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Wednesday, December 19, 2018

क्या है दस विद्या ? चौथी विद्या: भुवनेश्वरी



क्या है दस विद्या ? 
चौथी विद्या: भुवनेश्वरी

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi




मित्रो मां दुर्गा की आरती में आता है।
दशविद्या नव दुर्गा नाना शस्त्र करा। अष्ट मातृका योगिनी नव नव रूप धरा॥


अब दशविद्या क्या हैं यह जानने के लिये मैंनें गूगल गुरू की शरण ली। पर सब जगह मात्र कहानी और काली के दस रूपों का वर्णन। अत: मैंनें दशविद्या को जानने हेतु स्वयं मां से प्रार्थना की तब मुझे दशविद्या के साथ काली और महाकाली का भेद ज्ञात हुआ जो मैं लिख रहा हूं। शायद आपको यह व्याख्या भेद कहीं और न मिले। किंतु वैज्ञानिक और तर्क रूप में मैं संतुष्ट हूं।


शाक्त सम्प्रदाय के देवी भागवत पुराण का मंत्र है।


काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्राकृर्तिता।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता।।

भुवनेश्वरी यानि सौम्यता के द्वारा ह्रदय जीतने की विद्या की प्राप्ति।

देवी भुवनेश्वरी, दस महाविद्याओं में चौंथीं महा-शक्ति, तीनों लोकों या त्रि-भुवन (स्वर्ग, विश्व, पाताल) की ईश्वरी।
पञ्च तत्वों की अधिष्ठात्री हैं देवी भुवनेश्वरी।
 
 
श्रीमद देवी-भागवत पुराण के अनुसार! राजा जनमेजय ने व्यास जी से 'ब्रह्मा', विष्णु, शंकर की आदि शक्ति, से सम्बन्ध तथा विश्व के उत्पत्ति के कारण हेतु प्रश्न पूछे जाने पर, व्यास जी द्वारा जो वर्णन प्रस्तुत किया गया वह निम्नलिखित हैं।
 
 
एक बार व्यास जी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई कि, "पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि कर्ता कौन हैं?" इस निमित्त उन्होंने नारद जी से प्रश्न किया। नारद जी ने व्यास जी से कहा की! "एक बार उनके मन भी ऐसे ही जिज्ञासा जागृत हुई थीं।" तदनंतर, नारद जी ब्रह्म लोक स्थित अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए और उन्होंने उनसे पूछा!"ब्रह्मा, विष्णु और महेश, में किसके द्वारा इस चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?"
 
 
अब यह कथा कल्पना ही लग सकती है किंतु इसकी वैज्ञानिक व्याख्या के साथ सांकेतिक अर्थ भी हैं। जो यहां नहीं दे रहा हूं। फिलहाल यह कथा दुर्गा सप्तशती के प्रथ्म अध्याय की है।

ब्रह्मा जी ने नारद से कहा! प्राचीन काल में जल प्रलय पश्चात केवल पञ्च महा-भूतों की उत्पत्ति हुई, जिसके कारण वे (ब्रह्मा जी) कमल से आविर्भूत हुए। उस समय सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारों ओर केवल जल ही जल दिखाई देता था। ब्रह्मा जी कमल-कर्णिका पर ही आसन जमाये विचरने लगे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था की इस महा सागर के जल से उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ तथा उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं? एक बार, ब्रह्मा जी ने दृढ़ निश्चय किया की वे अपने कमल के आसन का मूल आधार देखेंगे, जिससे उन्हें मूल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर, उन्होंने जल में उतर-कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया, परन्तु वे अपने कमल-आसन के मूल तक नहीं पहुँच पाये। तक्षण ही आकाशवाणी हुई की, तुम तपस्या करो! तदनंतर, ब्रह्मा जी ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की। कुछ काल पश्चात पुनः आकाशवाणी हुई सृजन करो, परन्तु ब्रह्मा जी समझ नहीं पाये की क्या सृजन करें तथा कैसे करें! उनके द्वारा ऐसा विचार करते हुए, उनके सनमुख 'मधु तथा कैटभ' नाम के दो महा दैत्य उपस्थित हुए तथा वे दोनों उनसे युद्ध करना चाहते थे, जिसे देख ब्रह्मा जी भयभीत हो गए। ब्रह्मा जी अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे तथा उन्होंने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर रखा था।

