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Monday, April 1, 2019

क्या है षट-अंग योग



क्या है षट-अंग योग 
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
 सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  

जिस प्रकार महाराज पातांजलि ने अष्ट अंग वाले अष्टांग योग की बात कही है वहीं अमृतनादोपनिषद में योग के षट अंग यानि छह अंग बता कर ईश प्राप्ति की बात की है। साथ ही भक्ति को योग की बहन बताया है।

योग सनातन की सबसे प्राचीन तथा सबसे समीचीन संपत्ति है। यही एक ऐसी विद्या है जिसमें वाद-विवाद को कहीं स्थान नहीं, यही वह एक कला है जिसकी साधना से अनेक लोग अजर-अमर होकर देह रहते ही सिद्ध-पदवी को पा गए। यह सर्वसम्मत अविसंवादि सिद्धांत है कि योग ही सर्वोत्तम मोक्षोपाय है। भवतापतापित जीवों को सर्वसंतापहर भगवान से मिलाने में योग अपनी बहिन भक्ति का प्रधान सहायक है। जिसको अंतरदृष्टि नहीं, उसके लिए शास्त्र भारभूत है। यह अंतरदृष्टि बिना योग के संभव नहीं। अत: इसमें संदेह नहीं कि भारतीय तत्वज्ञान के कोश को पाने के लिए योग की कुंजी पाना परमावश्यक है।

इस काल में सर्वसाधारण जन को योग का ज्ञान बहुत ही कम है। किसी को जो कुछ ज्ञान है, वह पातंजल योग का और वह भी दुरधीत तथा दुरध्यापित शास्त्ररूपेण। योगचर्या तथा योगाभ्यास से हमारा सभ्य संघ उतना ही संपर्क रखता है जितना माया-परिष्वक्त जीव सर्वदु:खहर महेश्वर से रखता है। यही एक प्रधान कारण है कि इस समय योग के संबंध में विचित्र-विचित्र बातें विद्वज्जन के मुख से भी सुनने में आती है। अस्तु। इस समय इसकी कैसी भी दुर्दशा अनात्मज्ञ लोगों में क्यों न हो, भारतवर्ष के आध्यात्मिक इतिहास में योग का सर्वदा विशिष्ट स्थान रहा है।

अमृतनादोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।

कृष्ण यजुर्वेद शाखा के इस अमृतनादोपनिषद,   उपनिषद में 'प्रणवोपासना' के साथ योग के छह अंगों- प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, प्राणायाम, तर्क और समाधि आदि- का वर्णन किया गया है। योग-साधना के अन्तर्गत 'प्राणायाम' विधि, ॐकार की मात्राओं का ध्यान, पंच प्राणों का स्वरूप, योग करने वाले साधक की प्रवृत्तियां तथा निर्वाण-प्राप्ति से ब्रह्मलोक तक जाने वाले मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है। इस उपनिषद में उन्तालीस मन्त्र हैं। 

प्राणोपासना
'प्रणव,' अर्थात् 'ॐकार' का चिन्तन समस्त सुखों को देने वाला है।
ॐकार के रथ पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुंचा जा सकता है-ॐकार-रूपी रथ पर आरूढ़ होकर और भगवान विष्णु को सारथि बनाकर ब्रह्मलोक का चिन्तन करते हुए ज्ञानी पुरुष देवाधिदेव भगवान रुद्र की उपासना में निरन्तर तल्लीन रहें। तब ज्ञानी पुरुष का प्राण निश्चित रूप से 'परब्रह्म' तक पहुंच जाता है।

