सनातन धर्म चर्चा: योग, योगी और मृत्यु
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
देखिए बहन जी।
आज की तारीख में सभी मन्त्र सिद्ध हो
चुके है।
आपको जो अच्छा लगे। जो इष्ट हो उसका ही मन्त्र mmstm के साथ आरम्भ कर दे।
नकल से कोई फायदा नही और नही भेद चाल
से।
प्रत्येक मनुष्य का भक्ति भाव इष्ट अलग
होता है।
अक्षर ब्रह्म । सर्वत्र ब्रह्म ।
सर्वस्य ब्रह्म। अतः कोई फर्क नही।
बस जुट जाएं जो अच्छा लगे। प्रभु चरणों
मे समर्पित होना आवश्यक है।
एक अवस्था के बाद मन्त्र भी छूट जाते
है। ये मन्त्र मात्र माध्यम है अंदर की यात्रा आरम्भ करने के।
इसका मतलब यह नही मन्त्र का महत्व नही।
मन्त्र जप एक बैंक बैलेंस है जो अचानक आपकी किसी भी प्रकार सहायता करता है।
यह सब कीलक इत्यादि इसी लिए किए थे
ताकि कोई गलत फायदा न उठाएं। यह सब नाटक तब तक है जब अनुष्ठान करे इच्छापूर्ति
हेतु।
भक्ति हेतु हर समय हर जगह पवित्र है।
निष्कीलित है।
अतः आप निसंकोच अपने इष्ट मन्त्र के
साथ जुट जाएं।
परमाक्षर ब्रह्म ॐ को बोलते है। क्योकि यह
सर्वत्र गुंजायमान है।
अक्षर ब्रह्म यानि अक्षर ही ब्रह्म है।
इसको हम अक्षर के द्वारा भी जान सकते है।
मन्त्र जप इत्यादि अक्षर ही है।
नाम जप और नाद योग कान से पर अक्षर ब्रह्म।
यह अंतर्मुखी होने का यंत्र।
ब्रह्म तो आप जानते ही है।
अब पहले प्रश्न का उत्तर।
जब ब्रह्म ने सर्वप्रथम मॉनव का रूप धरा।
मतलब ब्रह्म विभाजित होकर नर् और नारायण बना। तब दोनो बेहद करीब थे।
नर यानी जो सृष्टि उतपन्न करे। नारायण
पालन करे।
पर सृष्टि हेतु पृकृति चाहिए।
आप मीमांसा दर्शन पढ़े या शब्द नही लिख
पा रहे है अतः त्रुटियां न देखे।
वैश्वनिक दर्शन पुरुष एक आतमा नारायण।
नर उसका साकार रूप बाकी 24 प्रकृति।
इनको लेकर मॉनव निर्माण और सृष्टि
आरम्भ।
जब पहले पुरुष और पृकृति में सम्पर्क
हुआ तो सृष्टि निर्मम चालू। आपने सेब वाली कथा पढ़ी होगी।
धीरे धीरे आदमी उस सृष्टि
के निर्माण को भूलकर रज गुण में आनन्द लेने लगा। अपना नारायण रूप भूलने
लगा। उसकी आत्मा और ब्रह्म स्वरूप पर आवरण चढ़ने लगा।
इस प्रकार वह नारायण से दूर होने लगा।
अब उसको पुनः नारायण रूप हेतु आत्मा या
ब्रह्म में जाने हेतु शुद्ध होने हेतु जन्म लेने को बाध्य होना पड़ा।
क्वालिटी गिरती गई।
जन्म दर जन्म लेने पड़ गए।
कर्मफल भोगने हेतु सुख दुख सहने पड़े।
किंतु संस्कार विहीन होने में जो क्रिया रुपया कर्म हुए वह निष्काम न हुए अतः
गिरते गए।
ब्रह्म हमसे दूर होता गया।
हम उसके चक्र में फंसते गए।
अब अवस्था यह आ गई कि हम इतने प्रदूषित
हो गए कि हमारी एक पुकार काम नही करती।
हम स्वार्थी भी हो गए सिर्फ इच्छा
पूर्ति और मतलब से ही उसे याद करने लगे।
इसीलिए हमारी सहायता नही हो पाती।
क्योकि हम गुण हीन शक्तिहीन आज हींन तप
हींन हो गए।
पर जो शुद्ध हो जाता है उसकी पुकार पर
ब्रह्म आने को विवश होता है।
बिल्कुल कर्मफल भोगने हेतु जन्म होता है। पर सिर्फ
मॉनव योनि ही सुकर्म या दर्शन कर्म कर सकता है
