Search This Blog

Tuesday, July 30, 2019

“जातिप्रथा” वेद से नहीं उपजी

“जातिप्रथा”  वेद से नहीं उपजी


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


यदि मुझे किसी वेद  अथवा उपनिषद या षट दर्शन में एक भी शब्द जातिवाद का या जन्म से जाति का दिखा देगा मैं उसका जीवन भर दास बन जाऊंगा!!!!

आज एक फैशन है कि यदि वोट चाहिये तो वेदों को गाली दे दो। मनु को कोस दो। बस मूर्खों की लम्बी कतार खडी है जो बिना पढे बिना जाने तुमको मसीहा का खिताब दे देगी। राम का, कृष्ण का अपमान करो वोट ले लो।

हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि:

१.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं ।

2. मनुष्य जन्म से एक शूद्र ही होता है। परन्तु ब्रह्म के वरण से और ज्ञान बांटने के कारण ब्राह्मण,  शक्तिशाली होने के कारण क्षत्रिय, व्यापार निपुण होने के कारण वैश्य और ज्ञान हीन होना और सेवा में रुचि रखने के कारण शूद्र ही रह जाता है।

3.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती।

4.वेद ही एकमात्र ऐसे ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो। जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते।

चलिये चाय पर चर्चा की जाये। सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं:

यजुर्वेद 18/ 48 :  हे भगवन! हमारे ब्राह्मणों में,  क्षत्रियों में,  वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये। मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं।

यजुर्वेद 20/17:  जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों,  जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों,  जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों,  कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुडाइए।

यजुर्वेद 26/2:  हे मनुष्यों! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं,  इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण,  क्षत्रिय, शूद्र ,वैश्य,  स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो।  विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें।

अथर्ववेद 19/32/8:  हे ईश्वर! मुझे ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए।  मैं सभी से प्रसंशित होऊं।

अथर्ववेद 19/62/1:  सभी श्रेष्ट मनुष्य मुझे पसंद करें। मुझे विद्वान,  ब्राह्मणों,  क्षत्रियों,  शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ।

इन वैदिक प्रार्थनाओं से विदित होता है कि:

-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं।

-सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है।

-और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं।

-वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है।

-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है।  अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और न ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है।

इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है।

यह कहना कि वेदों में शूद्र का अर्थ कोई ऐसी जाति या समुदाय है जिससे भेदभाव बरता जाए – पूर्णतया निराधार है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने  मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा भी है कि नहीं।

दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर और उच्चता में अकड़े हुए लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है|  ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ एक गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जातिप्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे के बिलकुल विपरीत अनेक श्लोक हैं।

मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन मुख्य आक्षेप :

१. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया।

२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे।

३. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था। उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया।

मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था।  अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती।  महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है। (देखें – ऋग्वेद-10\10\ 11-12,  यजुर्वेद-31/ 10‌-11,  अथर्ववेद-19\ 6.5-6)।

यह वर्ण व्यवस्था है।  वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति,  जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है।

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है।  यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है,  कौन सी क्षत्रियों से,  कौन सी वैश्यों और शूद्रों से।

इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं।  ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे। जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है,  वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे?

मनुस्मृति 3/109 में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए।

अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए।

मनुस्मृति 2/136 : धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं।  इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है।

मनुस्मृति 9/335 : शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।

मनुस्मृति 10/60 : ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।

2/103 : जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।

2/172 : जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।

4/245  : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है | इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है।  इसका, किसी

भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।

2/168: जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है।  और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।

अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं।

2/126: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है।

2/238: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।

2/241: आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।

मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती। मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए।

कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है।  ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।

2/157 : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।

2/28 : पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।

मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है।  जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।

यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है,  इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।

2/148 : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है। यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है।  सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता।

इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा।

2/146 : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं।  पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।

2/147  : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है।  वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है।

अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है।  अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा।

10/4 : ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं।  विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।

इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता।  उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा।  और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा।  अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं।

किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं।

4/141 : अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और/या अधिकार से वंचित न करें। क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं।  यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था।  जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है,  तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है।

क.     ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को अंतर्मुखी होने की विधियां समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

ख.     ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे।  जुआरी और हीन चरित्र भी थे परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण 2/19)

ग.     सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

घ.     राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण 4/4/14)

अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

ङ.    राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4/1/13)

च.    धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4/2/2)

छ.    आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण 4/2/2)

ज.    भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।

1.     हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण 4/3/5 )

2.    क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण 4/8/1) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए।  इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।

3.    मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।

4.     ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।

5.     राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।

6.     त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।

7.    विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।

8.    विदुर दासी पुत्र थे। तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।

9.    वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण 2/19।

10.    मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं।  वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं।  इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक,  औड्र,  द्रविड,  कम्बोज, यवन,  शक,  पारद,  पल्हव,  चीन,  किरात,  दरद,  खश।

11.    महाभारत अनुसन्धान पर्व (35 /17-18) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल,  लाट,  कान्वशिरा,  शौण्डिक,  दार्व,  चौर,  शबर,  बर्बर।

12.    आज भी ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं।  इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज,  एक ही कुल की संतान हैं।  कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए।

मनु परम मानवीय थे।  वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते। जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो,  उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं।  उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं।

मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है।  अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं।

3/122 : शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर,  परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए।

3/116: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें।

2/137 : धन,  बंधू,  कुल,  आयु,  कर्म,  श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए।

अत: यह आवश्यक है कि हम समाज में फैली वेदों और मनु के बारे में फैली भांतियों का निवारण कर वेदों की सत्यता निर्धारित करें।



MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।






 

Monday, July 29, 2019

श्री विष्णु तीर्थ हैं श्री विष्णु तीर्थम्॥

श्री विष्णु तीर्थ हैं श्री विष्णु तीर्थम्॥

हिंदी काव्य रूपांतरण : विपुल लखनवी

रे मन तू मेरे ये क्यों न समझते। 
एक ही तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥  
भज मन सदा तू श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥

 
मुक्ति के दाता, भुक्ति प्रदाता।
आध्यत्म मार्ग सहज बनाता॥
सदा साथ तेरे श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥

 
कलि के कलुष को पाप मलिच्छ को।
त्रै ताप जग के मन के कलुष को॥ 
सदा है मिटाता श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥


 
श्री विष्णु गंगाधर पूज्य धारा।
श्री विष्णु नारायण तीर्थ प्यारा॥  

पुरूषोत्तम शंकर श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥

 
गंगा के तट पर यमुना के तट पर।
गोदावरी सिंधु नदियों के तट पर॥
कल कल ध्वनि बोले श्री विष्णु तीर्थम्॥
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥


केदार बद्री या मथुरा अयोध्या। 

काशी या कैलाश पापो को धोया॥
सभी रूप शिव के श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥
 

गंधर्व यक्ष या सुर सिद्ध द्वारे।
ग्रह लोक पूजो या पूजो पिता रे॥
सभी पूज्य पूजन श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥
 

पावन ये सूरज ये चांद ये तारे।
ये भंवरे ये पक्षी खगवृंद सारे॥
सुनो ये ही गाते श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥

शिवओम् तीर्थ सद्गुरू राजे।
श्री विष्णु तीर्थ मन में विराजे॥
वे दोनों एक हैं श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥
 

दास विपुल न शिव को ही ध्याया।
मूरख बना जग विष्णु न पाया॥
अब तो सम्भल भज श्री विष्णु तीर्थम्।
श्री विष्णु तीर्थ है श्री विष्णु तीर्थम्॥


योग की व्याख्यायें

योग की व्याख्यायें

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

प्रायः लोग योग का अर्थ पेट को पिचकाना या कलाबाजी खाना या सर्कस के नट की तरह छलांगे मारना ही समझते है। इसमें योग की कोई गलती नही है जिनको नही पता उनको यही सब योग के नाम पर बताया जा रहा है इसमें उनकी क्या गलती है। कारण स्पष्ट है जो बोल रहे है उनको खुद नही पता योग क्या है बस सुना है तो कह रहे है और सिखा रहे हैं।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवेष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥" (मुण्डकोपनिषद्—3.3) (न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन, यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम् ।)
अर्थः---आत्मा बडे-बडे भाषणों से नहीं मिलता, तर्क-वितर्क से नहीं मिलता, बहुत-कुछ पढने-सुनने से नहीं मिलता। जिसको यह वर लेता है,  वही इसे प्राप्त कर सकता है,  उसके सामने आत्मा अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है ।


