वो भारतीय जो थे विश्व गुरू: जे. कृष्णमूर्ति
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
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जे. कृष्णमूर्ति 'जिद्दू
कृष्णमूर्ति', का जन्म: 12 मई, 1895 को और मृत्यु: 17 फ़रवरी, 1986
को हुई थी। 1927 में
एनी बेसेंट ने उन्हें 'विश्व गुरु' घोषित किया। वे एक विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों के बड़े
ही कुशल एवं परिपक्व लेखक थे। इन्हें प्रवचनकर्ता के रूप में भी ख्याति प्राप्त
थी। जे. कृष्णमूर्ति मानसिक क्रान्ति, बुद्धि की प्रकृति, ध्यान
और समाज में सकारात्मक परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है, इन
विषयों आदि के बहुत ही गहरे विशेषज्ञ थे। अपनी मसीहाई छवि को दृढ़तापूर्वक
अस्वीकृत करते हुए कृष्णमूर्ति ने एक बड़े और समृद्ध संगठन को भंग कर दिया,
जो उन्हीं को केंद्र में रखकर निर्मित किया गया था; उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में कहा कि सत्य एक ‘मार्गरहित भूमि’ है और उस तक किसी भी औपचारिक
धर्म, दर्शन अथवा संप्रदाय के माध्यम से नहीं पहुंचा जा सकता।
जे कृष्णमूर्ति ने किसी जाति, राष्ट्रयता अथवा धर्म में
अपनी निष्ठा व्यक्त नहीं की ना ही वे किसी परंपरा से आबद्ध रहे। उन्होंने सत्य के
मित्र और प्रेमी की भूमिका निभायी लेकिन स्वयं को कभी भी गुरू के रूप में नहीं रखा। उन्होंने जो भी कहा वह
उनकी अन्तर्दृष्टि का संप्रेषण था। उन्होंने हमेशा
इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना दो भिन्न चीजें नहीं, ”पिण्ड में ही ब्रम्हांड है“
इस को समझाया। उन्होंने बताया कि वास्तव में हमारी
भीतर ही पूरी मानव जाति पूरा विश्व प्रतिबिम्बित है। प्रकृति और
परिवेश से मनुष्य के गहरे रिश्ते और प्रकृति और परिवेश से अखण्डता की बात की। उनकी दृष्टि मानव
निर्मित सारे बंटवारों, दीवारों, विश्वासों, दृष्टिकोणों से परे जाकर
सनातन विचार के तल पर, क्षणमात्र में जीने का बोध
देती है।
उन्होंने
कहा कि मनुष्य को स्वबोध के जरिये, अपने आपसे परिचय करते हुए
स्वयं को भय,
पूर्वसंस्कारों,
सत्ता प्रामाण्य और रूढ़िबद्धता से
मुक्त करना होगा, यही मनुष्य में व्यवस्था और आमूलचूल मनोवैज्ञानिक
परिवर्तनों का आधार हो सकता है। हर तरह की आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक दावेदारी
को नकारना और उन्हें भी कोई गुरू या अथॉरिटी ना बना डाले इससे आगाह करना उनके
चेतावनी वाक्य थे। अपने कार्य के बारे में उन्होंने कहा ”यहां किसी विश्वास की कोई
मांग या अपेक्षा नहीं है,
यहां अनुयायी नहीं है,
पंथ संप्रदाय नहीं है,
व किसी भी
दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह
का फुसलाना प्रेरित करना नहीं है, और इसलिए हम एक ही तल पर,
एक ही आधार पर और एक ही स्तर पर मिल
पाते हैं, क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अद्भुत
घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं।”
जे
कृष्णमूर्ति के मौलिक दर्शन ने
पारंपरिक, गैरपरंपरावादी विचारकों,
दार्शनिकों,
शीर्ष शासन-संस्थाप्रमुखों,
भौतिक और मनोवैज्ञानियों और सभी
धर्म,
सत्य और यथार्थपरक जीवन में प्रवृत्त
सुधिजनों को आर्कर्षित किया और उनकी स्पष्ट दृष्टि से सभी आलोकित हुए हैं।
जे.
