भक्ति
आंदोलन के प्रेणता स्वामी रामानंद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,
रामानंद़
को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाते है। उन्होंने
रामभक्ति की धारा को समाज के निचले
तबके तक पहुंचाया.वे पहले ऐसे आचार्य
हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का
प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद.यानि
उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है।
उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत,
ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध
किया
स्वामी
रामानंद का जन्म प्रयाग(इलाहाबाद) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ
था। उनकी माता का नाम सुशीला देवी और
पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा था। आरंभिक काल में हीं उन्होंने कई तरह के अलौकिक
चमत्कार दिखाने शुरू किये.धार्मिक विचारों वाले उनके माता-पिता ने बालक
रामानंद को शिक्षा पाने के लिए काशी के स्वामी राधवानंद के पास श्रीमठ भेज
दिया. श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने वेद,
पुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का
अध्ययन किया और प्रकांड विद्वान बन गये। पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में रहते
हुए उन्होंने कठोर साधना की उनके जन्म दिन को लेकर कई तरह की भ्रंतियां
प्रचलित है लेकिन अधिकांश विद्वान मानते हैं कि स्वामीजी का जन्म 1400
ईस्वी में हुआ था।
यानि आज से कोई सात सौ दस साल पहले.
शिष्य
परंपरा
स्वामी
रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया. उन्होंने
अनंतानंद,
भावानंद,
पीपा,
सेन,
धन्ना,
नाभा दास,
नरहर्यानंद,
सुखानंद,
कबीर,
रैदास,
सुरसरी,
पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना
प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है।
इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये. कबीर औऱ रविदास ने
निर्गुण राम की उपासना की.इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान
संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते
थे। जब समाज में चारो ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा ङुआ था,
वैसे समय में स्वामी रामानंद
ने नारा दिया-जात-पात पूछे ना कोई-हरि
को भजै सो हरि का होई. उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और
भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया. उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में
समान स्थान दिया. उनके द्वारा स्थापित रामानंद सम्प्रदाय या रामावत
संप्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है।
वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंद सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में फैली हैं। लेकिन अयोध्या, चित्रकूट, नाशिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर स्थित श्रीमठ, दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो काशी का श्रीमठ ही सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानंद सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज, श्रीमठ के गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं और संत समाज में समादृत हैं।
वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंद सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में फैली हैं। लेकिन अयोध्या, चित्रकूट, नाशिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर स्थित श्रीमठ, दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो काशी का श्रीमठ ही सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानंद सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज, श्रीमठ के गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं और संत समाज में समादृत हैं।
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार
करने के लिए देश भर की यात्राएं की. वे पुरी औऱ दक्षिण भारत के कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार किया।
पहले उन्हें स्वामी रामनुज का अनुयाय़ी माना जाता था लेकिन श्रीसम्प्रदाय
का आचार्य होने के बावजूद उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में ऱाम
और सीता को वरीयता दी. उन्हें ही अपना उपास्य बनाया. राम भक्ति की पावन धारा
को हिमालय की पावन ऊंचाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितों
की झोपड़ी तक पहुंचाया. वे भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव
भक्ति साधना को नया आयाम दिया. उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी श्रीमठ, काशी
में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों की आस्था का केन्द्र है।
स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता दी. उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद भाष्य पर टीका भी
शामिल है। वैष्णवमताब्ज भाष्कर भी उनकी प्रमुख रचना है।
भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य
और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म तथा वैष्णव
भक्ति से संबद्ध वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैष्णव
भक्ति के महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग 720
वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने श्री सीताजी द्वारा
पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा
रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान की. उन्हें उत्तरभारत
में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार-
भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लायो रामानंद.