योग-साधना (प्राणायाम)
जब मन अथवा प्राण नियन्त्रण में नहीं होता, तब विषय-वासनाओं की ओर भटकता है। विषयी व्यक्ति पापकर्मों में लिप्त हो जाता है। यदि 'प्राणयाम' विधि से प्राण का नियन्त्रण कर लिया जाये, तो पाप की सम्भावना नष्ट हो जाती है।
आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि हठयोग के छह कर्म माने गये हैं। इनके प्रयोग से शरीर का शोधन हो जाता है। स्थिरता, धैर्य, हलकापन, संसार-आसक्तिविहीन और आत्मा का अनुभव होने लगता है। सामान्य व्यक्ति 'प्राणायाम' का अर्थ वायु को अन्दर खींचना, रोकना और निकालना मात्र समझते हैं। यह भ्रामक स्थिति है।
प्राण-शक्ति संसार के कण-कण में व्याप्त है। वायु में भी प्राण-शक्ति है। इसीलिए प्राणायाम द्वारा वायु में स्थित प्राण-शक्ति को नियन्त्रित किया जाता है प्राण पर नियन्त्रण होते ही शरीर और मन पर नियन्त्रण हो जाता है। प्राणायाम करने वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा आरोग्य, बल, उत्साह और जीवनी-शक्ति को श्वास द्वारा अपने भीतर ले जाता है, उसे कुछ देर भीतर रोकता है और फिर उसी वायु को बाहर की ओर निकालकर अन्दर के अनेक रोगों और निर्बलताओं को बाहर फेंक देता है।
'प्राणायाम' के लिए साधक को स्थान, काल, आहार, आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। 'शुद्धता' इसकी सबसे बड़ी शर्त है। 'प्राणायाम' करते समय तीन स्थितियां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रेचक' होती हैं।
  1. 'पूरक' का अर्थ है- वायु को नासिका द्वारा शरीर में भरना,
  2. 'कुम्भक' का अर्थ है- वायु को भीतर रोकना और
  3. 'रेचक' का अर्थ है- उसे नासिका छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालना।
सीधे हाथ के अंगूठे से नासिका के सीधे छिद्र को बन्द करें और बाएं छिद्र से श्वास खींचें, बायां छिद्र भी अंगुली से बन्द करके श्वास को रोकें, फिर दाहिने छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। इस बीच 'ओंकार' का स्मरण करते रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ाते जायें। इसी प्रकार बायां छिद्र बन्द करके दाहिने छिद्र से श्वास खींचें, रोकें और बाएं छिद्र से निकाल दें। अभ्यास द्वारा इसे घण्टों तक किया जा सकता है। शनै:-शनै: आत्मा में ध्यान केन्द्रित हो जाता है। 

षट अंग :
1. आसन: शरीर की वह अवस्था जिस में बैठकर ह्म स्थिरता के साथ ध्यान कर सकें।
2. मुद्रा: शरीर की उंगलियों को और हथेली को किस प्रकार एक दुसरे के सम्पर्क में रखा जाये कि हमारे शरीर में व्याप्त विभिन्न वायु चक्र सुव्यवस्थित रहकर ध्यान में सहायक हों।
3. प्रत्याहार: प्रति  आहार मतलब सांसारिक भोग विलास व अन्य को त्यागने की आदत।
4. प्रणायाम: प्राण वायु का आयाम।
5. ध्यान
6 समाधि
उसके बाद घटित हो सकता है योग। वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव” ही योग है। 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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क्या है जाबालोपनिषद



क्या है जाबालोपनिषद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
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जाबालोपनिषद शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है। यजुर्वेद में दो शाखा हैं।  दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई। ब्रज डिस्कवरी कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू.।

उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है।
  1. पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
  2. पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
  3. सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
  4. उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत्‌ का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। मुख्य उपनिषद 12 या 13 हैं। हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं।

