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Wednesday, August 14, 2019

कम्बल चोर और बृक्ष त्रिवेणी

 कम्बल चोर और बृक्ष त्रिवेणी

 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

तर्क वो करे जो विषय का पूर्ण जानकार हो।

तर्क का विषय चाहे कुछ भी हो भाषा मर्यादित रहे।

जब तर्क चले कोई अन्य सदस्य बीच में रोक टोक न करे।

तर्क में यदि किसी धर्म, संप्रदाय, भाषा, व्यक्ति पर हो तो जानकार ही बोले।

किसी के गुरु को लेकर तर्क करने से बचे जब तक आवश्यक न हो

शब्द और पोस्ट ज्यादा न हो कम से कम शब्द और अनुकरणीय शब्दो का ही प्रयोग करे।

पुस्तक आधारित तर्क और अनुभव आधारित तर्क एक साथ न हो अर्थात या तो तर्क पुस्तक आधारित हो या अनुभव आधारित।

अनुभव आधारित तर्क ही अधिकतम मान्य होंगे,

तर्क का उद्देश्य विद्वत्ता साबित करना न हो अपितु कल्याण की भावना हो।

मित्र स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज। गूगल में डालो। मिल जाएगा।


मित्रो। कल मेरे एक ग्रुप सदस्य मित्र की पत्नी को विगत चार दिनों से साधना के समय कोई सुंदर सी वृद्ध स्त्री पास आकर बैठ जाती थी। मेरे कथनानुसार बात करने कल रात पर वह स्त्री देवी अष्टभुजा का रूप धारण कर काफी देर तक लीला करती रही। और भी कुछ हुआ। साक्षात प्रसाद का भी प्रदान हुआ।

निराकार वाले ज्ञानी अभी भी कहेंगे। ईश तो निराकार ही है।

उन ज्ञानियों को गीता का यदा यदाहि धर्मस्य श्लोक समझ लेना चाहिए जो साफ साफ कहता है। मैं अनिको शरीर धारण कर सन्तो की रक्षा करता हूँ।

जय माता दी। जय गुरुदेव।

भक्त की श्रद्धा mmstm में विश्वास ने आज एक और मील का खम्भा गाड़ दिया।

जय हो सत्य सनातन

जय हो सनातन शक्ति।

ग्रुप के अन्य सदस्य यदि चाहे तो अपनी अनुभूति शेयर कर सकते है ताकि अन्य को भी प्रेरणा मिले।

निवेदन है अब  कुछ श्रीमद्भगवद्गीता पर भी व्याख्या प्रस्तुत करें।

एक दिन फकीर के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था।

सिर्फ एक कंबल था, जो फकीर ओढ़े लेटा हुआ था।

सर्द रात, फकीर रोने लगा, क्योंकि घर में चोर आएं और चुराने को कुछ नहीं है, इस पीड़ा से रोने लगा।


उसकी सिसकियां सुन कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो?

फकीर बोला कि आप आए थे - जीवन में पहली दफा,

यह सौभाग्य तुमने दिया! मुझ फकीर को भी यह मौका दिया!

लोग फकीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते, सम्राटों के यहां जाते हैं।

तुम चोरी करने क्या आए, तुमने मुझे सम्राट बना दिया।

 

ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से भर गई हैं,

सिसकियां निकल गईं,

क्योंकि घर में कुछ है नहीं।

तुम अगर जरा दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं इंतजाम कर रखता

दो—चार दिन का समय होता तो कुछ न कुछ मांग—तूंग कर इकट्ठा कर लेता।

अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचेगी।


चोर घबरा गए, उनकी कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा आदमी उन्हें कभी मिला नहीं था।

चोरी तो जिंदगी भर की थी,

मगर ऐसे आदमी से पहली बार मिलना हुआ था।


*भीड़— भाड़ बहुत है, आदमी कहां?*

*शक्लें हैं आदमी की, आदमी कहां?*


पहली बार उनकी आंखों में शर्म आई, और पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए।


मना करके इसे क्या दुख देना, कंबल तो ले लिया। लेना भी मुश्किल! क्योंकि इस के पास कुछ और है भी नहीं,

कंबल लिया तो पता चला कि फकीर नंगा है। कंबल ही ओढ़े हुए था, वही एकमात्र वस्त्र था— वही ओढ़नी, वही बिछौना।


लेकिन फकीर ने कहा. तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है। फिर तुम आए, सर्द रात, कौन घर से निकलता है। कुत्ते भी दुबके पड़े हैं।

तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे खबर कर देना।


चोर तो ऐसे घबरा गए और एकदम निकल कर झोपड़ी से बाहर हो गए।

जब बाहर हो रहे थे तब फकीर चिल्लाया कि सुनो, कम से कम दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो।

आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा।


कुछ ऐसी कड़कदार उसकी आवाज थी कि उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागे।

फकीर खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों को देखता रहा।

*कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है, वही तो ईश्वर है।*


कुछ समय बाद वो चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला,

वह कंबल भी पकड़ा गया। और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था।

वह उस प्रसिद्ध फकीर का कंबल था।


जज तत्‍क्षण पहचान गया कि यह उस फकीर का कंबल है।

तो तुमने उस फकीर के यहां से भी चोरी की है?

फकीर को बुलाया गया। और जज ने कहा कि अगर फकीर ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया है,

तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है।

उस आदमी का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है।

फिर जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा।


चोर तो घबरा रहे थे, काँप रहे थे

जब फकीर अदालत में आया।

और फकीर ने आकर जज से कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं।

मैंने कंबल भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था।

और जब धन्यवाद दे दिया,

बात खत्म हो गई।


मैंने कंबल दिया, इन्होंने धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं,

ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।

जज ने तो चोरों को छोड़ दिया, क्योंकि फकीर ने कहा. इन्हें मत सताओ, ये प्यारे लोग हैं, अच्छे लोग हैं, भले लोग हैं।


चोर फकीर के पैरों पर गिर पड़े और उन्होंने कहा हमें दीक्षित करो।

वे संन्यस्त हुए।

और फकीर बाद में खूब हंसा।

और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था।

इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थी।


झीनी—झीनी बीनी रे चदरिया

उस फकीर ने कहा प्रार्थनाओं से बुना था इसे।

इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था। इसमें मेरी समाधि का रंग था,

गंध थी। तुम इससे बच नहीं सकते थे।

यह मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले ही आएगा तुमको

उस दिन चोर की तरह आए थे

आज शिष्य की तरह आए।

मुझे भरोसा था।

क्योंकि बुरा कोई आदमी है ही नहीं।

श्रीरामचरितमानस : उत्तर काण्ड

सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ । भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ।।

तिन्ह कर संग सदा दुखदाई । जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ।।


अब असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है ।।


खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी । जरहिं सदा पर संपति देखी ।।

जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई । हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ।।


दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो ।।


काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।।

बयरु अकारन सब काहू सों । जो कर हित अनहित ताहू सों ।।


वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं ।।


झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चबेना ।।

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अहि हृदय कठोरा ।।


उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है।

(अर्थात्‌ वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए, अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से परहेज है, इत्यादि।

मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं। (परंतु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं) ।।


पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद । ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ।।


वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही तो हैं ।।


लोभइ ओढ़न लोभइ डासन । सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न ।।

काहू की जौं सुनहिं बड़ाई । स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ।।


लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात्‌ लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें ज्वर आ गया हो ।।


जब काहू कै देखहिं बिपती । सुखी भए मानहुँ जग नृपती ।।

स्वारथ रत परिवार बिरोधी । लंपट काम लोभ अति क्रोधी ।।


और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्‌भर के राजा हो गए हों। वे स्वार्थपरायण, परिवारवालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं ।।


मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं । आपु गए अरु घालहिं आनहिं ।।

करहिं मोह बस द्रोह परावा । संत संग हरि कथा न भावा ।।


वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपनी संगत से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है, न भगवान्‌ की कथा ही सुहाती है ।।


अवगुन सिंधु मंदमति कामी । बेद बिदूषक परधन स्वामी ।।

बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा । दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ।।


वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी, वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषरूप से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं ।।


ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं। द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ।।

ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे ।।

(यह प्रसंग है - भरतजी की जिज्ञासा पर भगवान का उपदेश)


देखो तुम जिस मार्ग पर हो। वहाँ दर्शनाभूति किसी भी देव की हो सकती है। पर अपना इष्ट केवल एक बनाओ। मतलब बाइक ग्राउंड देव।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_25.html

मित्र। नाम जप हमें तकलीफ सहने की क्षमता देता है। अतः यह मत सोंचो की प्रभु को याद किया तो सब अच्छा ही अच्छा।

दूसरे बात कि हम बासी भोजन करते है। मतलब पूर्व जन्म के संस्कार जो प्रारब्ध बन जाते है वो भी भोगते है।

आफिस में मुझे सबसे धीरे गति से उन्नति मिली। मेरे कनिष्ठ तक वरिष्ठ हो गए पर मुझे कोई शिकायत या मलाल नही।

क्योकि जीवन का माप दण्ड ये सब कुछ प्रतिशत ही मायने रखता है।

जब भीष्म पितामह शर शैय्या पर पड़े थे तो कृष्ण से पूछा। है मधुसूदन मेरा क्या पाप था जो मैं शर शैय्या पर पड़ा हूँ।

श्रीकृष्ण ने भीष्म को ध्यान के माध्यम से पूर्व जन्मों को देखने को कहा।

भीष्म 72 जन्म देखते गए कही कुछ न मिला। पर 73वे जन्म में उन्होंने एक पेड़ के नीचे बैठ कर विश्राम करते समय एक छिपकली को यूंही बाण से छेद कर दिया था। छिपकली काफी देर तक तड़प कर मरी।

भीष्म को उस समय का दण्ड भोगना पड़ा क्योकि मात्र मनोरंजन हेतु एक निरीह प्राणी को मारा।

इसी प्रकार हम इस जीवन मे सुख और दुख दोनो भोगते है।

अतः आप निराश न हो। प्रभु के आगे ही रोये अपना दुख व्यक्त करे। जगत मात्र हंसेगा। कोई सहायता न करेगा।

वैसे आप पूजा में क्या करते है किसको जपते है।

आप विष्णु या कृष्ण के मन्त्र का जप करे।

बजरंग बाण दुख निवारण के संकल्प के साथ रोज पाठ करे।

21 दिन तक बजरंग बाण पढ़े। पर विष्णु या कृष्ण का मन्त्र आगे भी करते रहे।

बाकी हरि इच्छा।

देखिये। आप स्वतन्त्र है कि आप मेरी बात न माने।

उचित होगा। आप ब्लाग के कुछ अनुभवित लेख पढ़ ले ताकि कुछ जिज्ञासाएं शांत हो जाये।

लिंक: Freedhyan.blogspot.com

हर रोज की अलग दवा होती है। है समस्या हल का अलग देव।

इस दुनिया मे कुछ अज्ञानी अपूर्ण ज्ञानी कहते है राम सीता हनुमान इत्यादि सब गलत। सब काल्पनिक।

