मां काली के भक्त: रामकृष्ण
परमहंस
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,ई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक”
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आज हम रामकृष्ण परमहंस
को जिस रूप में जानते हैं, वह शायद वैसा नहीं
होता, यदि केशवचंद्र सेन और विवेकानंद ने दुनिया को उनके
जीवन और विचारों के बारे में इस रूप में बताया न होता।
असली गुरुओं की यही सहजता, सरलता और गुमनामी ही उनकी महानता होती है. आत्मप्रचार से दूर वे अपनी
साधना और मानव सेवा में लगे रहते हैं. रामकृष्ण परमहंस के जीवन को यदि तीन शब्दों में
व्यक्त करना हो, तो वे होंगे- त्याग, सेवा
और साधना. और यदि दो शब्द और जोड़ने हों तो वे शब्द होंगे- प्रयोग और समन्वय.
रामकृष्ण परमहंस भारत के बहुत लोकप्रिय
संत में से एक हैं. स्वामी विवेकानंद जी उनके विचारों से प्रेरित होकर उन्हें अपना
गुरु मानते थे। रामकृष्ण जी सभी धर्मों की
एकता पर ज़ोर देते थे।
रामकृष्ण परमहंस ने पश्चिमी बंगाल के
हुगली ज़िले में कामारपुकुर नाम के गांव के एक दीन और धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फ़रवरी, 1836 में जन्म लिया था। बचपन में वे गदाधर
के नाम से जाने जाते थे, उनके पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय
निस्वार्थी गरीब ब्राह्मण थे. गदाधर अपने साधु माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गांव के भोले-भाले लोगों के लिए भी बहुत अच्छे थे। रामकृष्ण
बचपन में बहुत ही सुंदर और सबका मन मोहने वाले थे जो अपनी बोली से सबको अपना बना
लेते थे।
7 साल की उम्र में उनके सिर
से उनके पिता का साया उठ गया। ऐसी स्थिति
में उनके परिवार का दैनिक दिनचर्या में बहुत परेशानी आने लगी। इनके बड़े भाई
रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक छोटा सा स्कूल चलाते थे। वे गदाधर को अपने साथ कोलकाता ले गए। रामकृष्ण
बिल्कुल निश्छल, सहज और विनयशील स्वभाव के थे। बुराईयों से
बहुत दूर रहते थे और अपने कामों को कैसे पूरा किया जाए उसी में लगे रहते थे। बहुत
प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन पढ़ाई में नहीं लग पाया और साल 1855 में रामकृष्ण जी के बड़े भाई रामकुमार को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य
पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। मंदिर की साफ-सफाई और देखरेख करने में
राजकुमार की मदद परमहंस जी और उनके भांजे किया करते थे।
रामकृष्ण जी को देवी मूर्ति को सजाने
की जिम्मेदारी दी गई थी। सन 1856 में रामकुमार की मृत्यु के बाद रामकृष्ण जी को काली मंदिर में की सारी जिम्मेदारी
दे दी गयी। वर्ष 1859 में 23 साल की
उम्र में उनका विवाह शारदामनि के साथ हुआ जो बाल अवस्था में ही तय कर दिया गया था
क्योंकि उस वक्त बाल विवाह का बहुत प्रचलन था।
बड़े भाई की मृत्यु की घटना से वे बहुत टूट से गये थे। संसार के व्यवहार को
देखकर उनके मन में बहुत से सवाल उठते थे. अन्दर से मन ना करते हुए भी श्रीरामकृष्ण
मंदिर की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ईश्वर का
ध्यान करने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे
बहुत परेशान से घूमते थे। यहां तक कि लोग
उन्हे पागल तक समझने लगे थे। एक शाम अचानक एक बूढ़ी सन्यासिनी दक्षिणेश्वर मंदिर
आयीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की तरह
प्यार दिया और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अलावा तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा
का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।
उसी प्रकार इस्लामी साधना के उनके गुरु गोविन्द राय थे जो हिन्दू से
मुसलमान हो गए थे। ईसाइयत की साधना उन्होंने शंभुचरण मल्लिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म
के ग्रंथों के अच्छे जानकार थे। सभी धर्म में रमकर, धर्म की गहराई में जाकर
भी काली के चरणों में उनका विश्वास अटूट रहा। जैसे मासूम बच्चा खुद अपनी चिंता
नहीं करता, उसी प्रकार रामकृष्ण अपनी कोई फिक्र नहीं करते थे।
समय जैसे-जैसे बीतता गया, उनके कठिन और आध्यात्मिक अभ्यासों और
सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर लोकप्रिय होने के
साथ रामकृष्ण जी भी संयासी के रूप में लेकप्रिय हुये और वहां एक आश्रम सा बन गया। वह
जल्द ही बहुत लोकप्रिय विचारक बन गये और उनके सपर्क में केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी आये
जो आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे।
इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा
समूह बन गया. जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ
गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। इनके अलावा स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की