हमारे रज गुण के प्रति बढ़ते लालच ने।
जो तम गुण भी दे गया।
जब हम स्वच्छ थे तब एक आवाज में ब्रह्म
प्रकट होता था।
भाई उत्तर और दकसिन पोल है। आप उत्तर
की ओर जाओगे तो दक्खिन से दूर।
दक्खिन की ओर जाओगे तो उत्तर से दूर।
अब मैं इस विषय पर समझाकर लेख लिकूंगा।
यह मेरा खुद का अनुभव है। जो शायद वेद पुराण से भी मेल खा जाए।
सृष्टि के निर्माण में कुल 33 प्रकार की शक्तियों
के भेद 33 कोटि यानी प्रकार के देवता।
12 आदित्य जिनमे से आये विष्णु। पैदा हुए वैष्णव।
आदित्य सूर्य का भी नाम है जो धरती की
सृष्टि का जनक है। अतः वह 12 शक्तियां आदित्य।
11 संहारक जो हुए रुद्र। 12 से एक कम क्योकि यह
भी 12 हुए तो निर्माण रुक जाएगा। एक तरह से बीज बचा रहता है।
11 रुद्र से आये शिव। पैदा हुए शैव।
फिर 8 वसु। ये शक्तियां का
संचार करती है। साथ अत्रि पुत्र दत्तात्रेय। ब्रह्मा विष्णु
महेश। जन्म पालन और विनाश की शक्तियां। जो बने शाक्त यानी शक्ति उपासक।
फिर इन सबको माननेवाले जो वेद पुराण
सबको माने।
पुराण यानी स्मृति। जिससे बने स्मार्त।
ये चारों साकार रूप है।
पर वेद का निराकार रूप लेकर बने वैदिक।
यानी कुल 5 सम्प्रदाय सनातन
हिन्दुओ के।
ये व्याख्या आपको कही नही मिलेगी।
क्योकि यह स्वयं प्रकट हुई।
इसी लिए इन 33 कोटि यानि प्रकार के
देवताओं को आत्म तत्व के अनुसार परमात्मा यानी परम आत्मा भी कहते है।
अंत मे बचे दो अश्वनी कुमार जो
स्वास्थ्य को देखते है।
कुल 33 कोटि करोड़ नही
प्रकार के देवता।
आशा है अब मूरख 33 करोड़ कह कर मजाक नही
बनायेगे।
सत्व गुणों की
प्रधानता वाला ऊपर की योनियों यानी देव और सिद्ध योनियों में जन्मता है।
रजोवाला मनुष्य
तमोवाला नीचे की योनियों।
16 कला पूर्ण
ब्रह्म श्री कृष्ण
14 रामावतार
10 से 12 सिद्ध
8 से 10 देव
6 से 8 मॉनव
6 से 4 पशु
4 से 2 पक्षी
2 से 0 तक कीट और बृक्ष इत्यादि।
देखिए किसी का
उपहास उचित नही। लालचंद भी शक्तिपात दीक्षित है। आसाराम बापू जी से।
आध्यात्म की लाइन में जिसको कुछ विशेष अनुभव होते है उनको समाज
कल्याण की भावना। उपदेश देने की भावना। कुछ को तो गुरु बनकर पूजा करवाने की भावना स्वतः उतपन्न हो जाती है।
जिसने अपने को
नियंत्रित किया वो आगे बढ़ा अन्य अनुभवों और ज्ञान हेतु। जिसने लालच कर लिया उंसक पतन आरम्भ हो जाता है। पर उसको मालूम नही पड़ता।
आसाराम बापू के प्रारब्ध और उनका ज्ञान योग में जाकर स्थिर होना। भारी पड़
गया।
पर मुझे आसाराम बापू के ही प्रवचन सर्वश्रेष्ठ लगते थे।
बाकी के प्रवचन से स्पष्ट लग जाता है कि उनको कितना अल्प अनुभव है।
मैंने कई बार लिखा है। ब्रह्म ज्ञानी होना सरल है। पर ज्ञानी ज्ञान योग में
जाकर फिसल सकता है।
अतः ब्रह्म ज्ञान को सिद्ध कर ब्रह्म स्वरूप
होना चाहिए। ब्रह्म स्वरूप नही फिसलते। जैसे स्वामी शिवओम तीर्थ या
स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज।
रावण ब्रह्म ज्ञानी था। राम ब्रह्म स्वरूप थे।
आसाराम जी से कुछ गलतियां हो गई।