मित्रो पहली बात तो यह कि यही एकमात्र ज्ञानी पैदा हुए है जिनको सरस् ज्ञान है। क्षुद्र नदी भर चल इतराई। वाली बात जरा सा प्रणायाम ध्यान किया पहुँच गए सूर तुलसी के ऊपर मीरा के बाप हो गए हो सब गलत बोलने लगे।

दूसरा सवाल यह है कि तुम अपना कल्याण चाहते कि दुनिया मे बकवास बिखेरने के लिए आये हो। इस जगत में बकवास कर क्या प्राप्त करना चाहते हो क्या दिखाना चाहते हो।

बड़े बड़े मर कर नष्ट होकर विलीन हो गए कुछ कर नही पाए तुम लोगो की आस्था के साथ खिलवाड़ करोगे।

तीसरे तुम्ही एक विद्द्वान पैदा हुए हो बाकी सब मूर्ख। अरे मूर्ख क्यो बकवास में समय नष्ट कर रहे हो। समय को नष्ट करोगे समय तुमको नष्ट कर देगा।

चौथी सबसे बड़ी बात। भले ही यह सब काल्पनिक हो पर इन नामो ने कितनो तारा था तार रहे है और तारते रहेगे।

क्या फर्क पड़ता है कथा सत्य थी या झूठी। सत्य यह है राम कृष्ण हनुमान सदा तारणहार रहे है।

आज भी हनुमान जीवित देव है जो हर व्यक्ति की जो प्रभु प्राप्ति मार्ग पर चलता है उसकी सहायता करते है।

अब प्रश्न यह है कि तुम अपना उद्द्वार करोगे या चांद पर थूकोगे। यदि चांद पर थूकोगए तो वह तुम्हारे ही मुंह पर गिरेगा। यह निश्चित है।अतः बकवास बन्द करो। मत फैलाओ। चुपचाप अपने कल्याण के मार्ग पर चलते रहो।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

किसी अन्य ग्रुप में जहाँ मैं सदस्य नही हूँ। वहाँ हनुमान जी का अपमान हो रहा है।

यह गधे जरा सा पढ़ गए। जरा से अनुभव से बौरा गए है| मीन मेख निकालने लगे।

नही। यह जगत है। अल्पज्ञ ज्ञानियों की कमी नही।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_0.html

देखो वाम मार्गी साधना भी सनातन साधना है पर यह मुक्ति नही दे पाती है। ये सिद्ध जल्दी होगी। सिद्धया देगी पर मोक्ष तक यह नही पहुँच पाती है।

प्रायः वाम मार्ग में शक्ति को अपने अधीन करते है। जबकि दक्षिण में शक्ति के अधीन।

इष्ट वह जो आपका कुल देव हो। जो आपको बचपन से लुभाता हो। जिसका नाम संकट में स्वतः निकल आये। जिसके नाम से काम होते हो।

मन के गुलाम होने से अच्छा है बीबी का गुलाम हो जाओ।

जिससे तुम्हे अपनी और अपने पूरे खानदान की कमियां देखने को मिल जाएगी।

कवि बनने को चाहिए| न फूलों का हार।।

कवि बनने को चाहिए। बीबी की फटकार।।

बीबी की फटकार। बनेगी कविता प्यारी।।

तुलसी कालीदास को। जाने दुनिया सारी।।

कह ज्ञानी कविराय। सभी कवि बन जाओ।।

घर जाकर बीबी से। पहले मार खाओ।।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/v-behaviorurldefaultvmlo.html


प्राप्य पुण्य कृतांलोकान् उषीत्वा शास्वतीसमा:। शुचीनाम् श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टो अभिजायते।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्। एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यद्ईदृशम्।।

भावार्थ :- जो भी योगी साधक योगाभ्यास ध्यान साधन करते-करते आत्म स्वरुप को आत्मबोध को उपलब्ध नहीं हो पाते और उनका शरीर बीच में ही  पात हो जाता है।(छूट जाता है) उनको योग भ्रष्ट की संज्ञा से संबोधित किया     जाता है। ऐसे लोग इस लोक में दुर्लभ पावन पवित्र आत्माओं, श्रीमन्तों,योगियों व विद्वानों के कुल में जन्म पाते हैं !!ॐ!!

शाबर मंत्र का निर्माण बाबा गोरखनाथ समय समय पर पूर्वांचल भाषा मे करते रहते थे। कारण यह था कि बीच मे सँस्कृत सिर्फ जन्मने ब्रहामण ही पढ़ सकते थे। अतः अधिकतर भक्त यहॉ तक सन्त ज्ञानेश्वर भी मराठी में आये।

सँस्कृत में निर्माण और अध्य्यन न के बराबर सिर्फ जन्मने ब्राह्मणों द्वारा ही हुआ।

दूसरी बात इस समय तक लगभग सभी मन्त्र तन्त्र इत्यादि कई बार कई सिद्धों द्वारा सभी साकार रूपो में सिद्ध किये जा चुके है। अतः उनको सिद्ध करने में इतनी परेशानी नही होती है।

वैसे भी यह कलियुग है यहाँ भगवान की ओर देखनेवाले भी मुश्किल से मिलते है। सिर्फ भिखारी ही मिलते है जो बस प्रभु को atm कार्ड समझ कर भीख ही मांगते रहते है। मिली तो खुश नही तो मजारों को भी पूजने लगते है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_20.html


http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_91.html

त्रिवेणी का महत्व पर्व मित्तल ने यूं समझाया


वट वृक्ष धीरे-धीरे बहुत बड़े क्षेत्र में अपनी जड़ें फैला लेता है।  उनकी हजारों शाखाएं झुककर पृथ्वी तक आती हैं और पृथ्वी के अंदर नया वट वृक्ष उत्पन्न  कर देती हैं।

वट वृक्ष को शास्त्रों ने ऋषि की संज्ञा दी है। जैसे ऋषियों का जीवन केवल परोपकार के लिये होता है उसी प्रकार वह भी पुरुषार्थ एवं परोपकार का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति की तुलना वट से करना अतिशयोक्ति नहीं होगी। वट वृक्ष को काटने से भी वह बार-बार बढ़ता जाता है। जैसे प्रयाग  के अक्षय वट को जहांगीर ने जिद करके कटवाया था परंतु वह आज भी उतना ही शानदार है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति को भी संसार के अनेक आसुरों, दैत्यों, राक्षसों, यूनानियों, शकों, हूणों, तुर्कों, मुगलों एवं अंग्रेजों आदि ने नष्टï करने का प्रयत्न किया परंतु भारतीय संस्कृति सब प्रहारों को सहकर आज भी पूरी शान के साथ खड़ी है। जैसे वट वृक्ष की हजारों शााखाएं वट वृक्ष का सौंदर्य व बल बढ़ाती हैं उसी प्रकार भारत की हजारों  जातियां, उपजातियां, संप्रदाय, पंथ, भाषाएं व बोलियां उसका उसी प्रकार सौंदर्य व बल बढ़ाती हैं।

वट को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का स्वरूप माना गया है।  वट वृक्ष भारतीय नारियों के लिये दीर्घ जीवन व सुहाग का प्रतीक है।

वट का आयुर्वेदिक महत्व सर्वविदित है। वट का दुग्ध दर्द  निवारक, वर्ण हर एवं नपुंसकता को दूर करता है। वट की दाड़ी की छाल एवं तना अमर-अजर है। इसके सेवन से  बुढ़ापा नहीं आता।


पीपल को भगवान विष्णु का साक्षात रूप माना गया है। भगवान विष्णु जो कि जगत का भरण-पोषण करने वाले हैं, उसी प्रकार पीपल भी दिन-रात प्राण वायु (आक्सीजन) देकर हमें  जीवन प्रदान करता है। पीपल वृक्ष वातावरण के परिष्कारों एवं परिमार्जन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह वृक्ष अन्य वृक्षों की अपेक्षा वातावरण में आक्सीजन की मात्रा अधिकतम रूप से अभिवृद्धि करता है तथा प्रदूषित वायु को कम करता है। इसी कारण इस वृक्ष के नीचे ध्यान का विशिष्ट महत्व है। इस तथ्य का श्रीमद्भागवत महापुराण (3/4/8) में बड़े स्पष्ट ढंग से उल्लेख किया गया है। महापुराण के अनुसार द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस दिव्य एवं पवित्र वृक्ष के नीचे बैठकर ही ध्यानावस्थित हुए थे। कलियुग में भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति बोधगया में पीपल वृक्ष के  नीचे हुई थी। इसी वजह से इस वृक्ष को बोधिवृक्ष कहा जाता है। आयुर्वेद की दृष्टि में पीपल का बहुत महत्व है। यह 100 अलग-अलग बीमारियों की दवा है। इसकी जड़ें छिलका, पत्ता, दाड़ी एवं फल अलग-अलग रूप से 25-25 बीमारियों को नियंत्रित करते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले को ये रोग स्वत: ही नहीं लगते।   यह रक्त शोधन, टीबी, हैजा, पेचिश, कब्ज, अजीर्ण आदि में अचूक दवा है।

‘अश्वत्य: सर्ववृक्षाणां' अर्थात् वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूं। भगवान श्री कृष्ण की यह उक्ति पीपल के महत्व  और महत्ता को और  बढ़ाता है। पीपल वानस्पतिक जगत में सर्वश्रेष्ठ है। इसी कारण स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा दी है। नि:संदेह पीपल देववृक्ष है जिससे सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अंत:चेतना पुलकित और  प्रफुल्लित होती है, इसलिये पीपल सदा से  ही भारतीय जनजीवन में विशेष रूप से पूजनीय रहा है।


पीपल और वट वृक्ष का जलदान कर पित्तरों को तृप्त करने की दृढ़ मान्यता हिंदुओं में है। जहां पीपल को लगाना इतना पुण्य कार्य है वहीं इस वृक्ष को काटना बड़ा पाप माना जाता है। इसका वैज्ञानिक तर्क भी है। इसकी जड़ों अथवा टहनियों को काटने से यह दूषित वायु छोड़ता है जो कि सीधे हार्ट पर प्रभाव डालती है।


नीम जिसका वैज्ञानिक नाम निम्बिन है, इसके प्रत्येक भाग में मार्गोसीन नामक रसायन पाया जाता है। यह  स्वाद एवं गंध दोनों में कड़वा  पाया जाता है। इसकी पत्तियां, टहनी, छाल,  जड़, फूल और फल सभी औषधीय दृष्टिï से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

