अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 1 व 2
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
वयोवृद्ध राजा जनक, बालक
अष्टावक्र से पूछते हैं –
हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती
है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य
कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे
बताएं॥१॥
श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं –
यदि आप मुक्ति चाहते
हैं तो अपने मन से
विषयों
(वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन
कीजिये॥२॥
आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के
लिए इन तत्त्वों के साक्षी,
चैतन्यरूप
आत्मा को जानिए॥३॥
यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके,
चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख,
शांति
और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥
आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों
अथवा
ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा
आँखों
से दिखाई न पड़ने वाले हैं।
आप
निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ॥५॥
धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले
हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं॥६॥
आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा
किसी और को समझते हैं॥७॥
अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं। 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो
जाइये॥८॥
मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो
जाएँ॥९॥
जहाँ ये
विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे,
उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ॥१०॥
स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है
और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है
कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना
करें॥१३॥
हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर
सुखी हो जाएँ॥१४॥
आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त
हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को
शांत
रखने का प्रयत्न ही बंधन है॥१५॥
यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ
है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥
आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये॥१७॥
आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः
जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥
जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर
भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥
जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा
समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 2
राजा जनक कहते हैं - आश्चर्य! मैं निष्कलंक, शांत, प्रकृति से
परे, ज्ञान स्वरुप हूँ, इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया॥१॥
जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी। अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं॥२॥
अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा
परमात्मा का दर्शन किया जाता है॥३॥
जिस प्रकार पानी लहर,
फेन और
बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग
नहीं है॥४॥
जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है, उसी प्रकार
यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है॥५॥
जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है
और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है॥६॥
आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान
होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है। रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी
दिखाई देती है, रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं
देता है॥७॥
प्रकाश मेरा स्वरुप है,
इसके
अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ।
वह
प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित
करता है
वैसे ही इस "मैं" भाव को भी॥८॥
आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई
देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में
सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥
मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥
आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, समस्त विश्व के नष्ट हो
जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता, जो तृण से
ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है॥११॥
आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, मैं एक हूँ, शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है और न कहीं आता है और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित
है॥१२॥
आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जो कुशल है
और जिसके समान कोई और नहीं है, जिसने इस शरीर को बिना स्पर्श करते हुए इस
विश्व को अनादि काल से धारण किया हुआ है॥१३॥
आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जिसका यह कुछ भी नहीं है अथवा जो भी
वाणी और मन से समझ में आता है वह सब जिसका है॥१४॥
ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं
हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक
मैं ही हूँ॥१५॥
द्वैत (भेद) सभी दुखों का मूल कारण है। इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है वह सब
असत्य है। मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ॥१६॥
मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ, अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य
गुण कल्पित किये गए हैं, ऐसा विचार करके
मैं सनातन और कारणरहित रूप से स्थित हूँ॥१७॥
न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम। मैं शांत और आश्रयरहित हूँ।
मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है॥१८॥
यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है, केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा
का ही अस्तित्व है। अब इसमें क्या कल्पना की जाये॥१९॥
शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं, इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या
प्रयोजन है॥२०॥
आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह में भी दूसरे को नहीं देखता हूँ, वह भी
निर्जन ही प्रतीत होता है। अब मैं किससे मोह करूँ॥२१॥
न मैं शरीर हूँ न यह शरीर ही मेरा है,
न मैं
जीव हूँ , मैं चैतन्य हूँ। मेरे अन्दर जीने की
इच्छा ही मेरा बंधन थी॥२२॥
आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु उठने पर
ब्रह्माण्ड रूपी विचित्र तरंगें उपस्थित हो जाती हैं॥२३॥
मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु के शांत होने पर जीव रूपी वणिक का संसार
रूपी जहाज जैसे दुर्भाग्य से नष्ट हो जाता है॥२४॥
आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें
उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं
और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं॥२५॥
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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