खेचरी मुद्रा क्या है
इसके लिए जिभ और तालु को जोड़ने वाले मांस-तंतु को धीरे-धीरे काटा जाता है,
अर्थात एक दिन जौ भर काट कर छोड़ दिया जाता है। फिर तीन-चार दिन बाद थोड़ा-सा और काट दिया जाता है। इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त शिराएं अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं। जीभ को काटने के साथ ही प्रतिदिन धीरे-धीरे बाहर की तरफ खींचने का अभ्यास किया जाता है।
इसका अभ्यास करने से कुछ महिनों में जीभ इतनी लम्बी हो जाती है कि यदि उसे ऊपर की तरफ उल्टा करें तो वह श्वास जाने वाले छेदों को भीतर से बन्द कर देती है। इससे समाधि के समय श्वास का आना-जाना पूर्णतः रोक दिया जाता है।
खेचरी मुद्रा योगसाधना की एक मुद्रा है। इस मुद्रा
में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम 'खेचरी'
पड़ा है (ख = आकाश,
चरी = चरना,
ले जाना,
विचरण करना)। इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास
किया जाता है। इस स्थित में चित्त और जीभ दोनों ही 'आकाश'
में स्थित रहते हैं,
इसी लिये इसे 'खेचरी'
मुद्रा कहते हैं । इसके साधन से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता ।
इसके लिये जिह्वा को बढ़ाना आवश्यक होता है। जिह्वा को लोहे की शलाका से दबाकर बढ़ाने का विधान पाया जाता है। कौल मार्ग में खेचरी मुद्रा को प्रतीकात्मक रूप में 'गोमांस भक्षण' कहते हैं। 'गौ' का अर्थ इंद्रिय अथवा जिह्वा और उसे उलटकर तालू से लगाने को 'भक्षण' कहते हैं।
योगमार्ग में "खेचरी मुद्रा" को 'योगियों की माँ' कहकर सम्बोधित किया गया है। जिस प्रकार माँ अपनी सन्तान का पालन पोषण सभी संकट हटाकर करती है, ठीक उसी प्रकार खेचरी की शरण में रहने वाला साधक सदैव उसकी कृपा का पात्र बनता है।
को व्यक्त करते निम्नलिखित दो श्लोक इसे स्पष्ट कर देते है.....
१) "कपालकुहरे जिव्हा प्रविष्टा विपरितगा। ध्यानं भ्रूमध्यदेशे च मुद्रा भवति खेचरी।।"
२) "खेचरियोगतो योगी शिरश्चंद्रादुपागतम्। रसंदिव्यंपिबेन्नित्यं सर्वव्याधिविनाशनम्।।"
योग की इस महान क्रिया का साधक आज के इस युग में दुर्लभ है, योग की इस क्रिया को सदैव योगी,साधक गुरु के सानिध्य में ही सीखने का प्रयास करें।
यह एक परिचयात्मक लेख ही है|
पूरी विधि किसी अधिकृत योग-गुरु से ही सीखें|
मैं यह विधि सिखाने के लिए अधिकृत नहीं हूँ|
जो क्रियायोग की साधना करते हैं,
उनके लिए यह विधि बहुत अधिक सहायक है|
सन्यासियों के कुछ अखाड़ों में इसका अभ्यास अनिवार्य है|
खेचरी मुद्रा सदा ही एक गोपनीय विषय रहा है जिसकी चर्चा सिर्फ निष्ठावान एवम् गंभीर रूप से समर्पित साधकों में ही की जाती रही है| पर रूचि जागृत करने हेतु इसकी सार्वजनिक चर्चा भी आवश्यक है| ध्यानस्थ होकर योगी महात्मागण अति दीर्घ काल तक बिना कुछ खाए-पीये कैसे जीवित रहते हैं? इसका रहस्य है ….’खेचरी मुद्रा’|
ध्यान साधना में तीव्र गति लाने के लिए भी खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है| ‘खेचरी’ का अर्थ है ….. ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश तत्व यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण| जो बह्म में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है। पर शक्तिपात दीक्षा के पश्चात क्रिया रूप में यह स्वत: लग जाती है। साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है|
वेदों में ‘खेचरी’ शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है| वैदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया ‘विश्वमित्’| “दत्तात्रेय संहिता” और “शिव संहिता” में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है …..
“करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम् | लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम् ||”
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतगामी करता है,
अर्थात जीभ को तालुका में बैठाकर ध्यान करने बैठता है,
उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे|
वे खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे ‘तालब्य क्रिया’ कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं|
इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों में जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरुकृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे| तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
हमारे महान पूर्वज स्थूल भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गःज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य) में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में, और साथ साथ श्रवण यानि अनाहत नाद (प्रणव) के रूप में सर्वदा होते हैं|
ध्यान साधना में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है।
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा
और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि के बारे में पढ़ा है पर मुझे उसका अभी तक ज्ञान नहीं है| सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर, पद्मासन में बैठ कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य ) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तो उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
जो योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की गुरु परम्परा में क्रियायोग साधना में दीक्षित हैं उनके लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास अनिवार्य है| क्रिया योग की साधना खेचरी मुद्रा में होती है| जो खेचरी मुद्रा नहीं कर सकते उनको जीभ ऊपर को ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखनी पडती है| खेचरी मुद्रा में क्रिया योग साधना अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है|
मध्यजिव्हे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम ।
होच्चारं मनसा कुर्वस्ततः शान्ते प्रलियते । ( धारणा - 57 श्लोक 80 )
सामान्य लगने वाली इस खेचरी मुद्रा साधना का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इससे अनेकों शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक लाभ उपलब्ध होने का शास्त्रों में वर्णन है। लेकिन इस मुद्रा के साथ साथ भाव संवेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी होनी चाहिए।
यह मुद्रा लगभग बारह वर्ष में सिद्ध होती है । इसका अभ्यास किसी सक्षम गुरू के मार्गदर्शन एवं अनुशासन में ही करना चाहिए । स्वयं किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए । साधना के समय ब्रह्मचर्य के पालन से साधना की सफलता की संभावना प्रबल होती है । सफलता हेतु धैर्य अति आवश्यक है ।
खेचरी मुद्रा साधना की सफलता के परिणाम स्वरूप मुख्य नाङियों के अवरूद्ध मार्ग खुल जाते हैं । साधक ब्रह्मरन्ध्र से स्त्रावित सुधा का पान तथा समाधि स्थिति का अनुभव करता है । भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य आदि आवेगों से छुटकारा पाकर दीर्घायु होता है ।
तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम । ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत ।
( शिवसंहिता चतुर्थ पटल श्लोक - 23 )
ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए सर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए । और खेचरी अभ्यास करना चाहिए ।
अमृतास्वादनं पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते । रोमांचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते ।
योग रसायनम । 255
जिव्हा ( जीभ ) में अमृत सा स्वाद अनुभव होता है। रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है।
प्रथमं लवण पश्चात क्षारं क्षीरोपमं ततः । द्राक्षारससमं पश्चात सुधासारमयं ततः। योग रसायनम।
उस (रस) का स्वाद पहले लवण (नमक) जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस (अंगूर) जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा (अमृत) रस सा अनुभव होता है।
आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम। नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च।
द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम। (घेरण्ड संहिता तृतीयोपदेश श्लोक - 31-32)
जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, घृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है।
अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात । जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले। योग रसायनम
अमृत जैसा स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है । वह रोग और वृद्धावस्था से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद अणिमादि सिद्धिः। योग सूत्र
तालु के ऊर्ध्व भाग में महाज्योति स्थित है। उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है ।
ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्द्धं यदि तिष्ठति। सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम।
अस्मिन लीनं मनो यस्य स योगी मयि लीयते।
