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Friday, August 9, 2019

आध्यात्म की बत्तख और कैलाश चर्चा

 आध्यात्म की बत्तख और कैलाश चर्चा

 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi

आध्यात्म में मनुष्य को जिस भांति  तालाब में कुछ भी करती नही दिखती पर उसके पैर चलते रहते है और वह आगे बढ़ती रहती है, कुछ इसी भांति जगत में मूर्ख बनकर आगे बढ़ते रहना चाहिए।

कल प्रातः मित्र अंशुमन द्विवेदी की पत्नी और पुत्र की दीक्षा है। अपने ग्रुप के शांत साधक वरुण की भी शक्तिपात दीक्षा है।

आप सभी को शुभकामनाये और बधाई।

आपको मार्ग मिला। मुझे मिली प्रसन्नता। मेरा काम पूरा।

साधन करे आगे बढ़े।

जय महाकाली। जय गुरुदेव।

मित्र कट पेस्ट से बचे।

बधाई हो। तुमको तो कृष्ण दर्शन की भी अनुभूति है mmstm द्वारा। दीक्षा भी ली है।

ग्रुप के माननीय विद्वानों से एक कुछ अपने अनुभवों के बारे में पूछना चाहता हूँ।

मुझे हर 4,5 महीने बाद मौसम बदलते समय सूखी खांसी से आरम्भ होकर गीली खांसी हो जाती है। टेस्ट सब फेल होते है। कोई दवा काम नही करती तीनो पेथी बेकार ही सिद्ध होती है फिर एक निश्चित समय के बाद खांसी खुद ठीक हो जाती है।

एक बार मुझे लगा कि मैं प्रणायाम नही कर पाता हूँ। अतः खाँसी के माध्यम से मुझे तीव्र भस्तिका हो जाती है जो शरीर शुध्द करती है। क्या यह सत्य हो सकता है या मैं गलत हूँ।

2 मुझे लगता है अपना इलाज करवाना अपने कर्म फल को भोगने में एक रुकावट होती है। क्या यह सत्य है।

3 शरीर अंदर से गर्म महसूस होता है। सहस्त्रसार पर दबाब बना रहता है। कनपटी भरी रहती है। मैं प्रायः नशे की हालत में रहता हूँ।

4 अकसर भूल जाता हूँ क्या करना है। बस राम नाम ही अच्छा लगता है।

5 कोई फिक्र नही होती किसी भी काम को करने की।

6 ध्यान के बाद सर हल्का हो जाता है। फिर भारी और नशा आ जाता है।

7 सर अक्सर किसी बुढ्ढे की तरह थोड़ा थोड़ा हिलता भी है। जिसे रोकना पड़ता है।

8 कानो में श्लोक भजन आरती इत्यादि संगीत के साथ गूंजते है। खैर यह तो शब्द योग है।

पर बाकी सब।

किसी से बात करने का बोलने का मन नही होता।

इन पर विचार व्यक्त करे। ग्रुप में कई ज्ञानीजन है। मार्ग दर्शन करें।

बहुत की थी कभी जवानी में। सुबह  समय नही मिलता है।

हलवा मना है।

कोई दवा कारगर नही होती।

नवरात्रि में माता रानी को जो अखंड ज्योति जलाते हैं उसकी राख को सिंदूर में लगाकर अपने गले पर लगाएं इससे फायदा होगा

आयुर्वेदिक

सितोपलादि चूर्ण

पातंजली कफ सीरिप

काली मिर्च मुलैठी पीपर इत्यादि जैसी दवाएं तमाम तरह से।

काढ़ा।

अगर यह ना हो तो चुना बाहर से अपने गले पर लेप कर दें

होमोयो

काली मयूर

फेरम फास इत्यादि तमाम

अजवाइन लहसुन इत्यादि के गर्म सरसो के तेल की मालिश

अंत मे सब छोड़ दिया।

खुद ठीक होती है। खुद होती है।

तब तो आप माता रानी से ही पूछिए क्या बात है

यह तो कर्म फल है। गलतियों का फल। बड़ा नही छोटा सा।

मुझे कोई तकलीफ नही पर पत्नी को होती है।

मधुमेह ठीक करने का कोई बीजमंत्र था उससे बहुत लाभ होता है

है पर कौन करे। व्यर्थ है। इससे अच्छा राम नाम ले।

इस नश्वर शरीर हेतु कुछ समय बर्बाद नही

ठीक है सर वैसे मेरी चाय की पत्ती में अर्जुन छाल, तुलसी, पुदीना, पिपली, लौंग, इलायची, काली मिर्च और तज का पाउडर मिला रहता है। अब यह अलग से बना लेता हूँ।

धन्यवाद।

जी धन्यवाद। शायद मैं धीरे धीरे सांख्य योग की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। हालाँकि यह सन्यासी के लिए होता है। पर मुझे कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है।

जय महाकाली। जय गुरुदेव।


अचरज…कैलाश पर्वत की तलहटी में एक दिन होता है ‘एक माह’ के बराबर!


कैलाश की दिव्यता खोजियों को ऐसे आकर्षित करती रही है, जैसे खगोलविद आकाशगंगाओं की दमकती आभा को देखकर सम्मोहित हो जाते हैं। शताब्दियों से मौन खड़ा कैलाश संसार के पर्वतारोहियों और खोजियों को चुनौती दे रहा है लेकिन ‘महादेव के घर’ को देखना तो दूर, कोई उसकी तलहटी में जाकर खड़ा भी नहीं हो पाता। दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट पर झंडा लहरा चुका मानव कैलाश पर्वत पर आरोहण क्यों नहीं कर सका? अनुभव बताते हैं कि कैलाश की तलहटी में पहुँचते ही आयु बहुत तेज़ी से बढ़ने लगती है।


कैलाश पर्वत की सुंदरता, वहां सर्वत्र व्याप्त अदृश्य आध्यात्मिक तरंगों ने संसार में सबसे अधिक रूसियों को प्रभावित किया है। साल के बारह महीने रुसी खोजियों के कैम्प कैलाश पर्वत क्षेत्र में लगे रहते हैं। यहाँ की प्रचंड आध्यात्मिक अनुभूतियों के रहस्य का पता लगाने के लिए वे जान का जोखिम तक उठा लेते हैं।


इन लोगों के अनुभव बता रहे हैं कि कैलाश पर्वत की तलहटी में ‘एजिंग’ बहुत तेज़ी से होने लगती है। भयानक अनुभवों से गुजरकर आए उन लोगों ने बताया कि वहां बिताया एक दिन ‘एक माह ‘ के बराबर होता है। हाथ-पैर के नाख़ून और बाल अत्यधिक तेज़ी से बढ़ जाते हैं। सुबह क्लीन शेव रहे व्यक्ति की रात तक अच्छी-खासी दाढ़ी निकल आती है।


शुरूआती दौर में चीन ने दुनिया के धुरंधर क्लाइम्बर्स को कैलाश पर्वत आरोहण की अनुमति दी थी लेकिन सैकड़ों प्रयास असफल रहे। बाद में चीन ने यहाँ आरोहण की अनुमति देना बंद कर दिया। ऐसे ही एक बार चार पर्वतारोहियों ने कैलाश के ठीक नीचे स्थित ‘जलाधारी’ तक पहुँचने की योजना बनाई। इनमे एक ब्रिटिश, एक अमेरिकन और दो रुसी थे। बेस कैम्प से चारों कैलाश की ओर निकले।


बताते हैं वे कुशल पर्वतारोही थे और काफी आगे तक गए। एक सप्ताह तक उनका कुछ पता नहीं चला। जब वे लौटे तो उनका हुलिया बदल चुका था। आँखें अंदर की ओर धंस गई थी। दाढ़ी और बाल बढ़ गए थे। उनके अंदर काफी कमजोरी आ गई थी। ऐसा लग रहा था कि वे आठ दिन में ही कई साल आगे जा चुके हैं। उन्हें अस्पताल ले जाया गया। दिग्भ्रमित अवस्था में उन चारों ने कुछ दिन बाद ही दम तोड़ दिया।


उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई बार कैलाश पर्वत पर फतह के प्रयास किये गए। जिन लोगों ने अपने विवेक से काम लिया और आगे जाने का इरादा छोड़ दिया, वे तो बच गए लेकिन दुःसाहसी लोग या तो पागल हो गए या जान गवां बैठे। कैलाश की परिक्रमा मार्ग पर एक ऐसा ख़ास पॉइंट है, जहाँ पर आध्यात्मिक शक्तियां चेतावनी देती है।


मौसम बदलता है या ठण्ड अत्याधिक बढ़ जाती है। व्यक्ति को बैचेनी होने लगती है। अंदर से कोई कहता है, यहाँ से चले जाओ। जिन लोगों ने चेतावनी को अनसुना किया, उनके साथ बुरे अनुभव हुए। कुछ लोग रास्ता भटककर जान गंवा बैठे। सन 1928 में एक बौद्ध भिक्षु मिलारेपा कैलाश पर जाने में सफल रहे थे। मिलारेपा ही मानव इतिहास के एकमात्र व्यक्ति हैं, जिन्हे वहां जाने की आज्ञा मिली थी।


रुसी वैज्ञानिक डॉ अर्नस्ट मूलदाशेव ने कैलाश पर्वत पर काफी शोध किये हैं। वे कई बार चीन से विशेष अनुमति लेकर वहां गए हैं। कैलाश की चोटी को वे आठ सौ मीटर ऊँचा ‘हाउस ऑफ़ हैप्पी स्टोन’ कहते हैं। उन्होंने अनुभव किया कि कैलाश के 53 किमी परिक्रमा पथ पर रहने से ‘एजिंग’ की गति बढ़ने लगती है। दाढ़ी, नाख़ून और बाल तेज़ी से बढ़ते हैं। एक अनुमान के मुताबिक कैलाश पर्वत की तलहटी के संपर्क में आते ही एक दिन में ही आयु एक माह बढ़ जाती है। इस हिसाब से वहां एक माह रहने में ही जीवन के लगभग ढाई साल ख़त्म हो जाएंगे।


सन 2004 के सितंबर में इसी तथ्य का पता लगाने के लिए मॉस्को से रशियन एकेडमी ऑफ़ नेचुरल साइंसेज के यूरी जाकारोव ने अपने बेटे पॉल के साथ कैलाश पर्वत जाने की योजना बनाई। वे गैरकानूनी ढंग से तलहटी के करीब पहुंचे और कैम्प लगा लिया। उन्हें अभी एक दिन ही हुआ था कि एक रात ऐसा अनुभव हुआ कि अगली सुबह उन्होंने वापस आने का फैसला कर लिया।


रात लगभग तीन बजे बेटे पॉल ने झकझोर कर यूरी को जगाया और बाहर देखने के लिए कहा। यूरी ने बार देखा तो अवाक रह गया। कैलाश के शिखर पर रोशनियां फूट रही थीं। प्रकाश के रंगबिरंगे गोले एक एक कर आते जाते और बुलबुलों की तरह फूटते जाते। कुछ पल बाद उसी स्थान पर अनगिनत ‘स्वस्तिक’ बनते दिखाई दिए। यूरी और उसके बेटे की आँखों से अनवरत आंसू बहे जा रहे थे। वे एक अदृश्य शक्ति को अनुभव कर रहे थे। उनके भीतर एक अनिर्वचनीय आनंद फूट रहा था। यूरी समझ गए कि वे ‘परमसत्ता’ के घर के सामने खड़े हैं और इस काबिल नहीं कि वहां कदम रख सके।


आखिर ऐसी कौनसी ऊर्जा है जो कैलाश के पास जाते ही तेज़ी से उम्र घटाने लगती है। कदाचित ये महादेव का सुरक्षा कवच है जो बाहरी लोगों को उनके घर से दूर रखने का उपाय हो। वैज्ञानिकों, खोजकर्ताओं और पर्वतारोहियों ने इसका साक्षात अनुभव किया है।