कृष्णमूर्ति का जन्म तमिलनाडु के एक छोटे-से नगर में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपने माता-पिता की आठवीं संतान के रूप में उनका जन्म हुआ था इसीलिए
उनका नाम कृष्णमूर्ति रखा गया। कृष्ण भी वासुदेव की आठवीं संतान थे। इनके पिता 'जिद्दू नारायनिया' ब्रिटिश प्रशासन में सरकारी कर्मचारी थे। जब कृष्णमूर्ति केवल दस साल के ही थे, तभी इनकी माता 'संजीवामा' का निधन हो गया। बचपन से ही इनमें कुछ असाधारणता थी। थियोसोफ़िकल सोसाइटी के सदस्य पहले ही किसी विश्वगुरु के आगमन की
भविष्यवाणी कर चुके थे। श्रीमती एनी बेसेंट और थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुखों को जे.
कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखाई दिये, जो कि एक विश्वगुरु में होते हैं। एनी बेसेंट ने जे. कृष्णमूर्ति की किशोरावस्था में ही उन्हें गोद ले
लिया और उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यात्म से ओत-प्रोत वातावरण में हुई। सन्
1922 में श्री कृष्णमूर्ति किन्हीं गहरी
आध्यात्मिक अनुभूतियों से होकर गुजरे और उन्हें उस करूणा का स्पर्श हुआ जिसके बारे
में उन्होंने स्वयं कहा ”वो करूणा सारे दुख, कष्टों को हर लेती है“।
जे
कृष्णमूर्ति ने स्वयं तथा उनकी शिक्षाओं को महिमा मंडित होने से बचाने
और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या की जाकर
विकृत होने से बचाने के लिए लिए अमरीका, भारत, इंग्लैंड, कनाडा और स्पेन में फाउण्डेशन स्थापित किये।भारत,
इंग्लैण्ड और अमरीका में विद्यालय भी
स्थापित किये जिनके बारे में उनका दृष्टिबोध था कि शिक्षा में केवल शास्त्रीय
बौद्धिक कौशल ही नहीं वरन मन-मस्तिष्क को समझने पर भी जोर दिया जाना चाहिये।
जीवन यापन और तकनीकी कुशलता के अतिरिक्त जीने की कला कुशलता भी सिखाई जानी
चाहिए।
थियोसोफ़िकल
सोसाइटी के प्रमुख को लगा कि जे. कृष्णमूर्ति जैसे
व्यक्तित्व का धनी ही विश्व का शिक्षक
बन सकता है। एनी बेसेंट ने भी इस विचार का समर्थन किया और जिद्दू कृष्णमूर्ति को वे
अपने छोटे भाई की तरह मानने लगीं।
1912 में उन्हें शिक्षा के लिए
इंग्लैंड भेजा गया और
1921 तक वे वहाँ रहे। इसके बाद विभिन्न देशों में
थियोसोफ़िकल पर भाषण देने का क्रम चलता रहा। जे. कृष्णमूर्ति ने सदैव ही इस बात पर
बल दिया था कि प्रत्येक मनुष्य को मानसिक क्रान्ति की आवश्यकता है
और उनका यह भी मत था कि इस तरह की क्रान्ति किन्हीं बाह्य कारक से सम्भव नहीं
है। चाहे वह धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक किसी भी प्रकार की हो।
कृष्णमूर्ति
के विचारों के जन्म को उसी तरह माना जाता है जिस तरह की एटम बम का अविष्कार के होने को। कृष्णमूर्ति अनेकों
बुद्धिजीवियों के लिए रहस्यमय व्यक्ति तो थे ही साथ ही उनके कारण विश्व में
जो बौद्धिक विस्फोट हुआ है उसने अनेकों विचारकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों को अपनी जद में ले लिया। उनके बाद विचारों का अंत होता है। उनके बाद
सिर्फ विस्तार की ही बातें हैं। 1927 में एनी बेसेंट ने उन्हें 'विश्व गुरु' घोषित किया।
किन्तु
दो वर्ष बाद ही कृष्णमूर्ति ने थियोसोफ़िकल विचारधारा से नाता तोड़कर अपने नये दृष्टिकोण का