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।साधुष्वपि च पापेषु समबुर्द्विशिष्यते।।1। अध्याय 6, श्रीमद्भग्वद्गीता।
अनुवाद : जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है तो वह और भी उन्नत (विशिष्ट) माना जाता है।


योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित:। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह:।10। अध्याय 6, श्रीमद्भग्वद्गीता।

अनुवाद : योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाएं, एकांत स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।


सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।14। अध्याय 12, श्रीमद्भग्वद्गीता।

जो संयतात्मा? दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है? जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है? जो ऐसा मेरा भक्त है? वह मुझे प्रिय है।।


बिना योग का अनुभव किये योग को जानना मुश्किल है उसी भांति अनुभव के बाद भी उसको समझाना भी दुरुह। कारण स्पष्ट है क्योकिं आप शरीर की एक इंद्री का वर्णन दूसरी इंद्री से कैसे कर सकते हैं। जैसे सुगंध का अनुभव नासिका से होता है उसे आप मुख शब्द रूप में एक सीमा तक ही समझा सकते हैं। सत्य वह जो समय के साथ परिवर्तित न हो। असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये। यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य। अब अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदान्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है। यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा,  यह अनुभूति देता है। जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है। कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही। मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान और अनुभव होना योग है।

यदि योग को क्रमवार समझा जाये। तो सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी विधि* को करते करते " (तुम्हारी) आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो" तो समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग"।

अब इसकी अवस्थाये क्या है वह समझे। साकार आराधना वाले को जब दर्शन होते है। तब साकार परिपक्व होता है। और यदि देव आपको स्पर्श कर दे तो आपकी देव दीक्षा हो जाती है। इसी के आगे पीछे आपको अहम ब्रह्मास्मि के अनुभव हो जाते है तो समझो योग हो गया।

दूसरे ईश का अंतिम स्वरूप निराकार ही है। वह निर्गुण ही है। यह अनुभव करना। साकार तो सिर्फ आनन्द हेतु जीवन मे रस हेतु आवश्यक है। मतलब दोनो क्या है यह समझ लेना। अनुभव के लेना ही अंतिम ज्ञान है। सिद्धियां तो बाई प्रॉडक्ट है और भटकाने के लिए होती है। यह हीरे जेवरात हमे भटकाने के लिए होते है। हमे यदि स्वतः हो जाये तो इन सिद्धियों का अनुभव ले कर इनको भूल जाना चाहियें। इसमें फंसना यानी गिरना। मुक्ति में बाधा।

यह ज्ञान प्राप्त करनेवाला योगी है और मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।


वैसे योग के विषय में कई ज्ञानियों ने कुछ इस प्रकार कहा है।
(१) पातंजल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।

३) विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।

४) भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।

(5) आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।

6) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।

योग के प्रकार
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा।


योग की प्रामाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है -
मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः। चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात् एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् )


उपर्युक्त दोनों श्लोकों से योग के प्रकार हुए: मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग।

क. मंत्रयोग : 'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः। जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है।

मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस प्रकार है- योग सेवन्ते साधकाधमाः।
मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है।


1. वाचिक या वैखरी: जप करने वाला ऊंचे – नीचे स्वर से , स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ बोलकर मंत्र का जप करे , तो उसे ‘ वाचिक ‘ जप कहते हैं।

2. उपांशु जप या मध्यमा: जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हल्के स्वर से जप होता है, जिसे कोई सुन न सके, उसे ‘उपांशु जप‘ कहा जाता है।
यह मध्यम प्रकार का जप माना जाता है।


3. मानस जप या पश्यंति: जिस जप में मंत्र की अक्षर पंक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण, एक पद से दूसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार – बार मात्र चिंतन होता हैं, उसे ‘मानस जप‘ कहते हैं।
यह साधना की उच्च कोटि का जप कहलाता है।


4. अणपा या परा पश्यंति: यह जप की उच्चतम अवस्था है जिसमें शरीर के किसी भी अंग से जप किया जा सकता है अथवा महसूस किया जा सकता है।

ख. हठयोग: हठ का शाब्दिक अर्थ हठपूर्वक किसी कार्य करने से लिया जाता है। हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है:
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते। सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान।


घेरण्डसंहिता में सात अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भ्रमध्येहरिम् और समाधि।

ग. लययोग यानि कुंडलिनी योग: चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है: गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात (22-23)

घ. राजयोग: राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। योगाडांनुष्ठानाद शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28)


राजयोग के अन्तर्गत महर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:


यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।

योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।


सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।14। अध्याय 12, श्रीमद्भग्वद्गीता।

जो संयतात्मा? दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है? जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है? जो ऐसा मेरा भक्त है? वह मुझे प्रिय है।।


 
पाँच बहिरंग : 1. यम  : पांच सामाजिक नैतिकता  (जिसके पांच उप अंग है)

*अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना

*सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना

*अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना

*ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:

* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना

*अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की
इच्छा नहीं करना


2.  नियम : पांच व्यक्तिगत नैतिकता ( इसके भी पांच उप अंग)

*शौच – शरीर और मन की शुद्धि

*संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना

*तप – स्वयं से अनुशाषित रहना

 *स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना

*ईश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
प्रायः लोग योग का अर्थ पेट को पिचकाना या कलाबाजी खाना या सर्कस के नट की तरह छलांगे मारना ही समझते है। इसमें योग की कोई गलती नही है जिनको नही पता उनको यही सब योग के नाम पर बताया जा रहा है इसमें उनकी क्या गलती है। कारण स्पष्ट है जो बोल रहे है उनको खुद नही पता योग क्या है बस सुना है तो कह रहे है और सिखा रहे हैं।

3. आसन: विभिन्न  आसनों द्वरा शरीर और मन को दृढ बनाना।

4. प्राणायाम': श्वास-लेने तकनीकों द्वारा प्राण वायु पर नियंत्रण।


प्राण वायु पांच प्रकार की होती है।
* व्यान : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा मांस का कार्य करती है।
* समान : समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
* अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
* उदान : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
* प्राण : प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।


प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- पूरक. कुम्भक व रेचक।
उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।


5. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

तीन अन्तरंग: धारणा, ध्यान और समाधि


6. धारणा: एकाग्रचित्त होना


7. ध्यान: निरंतर ध्यान, मनन और ईश चिंतन

8. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था


उपर्युक्त चार प्रकार के अतिरिक्त गीता में दो प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है-
(१) ज्ञानयोग (२) कर्मयोग।


ज्ञान योग: जिसमें अपनी आत्मा में परमात्मा के सायुज्य का अनुभव होना। इन अनुभवों को वेद व उपनिषद ने समझाया है।

योग होने के बाद के अनुभव कितने प्रकार के हो सकते है जिसको प्राप्त कर मनुष्य यह जान सकता है कि योग हो गया। जिनका वर्णन महावाक्यों और कुछ अन्य जगह मिलता है।

1. अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)। इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
2. तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद)। तत्त्वमसि का अर्थ है, वह तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह महावाक्य है।
3. अयम् आत्मा ब्रह्म:"यह आत्मा ब्रह्म है"(माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद)। इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।'
4. प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)। यह हिंदू शास्त्र 'ऋग्वेद' का 'महावाक्य' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - "ज्ञान ही ब्रह्म है"।
5. सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् : "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद)

कर्म योग: जिसमें आपके कर्म निष्काम हो जाते हैं। आप राग द्वैष इत्यादि उठकर भग्वदगीता के अनुसार समत्व को प्राप्त होकर, स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ  हो जाते  हैं। समत्व सबको समान देखना, स्थिर बुद्धि यानि बुद्धि का स्थिर रहना, शोक सुख दुख इत्यादि में प्रभावहीन रहना। स्थितप्रज्ञ यानि अपनी बुद्धि को ईश चिन्तन में स्थित कर अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाना। 
 
अन्य व्याख्यायों एवं चर्चा या जिज्ञासा हेतु आप लेखक को 9969680093 अथवा 02225591154 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 

* URL अंतर्मुखी होने की विधियां :


https://www.blogger.com/blogger.g?tab=mj&blogID=2306888832299223218#editor/target=post;postID=1632618177803012568;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=307;src=postname




MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।






Monday, July 8, 2019

विवेक की व्याख्या

विवेक की व्याख्या


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


विवेक का शाब्दिक अर्थ होता है।

1.  भले बुरे का ज्ञान

2.  समझ (जैसे—विवेक से काम करना)।  

3. सत्यज्ञान

विवेक संस्कृत का एक आम शब्द है जिसका प्रयोग असंस्कृतभाषी भी प्रतिदिन करते हैं।  कई भाषाओं में इसका अर्थ बुद्धि होता है किन्तु व्यापक रूप मैं इसका अर्थ भेद करने की शक्ति मन जाता है,  परन्तु इस शब्द की व्युत्पत्ति और अन्य अर्थ भी जानने चाहिए।  संस्कृत में, अन्य शास्त्रीय भाषाओं, जैसे फ़ारसी, ग्रीक, लैटिन, की तरह हैं धातु से शब्द बनते हैं|


विवेक विच धातु में 'वि. उपसर्ग को जोड़कर बनाया गया है। विच का अर्थ है परे, पृथक, वंचित, भेद, विचार या न्याय। अतः विवेका का अर्थ है भेद करना, निर्णय करना, प्रभेद करना, बुद्धि, विचार, चर्चा, जांच, भेद, अंतर, सच्चा ज्ञान, जलपात्र, घाटी, जलाशय, सही निर्णय और एक जल कुंड। विवेक का एक अर्थ वास्तविक गुणों के आधार पर वस्तुओं का वर्गीकरण करने की क्षमता भी है।


वेदांत में, विवेक का अर्थ अदृश्य ब्राह्मण को दृश्य जगत से, पदार्थ से आत्मा, असत्य से सत्य, मात्र भोग या भ्रम से वास्तविकता को पृथक करने की क्षमता है।

वास्तविकता और भ्र्म एक दूसरे की ऊपर उसी तरह अद्यारोपित हैं जैसे पुरुष और प्रकृति, इनके बीच भेद करना विवेक है।

यह अनुभवजन्य दुनिया से स्वयं या आत्मान का भेद करने की क्षमता है। विवेक, वास्तविक और असत्य के बीच की समझ है जो इस बात को समझती है कि ब्राह्मण वास्तविक है और ब्राह्मण के अलावा सब कुछ असत्य है। इसका अर्थ धर्म अनुरूप और धर्म प्रतिकूल कार्यों के बीच अंतर करने की क्षमता भी है। यह वास्तविकता की समझ है।


यहां ब्राह्मण का अर्थ जाति से नहीं है। यद्यपि ब्रह्म को वरण करने का कार्य। पातांजलि के शब्दों में योग का अनुभव कर योगी बनना। वेद महावाक्यों का अनुभव ही सत्य ज्ञान देता है। अर्थात योग के मार्ग पर चलने हेतु। ब्रह्म का वरण करने हेतु बुद्दी को मोडने का कार्य करना ही विवेक है।

मेरे विचार से मैं विवेक को तीन प्रकार में विभाजित कर सकता हूं।  ब्रह्म का वरण यानि ब्रह्ममण कार्य करना तो अंतिम और सत्य विवेक हुआ। जो मनुष्य का प्रथम कर्तव्य होना चाहिये और जिसके लिये मानव देह मिली है। किंतु जगत के कार्यों हेतु बुद्धि को प्रेरित करना वह भी समाज विरोधी और दुष्कर्म की ओर प्रेरित करना असत्य विवेक या अविवेक  कहलायेगा। वहीं जगत की ओर अग्रसरित होकर जन सेवा और समाज सेवा हेतु प्रेरित होना। सत्यासत्य विवेक कह सकते हैं।  जो असत्य है किंतु सत्य भी है।



आध्यात्म की मार्ग के लिए आवश्यक चार गुणों में से एक विवेक है।  इन गुणों को साधना-चतुष्टय या साधना की चौपाई कहा जाता है| अन्य तीन गुण है वैराग्य, शमा-अदि-षट्का-संपत्तिः।



छह गुणों की संपत्ति - जिसका आरम्भ सम यानि मन को शांत करना, और मुक्षत्व यानि मोक्ष की कामना|




विवेक की महत्ता आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन की प्रस्थान बिंदु मानने के कारण भी है। विवेक उस गहन चिंतन को धारण करता है जो किसी भी व्यक्ति को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की क्षणभंगुरता की समझ देता है| एक बार जब किसी व्यक्ति को दुःख की पुनरावृतिए एवं चक्रीय प्रकृति का भान हो जाता है जिससे जीवन पर्यन्त भोगना होता है, तो व्यक्ति बुरी तरह से दुख के इस चक्र से निकलने का रास्ता ढूंढ़ता है।



विवेका एक बार की प्रक्रिया नहीं है। व्यक्ति को जीवनपर्यन्त विभेद में लगा रहने पड़ता है | विवेक के इस निरंतर अभ्यास की आवश्यकता अविद्या है, मौलिक अज्ञान है, जो हमारे दिमाग पर छा जाता है और यह विश्वास करवाता है कि असत्य सत्य है और वास्तव में सत्य है, अर्थात आत्मान है वो असत्य है|



परम-हंस, पौराणिक हंस, की दूध और पानी में भेद करने की क्षमता (नीर-क्षीर विवेक) के कारण उसके विवेक को उच्चतम माना जाता है। विवेक का अभ्यास निरंतर प्रश्न एवं समालोचनात्मक विचार-विमर्श से किया जाता है।



विवेक का अर्थ होता है ये देखना कि कौन सी चीज़ है जो मन के आयाम की है, और कौन सी चीज़ है जो मनातीत है।  इनमें अंतर कर पाए तो विवेक है। 




आदिशंकर, जो अद्वैत के आचार्य हुए हैं, उन्होंने विवेक की परिभाषा दी है – नित्य और अनित्य में भेद करना विवेक है।  नित्य और अनित्य में भेद।  नित्य माने वो जो है भी, होगा भी, जिसका समय से कोई लेना ही देना नहीं है, जो समय के पार है| ठीक है? और दूसरी चीज़ें, वस्तुएं, व्यक्ति, विचार होते हैं, जो समय में आते हैं और चले जाते हैं, उनको अनित्य कहते हैं।  नित्य वो जिसका समय से कोई लेना देना नहीं है, जो कालातीत सत्य है, वो नित्य है।  और वो सब कुछ जो समय की धार में है, अभी है, अभी नहीं होगा, यानि कि मानसिक है; वो सब अनित्य है।



तो एक तरीका ये है उसको देखने का, कि दो अलग-अलग आयाम हो गए, एक आयाम हुआ मन का कि क्या ये सब मानसिक है, जो बातें अभी हो रही हैं| मानसिक क्या है? मानसिक वो सब कुछ है जो द्वैतात्मक है, जहाँ पर आँखों से देखा जा रहा है, कानों से सुना जा रहा है और फिर मन से उसका विश्लेषण किया जा रहा है, यही द्वैत है | जो कुछ भी इन्द्रियों से पकड़ते हो, उसी का नाम द्वैत है|



विवेक का अर्थ हुआ ये देखना कि मैं जिन बातों को महत्वपूर्ण माने बैठा हूँ, वो सब इन्द्रियगत हैं, मानसिक हैं, समय की धारा की हैं या फिर वो सत्य हैं| और ये दो अलग-अलग आयाम हैं।  यहाँ एक ही आयाम में भेद नहीं किया जा रहा है।  यहाँ कहा जा रहा है कि तुम चाहे काले को महत्व दो, चाहे सफ़ेद को महत्व दो, बात एक ही है क्योंकि दोनों एक ही आयाम के हैं।  ठीक है? तुम चाहे पकड़ने को महत्व दो, चाहे छोड़ने को महत्व दो, बात एक ही है क्योंकि वो एक ही आयाम के हैं।  तो ये विवेक का प्रश्न ही नहीं है| क्योंकि विवेक का अर्थ है वास्तविक रूप से अंतर कर पाना और वास्तविक रूप से अंतर ये होता है कि जो बात मेरे सामने है, वो मानसिक है या सत्य है।



सत्य क्या? सत्य वो जो स्वयं अपने पर निर्भर है| सत्य में और द्वैत में यहीं अंतर है| कि द्वैत में जो कुछ है उसे अपने विपरीत पर निर्भर होना पड़ता है| काले को सफ़ेद पर निर्भर होना पड़ेगा| अगर सफ़ेद न हो तो काला नहीं दिखाई दे सकता| काला न हो तो सफ़ेद नहीं दिखाई दे सकता| अगर सब सफ़ेद ही सफ़ेद हो जाए तो तुम्हें सफ़ेद दिखना बंद हो जाएगा| तुम जो लिखते हो ब्लैक-बोर्ड पर वो इसी कारण दिखाई देता है क्योंकि पीछे काला है। 