कैलाश पर्वत के पास ही ऐसा क्यों होता है, इसका ठीक-ठीक जवाब किसी के पास नहीं है। वहां मिलने वाले आनंद का अनुभव बताना भी किसी के बस में नहीं है। कुछ तो ऐसे भी हैं कि उस अबोले, विलक्षण आनंद के लिए उम्र दांव पर लगाने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। ‘फॉस्ट एजिंग’ की मिस्ट्री कभी नहीं सुलझ सकेगी,

कैलाश पर्वत सत आत्माओ का देव स्थान है। इसकी रक्षा गनेश करते है। श्रद्धा भाव से जाने वाला तलहटी तक पहुँच सकता हैं। बाकी को आंतरिक धक्के मारकर या किसी भी तरह दूर रखा जाता हैं। इसके ऊपर जाने के लिए स्वारोहिणी से मार्ग जाता है। जहाँ केवल शुद्ध सात्विक शिवस्वरूप ही जा सकते है। 


कैलाश पर्वत, यह एतिहासिक पर्वत को आज तक हम सनातनी भारतीय लोग शिव का निवास स्थान मानते हैं। शास्त्रों में भी यही लिखा है कि कैलाश पर शिव का वास है।

किन्तु वहीँ नासा जैसी वैज्ञानिक संस्था के लिए कैलाश एक रहस्यमयी जगह है। नासा के साथ-साथ कई रूसी वैज्ञानिकों ने कैलाश पर्वत पर अपनी रिपोर्ट पेश की है।

उन सभी का मानना है कि कैलाश वाकई कई अलौकिक शक्तियों का केंद्र है। विज्ञान यह दावा तो नहीं करता है कि यहाँ शिव देखे गये हैं किन्तु यह सभी मानते हैं कि, यहाँ पर कई पवित्र शक्तियां जरुर काम कर रही हैं। तो आइये आज हम आपको कैलाश पर्वत से जुड़े हुए कुछ रहस्य बताते हैं।

*कैलाश पर्वत के रहस्य...*
*रहस्य : 1* रूस के वैज्ञानिको का मानना है कि, कैलाश आकाश और धरती के साथ इस तरह से केंद्र में है जहाँ पर चारों दिशाएँ मिल रही हैं। वहीँ रूसी विज्ञान का दावा है कि यह स्थान एक्सिस मुंडी है और इसी स्थान पर व्यक्ति अलौकिक शक्तियों से आसानी से संपर्क कर सकता है। धरती पर यह स्थान सबसे अधिक शक्तिशाली है।

*रहस्य : 2* दावा किया जाता है कि आज तक कोई भी व्यक्ति कैलाश के शिखर पर नहीं पहुच पाया है। वहीँ 11 सदी में तिब्बत के योगी मिलारेपी के यहाँ जाने का दावा किया जाता है। किन्तु इस योगी के पास सबूत नहीं थे या फिर वह खुद सबूत पेश नहीं करना चाहता था। इसलिए यह भी एक रहस्य है कि इन्होनें यहाँ कदम रखा या फिर वह कुछ बताना नहीं चाहते थे।

*रहस्य : 3* कैलाश पर दो झीलें हैं और यह दोनों रहस्य बनी हुई हैं। आज तक इनका हस्य कोई खोज नहीं पाया है। एक झील साफ़ और पवित्र जल की है। इसका आकार सूर्य के समान बताया गया है। वहीँ दूसरी झील अपवित्र और गंदे जल की है तो इसका आकार चन्द्रमा के समान है। ऐसा कैसे हुआ यह कोई नहीं जानता है।

*रहस्य : 4* यहाँ के आध्यात्मिक और शास्त्रों के अनुसार रहस्य की बात करें तो कैलाश पर्वत पे कोई भी व्यक्ति शरीर के साथ उच्चतम शिखर पर नहीं पहुच सकता है। ऐसा बताया गया है कि, यहाँ पर देवताओं का आज भी निवास हैं। पवित्र संतों की आत्माओं को ही यहाँ निवास करने का अधिकार दिया गया है।

*रहस्य : 5* कैलाश पर्वत का एक रहस्य यह भी बताया जाता है कि जब कैलाश पर बर्फ पिघलती है तो यहाँ से डमरू जैसी आवाज आती है। इसे कई लोगों ने सुना है। लेकिन इस रहस्य को आज तक कोई हल नहीं कर पाया है।

*रहस्य : 6* कई बार कैलाश पर्वत पर सात तरह के प्रकाश आसमान में देखें गयें है। इसपर नासा का ऐसा मानना है कि यहाँ चुम्बकीय बल है और आसमान से मिलकर वह कई बार इस तरह की चीजों का निर्माण करता है।

*रहस्य : 7* कैलाश पर्वत दुनिया के 4 मुख्य धर्म का केंद्र माना गया है। यहाँ कई साधू और संत अपने देवों से टेलीपेथी से संपर्क करते हैं। असल में यह आध्यात्मिक संपर्क होता है।

*रहस्य 8 :* कैलाश पर्वत का सबसे बड़ा रहस्य खुद विज्ञान ने साबित किया है कि यहाँ पर प्रकाश और ध्वनी के बीच इस तरह का  समागम होता है कि यहाँ से ॐ की आवाजें सुनाई देती हैं।

इसके विपरीत दुष्ट आत्माओं का स्थान बरमूडा  त्रिकोण है। शायद अंदर से दोनो के बीच कोई कनेसशन हो।

आगे पता नही पर लगता है पर्वत अंदर से खोखला है जहां हल्की स्वर्णिम प्रकाश रहती है। अंदर कुछ कक्ष है जहां विभिन्न कैटेगरी के साधक मुनि ध्यात्म मग्न रहते है। धरती की क्रियाओं को यहीं से संचालित करते है। अपने को अज्ञात रखने हेतु इन शक्तियों ने निर्जन जगह को चीन के कब्जे में दिया। क्योकि चीन किसी को नही मानता। इस कारण उनको डिस्टर्बेंस कम होती है।

और कुछ बताये। श्रीमान। मैंने एक बार कोशिश कर ध्यान में देखने का प्रयास किया पर सफल न हुआ। आप ध्यान द्वारा भी अंदर नही जा सकते आसानी से।

भाई जहाँ न पहुचे विज्ञान वहाँ पहुचे ध्यान।

बहुत जगह नही। कैलाश से हार गया। हिन्दुओ के कई चमत्कारी मन्दिर चुनौती है।

जहाँ शेष है वहाँ भी पहुँच जायेगा

फिर भी आध्यात्म अशेष रह जायेगा।

समय के साथ विज्ञान आगे बढ रहा है

खोज करनें में वक्त लगता हा

मानव पीछे हो रहा है। गुणों का ह्वास हो रहा है।

कहीं राजनीतिक करणों से  विज्ञान पीछे है

मानव आगे बढ रहा है

यही मैं कहता हूँ। वैज्ञानिक सबसे बड़े चीटर। उस यन्त्र पर यकीन करते है जिसे मानव ने बनाया पर मानव पर नही।

आध्यात्म भी विज्ञान है

किसी प्रयोग में कई साल प्रतीक्षा कर लेंगे पर mmstm के लिए जिसमे शक्ति का अनुभव उसके लिए 6 महीने भी न देंगे। मन्त्र जप के लिए कुछ घण्टे भी न देगे।

आद्यात्म आंतरिक और सूक्षम विज्ञान है।

*श्री गणेश चतुर्थी* पर गणपति जी की *पारंपरिक* मूर्ति ही खरीदें, जिसमे गणेश जी के मूल स्वरुप की प्रतिकृति हो, ऋद्धि-सिद्धि विद्यमान हो।


सेल्फ़ी लेते हुए,

स्कूटर चलाते हुए,

ऑटो चलाते हुए,

बॉडी बिल्डर सिक्स पैक,

या अन्य किसी प्रकार के *अभद्र* स्वरुप में गणेश जी को बिठाने का कोई औचित्य नहीं है। उल्टा आपको पाप ही लगता है भगवान के अपमान का।


इस प्रकार की मुर्तियों को एक विशेष समुदाय के लोगों द्वारा बनाकर सनातन धर्म की हँसी उड़ाई जा रही है। और हम फैशन के चक्कर में *मुर्खता* कर बैठते हैं तथा अपने ही देवता के अपमान के *अपराधी* भी बनते हैं।


सभी से पुनः निवेदन है समझदारी का परिचव देवें, और *सही* (शास्त्रसम्मत) विग्रह की प्रतिमा की स्थापना करे।

यहा पर बडे ही सिद्ध साधक हैं और विपुल जी कि अनुयायी मे नये आयाम बना रहे हैं।।राहुल छोटे भाई जम्मू से हैं और माँ भगवती की दया हैं।।

शक्ति पात तथा गुरु के चमत्कार यह दो दिनों से पुनः देख रहा हूँ।।समय वयर्थ मे बरबाद न करें।।जो घटे वो आज ही घट जावे।।यहाँ वहाँ न भटक रे मनवा गुरु शरण जियु लिनहा सब सँताप तुरतहिं हर लिनहा।।चार पहर गुरु के डेरे ,प्रभु लिये चहुतरफ से धेरे।।जय गुरु देव

मित्रो आजकल धड़ल्ले से अपने नाम के आगे स्वामी लगाकर या पीछे कुछ परम्परा का नाम लगाकर या सँस्कृत विद्यालय का नाम लिखकर नकली लोग हिन्दुओ को बरगलाकर  राजनीतिक फायदा उठाना चाहते है।

आप उनको चेक कर सकते है।

जैसे स्वामी आनन्द समर्पण यह नकली ठोगी है। क्योंकि यह हर बात में गाली गलौज करता है। इसके प्रोफ़ाइल में असली नाम भी नही। यानी यह नकली।

जैसे स्वामी सर्वेश्वरचार्य यह भी नकली।

क्यो

1 स्वामी नाम पट्ट सनातन परंपरा के अनुसार सिर्फ सन्यासी को दिया जाता है। सन्यास दीक्षा भी परम्परा के किसी गुरु के द्वारा प्रदत्त की जाती है। अतः उस परम्परा या गुरु का नाम प्रोफ़ाइल में न हो तो आप पूछ लें।

2 नाम के पीछे सरस्वती, तीर्थ, गिरी, नाथ इत्यादि परम्पराओं को इंगित करती है।

अतः भोले हिन्दुओ सावधान रहो। इन नक्कालों को बेनकाब करो।

जय हिंद। जय सनातन।

सरजी जो योगी लगाते हैं या 108,1008 लगाते हैं वे क्या हैं?

यह सम्मान प्रदर्षित करने का तरीका है। यानी 108 बार या 1008 बार श्री लगाओ।

श्री श्री श्री ........ 108 बार।

जैसे। सुनकर हंसी आती है। और लोग प्रसन्न होते है।

अनन्त कोटि ब्रह्मांड नायक महाअधिपति ज्ञानाचार्य 1008 श्री श्री ........ महाराज।

प्रभु जी, आनंदम अनुभूयते, सच में आप महान हो, कमाल हो, आपको साष्टांग प्रणाम।


पानीपत का तीसरा युद्ध और "NOTA"

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अहेमद शाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया. कोई उसे रोकने का साहस न कर सका. तब महाराष्ट्र से मराठा पेशवा ने उसको टक्कर देने की कोशिश की. अब्दाली को रोकने के लिए मराठा सेना पानीपत पहुच गई. मराठों ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोगों से आव्हान किया कि - वे अब्दाली को रोकने में उनका साथ दे,


लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोगों NOTA दबा दिया. बोले यह हमारी लड़ाई थोड़े ही है यह तो अफगानों और मराठों की लड़ाई है. स्थानीय हिन्दू NOTA दबा कर पीछे हट गए लेकिन स्थानीय मुसलमानों ने अहेमद शाह अब्दाली का साथ दिया. पानीपत के इस युद्ध में मराठा हार गए और अब्दाली जीत गया.