1 उनके गुरु की पूर्ण इच्छा नही थी कि
आसाराम गुरू बने।
2 आसाराम के प्रवचनों से स्पष्ट था कि वे
ज्ञान योग में स्थित हो गए।
जब सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्य ब्रह्म तो सब जगत
छाया और भरम। अतः क्या गलत क्या सही। बस यहीं से अहंकार का प्रवेश और गलत
कार्यो में लिप्पता।
प्रभु जी। मैं खुद रामदेव का प्रशंसक हूँ और समर्थक हूँ। जहाँ तक भारत की
विरासत और भारतीयता की बात है।
पर योग पर रामदेव जी की पकड़ नही है। एक बार एक पेट पिचकानेवाले को कहने लगे
अरे तू तो महायोगी हो गया। जो गलत है।
देखिए
इसी कारण राम ने सीता को निकाला। क्योकि
जो नायक होते है श्रेष्ठ पुरुष आचरण करते है। लोग उन्ही का अनुसरण करते
है। अतः इस वाक्य सभी लोग पेट को पिचकाने को योग मानने लगे।
रामदेव के भाषण में कही यह नही कहा भाई यह योगासन है। योग तो अलग होते है
वो तो दूर की बात है।
मैं यह भी कहता हूँ कि यदि आज पातञ्जलि जिंदा
होते तो आत्महत्या ही कर लेते।
क्वचिच चिंचो मूरख:।
मूर्खो को ज्ञान क्या।
अधिकतर मात्र बौद्धिक विलासिता और अपनी
विद्ध्वता या हम कुछ है ये ही सब प्रदर्शित करने में लगे है।
लगभग सभी पूछे गए और पूछे जाने वाले
प्रश्नों के उत्तर लेखों में दे चुका हूँ या ब्लाग पर दिए है।
पर पढ़ना नही। चिंतन करना नही। सिर्फ
नेट पर काबिलियत झाड़ना है।
मैंने इसी लिए मात्र हिंदी में
अष्टावक्र की गीता का भी संकलन दिया है। पहले पढो फिर पूछो।
पर आज फिर योग जैसे सामान्य विषय पर
व्यर्थ की चर्चा।
मेरे पास कोई नही वरना मैं मात्र 5 मिनट के क्लिप में
योग को गणितीय आकार में व्यख्यायित कर दूं।
मित्रो प्रभु चिंतन करो। ऐसा क्यो कहा।
इससे फायदा होगा।
व्यर्थ की बकवास सिर्फ समय व्यर्थ
करेगी।
अब आपके साथ गुरू शक्ति है। चिंता न
करे।
यह शिव कुमार को खुजली की क्रिया है कि
दूसरो की टांग खींचे।
बाद में सुधर जाएगा। ज्ञान का बोझ
सम्भल नही रहा है।
यह गोरख योग क्या होता है। बताने का
कष्ट करें।
वेदान्त के अनुसार आत्मा में परमात्मा
की एकात्मकता का अनुभव ही योग है। इसके अलावा कौन सा योग है। प्रकाश डाले।
यह मॉनव जीवन प्रभु का सबसे बड़ा आशीष।
साथ मे सरकारी नौकरी इस जगत का आशीष।
अब कौन तुम्हे कुछ दे पाएगा। तुम तो
खुद मालामाल हो।
मित्र अन्यथा न ले। इन्ही सब लेखों को देखकर मैं
निष्कर्ष निकाला लेता हूँ। आपने जो भी योग के विषय मे लिखा वह कदापि सत्य
नही है। योग अन्त्राभूति है जब यह घटित होता है तब शारीरिक परिवर्तनों
को भी अनुब्यव किया जा सकता है। यह अचानक बिना प्लानिंग के घटित होता है।
आप आदनो को सिद्ध करने को योग कह रहे
है।
फिर यम नियम प्रत्याहार के पालन को भी
योग कह रहे है।
यह सिद्ध करता है आपको योग की अनुभूति
नही हुई है।
अन्यथा न ले। आप इस विषय पर मात्र
किताबे ढूढ़ रहे है।
जो जानकार नही वे भले ही सत्य माने। पर
आपका व्याख्यान पूर्णतया असत्य है।
जी यदि आप देखे तो जैन में और कुछ हद
तक बौद्ध में भी ब्रह्म सूत्रों का वर्णन है। पर भाषा