ये द्वैत की दुनिया है| यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है, क्योंकि काला वो जो सफ़ेद का विपरीत है, सफ़ेद वो जो काले का विपरीत है।  और पूछो कि काला और सफ़ेद दोनों क्या, तो इसका कोई उत्तर ही नहीं मिलेगा| इन्द्रियां हमें जो भी कुछ दिखाती हैं, वो द्वैत की दुनिया का ही होता है| उसको जानने वालों ने सत्य नहीं माना है।  इसलिए उन्होंने इन्द्रियों और मन की दुनिया को एक आयाम में रखा है और सत्य को दूसरे आयाम में रखा है।  




विवेक का अर्थ है- इन दोनों आयामों को अलग-अलग देख पाना।  साफ-साफ देख पाना कि क्या है जो बस अभी है, अभी नहीं रहेगा, क्या है जो अपने होने के लिए, अपने विपरीत पर निर्भर करता है| सत्य अपने होने के लिए अपने विपरीत पर निर्भर नहीं करता।  सत्य का कोई विपरीत होता ही नहीं है।  सत्य पराश्रित नहीं होता।  सत्य है।  उसे किसी दूसरे के समर्थन की, सहारे की, प्रमाण की, कोई आवश्यकता नहीं होती है, वो बस होता है।  बात समझ में आ रही है? तो विवेक ये हैं कि मैं जानूं कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है।  मैं जानूं, क्या है जो मात्र मन में उठ रहा है, कल्पना है, विचारणा है और क्या है जो उस कल्पना का आधारभूत सत्य है, स्रोत ही है समस्त कल्पनाओं का।




अब इसको अगर और सपाट शब्दों में कहूं तो, ‘ब्रह्म को जगत से पृथक जानना ही विवेक है, सत्य को असत्य से अलग जानना ही विवेक है’। 




बहक न जाना।  हम कब असत्य को सत्य मान लेते हैं? महत्व दे कर।  तुम्हारे सामने कुछ है, वो तुम्हें बहुत आकर्षित कर रहा है, तुमने उसे खूब महत्व दे दिया।  जब तुम किसी चीज़ को बहुत महत्व दे रहे हो, खिंचे चले जा रहे हो, आकर्षित हुए जा रहे हो, तो इसका अर्थ क्या है? तुम उसको क्या मान रहे हो? सत्य मान रहे हो| ये अविवेक है कि जो सत्य है नहीं, तुम उसकी ओर खिंचे जा रहे हो, तुम उसको महत्व दे रहे हो।  तुमने उसको बड़ी जगह दे दी।  ये अविवेक है।  विवेक का अर्थ है, जो सत्य नहीं है, उसको जानूँगा कि सत्य नहीं है।  सत्य क्या? जिसका समय कुछ नहीं बिगाड़ सकता।  सत्य क्या? जो अपने होने के लिए अपने विपरीत पर आश्रित नहीं है।





जब ज्ञानी कहते हैं कि विवेक से खाओ, विवेक से चलो, तो क्या आशय हुआ उनका? उनका आशय हुआ कि तुम्हारा चलना सत्य की दिशा में रहे, तुम्हारा बोलना सत्य की दिशा में रहे।  और सत्य की दिशा कैसे पता चलेगी? कहना तो ठीक है कि कह दिया कि सत्य की दिशा में चलो। 





विवेक का अर्थ हुआ- सत्य की दिशा में चलो| पर बतायेगा कौन कि सत्य की क्या दिशा है? स्वयं सत्य बताएगा।  क्योंकि सत्य के अलावा और कोई बताने के लिए है ही नहीं कि उसकी दिशा क्या है| विवेक इसलिए आता है, श्रद्धा से।  स्वयं सत्य से पूछना पड़ता है कि अपने आने का, अपने तक पहुँचने का रास्ता बता दो, क्योंकि मन तो सत्य तक का रास्ता नहीं जान पायेगा।  बताओ क्यों? क्योंकि मन द्वैत के आयाम पर, मान लो X एक्सिस पर है और सत्य का कोई और ही आयाम| जिसने अपने आप को X,Y के तल पर कैद कर रखा हो, वो किसी और आयाम में कैसे पहुँचेगा? समझ रहे हो बात को? तो विवेक बहुत गहरी बात है।  विवेक का अर्थ ये नहीं है कि ज़रा देख कर पांव रखना कि कहीं गड्ढा न हो, कि पानी कहाँ है और ज़मीन कहाँ है।  इसमें अंतर करने का नाम विवेक नहीं है।  विवेक में अंतर निश्चित रूप से किया जाता है, पर वो अंतर इस बात का नहीं होता है कि तुम्हारे सामने जो खाना रखा है वो घी से बना है या तेल से बना है। वो अंतर बहुत सूक्ष्म अंतर है।  बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है वो अंतर करना, वो ये छोटी-मोटी बातों में नहीं है। 





वो अंतर क्या है? नित्य और अनित्य का भेद करना, सत्य और असत्य का भेद करना, वास्तविक और छवि में भेद कर पाना।  जो ये कर पाए, वो विवेकी कहलाता है, कि बड़ा विवेकवान आदमी है।  आम आदमी कल्पनाओं में जीता है।  जो कल्पनाओं में जिये, वो विवेकी नहीं है।  जो छविओं में जिये, वो विवेकी नहीं है।  जो अपने मतों में जिये, धारणाओं में कैद रहे, वो विवेकी नहीं हो सकता।  जो किसी भी ऐसी वस्तु, ऐसी ऑब्जेक्ट से आकर्षित है या तादात्मय बैठा लिया है, जिसका आना-जाना पक्का है, अभी है, अभी नहीं है, जो कल्पना का विषय है, जिसने किसी भी ऐसी वस्तु से आकर्षण या तादात्मय बैठा लिया है, वो व्यक्ति विवेकी नहीं हो सकता।  ये बात समझ में आ रही है? तो ये सामने एक कार जा रही है हमारे, हम हाईवे पर हैं| तुम्हें वो कार खींच रही है अपनी ओर, नया मॉडल है, खूबसूरत रंग है और तुम खिंचे चले जा रहे हो।  ये क्या हुआ?




उत्तर मिलेगा खिंचे चले जा रहे हैं तो ये असत्य है। फिर यदि वो कार न दिखती तो क्या खिंचते उसकी ओर ? उत्तर मिलेगा नहीं। तो फिर वो कार तुम तक कैसे पहुँची? इन्द्रियों के माध्यम से। उत्तर मिलेगा मन से |

यानि जब भी कुछ तुम तक इन्द्रियों के माध्यम से पहुँचे और तुम्हें जकड़ ले, तो समझ लेना कि क्या हो रहा है, अविवेक| ‘ये विवेक की बात नहीं हो सकती, ये इन्द्रियों तक ही तो पहुँचा है मुझ तक’।

एक अन्य प्रश्न अगर तुम्हारे मन में प्रेम किसी व्यक्ति को देख कर उठता है, तो क्या वो वास्तविक प्रेम है? क्या ये विवेक है?



उत्तर मिलेगा, देख के अगर प्रेम होता है, तो नहीं है। तो अब  नहीं है ना।  क्योंकि ये बात पूरी तरह से अब इन्द्रियगत हो गई है।  दिखा, तो मन मचल उठा, या कि उसकी याद आई तो मन मचल उठा।  दोनों ही स्थितियों में हुआ क्या है? एक मानसिक तरंग है ये, एक प्रकार का ये विचलन ही है कि या तो स्मृति ने, या दिखने ने, या सुनने ने मन में एक हलचल पैदा कर दी। 




उत्तर है विचार गया और सब ख़त्म यानि ये विवेक नहीं हो सकता,  इसको प्रेम मत समझ लेना।  समझ में आ रही है बात? विवेक का अर्थ है उसके साथ रहना, लगातार, जिसको आँखें देख नहीं सकती, जिसको कान सुन नहीं सकते, जिसकी बात ज़बान नहीं कर सकती।  लगातार उस आयाम से जुड़े रहने का नाम विवेक है कि मुझे तो बस वही पसंद है। फिर प्रश्न है  कौन?