लेकिन उस जीत के बाद "अहेमद शाह अब्दाली" ने महाराष्ट्र में नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भयानक कत्लेआम किया. कुरुक्षेत्र, पेहोवा, दिल्ली, मथुरा, वृन्दावन आदि के मंदिर तोड़े. यहीं की औरतों के साथ बलात्कार किया और अपने साथ गुलाम बनाकर ले गया. महाराष्ट्र का वो कुछ नुकशान नहीं कर सका.


अब्दाली के पास 60,000 की सेना थी और पेशवा के पास पास लगभग 50,000. पेशवा को उम्मीद थी कि - राजपूत, जाट, सिक्ख एवं स्थानीय हिन्दू उनका साथ देंगे लेकिन इन सब ने यह सोंच कर लड़ाई से किनारा कर लिया कि- अगर मराठे जीत गए तो उत्तर भारत में मराठों का बर्चस्व हो जाएगा. मराठों को साथ मिलना तो दूर भोजन तक नहीं मिला.


इसके विपरीत अब्दाली द्वारा जेहाद का नारा देते ही अवध का नवाव सुजा उद दौला, बरेली का रोहिल्ला सरदार एवं स्थानीय छोटी छोटी मुस्लिम रियासते और जागीरदार अब्दाली के साथ मिल गये. अब्दाली की साठ हजार की सेना सवा लाख हो गई. और 50,000 मराठा सैनिक खाली पेट युद्ध लड़ रहे थे. परिणाम आपको पता ही है.


पानीपत का तीसरा युद्ध इस तरह सम्मिलित इस्लामिक सेना और मराठाओं के बीच लड़ा गया. अवध के नवाब ने इसे इस्लामिक सेना का नाम दिया और बाकी मुसल्मानों को भी इस्लाम के नाम पर इकट्ठा किया. जबकि मराठा सेना ने अन्य हिन्दू राजाओं से सहायता की उम्मीद की थी, लेकिन उत्तर भारत के हिन्दू तटस्थ (NOTA) रहे.


पानीपत की वह लड़ाई 14 जनवरी 1761 मकरसंक्रांति के बेहद सर्द दिन लड़ी गई थी. महाराष्ट्र / गुजरात / मध्य प्रदेश के रहने वाले मराठा उस ठण्ड के आदी नहीं थे और न ही उनके पास गर्म कपडे थे. स्थानीय लोगों ने मराठा सैनिको को भोजन और गर्म कपडे तक नहीं दिए. वो यह सोंचते थे कि - अबदाली से हमारी कोई दुश्मनी थोड़े ही है.


जबकि पानीपत का युद्ध जीतने के बाद अब्दाली और स्थानीय मुसलमानों ने मराठों से ज्यादा स्थानीय हिन्दुओं और सिक्खों को नुकशान पहुंचाया था. याद रखिये जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते है वो मिट्टी में मिल जाते हैं. धर्मयुद्ध में कोई तटस्थ नहीं रह सकता, जो धर्म के साथ नहीं वह धर्म के बिरुद्ध माना ही जाएगा. copied.

प्रिय शर्मा जी आपने श्रीमद्भगवदगीता को और कृष्ण को न समझा है। साथ ही आपने काफी कुछ वह समझा जो गलत तरह से आपको समझाया गया। मित्र गीता में जो कृष्ण का शरीर है वह तो इंसान का ही है जो पैदा हुआ और मर गया। पर उनका ज्ञान अमर है।

कृष्ण का वास्तविक स्वरूप निराकार निर्गुण ही है। और इसे अद्वैत के द्वारा ही अनुभवित किया जा सकता है।

मित्र पुस्तके लिखनेवाला या कवि एक स्तर पर लिखता है। जिसको समझने के लिए उस स्तर पर जाना पड़ता है।

सुवर्ण को ढूढ़त फिरे कवि व्यभिचारी चोर।

यानी

सुवर्ण सुंदर शब्द को कवि

सुवर्ण सुंदर स्त्री को व्यभिचारी

सुवर्ण यानी सोना को चोर।

ढूढते है।

शब्द एक अर्थ अनेक।

जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।


मित्र जहाँ तक मेरा अनुभव था और जो मुझे कृष्ण ने स्वयम दिखाया और समझाया।वह मैंने ब्लाग पर ब्रह्मांड की उत्तपत्ति लेख में लिखा है जो यहाँ लिखना सम्भव नही।

ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप निराकर निर्गुण निर्विकल्प है। उसका अंतिम रूप एक सुप्त ऊर्जा है। जिसे निराकार कृष्ण अल्लह या गाड या जो भी कहो सब नाम है। जो जागृत होने पर सृष्टि का निर्माण करती है। जिसके कई रूप है। इसी को महामाया कहते है। जिसने उस सुप्त ऊर्जा को सक्रिय कर निराकार दुर्गा का निर्माण किया।

मानव असीमित शक्तियों से युक्त आधा ब्रह्म रूप धरकर जन्म लेता है। अपने कर्मो से वह अधिक या न्यून हो जाता है।

यही मानव अपनी संकल्प शक्ति और मन्त्रो के माध्यम से सभी शक्तियों को अपने अनुसार साकार रूप में भी प्रकट कर सकता है।

जिसमे कुछ साकार रूप जो सिद्ध हो चुके है। कुछ विद्याएं देव रूप धर चुके है।

आप तो बहुत बाद के युग मे है।

जैसे गायत्री विद्या निराकर थी पर मनुष्य ने मन्त्र रच कर उसे साकार कर दिया।

हर विद्या अपने को जीवित रखने का प्रयास करती है। जैसे यज्ञ विद्या की स्थापना हेतु दयानन्द आये। लुप्त गायत्री की स्थापना हेतु तपोनिष्ठ महापुरुष परम् पूजनीय श्री राम शर्मा आचार्य आये।

लुप्त होती शक्तिपात विद्या हेतु 200 साल पहले स्वामी विद्याधर तीर्थ जी आये। कुण्डलनी हेतु कबीर आये।

बस ऐसे ही सनातन जो मौलिक और वास्तविक ज्ञान चलता रहता है।

आज सनातन के प्रचार हेतु खुद पंचदेव मानवों को चुन रहे है।

नाम प्रकाश की ओर

लेखक महृषि कृष्णानन्द

आप अमर महृषि के शिषय थे जिन्होंने पुस्तक लिखी है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/03/blog-post.html?m=1

http://freedhyan.blogspot.com/2018/05/blog-post.html?m=0

कृपया अपनी मौत देखे।

कलियुग के परम आत्मा, अस करनी पे जेल।

राम पाल कुकर्म करै, नही मिलेगी बेल।।


गर होते परम् आत्मा, तोड़े जेल दिखाय।

मद पाये बौरात है, सत्ता से टकराय।।

यह दोहे कबीर अवतार दास विपुल ने लिखे है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/07/blog-post.html?m=0

सर आपने शक्तिपात दीक्षा के बारे में ब्लाग पर नहीं लिखा

ठीक है। लिख दूँगा।

लो अनिल लिख दिया।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_5.html?m=1

http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_86.html?m=0


मित्रों मैं आपको लिंक देता हूं आप स्वयं धर्म ग्रंथों को पढे और मुझे समझायें कि मैं सही हूं कि गलत।

कुरान का लिंक :

http://ummat-e-nabi.com/holy-quran-in-hindi/


बाइबिल का लिंक :

https://www.wordproject.org/bibles/in/


श्रीमदभगवद्गीता (कृष्ण)

https://www.hindisahityadarpan.in/2016/11/bhagwat-geeta-in-hindi.html


जैन :

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE


बौद्ध:

http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%8C%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE


बुद्ध को एक सभा में भाषण करना था । जब समय हो गया तो बुद्ध आए और बिना कुछ बोले ही वहाँ से चल गए । तकरीबन एक सौ पचास के करीब श्रोता थे । दूसरे दिन तकरीबन सौ लोग थे पर फिर उन्होंने ऐसा ही किया बिना बोले चले गए ।इस बार पचास कम हो गए ।


तीसरा दिन हुआ साठ के करीब लोग थे महामानव बुद्ध आए, इधर – उधर देखा और बिना कुछ कहे वापिस चले गए । चौथा दिन हुआ तो कुछ लोग और कम हो गए तब भी नहीं बोले । जब पांचवां दिन हुआ तो देखा सिर्फ़ चौदह लोग थे । महामानव बुद्ध उस दिन बोले और चौदोहों लोग उनके साथ हो गए ।


किसी ने महामानव बुद्ध को पूछा आपने चार दिन कुछ नहीं बोला । इसका क्या कारण था । तब बुद्ध ने कहा मुझे भीड़ नहीं काम करने वाले चाहिए थे । यहाँ वो ही टिक सकेगा जिसमें धैर्य हो । जिसमें धैर्य था वो रह गए।


केवल भीड़ ज्यादा होने से कोई धर्म नहीं फैलता है । समझने वाले चाहिए, तमाशा देखने वाले रोज इधर – उधर ताक-झाक करते है । समझने वाला धीरज रखता है । कई लोगों को दुनिया का तमाशा अच्छा लगता है । समझने वाला शायद एक हजार में एक ही हो ऐसा ही देखा जाता

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कुछ कहते हैं सत्य को पाना है

ये सत्य क्या है जिसको पाना चाहते हैं सत्य को उपलब्ध होना मतलब? ? ? ?


आत्म ज्ञानी होना

सत्य को पाना

ज्ञान प्राप्त होना

बुध्दत्व को उपलब्ध होना

मोक्ष मिल जाना

परमपद मिलना

क्या ये सब एक ही हैं या अलग अलग? ?

क्या सबकी सीमा अलग है ?

क्या मोक्ष के आगे भी कुछ है?

सत्य वह जो समय के साथ परिवर्तित न हो। असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये। यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य।

अब अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है।

अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदानन्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है।

यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा यह अनुभूति देता है।

जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है।

कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही।

मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान योग है। यही ज्ञान है।

दूसरे ईश का अंतिम स्वरूप निराकार ही है। वह निर्गुण ही है। यह अनुभव करना। साकार तो सिर्फ आनन्द हेतु जीवन मे रस हेतु आवश्यक है। मतलब दोनो क्या है यह समझ लेना। अनुभव के लेना ही अंतिम ज्ञान है। सिद्धियां तो बाई प्रॉडक्ट है और भटकाने के लिए होती है। यह हीरे जेवरात हमे भटकाने के लिए होते है। हमे यदि स्वतः हो जाये तो इन सिद्धियों का अनुभव ले कर इनको भूल जाना चाहियें। इसमें फंसना यानी गिरना। मुक्ति में बाधा।

यह ज्ञान प्राप्त करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।

अगर व्यवहार में न ला पायें

अनुभव में नहीं ला पायें

तो कितने भी शास्त्र पढो

चाहे सभी वेद और गीता  रट डालो  . सब व्यर्थ

अगर व्यवहार में लाने के लिए पढो तो गीता का केवल निष्काम कर्म ही काफी है ।

वेद का केवल यही एक वाक्य काफी है . . ईश्वर एक है वह सर्वशक्तिमान है

शास्त्रों के कुछ चुनिंदा शब्द ही काफी है जैसे भक्ति समर्पण आदि

मंत्रों में ॐ ही काफी है

प्राणायाम में कुंभक ही पर्याप्त है


योग में आत्मा में परमात्मा के अंश होने का अनुभव बहुत है

 व्यवहार में लाने की बात हो तो बहुत कम पढना ही पर्याप्त है

आज सुबह ही तो बताया था विपुल सर

मेरे गुरु तुलय विपुल जी को प्रणाम, इन्हीं की वजह से मैंने दीक्षा प्राप्त की तथा इनके बताएं रास्ते पर चलकर आगे जाना आसान हुआ। गायत्री मंत्र की बजाए गुरु का दिया मंत्र ज्यादा करना जरूरी है। इसी से आगे बढ़ सकते है।  विपुल जी को दिल से कोटि कोटि नमन।