प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे।
आखरी में वह दुख का दिन आ गया जब वर्ष 1886,
16 अगस्त के सवेरे के समय होने के कुछ ही वक्त पहले रामकृष्ण जी की
मृत्यु हो गयी। रामकृष्ण छोटी कहानियो के माध्यम से लोगो को शिक्षा देते थे। कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारो ने
ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा था। उनकी शिक्षाएं आधुनिकता और राष्ट्र के आज़ादी के बारे
में नहीं थी पर उनके आध्यात्मिक आंदोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की
भावना बढ़ने का काम किया क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती
हैं।
रामकृष्ण परमहंस ने दुनिया के सभी
धर्मों के अनुसार साधना करके उस परम तत्व को महसूस किया था। उनमें कई तरह की
सिद्धियां थीं लेकिन वे सिद्धियों के पार चले गए थे।
उन्होंने विवेकानंद को अपना शिष्य बनाया,
जो बुद्धि और तर्क में जीने वाला बालक था। रामकृष्ण परमहंस ने
विवेकानंद के हर प्रश्न का समाधान कर उनकी बुद्धि को भक्ति में बदल दिया था।
प्रस्तुत हैं रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच हुए एक
अद्भुत संवाद के अंश...
स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल
पाता। जीवन आपाधापी से भर गया है।
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें
घेरे रखती हैं, लेकिन उत्पादकता आजाद करती है।
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल
क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना
बंद कर दो। यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को सिर्फ जियो।
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दु:खी
क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी
आदत बन गई है, इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते।
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है। सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता
है। अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं। इस अनुभव से उनका
जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता।
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा
अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां, हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है। पहले वह परीक्षा लेता है और
फिर सीख देता है।
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने
के कारण हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं?
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर
झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो। अपने भीतर झांको। आखें दृष्टि देती
हैं। हृदय राह दिखाता है।
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर
चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है, जो दूसरे लोग तय करते हैं। संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो।
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा
इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है। जो कुछ पाया
है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका
उसे नहीं।
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, 'मैं ही क्यों?' जब वे खुशियों
में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, 'मैं ही क्यों?'
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूं?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफसोस के अपने अतीत का सामना करो। पूरे
आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो। निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो।
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी
प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं?
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती। अपनी आस्था बनाए
रखो और डर को परे रखो। जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या
नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है। मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे
है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है।
हुगली नदी के किनारे रामकृष्ण परमहंस घूम रहे थे कि अचानक एक साधु
उनके पास आया और बोला- 'महाराज आप मुझे गुरु मान लो तो एक चमत्कार दिखाऊं।'
परमहंस ने कहा- हाँ, हाँ दिखाओ।'
उसके बाद साधु ने पैदल चलते हुए नदी पार कर ली। फिर वह तेज़ी से वापस
भी लौट आए।
साधु जब परमहंस के पास लौटे तो गर्व से तने हुए थे।
आते ही बोले- 'अब तो मुझे अपना गुरु मान लो।'
परमहंस ने पूछा- 'अरे इस चमत्कार को करने में आपने कितनी तपस्या की है?'
