जाति प्रथा वेदों या मनु से नहीं
उपजी
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
आज की राजनीति में यन एक फैशन है कि यदि वोट चाहिये तो वेदों को गाली दे दो। मनु को कोस दो। बस मूर्खों की लम्बी कतार खडी है जो बिना पढे बिना जाने तुमको दलित मसीहा का खिताब दे देगी। राम का, कृष्ण का अपमान करो तो इसाई और मुस्लिम के वोट ले लो।
मेरी दृष्टि में जो कहते हैं वे तो दुष्टता के साथ पाप कर ही रहे हैं बल्कि जो बिना जाने मान लेते हैं वे उनसे अधिक दोषी। कहीं से वेदों पुरानो पर उंगली उठा देता है की दलित सवर्ण या जात पात वेदों की देन है मनुस्मृति की देन है| कुछ लोगों का मत है की इसकी शुरुआत मुग़लों के आने से हुई थी| लेकिन अध्ययन और खोज से यही पता चला है की- जात पात की शुरुआत द्वापर युग के मध्य से शुरु हुई थी| और वो भी वेदों के करण नहीं, आपसी रंजिश और एक दूसरे को नीचा दिखाने में।
वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे अब्राह्मण ब्राह्मण और उनके द्वारा रचित ब्राह्मणवादी ग्रंथ और कथायें हैं। ताकि उनकी दुकान चलती रहे। हिन्दू/सनातन/वैदिक धर्म का मुखौटा बने जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आन्दोलन इस देश में चलाया जा रहा है।
परंतु, इस से बड़ा असत्य और कोई नहीं है | इस में हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए,
वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि:
१.चारों
वर्णों
का
और
विशेषतया
शूद्र
का
वह
अर्थ
है
ही
नहीं, जो मैकाले
के
मानसपुत्र
दुष्प्रचारित
करते
रहते
हैं
।
2. मनुष्य जन्म से एक शूद्र ही होता है। परन्तु ब्रह्म के वरण से वह ब्राह्मण, शक्तिशाली होने के कारण क्षत्रिय, व्यापार निपुण होने के कारण वैश्य और ज्ञान हीन होना और सेवा में रुचि रखने के कारन शूद्र ही रह जाता है।
3.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती।
4.वेद
ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो
सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही
सभी के
लिए समान अवसरों की
बात कहता हो | जिसके बारे में
आज के मानवतावादी तो सोच
भी नहीं सकते।
चलिये चाय पर चर्चा की जाये। सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं:
यजुर्वेद १८ | ४८
हे भगवन! हमारे ब्राह्मणों में, क्षत्रियों में, वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये। मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं।
यजुर्वेद २० | १७
जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों, जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों, जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों, कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुडाइए।
यजुर्वेद २६ | २
हे मनुष्यों ! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं, इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र,वैश्य, स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो | विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें।
अथर्ववेद १९ | ३२ | ८
हे ईश्वर ! मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए। मैं सभी से प्रसंशित होऊं।
अथर्ववेद १९ | ६२ | १
सभी श्रेष्ट मनुष्य मुझे पसंद करें। मुझे विद्वान, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ।
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
अत: यह आवश्यक है कि हम समाज में
फैली वेदों और मनु के बारे में फैली भांतियों का निवारण कर वेदों की सत्यता निर्धारित
करें।