विपुल सर बहुत गहरे हैं उन्हें समझने के लिए गहरे में जाना होगा

मित्र मैं साकार में क्या देखता हूँ। मूर्ति में क्या सोंचता हूँ। यह आप जान चुके है। आप धन्य है। मैं अभी तक नही जान पाया वो आप जानते है। आप महान है।

प्रभु मैं अज्ञानी मूर्ति में ही खुश। क्या करूँ अज्ञानता का सागर है मुझमे।

निराकार में क्या क्या किया या जाना यह भी आप जानते होंगे।

पर मैं साकार सगुण में ही आनन्द लेता हूँ। मुझे किंतने भी निराकार के अनुभव हो। मैं पुनः साकार में ही रहना चाहता हूँ। हा अंतिम समय मे निराकार धारण कर लूंगा। मुक्ति हेतु।

पर मैं यही जानता हूँ जो साकार से निराकार की यात्रा करता है उसी को पूर्ण व्यान मिल पाता है।

साधक भाइयों ,बहनों! मेरे द्वारा विपुल जी के खिलाफ की गई टिप्पणियों से निश्चित रूप से मैंने आपको ठेस पहुंचाई है। आप सब से मैं इसके लिए क्षमा मांगता हूं क्षमा प्रार्थी ।

हे प्रभु मुझे इतनी भी ऊँचाई न दे। मुझे मेरा साया भी दिखाई न दे।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

चक्र की स्थिति और चर्चा

चक्र की स्थिति और चर्चा 

 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

सर चक्र की स्थिति का कैसे पता करे कौनसा चक्र जाग्रत है ??

पीठ पर उस जगह पर गड्डेनुमा पड़ जाते है।

आपके ध्यान में कौन सा रंग प्रमुखता से है। आपकी क्रिया किस तरह की है।

जैसे शरीर उड़ना, हल्का लगना, आकार बड़ा होना लगना, इत्यादि क्रियाये।

मणिपुर चक्र जागरण के क्या लक्षण है और सहस्र  के क्या    लक्षण है किताबी ज्ञान    नहीं चलेगा

आपको पता है तो बताये।

तब फिर आप कैसे पता करेगे कि किताबी है या अनुभव??

आप जानकर भी क्या फायदा ले पाएंगे। क्या यह किताबी प्रश्न नही है।

आप बताने का कष्ट करें आपके अनुभव क्या है। जिसके आधार पर बात की जा सके।

वाह फिर अपने अनुभव लिखे।

मित्रो धर्मांतरण एक बेहद गम्भीर मुद्दा है। इसके लिए बंगलोर सहित दक्षिण भारत मे पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। उनकी स्टाइल और मार्केटिंग से कोई अछूता नही बच सकता। बच्चों के लिए महंगी कॉमिक्स बुक्स निशुल्क भेंट होती है  मेरे पास एक सैंपल है। जिसमे शुरू में कहानियां है हैं आगे जाते जाते यीशु से सब मिलता है तक खत्म होती है। यहाँ तक सिन यानी पाप क्या है उसमे लिखा है प्रभु यीशु को न मानना और उनकी बात न मानना पाप है।

ये कॉमिक्स हिंदी इंग्लिश और कन्नड़ सहित हर भाषाओं में बांटी जा रही है। मतलब एक पूरा बड़ा तंत्र काम कर रहा है।

मेरी बेटी पर ईसाई बनने और दामाद पर मुस्लिम बनने का प्रयास किया जा रहा है। महीने में औसतन 3 लोग सम्पर्क करते है।

पता नही धर्म क्या है यह जानते भी है। एक किताब के सहारे  और पैसे के बल पर यह अपनी संख्या भी बढाकर क्या प्राप्त कर लेंगे। विश्व के सभी लोग ईसाई या मुस्लिम हो जाये तो उससे क्या हो जाएगा। कितनी सभ्यता संस्कृति नष्ट हो जाएगी। अब  इन मूर्खो को कौन समझाए।

यह अनुभव जनित लेख है जो पुस्तको में न मिलेगा।

साधु साधु लेख हेतु।

       जब कोई भी मावन से कुंडली की शक्ति जागृत होती है तो उनका शरीर बिलकुल हलका सा फूल जैसा हरदिन रहता है. उनका शरीर स्फूर्तिमय रहता है और उनका शरीर बिलकुल निरोगी अवस्था मे आ जाते है. उनको किसीभी प्रकार का कोई टेन्शन मुक्त बिलकुल फ्रि  अवस्था मे उनकी मगज रहता है उनको शरीर मे किसीभी प्रकार का थकान का अनुभव कभी नहीं होता ये सभी प्रकार से उनका शरीर जरा-व्याधि से मुक्त होकर निरोगी होता है.

            कोईभी मानव कि कुंडली की शक्ति का जागरण से उनको खुद वो आत्मज्ञानी अवश्य बन जाता है. सत्य क्यां है, असत्य क्यां है वो बात का उनको ज्ञान अवश्य आ जाते है वो खुद आत्मज्ञानी बन जाता है. उनके पुरे शरीर का विज्ञान यै प्रकृति का विज्ञान ये सृष्टि सर्जन का विज्ञान ये सातेय तत्वो का विज्ञान ये सभी विज्ञान का उनको ज्ञान अवश्य होता है. ईसिमे कोई शक नही है ये पुरी सृष्टि का सर्जन का वो ज्ञानी बन जाता है उनका शरीर शक्तिमय बनता है.

          लेकिन जो मानवो बात करते है कि कुंडली जागरण होने के बाद वो मावन सभी प्रकार का काम करते है कोई काम ऐसा नही होता जो कुंडली जागरण वाला नही कर शकता. ये सभी सुनी सूनाई बात है ये सभी गलत बात है अगर ऐसा होता तो महाभारत का युद्ध कभी नही होता, राम रावण का युद्ध कभी नही होता. ये जो अभी वर्तमान मे भारत -पाकिस्तान की तंगदिली युद्ध की है वो कभी नही होती और आतंकवादी यो भी नही होता ये सब अज्ञानी लोगो ने कुंडली के बारे मे अपना खुदका नाम का प्रभाव डाल ने के लिए ये सभी बाते करते गये है. वो सत्य नहीं है, ईसिलिए जो मानव को कहता हु़्ं की शास्त्रो को पठन मत करो. शास्त्रो की बातो पर विश्वास मत करो वो एक कविओ का लिखा हुवा कीव्यो है. शास्त्रो मे कही भी असलियत नहीं है....

         कुंडली की जागरण से मानव खुद कल्याण कारी बन जाता है. उनका सामान्य छोटा -मोटा काम अवश्य होता है वो दुसरे का चहेरा का पढन करने लगता है और सेवको का सामान्य जो काम होता है वो अवश्य करते है. लेकिन जो कुंडली नी के बारे मे मानवो मे एक बहुत बडी अफवा है वो बिलकुल गलत है. जो अफवा होती है वो एक हवा की लहेर की तरह अफवा ही होती है.......

            कुंडली जागरण वाले मानव उनके सेवको का जो छोटा छोटा काम करते है वो कुंडली शक्ति से नहीं होता वो सभी काम संकल्प शक्ति से होता है. ईसि के लिए संकल्प साधना करनी पडती है और संकल्प साधना के साथ त्राटक की भी साधना करनी पडती है. तभी छोटा छोटा काम होता है. कुंडली शक्ति से ये काम कभी नही हो शकता ये मेरा खुद का अनुभव है. यहां तक का मेरा अनुभव है जो मेने आपको सत्य राह के लिए बताया है. कोइभी प्रकार की अंधश्रध्धा रुपी गलत फेमी मे कोई मानव फसे नही ईसिलिए मेने मेरा अनुभव को शब्दोंमे अंकित किया है ये अनुभव को अंकित करने मे मेरा कोई दुसरा स्वार्थ नही है.

           कुंडली की शक्ति से मानव की मानसिकता मे कभी भी बदलाव नही ला शकते ईसिके लिए आत्मबळ-मनोबळ और संकल्प बळ ये तीनो द्रढ और मजबूत साधना के मारफत करना पडता है तभी ये छोटा छोटा काम होता है लेकिन संत कभी ये काम करने वाले बातो मे कभी नही पडेगा क्युं की ये प्रकृति सर्जन कर्मो के आधिन रखा गया है. ईसिलिए प्रकृति कू खिलाफ कभी कोई संत नही जायेगा ऐसे काम के लिए सभी को ना ही बोल देते हैं और संत कभी ये कामो करते नही.

         कुंडली की जागरण मे सातेय तत्वो ही काम करते है लेकिन मानव को सिधि-सरल-सादी भाषा मे समज मे आ जावे ईसिलिए तत्वो की बात ज्यादा किया नही है...........


       ----गगनगीरीजी महाराज


कुंडली की शक्ति क्यां चीज है और कुंडली की शक्ति ये शरीर मे किस तरीके से जागृत होती है ये शरीर का विज्ञान मे आपको बता रहा हुं. मेरा जहा तक का अनुभव है वो मे आपको बता रहा हुं लेकिन जो भी बताउंगा ये बिलकुल सत्य निर्विवाद-सनातन ही है. आध्यात्मिक क्षेत्र मे अनुभव जो होता है वो सभी मानव को एक ही प्रकार का अनुभव होता है ईसिलिए ये बात गलत नही है अगर किसीको गलत लगे तो एक नवलकथा समज कर फेंक देना.

ये मानव शरीर मशीन के मारफत से योगक्रिया का सहारा लेकर जब मानव ध्यान लगता है और प्राणायाम का माध्यम से जब मानव अपनी श्वास लेने की और श्वास छोड़ ने की लंबाई एक मिनट तक पहोचते है तभी ये शरीर मे बिलकुल शून्यवकाश का सर्जन होता है. पुरा शरीर जडत्व अवस्था मे आ जाते है ईसी समय मस्तक मे शून्यवकाश हो जाता है .