आयुर्वेद में निम्ब वृक्ष को 100 प्रकार के ज्वर का नाशक बताया है। इसका सेवन सूर्य उदय से सुबह दस बजे तक एवं शाम  3 बजे से सूर्य अस्त तक ही करना चाहिए। यह वात-कफ को हर लेने वाला बताया गया है।

नीम को सृष्टि के संहारक भगवान शिव का रूप माना गया है। अपने औषधीय गुणों के लिये मशहूर नीम के बीज से बने पर्यावरण मित्र और सुरक्षित कीटनाशक के इस्तेमाल के  उत्साहवर्धक नतीजे सामने आये हैं। नीम की छाया ज्यादा शीतलता प्रदान  करती इसलिये गर्मी में चलकर आये व्यक्ति को तुरंत इसकी छाया में विश्राम नहीं करना चाहिए।


अत: बड़, पीपल, नीम का आध्यात्मिक, धार्मिक एवं आयुर्वेद की दृष्टि में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिवेणी  साक्षात  ब्रह्म, विष्णु, शिव का रूप है। त्रिवेणी के जितना सामर्थ्य अन्य की वृक्ष में नही है, जब त्रिवेणी के तीनों वृक्ष एक साथ लगाये जाते है तो इनकी जड़े एक दूसरे में गूँथ जाती है, इनके पत्ते व् टहनियां एक दूसरे में संयुक्त हो जाती है। परिणाम स्वरुप ये वायु का और अधिक परिमार्जन व् परिष्करण कर देते है, केवल त्रिवेणी में ही वो सामर्थ्य है जो आण्विक विकिरणों को अवशोषित कर ले। यदि तीनो वृक्ष अलग अलग लगाये जाये तो वो आण्विक विकिरणों को अवशोषित पूर्णतः नही कर सकते जितने ये संयुक्त रूप से। यदि एक महानगर में चक्रवहुआ आकर में दो दो 5 किलोमीटर के दायरे में त्रिवेणी लगा दी जाये तो वायु प्रदूषण की समस्या स्वतः समाप्त हो जाये, त्रिवेणी भूमि जलस्तर को बढ़ाने में भी मददग़ार है, त्रिवेणी के कारण अकाल की नोबत नही आती।

अत: बच्चे और बूढ़े, स्त्री और पुरुष सभी मनोयोग से एक-एक  त्रिवेणी व पांच अन्य वृक्ष लगायें तो पृथ्वी पुन: सुजलां, सुफलां हो उठेगी।


क्रिया व योग या क्रिया योग

क्रिया व योग या क्रिया योग 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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यार बस फेल हो गए। अब योग मत पढ़ाओ।

यार मस्त रहो। व्यस्त रहो।

अस्त व्यस्त मत रहो।

आपको बुरा लगा तो क्षमा मांगता हूँ। पर अनुभव में क्रिया बहुत प्रचलित शब्द है। सब जानते है।

यहाँ शब्दावली की प्रतियोगता नही थी।

सर कलियुग में गूगल गुरू अनन्त भौतिक ज्ञान समेटे हुए है।

मुझसे बेहतर गूगल समझाएंगे।

क्रिया योग नही। क्रिया और योग।

दोनो अलग है।

क्रिया योग का प्रचार महावतार बाबा के शिष्य श्यामाचरन लाहिड़ी महाराज ने किया।

उसी परम्परा में an autography of himalayan yogi लिखी गई है।

मैंने यह कहा क्रिया और योग अलग है। जबकि क्रिया योग एक अंतर्मुखी होने की विधि।

स्वयं को आत्मा के रूप में जानने के लिए

अनुभव करने के लिए है तरीके बहुत है

क्रिया : वह जो कुण्डलनी जागरण के पश्चात अनिको अनुभव देता है। आंतरिक और भौतिक।

योग : आप जानते है।

वेदांत : आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव

श्री कृष्ण और पातंजली ने तुलसीदास ने लक्षण बताये है।

क्रिया योग: कुंभक रेचक और पूरक के साथ मन्त्र जप।

एक विधि अन्यर्मुखी होने की।

सरजी आपने जो बताया था उसे बिल्कुल आपके शब्दों मे तो लिखने मे असमर्थ हू लेकिन जो समझा था वह कुछ इस प्रकार है----


आपने कहा था कि क्रिया के लिए उसके संस्कार पर आधारित होती है और ये संस्कार क्रिया द्वारा नष्ट होते हैं और यह क्रिया एक अवस्था होती है


इसमे मेरे मन से कुछ अवश्य मिल गया होगा लेकिन मुझे अच्छी तरह नही पता।


इस तरह संस्कारों के कारण उसरे जन्म और मृत्यु होती है और कुछ क्रिया के रूप मे संस्कार नष्ट होते हैं और कुछ कर्म फल भोगने पर उसी तरह यह मृत्यु भी क्रिया है क्योंकि नये नये संस्कार बनते ही रहते हैं और इन्ही को भोगने हेतु बार बार जन्म मृत्यु।


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बाकी सब लिंक से जानने का कष्ट करें। मैं हर बार नही लिख सकता।

अध्यात्म बेहद बोरिंग है।

सारे रास्ते वही एक पर जाकर खत्म हो जाते हैं। सब रास्तों से परमेश्वर की प्राप्ति के लिए हैं लेकिन कुछ रास्तों मे थोड़ा देर लग सकता है कुछ जल्दी पहुचा देते हैं। लेकिन यह बात भी कहीं तक गौण ही है।


जो लोग अपना ही मत सर्वश्रेष्ठ बताते हैं उनके लिए तो मै कुछ नही कह सकता क्योंकि उनकी बुद्धि ने एक स्वयं की और परमात्मा की सीमा बना रखी है।


और इसी पर गहन विचार करने पर पता चला कि श्रेष्ठ अश्रेष्ठ,सही गलत मतलब द्वैत की सम्भावन ही खत्म हो जाती है। एक दूसरे को नीचा दिखाना अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने की वृत्ति खत्म हो जाती है। अहंकार पर भी गम्भीर चोट पहुचती है।

मित्र हमारी परम्परा में सब सम्मिलित है। मुझे पातञ्जलि का अष्टांग योग पता है। मैं उनकी धारणा विधि के माध्यम से ही कई रहस्य जान पाया।

हा मुझे किताबी ज्ञान बेहद सीमित है। जो अनुभव है उसी के सहारे जबाब देता हूँ।

आप कृपया पातञ्जलि की क्रिया योग विधि बताने का कष्ट करें।

नई जानकारी हेतु नमन एडवांस में।

हमारी परम्परा में कोई उपदेश नही। सीधे सीधे शिष्य की कुण्डलनी जागृत। जो अनेकों अनुभव देने लगती है। बस।

कुछ सदस्यों की दीक्षा ग्रुप में हुई है। लगभग सभी बौराये बैठे है । आनन्द और अनुभव की सीमाएं लांघ गए है। कभी कभी मुझे भी दुआएं दे देते है।

आभार आपका। बस इसी आ भार से भारी होकर मोटा होता जा रहा हूँ।

जी क्या आप through proper channel आये है।

मतलब mmstm किया क्या।

नही sir अभी नही किया है

तो करे। अपने अनुभव बताये।

सरजी मुझ पर कब कृपा होगी?

यार तुम मिलो तो पहले कुछ पिटाई करूँ। तुम शक्तिपात में ही दीक्षित हो।

आपके हाँथो मेरी पिटाई हो जाये तो मै धन्य हो जाऊँ।

देखो यह परम नालायक पिटाई चाहता है।

जी बिल्कुल , ऐसी पिटाई करें कि बाहरी पिटाई के साथ साथ आंतरिक पिटाई भी कर दें। मन बुद्धि, अहंकार को पीट पीटकर बर्बाद कर दें

देखो मित्र। कीचड़ का कीड़ा यदि दूध में डाला जाए तो मर जायेगा।

विपुल जी प्रणाम। आज सुबह मै साधन करते हुए फील किया कि मेरी आत्मा शरीर से अलग हो गई है तब मैंने एहसास किया की मृत्यु क्या होती है। इसका डर अब मेरे दिल से निकल गया है। यह सब विपुल जी की वजह से हो पाया। विपुल जी को कोटि कोटि प्रणाम।

आपकी दीक्षा हो गई शक्तिपात में। नहीं हुई अभी

जी

विपुल जी से कॉन्टैक्ट कीजिए। हमारे गुरु तुलया वहीं है।

मित्र अभी आप मन्त्र के विषय मे कुछ नही सीख पाए है अतः मन्त्रो की दुनिया की सलाह न दे।

अधूरा ज्ञान गलत हो सकता है।

आप पहले किसी भी मन्त्र से जो आपका इष्ट या कुल का हो। उससे mmstm करे। जो अनुभव हो बताये फिर आगे बात हो।

देखिये कोई भी हो पहले mmstm करे। जो अनुभव हो वो बताये। ताकि आपके स्तर को समझा जा सके।

बिल्कुल। एक तरह से यह बेसिक परीक्षा हैं जो उत्तीर्ण होना आवषयक है।

ओह। उस परम्परा के सन्यासी को मैं समझता हूँ। बिना अनुभव सन्यासी बन बैठते है।

मेरे सम्पर्क में एक आये थे बोले 16 साल से ओशो सन्यासी हूँ लोगो को सिखाता हूँ। पर कोई अनुभव नही।

ओशो लोगो को भृमित करते है और कुछ नही। लोग जानते है  मेरी बहन भी उसकी भक्त थी। मेरी बातों को कोई उत्तर नही दे पाते उनके भक्त।

ओशो एक अपूर्ण अज्ञानी थे। जो महपाप भी कर बैठे।

खुद अभी तक मुक्त नही हुए है। एक कमरे में बन्द दिखते है।

मैं उनको न सन्त मानता हूँ और एक पापी मानता हूँ। वह सनातन के कृष्ण के दोनों के दोषी।

सर मैंने फेस बुक पर बहुत लिखा तर्क दिया है। फिर भी आप पूछ सकते है।

मैं ओशो के अंदर के भाव तक को समझ क्या देख चुका हूँ। कहां भटके वह तो जानता हूँ। उसकी आत्मा तक को देख चुका हूँ। और क्या।

अधिक बोलना ठीक नही। यह गर्व और यात्म श्लाघा है। आप मेरी स्वकथा पढ़ ले।

यदि मैं कहूँ ओशो बच्चा था तो क्या मानोगे।

बहन आप mmstm कर ले। आपको सब महसूस हो जाएगा।

यह विधि सनातन की शक्ति का एहसास घर बैठे बिना गुरु के करवा देती है।

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यार यह ग्रुप के सदस्य है इनकी माता जी को देवी का सायुज्य प्राप्त है। इनकी कुछ व्यक्तिगत समस्याएं है। जो विज्ञान नही मानता पर घट रही है।

