी उच्चस्तरीय स्थिति को अकर्म कहते हैं। अकर्म में व्यक्ति ब्राह्मी स्थिति में पहुँच सकता है, अतः इसे समझना बहुत जरूरी है।
 
श्रीकृष्ण कहते हैं कर्म में अकर्म तथा विकर्म एवं अकर्म में कर्म तथा विकर्म मिलते हैं।

(कथन, तथ्य गूगल से साभार) 





 MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

Friday, December 14, 2018

कृष्ण भक्ति के रस की खान “रसखान”



कृष्ण भक्ति के रस की खान “रसखान”

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
  vipkavi@gmail.com
वेब:   vipkavi.com     वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet


रस खान का मूल नाम सैयद इब्राहिम था और वे दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।


प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

रसखान (जन्म: १५४८ ई) कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है।माना जाता है की इनकी मृत्यु 1628 में वृन्दावन में हुई थी । यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है।


रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।


रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।


रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए। रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें।


दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के अनुसार:


महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के पुष्टि सम्प्रदाय में वार्ताओं का बड़ा महत्त्व है। इनमें पुष्टि-सम्प्रदाय के भक्तों की, जिनमें हिन्दी के आठ प्रमुख कवि भी सम्मिलित हैं, जीवनियाँ संकलित हैं।


'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में वल्लभाचार्य के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं और
'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं।


वार्ता साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' है। इस वार्ता के अनुसार रसखान दिल्ली में रहते थे। एक बनिए के पुत्र के प्रति आसक्त थे। इस आसक्ति की चर्चा होने लगी। कुछ वैष्णवों ने रसखान से कहा कि यदि इतना प्रेम तुम भगवान से करो तो उद्धार हो जाए। रसखान ने पूछा कि भगवान कहां है? वैष्णवों ने उनको कृष्ण भगवान का एक चित्र दे दिया। रसखान चित्र को लेकर भगवान की तलाश में ब्रज पहुँचे। अनेक मंदिरों में दर्शन करने के उपरांत अपने आराध्य की खोज में ये गोविन्द कुण्ड पर जा बैठे और श्रीनाथ जी के मंदिर को टकटकी लगाकर देखने लगे। आरती के पश्चात श्रीनाथ जी इनका ध्यान करके द्रवीभूत हो गए और चित्र वाला स्वरूप बनाकर दर्शन देने आये। रसखान उन्हें अपना महबूब जानकर पकड़ने दौड़े।  श्रीनाथ जी अंतर्धान होकर  गोकुल पधारे और श्री गोसाईं जी को संपूर्ण घटना सुनाई। उसके बाद श्री गोसाईं जी ने रसखान को दर्शन दिए और अपने मंदिर में बुलवा लिया। रसखान दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए। वहीं रहकर लीला गान करने लगे। इस वार्ता के अनुसार उन्हें गोपी भाव की सिद्धि हुई। इस वार्ता से यह पता चलता है कि रसखान का संबंध स्वामी विट्ठलनाथ जी से रहा। वार्ता में वर्णित कुछ घटनाओं के संकेत रसखान के काव्य में भी मिलते हैं। रसखान ने भी प्रेमवाटिका में छवि दर्शन की चर्चा की है। 'सुजान रसखान' में लीला वर्णन भी मिलता है। वार्ता के अनुसार ये लीला के दर्शन करके ही कवित्त, सवैयों और दोहों की रचना करते थे और इन्हें गोपी भाव भी सिद्ध हुआ था।


सो वह रसखान दिल्ली में रहत हतो। सो वह एक साहूकार के बेटा के ऊपर बोहोत आसक्त भयो। सौ वाको अहर्निस देखे। औ वह छोहरा कछू खातो तो वाकी जूठनि लेई और पानी पीवतो तोहू बा को झूठो पीवे। - तब वा वैष्णवन की पाग में श्रीनाथ जी को चित्र हतौ।... सा काढ़ि के रसखान को दिखायों तक चित्र देखत ही रसखान को मन फिरि गयौ।  तब श्रीनाथ जी मन में विचारे, जो रसखान कों तो कछु देहानुसंधान है नाहीं। यह दसा देखि के श्रीनाथ जी के मन में दया आई। जैसो सिंगार वा चित्र में हतो तैसोई वस्त्र आभूषण अपने श्री हस्त में धारण किए। गाय ग्वाल सखा सब साथ लै कै आप पधारे।  सो ऐसो निरधार करि के श्रीनाथ जी को पकरन दोरयो। तब श्री गुसाईं जी ने कृपा करिके वाको नाम सुनायो पाछे खवास सो कही, जो इनको मंदिर में ले आयो। तब रसखान ने श्रीनाथ जी के दरसन किये, सो बहुत प्रसन्न भयो।  सो जहाँ जा लीला के दरसन करते तहां करते तहां ता लीला के कवित्त, दोहा, चौपाई सवैया करते। सो इनको गोपी भाव सिद्ध हुआ।- दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219






(कथन, तथ्य गूगल से साभार) 





 MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...