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Wednesday, August 14, 2019

क्रिया व योग या क्रिया योग

क्रिया व योग या क्रिया योग 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

यार बस फेल हो गए। अब योग मत पढ़ाओ।

यार मस्त रहो। व्यस्त रहो।

अस्त व्यस्त मत रहो।

आपको बुरा लगा तो क्षमा मांगता हूँ। पर अनुभव में क्रिया बहुत प्रचलित शब्द है। सब जानते है।

यहाँ शब्दावली की प्रतियोगता नही थी।

सर कलियुग में गूगल गुरू अनन्त भौतिक ज्ञान समेटे हुए है।

मुझसे बेहतर गूगल समझाएंगे।

क्रिया योग नही। क्रिया और योग।

दोनो अलग है।

क्रिया योग का प्रचार महावतार बाबा के शिष्य श्यामाचरन लाहिड़ी महाराज ने किया।

उसी परम्परा में an autography of himalayan yogi लिखी गई है।

मैंने यह कहा क्रिया और योग अलग है। जबकि क्रिया योग एक अंतर्मुखी होने की विधि।

स्वयं को आत्मा के रूप में जानने के लिए

अनुभव करने के लिए है तरीके बहुत है

क्रिया : वह जो कुण्डलनी जागरण के पश्चात अनिको अनुभव देता है। आंतरिक और भौतिक।

योग : आप जानते है।

वेदांत : आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव

श्री कृष्ण और पातंजली ने तुलसीदास ने लक्षण बताये है।

क्रिया योग: कुंभक रेचक और पूरक के साथ मन्त्र जप।

एक विधि अन्यर्मुखी होने की।

सरजी आपने जो बताया था उसे बिल्कुल आपके शब्दों मे तो लिखने मे असमर्थ हू लेकिन जो समझा था वह कुछ इस प्रकार है----


आपने कहा था कि क्रिया के लिए उसके संस्कार पर आधारित होती है और ये संस्कार क्रिया द्वारा नष्ट होते हैं और यह क्रिया एक अवस्था होती है


इसमे मेरे मन से कुछ अवश्य मिल गया होगा लेकिन मुझे अच्छी तरह नही पता।


इस तरह संस्कारों के कारण उसरे जन्म और मृत्यु होती है और कुछ क्रिया के रूप मे संस्कार नष्ट होते हैं और कुछ कर्म फल भोगने पर उसी तरह यह मृत्यु भी क्रिया है क्योंकि नये नये संस्कार बनते ही रहते हैं और इन्ही को भोगने हेतु बार बार जन्म मृत्यु।


http://freedhyan.blogspot.com/2018/06/blog-post_20.html?m=0

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_16.html

बाकी सब लिंक से जानने का कष्ट करें। मैं हर बार नही लिख सकता।

अध्यात्म बेहद बोरिंग है।

सारे रास्ते वही एक पर जाकर खत्म हो जाते हैं। सब रास्तों से परमेश्वर की प्राप्ति के लिए हैं लेकिन कुछ रास्तों मे थोड़ा देर लग सकता है कुछ जल्दी पहुचा देते हैं। लेकिन यह बात भी कहीं तक गौण ही है।


जो लोग अपना ही मत सर्वश्रेष्ठ बताते हैं उनके लिए तो मै कुछ नही कह सकता क्योंकि उनकी बुद्धि ने एक स्वयं की और परमात्मा की सीमा बना रखी है।


और इसी पर गहन विचार करने पर पता चला कि श्रेष्ठ अश्रेष्ठ,सही गलत मतलब द्वैत की सम्भावन ही खत्म हो जाती है। एक दूसरे को नीचा दिखाना अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने की वृत्ति खत्म हो जाती है। अहंकार पर भी गम्भीर चोट पहुचती है।

मित्र हमारी परम्परा में सब सम्मिलित है। मुझे पातञ्जलि का अष्टांग योग पता है। मैं उनकी धारणा विधि के माध्यम से ही कई रहस्य जान पाया।

हा मुझे किताबी ज्ञान बेहद सीमित है। जो अनुभव है उसी के सहारे जबाब देता हूँ।

आप कृपया पातञ्जलि की क्रिया योग विधि बताने का कष्ट करें।

नई जानकारी हेतु नमन एडवांस में।

हमारी परम्परा में कोई उपदेश नही। सीधे सीधे शिष्य की कुण्डलनी जागृत। जो अनेकों अनुभव देने लगती है। बस।

कुछ सदस्यों की दीक्षा ग्रुप में हुई है। लगभग सभी बौराये बैठे है । आनन्द और अनुभव की सीमाएं लांघ गए है। कभी कभी मुझे भी दुआएं दे देते है।

आभार आपका। बस इसी आ भार से भारी होकर मोटा होता जा रहा हूँ।

जी क्या आप through proper channel आये है।

मतलब mmstm किया क्या।

नही sir अभी नही किया है

तो करे। अपने अनुभव बताये।

सरजी मुझ पर कब कृपा होगी?

यार तुम मिलो तो पहले कुछ पिटाई करूँ। तुम शक्तिपात में ही दीक्षित हो।

आपके हाँथो मेरी पिटाई हो जाये तो मै धन्य हो जाऊँ।

देखो यह परम नालायक पिटाई चाहता है।

जी बिल्कुल , ऐसी पिटाई करें कि बाहरी पिटाई के साथ साथ आंतरिक पिटाई भी कर दें। मन बुद्धि, अहंकार को पीट पीटकर बर्बाद कर दें

देखो मित्र। कीचड़ का कीड़ा यदि दूध में डाला जाए तो मर जायेगा।

विपुल जी प्रणाम। आज सुबह मै साधन करते हुए फील किया कि मेरी आत्मा शरीर से अलग हो गई है तब मैंने एहसास किया की मृत्यु क्या होती है। इसका डर अब मेरे दिल से निकल गया है। यह सब विपुल जी की वजह से हो पाया। विपुल जी को कोटि कोटि प्रणाम।

आपकी दीक्षा हो गई शक्तिपात में। नहीं हुई अभी

जी

विपुल जी से कॉन्टैक्ट कीजिए। हमारे गुरु तुलया वहीं है।

मित्र अभी आप मन्त्र के विषय मे कुछ नही सीख पाए है अतः मन्त्रो की दुनिया की सलाह न दे।

अधूरा ज्ञान गलत हो सकता है।

आप पहले किसी भी मन्त्र से जो आपका इष्ट या कुल का हो। उससे mmstm करे। जो अनुभव हो बताये फिर आगे बात हो।

देखिये कोई भी हो पहले mmstm करे। जो अनुभव हो वो बताये। ताकि आपके स्तर को समझा जा सके।

बिल्कुल। एक तरह से यह बेसिक परीक्षा हैं जो उत्तीर्ण होना आवषयक है।

ओह। उस परम्परा के सन्यासी को मैं समझता हूँ। बिना अनुभव सन्यासी बन बैठते है।

मेरे सम्पर्क में एक आये थे बोले 16 साल से ओशो सन्यासी हूँ लोगो को सिखाता हूँ। पर कोई अनुभव नही।

ओशो लोगो को भृमित करते है और कुछ नही। लोग जानते है  मेरी बहन भी उसकी भक्त थी। मेरी बातों को कोई उत्तर नही दे पाते उनके भक्त।

ओशो एक अपूर्ण अज्ञानी थे। जो महपाप भी कर बैठे।

खुद अभी तक मुक्त नही हुए है। एक कमरे में बन्द दिखते है।

मैं उनको न सन्त मानता हूँ और एक पापी मानता हूँ। वह सनातन के कृष्ण के दोनों के दोषी।

सर मैंने फेस बुक पर बहुत लिखा तर्क दिया है। फिर भी आप पूछ सकते है।

मैं ओशो के अंदर के भाव तक को समझ क्या देख चुका हूँ। कहां भटके वह तो जानता हूँ। उसकी आत्मा तक को देख चुका हूँ। और क्या।

अधिक बोलना ठीक नही। यह गर्व और यात्म श्लाघा है। आप मेरी स्वकथा पढ़ ले।

यदि मैं कहूँ ओशो बच्चा था तो क्या मानोगे।

बहन आप mmstm कर ले। आपको सब महसूस हो जाएगा।

यह विधि सनातन की शक्ति का एहसास घर बैठे बिना गुरु के करवा देती है।

https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html?m=0

यार यह ग्रुप के सदस्य है इनकी माता जी को देवी का सायुज्य प्राप्त है। इनकी कुछ व्यक्तिगत समस्याएं है। जो विज्ञान नही मानता पर घट रही है।

इनकी बात सुनकर वैज्ञानिक पागल हो जायेगे।

यार खुद समझो। कपड़े मत निकलवाओ। इशारा दिया है।

जी मैं अपने को खोजी ही कहलवाना पसन्द करता हूँ।

यार पढ़ लो। बस। पकाओ मत।

तुम mmstm करो जान जाओगे। मैं तो अंगूठा भी नही रखता। क्या बोलू। ग्रुप के पहले के कुछ सदस्यों को सिर्फ बोलकर क्या से क्या हो गया था।

कारण मैं गुरू नही।

अनुभव की बात से क्या सिद्ध होता है। मैं एक पंडित जी से मिला था वह किसी को भी दिखा सकते है आँख बंद करवा कर। कहीं भी कोसो दूर।

गुरोके कर्म मर्यादा असीमित है।

अनुभव करवा सकते है जिससे बोलोगे बात करवा सकते है। आप खुद बोलोगे कौन क्या कह रहा है। मेरे एक मित्र जो इस ग्रुप में भी है। उन्होंने खुद देखा है सब।

यदि अनुभव न हो तो कर के देख लो। अपने गुरू मन्त्र के साथ। अनुभव है तो अपनी गुरू शक्ति या शिव या कृष्ण या किसी देव से पूछ लेना। बस।

