विभूतिपाद (पातञ्जलयोगप्रदीप – योगदर्शन)
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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भारतीय भाषाओं और 2 विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। यह ग्रन्थ 19वीं-20वीं-21वीं शताब्दी में अधिक प्रचलन में आया है। पतंजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन व्याख्यान वेदव्यास जी का है।
आपको बता दे कि दर्शनकार पतंजलि ने सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का जगत् और आत्मा के संबंध में प्रतिपादन और समर्थन किया है। पतंजलि का योगदर्शन चार भागों में विभक्त है जैसे- साधन, समाधि, विभूति और कैवल्य। आइये विस्तार से जानते है।
योगसूत्र
योगसूत्र को चार भागों में में बांटा गया है। इन सभी भागों के सूत्रों का कुल योग 195 है।
1. समाधिपाद 2. साधनापाद 3. विभूतिपाद
4. कैवल्यपाद
समाधिपाद : यह योगसूत्र का प्रथम अध्याय है जिसमे 51 सूत्रों का समावेश है। इसमें योग की परिभाषा को कुछ इस प्रकार बताया गया है जैसे- योग के द्वारा ही चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है।
मन में जिन भावों और विचारों की उत्पत्ति होती है उसे विचार सकती कहा जाता है और अभ्यास करके इनको रोकना ही योग होता है।
समाधिपाद में चित्त, समाधि के भेद और रूप तथा वृत्तियों का विवरण मिलता है।
साधनापाद: साधनापाद योगसूत्र का दूसरा अध्याय है जिसमे 55 सूत्रों का समावेश है। इसमें योग के व्यावहारिक रूप का वर्णन मिलता है।
इस अध्याय में योग के आठ अंगों को बताया गया है साथ ही साधना विधि का अनुशासन भी इसमें निहित है।
साधनापाद में पाँच क्लेशों को सम्पूर्ण दुखों का कारण बताया गया है और दु:ख का नाश करने के लिए भी कई उपाय बताये गए है।
विभूतिपाद; योग सूत्र का तीसरा अध्याय है विभूतिपाद, इसमें भी 55 सूत्रों का समावेश है।
जिसमे ध्यान, समाधि के संयम, धारणा और सिद्धियों का वर्णन किया गया है और बताया गया है कि एक साधक को इनका प्रलोभन नहीं करना चाहिए।
कैवल्यपाद: योगसूत्र का चतुर्थ अध्याय कैवल्यपाद है। जिसमे समाधि के प्रकार और उसका वर्णन किया गया है। इसमें 35 सूत्रों का समावेश है।
इस अध्याय में कैवल्य की प्राप्ति के लिए योग्य चित्त स्वरूप का विवरण किया गया है।
कैवल्यपाद में कैवल्य अवस्था के बारे में बताया गया है कि यह अवस्था कैसी होती है। यह योगसूत्र का अंतिम अध्याय है।
चित्त का वृत्ति मात्र से किसी स्थान विशेष में बाँधना ‘धारणा’ कहलाता है ||१||
उसमें वृत्ति का एक-सा बना रहना ‘ध्यान’ है ||२||
वह ध्यान ही ‘समाधि’ कहलाता है,
जब उसमें ध्येय अर्थमात्र से भासता है और उसका (ध्यानका) स्वरुप शुन्य जैसा हो जाता है ||३||
तीनों (धारणा, ध्यान और समाधि) का एक विषय में होना ‘संयम’ कहलाता है ||4||
उस ( संयम) के जय से समाधि प्रज्ञा का प्रकाश होता है ||५||
उस संयम का (चित्त) भूमियों में विनियोग करना चाहिए ||६||
पहलों (यम,
नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ) की अपेक्षा से तीनों (धारणा, ध्यान और समाधि ) अन्तरंग हैं ||७||
वह ( धारणा, ध्यान, समाधि ) भी असम्प्रज्ञात समाधि का बाहर का अंग है ||८||
व्युत्थान ( क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त ) के संस्कार का दबना और निरोध ( असम्प्रज्ञात समाधि ) के संस्कार का प्रकट होना , यह जो निरोधकाल में होनेवाले चित्त का दोनों संस्कारों में अनुगत होना है,
यह निरोध परिणाम कहा जाता है ||९||
निरोध-संस्कार से चित्त की शांत – प्रवाहवाली गति होती है ||१०||
चित्त के सर्वार्थता और एकाग्रता रूप धर्मों का ( क्रम से) नाश होना और प्रकट होना चित्त का समाधि – अवस्था में परिणाम है ||११||
तब फिर सामान वृत्तियों का शांत और उदय होना चित्त का एकाग्रता – परिणाम है ||१२||
चित्त के परिणाम से ही भूतों और इन्द्रियों में धर्म, लक्षण और अवस्था – परिणाम व्याख्या किये गए जानने चाहिए ||१३||
( उन परिणामों के) अतीत , वर्तमान और भविष्यत् धर्मों में अनुगत धर्मी ||१४||
क्रमों का भेद परिणाम के भेद में हेतु है ||१५||
तीनों परिणामों में संयम करने से भूत और भविष्यत् का ज्ञान होता है ||१७||
शब्द, अर्थ और ज्ञान के परस्पर के अध्यास से अभेद भासना होता है | उनके विभाग में संयम करने से सब प्राणियों