इनकी बात सुनकर वैज्ञानिक पागल हो जायेगे।

यार खुद समझो। कपड़े मत निकलवाओ। इशारा दिया है।

जी मैं अपने को खोजी ही कहलवाना पसन्द करता हूँ।

यार पढ़ लो। बस। पकाओ मत।

तुम mmstm करो जान जाओगे। मैं तो अंगूठा भी नही रखता। क्या बोलू। ग्रुप के पहले के कुछ सदस्यों को सिर्फ बोलकर क्या से क्या हो गया था।

कारण मैं गुरू नही।

अनुभव की बात से क्या सिद्ध होता है। मैं एक पंडित जी से मिला था वह किसी को भी दिखा सकते है आँख बंद करवा कर। कहीं भी कोसो दूर।

गुरोके कर्म मर्यादा असीमित है।

अनुभव करवा सकते है जिससे बोलोगे बात करवा सकते है। आप खुद बोलोगे कौन क्या कह रहा है। मेरे एक मित्र जो इस ग्रुप में भी है। उन्होंने खुद देखा है सब।

यदि अनुभव न हो तो कर के देख लो। अपने गुरू मन्त्र के साथ। अनुभव है तो अपनी गुरू शक्ति या शिव या कृष्ण या किसी देव से पूछ लेना। बस।

यह सब सिद्धियां है जो मार्ग की भारी रुकावट है।

सिद्धया सिद्ध पुरुष के साथ खुद हो जाती है। पर यह बन्धनकारी और विनाशक होती है।

सर जी इस ग्रुप में ही कई प्रकार के ओशो के बाप लोग मौजूद है।

सत्य है। उनके पास ऐसी सिद्धि है। मैं समझ गया था। उनकी बातों में सटीकता नहीं दिखी मुझे। मुझे दिखाने से मना कर देते थे।

ओशो एक भटका अपूर्ण ज्ञानी बच्चा ही था।

किसी भी प्रकार का आप ज्ञान दे सकते है अपितु आप किसी ज्ञानी का तिरस्कार नहीं कर सकते‬‬‬‬

और न ही करना चाहिए‬‬‬‬

रावण ज्ञानी था पर था पापी। फिर उसका तिरस्कार क्यो। ओशो भी उसी कैडर का था।

आपका ज्ञान अच्छा हो सकता है लेकिन अपने अंहकार नहीं कर सकते‬‬‬‬

प्रायः लोग उसके लेख पढ़कर प्रवचन सुनकर मोहित हो जाते है। पर उसकी सोंच और आंतरिक कर्म तक नही पहुँच पाते।

यह अहंकार नही है। जगत को सत्य बताना है।

अगर आप कैकई और सबरी के प्रेम मे भेद समझते है तो‬‬‬‬

कैकई के बारे मे बिचार दीजिए‬‬‬‬

कैकेई ने जगत पर कल्याण किया। राम को वन भेजकर रावण के अत्याचारों से मुक्ति दिला कर राम की महानता को जगत को सामने आने का मौका दिया।

शबरी ने प्रेमल भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया। दोनो की कोई तुलना नही।

रावण के बिषय मे‬‬‬‬

आपके विचारों से हम संतुष्ट है‬‬‬‬

जिस भांति कौओं के मुख से वेद वाणी नही सुहाती उसी प्रकार पापी के मुख से ज्ञान शोभा नही देता।

ओशो को मैं पापी भटका अपूर्ण ज्ञानी मानता हूँ।

तो क्या रावण पापी था‬‬‬‬

दुराचारी था‬‬‬‬

पाप और पुण्य की परिभाषा समाज के हिसाब से बदलती है।

दुराचर का वर्णन करे‬‬‬‬

जो सिर्फ भगवद्गीता बताती है। है अर्जुन जो कर्म समाज के हित में नही वो तेरे हित में कैसे हो सकता है।

मतलब पाप वह जो समाज का अहित करे। पुण्य वह जिसमे समाज का हित हो।

रावण के दुराचारो के बिषय को अवगत करावे‬‬‬‬

ओशो ने खुला यौनाचार जो भारत मे पाप था। उसको प्रचारित किया। वह भी क्रिया की आड़ में। जो लोगो को दुराचार की प्रेरणा दे गया।

हम ओशो के विषय को छोड सकते है‬‬‬‬

हम रावण की दुराचार कर्म के बारे मे जानना चाहते है विवरण पूर्वक‬‬‬‬

जिसका भी उल्लेख रामचरीतमानस में हैं वो बुरा नहीं है‬‬‬‬

मेरी छोटी बुद्धि है कृपा कर विवरण प्रदान करै मेरै छोटे सै प्रश्न का‬‬‬‬

मित्र मैं इस ग्रुप को भटकाना नही चाहता। अब अनर्गल प्रलाप बढ़ रहा है। मैं किताबी ज्ञानियों से बहस शुरू होने के पूर्व हार मान लेता हूँ। मुझे सिर्फ अनुभवित लोगो से बात करने में आनन्द मिलता है।

मेरी सोंच में ओशो पापी। मैंने कई लेखों में तर्क दिए है। अब नही लिखना चाहता।

आपको जो सोंचना समझना हो समझे।

मुझे बेकार की चर्चा में अपनी ऊर्जा नष्ट करने का कोई शौक़ नही।

साउथ में रावण की पूजा होती है। आप करे।

बाकी सबको नमन।

मैं अनावश्यक चर्चा से बाहर।

कोई नृप होई। हमे का हानि।

जानकर क्या फायदा होगा।

मित्र आप लगे रहे। आपने दीक्षा ली है क्या।

ओह। क्या आपको क्रिया होती है।

गायत्री दीक्षा में गुरु तो होते नही।

मतलब कुछ शरीर के साथ कम्पन घूर्णन इत्यादि।

कोई वह जो आपने सोंचा न हो।

अनुभव नही। तीव्र अनुभूति। आप मेरा लेख देखे तो क्रिया समझ जायेंगे।

वह सब गौण है।

क्या आपका मन कोई और मन्त्र जप हेतु करता है। मतलब आपका इष्ट कौन है।

आप घबराए नही। सब मिलेगा।

आप कहाँ रहते है।

क्या आप शक्तिपात दीक्षा चाहते है। मतलब सीधे हवाई यात्रा चाहते है।

यह छोड़ो।

मन्त्र की भी एक सीमा होती है।

आप व्यक्तिगत पोस्ट पर आए।

स्थुल जगत से सुक्ष्म अति बलवान है‬‬‬‬

ये शक्तिपात दिक्षा क्या होती है हमें भी अवगत कराईये  गुरुजी परनाम‬‬‬‬

ये होता कैसे है सर कुछ जान सकता हूँ

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हे प्रभु गणपति। आज आपका विसर्जन लोग कर रहे है। आपसे प्रार्थना है आप विसर्जित न हो। मेरे ह्रदय में विराजित हो।

प्रभु विनती सुने।

गणपति बप्पा सदा मोरया। मुझ पापी के ह्रदय में।

उसको न कोई विसर्जित कर सकता न प्रतिष्ठित।

यह मात्र शब्द है।

पर इस महोत्सव में गणपति शक्ति वास्तविक रूप में भृमण करती है।

विसर्जन मूर्ति का होता है।

मुझे यह शब्द अच्छा नही लगता।

यह लोकमान्य तिलक ने हिन्दुओ को एकत्र कर अंग्रेजो के खिलाफ एक भावना निर्माण हेतु आरम्भ किया था।

गणपति बप्पा मोरिया

वाह जो रस प्रेमाश्रु में है। वह कही नही। यह केवल भक्ति मार्ग से भक्ति योग जहाँ द्वैत होता है वही मिलता है। उसी को प्रेम और विरह की अनुभूति हो सकती है जिसके प्रेमाश्रु गिरते हो। निराकार उपासक ज्ञान योग एक दम नीरस होता है उसे इस प्रेम की विरह की अनुभूति कहाँ।

तुम तर गए पर्व। तुम्हे परम् प्रेमा भक्ति का आनन्द मिल गया।

इसी के लिए कुंती ने कृष्ण से वरदान मांगा। मोक्ष निर्वाण सब बेकार इस आनन्द के सामने।

स्वार्थी मत बनो वह चतुर तुम्हारा ही नही। मेरा भी है। पूरे जगत का है।

फोड़ दो। सब कुछ हल्के हो जाओ। बोझ मत रखो।

वामाचार और दक्षिण पंथ। दो पंथ है। वामाचार समाज से अलग रह कर साधना करते है।

यह दुष्ट इनको भी समाज मे लेकर आ गया। क्या यह उचित था।

यार आप को जो सोंचना हो सोंचे। उस पापी की पूजा करे।

इस बहस का न कुछ हल है न फल है।।

कृपया ओशो पर चर्चा न करे। आपसे निवेदन है।

बन्द कर दे।

जिनको ओशो का बखान करना हो। वह ग्रुप से खुशी से बिदा ले सकते है।

अब आपको जो सोंचना हो सोंचे।

बिल्कुल नही। पर सिर्फ यह करना रुकावट बन जाएगी। हर कार्य को उचित समय देना ही उचित होता है।

सत्य वचन मैं पापी हूँ। शायद इसी लिए महापापी को पहचान गया।

फिलहाल एक पापी महापापी की चर्चा बर्दाश्त नही कर सकता। मतलब एक छोटा बड़े को कैसे सहन करेगा।

चलो बताता हूँ। मैंने ओशो की मैगजीन में एक महिला की बात सुनी तो दंग रह गया। उसने बताया था साधना कक्ष में उसने 200 से अधिक लोगो से सम्पर्क बनाया था।

यह क्या है साधना या इसकी आड़ में वेश्यालय।

चलो ओशो की सोंच और साधना को बताता हूँ। एक लेख ही लिख डालता हूँ कि मैं ओशो से क्यो घृणा करता हूँ।

ओशो अपने कार्यालय में विपश्यना किया करते थे। अचानक उनको निराकार अनुभूति हुई। अहम ब्रह्यस्मि की।

इस अनुभूति के बाद ज्ञान ग्रन्थी खुल जाती है। मनुष्य में दूसरो पर शक्तिपात की क्षमता विकसित हो जाती है।

साथ ही प्रवचन देने गुरू बनने और ज्ञान प्रचार की इच्छा बल वती हो जाती है।

1 अपने को भगवान बनाया। पहले आचार्य फिर भगवान फिर जापानी भाषा मे ओशो। स्वयम बुद्ध जीसस, जिनको ओशो मानते थे। उन्होंने अपने को भगवान बोला।