अणिमादिगुणान भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः।
एतद्रन्ध्रध्यानमात्रेण मर्त्यः संसारेऽस्मिन वल्लभो मे भवेत्सः।
पापान जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयत्यदभूतं वै।
( शिवसंहिता पंचम पटल श्लोक - 173-174-175 )
ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है । पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है । इसमें मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन होकर अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है ।
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते । न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेहः स जायते ।
(घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-28)
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा (भूख) तृष्णा (प्यास) आलस्य, रोग, जरा (वृद्धावस्था) मृत्यु का भय नहीं रहता।
लावण्यं च भवेद गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम । कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात ।
( घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-30 )
शरीर सौंदर्यवान बनता है । समाधि का आनन्द मिलता है। रसों की अनुभूति होती है।
ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले। ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः।
तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत - योगकुन्डल्युपनिषद
ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि निवारक खेचरी विद्या को जानने वाला है । उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए।
अपने मुख को क्षमतानुसार फैलाकर जिव्हा को उलटकर उपर तालु प्रदेश मे ले जाकर स्थिर करके मुख बन्द करने से खेचरी मुद्रा बनती है।
इस मुद्रा मे चित्त को स्थिर करके केवल अनच्क - अर्थात स्वर रहित ( केवल मानसिक रूप से ) ‘हकार’ का उच्चारण परम शान्ति प्रदायक होता है । तथा निरंतर अभ्यास से साधक का शान्त स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है ।
प्राण की उच्छ्वास दशा में स्वाभाविक रूप से ‘ह’ का उच्चारण तथा निश्वास दशा मे ‘सः’ का उच्चारण निर्बाध रूप से अविरत होता रहता है।
अर्थात यह प्राण श्वास लेते हुए ‘हकार’ के साथ शरीर में प्रविष्ट होता है । तथा ‘सकार’ के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है ।
इस प्रकार प्राण की श्वास प्रश्वास प्रक्रिया में ‘हं सः सो हं’ इस अजपा गायत्री का स्वाभाविक रूप से दिन रात अनवरत जप चलता रहता है ।
किन्तु खेचरी साधना में जिव्हा के तालु प्रदेश में ही स्थिर रहने से ‘सकार’ का बहिर्गमन अवरुद्ध हो जाता है । जिसके परिणाम स्वरूप ‘सकार’ का उच्चारण भी नही होता ।
अतः खेचरी मुद्रा की इस अवस्था में केवल स्वर रहित ‘हकार’ के उच्चारण का ही विकल्प होता है ।
खेचरी साधना की इस अवस्था में साधक को दृढता पूर्वक भ्रूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर रखना पङता है ।
कपालकुहरे जिव्हा प्रविष्टा विपरितगा ।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी । विवेकमार्तण्ड
जब जिव्हा को उलटकर तालु प्रदेश में विद्यमान कपाल कुहर में प्रविष्ट करके दृष्टि को भ्रूमध्य मे स्थिर कर दिया जाता है । तो वह खेचरी मुद्रा कहलाती है ।
खेचरी मुद्रा की साधना के लिए साधक जिव्हा को लम्बी करके ‘काकं चंचु’ तक पहुँचाने के लिए जिव्हा पर काली मिर्च, शहद, घृत का लेपन करके उसे थन की तरह दुहते, खीचते हैं । और लम्बी करने का प्रयत्न करते हैं ।
खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है । मस्तिष्क मध्य को - ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार को अमृत कलश माना गया है । और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है ।
जिव्हा को जितना सरलता पूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो । उतना पीछे ले जाना चाहिए ।
प्रारंभ मे ‘काक चंचु’ से बिलकुल न सटकर कुछ दूरी पर रह जाए । तो भी धर्य के साथ निरंतर अभ्यास से धीरे धीरे जिव्हा काकचंचु तक पहुंचने लगती है ।
तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त भ्रूमध्य मे दृष्टि स्थिर करके यह ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से निरंतर सोम अमृत का सूक्ष्म स्राव टपकता है । और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्रा द्वारा उसका पान किया जा रहा है ।
इसी संवेदना को अमृतपान की अनुभूति कहते हैं । प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता । परन्तु आनन्दित करने वाले कई प्रकार के दिव्य रसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं । यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है।
तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था बिंदुमालिनी । मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा ।
देवीभागवत पुराण
अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रूमध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला और मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है । और प्रत्येक रोमकूप में भी आप ही विद्यमान है ।
ये खेचरी मुद्रा विज्ञानं भैरव में है। जो शिव शक्ति को बताते है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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