यह सब सिद्धियां है जो मार्ग की भारी रुकावट है।

सिद्धया सिद्ध पुरुष के साथ खुद हो जाती है। पर यह बन्धनकारी और विनाशक होती है।

सर जी इस ग्रुप में ही कई प्रकार के ओशो के बाप लोग मौजूद है।

सत्य है। उनके पास ऐसी सिद्धि है। मैं समझ गया था। उनकी बातों में सटीकता नहीं दिखी मुझे। मुझे दिखाने से मना कर देते थे।

ओशो एक भटका अपूर्ण ज्ञानी बच्चा ही था।

किसी भी प्रकार का आप ज्ञान दे सकते है अपितु आप किसी ज्ञानी का तिरस्कार नहीं कर सकते‬‬‬‬

और न ही करना चाहिए‬‬‬‬

रावण ज्ञानी था पर था पापी। फिर उसका तिरस्कार क्यो। ओशो भी उसी कैडर का था।

आपका ज्ञान अच्छा हो सकता है लेकिन अपने अंहकार नहीं कर सकते‬‬‬‬

प्रायः लोग उसके लेख पढ़कर प्रवचन सुनकर मोहित हो जाते है। पर उसकी सोंच और आंतरिक कर्म तक नही पहुँच पाते।

यह अहंकार नही है। जगत को सत्य बताना है।

अगर आप कैकई और सबरी के प्रेम मे भेद समझते है तो‬‬‬‬

कैकई के बारे मे बिचार दीजिए‬‬‬‬

कैकेई ने जगत पर कल्याण किया। राम को वन भेजकर रावण के अत्याचारों से मुक्ति दिला कर राम की महानता को जगत को सामने आने का मौका दिया।

शबरी ने प्रेमल भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया। दोनो की कोई तुलना नही।

रावण के बिषय मे‬‬‬‬

आपके विचारों से हम संतुष्ट है‬‬‬‬

जिस भांति कौओं के मुख से वेद वाणी नही सुहाती उसी प्रकार पापी के मुख से ज्ञान शोभा नही देता।

ओशो को मैं पापी भटका अपूर्ण ज्ञानी मानता हूँ।

तो क्या रावण पापी था‬‬‬‬

दुराचारी था‬‬‬‬

पाप और पुण्य की परिभाषा समाज के हिसाब से बदलती है।

दुराचर का वर्णन करे‬‬‬‬

जो सिर्फ भगवद्गीता बताती है। है अर्जुन जो कर्म समाज के हित में नही वो तेरे हित में कैसे हो सकता है।

मतलब पाप वह जो समाज का अहित करे। पुण्य वह जिसमे समाज का हित हो।

रावण के दुराचारो के बिषय को अवगत करावे‬‬‬‬

ओशो ने खुला यौनाचार जो भारत मे पाप था। उसको प्रचारित किया। वह भी क्रिया की आड़ में। जो लोगो को दुराचार की प्रेरणा दे गया।

हम ओशो के विषय को छोड सकते है‬‬‬‬

हम रावण की दुराचार कर्म के बारे मे जानना चाहते है विवरण पूर्वक‬‬‬‬

जिसका भी उल्लेख रामचरीतमानस में हैं वो बुरा नहीं है‬‬‬‬

मेरी छोटी बुद्धि है कृपा कर विवरण प्रदान करै मेरै छोटे सै प्रश्न का‬‬‬‬

मित्र मैं इस ग्रुप को भटकाना नही चाहता। अब अनर्गल प्रलाप बढ़ रहा है। मैं किताबी ज्ञानियों से बहस शुरू होने के पूर्व हार मान लेता हूँ। मुझे सिर्फ अनुभवित लोगो से बात करने में आनन्द मिलता है।

मेरी सोंच में ओशो पापी। मैंने कई लेखों में तर्क दिए है। अब नही लिखना चाहता।

आपको जो सोंचना समझना हो समझे।

मुझे बेकार की चर्चा में अपनी ऊर्जा नष्ट करने का कोई शौक़ नही।

साउथ में रावण की पूजा होती है। आप करे।

बाकी सबको नमन।

मैं अनावश्यक चर्चा से बाहर।

कोई नृप होई। हमे का हानि।

जानकर क्या फायदा होगा।

मित्र आप लगे रहे। आपने दीक्षा ली है क्या।

ओह। क्या आपको क्रिया होती है।

गायत्री दीक्षा में गुरु तो होते नही।

मतलब कुछ शरीर के साथ कम्पन घूर्णन इत्यादि।

कोई वह जो आपने सोंचा न हो।

अनुभव नही। तीव्र अनुभूति। आप मेरा लेख देखे तो क्रिया समझ जायेंगे।

वह सब गौण है।

क्या आपका मन कोई और मन्त्र जप हेतु करता है। मतलब आपका इष्ट कौन है।

आप घबराए नही। सब मिलेगा।

आप कहाँ रहते है।

क्या आप शक्तिपात दीक्षा चाहते है। मतलब सीधे हवाई यात्रा चाहते है।

यह छोड़ो।

मन्त्र की भी एक सीमा होती है।

आप व्यक्तिगत पोस्ट पर आए।

स्थुल जगत से सुक्ष्म अति बलवान है‬‬‬‬

ये शक्तिपात दिक्षा क्या होती है हमें भी अवगत कराईये  गुरुजी परनाम‬‬‬‬

ये होता कैसे है सर कुछ जान सकता हूँ

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हे प्रभु गणपति। आज आपका विसर्जन लोग कर रहे है। आपसे प्रार्थना है आप विसर्जित न हो। मेरे ह्रदय में विराजित हो।

प्रभु विनती सुने।

गणपति बप्पा सदा मोरया। मुझ पापी के ह्रदय में।

उसको न कोई विसर्जित कर सकता न प्रतिष्ठित।

यह मात्र शब्द है।

पर इस महोत्सव में गणपति शक्ति वास्तविक रूप में भृमण करती है।

विसर्जन मूर्ति का होता है।

मुझे यह शब्द अच्छा नही लगता।

यह लोकमान्य तिलक ने हिन्दुओ को एकत्र कर अंग्रेजो के खिलाफ एक भावना निर्माण हेतु आरम्भ किया था।

गणपति बप्पा मोरिया

वाह जो रस प्रेमाश्रु में है। वह कही नही। यह केवल भक्ति मार्ग से भक्ति योग जहाँ द्वैत होता है वही मिलता है। उसी को प्रेम और विरह की अनुभूति हो सकती है जिसके प्रेमाश्रु गिरते हो। निराकार उपासक ज्ञान योग एक दम नीरस होता है उसे इस प्रेम की विरह की अनुभूति कहाँ।

तुम तर गए पर्व। तुम्हे परम् प्रेमा भक्ति का आनन्द मिल गया।

इसी के लिए कुंती ने कृष्ण से वरदान मांगा। मोक्ष निर्वाण सब बेकार इस आनन्द के सामने।

स्वार्थी मत बनो वह चतुर तुम्हारा ही नही। मेरा भी है। पूरे जगत का है।

फोड़ दो। सब कुछ हल्के हो जाओ। बोझ मत रखो।

वामाचार और दक्षिण पंथ। दो पंथ है। वामाचार समाज से अलग रह कर साधना करते है।

यह दुष्ट इनको भी समाज मे लेकर आ गया। क्या यह उचित था।

यार आप को जो सोंचना हो सोंचे। उस पापी की पूजा करे।

इस बहस का न कुछ हल है न फल है।।

कृपया ओशो पर चर्चा न करे। आपसे निवेदन है।

बन्द कर दे।

जिनको ओशो का बखान करना हो। वह ग्रुप से खुशी से बिदा ले सकते है।

अब आपको जो सोंचना हो सोंचे।

बिल्कुल नही। पर सिर्फ यह करना रुकावट बन जाएगी। हर कार्य को उचित समय देना ही उचित होता है।

सत्य वचन मैं पापी हूँ। शायद इसी लिए महापापी को पहचान गया।

फिलहाल एक पापी महापापी की चर्चा बर्दाश्त नही कर सकता। मतलब एक छोटा बड़े को कैसे सहन करेगा।

चलो बताता हूँ। मैंने ओशो की मैगजीन में एक महिला की बात सुनी तो दंग रह गया। उसने बताया था साधना कक्ष में उसने 200 से अधिक लोगो से सम्पर्क बनाया था।

यह क्या है साधना या इसकी आड़ में वेश्यालय।

चलो ओशो की सोंच और साधना को बताता हूँ। एक लेख ही लिख डालता हूँ कि मैं ओशो से क्यो घृणा करता हूँ।

ओशो अपने कार्यालय में विपश्यना किया करते थे। अचानक उनको निराकार अनुभूति हुई। अहम ब्रह्यस्मि की।

इस अनुभूति के बाद ज्ञान ग्रन्थी खुल जाती है। मनुष्य में दूसरो पर शक्तिपात की क्षमता विकसित हो जाती है।

साथ ही प्रवचन देने गुरू बनने और ज्ञान प्रचार की इच्छा बल वती हो जाती है।

1 अपने को भगवान बनाया। पहले आचार्य फिर भगवान फिर जापानी भाषा मे ओशो। स्वयम बुद्ध जीसस, जिनको ओशो मानते थे। उन्होंने अपने को भगवान बोला।

2 बुद्ध की बात की पर बुद्ध की पाँच अप्रिमिताओ में चौथी की औरत से दूर। पर नही माना। 10000 बुद्ध पैदा करेगे।

3 गीता के अनुसार पाप वह जो समाज के विरूद्ध कार्य है। खुला सेक्स भारत मे पाप। विदेशो में नही।

इसकी भारत मे वकालत कर महापाप किया। गीता का अपमान।

4 गेरुआ वस्त्र सनातन में सिर्फ ब्रह्मचारी और सन्यासी पहन सकता है इन्होंने ग्रहस्थ्य को पहनाया। जो सनातन का अपमान

5 बिना गुरु परम्परा के गुरु बने। दीक्षा दी।

6 भगवे वस्त्र में क्रिया की आड़ में यौनाचार की अनुमति।

7 बिना अनुभव के सन्यासी बनाये और उनको भी ओशो लगाने की अनुमति दी।

कुल मिलाकर सनातन गीता और भारतीयता की धज्जियां उड़ा दी।

अब आप सभी से अंतिम निवेदन है। आप जो चाहे सोंचे ओशो को मैं पापी मानता हूँ। यदि किसी ने फिर तर्क किया। मैं ग्रुप का प्रशासक होने के नाते बाहर कर दूंगा।