2 बुद्ध की बात की पर बुद्ध की पाँच अप्रिमिताओ में चौथी की औरत से दूर। पर नही माना। 10000 बुद्ध पैदा करेगे।

3 गीता के अनुसार पाप वह जो समाज के विरूद्ध कार्य है। खुला सेक्स भारत मे पाप। विदेशो में नही।

इसकी भारत मे वकालत कर महापाप किया। गीता का अपमान।

4 गेरुआ वस्त्र सनातन में सिर्फ ब्रह्मचारी और सन्यासी पहन सकता है इन्होंने ग्रहस्थ्य को पहनाया। जो सनातन का अपमान

5 बिना गुरु परम्परा के गुरु बने। दीक्षा दी।

6 भगवे वस्त्र में क्रिया की आड़ में यौनाचार की अनुमति।

7 बिना अनुभव के सन्यासी बनाये और उनको भी ओशो लगाने की अनुमति दी।

कुल मिलाकर सनातन गीता और भारतीयता की धज्जियां उड़ा दी।

अब आप सभी से अंतिम निवेदन है। आप जो चाहे सोंचे ओशो को मैं पापी मानता हूँ। यदि किसी ने फिर तर्क किया। मैं ग्रुप का प्रशासक होने के नाते बाहर कर दूंगा।

यह अंतिम चेतावनी है।

सत्य निरंजन जी मैं आपके गुरु को प्रणाम करता हूँ। मैं हर उस व्यक्ति को नमन करता हूँ जो सनातन का सही तरीके प्रचार करता हो। चाहे अनुभव हो या न हो।

भगवे वस्त्र का सममान करता हूँ।

किंतु भेड़ चाल नही चलता हूँ।

मैंने स्वयम तमाम सन्तो की सत्यता को परखा है।

कई जीजो की नई खोज व्याख्या तक की है। अतः मुझे किसी बैसाखी आवश्यकता नही। जहाँ आवश्यकता होती है मुझे आत्म गुरु दैवीय शक्ति का सहारा मिल जाता है।

मैं यह जानता हूँ आप हठ योग मार्गी है। आपको योग कोई अनुभव नही है। पर आपसे तर्क नही। आपको नमन। आप सनातन का प्रचार कर रहे है।

निवेदन है सभी एडमिन से जहाँ तक सम्भव हो ओशो, ब्रह्मा कुमारी लोगो को न जोड़े।

कृपया ध्यान दे।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_23.html

मैं सत्य निरंजन जी को धन्यवाद करता हूँ। जिनके वाद विवाद के कारण मेरे लेख बन गए।

अब इस लेख में दिए बिंदु यदि कोई जबाब देना चाहे तो व्यक्तिगत दे सकता है । यदि उचित होगा तो मैं ग्रुप में पोस्ट कर दूंगा। वैसे मेरी विवेचना सप्रमाण है। कोई तर्क न दे पाएगा।

किंतु स्वागत है।

यार फिर वही। मित्र कहां तक दुनिया का मुंह बंद करोगे। कोई भी अपना अपराध स्वीकार नही करता। क्या फायदा है व्यर्थ पानी मे लठ्ठ मारना।

तुम सनकी रामपाल के शिष्य देख चुके हो।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/normal-0-false-false-false-en-in-x-none_24.html

मैं पुनः निवेदन करता हूँ। बकवास न की जाए किसी के गुरु पर व्यर्थ वाद विवाद न किया जाए।

जब तक कोर्ट फैसला न दे सब निर्दोष होते है।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

चर्चा का चरखा

चर्चा का चरखा

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

मुम्बई वापिस। झांसी की यात्रा सार्थक रही। लोगो को mmstm बुकलेट्स भी भेंट की।

अपने ग्रुप में एक वालक एक महीने से mnstm कर सिर्फ जप कर रहा है। उसकी सफलता और दिनचर्या में यह बहुत सहायक हो रहा है। याबी उसने पूजा पाठ सब छोड़कर सिर्फ नाम जप का सहारा ही लिया है।

यह एक सीमा के बाद उचित है। प्रारम्भ में किसी एक ही मन्त्र को आधार मौलिक और मूलभूत बनाना चाहिए। अनेक मन्त्र से कोई फायदा नही। जब मूल मन्त्र सिद्ध हो जाये कुछ शक्ति आ जाये तब कोई भी मन्त्र कम मात्रा में भी जाप करने से फलित होता है।

जैसे मुझे किंतने भी शाब्दिक और निराकार अनुभव हो पर मैं नवार्ण मन्त्र को कस के पकड़े रहूंगा। इसका पल्ला नही छोडूंगा।

क्या। समझे नही। सर जी।

जैसे आपको जो गुरु मन्त्र मिला है वह मूलभूत मौलिक मन्त्र है। मतलब संकट में वही काम आएगा। अतः उसको निरन्तर जीवित रखे मन्त्र जप के द्वारा।

कुछ नए मन्त्र सिद्ध कुंजिका स्त्रोत के जो स्पष्ट हुए थे कर रहा हूँ।

यह तो गजब और अजब है। मेरा मूल मन्त्र है।

इनमे यह प्राप्त हुआ कि सहस्त्रसार से निरन्तर रूक रुक कर आनन्द दायक नशा मिलता रहता है।

पर यह मन्त्र सभी जापक नही कर सकते।

शरीर सम्भालना मुश्किल हो जाता है। नया जापक बेहोश तक हो सकता है। अतः गूप्त रखा है।

पहले इस लायक बनो। यह खैरात नही जो हवा में उछाल दे।

मुझे समझने में 30 साल से ऊपर लगे। तब यह प्रकट हुआ। अब यह ऐसे फेंक दे।

कम से कम 10 लाख नवार्ण मन्त्र करो तब सम्भाल पाओगे।

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मत करे। यह मन्त्र हर व्यक्ति के लिए नही होता है। यह गर्म और शक्ति मन्त्र है।

आप विष्णु या कृष्ण या राम का मन्त्र जाप करे। मतलब मृदु और ठंडा मन्त्र करे। किसी की देख देखी शरीकत नही करते।

भाई मैं तो 5 साल की आयु से जाने अनजाने शक्ति पूजा कर रहा हूँ। अतः 59 साल की आयु में कोई भी मन्त्र उठा सकता हूँ।

आप मेरी स्वकथा पढ़े भाग 1 से तो आप समझ पाएगी।

26 साल शक्ति पूजा के बाद भी 33 वर्ष की आयु में नवार्ण मन्त्र मुझे मरणासन्न बना गया था। वो माँ की ही कृपा थी जो शक्तिशाली गुरू मिले तो मैं जीवित बच सका। अन्यथा या मर चुका होता नही तो पागलखाने होता।

शक्ति हीनता और शक्ति क्या है इसको शायद ग्रुप में मुझसे बेहतर कोई नही जानता होगा।

जय महाकाली गुरूदेव।

किसी को यकीन हो तो प्रयोग करे। दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ और 11 नवार्ण मन्त्र केवल एक हफ्ते वैखरी में कर ले। बस।

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कोशिश की है समाधि को वैदिक और वैज्ञानिक तरीके समझा सकू।

आप कही जा नही सकती। समय है नही। इतने बन्धन। इनका क्या समाधान है। आपको विष्णु मन्त्र करने को बोला। कुछ दिन करके तो देखे।

कभी यह जाप कभी वह जाप। आप मन को स्थिर करे। यदि यकीन है तो जो बोला है वह करे।

आप अपने साथ दूसरो को भी कन्फ्यूज कर रही है।

आप बौराये नही। आपके गुरू आसाराम जी भी शक्तिपात ही करते थे।

गुरू शक्ति को ढंग से याद करे सोने के पहले।

सोने के पहले माँ का सम्पुट पढ़ ले।


दुर्गा देवी नमातुभ्य सर्वाकामार्थ साधिके।

मम सिद्धिम सिद्धिम व स्वप्ने सर्व प्रदर्शय:।।

यदि विष्णु मन्त्र एक हफ्ते में असर न दिखाई तो बजरंग बाण संकल्प के साथ सुबद शाम 21 दिन पढ़े  या जब तक फायदा न हो पढ़ते रहे। संख्या अधिक होने में परहेज नही।

जितनी हो सकती हो  पर वह संख्या नित्य होनी चाहिए।

गूढ़ बात।

हर गुरू परम्परा की शक्ति अलग होती है। जब वे टकराती है तो शिष्य का नुकसान हो सकता है।

यदि एक साधारण गुरू हो तो परेशानी नही होती है  क्योंकि शक्तिपात के कौल गुरू से अधिक कोई शक्तिशाली नही होता है। अतः किसी भी दीक्षा के बाद शक्तिपात दीक्षा में कोई हर्ज नही। पर अन्य परम्पराओं में यह बात नही होती है।

यू समझो पी एच डी वाला किसी का गाइड बन सकता है। शक्तिपात पी एच डी होती है।

शक्ति पात परंपरा में हमारे गुरुदेव परम पूज्य स्वामी नित्य बोधानन्द तीर्थ जी महाराज दीक्षा से पहले साधकों को साधन करने के नियम बताते हुए कहते थे कि मंत्र तो साधन प्रारम्भ करने के लिए सीढ़ी है। क्रिया प्रारम्भ होने के बाद मन्त्र छूट जाय और दूसरा मन्त्र शुरु हो जाय तो कहीं रुकना नहीं किसी मन्त्र या क्रिया के लिए आग्रह , भाव , इच्छा कुछ भी  नहीं करना चाहिए।शक्ति साधक के उत्थान के लिए जो भी आवश्यक होगा वह सारी विधि व्यवस्था परिस्थिति का निर्माण सहजता से करती चली जाती है।साधक को साधन कम से कम 2 घंटे लगातार रोज करते हुए शक्ति को कार्य करने का अवसर अवश्य देना चाहिए।

शुरुआत में 5-6 वर्ष सुबह शाम 2-2 घण्टे साधन अवश्य करने चाहिए !!ॐ!!