अलग है वो पाली और प्राकृत में है।
दूसरी बात आप ब्रह्म सूत्र
को कोई बहुत महान न समझे। यह मात्र ऋषियों ने विभिन्न वाणियो को
एकत्र कर तर्क वितर्क किया है। किसी ने सत्य को प्रतिपादित किया तो
किसी ने जुड़ने को।
सबका सार यही है सर्वत्र ब्रह्म
सर्वस्य ब्रह्म। एक बार यह अनुभूति हो जाये तो सब एक तरफ।
मैं यह दावा इसी लिए कर
रहा हूँ कि मैं बादरायण के ब्रह्म सूत्र के भावार्थ लिख रहा हूँ। कुछ तो
किसी अन्य ऋषि की वाणी से अलग व्याख्या भी करते है।
बौद्ध का अष्टमंन और अष्टांग योग की
समानताओं पर मेरा लेख ब्लाग पर पड़ा है। दोनो के भावार्थ एक है।
बुद्ध की सम्यक कार्यप्रणाली दृष्टा
भाव नही तो क्या है।
ओह अमित। मैंने ध्यान नही दिया। तो इस
बार 13 अप्रैल को तुम्हारी दीक्षा करवा देता हूँ।
ध्यान करते रहो। ये सब इसी लिए होता है
कि तुम ध्यान न करो।
बजरंग बाण पढ़ लिया करो सोने के पहले।
बिन गुरू ज्ञान कहाँ से लाऊँ।
तुम बिन बिगड़े अपने काज।।
देखो दीक्षा तुम्हारी शर्तो पर नही
होगी। यह भाजी नही की हर कोई या ले।
चूंकि मैं हूँ तो लोग शक्तिपात का नाम
सुन पा रहे है। नही तो कोई नही जानता था।
इस दीक्षा के बाद कुछ शेष नही रहता। जो
शेष रहता है वो अशेष।
शिव कुमार ज्ञानी होने का अर्थ नही कि
एक मात्र तुम्ही मालिक हो जगत के। किसी का मान अपमान की
वाणी बोलते क्यो हो जो बाद में माफी मांगनी पड़ी।
तोल मोल के बोल।
मुँह एक है कान दो है। आंख दो है। दूना
देखो और सुनो।
बोलो आधा।
तुम्हारी बकवास से या अल्पज्ञता से हर
ग्रुप की विभूतियां नाराज होती है।
तुम हो क्या। तुम्हारी हैसियत क्या जो
अहंकार और बकवास करते रहते हो।
जरा सा प्रभु कृपा मिली पगला गए।
लोकेशानन्द जी मानस को आज के संदर्भ
में बेहद सुंदर तरीके से नई नई व्याख्या करते है। मूरख तुम हो दूसरे को बोलते हो।
लोहे के तबे पर पानी की एक बूंद है हम।
याद रखो। यह शरीर रूप कुछ न रहेगा।
मैं लोकेशानन्द जी के अपमान से दुखी
हूं।
इसे शब्द योग विधि कहते है। जो संगीत
शब्द और मन्त्र शब्द अथवा प्रकृति के द्वारा हो सकता है।
अक्षर ब्रह्म। यह अंतर्मुखी होने की
कर्ण विधियों में आता है।
मैं उनको दंडवत नमन ही करता हूँ।
सन्यासी होने के कारण पूज्यनीय है। पर वे मुझे बड़ा भाई मानती है।
यहाँ पर ज्ञान मान अभिमान की बात नही
है। एक दूसरे के प्रति आदर की बात है।
निश्चित वे गुरू पद है तो पूज्यनीय है
। मैं उनको अपने से अधिक ही मानता हूँ।
निश्चित उनका मान अधिक है। क्योकि उनको
गुरू महाराज ने मान दिया और नमन किया।
ध्यान दे सन्यास दीक्षा में पहला
प्रणाम गुरू ही अपने शिष्य को करता है।
इसके अतिरिक्त भी तमाम बातें है जो आप
लोग नही जानते और न मैं बता सकता हूँ। भाई आखिर 1993 से परम्परा में जुड़ा
हूँ। कुछ तो आपसे अधिक है ही। भले ज्ञान न हो पर सानिध्य
तो अधिक है ही।
आगे क्या बोलू पर इतना तो बताना जरूरी
है शिवओम तीर्थ जी महाराज अपने पास बैठा कर स्वयं अपने
लिखित भजन सुनाते थे। यह सौभाग्य आपमें से किसका है।