शेष नाग की शय्या पर शयन करते हुए ब्रह्मा जी ने श्री हरि विष्णु को देखा। उन्हें देख ब्रह्मा जी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई और वे सहायता हेतु आदि शक्ति देवी की स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सर्वदा निमग्न रहते थे। परिणामस्वरूप, निद्रा स्वरूपी भगवान विष्णु की योग माया शक्ति आदि शक्ति महामाया, उनके शरीर से उद्भूत हुई। वे देवी दिव्य अलंकार, आभूषण, वस्त्र इत्यादि धारण किये हुए थी तथा आकाश में जा विराजित हुई। तदनंतर, भगवान विष्णु ने निद्रा का त्याग किया तथा जागृत हुए, तत्पश्चात उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नामक महा दैत्यों से युद्ध किया। बहुत अधिक समय तक युद्ध करते हुए भगवान विष्णु थक गए, वे अकेले ही युद्ध कर रहे थे, इसके विपरीत दोनों दैत्य भ्राता एक-एक कर युद्ध करते थे। अंततः उन्होंने अपने अन्तः कारण की शक्ति योगमाया आद्या शक्ति से सहायता हेतु प्रार्थना की, देवी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन दोनों दैत्यों को अपनी माया से मोहित कर देंगी। योगमाया आद्या शक्ति की माया से मोहित हो दैत्य भ्राता भगवान विष्णु से कहने लगे! "हम दोनों तुम्हारे वीरता पर बहुत प्रसन्न हैं, हमसे वर प्रार्थना करो!" भगवान विष्णु ने दैत्य भ्राताओं से कहा! "मैं केवल इतना ही चाहता हूँ की तुम दोनों अब मेरे हाथों से मारे जाओ।" दैत्य भ्राताओं ने देखा की चारों ओर केवल जल ही जल हैं तथा भगवान विष्णु से कहा! "हमारा वध ऐसे स्थान पर करो जहाँ न ही जल हो और न ही स्थल।" भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपनी जंघा पर रख कर अपने चक्र से उनके मस्तक को देह से लग कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मधु-कैटभ का वध किया, परन्तु वे केवल निमित्त मात्र ही थे, उस समय उनकी संहारक शक्ति से शंकर जी की उत्पत्ति हुई, जो संहार के प्रतीक हैं।


तदनंतर, 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर द्वारा, देवी आदि शक्ति योगनिद्रा महामाया की स्तुति की गई, जिससे प्रसन्न होकर आदि शक्ति ने ब्रह्मा जी को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार के दायित्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात, ब्रह्मा जी ने देवी आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि! "अभी चारों ओर केवल जल ही जल फैला हुआ हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन-मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं तथापि तीनों देव शक्ति-हीन हैं।" देवी ने मुसकुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनों देवों के विमान पर आसीन होने के पश्चात, वह देवी-विमान आकाश में उड़ने लगा।

मन के वेग के समान वह दिव्य तथा सुन्दर विमान उड़कर ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ जल नहीं था, यह देख तीनों देवों को महान आश्चर्य हुआ। उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देखकर तीनों महा-देवों को लगा की वे स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ! ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओं के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सैकड़ों गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ विद्यमान थे। वहाँ कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनों को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर, तीनों देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित ब्रह्मा जी को विद्यमान देख, तीनों देव विस्मय में पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने ब्रह्मा से पूछा, यह ब्रह्मा कौन हैं ? ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया! "मैं इन्हें नहीं जनता हूँ, मैं स्वयं भ्रमित हूँ।" तदनंतर, वह विमान कैलाश पर्वत पर पहुंचा, वहां तीनों ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओं वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश और कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, यह देख पुनः तीनों अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पहुंचा। पक्षी-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारों से अलंकृत भगवान विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ, सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वह विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पहुंचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओं से सुसज्जित था, तीनों महा-देवों ने रत्नमालाओं एवं विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित, पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्त-पुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण कर रखी थीं। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को सनमुख दृष्टि-गोचर हुई, जो सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति महामाया ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
 