‘जो मन का विषय नहीं है, जो आँखों का विषय नहीं है, जो ज़बान का या छूने का विषय नहीं है, पर फिर भी वो सबका स्रोत है, मुझे तो वो ही पसंद है, मैं उसी के साथ रहता हूँ’; ये है विवेक। और उसके अलावा कुछ और आता है, तो हमें नहीं भाता है।  सत्य के अलावा तुम हमारे सामने कुछ भी लाओगे, हमें रुचता ही नहीं है’, ये विवेक हुआ। 




यही अविवेक कहलाता है  कि जो मुझसे समय छीन लेगा मैं फालतू ही उसके साथ जुड़ गया| और एक दूसरा तरीका भी है कि मन के आयाम से हट कर के किसी ऐसी जगह की तुमको कुछ झलक सी मिल जाए, कुछ इशारा सा मिल जाए, जो पक्की है, जो कभी हिलती ही नहीं।  जहाँ कुछ परिवर्तनीय नहीं है, जिसको एक बार जान लिया, एक बार पा लिया, तो बदल ही गए।  तब समझो कि तुम्हारे लिए ये चार दिन किसी काम के रहे।  दो तरह के लोग लौटेंगे वहाँ से।  एक वो जो अपने साथ कुछ ले कर के आयेंगे, और अपने साथ क्या ले कर के आते हैं लोग, लोग अपने साथ बहुत सारा ज्ञान ले कर के आयेंगे, जितनी वहाँ किताबें दी जायेंगी, उन किताबों का पूरा इतना ढेर ले कर के आयेंगे, बहुत सारी यादें और बहुत सारे नये फ़ोन नंबर ले कर के आयेंगे, और दो-दो सौ, चार-चार सौ फोटोग्राफ्स ले कर के आयेंगे। तो एक तो तरीका ये है कि तुम अपने साथ कुछ ले कर के आ रहे हो और दूसरा तरीका ये है कि तुम स्वयं ही बदल कर आ रहे हो। इसमें से क्या है जो तुम्हारे साथ रहेगा और क्या है जो नहीं रहेगा? यह जानना ही विवेक है।



MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।


Sunday, July 7, 2019

क्या अंतर है ज्ञान और बुद्धि में

   क्या अंतर है ज्ञान और बुद्धि में 

 


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

एक मिलता जुलता स्थूल संदर्भ टमाटर का ले सकते हैं।

ज्ञान के अनुसार टमाटर एक फल है क्योंकि उसमें बीज होता है

बुद्धि टमाटर का प्रयोग सब्जी के रूप में करना जानती है।

ज्ञान अनुभव भी हो सकता है किंतु बुद्धि उस ज्ञान को तौलने का काम करती है। जैसे योग। यह एक अनुभुति हैं। जब हम वेद महावाक्य का अनुभव कर लेते हैं। तब हमको द्वैत और अद्वैत स्वत: समझ में आ जाता है किंतु हम उसे सीमित ही व्यक्त कर सकते हैं। वेदांत के अनुसार “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है”। वेद महावाक्यों का अनुभव ही ब्रह्म ज्ञान है।

किंतु यह आवश्यक नहीं कि हम ज्ञान को इंद्रियों के माध्यम से पूर्णतया: व्यक्त भी कर सकें।  अतः अगर यह कहा जाए की ज्ञान और बुद्धि के बीच प्रयोग का अंतर होता है तो गलत न होगा; ज्ञान को शिक्षा का अनुभव का परिणाम कह सकते है।  इसलिए, ज्ञान का दान तो संभव है पर बुद्धि का दान संभव नहीं;  ज्ञान तो हमारे पास हमेशा से ही प्रचुर रहा है, आज समस्या का कारण हमारी बुद्धि है !"

बुद्धि एक ऐसा महत्वपूर्ण तत्व है, जिसके द्वारा मनुष्य का जीवन प्रकाशित होता है, प्रेरित होता है। यदि अन्य प्राणियों से मनुष्य में कोई विशेषता है, तो वह है-बुद्धि। जहाँ बुद्धि नहीं, वहाँ मनुष्य, मनुष्य नहीं, वह बिना सींग-पूँछ का एक तुच्छ प्राणी मात्र रह जाता है। बुद्धि के द्वारा ही जीवन में गलत- सही, उत्कृष्ट-निकृष्ट, धर्म-अधर्म,कार्य-अकार्य की ठीक-ठीक निर्णय होता है। जिस तरह किसी यान में लगा हुआ प्रकाश यन्त्र चालक को सही मार्ग का दर्शन कराता है, उसी तरह मानव शरीर में बुद्धि का स्थान है। बुद्धि ही ऐसी कसौटी है, जिस पर मनुष्य जीवन को, जगत को परख कर ठीक-ठीक निर्णय पर पहुँच सकता है। जिस तरह नेत्रहीन के लिए मनोरम दृश्य व्यर्थ है उसी तरह बुद्धि-हीन के लिए जीवन और जगत के मधुर रहस्य, शास्त्र-वार्ता, ज्ञान-विज्ञान व्यर्थ है और उनके बिना जीवन जड़ है, पशु तुल्य है। इसीलिए हमारे यहाँ बुद्धि को शुद्ध-निर्मल बनाने के लिए बहुत जोर दिया गया है। संसार में जो भी गति, उन्नति-प्रगति, विकास, खोज, अन्वेषण हो रहे हैं, यह सब बुद्धि की ही देन हैं।

        “बुद्धेर्बुद्धिमताँ लोके नास्त्यगम्यं हि किंचन।  बुद्धथा यतो हता नन्दाश्चाणक्ये नासिपाणयः॥”

    “बुद्धिमानों की बुद्धि के समक्ष संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है। बुद्धि से ही शस्त्र-हीन चाणक्य ने सशस्त्र नन्दवंश का नाश कर डाला।”

    मनुष्य के हाथ पैरों की, शरीर की स्थूल शक्ति सीमित है। यह प्रत्यक्ष में अपनी सीमा तक ही कारगर सिद्ध होती है, लेकिन बुद्धि की शक्ति बहुत अधिक व्यापक है। यह दूर, आते दूर तक भी प्रभाव डाल सकती है।

“दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याम्याँ दूरे हिनस्ति सः।” बुद्धिमान की भुजायें बड़ी लम्बी होती हैं, जिनसे वह दूर तक वार कर सकता है। महर्षि व्यास के अनुसार “बुद्धि श्रेष्ठानि कर्माणि” बुद्धि से विचारपूर्वक किए गये कार्य ही श्रेष्ठ होते हैं।

    बुद्धि मनुष्य के लिए दैवी विभूतियों में उच्च कोटि का वरदान है। इसके सहारे मनुष्य अपने जीवन को अधिक उन्नत, प्रभावशाली बना सकता है। संसार में जो कुछ मनुष्य कृत उपलब्ध है, वह बुद्धि की ही देन है। कहावत है-बुद्धिमान का एक दिन मूर्ख के जीवन भर के बराबर होता है।

    बुद्धि का विकास करना जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। बुद्धि को विकसित, संस्कारित और समर्थ बनाने की प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यकता है। इसलिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट जीवन बिता सके, मानवीय गरिमा को आत्मसात् कर सके। बुद्धि को अधिकाधिक प्रौढ़, व्यापक बनाने के लिए ज्ञान की साधना, विचारों की अर्चना करना आवश्यक है। ज्ञान, विचार-साधना के क्षेत्र में हम जितने अधिक प्रयत्न करेंगे, उतना ही हमारी बुद्धि का विकास होगा।

    बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है ‘सीखने और सिखाने की तीव्र लगन की।’ सीखने के लिए मानव जाति का संचित अब तक का ज्ञान कुछ कम नहीं है। नाना क्षेत्रों में ज्ञान का अथाह भण्डार भरा पड़ा है। इसके अतिरिक्त संसार की खुली पुस्तक से हर समय कुछ न कुछ सीखने को मिलता ही रहता है। दूसरी बात है, सीखे हुए को सिखाने की। दूसरों को सिखाने से भी बुद्धि का विकास होता है। वस्तुतः दूसरों के माध्यम से ही जो कुछ सीखा हुआ है, वह परिष्कृत होता है।

    सीखने के क्षेत्र में दूसरों के विचारों से परहेज नहीं करना चाहिए। खासकर हमारे यहाँ की यह विशेषता है और हमारी परम्परा ही कुछ ऐसी रही है, जिसके अनुसार हमने किसी के भी विचार से परहेज नहीं किया। संसार भर के विचारों का हमने प्रयोग किया और जो उपयुक्त लगा उसे स्वीकार करने में आना-कानी नहीं की। बुद्धि की साधना करने वाले के लिए अपनी ग्रहण शक्ति को एकाँगी नहीं बनाना चाहिए। अपने आपको किसी एक ही विचारधारा में कैद नहीं कर लेना चाहिए। जो ऐसी भूल कर बैठते हैं, उनकी बुद्धि भी एकाँगी बन जाती है। वह नाना दिशाओं में विकसित नहीं हो पाती।