{शून्यवकाश का प्रकृति का नियम ऐसा है की जहां भी शून्यवकाश होता है वहां चारो तरफ से वायुं का शून्यवकाश परफ आकर्षण लगता है और एक विनाशक वंटोळ के रुप मे परिवर्तन हो जाता है ये शून्यवकाश का नियम है }


जब शरीर मे शून्यवकाश होता है तो उनकी तरफ वो चारो तरफ़ से वायुं का खेंचाण करेगे लेकिन शरीर मे शून्यवकाश की परिस्थिति के हिसाब से वहां वायुं होता नही और मस्तक मे कही चारो तरफ़ से वायुं आवन जावन कर शके ऐसी भी द्वार कही नही है. ईसिलिए मेरुदंड जो है वो मस्तक से जुडा हुवा है और मेरुंदंड का दुसरा छेडा जो है वो विर्य की कोथळी के साथ जूडा हुवा है और विर्य की कोथळी जो है वो ईन्द्रीयो से जुडी हुई है. मस्तक मे जो शून्यवकाश की गति मेरुंदंड मे से खिचेंगी और मेरुंदंड सिधा विर्य की कोथळी मे से आकर्षण करेगी जब वहां आकर्षण होता है तो उसी स्थान पर बहुत प्रमाण मे गरमी पेदा हो जाती है वो गरमी प्राणायाम के माध्यम से ही होती है ईसिलिए वो गरमी के हिसाब से विर्य मे गरमी पेदा होती हैं और उसी मे एक बाष्पीभवन की क्रिया होती है जो बाष्पीभवन से सफेद वराळ वायुं के रुप मे उठकर वो वायुं राउन्ड मे घुमाव लेते लेते मेरुंदंड मेसे उपर मस्तक की ओर चढने लगेगे ओर जब वो मस्तक मे वायुं एकठा होता है वहां एक प्रकार का दबाव पेदा हो जाता है और पुरे मस्तक मे ये वायुं फैल जाता है. जो वायुं का अनुभव ठंडी लहेर जैसा होने लगता है. और वो भी ठंडी लहेर जैसा जो अनुभव होने लगता है वो ही चेतना के रुप मे प्रगट हो जाता है और पुरे मस्तक मे से शरीर मे चेतना फैल जाती है और पुरा शरीर स्फूर्तिमय -आनंदमय का अनुभव करने लगता है पुरा शरीर एक हलका सा फूल जैसा बन गया है ऐसा मानव को अनुभव होता है वो जो चेतना पुरे शरीर मे फैलती है वो चेतना को प्राणायाम जारी रखने के बाद पुरी चेतना शरीर मे से फिर उपर मस्तक की ओर चढने लगती है और मस्तक मे जब पुरी चेतना एकठी हो जाती है तब दस मे द्वार पे दबाण आ जाते है और वहां दबाण आने से एक बहुत बड़ा प्रकाश ललाट पर दिखाई देता है वो प्रकाश सुर्य से भी बहुत गुना तेज उसी मे होता है जो चेतना एकठी होती है वो ही उर्जा के रुप मे प्रकाश मे परिवर्तन हो जाता है येही क्रिया को कुंडली की शक्ति के नाम से जाना जाता है. ईसिमे शरीर का ही बहुत गहरा विज्ञान काम करता है. अब वो कुंडली की शक्ति क्यां काम करती है और कौन से तरीके से काम करती है ये मे आप को तीसरे भाग मे बताउंगा.

ये जो विर्य का ओजस मे रुपांतरण होकर उध्वगमन होता है ईसिमे ही सातेय तत्वो काम करते है और वो ही उध्वगमन जो होता है ईसिमे ही कुंडली के नाम से जाना जाता है. जो गोळ गोळ वायुं घुमता है ईसिलिए उनका नाम कुंडली नी रखा है ये गोळ गोळ घूमने का शरीर में अनुभव होता है.


------गगनगीरीजी महाराज


कुंडली की शक्ति को अलग- अलग नाम से सब जानते है मात्र लेकिन कुंडली की शक्ति क्यां चीज है उनको कुंडली क्युं कहा गया है वो कुंडली की शक्ति जागृत होने के बाद क्या काम करती है और कुंडली की शक्ति का अनुभव कैसे किया जाता है और जो शास्त्रो मे पुस्तकों में जो कुंडली की शक्ति की बात किया है वो कितनी सत्यता के आधार पर है सभी ने सुनी-सुनाई-पढाई बात पर ज्यादा भार दे दिया है किसीने अनुभव किया नही है और जिसने कुंडली की शक्ति का अनुभव किया है उसीने कहा बकवास नहि किया वो तो अपने भक्तिमय जीवन मे ही मशगुल हो गये हैं. कुंडली की शक्ति के बारे मे आजकल बहुत ही लेक्चर दिया जाता है कही कही तो कुंडली की शक्ति को जागृत करने का क्लासिस फी लेकर चलाते है और कहि तो अनपढ कविओ ने कुंडली की शक्ति जागृत होने के बारे मे बहुत कुछ लिख दिया है. कंई लोगो ने तो कुंडली की शक्ति को सर्पिणी की नाम से भी उल्लेख किया है. कुंडली की शक्ति के बारे मे जो भी कुछ मानव ने सूना है पढा है, पढा है, लिखा है, ईसिमे 20% ही सत्यता के आधार मुजे मिला है. बाकी सभी ने अपना नाम रखने के लिये 70 टका मिलावट कर कर बहुत बड़ी बडी बाते करदिया है. वो लेकिन कोइभी मानव जब ये कुंडली की शक्ति का अनुभव करते है तब उनको मालुम होता है. की असली सत्यबात क्यां है. असली अनुभव क्यां है, सही मे कुंडली की शक्ति की कीतनी ताकात है और उनसे कौन सा कौन सा काम मानव करवा शकते है ,जबतक मानव को अपने शरीर का विज्ञान का ज्ञान और अनुभव नही होता तबतक मानव सुनी सुनाई -पढी-लीखी बातो पर ही विश्वास करने लगता है क्युं की उसीके बारे मे उनको सिर्फ ईतना ही ज्ञान होता है कि सब लोग ये बात करते आये हैं बस वो ईतना ही जानता है और ये ही बात पर मानव विश्वास करने लगता है अनुभव करने के बाद कोईभी बात पर विश्वास करना चाहिए ये कुंडली की शक्ति के बारे मे सही क्यां है वो मे दुसरा भाग मे बताउंगा.....


---गगनगीरीजी महाराज

Vipul Sen: जैसे मुझे लगता है। शक्ति दो प्रकार की। एक वाह्यय मार्ग से बढ़ती है। जो बिना गुरु के भी यदि शक्ति मन्त्र किया जाए वो भी शक्ति मन्त्र तो जागृत होकर ऊपर उठकर अहम ब्रह्मासमी की अनुभूतिया इत्यादि देती है। इसी के साथ कुण्डलनी भी जग जाती है।

वाहीक शक्ति को ब्रम्ह शक्ति जो सर्व व्यापी है यही आंतरिक रूप लेकर कुण्डलनी कहलाती है।

जिस प्रकार पानी के टब में गुब्बारे में पानी भरकर बांध कर छोड़ दो। अब पानी तो अंदर बाहर दोनो है पर एक दूसरे का सम्पर्क नही। अब यदि ऊपर से गुब्बारे में छेद कर दो नीचे का बंधन भी खोल दो और दाब के साथ पानी डालो तो गुब्बारे केआकर वैसा ही बना रहेगा पर पानी नीचे से आकर ऊपर निकल कर टब के पानी मे मिल जाएगा।

कुछ ऐसा ही हमारी शक्ति और वाहीक शक्ति का खेल है। हमारी कुण्डलनी जागकर जब ऊपर जाकर सहस्त्रसार में मिलती है तो शरीर का चक्कर पूरा होता है। उसी के साथ वाहीक शक्ति भी बढ़ने लगती है।योगी ऊपर के छिद्र से अपने प्राण त्याग कर उस ब्रह्म शक्ति में लीन हो जाता है जो निर्वाण है का एक पद है।

यदि मनुष्य निराकार प्राप्त होकर प्राण त्यागेगा तो उसे निर्वाण या मोक्ष मिलेगा। यदि साकार होकर प्राण त्यागेगा तो परमपद या उसी देव के लोक में जागेगा।

जिसकी शक्ति जागृत हो गई उसके लिए स्वर्ग तो निश्चित हो ही गया।

कुंडलनी को सर्पिणी इसी लिए कहते है क्योंकि यह सर्प की तरह कुंडली मारकर अपनी काल्पनिक  पूछ को मुख में लेकर शांतरूप में मूलाधार के कन्द में सोती रहती है। कुण्डलनी जागृत होने पर आत्म गुरु या अल्लह की बोली या गाड वाइस भी जग जाती है। जो तमाम गुत्थियों को सुलझा देती है।

पर योग का खुमार उतरने के बाद कुछ समय बाद मन गुरु भी जग जाता है जिसे शैतान की बोली डेविल्स वाइस कहते है। प्रायः मनुष्य इसी मनगुरु की बात को आत्म गुरु मॉनकर कर्म करने लगता है और फिर वह भटक जाता है।

इसके लिए स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज ने कहा है कि जब तक कोई बात स्पष्ट न सुनाई दे या दिखाई दे। इसको मन की चालबाजियां ही मानो।

एक बात और केवल हठ योग मार्ग या पातञ्जलि योग अष्टांग योग मार्ग से ही कुण्डलनी जागृत नही होती है। इसके जागरण का सबसे आसान मार्ग है प्रभु भक्ति यानी मन्त्र जप नाम जप। सतत सहज निरन्तर। ये सब दे देता है। पर भक्ति को इसन सब को जानने की आवश्यकता ही नही। उसे सब सहज मिल जाता है। सूर तुलसी मीरा की कुण्डलनी क्या नही जागृत हुई होगी। पर उनको सिर्फ प्रभु स्मरण से ही मतलब। और सही बात भी जो आनन्द प्रभु भक्ति में है वह किसी जागरण इत्यादि में नहीं।

वास्तव में कबीरदास ने योग शास्त्र को पुनर्स्थापित किया था। उन्होंने साकार से यात्रा आरम्भ कर निराकार का ज्ञान प्राप्त किया और निराकार में स्थिर हो गए। जीज समय भक्ति योग चरम पर था। लोग हठ योग या अष्टांग को भूलने लगे। तब कबीर दास ने इन मार्गो को पुनर्जीवित कर इनकी स्थापना की।

फिर कवि होना सौभाग्य है  मनुष्य होना भाग्य। कवि शब्दो को ढूढते हुए अपनी आत्मा के नजदीक पहुंचने लगता है। अतः कवि का योगी होना औरो की तुलना में सरल और सहज होता है।

यह सब आपकी सोंच और कर्म के फलित लोक है।

यदि स्वतः कुण्डलनी जागरण या देव दर्शन होती है। तो यह तब ही होता है जब आपके पाप कर्म नष्ट हो गए हो।

आप सारे लेंन देंन बन्धनो से मुक्त हो चुके हो।

वही गुरु प्रददत कुण्डलनी साधन से आपके संस्कार नष्ट होते है।

क्रिया द्वारा।

यानी दूसरे से लेन देंन नही पर अपने कर्मफल तो भोगने की क्रिया आरम्भ।

यह तो सभी ने कहा। कुण्डलनी पर कबीर ने बहुत लिखा है।

जैसे

काहे नलिनी तू कुम्हालानी, तेरे नाल सरोवर पानी।


अष्ट कमल का चरखा बनाया, पांच तत्व की पूनी।

नौ दस माह बुनन में लागे।

मूरख मैली कीन्ही। चदरिया भीनी रे भीनी।

जब क्रिया होना बंद हो जाये। मन निर्विकार हो जाये।


धज्जियाँ का मतलब कुछ भोले भाले लोगो को मूर्ख बना लिया। आम जनता को कुछ पता नही उनको बरगला लिया। अंधो में काने राजा बनकर।

सनातन ने जो दिया वह तुम नही समझ सकते। ओशो जैसे पापियों को तथा सभी धर्मों को समझने की ताकत दी।

आपको क्या लगता है कोई सामान्य व्यक्ति बिना सनातन अनुभव के किसी सन्त को परख सकता है व्याख्या कर सकता है। मित्र पूवाग्रह से बाहर निकलो। तुम नही समझ सकते कि ओशो ने भी ऐसा क्यो किया था। मेरे पास व्याख्या भी है प्रमाण भी है।

मानो मत किसी को जानो। अनुभव करो तब समझ मे आयेगा। सत्य क्या है।

आपको क्या लगता है। जीवन के 58 वर्ष बीतने के बाद एक वैज्ञानिक को इंजीनियर को क्या पड़ी है जो ओशो की मीमांसा करे। कोई भी विराट कारण होगा। एक कवि अपनी शोहरत और दौलत को दांव पर लगाकर सनातन के द्वारा धर्मो को परखे और सन्तो को जाने। कोई तो ठोस करण  होगा। इस विज्ञान के परे।

सत्य है पर एक बात तय है बिना प्रणायाम के आप सूक्ष्म शरीर की यात्रा नही कर सकते। नासिका का खुला होना। नासिका नली का अवरूद्ध होना मौत को दावत दी सकता है।

गुरु प्रददत साधन आसन पर बैठ कर शक्ति और गुरु को प्रणाम कर। आप क्रिया योग से मन्त्र जप करे। केवल एक हफ्ता बहुत है। बस क्रिया एक बार में 22 बार से अधिक न करे।

सर्व प्रथम गणेश को प्रणाम। फिर इष्ट को। फिर शक्ति को। फिर गुरु नमन ।करे।

तो क्या क्रिया का होना पाप पुण्य पर निर्भर करता है सरजी?