के शब्द का ज्ञान होता है ||१७||
संस्कार के साक्षात करने से पूर्व जन्म का ज्ञान होता है ||१८||
दूसरे के चित्त की वृत्ति के साक्षात करने से दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है ||१९||
पर वह ( दूसरे का चित्त ) अपने विषय सहित साक्षात नहीं होता ; क्योंकि वह ( विषयसहित चित्त) उसका ( संयम का ) विषय नहीं है ||२१||
कर्म
सोपक्रम
और
निरोपक्रम
दो
प्रकार
के
होते
हैं
| उनमें संयम
करने
से
मृत्यु
का ज्ञान होता
हैं
अथवा
अरिष्टों
से
मृत्यु
का
ज्ञान
होता
हैं
||२२||
मैत्री
आदि
में
संयम
करने
से
मैत्री आदि
बल
प्राप्त
होता
है
||२३||
हाथी
आदि
के
बलों
में
संयम
करने
से
हाथी
आदि
के
बल
प्राप्त
होते
हैं
||२४||
प्रवृत्ति
में
प्रकाश
डालने
से
सूक्ष्म, व्यवहित
और
विप्रकृष्ट
वस्तु
का
ज्ञान
होता
है
||२५||
सूर्य में संयम करने से भुवन का ज्ञान होता है ||२६||
चन्द्रमा में संयम करने से ताराओं के व्यूह का ज्ञान होता है ||२७||
ध्रुव में संयम करने से ताराओं की गति का ज्ञान होता है ||२८||
नाभि – चक्र में संयम करने से शरीर के व्यूह का ज्ञान होता है ||२९||
कंठ
– कूप
में
अन्यम
करने
से
क्षुधा
और पिपासा की निवृत्ति होती
है
||३०||
कूर्म-
नाड़ी
में
संयम
करने
से
स्थिरता
होती
है
||३१||
मूर्धा
की
ज्योति
में
संयम
करने
से
सिद्धों
का दर्शन होता
है
||३२||
अथवा
प्रातिभ-ज्ञान
से
योगी
सब
कुछ जान लेता है ||३३||
ह्रदय
में
संयम
करने
से
चित्त
का ज्ञान होता
है
||३४||
चित्त
और
पुरुष
जो
परस्पर
अत्यंत
भिन्न
हैं, इन दोनों
की
प्रतीतियों
का
अभेद
भोग
है
| उनमें से परार्थ
– प्रतीति
से
भिन्न
जो
स्वार्थ
– प्रतीति
है
उसमें
संयम
करने
से
पुरुष
का ज्ञान होता
है
||३५||
उस स्वार्थ-
संयम
के
अभ्यास
से
प्रातिभ, श्रावण
, वेदना, आदर्श, आस्वाद
और
वार्ता
– ज्ञान
उत्पन्न
होता
है
||३६||
वे उपर्युक्त
छः
सिद्धियाँ
समाधि
( पुरुष-
दर्शन)
में
विघ्न
हैं
, व्युत्थान में
सिद्धियां
है
||३७||
बंध के कारण के शिथिल करने से और घूमने के मार्ग के जानने से चित्त ( सूक्ष्म – शरीर ) का दूसरे में आवेश होता है ||३८||
(संयम द्वारा) उड़ान के जीतने से जल,
कीचड़, काँटों आदि में असंग रहना और उर्ध्व गति होती है ||३९||
(संयम द्वारा) समान के जीतने से योगी का दीप्तीमान होना होता है ||४०||
श्रोत्र और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से दिव्य श्रोत्र होता है ||४१||
शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से और हलके रुई आदि में समापत्ति करने से आकाश- गमन सिद्धि प्राप्त होती है ||४२||
शरीर के बाहर कल्पना न की हुई वृत्ति महाविदेहा है , उससे प्रकाश के आवरण का नाश होता है ||४३||
पांचों भूतों के स्थूल , स्वरुप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्त्व में संयम करने से भूतों का जय होता है ||४४||
उस भूतजय से अणिमा आदि आठ सिद्धियों का प्रादुर्भाव और कायसम्पत होती है और उन पाँचों भूतों के धर्मों से रुकावट नहीं होती ||४५||
रूप , लावण्य, बल, वज्र की – सी बनावट | कायसम्पत ( शरीर की सम्पदा) कहलाती है ||४६||
ग्रहण, स्वरुप, अस्मिता, अन्वय और अर्थतत्त्व में संयम करने से इन्द्रियजय होता है ||४७||
इन्द्रियजय से मनोजवित्व , विकिरणभाव और प्रधान का जय होता है ||४८||
चित्त और पुरुष के भेद जानने से सारे भावोंका मालिक होना और सर्वज्ञ होना प्राप्त होता है ||४९||
विवेक – ख्याति से भी वैराग्य होने पर दोषों के बीज -क्षय होने पर कैवल्य होता है ||५०||
स्थान वालों के आदर – भाव करने पर लगाव एवं घमंड नहीं करना चाहिए ; क्योंकि ( इसमें ) फिर अनिष्ट के प्रसंग का भय है ||५१||
क्षण और इसके क्रमों में संयम करने से विवेकज – ज्ञान उत्पन्न होता है ||५२||
एक – दूसरे से जाती , लक्षण, देश से भेद का निश्चय न होने से दो तुल्य वस्तुओं का विवेकज-ज्ञान से निश्चय होता है ||५३||
बिना निमित्त के अपनी प्रभा से स्वयं उत्पन्न होने वाला, सबको विषय करने वाला, सब प्रकार से विषय करने वाला , बिना क्रम के एक साथ ज्ञान को विवेकज – ज्ञान कहते हैं ||५४||
चित्त और पुरुष के समान शुद्धि होने पर कैवल्य होता है ||५५||
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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