माता गुरूतरो भूमेः
माँ
मदालसा की कहानी
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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महाभारत में जब यक्ष
धर्मराज युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब
युधिष्ठर जवाब देते हैं,
‘माता गुरूतरा भूमेः
युधिष्ठिर
द्वारा माँ के इस
विशिष्टता को प्रतिपादित करना यूं ही नहीं है आप अगर वेद पढ़ेंगें तो वेद माँ की महिमा बताते हुए कहती है कि माँ
के आचार-विचार अपने
शिशु को सबसे अधिक
प्रभावित करतें हैं। इसलिये संतान जो कुछ भी होता है उसपर सबसे अधिक प्रभाव
उसकी माँ का होता है। माँ धरती से भी गुरुत्तर इसलिये है क्योंकि उसके
संस्कारों और शिक्षाओं में वो शक्ति है जो किसी भी स्थापित मान्यता, धारणाओं
और विचारों की प्रासंगिकता खत्म कर सकती है।
क्या
आप यह सोंच सकते हैं कि भारत जैसी श्रेष्ठ भुमि में ज्ञान प्राप्ति हेतु अपनी प्रितमा
और राज पाठ छोडकर गौतम महात्मा बुद्ध बन गये। वहीं मदालसा नामक माता ने ज्ञान के उपदेश
देकर अपने तीन पुत्रों को ज्ञानवान वैरागी
बना दिया।
मदालसा
एक पौराणिक चरित्र है जो ऋतुध्वज की पटरानी थी और विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री
थी। शत्रुजित नामक एक राजा था। उसके यज्ञों में सोमपान करके इंद्र उस पर विशेष प्रसन्न हो गये। शत्रुजित को एक तेजस्वी
पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम ऋतुध्वज था। उस राजकुमार के विभिन्न वर्णों से
संबंधित अनेक मित्र थे। सभी इकटठे खेलते थे। मित्रों के अश्वतर नागराज के दो पुत्र
भी थे जो प्रतिदिन मनोविनोद क्रीड़ा इत्यादि के निमित ऋतुध्वज के पास भूतल पर आते
थे। राजकुमार के बिना रसातल में वे रात भर अत्यंत व्याकुल रहते। एक दिन नागराज ने
उनसे पूछा कि वे दिन-भर कहाँ रहते हैं? उनके बताने पर उनकी प्रगाढ़ मित्रता से अवगत होकर
नागराज ने फिर पूछा कि उनके मित्र के लिए वे क्या कर सकते हैं। दोनों पुत्रों ने
कहा ऋतुध्वज अत्यंत संपन्न है किंतु उसका एक असाध्य कार्य अटका हुआ है।
एक
बार राजा शत्रुजित के पास गालब मुनि गये थे। उन्होंने राजा से कहा
था,
कि एक दैत्य उनकी तपस्या में विघ्न
प्रस्तुत करता है। उसको मारने के साधनस्वरूप यह कुवलय नामक घोड़ा
आकाश से नीचे उतरा और आकाशवाणी हुई,
राजा शत्रुजित का पुत्र ऋतुध्वज घोड़े
पर जाकर दैत्य को मारेगा। यह घोड़ा बिना थके आकाश,
जल, पृथ्वी, पर समान गति से चल सकता है। राजा ने हमारे मित्र
ऋतुध्वज को गालब के साथ कर दिया। ऋतुध्वज उस घोड़े पर चढ़कर राक्षस का पीछा
करने लगा। राक्षस सूअर के रुप में था। राजकुमार के वाणों से बिंधकर वह कभी
झाड़ी के पीछे छुप जाता, कभी गड्ढे में कूद जाता। ऐसे ही वह एक गड्ढे में कूदा
तो उसके पीछे-पीछे घोड़े सहित राज कुमार भी वहीं कूद गया।
वहाँ सूअर तो दिखायी नहीं दिया किंतु एक सुनसान नगर दिखायी पड़ा। एक सुंदरी
व्यस्तता में तेजी से चली आ रही थी। राजकुमार उसके पीछे चल पड़ा।
उसका
पीछा करता हुआ राजा एक अनुपम सुंदर महल में पहुँचा वहाँ सोने के पलंग पर एक
राजकुमारी बैठी थी। जिस सुंदरी को उसने पहले देखा था,
वह उसकी दासी कुंडला थी। राजकुमारी का
नाम मदालसा था। कुंडला ने बताया-'मदालसा प्रसिद्ध गंधर्वराज विश्वावसु की
कन्या है। व्रजकेतु दानव का पुत्र
पातालकेतु उसे हरकर यहाँ ले आया है। मदालसा के दुखी होने पर
कामधेनु ने प्रकट होकर आश्वासन दिया था कि जो राजकुमार उस
दैत्य को अपने वाणों से बींध देगा, उसी से इसका विवाह होगा। ऋतुध्वज ने उस दानव को बींधा
है, यह जानकर कुंडला ने अपने कुलगुरु का आवाहन किया। कुलगुरु
तंबुरु ने प्रकट होकर उन दोनों का
विवाह संस्कार करवाया।
मदालसा की दासी कुंडला तपस्या के लिए चली गयी तथा
राजकुमार मदालसा को लेकर चला तो दैत्यों ने उस
पर आक्रमण कर दिया। पातालकेतु सहित सबको नष्ट करके वह अपने पिता के पास पहुँचा। निविंध्न रुप
से समस्त पृथ्वी पर घोड़े से घूमने के कारण वह
कुवलयाश्व तथा घोड़ा (अश्व) कुवलय नाम
से प्रसिद्ध हुआ। पिता की आज्ञा से वह प्रतिदिन
प्रात: काल उसी घोड़े पर बैठकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिए निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी
संदर्भ में एक आश्रम के निकट पहुँचा। वहाँ पाताल केतु
का भाई तालकेतु ब्राह्मण वेश में रह रहा था। भाई के द्वेष को स्मरण करके उसने यज्ञ में
स्वर्णार्पण के निमित्त राजकुमार से उसका स्वर्णहार मांग लिया।
तदनंतर उसे अपने लौटने तक आश्रम की रक्षा का भार सौंपकर उसने जल में डुबकी लगायी। जल के भीतर से ही वह राजकुमार के