यह अंतिम चेतावनी है।

सत्य निरंजन जी मैं आपके गुरु को प्रणाम करता हूँ। मैं हर उस व्यक्ति को नमन करता हूँ जो सनातन का सही तरीके प्रचार करता हो। चाहे अनुभव हो या न हो।

भगवे वस्त्र का सममान करता हूँ।

किंतु भेड़ चाल नही चलता हूँ।

मैंने स्वयम तमाम सन्तो की सत्यता को परखा है।

कई जीजो की नई खोज व्याख्या तक की है। अतः मुझे किसी बैसाखी आवश्यकता नही। जहाँ आवश्यकता होती है मुझे आत्म गुरु दैवीय शक्ति का सहारा मिल जाता है।

मैं यह जानता हूँ आप हठ योग मार्गी है। आपको योग कोई अनुभव नही है। पर आपसे तर्क नही। आपको नमन। आप सनातन का प्रचार कर रहे है।

निवेदन है सभी एडमिन से जहाँ तक सम्भव हो ओशो, ब्रह्मा कुमारी लोगो को न जोड़े।

कृपया ध्यान दे।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_23.html

मैं सत्य निरंजन जी को धन्यवाद करता हूँ। जिनके वाद विवाद के कारण मेरे लेख बन गए।

अब इस लेख में दिए बिंदु यदि कोई जबाब देना चाहे तो व्यक्तिगत दे सकता है । यदि उचित होगा तो मैं ग्रुप में पोस्ट कर दूंगा। वैसे मेरी विवेचना सप्रमाण है। कोई तर्क न दे पाएगा।

किंतु स्वागत है।

यार फिर वही। मित्र कहां तक दुनिया का मुंह बंद करोगे। कोई भी अपना अपराध स्वीकार नही करता। क्या फायदा है व्यर्थ पानी मे लठ्ठ मारना।

तुम सनकी रामपाल के शिष्य देख चुके हो।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/normal-0-false-false-false-en-in-x-none_24.html

मैं पुनः निवेदन करता हूँ। बकवास न की जाए किसी के गुरु पर व्यर्थ वाद विवाद न किया जाए।

जब तक कोर्ट फैसला न दे सब निर्दोष होते है।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

चर्चा का चरखा

चर्चा का चरखा

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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मुम्बई वापिस। झांसी की यात्रा सार्थक रही। लोगो को mmstm बुकलेट्स भी भेंट की।

अपने ग्रुप में एक वालक एक महीने से mnstm कर सिर्फ जप कर रहा है। उसकी सफलता और दिनचर्या में यह बहुत सहायक हो रहा है। याबी उसने पूजा पाठ सब छोड़कर सिर्फ नाम जप का सहारा ही लिया है।

यह एक सीमा के बाद उचित है। प्रारम्भ में किसी एक ही मन्त्र को आधार मौलिक और मूलभूत बनाना चाहिए। अनेक मन्त्र से कोई फायदा नही। जब मूल मन्त्र सिद्ध हो जाये कुछ शक्ति आ जाये तब कोई भी मन्त्र कम मात्रा में भी जाप करने से फलित होता है।

जैसे मुझे किंतने भी शाब्दिक और निराकार अनुभव हो पर मैं नवार्ण मन्त्र को कस के पकड़े रहूंगा। इसका पल्ला नही छोडूंगा।

क्या। समझे नही। सर जी।

जैसे आपको जो गुरु मन्त्र मिला है वह मूलभूत मौलिक मन्त्र है। मतलब संकट में वही काम आएगा। अतः उसको निरन्तर जीवित रखे मन्त्र जप के द्वारा।

कुछ नए मन्त्र सिद्ध कुंजिका स्त्रोत के जो स्पष्ट हुए थे कर रहा हूँ।

यह तो गजब और अजब है। मेरा मूल मन्त्र है।

इनमे यह प्राप्त हुआ कि सहस्त्रसार से निरन्तर रूक रुक कर आनन्द दायक नशा मिलता रहता है।

पर यह मन्त्र सभी जापक नही कर सकते।

शरीर सम्भालना मुश्किल हो जाता है। नया जापक बेहोश तक हो सकता है। अतः गूप्त रखा है।

पहले इस लायक बनो। यह खैरात नही जो हवा में उछाल दे।

मुझे समझने में 30 साल से ऊपर लगे। तब यह प्रकट हुआ। अब यह ऐसे फेंक दे।

कम से कम 10 लाख नवार्ण मन्त्र करो तब सम्भाल पाओगे।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_96.html

मत करे। यह मन्त्र हर व्यक्ति के लिए नही होता है। यह गर्म और शक्ति मन्त्र है।

आप विष्णु या कृष्ण या राम का मन्त्र जाप करे। मतलब मृदु और ठंडा मन्त्र करे। किसी की देख देखी शरीकत नही करते।

भाई मैं तो 5 साल की आयु से जाने अनजाने शक्ति पूजा कर रहा हूँ। अतः 59 साल की आयु में कोई भी मन्त्र उठा सकता हूँ।

आप मेरी स्वकथा पढ़े भाग 1 से तो आप समझ पाएगी।

26 साल शक्ति पूजा के बाद भी 33 वर्ष की आयु में नवार्ण मन्त्र मुझे मरणासन्न बना गया था। वो माँ की ही कृपा थी जो शक्तिशाली गुरू मिले तो मैं जीवित बच सका। अन्यथा या मर चुका होता नही तो पागलखाने होता।

शक्ति हीनता और शक्ति क्या है इसको शायद ग्रुप में मुझसे बेहतर कोई नही जानता होगा।

जय महाकाली गुरूदेव।

किसी को यकीन हो तो प्रयोग करे। दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ और 11 नवार्ण मन्त्र केवल एक हफ्ते वैखरी में कर ले। बस।

http://freedhyan.blogspot.com/

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कोशिश की है समाधि को वैदिक और वैज्ञानिक तरीके समझा सकू।

आप कही जा नही सकती। समय है नही। इतने बन्धन। इनका क्या समाधान है। आपको विष्णु मन्त्र करने को बोला। कुछ दिन करके तो देखे।

कभी यह जाप कभी वह जाप। आप मन को स्थिर करे। यदि यकीन है तो जो बोला है वह करे।

आप अपने साथ दूसरो को भी कन्फ्यूज कर रही है।

आप बौराये नही। आपके गुरू आसाराम जी भी शक्तिपात ही करते थे।

गुरू शक्ति को ढंग से याद करे सोने के पहले।

सोने के पहले माँ का सम्पुट पढ़ ले।


दुर्गा देवी नमातुभ्य सर्वाकामार्थ साधिके।

मम सिद्धिम सिद्धिम व स्वप्ने सर्व प्रदर्शय:।।

यदि विष्णु मन्त्र एक हफ्ते में असर न दिखाई तो बजरंग बाण संकल्प के साथ सुबद शाम 21 दिन पढ़े  या जब तक फायदा न हो पढ़ते रहे। संख्या अधिक होने में परहेज नही।

जितनी हो सकती हो  पर वह संख्या नित्य होनी चाहिए।

गूढ़ बात।

हर गुरू परम्परा की शक्ति अलग होती है। जब वे टकराती है तो शिष्य का नुकसान हो सकता है।

यदि एक साधारण गुरू हो तो परेशानी नही होती है  क्योंकि शक्तिपात के कौल गुरू से अधिक कोई शक्तिशाली नही होता है। अतः किसी भी दीक्षा के बाद शक्तिपात दीक्षा में कोई हर्ज नही। पर अन्य परम्पराओं में यह बात नही होती है।

यू समझो पी एच डी वाला किसी का गाइड बन सकता है। शक्तिपात पी एच डी होती है।

शक्ति पात परंपरा में हमारे गुरुदेव परम पूज्य स्वामी नित्य बोधानन्द तीर्थ जी महाराज दीक्षा से पहले साधकों को साधन करने के नियम बताते हुए कहते थे कि मंत्र तो साधन प्रारम्भ करने के लिए सीढ़ी है। क्रिया प्रारम्भ होने के बाद मन्त्र छूट जाय और दूसरा मन्त्र शुरु हो जाय तो कहीं रुकना नहीं किसी मन्त्र या क्रिया के लिए आग्रह , भाव , इच्छा कुछ भी  नहीं करना चाहिए।शक्ति साधक के उत्थान के लिए जो भी आवश्यक होगा वह सारी विधि व्यवस्था परिस्थिति का निर्माण सहजता से करती चली जाती है।साधक को साधन कम से कम 2 घंटे लगातार रोज करते हुए शक्ति को कार्य करने का अवसर अवश्य देना चाहिए।

शुरुआत में 5-6 वर्ष सुबह शाम 2-2 घण्टे साधन अवश्य करने चाहिए !!ॐ!!