प्रतिपादन आरम्भ कर दिया। अब उन्होंने अपने स्वतंत्र विचार देने शुरू कर दिये।
उनका कहना था कि व्यक्तित्व के पूर्ण रूपान्तरण से ही विश्व से संघर्ष
और पीड़ा को मिटाया जा सकता है। हम अन्दर से अतीत का बोझ और भविष्य का भय
हटा दें और अपने मस्तिष्क को मुक्त रखें। उन्होंने 'आर्डर ऑफ़ द स्टार'
को भंग करते हुए कहा
कि 'अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं हैं,
क्योंकि गुरु
तो सच को दबाते हैं। सच तो स्वयं
तुम्हारे भीतर है।...सच को ढूँढने के लिए
मनुष्य को सभी बंधनों से स्वतंत्र होना
आवश्यक है।' कृष्णमूर्ति ने बड़ी ही
फुर्ती और जीवटता से लगातार दुनिया के
अनेकों भागों में भ्रमण किया और लोगों को शिक्षा दी और लोगों से शिक्षा ली। उन्होंने
पूरा जीवन एक शिक्षक और छात्र की तरह बिताया। मनुष्य के सर्वप्रथम मनुष्य
होने से ही मुक्ति की शुरुआत होती है, किंतु आज का मानव
हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम, अमेरिकी या अरबी है। उन्होंने कहा था कि संसार विनाश
की राह पर आ चुका है और इसका हल तथाकथित धार्मिकों और राजनीतिज्ञों के पास
नहीं है।
"गंगा बस उतनी नहीं है,
जो ऊपर-ऊपर हमें नज़र आती है। गंगा तो
पूरी की पूरी नदी है,
शुरू से आखिर तक,
जहां से उद्गम होता है,
उस जगह से
वहां तक,
जहां यह सागर से एक हो जाती है। सिर्फ
सतह पर जो पानी दीख रहा है, वही गंगा है, यह सोचना तो नासमझी होगी। ठीक इसी तरह से हमारे होने
में भी कई चीजें शामिल हैं,
और हमारी ईजादें सूझें हमारे अंदाजे
विश्वास, पूजा-पाठ, मंत्र-ये सब के सब तो सतह पर ही हैं। इनकी हमें
जाँच-परख करनी होगी, और तब इनसे मुक्त हो जाना होगा-इन सबसे,
सिर्फ उन एक या दो विचारों,
एक या दो विधि-विधानों से ही नहीं,
जिन्हें हम पसंद नहीं करते।
अब
यह कुछ ऐसी वास्तविकता है जिसे मैं निश्चित होकर कह सकता हूँ कि
मैंने उपलब्ध किया है। मेरे लिये,
यह कोई सैद्धांतिक संकल्पना नहीं है।
यह मेरे जीवन का अनुभव है,
सुनिश्चित,
वास्तविक और ठोस। इसलिए मैं इसकी
उपलब्धि के लिए क्या आवश्यक है,
यह कह सकता हूँ। और मैं कहता हूँ कि
पहली चीज़ यह है कि हम जो है उसे वैसा का वैसा ही पहचाने
यानि अपनी पूर्णता में कोई इच्छा क्या हो जायेगी,
और तब प्रत्येक क्षण के अवलोकन में
स्वयं को अनुशासित करें, जैसे कोई अपनी इच्छाओं को ख़ुद ही देखे,
और उन्हें उस
अवैयक्तिक प्रेम की ओर निर्दिष्ट करे,
जो कि उसकी स्वयं की निष्पत्ति हो।
जब अप निरंतर जागरूकता का अनुशासन
स्थापित कर लेते हैं। उन सब चीज़ों का जो
आप सोचते हैं,
महसूस करते हैं और करते है (अमल में
लाते हैं) का निरंतर अवलोकन हम में से अधिकतर के जीवन में उपस्थित दमन,
ऊब,
भ्रम से मुक्त कर,
अवसरों की श्रंखला ले आता है जो हमें
संपूर्णता की ओर प्रशस्त करती है। तो
जीवन का लक्ष्य कुछ ऐसा नहीं जो कि
बहुत दूर हो, जो कि दूर कहीं भविष्य में
उपलब्ध करना है अपितु पल पल की,
प्रत्येक क्षण की वास्तविकता,
हर पल का
यथार्थ जानने में है जो अभी अपनी
अनन्तता सहित हमारे सामने साक्षात ही है। कृष्णमूर्ति कहते हैं,
‘जब आप खुद को ही नहीं जानते,
तो प्रेम व संबंध को कैसे जान पाएंगें?