नगर में पहुँच गया। वहाँ उसने दैत्यों से युद्ध और राजकुमार की मृत्यु के झूठी खबर की पुष्टि
हार दिखा कर की। ब्राह्मणों ने उनका
अग्नि-संस्कार कर दिया। मदालसा ने भी अपने प्राण त्याग दिये।
तालकेतु
पुन: जल से निकलकर राजकुमार के पास पहुँचा और धन्यवाद कर
उसने राजकुमार को विदा किया। घर आने पर
ऋतुध्वज को समस्त समाचार विदित हुए, अत: मदालसा के चिरविरह से आतप्त वह शोकाकुल है। वह हम
लोगों के साथ थोड़ा मन बहला लेता है। पुत्रों की बात सुनकर उनके मित्र का
हित करने की इच्छा से नागराज ने तपस्या से
सरस्वती को प्रसन्न कर अपने तथा अपने भाई कंबल के लिए
संगीतशास्त्र की निपुणता का वर प्राप्त किया। तदनंतर
शिव
को तपस्या से प्रसन्न कर अपने फन से
मदालसा के पुनर्जन्म का वर प्राप्त किया। अश्वतर के मध्य फन से मदालसा का जन्म हुआ।
नागराज ने उसे गुप्त रुप से अपने रनिवास में छुपाकर रख दिया। तदनंतर अपने
दोनों पुत्रों से ऋतुध्वज को आमंत्रित कर वाया। ऋतुध्वज ने देखा कि दोनों
ब्राह्मणवेशी मित्रों ने पाताल लोक पहुँचकर अपना छद्मवेश त्याग दिया। उनका नाग रूप
तथा नागलोक का आकर्षक रुप देख वह अत्यंत चकित हुआ। आतिथ्योपरांत नागराज से
उससे मनवांछित वस्तु मांगने के लिए कहा। ऋतुध्वज मौन रहा। नागराज ने मदालसा
उसे समर्पित कर दी। उसने अत्यंत आभार तथा प्रसन्नता के साथ अश्वतर को
प्रणाम किया तथा अपने घोड़े कुवलय का आवाहन कर वह मदालसा सहित अपने
माता-पिता के पास पहुँचा। पिता की मृत्यु के उपरांत उसका राज्याभिषेक हुआ।
मदालसा
से उसे चार पुत्र प्राप्त हुए। पहले तीन पुत्रों के नाम क्रमश:
विक्रांत, सुबाहु तथा
अरिमर्दन रखा गया। मदालसा प्रत्येक
बालक के नामकरण पर हंसती थी। राजा ने
कारण पूछा वह बोली कि नामानुरूप गुण
बालक में होने आवश्यक नहीं हैं। नाम तो
मात्र चिह्न है। आत्मा का नाम भला कैसे
रखा जा सकता है। चौथे बालक का नाम मदालसा ने 'अलर्क' रखा। मदालसा के अनुसार हर नाम उतना ही निरर्थक है
जितना 'अलर्क' उसके पहले तीनों बेटे विरक्तप्राय थे। राजा ने मदालसा
से कहा कि इस प्रकार तो उसकी वंश परंपरा ही नष्ट हो जायेगी। चौथे
बालक को प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश देना चाहिए। मदालसा ने अलर्क को धर्म,
राजनीति व्यवहार आदि
अनेक क्षेत्रों की शिक्षा दी।
माँ
तो कभी ऐसी नहीं होती, जो जान बूझ कर
अपनी संतानों को अन्धकार में धकेल दे,
वह तो ममता की मूर्त होती है ।
माँ
तो वह होती है जो एक क्या हजारों जन्म
भी अपनी संतानों पर न्योछावर कर दे ।
आज जो कुछ भी अनहोनी समाज में हो रही
है उसका कारण एक मात्र अज्ञान और अज्ञान ही है।
एक ऐसी माँ की कहानी
जिसने अपनी संतानों को अपनी मीठीं -
मीठीं लोरियां सुना सुना कर ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसने ब्रह्मज्ञान का उपदेश
लोरियों के रूप में अपनी संतानों को दिया और जैसा चाहा अपनी संतान को बना
दिया। वह माँ थी माँ मदालसा।
उसका
पहला उपदेश: "
हे पुत्र, तू शुद्ध आत्मा है। तेरा कोई नाम नहीं है। इस शरीर के लिए कल्पित नाम
तो तुझे अभी इसी जीवन में मिला है। यह शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ
है। कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है तो कोई पुत्र कहलाता है। कोई
स्त्री माता है तो कोई प्राणप्रिया पत्नी।" कोई "यह मेरा है"
ऎसा कहकर अपनाया जाता है तो कोई "यह मेरा नहीं है" ऎसा कहकर ठुकराया जाता है।
सांसारिक पदार्थ नाना रूपों को धारण करते हैं, जिन्हें तुम पहचान लो। "
शुद्धोसि
बुद्धोसि निरंजनोऽसि,संसारमाया परिवर्जितोऽसि।
संसारस्वप्नं
त्यज मोहनिद्रामदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्॥
पुत्र
यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलिये मॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि
तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।
शुद्धोsसिं रे तात न तेsस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव। पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो:॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है,
तेरा कोई
नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे
अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का
बना हुआ है। न यह तेरा है,
न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न
वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना
विविधा गुणास्ते-sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है,
यह शब्द तो
राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही
प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की
कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव
कस्य न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत,
अन्य
भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त
होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि
भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के
पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है ।
इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि
होती है और न हानि ही होती है।
त्वं
कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं- स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा:
शुभाशुभै:
कर्मभिर्दहमेत- न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले
के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के
अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है,
तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।
तातेति
किंचित् तनयेति किंचि- दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित् त्वं भूतसंग बहु
मानयेथा: ॥
कोई
जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है,
कोई पुत्र कहलाता है,
किसी को माता और
किसी को प्यारी स्त्री कहते है,
कोई "यह मेरा है" कहकर
अपनाया जाता है और कोई "मेरा नहीं है",
इस भाव से पराया माना जाता है। इस
प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है,
ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि
दु:खापगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव
दु:खानि पुन: सुखानि जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि
मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने
वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है,
जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ
है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म- मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम
वसाया: ।
कुचादि
पीनं पिशितं पनं तत् स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है,
हड्डियों का
प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र
कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और
मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की
ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता
है,
वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती
जागती मूर्ति नहीं है?
यानं
क्षितौ यानगतश्च देहो देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां
न तथा यथा स्वे देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है,
सवारी पर यह
शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक
दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती,
जैसी कि अपने देह में
दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु- रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु
सुखोपभोगों धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान
पर्वसु तर्पयेथा: समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं
परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा
मुरारिम हृदि चिन्तयेथा- स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ।
मायां
प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय
क्षितिपाञ्जयेथा यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा
! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर
अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन
करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे
अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना,
बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना,
अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान
रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा भगवान का चिंतन
करना, उनके ध्यान से
अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं
को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का
निवारण करना और जगत की अनित्यता का
विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना,
यश के लिए धन का सद्व्यय करना,
परायी निंदा
सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के
समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार
करना ।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
धन्यवाद!