साधन जितना करो कम है। जब साधन नही तो मन्त्र जप करो। जप कितना भी करो कम है।

मेरा लक्ष्य जीवन समाप्त होने के पूर्व सवा करोड़ नवार्ण मन्त्र का है।

लिखना अच्छी आदत है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/05/normal-0-false-false-false-en-in-x-none_1.html

सत्य वचन। सब पर लागू विचार। विचार करे।

क्या बात।

कबीरा इस बाजार में। दुखिया सब संसार।।

विपुल पापी संसार मे। रोवे सभी संसार।।

नही सोंच जब समय था। इतना कम जप यार।।

नही सोंचा

पहले पांच अवगुण होते थे जिनसे छुटकारा पाना बहुत कठिन होता था।


क्राम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार,

अब सात हो गये


क्राम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, फेसबुक और व्हाटसैप

मित्रो बुरा न लगे। हर समय मोबाइल को साथ रखना और ध्यान देना ईश प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है।

आप जिसको संकट में याद करे। जिसका नाम निकले वह आपका इष्ट।

जिसका जप जाने अनजाने कर चुके है कर रहे है वह इष्ट।

जो अच्छा लगे वह इष्ट।

जिसका नाम आनन्द दे वह इष्ट।

          

आपकी शक्ति का समार्थ्य मैंने देखा। मुझे मुरारी बापू गुरू दत्त मौलेश्वर महाराज आसाराम बापू सहित तमाम लोगो ने सिर पर हाथ रखने से मना कर दिया था। मैं जब मरनासन्न होता था। तब मेरे प्रथम गुरू महाकाली की शक्ति को जब प्रथम देही गुरू स्वामी नित्यबोधानन्द तीर्थ जी महाराज सम्भाल न पाए थे। तब आपने तीन बार तालू पर हाथ मारकर मेरी क्रियाओं और शक्तियों को दबा दिया था।

जो बाद में 24 साल के जप के बाद पुनः सक्रिय हुई।

स्वामी नित्यबोधानन्द तीर्थ जी महाराज उस स्तर की विशेष दीक्षा देते थे। उस शक्ति से किसी साधारण को हाथ रख दे तो सामनेवाले की मौत तक हो जाये।

शक्ति के खेल का अनुभव मैं समझता हूँ मुझसे अधिक किसी ने न देखा होगा।

जय गुरूदेव।

आपकी फोटो देखकर लोगो को क्रियाये आरम्भ हो जाती थी।

आप महाराज जी की फोटो पर त्राटक कर खुद ही देख ले।

मेरी बात के गवाह कुछ लोग ग्रुप के सदस्य भी है।

आपका कथन बिलकुल सत्य है प्रभु जी, गुरुदेव पॉजिटिव एनर्जी के भंडार है, फोटो तो दूर गुरुदेव का नाम ही काफी है, वास्तव में साधन दौरान गुरुदेव स्वयं सहाय होते है

ठीक है इच्छित लोग त्राटक करे या mmstm करे। इस चित्र के साथ।

चश्मा लगाकर कर ले। पर चश्मे का होश रखे।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html


http://freedhyan.blogspot.com/2018/07/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html

Bhakt Anil Kumar: आपकी biography में कई जगह हास्य हैं जहां खुद को हंसने से रोक नहीं पाता हूं

पहला

जिसमें आपके पिता जी आपको पीटते थे वहां लिखा आपने हॉकीयास्त्र बेटास्त्र जो भी उस समय उपलब्ध हो सके उससे


दूसरा

आप छोटे बडे कीडों को आप डंडी में लगाकर गर्म राख में प्रवेश कराते जिसमें फट फट कि आवाज के साथ उनका फटना


तीसरा

मामी बोली

विपुल तुम तो अच्छे खासे दिखते हो

मित्रो। आज एक खोज की बात कर रहा हूँ। यद्यपि लोग अपने आध्यात्मिक अनुभव गूप्त रखते है किंतु मुझसे सनातन की शक्ति प्रदर्शन  हेतु ध्यान की विधि mmstm का निर्माण करवाया गया। जिसके परिणाम अभी तक शत प्रतिशत और आश्चर्यजनक आये है।

आज मैं वह नाम जप सार्वजनिक कर रहा हूँ। जिसने महाराष्ट्र के अनेको सन्तो को तारा। नाम देव तुकाराम राखू बाई गोरा कुम्भार सेन नाई सहित तमाम नाम है।

जो अदीक्षित है उनके लिए कह रहा हूँ। दीक्षित के मन पर है।

यह नाम जप चमत्कारिक है। आप सिर्फ कुछ मिनट ताली के साथ हल्की ताली बजाकर गाये। आपको आनन्द का अनुभव होगा।यह मेरा विश्वास है।

नाम जप

बिठ्ठला बिठ्ठला

पांडुरंग पांडुरंग

 यह बोलते हुए आंख बंद कर लीन हो जाये। फिर इसका चमत्कार देखे।

जय विठ्ठल श्री हरि।

जय गुरुदेव।


मित्रो जहाँ लाभ मिले। निसंकोच ले लेना चाहिए।

स्वर योग शब्द योग मार्ग का दूसरा नाम है। मैं समझता हूँ। दयालबाग राधा स्वामी मत भी शब्द योग के मार्ग से अंतर्मुखी करते है। अक्षर ब्रह्म है। स्वर भी अक्षर है अतः यह भी ब्रह्म है। अदीक्षित लोग अवश्य इससे बेहद लाभान्वित हो सकते है।

जय गुरुदेव।

यह सही है। पर इस नाम जप की विशेषता खोजी है। तब ही पुनः लोगो को प्रेरित करने का प्रयास किया है।

राम राम हरे कृष्ण तमाम नाम जप सार्वजनिक है पर किंतने लोग करते है।


प्रभु जी सब जगह प्राप्त होने वाली वनस्पति सब लोगो को साधारण सुलभ वस्तु है लेकिन एक जानकार और वैद्य के लिये अमूल्य औषधि।

इस तरह के ज्ञान सिर्फ कुछ हद तक जैसे ब्रह्मा कुमारी जैसे सनकी ही पैदा करते है।

या मुस्लिम और ईसाई । सिर्फ मानो और मानो। अपनी बुद्धि न लगाओ। न कुछ प्रयोग करो न कुछ जानो। जो बोला उसी सीमित दायरे में रह कर असीमित की बात करो।

यह तो बेईमानी है।

सनातन का सिध्दांत तुमको असीमित बनाता है। अपना अनुभव करो। अपनी गीता का निर्माण खुद कर सकते हो। चाहे रामपाल जैसे उल्टी खोपड़ी वाले क्यो न हो।

मित्रो यह कट पेस्ट आपके लिए विशेष है। रमन महृषि बिना गुरू दीक्षा के सिद्ध पुरूष थे। ऐसे योगी कम होते है। आप उनकी जीवनी पढ़े। काफी कुछ ऐसा बोल है जो संयोग से प्रायः मेरे लेखों में भी दिख जाता है।

महऋषि रमण को कोटिशः नमन।

मित्र। विज्ञान कभी सोंच को नही रोकता बल्कि संतुष्ट करता है।


कोई कोई प्रश्न जन कल्याण हेतु भी पूछे जाते है।

तर्क में क्या बुराई। बस झक्क न हो।

जैसे कुछ अज्ञानी ज्ञानी ईश को सिर्फ निराकार बता कर दुकान चला रहे है। यदि ताकत

जैसे तुषार मुखर्जी ने वेद वाणी का उदाहरण देकर आर्य समाज की पूरी सोंच को सीमित कर दिया।

अब जो न माने यह उसकी झक्क है।

सनातन में कहा गया है यदि कही आध्यात्मिक विवाद हो तो वेद वाणी ही अंतिम और मान्य होगी।

यदि आपकी वानी सत्य होगी तो वेद में दी होगी।

यही मैं कहता हूँ। पर जिसका जो अनुभव वह सत्य आप थोप नही सकते। यह अवस्था है पहली कक्षा का विद्यार्थी उसी को सही मानेगा। आप दसवीं कैसे समझाएँगे। यदि समझाते है तो यह आपकी मूर्खता है। आप उसको सारे क्लास पढ़ाकर 10 वी तक लाये।

यही करना लोग भूल जाते है। सीधे सीधे 10 वी बात।

आप गलत बात पर ग्रुप से लोगो को निकालेंगे तो लोग समझ जायेंगे और ग्रुप में बने रहेंगे। मैं किसी को ग्रुप में रुकने हेतु हाथ नही जोड़ता। जिसका प्रारब्ध है वो ही ज्ञान लेगा। बाकी जिसको जाना हो जाये।

मैं तो ईश का काम मॉनकर कर रहा हूँ। उसकी जो इच्छा। मेरी कोई इच्छा नही।

मैं कभी अपने महाराज जी के प्रवचनों का प्रचार नही करता। कारण अधिकतर लोग समझ ही नही पायेगे।

उनको समझने के लिए भी उच्च कोटि का स्तर चाहिए।

एक उदाहरण दे रहा हूँ।

एक प्रश्न था। ग्रुप में देखे कौन समझ पाता है।

क्या मृत्यु भी एक क्रिया है।

आप अपने लेख में ऐसे ही

आत्म ज्ञानी सन्तों की जीवनियाँ

और किस्से जो आत्मज्ञान को जानने में हमारी तकलीफों को कम कर सकें

और जोड दें अपने लेख में अधिक से अधिक आत्मज्ञानी संतों की कहानियां किस्से और जीवनियां इन्हैं पढने में जो आनंद आता है वो अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता

मेरी सर से विनम्र निवेदन

समस्या यही है। उनके प्रवचन लोग समझ ही पाते। यही आपका उत्तर है। वह जहाँ प्रवचन देते थे वह उनके आश्रम के शिष्य होते थे। जिनको कुण्डलनी जागरण और आत्ममय अनुभव थे। तो वह समझ जाते थे। मतलब महाराज जी सभी पोस्ट ग्रेजुएट क्षात्रों को ही प्रवचन देते थे। अब जो d.sc. होगा वह गली कूंचों में तो प्रवचन देगा तो बेकार जाएगा।

देखकर शक्ति पात दिझा देते थे।।रवि शंकर जी उनही से दिझित हैं ।।

कानपुर तो मेरी ज्ञाननगरी है। इस शहर को नमन।

मेरी रोजी रोटी नौकरी की दाता। कानपुर।

सर मेरे ब्लॉग पर मेरी स्वकथा 13 भागो में लिखी है। आप पढ़ने का कष्ट करें। बार बार बोलना या लिखना अजीब है। यह आत्मश्लाघा होगी।

लिंकः

Freedhyan.blogspot.com

चलिए। ग्रुप की टेस्टिंग है। उत्तर है मृत्यु भी एक क्रिया है। पर आप ज्ञानीजन बताये क्यो।

योग सिखाया या योगासन सिखाया।

योग आंतरिक होता है। अनुभव होता है। वह तो कोई समर्थ गुरू ही सिखा सकता है।

मात्र प्रणायाम या आसन योग नही। पातञ्जलि के अष्टांग योग के आठ अंगों में से मात्र दो अंग।