‘हम
रूढ़ियों के दास हैं। भले ही हम खुद को आधुनिक समझ बैठें, मान
लें कि बहुत स्वतंत्र हो गये हैं, परंतु गहरे में देखें तो हैं हम रूढ़िवादी
ही। इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि छवि-रचना के खेल को आपने स्वीकार
किया है और परस्पर संबंधों को इन्हीं के आधार पर स्थापित करते हैं। यह
बात उतनी ही पुरातन है जितनी कि ये पहाड़ियां। यह हमारी एक रीति बन गई है।
हम इसे अपनाते हैं, इसी में जीते हैं, और इसी से एक दूसरे को यातनाएं देते
हैं। तो क्या इस रीति को रोका जा सकता है?
किसी
मनुष्य की मौत से अलग, अंततः किसी पेड़ की मौत बहुत ही ख़ूबसूरत होती है। किसी रेगिस्तान में एक मृत वृक्ष, उसकी धारियों वाली छाल, सूर्य की रोशनी और हवा से चमकी हुई उसकी देह, स्वर्ग की ओर उन्मुख नंगी टहनियाँ और तने। एक आश्चर्यजनक दृश्य होता है। एक सैकड़ों साल
पुराना विशाल पेड़ बागड़ बनाने, फर्नीचर या घर बनाने या यूँ ही बगीचे की मिट्टी में
खाद की तरह इस्तेमाल करने के लिए मिनटों में काट कर गिरा
दिया जाता है। सौन्दर्य का ऐसा साम्राज्य मिनटों में नष्ट हो जाता है। मनुष्य
चरागाह, खेती और निवास के लिए बस्तियाँ बनाने के लिए जंगलों में गहरे से
गहरे प्रवेश कर उन्हें नष्ट कर चुका है। जंगल और उनमें बसने वाले जीव
लुप्त होने लगे हैं। पर्वत श्रंखलाओं से घिरी ऐसी घाटियाँ जो शायद धरती पर
सबसे पुरानी रही हों, जिनमें कभी चीते, भालू और हिरन दिखा करते थे अब पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं, बस आदमी ही बचा है जो हर तरफ दिखाई देता है। धरती की सुन्दरता तेज़ी से
नष्ट और प्रदूषित की जा रही है। कारें और ऊँची बहुमंजिला इमारतें ऐसी
जगहों पर दिख रही हैं जहां उनकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। जब आप प्रकृति और
चहुं ओर फैले वृहत आकाश से अपने सम्बन्ध खो देते हैं, आप आदमी से भी रिश्ते ख़त्म कर चुके होते हैं।
जे.