    बुद्धि के साधक लिए-ज्ञान की उपासना करने वाले को किसी भी स्थिति में पहुँचकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि बस, अब इतिश्री हो चुकी। स्मरण रखिये, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह नित नूतन विकास क्रम की गोद में पलता है, इसीलिए बुद्धि की भी कोई सीमा नहीं हो सकती। उसके लिए भी विकसित होने के नित नये अध्याय खुलते रहते हैं। प्रसिद्ध विचारक बेकन ने कहा है “ईश्वर ने बुद्धि की कोई सीमा निश्चित नहीं की है।”

    ज्ञानार्जन के लिए अपने बुद्धि के यन्त्र को सब क्षेत्रों में, सब संस्थाओं में, सब प्रणालियों में घुसकर सीखने दें। किसी एक-संस्था, विचार-प्रणाली, नियम में आबद्ध न करें। जहाँ-जहाँ भी ज्ञान के नये स्रोत प्रकाश में आवें, वहाँ-वहाँ ही आप प्रवेश कीजिए-सीखिए। अध्यात्म, समाजशास्त्र, परिवार, अर्थ विज्ञान, नीति, सदाचार, राजनीति, विज्ञान, जन-सेवा, मानस-शास्त्र, धर्म-संस्कृति सभी विषयों, सभी क्षेत्रों में अपनी गति रखें। आपके ज्ञानार्जन का क्षेत्र जितना व्यापक होगा, उतनी ही आपकी बुद्धि भी विशाल-व्यापक बनेगी।

    नीतिकार ने कहा है- “दृष्टि पूर्तन्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलं।” देखकर कदम रखिये, छानकर पानी पीजिये। सब ओर से जानकारी किया हुआ खरा उतरे, उसे व्यवहार में लाइये। किसी भी बात को इसलिए मत मान लें कि किसी व्यक्ति विशेष ने कहा है या वह किसी ग्रन्थ में लिखी है अथवा एक बहुत बड़ा मानव समुदाय उसके अनुसार चलता है। प्रत्येक बात, विचार, परम्परा को मौलिक चिन्तन की कसौटी पर ही सही-सही परखे बिना व्यवहार में नहीं लाना चाहिए।

    बुद्धि को किसी भी तरह आग्रह प्रधान, मोहासक्त एकांगी नहीं रखना चाहिए। पुरातन का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए तो वर्तमान का भी। लेकिन ग्रहण वही करना चाहिए जो अपने स्वतन्त्र विचार की कसौटी पर, अपने तथा समाज के लिए हितकर सिद्ध हो। हममें से बहुत कम लोग ही इस तरह बुद्धि को स्वतन्त्र रख पाते हैं। हममें से अधिकाँश तो किन्हीं संस्थाओं, विचार प्रणालियों, चली आ रही मान्यताओं अथवा नये विचारों को आँख मूँद कर बुद्धि पर पर्दा डालकर मान लेने के अभ्यासी हैं। हमारे जो विश्वास बन गये हैं जो मान्यतायें हमारी हैं, उनसे हम इस तरह चिपक जाते हैं कि उनसे परे-कुछ सोचने, समझने, मानने की गुंजाइश ही नहीं रहने देते। लेकिन इस तरह को प्रवृत्ति बुद्धि की विकसित न कर उसे कुण्ठित करना ही है। इसलिए सब पढ़ लिख कर, देखकर सुनकर भी बुद्धि को स्वतन्त्र रखना, उसमें मौलिकता का जीवन डालना आवश्यक है।

    स्वतन्त्र बुद्धि की कसौटी पर जो सत्य लगे उसे अपने तक ही सीमित न रखकर, उसे स्वतन्त्रता पूर्वक व्यक्त करने, दूसरों को सिखाने की क्षमता और साहस का होना भी आवश्यक है। बहुत से लोग बड़े बुद्धिमान होते हैं, निर्णय पर भी पहुँच जाते हैं लेकिन वे साहस के साथ अपने अनुभव को प्रकट नहीं करते। उक्त प्रकार से बुद्धि को दबाने पर वह कुण्ठित हो जाती है, उसकी क्षमता नष्ट हो जाती है।

    आप जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, उसे साहस के साथ प्रकट कीजिए, दूसरों को सिखाइये। चाहे आपको कितने ही विरोध-अवरोधों का सामना करना पड़े, आपकी बुद्धि जो निर्णय देती है, उसका गला न घोटें। आप देखेंगे कि इससे और आपकी बुद्धि अधिक कार्य कुशल समर्थ बनेगी।

    एक किस्सा सुनें।

सभी कैंडिडेट के इंटरव्यू हो चुके थे। बुद्धि शर्मा और ज्ञान प्रकाश आहूजा ये दो कैंडिडेट थे जो डिग्री और नॉलेज सहित हर लिहाज से बिल्कुल बराबर थे, लेकिन मैनेजर तो किसी एक को ही बना सकते थे। पूरा इंटरव्यू पैनल तय नहीं कर पा रहा था किसे मैनेजर बनाएं और किसे "बैटर लक नेक्स्ट टाइम" कहें?

    कंपनी के सीईओ कबीर मेहता तक ये बात पहुँची कि पैनल मैनेजर के लिए एक नाम नहीं तय कर पा रहा है। उन्होंने दो कागज के टुकड़े लिए और उनपर 5-5 सवाल लिखे। एक कागज उन्होंने बुद्धि शर्मा और एक कागज ज्ञान प्रकाश आहूजा को दिया।

    सीईओ ने बोलना शुरू किया "आप दोनों को इन पांच सवालों के जवाब लिखकर मुझे ये कागज वापस देना है। जिसने भी ये कागज कम समय में लौटा दिया, वहीं इस कंपनी का मैनेजर होगा। हर सही जवाब के लिए आपके टाइम में से एक सैकंड कम हो जाएगा और हर गलत जवाब के लिए दो सैकंड आपके टाइम में जुड़ जाएंगे।" "औऱ हां, आप चाहें तो जवाब गूगल पर भी ढूंढ़ सकते हैं"

    ज्ञान का जनरल नॉलेज बहुत अच्छा था। इसके लिए वो कई प्राइज भी जीत चुका था। वो बहुत खुश था। मन ही मन सोच रहा था "इस टेस्ट में तो मैं ही अव्वल आऊंगा"

    ...लेकिन जैसे ही उसने सवाल पढ़े उसका सारा कॉन्फिडेंस काफूर हो गया।

    सवाल ये थे...

    1. चांद पर कदम रखने वाले 18वे इंसान का नाम क्या था?

    2. क्रिकेट इतिहास का 1335वां रन किस खिलाड़ी ने बनाया था?

    3. भारत में सबसे पहले चाय किस महिला/पुरुष ने बनाई थी?

    4. महात्मा गांधी की हाइट कितनी थी?

    5.दुनिया की सबसे पहली कविता किस महिला/पुरुष ने लिखी थी?

    ज्ञान ने मोबाइल निकालकर गूगल ओपन किया। वो पहले सवाल का जवाब सर्च कर ही रहा था तब तक बुद्धि अपना कागज जवाब लिखकर सीईओ को वापस दे चुकी थी।

    ज्ञान की दुविधा बढ़ गई। एक तरफ उसे गूगल पर भी सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे और दूसरी तरफ वो ये समझ नहीं पा रहा था कि बुद्धि ने सवाल इतनी जल्दी कैसे सॉल्व कर दिए।

    30 मिनट बाद भी जब एक भी सवाल का जवाब नहीं मिला तो ज्ञान ने अपने कागज वापिस दे दिया।

    सीईओ ने बुद्धि शर्मा को नया मैनेजर घोषित कर दिया।

    ज्ञान ने हिचकते हुए सीईओ से पूछा "सर, क्या मैं जान सकता हूं कि इन सवालों के जवाब क्या है"?