आप रेकी के सुपर मास्टर है। पर शक्तिपात दीक्षित भी है। कुछ और सोंचे।

नही यार 100 में 35 नम्बर। वो भी partiality में। क्योकि मैं तुम्हे विशेष प्रेम करता हूँ।

अब देखो। महाराज जी का एक वाक्य समझ से परे जा रहा है।

मतलब महाराज जी की गहराई कौन नाप सकता है।

हाथ ऊपर।

सोंचो सोंचो।

यह हमेशा सत्य नही।

जोर दो क्रिया क्यो होती है। इसी में उत्तर छिपा है।

अब आप बताओ सर

पहुच रहे हो।

संस्कार न हो तो क्या होगा। यह क्लू है।

सही है। मतलब जीवन नही। जब जीवन नही तो मृत्यु नही।

तो मृत्यु क्या है। जब तक संस्कार है। जीवन मरण के चक्कर लगते रहेगे।

मृत्यु रूपी अंतिम क्रिया होती रहेगी।

जब संस्कार नष्ट। पातञ्जलि के अनुसार चित्त में कोई वृति नही। मतलब जन्म नही।

अब समझे। यह था मात्र एक वाक्य महाराज जी का सब उल्टे हो गए।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

Tuesday, August 13, 2019

शाबर मंत्र और महत्व

शाबर मंत्र और महत्व

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

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एक समय था कि सँस्कृत मात्र जन्मने ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे। उस समय जन्मे गोरखनाथ ने पूर्वी भाषा मे शक्ति देकर कुछ शब्दों को मन्त्र का रूप दे दिया। जो शाबरी मन्त्र कहलाते है। कुछ शिव को इनका जनक मानतें हैं। वैसे शिव का ही रूप गुरू महाराज होते हैं। बाबा गोरखनाथ को शिव का ही रूप मानते हैं।


देखो जब कोई सिद्ध अपनी शक्ति से किसी शब्द को जागृत कर देता है तो वह जागृत ही रहता है।

जैसे आज के समय सारे मन्त्र सारे शब्द नाम जप सब सिद्ध हो चुके है क्योंकि इतने सन्तो ने इनको जपा की ये जागृत ही हो गए है।

शाबर मंत्र आम ग्रामीण बोलचाल की भाषा में ऐसे स्वयंसिद्ध मंत्र हैं जिनका प्रभाव अचूक होता है।


शाबर मंत्र शास्त्रीय मंत्रों की भांति कठिन नहीं होते तथा ये ऐसे हर वर्ग एवं हर व्यक्ति के लिए प्रभावशाली हैं, जो भी इन मंत्रों का लाभ लेना चाहता है।


थोड़े से जाप से भी ये मंत्र सिद्ध हो जाते हैं तथा अत्यधिक प्रभाव दिखाते हैं। इन मंत्रों का प्रभाव स्थायी होता है तथा किसी भी मंत्र से इनकी काट संभव नहीं है।


परंतु ये किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रयोग किए गए अन्य शक्तिशाली मंत्र के दुष्प्रभाव को आसानी से काट सकते हैं। शाबर मंत्र सरल भाषा में होते हैं तथा इनके प्रयोग अत्यंत सुगम होते हैं।


शाबर मंत्र से प्रत्येक समस्या का निराकरण सहज ही हो जाता है। उपयुक्त विधि के अनुसार मंत्र का प्रयोग करके स्वयं, परिवार, अपने मित्रों तथा अन्य लोगों की समस्याओं का समाधान आसानी से कर सकते हैं।


वैदिक, पौराणिक एवम् तांत्रिक मंत्रों के समान ‘शाबर-मंत्र’ भी अनादि हैं। सभी मंत्रों के प्रवर्तक मूल रूप से भगवान शंकर ही हैं, परंतु शाबर मंत्रों के प्रवर्तक भगवान शंकर प्रत्यक्षतया नहीं हैं, फिर भी इन मंत्रों का आविष्कार जिन्होंने किया वे परम शिव भक्त थे।


गुरु गोरखनाथ तथा गुरु मछन्दर नाथ शाबर-तंत्र के जनक हैं। अपने साधन, जप-तप-सिद्धि के प्रभाव से वे भगवान् शिव के समान पूज्य माने जाते हैं। ये अन्य मंत्र प्रवर्तक ऋषियों के समान विश्वास व श्रद्धा के पात्र हैं, पूजनीय व वंदनीय हैं।


शाबर मंत्रों में ‘आन और शाप’ तथा ‘श्रद्धा और धमकी’ दोनों का प्रयोग किया जाता है। साधक याचक होता हुआ भी देवता को सब कुछ कहने की सामर्थ्य रखता है और उसी से सब कुछ कराना चाहता है।


विशेष बात यह है कि उसकी यह ‘आन’ भी फलदायी होती है। आन माने सौगन्ध। अभी वह युग गए अधिक समय नहीं बीता है, जब सौगन्ध का प्रभाव आश्चर्यजनक व अमोघ हुआ करता था।


सामन्तशाही युग में ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले लोग अनाधिकृत कृत्यों के लिए साधारणतया गांव के ठाकुर, गाय या बेटे आदि की सौगन्ध दिलाने पर ही अवैध कार्यों को रोक देते थे।


न्यायालय, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा में आज भी भगवान की ‘शपथ’ लेकर बयान देने की प्रथा है। अधिकांश लोग आज भी अपनी बात का विश्वास दिलाने के लिए सौगन्ध खाया करते हैं।


यह उस समय की स्मृतियां हैं, जब छोटी-छोटी जनजाति तथा उलट-फेर के कार्य करने वाले भी सौगन्ध को नहीं तोड़ते थे। आज परिवर्तन हो गया है- सौगन्ध लोगों के लिए कोई महत्व नहीं रखते, किंतु ‘शाबर’ मंत्रों में जिन देवी -देवताओं की ‘शपथ’ दिलायी जाती है, वे आज भी वैसे ही हैं।


उन देवों पर जमाने की बेईमानी का कोई असर नहीं हुआ है। शास्त्रीय प्रयोगों में उक्त प्रकार की ‘आन’ नहीं रहती, किंतु शाबर मंत्रों में जिस प्रकार एक अबोध बालक अपने माता-पिता से गुस्से में आकर चाहे जो कुछ बोल देता है, हठ कर बैठता है।


उसके अंदर छल-कपट नहीं होता, वह तो यही जानता है कि मेरे माता-पिता से मैं जो कुछ कहूंगा, उसे पूरा करेंगे ही। ठीक इसी प्रकार का अटल विश्वास ‘शाबर’ मंत्रों का साधक मंत्र के देवता के प्रति रखता है।


जिस प्रकार अल्पज्ञ, अज्ञानी, अबोध बालक की कुटिलता व अभद्रता पर उसके माता-पिता अपने वात्सल्य, प्रेम व निर्मलता के कारण कोई ध्यान नहीं देते, ठीक उसी प्रकार बाल सुलभ सरलता, आत्मीयता और विश्वास के आधार पर निष्कपट भाव से शाबर मंत्रों की साधना करने वाला परम लक्ष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।


शाबर मंत्रों में संस्कृत - हिंदी - मलयालम - कन्नड़ - गुजराती या तमिल भाषाओं का मिश्रित रूप या फिर शुद्ध क्षेत्रीय भाषाओं की ग्राम्य शैली और कल्पना का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है। सामान्यतया ‘शाबर-मंत्र’ हिंदी में ही मिलते हैं।


प्रत्येक शाबर मंत्र अपने आप में पूर्ण होता है। उपदेष्टा ‘ऋषि’ के रूप में गोरखनाथ, सुलेमान जैसे सिद्ध पुरूष हैं। कई मंत्रों में इनके नाम का प्रवाह प्रत्यक्ष रूप से तो कहीं केवल गुरु नाम से ही कार्य बन जाता है।


शाबर मंत्र शास्त्रीय मान्यता से परे होते हुए भी अशास्त्रीय रूप में अपने लाभ व उपयोगिता की दृष्टि से विशेष महत्व के हैं। शाबर मंत्र ज्ञान की उच्च भूमिका नहीं देता, न ही मुक्ति का माध्यम है। इनमें तो केवल ‘काम्य प्रयोग’ ही हैं।


इन मंत्रों में विनियोग, न्यास, तर्पण, हवन, मार्जन, शोधन आदि जटिल विधियों की कोई आवश्यकता नहीं होती। फिर भी वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि सहकर्मों, रोग-निवारण तथा प्रेत-बाधा शांति हेतु जहां शास्त्रीय प्रयोग कोई फल तुरंत या विश्वसनीय रूप में नहीं दे पाते, वहां ‘शाबर-मंत्र’ तुरंत, विश्वसनीय, अच्छा और पूरा काम करते हैं।


शाबर मंत्र साधना के महत्वपूर्ण बिंदु: इस साधना को किसी भी जाति, वर्ण, आयु का पुरुष या स्त्री कर सकते हैं। इन मंत्रों की साधना में गुरु की इतनी आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि इनके प्रवर्तक स्वयंसिद्ध-साधक रहे हैं।


फिर भी कोई पूर्णत्व को प्राप्त निष्ठावान् साधक गुरु बन जाए या मिल जाए तो सोने पे सुहागा सिद्ध होगा और उसमें होने वाली किसी भी परेशानी से आसानी से बचा जा सकता है। षट्कर्मों की साधना तो बिना गुरु के न करें।


साधना के समय नित्य-नैमित्तिक कर्मों को पूर्ण करके श्वेत या रक्त वस्त्र या फिर साधना के मंत्र प्रयोग में वर्णित वस्त्र धारण करना चाहिए। आसन ऊन या कंबल का श्वेत, रक्तवर्णी या पंचवर्णी ग्रहण करें तथा एक बार आसन पर सुखासन में बैठकर जप की नियत संख्या पूर्ण कर ही आसन से उठें।