साधन जितना करो कम है। जब साधन नही तो मन्त्र जप करो। जप कितना भी करो कम है।

मेरा लक्ष्य जीवन समाप्त होने के पूर्व सवा करोड़ नवार्ण मन्त्र का है।

लिखना अच्छी आदत है।

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सत्य वचन। सब पर लागू विचार। विचार करे।

क्या बात।

कबीरा इस बाजार में। दुखिया सब संसार।।

विपुल पापी संसार मे। रोवे सभी संसार।।

नही सोंच जब समय था। इतना कम जप यार।।

नही सोंचा

पहले पांच अवगुण होते थे जिनसे छुटकारा पाना बहुत कठिन होता था।


क्राम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार,

अब सात हो गये


क्राम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, फेसबुक और व्हाटसैप

मित्रो बुरा न लगे। हर समय मोबाइल को साथ रखना और ध्यान देना ईश प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है।

आप जिसको संकट में याद करे। जिसका नाम निकले वह आपका इष्ट।

जिसका जप जाने अनजाने कर चुके है कर रहे है वह इष्ट।

जो अच्छा लगे वह इष्ट।

जिसका नाम आनन्द दे वह इष्ट।

          

आपकी शक्ति का समार्थ्य मैंने देखा। मुझे मुरारी बापू गुरू दत्त मौलेश्वर महाराज आसाराम बापू सहित तमाम लोगो ने सिर पर हाथ रखने से मना कर दिया था। मैं जब मरनासन्न होता था। तब मेरे प्रथम गुरू महाकाली की शक्ति को जब प्रथम देही गुरू स्वामी नित्यबोधानन्द तीर्थ जी महाराज सम्भाल न पाए थे। तब आपने तीन बार तालू पर हाथ मारकर मेरी क्रियाओं और शक्तियों को दबा दिया था।

जो बाद में 24 साल के जप के बाद पुनः सक्रिय हुई।

स्वामी नित्यबोधानन्द तीर्थ जी महाराज उस स्तर की विशेष दीक्षा देते थे। उस शक्ति से किसी साधारण को हाथ रख दे तो सामनेवाले की मौत तक हो जाये।

शक्ति के खेल का अनुभव मैं समझता हूँ मुझसे अधिक किसी ने न देखा होगा।

जय गुरूदेव।

आपकी फोटो देखकर लोगो को क्रियाये आरम्भ हो जाती थी।

आप महाराज जी की फोटो पर त्राटक कर खुद ही देख ले।

मेरी बात के गवाह कुछ लोग ग्रुप के सदस्य भी है।

आपका कथन बिलकुल सत्य है प्रभु जी, गुरुदेव पॉजिटिव एनर्जी के भंडार है, फोटो तो दूर गुरुदेव का नाम ही काफी है, वास्तव में साधन दौरान गुरुदेव स्वयं सहाय होते है

ठीक है इच्छित लोग त्राटक करे या mmstm करे। इस चित्र के साथ।

चश्मा लगाकर कर ले। पर चश्मे का होश रखे।

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Bhakt Anil Kumar: आपकी biography में कई जगह हास्य हैं जहां खुद को हंसने से रोक नहीं पाता हूं

पहला

जिसमें आपके पिता जी आपको पीटते थे वहां लिखा आपने हॉकीयास्त्र बेटास्त्र जो भी उस समय उपलब्ध हो सके उससे


दूसरा

आप छोटे बडे कीडों को आप डंडी में लगाकर गर्म राख में प्रवेश कराते जिसमें फट फट कि आवाज के साथ उनका फटना


तीसरा

मामी बोली

विपुल तुम तो अच्छे खासे दिखते हो

मित्रो। आज एक खोज की बात कर रहा हूँ। यद्यपि लोग अपने आध्यात्मिक अनुभव गूप्त रखते है किंतु मुझसे सनातन की शक्ति प्रदर्शन  हेतु ध्यान की विधि mmstm का निर्माण करवाया गया। जिसके परिणाम अभी तक शत प्रतिशत और आश्चर्यजनक आये है।

आज मैं वह नाम जप सार्वजनिक कर रहा हूँ। जिसने महाराष्ट्र के अनेको सन्तो को तारा। नाम देव तुकाराम राखू बाई गोरा कुम्भार सेन नाई सहित तमाम नाम है।

जो अदीक्षित है उनके लिए कह रहा हूँ। दीक्षित के मन पर है।

यह नाम जप चमत्कारिक है। आप सिर्फ कुछ मिनट ताली के साथ हल्की ताली बजाकर गाये। आपको आनन्द का अनुभव होगा।यह मेरा विश्वास है।

नाम जप

बिठ्ठला बिठ्ठला

पांडुरंग पांडुरंग

 यह बोलते हुए आंख बंद कर लीन हो जाये। फिर इसका चमत्कार देखे।

जय विठ्ठल श्री हरि।

जय गुरुदेव।


मित्रो जहाँ लाभ मिले। निसंकोच ले लेना चाहिए।

स्वर योग शब्द योग मार्ग का दूसरा नाम है। मैं समझता हूँ। दयालबाग राधा स्वामी मत भी शब्द योग के मार्ग से अंतर्मुखी करते है। अक्षर ब्रह्म है। स्वर भी अक्षर है अतः यह भी ब्रह्म है। अदीक्षित लोग अवश्य इससे बेहद लाभान्वित हो सकते है।

जय गुरुदेव।

यह सही है। पर इस नाम जप की विशेषता खोजी है। तब ही पुनः लोगो को प्रेरित करने का प्रयास किया है।

राम राम हरे कृष्ण तमाम नाम जप सार्वजनिक है पर किंतने लोग करते है।


प्रभु जी सब जगह प्राप्त होने वाली वनस्पति सब लोगो को साधारण सुलभ वस्तु है लेकिन एक जानकार और वैद्य के लिये अमूल्य औषधि।

इस तरह के ज्ञान सिर्फ कुछ हद तक जैसे ब्रह्मा कुमारी जैसे सनकी ही पैदा करते है।

या मुस्लिम और ईसाई । सिर्फ मानो और मानो। अपनी बुद्धि न लगाओ। न कुछ प्रयोग करो न कुछ जानो। जो बोला उसी सीमित दायरे में रह कर असीमित की बात करो।

यह तो बेईमानी है।

सनातन का सिध्दांत तुमको असीमित बनाता है। अपना अनुभव करो। अपनी गीता का निर्माण खुद कर सकते हो। चाहे रामपाल जैसे उल्टी खोपड़ी वाले क्यो न हो।

मित्रो यह कट पेस्ट आपके लिए विशेष है। रमन महृषि बिना गुरू दीक्षा के सिद्ध पुरूष थे। ऐसे योगी कम होते है। आप उनकी जीवनी पढ़े। काफी कुछ ऐसा बोल है जो संयोग से प्रायः मेरे लेखों में भी दिख जाता है।

महऋषि रमण को कोटिशः नमन।

मित्र। विज्ञान कभी सोंच को नही रोकता बल्कि संतुष्ट करता है।


कोई कोई प्रश्न जन कल्याण हेतु भी पूछे जाते है।

तर्क में क्या बुराई। बस झक्क न हो।

जैसे कुछ अज्ञानी ज्ञानी ईश को सिर्फ निराकार बता कर दुकान चला रहे है। यदि ताकत

जैसे तुषार मुखर्जी ने वेद वाणी का उदाहरण देकर आर्य समाज की पूरी सोंच को सीमित कर दिया।

अब जो न माने यह उसकी झक्क है।

सनातन में कहा गया है यदि कही आध्यात्मिक विवाद हो तो वेद वाणी ही अंतिम और मान्य होगी।

यदि आपकी वानी सत्य होगी तो वेद में दी होगी।

यही मैं कहता हूँ। पर जिसका जो अनुभव वह सत्य आप थोप नही सकते। यह अवस्था है पहली कक्षा का विद्यार्थी उसी को सही मानेगा। आप दसवीं कैसे समझाएँगे। यदि समझाते है तो यह आपकी मूर्खता है। आप उसको सारे क्लास पढ़ाकर 10 वी तक लाये।

यही करना लोग भूल जाते है। सीधे सीधे 10 वी बात।

आप गलत बात पर ग्रुप से लोगो को निकालेंगे तो लोग समझ जायेंगे और ग्रुप में बने रहेंगे। मैं किसी को ग्रुप में रुकने हेतु हाथ नही जोड़ता। जिसका प्रारब्ध है वो ही ज्ञान लेगा। बाकी जिसको जाना हो जाये।

मैं तो ईश का काम मॉनकर कर रहा हूँ। उसकी जो इच्छा। मेरी कोई इच्छा नही।

मैं कभी अपने महाराज जी के प्रवचनों का प्रचार नही करता। कारण अधिकतर लोग समझ ही नही पायेगे।

उनको समझने के लिए भी उच्च कोटि का स्तर चाहिए।

एक उदाहरण दे रहा हूँ।

एक प्रश्न था। ग्रुप में देखे कौन समझ पाता है।

क्या मृत्यु भी एक क्रिया है।

आप अपने लेख में ऐसे ही

आत्म ज्ञानी सन्तों की जीवनियाँ

और किस्से जो आत्मज्ञान को जानने में हमारी तकलीफों को कम कर सकें

और जोड दें अपने लेख में अधिक से अधिक आत्मज्ञानी संतों की कहानियां किस्से और जीवनियां इन्हैं पढने में जो आनंद आता है वो अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता

मेरी सर से विनम्र निवेदन

समस्या यही है। उनके प्रवचन लोग समझ ही पाते। यही आपका उत्तर है। वह जहाँ प्रवचन देते थे वह उनके आश्रम के शिष्य होते थे। जिनको कुण्डलनी जागरण और आत्ममय अनुभव थे। तो वह समझ जाते थे। मतलब महाराज जी सभी पोस्ट ग्रेजुएट क्षात्रों को ही प्रवचन देते थे। अब जो d.sc. होगा वह गली कूंचों में तो प्रवचन देगा तो बेकार जाएगा।

देखकर शक्ति पात दिझा देते थे।।रवि शंकर जी उनही से दिझित हैं ।।

कानपुर तो मेरी ज्ञाननगरी है। इस शहर को नमन।

मेरी रोजी रोटी नौकरी की दाता। कानपुर।

सर मेरे ब्लॉग पर मेरी स्वकथा 13 भागो में लिखी है। आप पढ़ने का कष्ट करें। बार बार बोलना या लिखना अजीब है। यह आत्मश्लाघा होगी।

लिंकः

Freedhyan.blogspot.com

चलिए। ग्रुप की टेस्टिंग है। उत्तर है मृत्यु भी एक क्रिया है। पर आप ज्ञानीजन बताये क्यो।

योग सिखाया या योगासन सिखाया।

योग आंतरिक होता है। अनुभव होता है। वह तो कोई समर्थ गुरू ही सिखा सकता है।

मात्र प्रणायाम या आसन योग नही। पातञ्जलि के अष्टांग योग के आठ अंगों में से मात्र दो अंग।

आप रेकी के सुपर मास्टर है। पर शक्तिपात दीक्षित भी है। कुछ और सोंचे।

नही यार 100 में 35 नम्बर। वो भी partiality में। क्योकि मैं तुम्हे विशेष प्रेम करता हूँ।