साधु बोला- 'पूरे चौदह वर्ष!'
परमहंस ने कहा- 'भइया, इस नदी को पार कराने में
नाविक कितना लेता है?'
वह बोले- 'महाराज, एक धेला।'
परमहंस हँसते हुए बोले-
'अरे, जो काम एक
धेले में हो सकता था - उसके लिए तुमने चौदह साल बरबाद कर दिए!' वह साधु उलटा परमहंस का शिष्य हो गया।
नि:सन्देह किसी भी बड़ी उपलब्धि में
भगवत् कृपा एक प्रधान हेतु होती है किंतु इस कृपा को प्राप्त करने में मनुष्य का
पुरुषार्थ ही एकमात्र कारण होता है। यह जन्म- जन्मान्तरों की एक श्रृंखला होती है।
इसी श्रृंखला के अंतर्गत मनुष्येतर योनियाँ भी आती है। अनेक अपने कर्मानुसार अन्य
योनियाँ में भटकते फिरते है और बहुत से अपने सुकर्मो के फलस्वरुप बार- बार
मनुष्यता का अवसर पाते है।
जन्म- जन्मान्तरों में मनुष्य जिस
अनुपात से अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी आत्मा को परिष्कार करता आता है उसी अनुपात
से वह आगामी जीवन में बुद्धि,विघा,विवेक श्रद्धा और भक्ति की अनुभूति प्राप्त करता है।
श्री रामकृष्ण परमहंस अवश्य ही पूर्व जन्म
नही बल्कि जन्म- जन्मों में मनुष्य ही रहे थे और निरन्तर अपनी आत्मा के परिष्कार
का प्रयत्न करते रहे। यह उनके पूर्व जन्म के सुकर्मो का ही फल था कि उन्होनें छ:
वर्ष की आयु में हीं भगवदानुभूति प्राप्त करती। यही कारण है कि भारतीय ऋषि मुनियों
ने मनुष्य जीवन को एक दुर्लभ अवसर कहा है और निर्देश किया है कि मनुष्य को अपने
जीवन का सीमान्त सदुपयोग करके त्याग और तपस्या द्वारा भगवान् का साक्षात्कार कर लेना
चाहिये और यदि वह कर्म न्युनता के कारण यदि किसी प्रकार प्रभु का साक्षात्कार नहीं
भी कर पाता तो अवश्य ही पुन: मनुष्य योनी में जन्म लेकर या तो साक्षात्कार प्राप्त
करेगा अथवा उस दिशा में अपने प्रयत्नों को आगे बढ़ायेगा।
अस्तु ,मनुष्य को सावधानतापूर्वक साक्षात्कार होगा या नहीं होगा,यह तर्कवितर्क त्याग कर, मनुष्य जीवन का सदुपयोग कर,अगले जीवन में साक्षात्कार की आशा पर पूर्ण प्रयत्न रत रहना चाहिए। इससे
प्रमाद करने वाले ही आगामी जीवन की सारी सम्भावनायें खोंकर चौरासी के चक्कर में
घुमते है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उज्ज्वल एवं
उन्नत आत्मा ने जिस दिन मनुष्य सेवा के रुप में परमात्मा को सेवा स्वीकार की उसी
दिन से उन्होने अपने में एक स्थायी सुख- शांति तथा संतोष का अनुभव किया। भगवत्
प्राप्ति का अमोघ उपाय पाकर उन्होनें सारी उपासना पद्धतियों को छोड़ दिया और नर- नारायण
की सेवा में लग गये।
रोगियों की
परिचर्या ,अपंगों की
सेवा और निर्धनों की सहायता करना उनका विशेष कार्यक्रम बन गया। जहाँ भी वे किसी
रोगों को कराहते देखते अपने हाथों से उसकी परिचर्या करते अपंगों एव विकलांगों के
पास जाकर उनकी सहायता करते, दु :खी और दीन जनों को अपनी
सुधा- सिक्त सहानुभूति से शीतल करते। साधारण रोगियों से लेकर क्षय एवं कुष्ठ
रोगियों तक की सेवा -सुश्रूणा करने मे उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। दीन- दु
:खियों से हृदय से लगाने में उन्हें एक स्वर्गीय सुख- शान्ति का अनुभव होता था।
