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Sunday, August 25, 2019
आफत पर्यावरण की
आफत पर्यावरण की
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
उलीच ली नदियां। खोद लिए पहाड़।।
आत्मा को मारकर। सजा लिया हाड़।।
काट दिए पेड़। ऊँन हेतु भेड़।।
पानी की चोरी । तोड़ डाली मेड़।।
पक्की सड़क । बड़ा सा मकान।।
प्यासी धरती । सूखे खलिहान।।
मरते है कुएं। ऊंची दुकान।।
हाथी को मारा। हाथी दांत पाया।
फिर बस उसी से। हाथी बनाया।।
बच्चों का खिलौना। उन्हें समझाया।।
कैसा यह खेल। विपुल समझ न आया।।
लालच की चाह। पात्र है खाली।।
अंडे का लालच। मुर्गी काट डाली।।
यही है उत्थान। नया है विज्ञान।।
हम तो है पुराने। नया युग महान।।
द्ण्ड, भूत और चर्चा
दण्ड, भूत और चर्चा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
मो. 09969680093
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
“bulle
👉👉शिव और उनके प्रतीक👈👈
👉👉रुद्राक्ष: रुद्र के आंसू👈👈
बुद्धि का अनावश्यक प्रदर्शन।
घर के बर्तन मांजने आये नहीं। सूक्ष्म का शोधन।
👉👉विवेक की व्याख्या👈👈
"विवेक का अर्थ है। ब्राह्मण हेतु कार्य करना"।
इसके सही अर्थ बताये।क्या यह वाक्य गलत है।
अधिकतर गलत ही बताएंगे??? समझेंगे ही नहीं। क्यों??????
कुण्डलनी जागरण मार्ग का पड़ाव होता है। किंतु बिना यह जागृत बने न तो आध्यात्म का और न ही योग का अनुभव होता है।
लक्ष्य तो अलक्ष्य को प्राप्त होना है।
इस विषय मैं कल रात्रि का स्वप्न ध्यान कुछ भी कहो, उसका जिक्र करूंगा।
स्वप्न में मैं देवी पूजन और आरती या भजन गा रहा था। मस्ती में झूम रहा था सभी लोग झूमकर नृत्य कर गान कर रहे थे।
अचानक मेरे मुख से कृष्ण राधे। राधे कृष्ण निकलने लगा जो बाद में राधे राधे होने लगा।
इसके अर्थ यह हुए कि राधे का माँ शक्ति काली से कुछ सम्बन्ध है।
सुबह गूगल गुरू सर्च किया। तो पता चला कि कृष्ण काली का अवतार और राधे शिव का अवतार हैं।
मतलब स्वप्न या ध्यान सही जानकारी दे गया।
जय हो प्रभु। जय हो प्रभु। लीला अपरम्पार प्रभु।
तुझको समझा यह सोंचू मैं। यह भी तेरा उपकार प्रभु।।
##गया के #आकाशगंगा पहाड़ पर एक ##परमहंस जी वास करते थे। एक दिन ##परमहंस जी के शिष्य ने एकादशी के दिन #निर्जला उपवास करके द्वादशी के दिन प्रातः उठकर फल्गु नदी में स्नान किया, #विष्णुपद का दर्शन करने में उन्हें थोड़ा विलम्ब हो गया। वे साथ में एक #गोपाल जी को सर्वदा ही रखते थे। द्वादशी के पारण का समय बीतता जा रहा था, देखकर वे अधीर हो गये एवं शीघ्र एक #हलवाई की दुकान में जाकर उन्होंने दुकानदार से कहा - 'पारण का समय निकला जा रहा है, मुझे कुछ मिठाई दे दो, गोपाल जी को भोग लगाकर मैं थोड़ा जल ग्रहण करुँगा।
#दुकानदार उनकी बात अनसुनी कर दी। #साधु के तीन - चार बार माँगने पर भी हाँ ना कुछ भी उत्तर नहीं मिलने से व्यग्र होकर एक बताशा लेने के लिए जैसे ही उन्होने हाथ बढ़ाया, दुकानदार और उसके #पुत्र ने साधु की खुब पिटाई की, निर्जला उपवास के कारण साधु दुर्बल थे, इस प्रकार के #प्रहार से वे सीधे गिर पड़े। रास्ते के लोगों ने बहुत प्रयास करके साधु की रक्षा की। साधु ने दुकानदार से एक शब्द भी नहीं कहा, ऊपर की ओर देखकर थोड़ा हँसते हुए प्रणाम करके कहा-भली रे दयालु गुरुजी, तेरी लीला। केवल इतना कहकर साधु पहाड़ की ओर चले गये।