अब देखो। महाराज जी का एक वाक्य समझ से परे जा रहा है।

मतलब महाराज जी की गहराई कौन नाप सकता है।

हाथ ऊपर।

सोंचो सोंचो।

यह हमेशा सत्य नही।

जोर दो क्रिया क्यो होती है। इसी में उत्तर छिपा है।

अब आप बताओ सर

पहुच रहे हो।

संस्कार न हो तो क्या होगा। यह क्लू है।

सही है। मतलब जीवन नही। जब जीवन नही तो मृत्यु नही।

तो मृत्यु क्या है। जब तक संस्कार है। जीवन मरण के चक्कर लगते रहेगे।

मृत्यु रूपी अंतिम क्रिया होती रहेगी।

जब संस्कार नष्ट। पातञ्जलि के अनुसार चित्त में कोई वृति नही। मतलब जन्म नही।

अब समझे। यह था मात्र एक वाक्य महाराज जी का सब उल्टे हो गए।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

Tuesday, August 13, 2019

शाबर मंत्र और महत्व

शाबर मंत्र और महत्व

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

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एक समय था कि सँस्कृत मात्र जन्मने ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे। उस समय जन्मे गोरखनाथ ने पूर्वी भाषा मे शक्ति देकर कुछ शब्दों को मन्त्र का रूप दे दिया। जो शाबरी मन्त्र कहलाते है। कुछ शिव को इनका जनक मानतें हैं। वैसे शिव का ही रूप गुरू महाराज होते हैं। बाबा गोरखनाथ को शिव का ही रूप मानते हैं।


देखो जब कोई सिद्ध अपनी शक्ति से किसी शब्द को जागृत कर देता है तो वह जागृत ही रहता है।

जैसे आज के समय सारे मन्त्र सारे शब्द नाम जप सब सिद्ध हो चुके है क्योंकि इतने सन्तो ने इनको जपा की ये जागृत ही हो गए है।

शाबर मंत्र आम ग्रामीण बोलचाल की भाषा में ऐसे स्वयंसिद्ध मंत्र हैं जिनका प्रभाव अचूक होता है।


शाबर मंत्र शास्त्रीय मंत्रों की भांति कठिन नहीं होते तथा ये ऐसे हर वर्ग एवं हर व्यक्ति के लिए प्रभावशाली हैं, जो भी इन मंत्रों का लाभ लेना चाहता है।


थोड़े से जाप से भी ये मंत्र सिद्ध हो जाते हैं तथा अत्यधिक प्रभाव दिखाते हैं। इन मंत्रों का प्रभाव स्थायी होता है तथा किसी भी मंत्र से इनकी काट संभव नहीं है।


परंतु ये किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रयोग किए गए अन्य शक्तिशाली मंत्र के दुष्प्रभाव को आसानी से काट सकते हैं। शाबर मंत्र सरल भाषा में होते हैं तथा इनके प्रयोग अत्यंत सुगम होते हैं।


शाबर मंत्र से प्रत्येक समस्या का निराकरण सहज ही हो जाता है। उपयुक्त विधि के अनुसार मंत्र का प्रयोग करके स्वयं, परिवार, अपने मित्रों तथा अन्य लोगों की समस्याओं का समाधान आसानी से कर सकते हैं।


वैदिक, पौराणिक एवम् तांत्रिक मंत्रों के समान ‘शाबर-मंत्र’ भी अनादि हैं। सभी मंत्रों के प्रवर्तक मूल रूप से भगवान शंकर ही हैं, परंतु शाबर मंत्रों के प्रवर्तक भगवान शंकर प्रत्यक्षतया नहीं हैं, फिर भी इन मंत्रों का आविष्कार जिन्होंने किया वे परम शिव भक्त थे।


गुरु गोरखनाथ तथा गुरु मछन्दर नाथ शाबर-तंत्र के जनक हैं। अपने साधन, जप-तप-सिद्धि के प्रभाव से वे भगवान् शिव के समान पूज्य माने जाते हैं। ये अन्य मंत्र प्रवर्तक ऋषियों के समान विश्वास व श्रद्धा के पात्र हैं, पूजनीय व वंदनीय हैं।


शाबर मंत्रों में ‘आन और शाप’ तथा ‘श्रद्धा और धमकी’ दोनों का प्रयोग किया जाता है। साधक याचक होता हुआ भी देवता को सब कुछ कहने की सामर्थ्य रखता है और उसी से सब कुछ कराना चाहता है।


विशेष बात यह है कि उसकी यह ‘आन’ भी फलदायी होती है। आन माने सौगन्ध। अभी वह युग गए अधिक समय नहीं बीता है, जब सौगन्ध का प्रभाव आश्चर्यजनक व अमोघ हुआ करता था।


सामन्तशाही युग में ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले लोग अनाधिकृत कृत्यों के लिए साधारणतया गांव के ठाकुर, गाय या बेटे आदि की सौगन्ध दिलाने पर ही अवैध कार्यों को रोक देते थे।


न्यायालय, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा में आज भी भगवान की ‘शपथ’ लेकर बयान देने की प्रथा है। अधिकांश लोग आज भी अपनी बात का विश्वास दिलाने के लिए सौगन्ध खाया करते हैं।


यह उस समय की स्मृतियां हैं, जब छोटी-छोटी जनजाति तथा उलट-फेर के कार्य करने वाले भी सौगन्ध को नहीं तोड़ते थे। आज परिवर्तन हो गया है- सौगन्ध लोगों के लिए कोई महत्व नहीं रखते, किंतु ‘शाबर’ मंत्रों में जिन देवी -देवताओं की ‘शपथ’ दिलायी जाती है, वे आज भी वैसे ही हैं।


उन देवों पर जमाने की बेईमानी का कोई असर नहीं हुआ है। शास्त्रीय प्रयोगों में उक्त प्रकार की ‘आन’ नहीं रहती, किंतु शाबर मंत्रों में जिस प्रकार एक अबोध बालक अपने माता-पिता से गुस्से में आकर चाहे जो कुछ बोल देता है, हठ कर बैठता है।


उसके अंदर छल-कपट नहीं होता, वह तो यही जानता है कि मेरे माता-पिता से मैं जो कुछ कहूंगा, उसे पूरा करेंगे ही। ठीक इसी प्रकार का अटल विश्वास ‘शाबर’ मंत्रों का साधक मंत्र के देवता के प्रति रखता है।


जिस प्रकार अल्पज्ञ, अज्ञानी, अबोध बालक की कुटिलता व अभद्रता पर उसके माता-पिता अपने वात्सल्य, प्रेम व निर्मलता के कारण कोई ध्यान नहीं देते, ठीक उसी प्रकार बाल सुलभ सरलता, आत्मीयता और विश्वास के आधार पर निष्कपट भाव से शाबर मंत्रों की साधना करने वाला परम लक्ष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।


शाबर मंत्रों में संस्कृत - हिंदी - मलयालम - कन्नड़ - गुजराती या तमिल भाषाओं का मिश्रित रूप या फिर शुद्ध क्षेत्रीय भाषाओं की ग्राम्य शैली और कल्पना का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है। सामान्यतया ‘शाबर-मंत्र’ हिंदी में ही मिलते हैं।


प्रत्येक शाबर मंत्र अपने आप में पूर्ण होता है। उपदेष्टा ‘ऋषि’ के रूप में गोरखनाथ, सुलेमान जैसे सिद्ध पुरूष हैं। कई मंत्रों में इनके नाम का प्रवाह प्रत्यक्ष रूप से तो कहीं केवल गुरु नाम से ही कार्य बन जाता है।


शाबर मंत्र शास्त्रीय मान्यता से परे होते हुए भी अशास्त्रीय रूप में अपने लाभ व उपयोगिता की दृष्टि से विशेष महत्व के हैं। शाबर मंत्र ज्ञान की उच्च भूमिका नहीं देता, न ही मुक्ति का माध्यम है। इनमें तो केवल ‘काम्य प्रयोग’ ही हैं।


इन मंत्रों में विनियोग, न्यास, तर्पण, हवन, मार्जन, शोधन आदि जटिल विधियों की कोई आवश्यकता नहीं होती। फिर भी वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि सहकर्मों, रोग-निवारण तथा प्रेत-बाधा शांति हेतु जहां शास्त्रीय प्रयोग कोई फल तुरंत या विश्वसनीय रूप में नहीं दे पाते, वहां ‘शाबर-मंत्र’ तुरंत, विश्वसनीय, अच्छा और पूरा काम करते हैं।


शाबर मंत्र साधना के महत्वपूर्ण बिंदु: इस साधना को किसी भी जाति, वर्ण, आयु का पुरुष या स्त्री कर सकते हैं। इन मंत्रों की साधना में गुरु की इतनी आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि इनके प्रवर्तक स्वयंसिद्ध-साधक रहे हैं।


फिर भी कोई पूर्णत्व को प्राप्त निष्ठावान् साधक गुरु बन जाए या मिल जाए तो सोने पे सुहागा सिद्ध होगा और उसमें होने वाली किसी भी परेशानी से आसानी से बचा जा सकता है। षट्कर्मों की साधना तो बिना गुरु के न करें।


साधना के समय नित्य-नैमित्तिक कर्मों को पूर्ण करके श्वेत या रक्त वस्त्र या फिर साधना के मंत्र प्रयोग में वर्णित वस्त्र धारण करना चाहिए। आसन ऊन या कंबल का श्वेत, रक्तवर्णी या पंचवर्णी ग्रहण करें तथा एक बार आसन पर सुखासन में बैठकर जप की नियत संख्या पूर्ण कर ही आसन से उठें।


साधना में घी या मीठे तेल का दीपक एक पटल पर नवीन वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर जलाएंगे, जब तक मंत्र जप चले। अगरबत्ती या धूप किसी भी प्रकार की प्रयुक्त हो सकती है परंतु शाबर मंत्र साधना में गूगल तथा लोबान की अगरबत्ती या धूप की महत्ता मानी गयी है।


पुष्प, शुद्ध जल, नैवेद्य यथाशक्ति अर्पण करें। मानस भाव उत्साह व श्रद्धा से पूर्ण हों तो मंत्र शीघ्र ही जागृत हो जाते हैं। जहां दिशा का निर्देश न हो वहां पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख करके साधना करनी चाहिए। इस्लामी साधना में पश्चिम दिशा का महत्व है।


जब तक दिशा निर्देश न हो दक्षिण की ओर मुंह न करें। जहां माला का निर्देश न मिले वहां कोई भी माला प्रयोग में ला सकते हैं। वैसे तुलसी, चंदन, रुद्राक्ष, स्फटिक की माला विशेष फलदायी है। इस्लामी शाबर मंत्र साधना में ‘सीपियों या हकीक’ की माला का विधान है।


यदि माला न हो तो कर रूपी मनोअंक माला का प्रयोग किया जा सकता है। नियमानुसार माला 108 मनकों वाली ही हो। जप की गति मध्यम हो, न तेज न कम। तन्मयता, श्रद्धा, विश्वास मंत्र सिद्धि के अचूक साधन हैं।