साधना में घी या मीठे तेल का दीपक एक पटल पर नवीन वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर जलाएंगे, जब तक मंत्र जप चले। अगरबत्ती या धूप किसी भी प्रकार की प्रयुक्त हो सकती है परंतु शाबर मंत्र साधना में गूगल तथा लोबान की अगरबत्ती या धूप की महत्ता मानी गयी है।


पुष्प, शुद्ध जल, नैवेद्य यथाशक्ति अर्पण करें। मानस भाव उत्साह व श्रद्धा से पूर्ण हों तो मंत्र शीघ्र ही जागृत हो जाते हैं। जहां दिशा का निर्देश न हो वहां पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख करके साधना करनी चाहिए। इस्लामी साधना में पश्चिम दिशा का महत्व है।


जब तक दिशा निर्देश न हो दक्षिण की ओर मुंह न करें। जहां माला का निर्देश न मिले वहां कोई भी माला प्रयोग में ला सकते हैं। वैसे तुलसी, चंदन, रुद्राक्ष, स्फटिक की माला विशेष फलदायी है। इस्लामी शाबर मंत्र साधना में ‘सीपियों या हकीक’ की माला का विधान है।


यदि माला न हो तो कर रूपी मनोअंक माला का प्रयोग किया जा सकता है। नियमानुसार माला 108 मनकों वाली ही हो। जप की गति मध्यम हो, न तेज न कम। तन्मयता, श्रद्धा, विश्वास मंत्र सिद्धि के अचूक साधन हैं।


अविश्वास, अधूरा विश्वास व अश्रद्धा से फल प्राप्त नहीं होगा। मंत्र बड़ी ही सरलता से सिद्ध हो जाते हैं, परंतु साथ ही विषमता यह है कि इन मंत्रों की साधना करते समय विचित्र प्रकार की भयानक आवाजें सुनायी पड़ती हैं या डरावनी शक्लें दिखने लगती हैं।


इसलिए इन साधनाओं में धैर्य और साहस बहुत ही आवश्यक है। जप के समय किसी भी परिस्थिति में घबराएं नहीं। न ही जप व आसन छोड़ें। साधना-काल में एक समय भोजन करें तथा ब्रह्मचर्य का पालन करें।


साधना दिन या रात्रि में किसी भी समय कर सकते हैं। शाबर मंत्र साधना सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, दशहरा, गंगा दशहरा, शिवरात्रि, होली, दीपावली, रविवार, मंगलवार, पर्वकाल, सूर्य संक्रांति या नवरात्रियों से प्रारंभ की जा सकती है।


मंत्र का जाप जैसा है वैसा ही करें, अपनी तरफ से कोई परिवर्तन न करें। उच्चारण की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।


मंत्र जप घर के एकांत कमरे में, मंदिर में, नदी-तालाब-गौशाला, पीपल वृक्ष या जप विधि में निर्देशित स्थान पर ही करें। साधना प्रारंभ करने की तिथि-दिन याद रखें।


प्रतिवर्ष उन्हीं तिथियों में मंत्र का पुनः जागरण करें। जागरण में कम से कम एक माला जप के साथ होम (यज्ञ) भी करें। अधिक जप करने पर अधिक फलदायी होता है।

भाई यदि उनका मन होगा तो वह स्वयम आपसे व्यक्तिगत सम्पर्क कर लेंगे। मैं किसी के मान को ठेस नही पहुंचा सकता।

माता जी के सब पुत्र है और आदेश करें सब वयवस्था परमात्मा करेंगे हम लोग निमित्त मात्र है।।

नहीं। यह इशारा है तुम्हारी सोंच में बदलाव का। अब नशा छोड़ो और तैयार हो नए अनुभव के लिए।

वैसे यह किसी मातृ तुल्य रिश्तेदार की मृत्यु का भी संकेत हो सकता है।

आदरणीय विपुल सर जी

महोदय   कई महीनों पहले आप ने   ढोल गवार शुद्ध पशु नारी    पर एक बहुत ही सुंदर लेख लिखा था  जो कि एकदम सटीक था  एक बार वहीं पोस्ट डालने की कुपा करें   धन्यवाद

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_16.html

मित्र। आपका अनुभव उत्तम है पर यह कुछ भी नहीं। शक्तिपात दीक्षा के बाद इस ग्रुप में कुछ सदस्य है जिनको खेचरी उड्डयन और जलन्धर बन्ध जो रामदेव जैसे लोग भी नही कर सकते वह स्वतः लग जाते है। अतः आप भयभीत न हो। आनन्द ले। यह प्रणायाम इत्यादि गौण है जो स्वास्थ्य के साथ प्रारंभिक स्तर की होती है।

आप mmstm चालू रखे। आपकी दीक्षा का समय आ रहा है।

मित्र आप यह लेख अन्य लेखों के साथ मेरे ब्लॉग पर देख ले।

Freedhyan.blogspot.com

कोई अनुभव न अच्छा होता है न बुरा। यह बस शक्ति का खेल होता है।

आप अपने गुरूपर श्रद्धा रखे। हा यदि आपको इसके आगे की दीक्षाये जैसे ब्रह्मचर्य या सन्यास चाहिये तो गुरू बदलना पड़ेगा। क्योंकि आसाराम ग्रहस्थ्य है।

देखिये गुरू के शरीर पर न जाये ये एक शक्ति है। गुरू का शरीर गलती कर सकता है अपने कर्मो का प्रारब्ध का फल भी भोग सकता है। पर उनकी शक्ति निष्कलंक होती है। अतः आप अपने गुरू को ही समर्पित रहे।

जय गुरुदेव।

देखिये। आसाराम जी के शरीर ने जो पूर्व में वर्तमान में गलत कार्य किये है उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा।

पर ज्ञान और शक्ति तो निराकार शुद्ध और निष्कलंक होती है।

अतः आप गुरू तत्व को समर्पित हो। एक वार आसाराम के नाम या शरीर को छोड़ सकती है।

अनुभव को पकड़ कर न बैठे। यह सब पड़ाव होते है।

देखिये विज्ञान की डॉक्टर की सीमा है।

यह क्रिया है।

दुनिया के सामने न करे। यह जगत आपको पागल समझेगा।

विपुल सर आप कह रहे थे कि एक बार आनंदमय कोष में पहुंच जाने के बाद आनंदित रहते हुए सांसारिक कार्यों को कर सकते हैं

आनंदमयकोष में पहुंचना मतलब सहस्त्रार का सक्रिय होना? ? ?

जी

आपकी शक्ति कंट्रोल नही है। आप कहाँ रहती है।

लगे रहो मुन्ना भाई

क्या आप दोबारा शक्तिपात दीक्षा लेकर संतुलित होना चाहेगी।

देखिये यह डिग्री होती है। आसाराम जी के भी पिता धरती पर है। मैं समझा रहा हूँ किसी का अपमान नही कर रहा।

हा जो संस्कार जनित प्रारब्ध होते है वह यदि बीमारी के रूप में है तो स्वतः ठीक हो जाते है। बस साधन करते रहो।

आप कहाँ रहते है।

कालपी, जनपद-जालौन, उ.प्र.

ग्रेजुएट हूं..नौकरी कर रहा हूं

व्यक्तिगत आओ

मतलब उनसे भी शक्तिशाली गुरू है जो प्रचार प्रसार से दूर रहते है।

कर ले। नम्बर में जल्दबाजी नही।

सभी नए सदस्यों का स्वागत है। ग्रुप में केवल आध्यात्मिक अनुभव हेतु ही पोस्ट डाले। गुड़ मार्निंग इवनिग और फोटो पोस्ट करने से बचे।

अपने लिखे भजन इत्यादि डाल सकते है।

मित्र आर्यसमाजियों के साथ और अन्य परम्पराओं के साथ पूर्वाग्रहीत सोंच कुछ हद तक झक होती है।

जैसे मैं सभी मन्त्र समान देखता हूँ। महाराज जी शक्तिपात किसी भी शब्द नाम या मनचाहे मन्त्र से कर देते है। पर कुछ लोग है जिनकी बुद्धि विकसित नही होती वह किसी एक के पीछे ही पड़े रहते है।

प्रभु जी, यूं तो हमाऱा परिवार भी आर्य समाजी ही है, मेरे पिता जी आर्य समाजी, मेरी माँ सनातनी, प्रभाव माँ आर्य समाज का आदर करती है पिता जी सनातन का।  मेरे अभिभावक कहते है की कभी भी एक चीज़ को रटो मत, समझो, क्योंकि यदि समझोगे नही तो सामने वाली सोच या वस्तु तुम्हे अपनी गिरफत में ले लेगी। वैसे आर्य समाज बुरा नही यह हर प्रकार के पाखण्ड से बचाता है, धर्म के कारोबार से बचाता है यदि बुरे है तो इसके पैरोकार।

कर्मगति टारे नाही टरे।

दुनिया समझ नही पा रही है। यह भक्ति की अवस्था है।

आप घरवालों के नाम व्यक्तिगत पोस्ट कर दे। मैं एक दो दिन में मन्त्र दे दूंगा।

अतः आप सब ने देखा होगा जितने भी संतों ने ईश्वर के दर्शन किये उन सभी संतों ने जन मानस कि सेवा के लिए परोपकार के श्रेष्ठ और शुभ कर्म भी किये.


अकर्मण्य को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता.