    "क्यों नही" ये कहते हुए सीईओ ने बुद्धि का जवाब लिखा हुआ कागज ज्ञान को दे दिया।

    बुद्धि के जवाब पढ़ते ही ज्ञान का पारा चढ़ गया। "अगर इस लड़की को ही जॉब देनी थी तो इंटरव्यू का दिखावा क्यों किया। इसने हर सवाल के जवाब में लिखा है-आई गोट इट।"

    सीईओ मुस्कुराए और कहा "तुमने शुरुआत में मेरे इंस्ट्रक्शन ध्यान से नहीं सुने। मैंने कहा था जो ये कागज कम समय में लौटाएगा वो इस कंपनी का मैनेजर होगा। बुद्धि ने 15 सैकंड में मुझे ये कागज लौटा दिया। उसके पांचों जवाब गलत थे इसलिए 10 सैकंड की पेनल्टी के बाद भी उसका टाइम 25 सैकंड ही था। जबकि तुम्हारा टाइम पेनल्टी जोड़कर 30 मिनट 10 सैकंड था। अब तुम बताओ मैनेजर की पोस्ट के लिए सही कैंडिडेट कौन है-तुम या बुद्धि।"

    ज्ञान निशब्द था।

    हर आदमी विद्या बुद्धि की शक्ति से सम्पन्न नहीं होता। किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान सम्पदा मिलती है। सृष्टि में चौरासी लाख प्रकार के जीव जन्तु, कीट-पतंग, पशु-पक्षी बताये जाते हैं, इनमें नाममात्र की बुद्धि होती है, उसके सहारे वे बेचारे मुश्किल से अपनी जीवन यात्रा पुरी कर पाते हैं। उनका बुद्धिबल इतना कम होता है कि कई बार तो उन बेचारों को छोटी-2 अड़चनों के कारण अपने प्राण तक गंवाने पड़ते और आये दिन तरह-तरह के दुख भोगने पड़ते हैं। यदि उनकी बुद्धि थोड़ी अधिक विकसित रही होती तो वे भी मनुष्य की भाँति सुखी और समृद्ध रहे होते। परन्तु कर्म की गहन गति के कारण उन्हें वह साधन प्राप्त नहीं है, फलस्वरूप मनुष्य की अपेक्षा कई दृष्टियों से अधिक सक्षम होते हुए भी जैसे तैसे जीवन का भार ढो रहे हैं।

    मनुष्य अनेकों अन्य जीव जन्तुओं की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। पक्षियों की तरह वह आकाश में नहीं उड़ सकता, कच्छ-मच्छ की तरह जल में किलोल नहीं कर सकता, हिरन और घोड़े की बराबर दौड़ नहीं सकता, हाथी की बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह-व्याघ्र जैसा बलवान नहीं, भेड़-बकरी की तरह घासपात खाकर गुजारा नहीं कर सकता, उल्लू और चमगादड़ की तरह रात्रि में भली प्रकार देख नहीं सकता, ऊंट की तरह कई दिन बिना खाये नहीं गुजार सकता, सर्प की तरह सैकड़ों वर्ष नहीं जी सकता, जुगनू की तरह चमक नहीं सकता, मोर सा सुन्दर नहीं, बन्दर सी छलाँग नहीं मार सकता, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकता, इतना निर्बल, पिछड़ा हुआ होते हुए भी अन्य समस्त जीव जन्तुओं से वह आगे बढ़ा हुआ है, सृष्टि का मुकुटमणि है, सबका नेता तथा स्वामी है, इतनी बड़ी सफलता का कारण है उसका बुद्धि बल। इस बुद्धि बल ने ही उसे एक साधारण प्राणी से महान मानव बना दिया है।

    नीति का वचन है कि “बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धिस्य कुतोबलम्” जिसमें बुद्धि है उसमें बल है, निर्बुद्धि में बल कहाँ से आया? जो जितना ही बुद्धिमान है वह उतना ही बलवान है। बुद्धिहीन का सारा बल निष्फल हो जाता है। मनुष्य ने इस बुद्धि बल के द्वारा ही इतना प्रभुत्व प्राप्त किया है। इसी की न्यूनाधिकता के कारण मनुष्य-2 के बीच में अन्तर दिखाई देता है। साधारणतः मानव प्राणियों के शरीर और आकृति में कोई भारी अन्तर नहीं होता, फिर भी राजा-रंक, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख, सत्तारूढ़-पराश्रित, शोषक-शोषित, पुण्यात्मा-पापी, महापुरुष-दीनहीन, चतुर-भोंदू के बीच जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है। एक पालकी में बैठकर चलता है एक पालकी को उठाता है। एक की उंगलियों के इशारे पर लाखों करोड़ों प्राणियों की गतिविधि होती है, एक दूसरों द्वारा कठपुतली की तरह नचाया जाता है। एक का सर्वत्र जयघोष होता है और उसके चरणों पर सर्वस्व अर्पित किया जाता है। दूसरी ओर एक ऐसा व्यक्ति है जिसे कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। इतना भारी अन्तर शरीरों के कारण नहीं, बुद्धिबल के कारण है, जिसमें जितना बुद्धि तत्व अधिक है वह उतना ही बड़ा आदमी बन जाता है।

    बुद्धि की महत्ता सर्वोपरि है। यह मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय वरदान है। सृष्टि के सब जीवों को यह बुद्धिबल प्राप्त नहीं है, यहाँ तक कि सब मनुष्यों को भी वह पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं है। असंख्य मनुष्य ऐसे है जिनके पास नाम मात्र का बुद्धि तत्व है। उसकी मात्रा इतनी न्यून है कि जीवन यापन का कार्य चलाने के अतिरिक्त उसके द्वारा और कोई बड़ा काम नहीं कर सकते, उस थोड़ी सी बुद्धि से जब वे अपना उदर पोषण ही मुश्किल से कर पाते हैं तो उसके द्वारा कोई महान कार्य करना, यश प्राप्त करना या दूसरों का उपकार करना किस प्रकार संभव है? बहुत थोड़े मनुष्य इस संसार में ऐसे हैं जिनको विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, जो दूर की सोच सकते हैं, जिनको बारीक बातें सोचने की क्षमता है, जिनका विवेक परिमार्जित है, जो बहुश्रुत हैं, जिन्होंने विशाल अध्ययन किया है एवं जो अपने बुद्धिबल से असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं।

    यह बुद्धिबल परमात्मा ने जिन विशिष्ट व्यक्तियों को दिया है वह एक विशेष उद्देश्य से दिया है। ज्ञान परमात्मा की अमानत है, धरोहर है, वह इसलिए दी गई है कि इस अमानत को वह परमात्मा की इच्छानुसार उसके बताये हुए प्रयोजनों के लिए खर्च करे। जिस किसी को भी परमात्मा असाधारण विशेषताएं देता है, इसी उद्देश्य से देता है कि वह उनके द्वारा सृष्टि के अन्य प्राणियों को लाभ पहुँचावे। जिन मनुष्यों को असाधारण बुद्धिबल दिया गया है उनके लिए परमात्मा ने यह कर्त्तव्य नियत कर दिया है कि वे उस शक्ति को अपने से कमजोरों के लिए, कम बुद्धि वालों के लिए निरन्तर वितरण करते रहें।

    बुद्धिमानों का परम पवित्र उत्तर दायित्व यह है कि वे अपने बुद्धिबल को जन कल्याण के लिए लगावें। उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमने परिश्रमपूर्वक इतनी विद्या प्राप्त की है तो इससे हम भोग ऐश्वर्य उठाकर ऐश आराम क्यों न करें? मजे-मौज क्यों न उड़ावें? ठाठ-बाट जमाने और गुलछर्रे उड़ाने में इसका उपयोग क्यों न करें? ऐसा सोचना उचित नहीं। एक राजा अपने नौकरों को नियत मात्रा में वेतन देता है, जिससे वे अपना गुजारा कर सकें परन्तु किसी विशेष कर्मचारी को वह विश्वास पात्र समझ कर उसे खजांची नियुक्त करता है और उसके पास बड़ी-बड़ी रकमें जमा करता है। यह रकमें इसलिए खजांची को दी जाती है कि वह उन्हें सुरक्षित रखे और सिर्फ उन कामों में खर्च करे जिनके लिए राजा आज्ञा दे, राज का हित हो। यदि वह खजांची इस प्रकार सोचने लगे कि राजा मुझ पर प्रसन्न है, उसने मेरी योग्यता के अनुसार मेरे पास इतना धन रख दिया है तो मुझे यह अधिकार है कि मैं इसका मनमाना उपयोग क्यों न करूं? अपने मौज मजे के लिए यह धन क्यों न खर्च करूं? तो ऐसा सोचना उस खजांची के लिए अनुचित होगा। यदि खजांची को मौज मजा करने के लिए इतना धन राजा ने दे दिया है तो अन्य कर्मचारी, जो उसी प्रकार दिन भर परिश्रम करते हैं, उन्हें भी उतना-उतना ही धन उसी प्रकार खर्च करने के लिए क्यों नहीं दिया? यदि नहीं दिया तो राजा को पक्षपाती ठहराया जायगा। यही बात परमात्मा के बारे में कही जा सकती है।

    जो व्यक्ति इस विज्ञानरूपी ब्रह्म की उपासना करता है, यह वैज्ञानिक कहाता है, ( भागवत में श्री कृष्ण के अनुसार जो मेरे सगुण निराकार रूपों को जानता है। मेरी लीलाओ को वर्णन करता है वह विज्ञानी है। जो मेरे निर्गुण निराकार रूप को जानता है व्ह ज्ञानी है।)