कृष्णमूर्ति के अनुसार दुनिया को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी है
यथार्थवादी और स्पष्ट मार्ग पर चलना।
आपके भीतर कुछ भी नहीं होना चाहिए तब
आप एक साफ और सुस्पष्ट आकाश होने के
लिए तैयार हो। धरती का हिस्सा नहीं, आप स्वयं आकाश हैं। जे. कृष्णमूर्ति का कहना है कि यदि
आप कुछ भी है तो फिर आप कुछ नहीं। कृष्णमूर्ति की शिक्षा जो उनके गहरे
ध्यान, सही ज्ञान और
श्रेष्ठ व्यवहार की उपज है ने दुनिया
के तमाम दार्शनिकों, धार्मिकों और
मनोवैज्ञानिकों को प्रभावित किया। उनका
कहना था कि आपने जो कुछ भी परम्परा, देश और काल से जाना है उससे मुक्त होकर ही आप सच्चे
अर्थों में मानव बन पाएँगे। जीवन का परिवर्तन सिर्फ इसी बोध में निहित है
कि आप स्वतंत्र रूप से सोचते हैं कि नहीं और आप अपनी सोच पर ध्यान देते
हैं कि नहीं। उन्होंने 'आर्डर ऑफ दि स्टार'
को भंग करते हुए कहा कि 'अब से कृपा करके याद रखें कि
मेरा कोई शिष्य नहीं हैं,
क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं। सच
तो स्वयं तुम्हारे भीतर है। सच को ढूँढने के लिए मनुष्य को सभी
बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है।
जे. कृष्णमूर्ति अपने वार्ताओं तथा विचार विमर्शों के
माध्यम से अपनी शिक्षाओं को बच्चों तक
पहुंचाते हैं। क्योंकि मानव-मन के मूलभूत परिवर्तनों से तथा एक नवीन संस्कृति के सर्जन में जो केंद्रीभूत
है, उसके सम्प्रेषण के लिए शिक्षा को कृष्णमूर्ति प्राथमिक महत्व का
मानते हैं। ऐसा मौलिक परिवर्तन तभी संभव होता है, जब बच्चों की विभिन्न प्रकार
की कार्यकुशलता तथा विषयों का प्रशिक्षण देने
के साथ-साथ उसे स्वयं अपनी विचारणा तथा क्रियाशीलता के प्रति जागरूक होने की क्षमता भी
प्रदान की जाती है। यह जागरूकता बच्चों के अंदर
मनुष्य के साथ, प्रकृति के साथ तथा
मानव-निर्मित यंत्रों के साथ सही संबंध को
परिपक्व करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। कृष्णमूर्ति आंतरिक अनुशासन पर बल देते हैं। बाह्य
अनुशासन मन को मूर्ख बना देता है, यह आप में अनुकूलता और नकल
करने की प्रवृत्ति लाता है। परंतु यदि आप अवलोकन के द्वारा सुन करके, दूसरों की सुविधाओं का ध्यान
करके, विचार के द्वारा अपने को अनुशासित करते हैं, तो इससे व्यवस्था आती है।
जहां व्यवस्था होती है, वहां स्वतंत्रता सदैव रहती
है। यदि आप ऐसा करने में स्वतंत्र नहीं है तो आप
व्यवस्था नहीं कर सकते। व्यवस्था ही अनुशासन है। जे. कृष्णमूर्ति अपने शैक्षिक विचारों के माध्यम से
शिक्षक और शिक्षार्थी को यह उत्तरदायित्व सौंपते
हैं कि वे एक अच्छे समाज का निर्माण करें, जिसमें सभी मनुष्य
प्रसन्नतापूर्वक जी सकें, शांति और सुरक्षा में हिंसा
के बिना। क्योंकि आज के
विद्यार्थी ही कल के भविष्य हैं।
जे.
कृष्णमूर्ति के मौलिक दर्शन ने पारंपरिक, गैरपरंपरावादी विचारकों,
दार्शनिकों,
शीर्ष शासन-संस्थाप्रमुखों,
भौतिक और मनोवैज्ञानियों और सभी
धर्म,
सत्य और यथार्थपरक जीवन में प्रवृत्त
सुधिजनों को आर्कर्षित किया और उनकी स्पष्ट दृष्टि से सभी आलोकित हुए हैं। जे.