नही संस्कारो पर।

संस्कार क्या होते हैं सर जी?

क्या जो पाप या पुण्य किया जाता है उनका चित्त पर गहरा असर पड़ना संस्कार कहलाते हैं?

जी।

धन्यवाद विपुल सर

*वैदिक हिलींग उपचार*

*ध्यान प्रक्रिया*

रात के समय या फिर ब्रम्हमुहूर्त में जब बाताबरण शान्त हो तब एक आसान पे बैठ जाएं या फिर सीधे लेट जाएं (सवासन) । अपने शरीर को पूरा हल्का छोड़ दें और ढीला कर दें । इस दौरान हल्का भोजन करें ज्यादा भारी भोजन करने के बाद ये क्रिया करने से उल्टी आ सकती है ।

अब अपनी स्वास की गति पे ध्यान करें कि स्वांस कैसे अंदर जा रही है और फिर बाहर निकल रही है । इस दौरान महसूस करें कि अपने नाक के जरिये स्वांस अंदर जा कर फेडों तक पहुंच रही है और फिर फेपडों से होकर नाक के माध्यम से बाहर निकल रही है ।


ध्यान रखें कोई भी मंत्र का जाप नही करना है इस दौरान । शिर्फ़ स्वांस की गति पे ध्यान केंद्रित करे  और सब कुछ भुल जाएं कोई चिंता नही कोई तनाब नही ।


इस दौरान आप महसूश करोगे की स्वांस की गति धीमी हो रही है और लंबा चल रहा है यानी कि गहरा स्वांस लेना और छोड़ना अपने आप होगा बिना किसी दवाब के । ये अपने आप होगा शारीरिक प्रक्रिया ।


अब इसी के ऊपर ध्यान करते रहें धीरे धीरे आपको अपने दिल की धड़कन सुनाई देगी अपने कानों में । इसको सुनते रहें 5 से 10 मिनट तक । जब साफ साफ सुनाई देने लगे तो एक धड़कन के साथ ये महशुस करें कि दिल से *नमः शिवाय* की धुन निकल रही है *होठों से नही* मुँह होठ जुबान सब कुछ अपने जगह शांत होगा कोई हलचल नही होगी ये सब में ।


हर धड़कन के साथ *नमः शिवाय* की आवाज़ निकलेगी । समय के साथ आपको दिल की धड़कन की जगह शिर्फ़ और शिर्फ़ यही सुनाई देगा ।


इस बात पे गौर करें कि ये नमः शिवाय की धुन अपनी दिल की आवाज़ है ।


यही है ध्यान और समाधि । इसके दौरान नींद भी लग सकती है तो कोई दिक्कत नही, सोजाएं । ये क्रिया ज्यादातर रात में bed पर करना सही रहता है ।


जब आप लोग ये क्रिया करोगे तो एक हफ्ते के अंदर बहत कुछ बदलाब होने लगेगा । काफी सारे सपने आने शुरू हो जाएंगे । और इसके साथ आप एक साधक की श्रेणी से उठ कर ये योगी के श्रेणी में प्रवेश कर जायेगें ।


योगीक जीवन का सफ़र शुरू हो जाएगा । अपने अंदर शिव तत्व घटित होने लगेगा और दिन भर एक अद्भुत ऊर्जा की महसूश होगी ।


जैसे जैसे अभ्यास बढ़ती जाएगी फिर अपने अंदर की चक्रों का दर्शन भी होना चालू हो जाएगा । और इसके साथ अपने अंदर शिव का निराकार स्वरूप ( एक काफी ऊर्जा बान ज्योति  के दर्शन भी होंगे ये आपकी आत्मा है या फिर आत्म ज्योति कहें ) ये सारी उन्ही की कृपा है बाबा नीलकंठ चन्द्रचूड़ की महिमा है ।


ये क्रिया ज्यादा मात्रा में करने से साधक को ये महसूश होगा जैसे कि वो हर पल एक नशे में हो और ये नशा उसके चेहरे से साफ झलकेगी । यही है शिव तत्व की नशा और शिव की नशा । लेकिन ध्यान रखें जितना जितना आप शिव की और अग्रसर होते जाएंगे

उतना ही वैराग्य की भावना अघोर की में बहते जाएंगे वैराग्य क्या है अघोर क्या है इसका आभास आप महसूस करेंगे

शिव ॐ

भाई कुछ भी मत लिखो। ध्यान है यह समाधि नही। यह विशपश्यना या श्वासोश्वास विधि है लेट कर। कृपया अधकचरा ज्ञान न दे।

योग पर लिखा लेख पढ़ने का कष्ट करें।

मित्रो ग्रुप फिर बहक रहा है। मेरा एक निवेदन और ग्रुप का नियम है।

1. यथासम्भव अपने अनुभव पर आधारित बात चीत करे।

2 कट पेस्ट बिल्कुल न करे।

3 किसी धर्म विशेष पर व्यंग्य न करे।

4 लम्बे लेखों का url पोस्ट कर दे। लम्बे लेख शायद ही कोई पढ़ता होगा।

5 जब तक मालूम न हो किसी अनुभव का निष्कर्ष न निकाले।

ये ध्यान करने की एक विधि है। इसे समाधि नही कहा जा सकता।

यह पोस्ट करना मजबूरी है।

 सही बात है। मन्दिरो में पैसो की लूट और अनाप शनाप चढ़ावा देखकर लोगो की श्रद्धा कम हो जाती है।

अब आप देखे mmstm जैसी पद्दति जिसमे कोई पैसा खर्च नही। कही जाना नही। सिर्फ घर पर करो। इसके शक्ति का अनुभव होता है। पर लोग वह भी नही करना चाहते।

बस बटन दबाया समाधि योग और ईश मिल जाये।

कुछ करनी कुछ कर्मगत कुछ पूर्व जन्म के पाप।


क्या पोस्ट करने की इतनी चाहत है कि दूसरे का माल अपने नाम से डालोगे। बेहतर है हेडिंग लिखकर लिंक दे दिया करो।

नही दूसरे का माल अपने नाम से डालने की जरूरत नही है और न ही पोस्ट डालने इतनी अधिक चाहत। मुझे ये किसी दूसरे ग्रुप मे मिला था और मैने पढ़ा और मुझे अच्छा लगा इसलिए यहाँ पर भी दे दिया।

नेट से नही लिया , नही तो लिंक ही दे देता सरजी

क्या है यदि कट पेस्ट की अनुमति दी तो किन किन को रोक पायेगे। सभी अपनी भड़ास निकालेंगे। अतः यह रुकावट आवश्यक है। दूसरे ग्रुप में पोस्ट करे।

सर ये सल्लेखना समाधी (जैन धर्म)  क्या होती है

यही मै भी जानना चाहता हू।


जैन मुनि तरुण सागर अपने गुरू की अनुमति से सल्लेखना समाधि ले रहे हैं।

जो संथारा नही सीधे सीधे चिर समाधि हो।

सभी से विनम्र निवेदन है कि भगवान श्री कृष्ण के बारे में उल्टे सीधे मेसेज और कोई भी गलत फोटो पोस्ट कर के भगवान का अपमान न करे l

अगर किसी का ऐसा मेसेज आये तो भेजने- वालेसे अपना विरोध भी जताये और उसको फोरवर्ड भी ना करे।

ये बात सभी ग्रुप में डाले और भगवान का सम्मान करें !!

*जय श्री कृष्ण*

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

सोंचो देश के लिये। देश है तो हम

सोंचो देश के लिये। देश है तो हम

कवि : विपुल लखनवी, मुम्बई MOB : 09969680093

अरे सीकुलर अब तो सोचो, भविष्य देश का कैसा है। 

क्या इंतजार देश बर्बादी, या आई एस के जैसा है॥ 

उल्टे सीधे तर्क हो देते, क्या आत्मा सोई है। 

जब भी ऐसी घटना होती, भारतमाता रोई है॥ 

 

 

पर तुम कुछ भी नहीं सुनोगे, चाहे कुछ भी हो जाये। 

आंख बन्द सोते रह जाओ, चाहे देश ही लुट जाये॥ 

जिस तेरी आबरू बिकेगी, सरेआम बाजारों में। 

नहीं रहेगा उस दिन कोई, आसूं पोछे यारों में॥ 

 

 

यह इतिहास पुन: दोहराता, भारत कैसा टूटा था। 

अफगां, बर्मा, स्याम सहित पाक ने हमको लूटा था॥ 

तब भी तुम बस तर्क थे करते, अपने धर्म को बेचा था।

बहनें कर दीं मुगल हवाले, पैसा भी कुछ खींचा था।। 

 

 

आज वही हमको दिखता है, भारत फिर लुट जायेगा। 

चन्द स्वार्थी नेता बनकर, सद् राह कौन दिखायेगा॥

यह सच है हम बंटे हुये हैं ऊंच नीच अभिशाप यहां। 

पर हम अपने भारतवासी, एक रक्त का बीज जहां॥ 

 

 

तर्क कुतर्क हम कर सकते हैं जब तक हिन्दू बडॆ रहेगें।

जिस दिन यह छोटे होगें, तर्क कुतर्क फिर नहीं बचेगें॥ 

तलवारों का जोर बहुत है, यह इतिहास बताता है।

क्रूर हमेशा क्रूर रहेंगें दुख का गीत सुनाता है॥ 

 

 

क्या आई.एस. से कुछ न सीखा, या मेनन के जलसे से। 

खुले आम जो राष्ट्र विरोधी, गतिविधियां न हलके से॥ 

निजी स्वार्थ से उठकर सोचों, बडा देश से क्या होगा। 

इसे बचाओ भविष्य की सोचो, खडा देश फिर क्या होगा॥ 

 

 

एक विनय मैं यह करता हूं, देश मेरा यह अखंड रहे। 

मेरे अपने भाई जो भी, सोंचे समझे प्रचंड रहे॥

आओ हमसब करें प्रतिज्ञा, देश को अपने बचाना है। 

जो रूठे नासमझ हैं बन्धु, उनको विपुल समझाना है॥.

 

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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भ्रम

 भ्रम

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि

भ्रम दो प्रकार के होते हैं – अनादिभ्रम तथा आदिभ्रम ।


१. अनादिभ्रम : ‘मैं ब्रम्ह से भिन्न हूं’ ऐसा लगना ।

२. आदिभ्रम : ‘यदि मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं, तो मुझे वैसी अनुभूति क्यों नहीं होती ?’

ये भ्रम कैसे नष्ट होते हैं ?


बुदि्ध द्वारा अनादिभ्रम नष्ट होता है ।

परंतु आदिभ्रम नष्ट होने के लिए गुरुकृपा होना ही आवश्यक है ।

संत प.पू. काणे महाराज जी के शब्दों में !