 
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख त्रि-देव आश्चर्य चकित एवं स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे, यह देवी कौन हैं? ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश सोचने लगे कि! "न तो यह अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना!" यह सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ब्रह्मा जी से कहा! "यह साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं साथ ही यह देवी हम तीनों तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। देवी, महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सभी-की आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। 
 

मूल प्रकृति स्वरूपी भगवती महामाया परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सनमुख उसे उपस्थित करती हैं।" तदनंतर, तीनों देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त उनके चरणों के निकट गए। जैसे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर, विमान से उतरकर देवी के सनमुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्री-रूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। तदनंतर, तीनों देवी के सनमुख जा खड़े हो गए, उन्होंने देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तीनों देवों ने देवी के चरण-कमल के नख में सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सरायें, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी, देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेव यह समझ गए की देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
 

सम्पूर्ण जगत या तीनों लोकों की ईश्वरी देवी भुवनेश्वरी नाम की महा-शक्ति हैं तथा महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रि-भुवन या तीनों लोकों के ईश्वरी या स्वामिनी हैं, देवी साक्षात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं 'भुवनेश्वरी देवी' पर हैं, परिणामस्वरूप ये जगन-माता तथा जगत-धात्री के नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे इस सम्पूर्ण चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तियों द्वारा संचालित होती हैं। पञ्च तत्वों को इन्हीं, देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं, देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोकों) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। प्रकृति से सम्बंधित होने के कारण देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। आद्या शक्ति, भुवनेश्वरी स्वरूप में भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दंड का विधान भी तय करती हैं, इनके भुजा में व्याप्त अंकुश, नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वमन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्म नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री, प्रकृति का निरूपण करने से मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव के वाम भाग को देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव के सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।


सात करोड़ महा-मंत्र सर्वदा इनकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं। देवी भक्तों को समस्त प्रकार कि सिद्धियाँ तथा अभय प्रदान करती हैं।
देवी, ललित के नाम से भी विख्यात हैं, परन्तु यह देवी ललित, श्री विद्या-ललित नहीं हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया हैं, एकपूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय’ द्वारा। ललिता जब त्रिपुरसुंदरी के साथ होती हैं तो वह श्री विद्या-ललिता के नाम से जानी जाती हैं इनका सम्बन्ध श्री कुल से हैं। ललिता जब भुवनेश्वरी के साथ होती हैं तो भुवनेश्वरी-ललित के नाम से जानी जाती हैं।


देवी भुवनेश्वरी, अत्यंत कोमल एवं सरल स्वभाव सम्पन्न हैं। देवी भिन्न-भिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त अलंकारों को धारण करती हैं, स्वर्ण आभा युक्त उदित सूर्य के किरणों के समान कांति वाली देवी, कमल के आसान पर विराजमान हैं तथा उगते सूर्य या सिंदूरी वर्ण से शोभिता हैं। देवी, तीन नेत्रों से युक्त त्रिनेत्रा हैं जो की! इच्छा, काम तथा प्रजनन शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। मंद-मंद मुस्कान वाली, अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाली देवी अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं। देवी के स्तन उभरे हुए तथा पूर्ण हैं, देवी चार भुजाओं से युक्त तथा पूर्ण शारीरिक गठन वाली हैं। देवी अपने दो भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं तथा अन्य दो भुजाओं से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी नाना प्रकार से मूल्यवान रत्नों से जडें हुए मुक्ता के आभूषण धारण कर बहुत ही शांत और सौम्य प्रतीत होता हैं।


सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग लोक में ही दिखाई देता था तथा उनकी किरणें स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी। समस्त ऋषियों तथा सोम देव ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (ग्रह, नक्षत्र इत्यादि) के निर्माण हेतु, सूर्य देव की आराधना की जिससे प्रसन्न हो सूर्य देव ने, देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल में देवी ही सर्व-शक्तिमान थी, देवी षोडशी ने सूर्य देव को वह शक्ति प्रदान तथा मार्गदर्शन किया, जिसके परिणामस्वरूप सूर्य देव ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की। देवी षोडशी की वह प्रेरणा उस समय से भुवनेश्वरी (सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर दृष्टि-गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं, इनके नाम दो शब्दों के मेल से बना हैं भुवन + ईश्वरी, जिसका अभिप्राय हैं समस्त भुवन की ईश्वरी।