वह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने में समर्थ हो इसीलिए विज्ञान को जानना चाहिए, विज्ञान की उपासना (अनुसंधान) करनी चाहिए, विज्ञान को सिद्ध करके ब्रह्मबोध का प्रयोग करके मोक्षकाम होना चाहिए। हमारे यहां शालिहोत्र संहिता का पशु विज्ञान, अगस्त्य संहिता का विद्युत विज्ञान, भारद्वाज संहिता का वैमानिक विज्ञान, चरक संहिता का चिकित्सा विज्ञान, भृगु संहिता का अन्तरिक्ष विज्ञान, वशिष्ठ संहिता का युद्ध विज्ञान आदि सबके सब विज्ञान से भरे हैं।

लेकिन ज्ञान को निरंन्तर ही प्राप्त करने की चेष्टा भी करनी चाहिये।

    भगवान भी गीता में कहते हैं :- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यामि, मैं तुम्हें विज्ञानसहित ज्ञान का उपदेश कर रहा हूँ। हमारे यहां विज्ञान और धर्म भिन्न हैं ही नहीं।

किन्तु यह ध्यान में रहे कि जो पाश्चात्य म्लेच्छ मंदबुद्धि कथित वैज्ञानिकों ये कहते रहते हैं, और जिनके खुद के सिद्धांत और खोज हर बीस तीस सालों में बदलते रहते हैं, उन गली के कुत्ते के समान लक्ष्यहीन केवल आधिभौतिक पटल पर विराजित अनुसंधानों को, जो कथित रूप से स्वयं को पूर्ण वैज्ञानिक मानते हैं, उनकी बातों की अपेक्षा सनातन के आधिभौतिक के साथ साथ आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल पर विराजित कल्याणप्रद विज्ञान की ओर भी परम्परा के अनुसार, मर्यादा के अनुसार, अधिकृत रीति से तपोबल के माध्यम से अनुसंधान करें।

मन की सङ्कल्प विकल्प की अद्भुत शक्ति का प्रयोग करें। मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु सः। मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़े आत्मरूप आप चेतन ब्रह्म हैं।                  

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।


Friday, July 5, 2019

दश महाविद्या के दस शिवावतार

                      दश महाविद्या के दस शिवावतार


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi

दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। 

 

संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। 

 

कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।

महाविद्या के शिव

हिन्दू धर्म में देवों के देव महादेव पुकारे जाने वाले भगवान शिव मूर्त या सगुण और अमूर्त या निर्गुण रूप में पूजे जाते हैं। ऐसा शास्त्रों में वर्णन आता है की शिव बिना उनकी शक्ती के शव हैं और शक्ति बिना शिव में शून्य है। भगवान शंकर और मूल शक्ति (देवी) के दस प्रमुख स्वरूपों के बारे में पुराणों में वर्णन मिलता है। वेदों के अनुसार शिव का एक नाम ‘रुद्र’ भी है। रुद्र का अर्थ है भयानक तथा दुख से मुक्ति दिलाने वाला। भगवान शंकर संहार के देवता हैं। साथ ही साथ शिव परम कल्याणकारी हैं। शास्त्रों के अनुसार शिव के दस रुद्रावतार व्यक्ति को सुख, समृद्धि, भोग, मोक्ष प्रदान करने वाले एवं व्यक्ति की दसों दिशाओं से रक्षा करने वाले हैंं।

1. महाकालेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में पहला अवतार महाकाल माने जाते हैं। महाकेश्वर का स्वरुप श्यामवर्णी है और ये काल के भी काल कहे जाते हैं। महाकालेश्वर अवतार की शक्ति महाविद्या महाकाली मानी जाती हैं। उज्जैन में महाकाल नाम से ज्योतिर्लिंग प्रख्यात है। उज्जैन तीर्थ के गढ़कालिका क्षेत्र में मां कालिका उपखंड शक्तिपीठ स्थित है। मूल महाकाली महाविद्या शक्तिपीठ पश्चिमबंगाल के कलकत्ता स्थित महाकाली मंदिर है।

2. तारकेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में दूसरा अवतार तारकेश्वर (तार) नाम से प्रचलित है। तारकेश्वर का स्वरुप तारे की भांति पीतांबर है अर्थात नीलम लिए हुए पीला। तारकेश्वर अवतार की शक्ति देवी तारा मानी जाती हैं। तारा पीठ पश्चिम बंगाल के वीरभूम में स्थित द्वारका नदी के पास महाश्मशान में स्थित है।

3.भुवनेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में तीसरा रुद्रावतार है भुवनेश्वर अर्थात बाल भुवनेश। भुवनेश्वर का स्वरुप शीतल श्वे़त है। भुवनेश्वर अवतार की शक्ति को भुवनेश्वरी (बाला भुवनेशी) कहा जाता है। दस महाविद्या में से एक देवी भुवनेश्वरी की शक्तिपीठ उत्तराखंड में है।

4. षोडेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में चौथा अवतार है षोडेश्वर अर्थात षोडश श्रीविद्येश। षोडेश्वर का स्वरुप सोलह कलाओं वाला है। षोडेश्वर अवतार की शक्ति महाविद्या षोडशी श्रीविद्या को माना जाता है। ‘दस महा-विद्याओं’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं।

5. भैरवनाथ रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में पांचवें रुद्रावतार भैरवनाथ अर्थात भैरव माने गए हैं। भैरवनाथ के 52 स्वरुप माने गए हैं तथा मूलतः भैरव तामसिक देव कहे जाते हैं और इन्हें दिशाओं का रक्षक माना जाता है। भैरवनाथ अवतार की शक्ति भैरवी मानी गई हैं। दशमहाविद्या की सारिणी में इस आदिशक्ति को त्रिपुर भैरवी गिरिजा भैरवी कहा गया है। शक्तिपीठों के वर्णन में जहां देवी के ओष्ठ गिरे थे उस स्थान को उज्जैन के शिप्रा नदी तट स्थित भैरव पर्वत पर मां भैरवी का शक्तिपीठ माना गया है।

6. दमोदेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस रुद्रावतारों में छठा अवतार दमोदेश्वर अर्थात छिन्नमस्तक नाम से प्रचलित है। इस अवतार की शक्ति देवी छिन्नमस्ता मानी जाती हैं। छिनमस्तिका मंदिर प्रख्यात तांत्रिक पीठ है। दस महाविधाओं में से एक छिन्नमस्तिका का विख्यात मंदिर चिंतपूर्णी नाम से भी प्रसिद्द है। शास्त्रों के अनुसार दामोदर-भैरवी नदी के संगम पर स्थित इस पीठ को शक्तिपीठ माना जाता है। दामोदर को शिव व भैरवी को शक्ति माना जाता है।

7. धूमेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस प्रमुख रुद्र अवतारों में सातवां अवतार धूमेश्वर अर्थात द्यूमवान नाम से प्रख्यात है। धूमेश्वर का स्वरुप धुम्रवर्ण अर्थात धुएं जैसा है। धूमेश्वर अवतार की महाविद्या को देवी धूमावती माना गया है। संपूर्ण भारत में धूमावती का एकमात्र मंदिर मध्यप्रदेश के दतिया जिले में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ ‘पीताम्बरा पीठ’ के प्रांगण में स्थित है।

8. बग्लेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस प्रमुख रुद्र अवतारों में आठवां रुद्र अवतार बग्लेश्वर अर्थात बगलामुख नाम से प्रचलित है। बग्लेश्वर का स्वरुप पीला है। इस अवतार की महाविद्या को देवी बगलामुखी माना जाता है। दस महाविद्याओं में से एक बगलामुखी का सबसे प्रचलित मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में स्थित बगलामुखी मंदिर है।

9. मतंगेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस प्रमुख रुद्र अवतारों में नौवां अवतार मातंग है। मतंगेश्वर का स्वरुप हरा है। मतंगेश्वर अवतार की शक्ति को महाविद्या देवी मातंगी माना जाता है। देवी मातंगी सनातन धर्म में उच्छिष्ट चंडालिनी के रूप पूजी जाती है। देवी मातंगी का एकमात्र मंदिर मध्यप्रदेश में झाबुआ शहर में स्थित है। ये देवी ब्राह्मणों की कुल देवी भी कहलाई जाती है।

10. कमलेश यां कमलेश्वर रुद्रावतार: शिव के दस प्रमुख रुद्र अवतारों में दसवां अवतार कमलेश यां कमलेश्वर नाम से प्रचलित है। कमलेश्वर का स्वरुप कमल की भांति अष्टदल कारी है अर्थात 64 कलाओं वाला है। इन्हें शिव का कमल स्वरुप भी कहा जाता है। कमलेश्वर अवतार की शक्ति को महाविद्या कमला माना जाता है।

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

 


 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...