१. ‘बुध्दि द्वारा निर्गुण का ज्ञान होता है एवं प्रीति (निरपेक्ष प्रेम) द्वारा सगुण का । अर्थात यह बुध्दि शास्त्राभ्यास द्वारा प्राप्त हुई बुध्दिका सूक्ष्मत्व है । इस बुध्दिद्वारा अनादिभ्रम नष्ट होता है ।

२. प्रत्येक जीव को जीवदशाके आरंभ से ही ‘मैं ब्रम्ह से भिन्न हूं’ ऐसा भ्रम (विपरीत ज्ञान, गलत धारणा) होता है । इसे अनादिभ्रम की संज्ञा दी गई है ।

३. आगे शास्त्राभ्यास करने पर बुध्दिद्वारा समझ में आता है की ‘ मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं हूं’ परंतु फिर यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ‘ यदि मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं, तो मुझे वैसी अनुभूति क्यों नहीं होती ?’ इस भ्रम का ‘उद्भव’ होने के कारण, इसे आदिभ्रम की संज्ञा दी है ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, महाराष्ट्र


आदिभ्रम श्री गुरुकृपा से ही नष्ट होना !


१. ‘आदिभ्रम श्री गुरुकृपा से ही नष्ट होता है ।


२. गुरु के प्रति प्रेम को सत्संग द्वारा निर्मित सगुण के प्रति प्रेम एवं सगुण के प्रति भक्ति का स्पर्श होने पर अर्थात श्री गुरुकृपा से, प्रेम का प्रीति में (निरपेक्ष प्रेम में) रूपांतर होने पर, सगुण का आकार ही नष्ट हो जाता है ।


३. अतएव सापेक्ष ज्ञान द्वारा उत्पन्न यह धारणा भी नष्ट हो जाती है कि सगुण अर्थात साकार एवं निर्गुण अर्थात निराकार । सापेक्ष ज्ञान की परिणति निरपेक्ष ज्ञान में हो जाने के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, ये भेद नहीं रह जाते ।


४. यदि सापेक्ष ज्ञान खरा होता, तो उसका भान नष्ट होता ही नहीं । इस सापेक्ष ज्ञान का भान, अर्थात प्रत्यय ही आदिभ्रम है ।


५. सगुण भक्ति आरंभ होने पर, जब साक्षात सगुण साक्षात्कार होता है, उसी क्षण निर्गुण का (बुदि्धजन्य) ज्ञान नष्ट हो जाता है एवं ‘मैं ब्रह्म हूं’ की अनुभूति होती है ।


६. इसीलिए सर्व संतों ने निर्गुण को वाच्यांश एवं सगुण को लक्ष्यांश माना है ।


७. वाच्यांश अर्थात् वाचा से (वाणी से) बोला जानेवाला विषय, जबकि लक्ष्यांश यानी जिसकी प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना है, उस लक्ष्य का अर्थात ईश्वर का अंश ।


८. सत्संग प्राप्त न होने के कारण विद्वानों को इस बात का विश्वास नहीं होता ।


९. संत तुकाराम महाराज के अभंगों (संत तुकाराम महाराजजी द्वारा रचित भावपूर्ण भजन) की पोथियां डुबोनेवाला रामेश्वर भट्ट उन्हीं की कृपा से पूर्णत्व को प्राप्त हुआ

गुरुकृपा किस प्रकार कार्य करती है ?

जब कोई कार्य हो रहा हो, तब उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह उसमें कार्यरत विविध घटकों पर निर्भर होता है । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक सामर्थ्यवान होता है, जैसे अणुबम से अधिक प्रभावशाली परमाणुबम होता है । इस सिद्धांत का यहां पर उपयोग किया गया है । यह मुद्दा शत्रु के नाश के उदाहरण से स्पष्ट होगा । आगे दिए विविध प्रकारों से शत्रु का नाश किया जा सकता है । ये चरण वर्धमान (असेंडिंग आर्डर) महत्त्वानुसार क्रमबद्ध किए गए हैं ।


१. पंचभौतिक (स्थूल)


        शत्रु कहां है, यह पंचज्ञानेंद्रियों द्वारा ज्ञात होने पर, उदा. उसके दिखाई देने पर अथवा उसकी गतिविधि की जानकारी होने पर उसे बंदूक की गोली द्वारा मारा जा सकता है । यदि वह थोडी-सी भी हलचल न कर किसी आवरण के पीछे छुप जाए और दिखाई न दे, तब ऐसी सि्थति में बंदूकधारी उसे नहीं मार पाएगा । यहां पर मारने के लिए केवल स्थूल शस्त्र का प्रयोग किया गया है । विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न स्थूल वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, उदा. रोग के कीटाणुओं को मारने हेतु औषधि इत्यादि । केवल स्थूल द्वारा काम न बने, तब अगले चरण में बताई गई सूक्ष्म की जोड अत्यंत आवश्यक है ।


२. पंचभौतिक (स्थूल) व मंत्र (सूक्ष्म) एक साथ


        पूर्वकाल में मंत्रोच्चारण करते हुए धनुष से बाण छोडते थे । मंत्र द्वारा बाण पर शत्रु का नाम अंकित हो जाता था एवं वह किसी भी आवरण के पीछे क्यों न हो अथवा त्रिलोक में कहीं भी छुपा हुआ हो, तब भी बाण उसका वध करने में सक्षम होता था । यहां स्थूल अस्त्र को (बाण को) सूक्ष्म की (मंत्र की) जोड दी गई है । आयुर्वेद में मंत्र का उच्चारण करते हुए औषधि बनाने का यही उद्देश्य है । उसी प्रकार भूत उतारने में मंत्र के साथ काली उड़द, बिब्बा, लाल मिर्च, नींबू, सुई इत्यादि वस्तुओं का प्रयोग करते हैं । कभी-कभी स्थूल एवं सूक्ष्म के एकत्र होने पर भी कार्य संपन्न नहीं होता; ऐसे में अगले चरणानुसार सूक्ष्मतर, यानी अधिक शक्तिशाली मंत्र का प्रयोग करना पडता है ।


३. मंत्र (सूक्ष्मतर)


        अगले चरण में बंदूक, धनुष-बाण इत्यादि स्थूल अस्त्र बिना ही, केवल विशिष्ट मंत्रद्वारा शत्रु का नाश किया जा सकता है । विभिन्न कार्यों को साध्य करने हेतु, उदा. विवाह, धनप्राप्ती इत्यादि हेतु विभिन्न मंत्र हैं । कभी-कभी मंत्र द्वारा भी कार्य नहीं होता है । ऐसे समय अगले चरण का प्रयोग करना पड़ता है ।


४. संकल्प (सूक्ष्मतम)


        ‘अमुक कार्य संपन्न हो’ केवल यह विचार किसी (आध्यात्मिक दृष्टि से) उन्नत पुरुष के मन में आते ही, वह कार्य संपन्न हो जाता है । इसके अलावा उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती । ८०% से अधिक स्तर के उन्नत पुरुष द्वारा ही यह संभव है । ‘शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो’, ऐसा संकल्प गुरु के मन में आने पर ही शिष्य की खरी प्रगति होती है । इसी को गुरुकृपा कहते हैं । अन्यथा शिष्य की उन्नति नहीं होती । उसका आदिभ्रम नष्ट नहीं होता ।


४ अ. संकल्प कैसे कार्य करता है ? : संकल्प द्वारा कार्य सिद्ध होने हेतु कम से कम ६०% आध्यात्मिक स्तर आवश्यक है । (सामान्य व्यक्ति का स्तर २०% एवं मोक्ष अर्थात १००%) संकल्प कैसे कार्य करता है, यह आगे दिए उदाहरण से स्पष्ट होगा ।


       मान लीजिए मन की शक्ति १०० इकाई (युनिट) है । प्रत्येक व्यक्ति के मन में दिनभर विचार आते हैं । कुछ कार्यालयसंबंधी, कुछ घरसंबंधी, कुछ संसार के इत्यादि । प्रत्येक विचार के कारण एवं विचार की पूर्ति के लिए (उदा. मुझे कार्यालय जाना है, अमुक काम करना है, अमुक को मिलना है ।) थोडी-बहुत शक्ति खर्च होती रहती है ।


        दिनभर में ऐसे १०० विचार आएं, तो उसकी उस दिन की अधिकांश शकि्त समाप्त हो जाएगी; परंतु उसके मन में यदि विचार आएं ही नहीं, मन निर्विचार रहे और ऐसे में उसके मन में एक ही विचार आए कि, ‘अमुक हो जाए’, तो उस विचार के पीछे पूरी १०० इकाई शक्ति होती है, इसलिए वह विचार (संकल्प) सिद्ध हो जाता है ।


        वह विचार सत् का हो, तो स्वयं की साधना उसमें खर्च नहीं होती । ईश्वर ही उस कार्य को पूर्ण करता है; क्योंकि वह सत् का अर्थात, ईश्वर का कार्य होता है । अर्थात यह साध्य होने के लिए नाम, सत्संग, सत्सेवा, सत् के लिए त्याग, इस मार्ग द्वारा साधना कर साधक को ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिए, जिसमें असत के विचार ही मन में न आएं ।

 ५. असि्तत्व (सूक्ष्मातिसूक्ष्म)


        इस अंतिम चरण में मन में संकल्प करना भी आवश्यक नहीं है । गुरु के केवल अस्तित्व से, सान्निध्य द्वारा या सत्संग द्वारा शिष्य की साधना व उन्नति अपने आप होती है । ९०% स्तर के गुरु का कार्य इस पद्धति का होता है ।


        यह मेरे कारण हुआ है; परंतु मैंने नहीं किया । इसका जिसे ज्ञान हो गया, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गया ।


– (अनुवाद – श्री भावार्थदीपिका (श्री ज्ञानेश्वरी) ४:८१)


भावार्थ : मेरे अस्तित्व से हुआ; इसमें ‘मैं’ पन परमेश्वर का है । ‘मैंने नहीं किया है’, का अर्थ है, मैं इसका कर्ता नहीं हूं ।

सूर्य इस बात का एक सुंदर उदाहरण है । सूर्य उगने पर सभी जाग जाते हैं, फूल खिलते हैं इत्यादि । यह केवल सूर्य के अस्तित्व से होता है । सूर्य न ही किसी को उठने के लिए कहता है और न ही फूलों से खिलने के लिए कहता है ।

श्री गुरु की अनुग्रह शक्ति को ही गुरुपद कहते हैं । वह उपेय है अर्थात उपायों के सहयोग से उसकी प्राप्ती होती है; परंतु श्री गुरु ही प्रत्यक्ष उपाय हैं !