तत्कालीन समाज में विभिन्न मत-पंथ संप्रदायों में घोर
वैमनस्यता और कटुता को दूर कर हिंदू समाज को एक
सूत्रबद्धता का महनीय कार्य किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानकर सरल
रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया। उनकी शिष्य मंडली में
जहां एक ओर कबीरदास, रैदास, सेन नाई और पीपा नरेश जैसे जाति-पाति, छुआछूत, वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा के विरोधी निर्गुणवादी संत थे तो दूसरे पक्ष में अवतारवाद के
पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले
स्वामी अनंतानंद, भावानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे सगुणोपासक
आचार्य भक्त भी थे। उसी परंपरा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसा तेजस्वी साधक और गोस्वामी तुलसीदास जैसा
विश्व विश्रुत महाकवि भी उत्पन्न हुआ। आचार्य
रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र का उपदेश उन्होंने पेड़ पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति
के लोगों के कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का
कल्याण हो सके. उन्होंने नारा दिया था-
“जाति-पाति पूछे न कोई. हरि को
भजै सो हरि का होई.“
आचार्यपाद
ने स्वतंत्र रूप से श्रीसंप्रदाय का प्रवर्तन किया। इस संप्रदाय को “रामानंदी अथवा वैरागी“ संप्रदाय भी कहते हैं।
उन्होंने बिखरते और नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति
मार्ग में जाति-पांति के भेद को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की शरणागति का
मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है-
सर्व
प्रपत्तिधरकारिणो मताः
कहकर
उन्होंने किसी भी जाति-वरण के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं किया। चर्मकार जाति में जन्मे रैदास और जुलाहे
के घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं।
स्वामी
रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित पुस्तकों की सूची इस प्रकार हैः
(1) वैष्णवमताब्ज भास्करः (संस्कृत),
(2) श्रीरामार्चनपद्धतिः (संस्कृत),
(3) रामरक्षास्तोत्र (हिन्दी),
(4) सिद्धान्तपटल (हिन्दी),
(5) ज्ञानलीला (हिन्दी),
(6) ज्ञानतिलक (हिन्दी),
(7) योगचिन्तामणि (हिन्दी)
(7) सतनामी पंथ (हिन्दी)
’आनन्दभाष्य’ नाम से जगदगुरु रामानन्दाचार्य जी ने
प्रस्थानत्रयी का भाष्य लिखा है।
मध्ययुगीन
धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी की स्थिति चतुष्पथ के
दीप-स्तंभ जैसी है। उन्होंने अभूतपूर्व
सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की. उन्हीं
के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक
केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी. उस युग की परिस्थितियों के अनुसार,
वैरागिनी साधु समाज को
अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में
संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया।
तीर्थस्थानों
से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए.
मूल्य ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद संप्रदाय के
सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं और सर्वत्र
आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं।
वैष्णवों
के बावन द्वारों में सर्वाधिक सैंतीस
द्वारे इसी संप्रदाय से जुड़े हैं। इसके
अतिरिक्त भी फैली इसकी शाखा, प्रशाखा और अवान्तर शाखाएं जैसे- रामस्नेही,
कबीरदासी,
घीसापंथी,
दादूपंथ
आदि नामों से इस संप्रदाय की मूलभावना
की संवाहिका बनी हैं। यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि
हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद,
वर्ण-विद्वेष,
मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक
कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही
यौगिक शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास
के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया और हिंदुओं पर लगे
समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम धर्म
में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन
संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्च ने ही प्रारंभ
किया। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चैंतीस
हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित
किया था। ऐसे महान संत, परम विचारक, समन्वयी महात्मा का प्रादुर्भाव तीर्थराज प्रयाग में
एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
इनके पिता का नाम पंडित
पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था। धार्मिक
संस्कारों से संपन्न पिता ने रामानंद को काशी के श्रीमठ में गुरू राघवानंद के
सानिध्य में शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा. कुशाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल
में ही सभी शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली. गुरू
राघवानंद और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं
किया और आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया।
ऐसे
में स्वामी रामानंद को रामतारक मंत्र की दीक्षा
प्रदान की. रामानंद ने श्रीमठ की गुह्य
साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं
का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की. योगमार्च की तमाम गुत्थियों को
सुलझाते हुए उन्होंने अष्टांग योग की साधना पूर्ण की. दीर्घायुष्य प्राप्त
करने के कारण जगद्गुरू राघवानंद ने अपने तेजस्वी और प्रिय शिष्ट रामानंद को
श्रीमठ पीठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया. अपने पहले संबोधन में ही
जगदगुरू रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं
अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत
धर्म रक्षार्थ विराट संगठित शक्ति खड़ा करने के संकल्प व्यक्त किया। काशी
के परम पावन पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ,
आचार्यपाद के द्वारा प्रवाहित श्रीराम
प्रपत्ति की पावनधारा के मुख्यकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित होकर
उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत प्रवर्तन कर रहा है। आज भी श्रीमठ आचार्यचरण की
परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से जनमानस को आलोकित कर
रहा है। यही वह दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने अपने परमप्रतापी
शिष्यों के माध्यम से अपनी अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था।
रामानंदाचार्च पीठ का पवित्र केंद्र सारे देश में फैले रामानंद संप्रदाय का
मुख्यालय है। श्रीमठ में अवस्थित रामानंदाचार्च की चरणपादुका दुनियाभर में
बिखरे रामानंदी संतों, तपस्वियों एवं अनुयायियों की श्रद्धा का अन्यतम बिंदु
है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
धन्यवाद!