इनको लेख का रूप देकर डालो।

कल ध्यान में मन्त्रो का तुलनात्मक अध्ययन किया। मेरी निगाह में सब समान है व्यक्ति विशेष का अंतर है बस। सब सिद्ध हो चुके है। पर मन्त्रो में नवार्ण मन्त्र को श्रेष्ठतम बताया। क्योकि गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र नवार्ण मन्त्र में ही समाहित है।

कारण भी समझाया गया। समय मिलने पर लिखूंगा।

मित्र साक्षात्कार हेतु समाधि आवश्यक नही। समाधि पर भी लिख रहा हूँ। लोगो को बहुत भरम है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_17.html

आपने मेरे लेख को पढा नही। मैं बार बार कहता हूँ। सब नाम मन्त्र इत्यादि सिद्ध यानि जीवित हो चुके है। आप कुछ भी करो पर करो। बिना जाने बिना बुझे। सतत निरन्तर निर्बाध समर्पण के साथ।

मैंने सिर्फ मजबूरीवश तुलना करने का दुस्साहस किया। जो मेरी क्षमता के बाहर है। परंतु व्यर्थ के छोटे बड़े मन्त्र के विवाद के कारण मुझे इस पर चर्चा करने हेतु ध्यान और मीमांसा करनी पड़ी।

यह मुझे अच्छा नही लगा। किंतु अज्ञानी ज्ञानियों के लिए जो छोटा बड़ा पूवाग्रह लेकर बैठे है अपनी अपनी सीमित सोच को दुनिया मे प्रचारित कर रहे है।

मेरे लिए नवार्ण गायत्री महामृत्यंजय राम नाम बिट्टल सब नाम बराबर। यह सत्य है मेरा आधार मन्त्र नवार्ण है पर मुझे क्रिया या ध्यान हेतु कुछ भी चलता है और बराबर क्रिया भी होती है।

मुझे लगता है मुझे सभी देवों का आशीष है। माँ गायत्री का भी अनुग्रह है।

जय महाकाली गुरुदेब। जय महाकाल।

मेरे विचार से यह उचित भी था ताकि लोग मन्त्रो के रहस्य भी जान सके। दूसरे यह माँ जगदम्बे की कृपा से अचानक ही हो गया और तर्क मीमांसा स्वतः स्पष्ट हो गई।

मैंने तो लिख भी दिया है अंत मे मैं अज्ञानी मूर्ख मुझे कुछ नही पता। सब माँ की कृपा ने लिखवाया।

यही सत्य है। जापक अधिक महत्वपूर्ण है।

जो घड़ा खाली होता है उसमें अधिक द्रव भरत है। जिसमे कचरा हो तो पहले वह खाली होता है। यह स्थिति उनकी है जो शरण मे आते है।

दूसरी बात गीता रामायण चालीसा मन्त्र नाम जप सब स्वतः सिद्ध है जीवित है। अतः बिना अर्थ जाने या न जाने इसमें कोई अंतर नही। बस आवषयक है आपकी एकाग्रता और समर्पण और जप संख्या।

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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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कर्मणे ब्राह्मण और सांख्य चर्चा

कर्मणे ब्राह्मण और सांख्य चर्चा 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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अब अंदर का मजा लो। बाहर का बन्द कर दो।

यह जगत है  इसमें रह कर ही सब करना पड़ेगा। इसको छोड़ने की सोंचना कायरता है।

मुझे भी अभी 2 साल नौकरी करनी है।

कायर मत बनो। पुरुषार्थ जगत छोड़ने में नही।

दो रोटी के कारनै , साथ झमेला यार।

राम राम को तू भजे, कर दे बेड़ा पार।

न बुद्ध बनो न महावीर। बनना है तो कृष्ण बनो।

कार्य कोई भी छोटा बड़ा नही होता। सब कार्य बराबर होते है । हा बाजार भाव के कारण मूल्य अलग हो सकते है।

ऐसा आवश्यक नही।

जब किसी को किसी मन्त्र के जाप से कोई अनुभव या क्रिया होने लगती है तो वह प्रायः मात्र व्यक्ति विशेष की अनुभूति होती है। सबको नही भी हो सकती है। क्योंकि हर व्यक्ति के कर्म और प्रारब्ध अलग होते है।

दूसरे हर व्यक्ति को अनुभूतिया भी अलग हो सकती है। क्रिया के करोड़ो रूप हो सकते है।

जय गुरू देव जय महाकाली जय महाकाल


मैं जानता हूँ कुछ मित्रो को जिनको मात्र कुछ सालों में नवार्ण मन्त्र के जाप से कुण्डलनी जागृत हो गई। देव दर्शन हो गई। काली मन्त्र के जाप से 3 साल में काली मां प्रकट हो गई। किंतने 25 साल से गायत्री कर रहे है सिर्फ कुछ अनुभूतिया हुई।

इसका यह मतलब नही की कौन मजबूत कौन कमजोर। हर मन्त्र हर नाम जप करोड़ो द्वारा सिद्ध किये जा चुके है। जितना राम या कृष्ण शक्तिशाली उतना शक्तिशाली और मन्त्र नही भी हो सकता है।

मन्त्र और नाम जप के परिणाम व्यक्ति विषेश पर ही निर्भर हैं। किसी मन्त्र या नाम जप पर नही।

सब बराबर है बस करो तो उसका नाम या मन्त्र जप।

 लीन हो जाओ। करो सतत निरन्तर निर्बाध सदैव। हो जाओ समर्पित। कर लो प्रेम।

इसी में तुम्हरा कल्याण है। सब एक है अनन्त है। बस तुम मूर्ख हो जो अलग देखते हो।

जय महाकाली। जय गुरूदेव।

आत्मा किसी की भी वह। अविनाशी निर्विकार और दोषों के रहित होती है। वह शुद्ध ईश का ही रूप होती है।

अहंकार यानि मेरा वास्तविक स्वरूप आकार। वह क्या है जो गीता में बताया है। यह योग के द्वारा जब योग घटित होकर अनुभव देता है तब ज्ञात होता है।

अहंकार यानि घमंड जो वाहीक ज्ञान के कारण अज्ञानता के कारण होता है।

अंतर्मुखी होने के बाद जब हमे अपनी आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव होता है। वेदांत उसे योग कहता है । यह क्षणिक होता है पर ज्ञान और अनुभव के पिटारे दे जाता है।

फिर धीरे धीरे हम निष्काम कर्म की ओर स्वतः अग्रसर होते है तो हमे कर्म योग का अनुभव होता है। जिसके लक्षण गीता में बताये जो समत्व, स्थिर बुद्धि और स्थित प्रज्ञ हो जाता है। स्थित प्रज्ञ वह जिसका मन बुद्धि अहंकार मुझमे ही लीन हो। यानी जो आत्मस्वरूप में लीन हो जाये। इसी को आगे बढाते हुए तुलसीदास ने कहा। जिसमे संतोष आ जाये। यानि जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिए। यहाँ निष्क्रिय नही बल्कि कर्म करो पर फल की चिंता छोड़ दो।

जब मैं ही ब्रह्म हूँ इसकी अनुभूति होती है। मेरी आत्मा ही परमात्मा है। इसका अनुभव होता है। तो घटित होता है ज्ञान योग।

यह सारी अवस्थाये अनुभव अनूभूति की है। किताबे बेकार।

पातञ्जलि ने यही कहा। जब हम कर्म करते है तब हमारे मन मे कोई भाव न उतपन्न होने से हमारी चित्त में कोई वृत्ति उतपन्न नही होती । वह ही योग है।

पहले आप mmstm करे। जो अनुभव हो वो बताये।

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जी प्रारम्भ योग कुछ क्षणों के लिए ही होता है। किंतु यह सब कुछ दे जाता है। पर अपने कर्मो के द्वारा यह हमारे में परिलक्षित होना चाहिए। यह होने के बाद ज्ञान मिलता है पर यदि मनुष्य सही मार्ग से भटक जाए तो वह ज्ञान सहित पतन की ओर भी अग्रसर हो सकता है।

अतः मनुष्य को कहां पान संगत और पंगत पर ध्यान देना चाहिए।

ज्ञान ग्रंथी खुलने पर ज्ञान को प्रचारित करने का तूफान आता है। क्योंकि आत्म गुरू जागृत हो जाता है।

वास्तव में यह परीक्षा होती है। योग के बाद शक्ति आ जाती है किसी को भी क्रिया करवाने की किसी की भी कुण्डलनी खोलने की। अतः मनुष्य बिना गुरू आदेश के या परम्परा के गुरू बनना चाहता है। जो धीरे धीरे शक्ति ह्वास होने से नीचे गिरता है।

बड़ी कठिन है राह पनघट की।

ध्यान प्रयास सतत करते रहने से मनुष्य बचा रहता है।

तब यह पुरावृति समय समय पर घटित होने लगती है। धीरे धीरे इसकी अवधि स्वतः बढ़ेगी। हम सिर्फ सत्मार्ग की ओर अपनी शक्ति बचाते हुए चले।

यदि गुरू बन गए तो पतन निश्चित।

जो ईश्वर से मांगता है वह सबसे बड़ा भिखारी। स्वामी विविकानन्द

मित्र योग के अनुभव की अवस्था कुछ पलों की ही होती है।

अहम ब्रह्मासमी। सोअह्म। शिविहम योग यह सब कुछ पलों के ही अनुभव होते है। परन्तु सब दे जाते है।

मेरी बात शिव और कृष्ण भी न काट सकते। यदि यह हमेशा है तो लोगो के भरम।

अब क्या बोलूं इसके आगे।

कृष्ण और युधिष्ठिर का किस्सा सर्वविदित है।

इस दशा की समयाविधि कुछ पलों से कुछ मिनट तक ही होती है।

हा नशा आनन्द लगातार रह सकता है। एक अवश्था के बाद जरा सा ध्यान किया चाय पीते पीते ही सही। सर टुन्न और नशा और आनन्द चालू।

नशा लगातार रह सकता है। पर यह योग की अवस्था नही।

समाधि स्वयं लग जाती है। अब यह कौन सी यह बताना मुश्किल।

प्रकाश इत्यादि मात्र क्रियाये और बेहद आरंभिक स्तर की अनुभूति।

यह सब कर्मो में दिखना चाहिए। किसी ने पुरुस्कार दिया। खुश दुनिया को बताते फिरे। यह योगी के लक्षण नही।

कुछ करने का मन नही होता। मतलब आलस्य वाला नही। मतलब किसी प्रकार की घटना से कोई प्रभाव नही। किसी ने गाली दी चलेगा। कोई अंतर नही। किसी ने सम्मान दिया कोई फर्क नही।

धन डूब गया। चलेगा। मिल गया चलेगा। किसी से मोह नही। कोई अपना नही सिर्फ कर्तव्य का बोध।