        इस लेख से पाठकों को बोध हुआ होगा कि आध्याति्मक उन्नति के लिए साधक / भक्त / शिष्य कितना भी प्रयास करें, अंतत: उसकी उन्नति होने के लिए गुरुकृपा ही आवश्यक है । ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’ इस संस्कृत श्लोक के अनुसार, गुरुकृपा होने से ही शिष्य का परममंगल होता है, अर्थात उसकी आध्यात्मिक उन्नति होने लगती है ।


संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ, ‘गुरुका महत्त्व,

प्रकार एवं गुरुमंत्र‘ एवं ‘शिष्य’

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

कैसे रोयें

कैसे रोयें

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

प्रत्येक मनुष्य रोता है किंतु ज्ञानी का रोना तो अलग ही होता है। यह प्रसंग देखें। 

एक गृहस्थ संत थे। वे आस-पास के लोगों को बगीचे में बैठाकर सत्संग सुनाते थे किः ʹशरीर नश्वर है, पाँच भूतों का पुतला है। जो भी पैदा होता है वह अवश्य मरता है, किन्तु आत्मा अमर है। घड़े बनते हैं, फूटते हैं लेकिन आकाश ज्यों का त्यों रहता है। ऐसे ही शरीरर जन्मता-मरता है लेकिन आत्मा ज्यों-की-त्यों रहती है। अपने को आत्मा मानो। मन-बुद्धि को भगवान में लगाओ। संसार की मोह-माया में मत फँसो।ʹ

एक दिन उनका पोता मर गया। वे संत घर जाकर छाती कूटने लगे किः ʹबेटा ! तू क्यों चला गया ? तेरे बिना हम कैसे जियेंगे ?ʹ ऐसा कहकर वे इतना रोये, इतना रोये कि उनका बेटा एवं उनकी बहू जो पुत्र शोक से रो रहे थे, वे उन्हीं को चुप कराने लगे।


फिर बेटे की अंतिम क्रिया की, स्नानादि किया एवं पिता को खाना बनाकर खिलाया। पिता तो संत थे लेकिन वे लोग उनको नहीं जानते थे। पड़ोसी भी उन्हें अपना मित्र मानते थे। किसी ने पूछ लियाः


“भाई ! आप बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं कि ʹशरीर नाश्वान है, आत्मा अमर है।ʹ हमको तो उपदेश देते हैं और आपके पोते का देहांत हो गया तो आप इतना रोये कि आपके बहू-बेटे भी आपको चुप कराने लगे।”


संतः “अभी छोड़ो। बहू की सहेलियाँ और बेटे के मित्र सुन लेंगे। बाद में बतायेंगे।”


फिर समय पाकर सब बगीचे में मिले तब संत ने कहाः “मैं उस दिन समझकर रोया था। बेटे का इकलौता बेटा मर गया था। माँ-बाप दोनों रो रहे थे। यदि मैं उनको चुप कराने जाता तो वे और रोते कि ʹआपको क्या है ? हमारा इकलौता बेटा मर गया, हमारे तो मानों प्राण ही चले गये हैं….ʹ ऐसा करके वे ज्यादा रोते। मैंने सोचा, उनको चुप कराने के लिए रोने में अपने को घाटा भी क्या है ? मैं समझकर रो रहा था तो दुःख नहीं हो रहा था। वे मोह से रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लेते।”


रंगमंच पर कोई भिखाई की भूमिका अदा करता है किः ʹदे दो, कोई पाँच-दस पैसे दे दोઽઽઽ.. तुम्हारे बाल-बच्चे सुखी रहेंगे….ʹ वही व्यक्ति रंगमंच से उतरने के बाद आराम से चाय-नाश्ता करता है और 100 रूपयों की नोट जेब में डालकर मजे से रह लेता है। लेकिन उसका अभिनय ऐसा होता है कि दर्शक को लगता है कि ʹहम सब उसे 1-1 रूपया दे देवें।


जो समझकर रोता है उसे दुःख के समय भी कोई दुःख नहीं होता।


अष्टावक्र जी महाराज राजा जनक से कहते हैं-


संतुष्टोઽपि न सन्तुष्टः खिन्नोઽपि न च खिद्यते। तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते।।

ʹधीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता है और दुःखी होकर भी दुःखी नहीं होता है। उसकी इस आश्चर्यमय दशा को वैसे ज्ञानी ही जानते हैं।ʹ (अष्टावक्र गीताः 18.56)


ऐसे महापुरुष शरीर के जीवन को अपना जीवन नहीं मानते और शरीर की मौत को अपनी मौत नहीं मानते क्योंकि उन्होंने अपने मन-बुद्धि को चैतन्यस्वरूप परमात्मा में लगा दिया है। उन्होंने समझ लिया है किः ʹजिसकी मौत होती है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।ʹ


कुछ लोग मानते हैं किः ʹइतने व्रत-उपवास करेंगे, इतने जप-तप करेंगे तब भगवान मिलेंगे…. इतने होम-हवन करेंगे तब भगवान मिलेंगे… हम मर जायेंगे तब भगवान के धाम में जायेंगे….ʹ उनकी यह धारणा ही उन्हें भगवान से दूर कर देती है।


वास्तव में भगवान मिला-मिलाया ही है किन्तु मन-बुद्धि परिवर्तनशील माया में लगे हैं इसलिए मिला-मिलाया भगवान भी पराया लगता है और पराई नश्वर चीजें अपनी लगती हैं। जिसे आप ʹमैंʹ बोलते हैं वह नश्वर शरीर भी आपका नहीं है, माया का विलासमात्र है। जिसकी सत्ता से आप ʹमैं-मैंʹ बोलते हैं उसकी गहराई में जाओ तो अपने स्वरूप का निश्चय हो जायेगा। वास्तव में निश्चय ʹस्वʹ में होता है और ʹस्वʹ शाश्वत में रहता है। दर्शनशास्त्र की यह सूक्ष्म बात है। इसको सुनने मात्र से हजारों कपिला गौदान करने का फल मिलता है।


मन ! तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।


यदि मन अपने मूल को पहचान ले तो अपने-आप भगवान में लग जायेगा। बुद्धि अपने मूल को पहचानने लगे तो अपने-आप भगवान में लग जायेगी। यह ʹमैं-मैंʹ जिस चैतन्य से उत्पन्न होता है उसका ज्ञान हो जाये तो सभी दुःखों का सदा के लिए अंत हो जाये। लेकिन होता क्या है कि, यह ʹमैंʹ मन-इन्द्रियों से जुड़कर नश्वर चीजों को ʹमेराʹ मानने लगता है। ऐसे ʹमेरा-मेराʹ करते-करते कई बदल जाते हैं लेकिन ʹमैंʹ वही का वही रहता है। जिस ʹमैंʹ से मन बुद्धि उत्पन्न होते हैं, उसी ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगा दें तो शाश्वत के द्वार खुल जायें…..


उस वास्तविक ʹमैंʹ में मन बुद्धि को लगाने का अभ्यास करना चाहिए, लेकिन यह अभ्यास से नहीं होता।


“बापू ! अभ्यास करना चाहिए ऐसा आप कहते हैं और फिर ऐसा भी कहते हैं कि अभ्यास से नहीं होता है ?”


शरीर को ʹमैंʹ मानने का जो उल्टा अभ्यास पड़ गया है उस उल्टे को सुलटा करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। जैसे रास्ता भूल कर आगे निकल जाते हैं तो वापस आना पड़ता है, ऐसे ही मन-बुद्धि जो नश्वर शरीर और संसार में लग गये हैं उन्हें ईश्वर में लगाना है। वैसे तो मन बुद्धि ईश्वर में ही लगे हुए हैं।


ईश्वर से ही मन बुद्धि स्फुरित होते हैं। जैसे तरंगें पानी से ही उठती हैं, ऐसे ही मन बुद्धि चैतन्यस्वरूप परमात्मा से ही उठते हैं। ये जहाँ से उठते हैं उसी को सत्य मानकर उसमें लग जायें तो काम बन जाये… लेकिन उठकर बाहर भागते हैं।


जैसे, इकलौता लड़का अपने करोड़पति पिता से अलग होकर एक दो कमरे को अपना माने, 100-200 रूपये छुपाकर रखे और कहे किः ʹये 200 रूपये मेरे हैं…ʹ तो उसे क्या कहा जाये ? अरे ! अपने को पिता माने तो उनकी करोड़ों की मिल्कियत उसी की है। ऐसे ही मन-बुद्धि को ईश्वर में लगाया तो सारा ब्रह्माण्ड आपका है, परमात्मा भी आपका है, ब्रह्माजी की ब्राह्मी स्थिति भी आपकी है….. आप ऐसे व्यापक ब्रह्म हो जाते हैं ! फिर सारी सृष्टियाँ आपके ही अंदर हैं, आप इतने महान हो जाते हैं ! सारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उद्योगपति जिस परमात्मा से हैं उस परमात्मा के साथ आपका ऐक्य हो जाता है।


फिर धनाढ्य और सुखी होने की इच्छा नहीं रहती, कुछ बनने की इच्छा और बिगड़ने की चिन्ता नहीं रहती, मौत का भय और जीने की इच्छा नहीं रहती, ऐसे निर्वासनिक पद में आपकी स्थिति हो जाती है।


फिर तो आपके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही परमात्मा में लगे रहेंगे। आपके द्वारा स्वाभाविक ही लोगों का हित होने लगेगा लेकिन आपको करने का बोझ नहीं लगेगा। समाज की सच्ची सेवा या सच्ची उन्नति तो ज्ञानियों के द्वारा ही होती है। जिसे ज्ञान नहीं हुआ, आत्मतृप्ति नहीं मिली, स्वयं को जिसने ठीक से नहीं देखा वह औरों को क्या ठीक दिखायेगा ? सच्ची सेवा तो ज्ञानवान महापुरुष ही करते हैं, बाकी की सब कल्पित सेवाएँ हैं।


लोगों को नश्वर चीजें दिला दीं, अपने नश्वर अहं को पोष दिया तो क्या हो गया ? क्या सब लोग दुःख से मुक्त हो गये ? हजारों लोग सेवा करते हैं, हजारों लोग सेवा लेते हैं लेकिन सेवा करने वालों को कोई-न-कोई दुःख लगा रहता है और सेवा लेने वाले भी दुःखी रहते हैं। सुखी तो केवल वे ही हैं जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की शरण ली है, जिन पर ज्ञानी महापुरुष की करूणा कृपा है और जिन्होंने ज्ञानी महापुरुष की सेवा की है। ऐसे साधक फिर स्वयं दुःखभंजन हो जाते हैं।


अतः भगवान के वचनों को समझकर मन-बुद्धि को भगवान में लगाने का अभ्यास करना चाहिए। भगवद् प्राप्त महापुरुषों के सत्संग का श्रवण करें अथवा तो भगवान की चर्चा करें, इससे मन बुद्धि भगवान में लगेंगे।


ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ देखते हैं तो मन बुद्धि परेशानी में लगते हैं। ʹमैं-मेराʹ ʹतू-तेराʹ दिखेगा तो सही, लेकिन जिस परमात्मा की सत्ता से दिखता है उस पर नजर डालें तो मन-बुद्धि परमात्मा में लगने लगेंगे। फिर तो…


हरदम खुशी… हर हाल खुशी…


जब आशिक मस्त फकीर हुआ,

तो क्या दिलगीरी ? बाबा !


गुरुकृपा पचाने की कला आ जाये तो मुक्त होना बड़ा आसान है। जो पूर्ण परमात्मा है उसमें अपने मन  बुद्धि को लगा दें एवं बाकी के कार्यों को यत्न करके पूरा करें। जो भी कार्य हो, सेवा हो, उसे तत्परता से करें। सेवाकार्य तत्परता से करेंगे तो मन-बुद्धि उसी में स्थिर होंगे।


श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थेः ʹʹजो अपने सेवाकार्य में तत्पर नहीं है, वह अपनी आत्मा की उन्नति कैसे कर सकता है ?”


पलायनवादिता नहीं तत्परता चाहिए। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ न बढ़ायें, व्यक्तिगत आदतें पूरी करने के पीछे न लगें। जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये तो ʹयह भी गुजर जायेगा…ʹ ऐसा करके मन बुद्धि को ईश्वर में लगायें। अन्यथा मन-बुद्धि अनुकूलता में लग जायेंगे तो थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी मुसीबत पैदा कर देगी। मन-बुद्धि वाहवाही और यश-मान में लग जायेंगे तो मान थोड़ा कम मिलने पर या अपमान होने पर परेशानी हो जायेगी। मन-बुद्धि शरीर में लगेंगे तो मरते समय शरीर में आसक्ति रह जायेगी और यह आसक्ति प्रेतयोनि में भटकायेगी। मन-बुद्धि को पुण्य-कार्य में, देवी-देवता के भजन में लगायेंगे तो पुण्य बढ़ने पर मनुष्य लोक में आयेंगे। धर्मविरुद्ध आचरण करने पर पाप बढ़ेंगे तो हल्की योनियों में जायेंगे। मन-बुद्धि ईश्वर मे लगायेंगे तो ईश्वर से मिलकर ईश्वरमय, ब्रह्ममय हो जायेंगे… मर्जी आपकी है।


इसीलिए भगवान कहते हैं-


मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।


ʹमुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।ʹ


देर-सवेर मन-बुद्धि को परमात्मा में लगाना ही पड़ेगा तो फिर अभी से क्यों नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 3-7, अंक 98

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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