शुक्ल यजुर्वेद के इस उपनिषद में कुल छह खण्ड हैं।
  1. प्रथम खण्ड में भगवान बृहस्पति और ऋषि याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा प्राण-विद्या का विवेचन किया गया है।
  2. द्वितीय खण्ड में अत्रि मुनि और याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा 'अविमुक्त' क्षेत्र को भृकुटियों के मध्य बताया गया है।
  3. तृतीय खण्ड में ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का उपाय बताया गया है।
  4. चतुर्थ खण्ड में विदेहराज जनक के द्वारा सन्न्यास के विषय में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर याज्ञवल्क्य देते हैं।
  5. पंचम खण्ड में अत्रि मुनि संन्यासी के यज्ञोपवीत, वस्त्र, भिक्षा आदि पर याज्ञवल्क्य से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं और
  6. षष्ठ खण्ड में प्रसिद्ध सन्न्यासियों आदि के आचरण की समीक्षा की गयी है और दिगम्बर परमंहस का लक्षण बताया गया है।
प्रथम खण्ड / प्राण-विद्या का स्थान कहां है?
याज्ञवल्क्य ऋषि ने प्राण का स्थान ब्रह्मसदन या 'अविमुक्त' (ब्रह्मरन्ध्र काशी) क्षेत्र बताया है। उसे ही इन्द्रियों का देवयजन कहा है। इसी ब्रह्मसदन की उपासना से 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है।
द्वितीय खण्ड / 'आत्मा' को कैसे जानें?
'आत्मा' को जानने के लिए 'अविमुक्त' (ब्रह्मरन्ध्र)की ही उपासना करनी चाहिए; क्योंकि वह अनन्त, अव्यक्त आत्मा यहीं पर प्रतिष्ठित है। यह 'वरणा' और 'नासी' के मध्य विराजमान है। इन्द्रियों द्वारा किये समस्त पापों का निवरण 'वरणा' करती है और उन पापों को नष्ट करने का कार्य 'नासी' करती है। भृकुटि और नासिका के सन्धिस्थल पर इनका स्थान है। यही 'द्युलोक' और 'परलोक' का संगम है। ब्रह्मविद्या में 'आत्मा' की उपासना इसी सन्धिस्थल पर की जाती है।
तृतीय खण्ड /मोक्ष कैसे प्राप्त हो?
ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचारी शिष्यों को बताया कि 'शतरुद्रीय' जप करने से 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है। इसके द्वारा साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।
चतुर्थ खण्ड / सन्न्यास क्या है?
इस खण्ड में ऋषि राजा जनक को सन्न्यास के विषय में बताते हुए 'ब्रह्मचर्य' को संन्यासी के लिए सर्वप्रथम शर्त बताते हैं। ब्रह्मचर्य के उपरान्त गृहस्थी, उसके बाद वानप्रस्थी और फिर प्रव्रज्या ग्रहण करके सन्न्यास ग्रहण करना चाहिए। विषयों से विरक्त होने के उपरान्त किसी भी आश्रम के उपरान्त संन्यासी बना जा सकता है। संन्यासी को मोक्ष मन्त्र '' का जाप हर पल करना चाहिए। वही 'ब्रह्म' है और उपासना के योग्य है।
पंचम खण्ड / ब्राह्मण कौन है? संन्यासी कौन है?
अत्रि मुनि के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि ब्राह्मण वही है, जिसका आत्मा ही उसका यज्ञोपवीत है। जो जल से तीन बार प्रक्षालन और आचमन करे, भगवा वस्त्र धारण करे, अपरिग्राही बनकर लोक-मंगल के लिए भिक्षा-वृत्ति से जीवन-यापन करे, मन और वाणी से विषयों का त्याग करे, वही संन्यासी है, लोक-हितैषी है।
षष्ठ खण्ड / परमहंस संन्यासी कौन है?
संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, ऋभु, निदाघ, जड़भरत, दत्तात्रेय और रैवतक आदि परमहंस संन्यासी हुए हैं। वे सभी सन्न्यास के चिह्नों से रहित थे। वे भीतर से उन्मत्त न होते हुए भी बाहर से उन्मत्त लगते थे। ऐसे संन्यासी निश्छल और निस्पृह होते हैं। वे निर्द्वन्द्व, अपरिग्रही, तत्त्व-ब्रह्म में निरन्तर गतिमान तथा शुद्ध मन वाले होते हैं। वे जीवन्मुक्त, ममता-रहित, सात्विक, अध्यात्मनिष्ठ, शुभ-अशुभ कर्मों को निर्मूल मानने वाले होते हैं। वे परमहंस होते हैं।

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