दरिद्रों को भोजन कराना और उसके साथ बैठकर प्रेमपूर्वक बातें करने में वे जिस
आनन्द का अनुभव किया करते थे वैसा आनन्द उन्होंने अपनी एकान्तिक साधना मे कभी नहीं
पाया या।
एक तो अध्यात्म साधना से निर्विकार एव
निर्मल हृदय दूसरे दीन- दरिद्रों तथा आकुल समाकुलों की सेवा- फिर क्यों न उनको एक
ऐसी कारुणिक अनुभूति का लाभ होता जो युग- युग की साधना के बाद पाये आत्मानन्द से
किसी दशा में कम नहीं थी। दीन-दुःखियों के साथ बैठकर सच्ची सहानुभूति से उनका दु:ख
बँटाने मे जो आनन्द है उसका अनुभव वे भाग्यवान हई कर सकते हैं जिनका हृदय पर- पीड़ा
से कातर हो उठता है।
जिसने लोभ ,,
मोह, काम ,क्रोध और
अहंकार के शत्रुओं के परास्त कर लिया उसका हृदय अवश्य ही विश्व- प्रेम से भरकर धन्य
खे उठेगा। जो सुख चाहता है शान्ति की कामना रखता है वह नि सार साधनाओं को छोड़कर
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की तरह हो जाये और दीन- दुःखियों की सेवा करता हुआ उनकी
कातर तथा कारण मूर्ति में परमात्मा की झाँकी प्राप्त करे ।। 'जिसे आनन्द की प्यास हो वह दु:खियो के पास जाये और अनुभव मे कि दूसरे का दु:
ख बँटाने पर हृदय मे किस दिव्य आनन्द का उद्रेक होता है ''
रामकृष्ण बहुत-कुछ अनपढ़ मनुष्य थे, स्कूल के उन्होंने कभी दर्शन तक नहीं किए थे। वे न तो अंग्रेजी जानते थे, न वे संस्कृत के ही जानकार थे, न वे सभाओं में भाषण देते थे, न अखबारों में वक्तव्य। उनकी सारी पूंजी उनकी सरलता और उनका सारा धन महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था।
दक्षिणेश्वर की कुटी में एक चौकी पर बैठे-बैठे वे उस धर्म का आख्यान करते थे, जिसका आदि छोर अतीत की गहराइयों में डूबा हुआ है और जिसका अंतिम छोर भविष्य के गहवर की ओर फैल रहा है। निःसंदेह रामकृष्ण प्रकृति के प्यारे पुत्र थे और प्रकृति उनके द्वारा यह सिद्ध करना चाहती थी कि जो मानव-शरीर भोगों का साधन बन जाता है, वही चाहे तो त्याग का भी पावन यंत्र बन सकता है।
द्रव्य का त्याग उन्होंने अभ्यास से सीखा था, किन्तु अभ्यास के क्रम में उन्हें द्वंदों का सामना करना नहीं पड़ा। हृदय के अत्यंत निश्छल और निर्मल रहने के कारण वे पुण्य की ओर संकल्प-मात्र से ब़ढ़ते चले गए। काम का त्याग भी उन्हें सहज ही प्राप्त हो गया। इस दिशा में संयमशील साधिका उनकी धर्मपत्नी माता शारदा देवी का योगदान इतिहास में सदा अमर रहेगा।
अद्वैत साधना की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली, जो स्वयं उनकी कुटी में आ गए थे। तंत्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई जो स्वयं घूमते-फिरते दक्षिणेश्वर तक आ पहुंची थीं। उसी प्रकार इस्लामी साधना के उनके गुरु गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान हो गए थे। और ईसाइयत की साधना उन्होंने शंभुचरण मल्लिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म के ग्रंथों के अच्छे जानकार थे।
कह सकते हैं कि रामकृष्ण के रूप में भारत की सनातन परंपरा ही देह धरकर खड़ी हो गई थी।