पढ़ना और पढ़ाना मात्र समय की बर्बादी है।
Shivkumar
bhardwaj ji: अब आप हमारे भाग्य को नीचा दिखाने के आयोजन करने लगे प्रभु
सड़क पर कूड़ा उठानेवाला ट्रक केवल कूड़ा ही
देखता है। क्या तुम्हारी दृष्टि उसी की है।
यह समय समय की बात है। यही नही वर्ष 1994 में देवास में सभी सन्यासी इकट्ठा हुए
तो मुझे कई चमत्कारी सन्यासियो से भी भेंट का विशेष अवसर मिला।
बड़े महाराज शिवओम तीर्थ जी महाराज द्वारा
मुझे प्रददत्त तौलिया अभी तक मेरे पास सुरक्षित है।
मित्रो भटके नही। योग को समझे।
योग क्या है।
वेदांत : आत्मा में परमात्मा की
एकात्मकता का अनुभव।
कैसे पहिचाने की योग हुआ।
वेद महावाक्यों की अनुभूति। कम कम से
कम एक की।
1 अहम ब्रह्ममास्मि।
इसमें द्वैत भक्ति करते करते
दर्शनाभूति इत्यादि होते होते दासत्व भाव होते होते अचानक अद्वैत की अनुभूति।
यह महसूस होना अरे मैं ही ब्रह्म हूँ।
वेद उपनिषद इसे सत्य बताते है। पर मैं
इसे क्रिया मानता हूँ क्यो।
क्योकि ब्रह्म वो जिसके अधीन माया।
मॉनव वो जो माया के अधीन।
यह अनुभूति कुछ ही मिनटों की होती है
वह भी अचानक।
इसमें फंसकर कुछ अपने को ब्रह्म समझकर
अहंकार में फंस कर पतित हो जाते है।
अतः कोशिश कर जबरिया ज्ञान लेकर द्वैत
मे दासत्व में आओ। ताकि अहंकार का शिकार न हो।
तत्वमसि। मतलब ब्रह्म ही सबका तत्व
यानि आधार है। ये ज्ञान से आता है। अनुभव नही मन से अनभूति होती है।
3 अयम आत्मा ब्रह्म। यांनी मेरी आत्मा ही ब्रह्म है। यह अचानक ध्यान से उठने
के बाद बैठे अंदर से कोई बोलता है। अरे पगले मैं तेरी आत्मा में हूँ। वही
रहता हूँ। तू राम कृष्ण काली सबको अपने से अलग क्यो देखता है। मैं सदैव
तेरे साथ हूँ।
जैसे मुझे तो लगता है तमाम अन्य को भी लगा कि
जैसे कोई मेरे साथ है। उन्होंने मुझसे पूछा। तो मैं क्या बोलू हा किया।
4 प्रज्ञानमअसि। यह जो प्रज्ञा है वो जो सोंच पाती है वो ब्रह्म ही है।
5 सर्व खलुमिदम ब्रह्म। यानि सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्य ब्रह्म।
ब्रह्म से ही भगवान देवी देवता इत्यादि
पैदा होते है। वो ब्रह्म सर्वशक्तिमान निराकार निर्गुण रूप में सर्वत्र व्याप्त
है।
यह अनुभव सबसे उच्च कोटि का कह सकते
है।
मुझे मात्र दो ही अनुभव हुए है। तीसरा
पूर्ण नही।
अब यह हुआ तो योग हुआ।
अब आदमी की पहिचान
चित्त में वृत्ति का निरोध। यह आंतरिक
है बाहरवाले नही देख पाते।
बाहरवाले क्या देखे।
समत्व का भाव।
स्थिर बुद्धि
स्थितप्रज्ञ
यही योग को आठ भागो में बांटकर अष्टांग
योग बना।
यम समाज मे क्या करे। 5 भाग
नियम अपने साथ क्या करे। 5 भाग
प्रत्याहार
त्याग की परिवृती
आसन
प्रणायाम
यह सब वाहीक कर्म
फिर आंतरिक
धारणा
समाधि
तब जाकर योग घटित हो सकता है।
किंतु
भक्ति में यह बन्धन नही
बस ईश प्राणिधान और समर्पण।
ज्ञान योग यानि वेद महावाक्य का अनुभव।
भक्तियोग यानि
दर्शनाभूति
फिर वेद महावाक्यों की अनुभूति
कर्म योग
यह सब घटने के बाद निष्काम कर्म स्वतः
होने लगता है।
आसक्ति घटती है। तब कर्म योग।