यह योगी के लक्षण है।

जिसे गीता ने समझाया है।

जब इस अवस्था मे अपने कर्म कुशलता से किया जाए तो पातंनजली की बात। हमारे चित्त में वृत्ति नही आएगी।

गुरू महाराज के अनुसार यदि कर्म भी क्रिया रूप में हो तो संस्कार संचित नही होते।

महाराज जी का यह वाक्य ही बड़े बड़े ज्ञानी समझ नही पायेगे।

अब अपने अनुभव से क्रिया और कर्म समझो। तो कुछ समझ पाओगे।

एक बात समझ लो इतने भार के साथ वर्षो बाद सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर सिर्फ और सिर्फ महाराज जी की वाणी पर अमल कर के ही चढ़ पाया था।

पहाड़ी पर चढ़ना एक क्रिया कर्म था। अतः कोई थकान भी नही आई।

यदि किसी कर्म को क्रिया रूप में लेलो तो वह कर्म सहज हो जाता है। और संस्कार संचित नही होते।

सँ लिप्तता के बिना कर्म कैसे होगा। पर फल क्रिया के कारण  पैदा नही होगा।

एक बात और यदि पापी भी प्रभु का नाम जप्त है तो तर जाता है। प्रभु स्मरण और भक्ति तुमको सब दे देती है गुरू से ज्ञान तक। ध्यान से समाधि तक। शून्य से अनन्त तक सारे ज्ञान सारे अनुभव। अतः यदि भला चाहते हो तो न चाहते हुए भी जो देव अच्छा लगे। उसका सतत निरन्तर निर्बाध मन्त्र जप और नाम जप। उसका ध्यान करते रहो करते रहो।


कुछ उदाहरण है वेदों से। जब यह सब कर्म से  ब्राह्मण बन गए। अर्थात ब्रह्म का वरण कर लिए।

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)


(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |

(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए  और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया


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सांख्यदर्शन के कुछ स्मरणीय अंश

* सांख्यदर्शन के प्रवर्तक - देवहूति और कर्द्दम के पुत्र महर्षि कपिल ।

* सांख्य शब्द का अर्थ - समुपसर्गात् "ख्या" ( प्रकाशने) धातुः , 'अङ्ग' प्रत्यये 'टाप्' प्रत्यये च संख्याशब्दस्य निष्पत्ति:। ततः 'तस्येदम्' इत्यनेन ' अण्' प्रत्यये सांख्यम् इति पदस्य निष्पत्ति:।


* सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ - षष्टीतन्त्रम् , तत्त्वसमास , सांख्यप्रवचनसूत्र , सांख्यषडाध्यायी।


* कपिलमुनि के शिष्यों के नाम क्रमशः - आसुरी, पंचशिख, ईश्वरकृष्ण , भार्गव , उल्लूक , वाल्मीकि , हारीत , वार्षगण्य , वशिष्ठ , गर्ग।


* ईश्वरकृष्ण के द्वारा आर्या छन्द में सांख्यकारिका की गई।


* सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्वों का विचार है।

वे तत्त्व है - पुरुष, प्रकृति, महत्( बुद्धि) , अहङ्कार, पञ्चतन्मात्राएँ ( रूप , रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द) , मन, पञ्चज्ञानेन्द्रिया( चक्षु , रसना, घ्राण, त्वक, श्रोत्र) पञ्चकर्मेन्द्रिया ( वाक् , पाणि , पाद , पायु, उपस्थ) पञ्चमहाभूत ( पृथ्वी , आप , तेज , वायु, आकाश )


* इन पच्चीस तत्त्वों को चार भागों में विभाजित किया गया है।

1 . केवलप्रकृति - (प्रकृति अथवा प्रधान)

2. प्रकृतिविकृति - ( महद् , अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ )

3. केवलविकृति - ( पञ्चकर्मेन्द्रिया, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, मन, पञ्चमहाभूत )

4. न प्रकृति न विकृति - ( पुरुष)


सांख्यदर्शनानुसार दुःख तीन प्रकार के होते हैं।

1. आदिदैविक।

2. आदिभौतिक ।

3 . आध्यात्मिक । ( शारीरिक , मानसिक)


* सत्कार्यवाद - सत एव सज्जायते इति।

सत्कार्यवाद के पांच प्रमाण -

1. असदकरणात्।

2. उपादानग्रहणात्।

3. शक्तस्य शक्यकरणात्।

4. सर्वसम्भवाभावात्।

5. कारणभावात्।


* प्रकृति की सिद्धि के पाँच कारण।

1. कारणकार्यविभागात्।

2. अविभागाद्वैश्वरूस्य।

3. शक्तित: प्रवृत्तेश्च।

4. परिमाणात्।

5. समन्वयात्।


* सांख्यदर्शन तीन प्रमाणों को स्वीकृती देता है।

1 . प्रत्यक्ष।

2. अनुमान।

3. शब्द।


*अनुमान तीन प्रकार के होते है।

1. पूर्ववत्  2. शेषवत् 3. सामान्यतोदृष्ट।


* प्रत्ययसर्ग चार प्रकार के होते है।

1. विपर्यय।

2. अशक्ति।

3. तुष्टि।

4. सिद्धि।


* विपर्यय पाँच प्रकार के होते है।

1. तम।     2. मोह।     3. महामोह।   4. तामिस्र ।

5 . अन्धतामिस्र।


* अशक्ति 28 प्रकार के होते है -

आंध्य , बाधिर्य, अजिघ्रत्व, मूकत्व , जणत्व, कुंठित्व,

आनन्द लो कृष्ण अनुभूति का। जीवन रसमय रहेगा।

आह। आनन्द आनन्द। परमानन्द। जय महाकाली गुरुदेब। क्या नशा दिया। बस उड़ने लगे। अब आगे क्या। राम जाने।

यह नशा जो पीता है सिर्फ वोही बता सकता है। बाकी सिर्फ मुह पीटेंगे।

जय हो प्रभु। आनन्दम।

किसी मित्र ने पूछा था कि शिव और शक्ति का मानव रूप में आना सम्भव क्यो नही।

देखो मित्र कृष्ण विष्णु के रूप। विष्णु इस दृश्यमान जगत के मालिक। क्योकि उनकी पत्नी कौन शक्ति कौन लक्ष्मी। लक्ष्मी की आवश्यकता पड़ती है जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व तक बस। यानि विष्णु मालिक जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व। तो इस रूप में कौन आ सकता है।

दूसरे मानव यानि आठ कला का पुतला। उसका मालिक विष्णु। इस कला में क्षमता नही कि शिव और शक्ति की कला जो आठ से अधिक उसको वहन कर सके। पर सिद्ध पुरुष 12 कला तक यानि वे शिव शक्ति से सायुज्य प्राप्त कर सकते है। पर पूरे शिव नही।

अतः श्री कृष्ण जो 16 कला के थे सिर्फ उन्हीं का रूप मानव की 8 कला तक की योनि में आ सकता है।

जय श्री कृष्ण।


एक बात और यदि आप साकार में किसी की भी पूजा करे। आपके बजरंग बली सहायक रहते है। पर कृष्ण भी साकार में स्वतः आकर आपको निराकार का अनुभव करा देते है।

ग्रुप के एक सदस्य की माँ माता जी के सायुज्य में है। पर उनको कृष्ण दर्शनाभूति हुई। वे परेशान। मेरे पास सन्देश आया। पर इसका अर्थ है अब उन्हें शीघ्र ही निराकार की अनुभूति कृष्ण करायेगे।

जय श्री कृष्ण।

कुछ मत मांगो कुछ मत बोलो। सब स्वतः मिल जाता है। माँगनेवाला तो भिखारी होता है। प्रभु से भीख नही प्रभु को मांगो। बल्कि मांगना तो प्रभु पर सन्देह करना होता है।

मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान।

जो जन मांगे नही कछु, सब मिल जाता  जान।।


प्रवासी चेतना मासिक पत्रिका ने एक साक्षात्कार ले लिया और छाप दिया। पत्रिका प्रदान करने स्वयं सम्पादक जी और पत्रकार महोदया स्वयं आ गए।

आप दोनों को धन्यवाद।

इन्ही माधवी सिंह जी ने साक्षात्कार लिया है।

भगवती के पुत्र को प्रणाम।।


आज मेरा मन व्यथित हुआ। मतलब अच्छा नही लगा। ग्रुप के एक सदस्य को क्रिया हो रही है। पर उनके पास इतना धन नही कि वे रेलवे टिकट ले सके और दीक्षा के लिए जा सके। उनको सहायता की पेशकश मैने नही की। क्योकि उनको बुरा न लगे। अतः मैंने उनकी माँ जिनको माता जी का सायुज्य प्राप्त है। पर वे गुरू नही है। उन्ही को गुरू मानने को बोल दिया। ताकि इनकी शक्ति अपनी माता जी की शक्ति से जुड़ जाये और इनकी क्रिया नियंत्रित हो सके।

कारण इनकी माँ को कोई ऐसी क्रिया या आवेग नही होता है जो अनियंत्रित हो। मतलब वह माँ जगदम्बे की शक्ति को संभाल पा रही है।

उनकी माता बिना पढ़ी लिखी है। बचपन से माता का जाप करती आ रही है। अनिको अनुभव और दर्शनाभूति कर चुकी है। याबी उनको कृष्ण दिखते है। मतलब वे निराकार का भी अनुभव करनेवाली है मुझे ऐसा लगता है।

कभी कभी स्वतः ज्ञान प्राप्त बिना गुरू के भी भक्ति की पराकाष्ठा में पहुँच कर उस स्तर पर पहुँच जाते है जहाँ शक्ति स्वयं गुरु बन जाती है। ऐसा कम होता है पर होता है।

जैसे रमण महृषि, अरविंद घोष इत्यादि।

किताबी ज्ञान को मैं दीमकी ज्ञान ही मानता हूँ।

वेदों द्वारा सिर्फ मार्ग दर्शन हो सकता है। ज्ञान प्राप्त नही हो सकता सब मात्र शब्द है।

ज्ञान तो तब ही होता है जब हम अपने अंदर से होकर अपने को पढ़ने लगते है।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

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