किसी धनी भक्त ने एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस को एक कीमती दुशाला भेंट में दिया। स्वामीजी ऐसी वस्तुओं के शौकीन नहीं थे लेकिन भक्त के आग्रह पर उन्होंने भेंट स्वीकार कर ली। उस दुशाला को वह कभी चटाई की तरह बिछाकर उसपर लेट जाते थे कभी उसे कम्बल की तरह ओढ़ लेते थे।
दुशाले का ऐसा उपयोग एक सज्जन को ठीक नहीं लगा। उसने स्वामीजी से कहा – “यह
तो बहुत मूल्यवान दुशाला है. इसका बहुत जतन से प्रयोग करना चाहिए। ऐसे तो यह बहुत जल्दी ख़राब हो जायेगी!” परमहंस
ने सहज भाव से उत्तर दिया – “जब सभी प्रकार की मोह-ममता को छोड़ दिया है तो इस
कपड़े से कैसा मोह करूँ?
क्या अपना मन भगवान की और से हटाकर इस तुच्छ वस्तु में लगाना उचित
होगा? ऐसी छोटी वस्तु की चिंता करके अपना ध्यान बड़ी बात से
हटा देना कहाँ की बुद्धिमानी है?” ऐसा कहकर उन्होंने दुशाले
के एक कोने को पास ही जल रहे दिए की लौ से छुआकर थोडा सा जला दिया और उस सज्जन से
कहा – “लीजिये, अब न तो यह दुशाला मूल्यवान रही और न सुन्दर।
अब मेरे मन में इसे सहेजने की चिंता कभी पैदा नहीं होगी और मैं अपना सारा ध्यान
भगवान् की और लगा सकूँगा.”वे सज्जन निरुत्तर हो गए. परमहंस ने भक्तों को समझाया कि
सांसारिक वस्तुओं से मोह-ममता जितनी कम होगी, सुखी जीवन के
उतना ही निकट पहुंचा जा सकेगा।
इनके प्रिय शिष्य विवेकानन्द ने एक बार इनसे पूछा-महाशय! क्या आपने ईश्वर को देखा है? महान साधक रामकृष्ण ने उत्तर दिया-हां देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। वे स्वयं की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे। आध्यात्मिक सत्य, ज्ञान के प्रखर तेज से भक्ति ज्ञान के रामकृष्ण पथ-प्रदर्शक थे। काली माता की भक्ति में आह्वान करके वे भक्तों को मानवता का पाठ पढाते थे।
रामकृष्ण के शिष्य नाग महाशय ने गंगातट पर जब दो लोगों को रामकृष्ण को गाली देते सुना तो क्रोधित हुए किंतु प्रभु से प्रार्थना की कि उनके मन में श्रद्धा जगाकर रामकृष्ण का भक्त बना दें। सच्ची भक्ति के कारण दोनों शाम को रामकृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। रामकृष्ण ने उन्हें क्षमा कर दिया।
एक दिन परमहंस ने आंवला मांगा। आंवले का मौसम नहीं था। नाग महाशय ढूंढते-ढूंढते वन में एक वृक्ष के नीचे ताजा आंवला रखा पा गये, रामकृष्ण को दिया। रामकृष्ण बोले-मुझे पता था-तू ही लेकर आएगा। तेरा विश्वास सच्चा है।
रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी। इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये।
वे सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा
चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से
मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज
कराते रहे। विवेकानन्द ने कहा काली मां से रोग मुक्ति के लिए आप कह दें। परमहंस ने
कहा इस तन पर मां का अधिकार है, मैं क्या कहूं, जो वह करेगी मेरे लिए अच्छा ही करेगी। मानवता का उन्होंने मंत्र लुटाया।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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