अविश्वास, अधूरा विश्वास व अश्रद्धा से फल प्राप्त नहीं होगा। मंत्र बड़ी ही सरलता से सिद्ध हो जाते हैं, परंतु साथ ही विषमता यह है कि इन मंत्रों की साधना करते समय विचित्र प्रकार की भयानक आवाजें सुनायी पड़ती हैं या डरावनी शक्लें दिखने लगती हैं।


इसलिए इन साधनाओं में धैर्य और साहस बहुत ही आवश्यक है। जप के समय किसी भी परिस्थिति में घबराएं नहीं। न ही जप व आसन छोड़ें। साधना-काल में एक समय भोजन करें तथा ब्रह्मचर्य का पालन करें।


साधना दिन या रात्रि में किसी भी समय कर सकते हैं। शाबर मंत्र साधना सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, दशहरा, गंगा दशहरा, शिवरात्रि, होली, दीपावली, रविवार, मंगलवार, पर्वकाल, सूर्य संक्रांति या नवरात्रियों से प्रारंभ की जा सकती है।


मंत्र का जाप जैसा है वैसा ही करें, अपनी तरफ से कोई परिवर्तन न करें। उच्चारण की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।


मंत्र जप घर के एकांत कमरे में, मंदिर में, नदी-तालाब-गौशाला, पीपल वृक्ष या जप विधि में निर्देशित स्थान पर ही करें। साधना प्रारंभ करने की तिथि-दिन याद रखें।


प्रतिवर्ष उन्हीं तिथियों में मंत्र का पुनः जागरण करें। जागरण में कम से कम एक माला जप के साथ होम (यज्ञ) भी करें। अधिक जप करने पर अधिक फलदायी होता है।

भाई यदि उनका मन होगा तो वह स्वयम आपसे व्यक्तिगत सम्पर्क कर लेंगे। मैं किसी के मान को ठेस नही पहुंचा सकता।

माता जी के सब पुत्र है और आदेश करें सब वयवस्था परमात्मा करेंगे हम लोग निमित्त मात्र है।।

नहीं। यह इशारा है तुम्हारी सोंच में बदलाव का। अब नशा छोड़ो और तैयार हो नए अनुभव के लिए।

वैसे यह किसी मातृ तुल्य रिश्तेदार की मृत्यु का भी संकेत हो सकता है।

आदरणीय विपुल सर जी

महोदय   कई महीनों पहले आप ने   ढोल गवार शुद्ध पशु नारी    पर एक बहुत ही सुंदर लेख लिखा था  जो कि एकदम सटीक था  एक बार वहीं पोस्ट डालने की कुपा करें   धन्यवाद

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_16.html

मित्र। आपका अनुभव उत्तम है पर यह कुछ भी नहीं। शक्तिपात दीक्षा के बाद इस ग्रुप में कुछ सदस्य है जिनको खेचरी उड्डयन और जलन्धर बन्ध जो रामदेव जैसे लोग भी नही कर सकते वह स्वतः लग जाते है। अतः आप भयभीत न हो। आनन्द ले। यह प्रणायाम इत्यादि गौण है जो स्वास्थ्य के साथ प्रारंभिक स्तर की होती है।

आप mmstm चालू रखे। आपकी दीक्षा का समय आ रहा है।

मित्र आप यह लेख अन्य लेखों के साथ मेरे ब्लॉग पर देख ले।

Freedhyan.blogspot.com

कोई अनुभव न अच्छा होता है न बुरा। यह बस शक्ति का खेल होता है।

आप अपने गुरूपर श्रद्धा रखे। हा यदि आपको इसके आगे की दीक्षाये जैसे ब्रह्मचर्य या सन्यास चाहिये तो गुरू बदलना पड़ेगा। क्योंकि आसाराम ग्रहस्थ्य है।

देखिये गुरू के शरीर पर न जाये ये एक शक्ति है। गुरू का शरीर गलती कर सकता है अपने कर्मो का प्रारब्ध का फल भी भोग सकता है। पर उनकी शक्ति निष्कलंक होती है। अतः आप अपने गुरू को ही समर्पित रहे।

जय गुरुदेव।

देखिये। आसाराम जी के शरीर ने जो पूर्व में वर्तमान में गलत कार्य किये है उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा।

पर ज्ञान और शक्ति तो निराकार शुद्ध और निष्कलंक होती है।

अतः आप गुरू तत्व को समर्पित हो। एक वार आसाराम के नाम या शरीर को छोड़ सकती है।

अनुभव को पकड़ कर न बैठे। यह सब पड़ाव होते है।

देखिये विज्ञान की डॉक्टर की सीमा है।

यह क्रिया है।

दुनिया के सामने न करे। यह जगत आपको पागल समझेगा।

विपुल सर आप कह रहे थे कि एक बार आनंदमय कोष में पहुंच जाने के बाद आनंदित रहते हुए सांसारिक कार्यों को कर सकते हैं

आनंदमयकोष में पहुंचना मतलब सहस्त्रार का सक्रिय होना? ? ?

जी

आपकी शक्ति कंट्रोल नही है। आप कहाँ रहती है।

लगे रहो मुन्ना भाई

क्या आप दोबारा शक्तिपात दीक्षा लेकर संतुलित होना चाहेगी।

देखिये यह डिग्री होती है। आसाराम जी के भी पिता धरती पर है। मैं समझा रहा हूँ किसी का अपमान नही कर रहा।

हा जो संस्कार जनित प्रारब्ध होते है वह यदि बीमारी के रूप में है तो स्वतः ठीक हो जाते है। बस साधन करते रहो।

आप कहाँ रहते है।

कालपी, जनपद-जालौन, उ.प्र.

ग्रेजुएट हूं..नौकरी कर रहा हूं

व्यक्तिगत आओ

मतलब उनसे भी शक्तिशाली गुरू है जो प्रचार प्रसार से दूर रहते है।

कर ले। नम्बर में जल्दबाजी नही।

सभी नए सदस्यों का स्वागत है। ग्रुप में केवल आध्यात्मिक अनुभव हेतु ही पोस्ट डाले। गुड़ मार्निंग इवनिग और फोटो पोस्ट करने से बचे।

अपने लिखे भजन इत्यादि डाल सकते है।

मित्र आर्यसमाजियों के साथ और अन्य परम्पराओं के साथ पूर्वाग्रहीत सोंच कुछ हद तक झक होती है।

जैसे मैं सभी मन्त्र समान देखता हूँ। महाराज जी शक्तिपात किसी भी शब्द नाम या मनचाहे मन्त्र से कर देते है। पर कुछ लोग है जिनकी बुद्धि विकसित नही होती वह किसी एक के पीछे ही पड़े रहते है।

प्रभु जी, यूं तो हमाऱा परिवार भी आर्य समाजी ही है, मेरे पिता जी आर्य समाजी, मेरी माँ सनातनी, प्रभाव माँ आर्य समाज का आदर करती है पिता जी सनातन का।  मेरे अभिभावक कहते है की कभी भी एक चीज़ को रटो मत, समझो, क्योंकि यदि समझोगे नही तो सामने वाली सोच या वस्तु तुम्हे अपनी गिरफत में ले लेगी। वैसे आर्य समाज बुरा नही यह हर प्रकार के पाखण्ड से बचाता है, धर्म के कारोबार से बचाता है यदि बुरे है तो इसके पैरोकार।

कर्मगति टारे नाही टरे।

दुनिया समझ नही पा रही है। यह भक्ति की अवस्था है।

आप घरवालों के नाम व्यक्तिगत पोस्ट कर दे। मैं एक दो दिन में मन्त्र दे दूंगा।

अतः आप सब ने देखा होगा जितने भी संतों ने ईश्वर के दर्शन किये उन सभी संतों ने जन मानस कि सेवा के लिए परोपकार के श्रेष्ठ और शुभ कर्म भी किये.


अकर्मण्य को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता.

इनको लेख का रूप देकर डालो।

कल ध्यान में मन्त्रो का तुलनात्मक अध्ययन किया। मेरी निगाह में सब समान है व्यक्ति विशेष का अंतर है बस। सब सिद्ध हो चुके है। पर मन्त्रो में नवार्ण मन्त्र को श्रेष्ठतम बताया। क्योकि गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र नवार्ण मन्त्र में ही समाहित है।

कारण भी समझाया गया। समय मिलने पर लिखूंगा।

मित्र साक्षात्कार हेतु समाधि आवश्यक नही। समाधि पर भी लिख रहा हूँ। लोगो को बहुत भरम है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_17.html

आपने मेरे लेख को पढा नही। मैं बार बार कहता हूँ। सब नाम मन्त्र इत्यादि सिद्ध यानि जीवित हो चुके है। आप कुछ भी करो पर करो। बिना जाने बिना बुझे। सतत निरन्तर निर्बाध समर्पण के साथ।

मैंने सिर्फ मजबूरीवश तुलना करने का दुस्साहस किया। जो मेरी क्षमता के बाहर है। परंतु व्यर्थ के छोटे बड़े मन्त्र के विवाद के कारण मुझे इस पर चर्चा करने हेतु ध्यान और मीमांसा करनी पड़ी।

यह मुझे अच्छा नही लगा। किंतु अज्ञानी ज्ञानियों के लिए जो छोटा बड़ा पूवाग्रह लेकर बैठे है अपनी अपनी सीमित सोच को दुनिया मे प्रचारित कर रहे है।

मेरे लिए नवार्ण गायत्री महामृत्यंजय राम नाम बिट्टल सब नाम बराबर। यह सत्य है मेरा आधार मन्त्र नवार्ण है पर मुझे क्रिया या ध्यान हेतु कुछ भी चलता है और बराबर क्रिया भी होती है।

मुझे लगता है मुझे सभी देवों का आशीष है। माँ गायत्री का भी अनुग्रह है।

जय महाकाली गुरुदेब। जय महाकाल।

मेरे विचार से यह उचित भी था ताकि लोग मन्त्रो के रहस्य भी जान सके। दूसरे यह माँ जगदम्बे की कृपा से अचानक ही हो गया और तर्क मीमांसा स्वतः स्पष्ट हो गई।

मैंने तो लिख भी दिया है अंत मे मैं अज्ञानी मूर्ख मुझे कुछ नही पता। सब माँ की कृपा ने लिखवाया।

यही सत्य है। जापक अधिक महत्वपूर्ण है।

जो घड़ा खाली होता है उसमें अधिक द्रव भरत है। जिसमे कचरा हो तो पहले वह खाली होता है। यह स्थिति उनकी है जो शरण मे आते है।

दूसरी बात गीता रामायण चालीसा मन्त्र नाम जप सब स्वतः सिद्ध है जीवित है। अतः बिना अर्थ जाने या न जाने इसमें कोई अंतर नही। बस आवषयक है आपकी एकाग्रता और समर्पण और जप संख्या।

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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