देवी भुवनेश्वरी अपने अन्य नाना नमो से भी प्रसिद्ध हैं :
१. मूल प्रकृति, देवी इस स्वरूप में स्वयं प्रकृति रूप में विद्यमान हैं, समस्त प्राकृतिक स्वरूप इन्हीं का रूप हैं।
२. सर्वेश्वरी या सर्वेशी, देवी इस स्वरूप में, सम्पूर्ण चराचर जगत की ईश्वरी या विधाता हैं।
३. सर्वरूपा, देवी इस स्वरूप में, ब्रह्मांड के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं।
४. विश्वरूपा, संपूर्ण विश्व का स्वरूप, इन्हीं देवी भुवनेश्वरी के रूप में स्थित हैं।
५. जगन-माता, सम्पूर्ण जगत, तीनों लोकों की देवी जन्म-दात्री हैं माता हैं।
६. जगत-धात्री, देवी इस रूप में सम्पूर्ण जगत को धारण तथा पालन पोषण करती हैं।


'देवी काली और भुवनेशी या भुवनेश्वरी' प्रकारांतर से अभेद हैं काली का लाल वर्ण स्वरूप ही भुवनेश्वरी हैं। दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से संतृप्त हो, सभी देवता, ऋषि तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जा, सर्वकारण स्वरूपा देवी भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। देवताओं, ऋषियों तथा ब्राह्मणों के आराधना-स्तुति से संतुष्ट हो देवी, अपने हाथों में बाण, कमल पुष्प तथा शाक-मूल धारण किये हुए प्रकट हुई थी। देवी ने अपने नेत्रों से सहस्रों अश्रु जल धारा प्रकट की तथा इस जल से सम्पूर्ण भू-मंडल के समस्त प्राणी तृप्त हुए। समुद्रों तथा नदियों में जल भर गया तथा समस्त वनस्पति सिंचित हुई। अपने हाथों में धारण की हुई, शाक-मूलों से इन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों का पोषण किया, तभी से ये शाकम्भरी नाम से भी प्रसिद्ध हुई। इन्होंने ही दुर्गमासुर नामक दैत्य का वध कर समस्त जगत को भय मुक्त, इस कारण देवी दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई, जो दुर्गम संकटों से अपने भक्तों को मुक्त करती हैं।
 

भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई।
पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं।
आदि शक्ति भुवनेश्वरी मां का स्वरूप सौम्य एवं अंग कांति अरुण हैं।
भक्तों को अभय एवं सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है।
इस महाविद्या की आराधना से सूर्य के समान तेज और ऊर्जा प्रकट होने लगती है।
ऐसा व्यक्ति अच्छे राजनीतिक पद पर आसीन हो सकता है।
माता का आशीर्वाद मिलने से धनप्राप्त होता है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं।


तीनों लोकों (स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी) की महारानी पद पर अवस्थित, चौथी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम से विख्यात हैं, सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाली जगत-धात्री।
तीनों लोकों का पालन पोषण करने वाली ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी। तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं। 
 
 
महाविद्याओं में देवी चौथे स्थान पर अवस्थित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं।
सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, कारणवश देवी जगन-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं।
 
 
पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं।
देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं।

देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं।
देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिया दंड का विधान भी करती हैं, इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री, प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं।
 
 
भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त युवती हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं एवं तीन नेत्र हैं तथा मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। 
 
 
देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, दाहिने भुजाओं से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएं भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं; देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं।
दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं।
 
 
शताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। 
 
 
अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया तथा दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई।

भुवनेश्वरी माता का मंत्र: स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन 'ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
दस महाविद्या में भुवनेश्वरी के शिव के रूप अवतार हैं त्रयम्बक ।
दस महाविद्या में  भुवनेश्वरी का विष्णु रूप अवतार है वामन । 
 

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