निष्काम बहुत बाद में होता है यह पैतृक
संपत्ति नही।
भक्ति में सिर्फ मन्त्र जप करो सब आ
जायेगा। मिल जाएगा।
अपने आप होने लगता है।
कारण यह अनुभूतियां बहुत अल्प समय की
हो सकती है। बाद में आदमी फिर संसार मे लीन हो सकता है भटक सकता है।
जब इसकी पुनरावृत्ति होती है तो धीरे
धीरे निष्काम भाव भी आ जाता है।
सही है। भक्ति सब स्वतः देती है।
कितना मन्त्र जप किया।
पर्व से पूछो। जिसने सिर्फ मन्त्र जप
किया।
मैं बोला न । अक्षर ब्रह्म। शब्द
ब्रह्म।
यह सब कर सकता है।
मुझे न कुछ समझना न जानना। बस यह जानता
हूँ। मन्त्र सर्व शक्तिमान।
एकमात्र तुम्ही ज्ञानी आये हो धरती पर।
यार यह वहम निकाल दो।
प्रत्येक मनुष्य के अनुभव कुछ अलग हो
सकते है।
पहली बात यह है कि आत्मा शरीर के किस
अंग से निकलेगी।
उसके अनुसार अनुभव हो सकते है।
स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने लिखा है। मृत्यु के
समय एक करोड़ सुइयों की चुभन जैसी वेदना होती है।
वैसे जानकारों ने बताया है।
पहले शरीर के पैर से होते हुए धीरे धीरे ऊपर के संग निष्क्रिय होते है। यह
क्रम ऊपर तक आता है। मस्तिष्क सब महसूस करता है पर बोल नही पाता व्यक्त नही
कर पाता।
मनुष्य को कोई आकृति जो यम दूत हो सकता है
या कोई अन्य दिखता है।
मनुष्य को उसके जीवन भर के पाप उसके सामने
फ़िल्म की तरह दिखाए जाते है। तब मनुष्य मात्र रुओ पाता है अध्रु गिरते है।
फिर अचानक तीव्र वेदना के साथ मनुष्य का
सूक्ष्म शरीर आत्मा निकलती है जो वेदना से मुक्त होती है।
कभी कभी मनुष्य को प्रकाश की
सुरंग इत्यादि दिखती है जिसमे से आदमी गुजरता जाता है। मेरे मित्र
जिनको इस ग्रुप में कई सदस्य जानते है उनको मृत्यु का अनुभव है। वो ऊपर जाकर
वापिस आये थे।
पल्लव शर्मा की हालत फेफड़ों के संक्रमण के
कारण काम करने से मना कर रहे थे। उनको बॉम्बे
या जसलोक हस्पताल भर्ती कराया गया जहाँ कोई दवा रिस्पांड नही हो रही थी।
उनके शब्दो मे मेरे सामने अचानक दो आदमी आकर खड़े
हो गए कहने लगे तुम्हारा समय पूरा हुआ अब मेरे साथ चलो। पल्लव झगड़ने लगे
बोले क्यो चलू मुझे तमाम काम करने है। फिर मैंने कौन से पाप किये है बताये।
इसी तरह तर्क करते हुए वे दोनों पल्लव को एक दरबार मे ले गए। जहाँ एक
सिंहासन था जिसपर सफेद वस्त्र पहने लंबी दाढी वाले वृद्ध बैठे थे और तमाम लोग भी
बैठे थे। पल्लव उनसे भी उलझ गए और तर्क देने लगे। वह बुजुर्ग सुनते रहे
फिर बोले ठीक है इसे वापिस ले जाओ। तब पल्लव ने उनको धन्यवाद बोलकर नमन किया।
उन्होंने हाथ उठाया। पल्लव को अचानक दोनो ने धक्का दिया।
पल्लव की आंख खुली तो उसको 5 दिन बाद होश आया।
पल्लव की आंख खुली तो उसको 5 दिन बाद होश आया।
पल्लव के अनुसार मात्र कुछ पलों की घटना पर
5
दिन
बीत चुके थे।
फिर दवा ने रिस्पांड किया। आज पल्लव 56 साल की उम्र में 21 किमी का मैराथन जीतते
है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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