इन वैदिक
प्रार्थनाओं
से
विदित
होता
है
कि
:
-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं |
-सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है |
-और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं |
-वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है |
-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है,अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और ना ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है |
इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है।
यह कहना
कि
वेदों
में
शूद्र
का
अर्थ
कोई
ऐसी
जाति
या
समुदाय
है
जिससे
भेदभाव
बरता
जाए
– पूर्णतया
निराधार
है।
मनुस्मृति जो सृष्टि में नीति और धर्म ( कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तकों में है | पूरा का पूरा दलित आन्दोलन ‘ मनुवाद ‘ के विरोध पर ही खड़ा हुआ है | मनु जाति प्रथा के समर्थकों के नायक हैं तो दलित नेताओं ने उन्हें खलनायक के सांचे में ढाल रखा है | पिछड़े तबकों के प्रति प्यार का दिखावा कर स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए ही बहुत से लोगों द्वारा मनुस्मृति जलाई जाती रही है | अपनी विकृत भावनाओं को पूरा करने के लिए नीची जातियों पर अत्याचार करने वाले, एक सींग वाले विद्वान राक्षस के रूप में भी मनु को चित्रित किया गया है | हिन्दुत्व और वेदों को गालियां देने वाले कथित सुधारवादियों के लिए तो मनुस्मृति एक पसंदीदा साधन बन गया है| विधर्मी वायरस पीढ़ियों से हिन्दुओं के धर्मांतरण में इससे फ़ायदा उठाते
आए हैं जो आज भी जारी है।
ध्यान
देने
वाली
बात
यह
है
कि
मनु की निंदा
करने
वाले
इन
लोगों
ने मनुस्मृति
को
कभी
गंभीरता
से
पढ़ा
भी
है
कि
नहीं।
दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर और उच्चता में अकड़े हुए लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है| ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ एक गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जातिप्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे के बिलकुल विपरीत अनेक श्लोक हैं।
मनुस्मृति
पर
लगाये
जाने
वाले
तीन
मुख्य
आक्षेप
:
१.
मनु ने
जन्म के
आधार पर
जातिप्रथा का
निर्माण किया |
२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे।
३.
मनु नारी का विरोधी था और
उनका तिरस्कार करता था
| उसने स्त्रियों के
लिए पुरुषों से कम
अधिकार का
विधान किया।
मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती। महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है।
(देखें – ऋग्वेद-१०.१०.११- १२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६)।
यह वर्ण व्यवस्था है | वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है।
मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है। यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से।
इस का मतलब
हुआ
कि
स्वयं
को
जन्म
से
ब्राह्मण
या
उच्च
जाति
का
मानने वालों
के
पास
इसका
कोई
प्रमाण
नहीं
है। ज्यादा
से
ज्यादा
वे
इतना
बता
सकते हैं
कि
कुछ
पीढ़ियों
पहले
से
उनके
पूर्वज
स्वयं
को
ऊँची
जाति
का
कहलाते
आए हैं। ऐसा
कोई
प्रमाण
नहीं
है
कि
सभ्यता
के
आरंभ
से
ही
यह
लोग
ऊँची
जाति के थे | जब वह यह साबित
नहीं
कर सकते
तो
उनको
यह
कहने
का
क्या
अधिकार है कि आज जिन्हें
जन्मना
शूद्र
माना
जाता
है, वह कुछ
पीढ़ियों
पहले ब्राह्मण
नहीं
थे
? और स्वयं
जो
अपने
को
ऊँची
जाति
का
कहते
हैं
वे
कुछ पीढ़ियों
पहले
शूद्र
नहीं
थे
?
मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए।
अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं। इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है।
मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।
मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।
२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।
२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।
४.२४५
: ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति
श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और
नीच- नीचतर व्यक्तिओं का
संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है
| इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह
शूद्र बन
जाता है। अतः स्पष्ट है
कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है।
इसका, किसी
भी तरह
जन्म से
कोई सम्बन्ध नहीं है।
२.१६८: जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
अतः मनुस्मृति
के
अनुसार
तो
आज
भारत
में
कुछ
अपवादों
को
छोड़कर
बाकी
सारे
लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ
साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता
इत्यादि
में
लिप्त
हैं
– वे सभी
शूद्र
हैं।
२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है।
२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।
मनु
की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही
कोई वर्ण नहीं मानती | मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को
बच्चों के
बाल्यकाल में
ही उनकी रूचि और
प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का
ज्ञान और
प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए
भेज देना चाहिए।
कई ब्राह्मण
माता
– पिता
अपने
बच्चों
को
ब्राह्मण
ही
बनाना
चाहते
हैं परंतु
इस
के
लिए
व्यक्ति
में
ब्रह्मणोचित
गुण, कर्म,स्वभाव
का
होना
अति आवश्यक
है। ब्राह्मण
वर्ण
में
जन्म
लेने
मात्र
से
या
ब्राह्मणत्व
का प्रशिक्षण
किसी
गुरुकुल
में
प्राप्त
कर
लेने
से
ही
कोई
ब्राह्मण
नहीं
बन जाता, जब तक कि उसकी
योग्यता, ज्ञान
और
कर्म
ब्रह्मणोचित
न
हों।
२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।
२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।
मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है। जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।
यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।
२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है। यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है| सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता।
इसलिए
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
होने
की
बात
तो
छोडो
जब
तक
मनुष्य अच्छी
तरह
शिक्षित
नहीं
होगा
तब
तक
उसे
मनुष्य
भी
नहीं
माना
जाएगा।
२.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं। पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।
२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है। वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है।
अत: अपनी
श्रेष्टता
साबित
करने
के
लिए
कुल
का
नाम
आगे
धरना
मनु
के अनुसार
अत्यंत
मूर्खतापूर्ण
कृत्य
है। अपने
कुल
का
नाम
आगे
रखने
की
बजाए व्यक्ति
यह
दिखा
दे
कि
वह
कितना
शिक्षित
है
तो
बेहतर
होगा।
१०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं। विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।
इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता। उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा। और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा। अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं।
किसी
व्यक्ति
का
जन्म
यदि
ऐसे
कुल
में
हुआ
हो, जो समाज
में
आर्थिक
या अन्य
दृष्टी
से
पनप
न
पाया
हो
तो
उस
व्यक्ति
को
केवल
कुल
के
कारण
पिछड़ना
न पड़े
और
वह
अपनी
प्रगति
से
वंचित
न
रह
जाए, इसके
लिए
भी
महर्षि
मनु
ने नियम
निर्धारित
किए
हैं।
४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और / या अधिकार से वंचित न करें। क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं। यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है।
a) ऐतरेय ऋषि
दास
अथवा
अपराधी
के
पुत्र
थे
| परन्तु
उच्च
कोटि
के ब्राह्मण
बने
और
उन्होंने
ऐतरेय
ब्राह्मण
और
ऐतरेय
उपनिषद
की
रचना
की
| ऋग्वेद
को
समझने
के
लिए
ऐतरेय
ब्राह्मण
अतिशय
आवश्यक
माना
जाता
है।
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए
|
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र
से
ब्राह्मण
बने
|
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु
का
पुत्र
प्रवृद्ध
राक्षस
हुआ
|
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी
कर्मों से
चांडाल बन
गए थे
|
(p) विश्वामित्र के पुत्रों
ने
शूद्र
वर्ण
अपनाया
| विश्वामित्र
स्वयं क्षत्रिय
थे
परन्तु
बाद
उन्होंने
ब्राह्मणत्व
को
प्राप्त
किया
|
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(r) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |
(s) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |
(t) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|
(u) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
और
दलितों
में
समान
गोत्र
मिलते हैं
| इस से पता
चलता
है
कि
यह
सब
एक
ही
पूर्वज, एक ही कुल
की
संतान
हैं
| लेकिन
कालांतर
में
वर्ण
व्यवस्था
गड़बड़ा
गई
और
यह
लोग
अनेक
जातियों
में बंट
गए
|
मनु परम मानवीय थे| वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते | जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं | उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं |
मनु
की
दृष्टी
में
ज्ञान
और
शिक्षा
के
अभाव
में
शूद्र
समाज
का
सबसे
अबोध घटक
है, जो परिस्थितिवश
भटक
सकता
है
| अत: वे समाज
को
उसके
प्रति
अधिक सहृदयता
और
सहानुभूति
रखने
को
कहते
हैं
|
३.११२:
शूद्र या
वैश्य के
अतिथि रूप
में आ
जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए |
३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें |
२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
धन्यवाद!