कृष्णमूर्ति ने स्वयं तथा उनकी शिक्षाओं को महिमा मंडित होने से बचाने और उनकी
शिक्षाओं की व्याख्या की जाकर विकृत होने से बचाने के लिए लिए
अमरीका, भारत, इंग्लैंड, कनाडा और स्पेन में फाउण्डेशन स्थापित किये। भारत,
इंग्लैण्ड और अमरीका
में विद्यालय भी स्थापित किये जिनके
बारे में उनका दृष्टिबोध था कि शिक्षा
में केवल शास्त्रीय बौद्धिक कौशल ही
नहीं वरन् मन-मस्तिष्क को समझने पर भी
जोर दिया जाना चाहिये। जीवन यापन और
तकनीकी कुशलता के अतिरिक्त जीने की कला
कुशलता भी सिखाई जानी चाहिए। उन्होंने
हमेशा इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना दो भिन्न चीजें नहीं,
”पिण्ड में ही
ब्रम्हांड है“ इस को समझाया। उन्होंने
बताया कि वास्तव में हमारी भीतर ही पूरी मानव जाति पूरा विश्व प्रतिबिम्बित है। प्रकृति
और परिवेश से मनुष्य के गहरे रिश्ते और प्रकृति और परिवेश से अखण्डता की
बात की। उनकी दृष्टि मानव निर्मित सारे बंटवारों,
दीवारों,
विश्वासों,
दृष्टिकोणों से परे जाकर
सनातन विचार के तल पर,
क्षणमात्र में जीने का बोध देती है।
अपने
कार्य के बारे में उन्होंने कहा ”यहां किसी विश्वास की कोई मांग या अपेक्षा नहीं है, यहां अनुयायी नहीं है, पंथ संप्रदाय नहीं है, व किसी भी दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह का फुसलाना
प्रेरित करना नहीं है, और इसलिए हम एक ही तल पर, एक ही आधार पर और एक ही स्तर पर मिल पाते हैं, क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अद्भुत
घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं। उनके साहित्य में सार्वजनिक वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, डायरी और उनका खुद का लेखन शामिल है जो कि अब तक 75 से अधिक पुस्तकों और 700
से अधिक ऑडियो और 1200
से अधिक वीडियो कैसेट्स सीडी के रूप में उपलब्ध है। उनका मूल साहित्य अंग्रेज़ी भाषा में है, जिसका कई मुख्य प्रचलित भाषाओं में अनुवाद किया गया
है। वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, प्रवचनों के ऑडियो और वीडियो टेप भी उपलब्ध हैं। ”
कृष्णमूर्ति
ने धर्म, अध्याय, दर्शन, मनोविज्ञान व शिक्षा को अपनी
अंतदृर्ष्टि के माध्यम से नये आयाम
दिए। छः दशकों से भी अधिक समय तक विश्व
के विभिन्न भागों में,
अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आए श्रोताओं
के विशाल समूह कृष्णमूर्ति के व्यक्तित्व तथा वचनों की ओर आकर्षित
होते रहे, पर वे किसी
के गुरु नहीं थे। अपने ही शब्दों में
वे तो बस एक दर्पण थे जिसमें इंसान खुद को देख सकता है। वे किसी समूह के नहीं,
सच्चे अर्थों में समस्त मानवता
के मित्र थे। उनकी वार्ताएं व संवाद,
दैनंदिनियां व पत्र पाठ से अधिक
पुस्तकों में संग्रहीत हैं। शिक्षाओं
के इस विशाल भंडार से विविध विषयों पर
आधारित प्रस्तुत पुस्तकमाला का संकलन
किया गया है। प्रत्येक पुस्तक एक ऐसे
विषय को केंद्रबिंदु बनाती है,
जिसकी हमारे जीवन में विशिष्ट
प्रासंगिकता तथा महत्त्व है।
जिद्दू कृष्णमूर्ति की इस नई विचारधारा की
ओर समाज का बौद्धिक वर्ग आकृष्ट हुआ और लोग पथ-प्रदर्शन के लिए उनके पास आने लगे थे। उन्होंने अपने जीवन
काल में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की, जिनमें दक्षिण भारत का
'ऋषिवैली' स्कूल विशेष उल्लेखनीय है। भारत के
इस महान् व्यक्तित्व की 91 वर्ष की
आयु में 17 फ़रवरी, 1986 ई.
में मृत्यु हो गई। कृष्णमूर्ति ने बड़ी ही फुर्ती और जीवटता से लगातार दुनिया
के अनेकों भागों में भ्रमण किया और लोगों को शिक्षा दी और लोगों से शिक्षा
ली। उन्होंने पूरा जीवन एक शिक्षक और छात्र की तरह बिताया। मनुष्य के
सर्व प्रथम मनुष्य होने से ही मुक्ति की शुरुआत होती है। किंतु आज का मानव हिंदू, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, अमेरिकी, अरबी
या चाइनी है। उन्होंने कहा था कि संसार विनाश की राह पर आ चुका
है और इसका हल तथाकथित धार्मिकों और राजनीतिज्ञों के पास नहीं है।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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