#गुरुदेव परमहंस जी पहाड़ पर ##समाधि में बैठे हुए थे, एकाएक #चौक उठे एवं चट्टान से नीचे कूदकर बड़ी तीव्र गति से गोदावरी नामक रास्ते की ओर चलने लगे। रास्ते में #शिष्य को देखकर परमहंस जी कहा 'क्यो रे बच्चा, क्या किया? शिष्य ने कहा, गुरुदेव मैने तो कुछ नहीं किया। परमहंस जी ने कहा' बहुत किया। तुमने बहुत बुरा काम किया। ##परमात्मा के ऊपर बिल्कुल छोड़ दिया। जाकर देखो, #परमात्मा ने उसका कैसा हाल किया। यह कहकर शिष्य को लेकर #परमहंस जी हलवाई की दुकान के पास जा पहुँचे। उन्होंने देखा हलवाई का #सर्वनाश हो गया है।
##साधु को पीटने के बाद, जलाने की लकड़ी लाने के लिए हलवाई का लड़का जैसे ही कोठरी में घुसा था उसी समय एक #काले नाग ने उसे डस लिया। हलवाई घी गर्म कर रहा था, सर्पदंश से मृत अपने पुत्र को देखने दौड़ा। उधर चूल्हे पर रखे घी के जलने से दुकान की फूस की छत पर आग लग गई।
##परमहंस जी ने देखा, लड़का रास्ते पर मृतवत पड़ा है, दुकान धू-धू करके जल रही है, रास्ते के लोग #हाहाकार कर रहे है। #भयानक दृश्य था। ##परमहंस जी शिष्य को लेकर पहाड़ पर आ गए। शिष्य को खूब फटकारते हुए कहा कि बिना अपराध के कोई अत्याचार करता है, तो क्रोध न आने पर भी साधु पुरुष को कम-से-कम एक गाली ही देकर आना चाहिए। #साधु के थोड़ा भी प्रतिकार करने से अत्याचारी की रक्षा हो जाती है, #परमात्मा के ऊपर सब भार छोड़ देने से #परमात्मा बहुत कठोर दंड देते हैं। #भगवान् का दंड बड़ा भयानक है।
क्या भूत प्रेत पिशाच दाकन सच मे होते है।
यह होते है। नकारात्मक ऊर्जा के कारण।
यदि मनुष्य दुर्बल मन का हो तो प्रभाव डाल सकते है।
यह सब सोंच से बनते है। कीड़ो की सोंच नही होती।
जैसा की सभी जानते है, भूत जिसको इतर योनि कहा जाता है, ये कई प्रकार के होते है । प्रेत , बेताल , पिशाच आदि । परंतु इस पोस्ट पर मे भूतो का वर्गीकरण अलग आधार पर करूँगा । इस वर्गीकरण मे इतर योनि की दो श्रेणियाँ ही है, जिसमे सभी प्रेत वर्ग सम्मिलित है ।
1) पहली श्रेणी के भूत वो इतर योनि है , जो कभी मनुष्य थी , पर मृत्यु उपरांत वो अपने कर्म या अतृप्त इच्छा के कारण प्रेत योनि मे आ जाती है , इनको भूत , प्रेत , चुड़ैल , ब्रहम राक्षस आदि कहा जाता है , यहा ये ज्ञात रखे की भूतो की इस श्रेणी की भी काफी sub श्रेणियाँ होती है , जैसे बडवा , कलवा , आदि , आजकल महेश भट्ट की हॉरर फिल्मो मे इन्हीं भूतो को आधार बनाया जाता है , इन भूतो की शक्ती सीमित होती है , ओर ज्यादातर तान्त्रिक इनको गुलाम बनाकर अच्छे बुरे काम लेते है , पर इस श्रेणी के भूत अपनी इच्छा पूरी होने पर या भोग कर्म समाप्त होने पर दुबारा जन्म ले लेते है ।
2) दुसरी श्रेणी के भूत वो इतर योनि है , जो कभी भी मनुष्य योनि मे नही थे, ये योनि इनकी parmanent योनि होती है , ये अलग लोक के वासी होते है , जैसे बेताल , पिशाच , ड़ाकिनी , शाकिनी , राक्षस , शैतान आदि ,शास्त्रो मे इनको मन्त्रो का अधिपति भी बोला
गया है , इनकी शक्ति ओर बल असीमित होता है , इनको सहज रूप से दुसरी इतर योनि की तरह गुलाम नही बनाया जा सकता , इनका साधक चमत्कारी कार्य कर सकता है , महाराजा विक्रम केवल ताल बेताल को प्रसन्न करके ही महान कार्य सम्पादित कर पाये थे , ऐसे ही ड़ाकिनी की शक्ति भी असीमित होती है , ये अपने साधक को अति विशिष्ट तंत्र मन्त्र का ज्ञान कराती है , जिसमे रूप परिवर्तन , परकाय प्रवेश विभिन्न लोको मे गमन प्रमुख है , ओर कुरान मे ज़िक्र है, शैतानो ने मुस्लिमो के अल्लाह को भी चुनौती दे दी थी । इस विशिष्ट इतर योनि को रामसे बंधुओ ने अपनी फिल्मो मे काफी प्रमुखता से स्थान दिया है , उनकी अधिकतर हॉरर फिल्मो के भूत विशिष्ट श्रेणी के ही अधिक देखने को मिले । इस श्रेणी की इतर योनि अमर होती है , ओर अधिकतर मन्त्र या बीज़ मन्त्र इनके द्वारा ही सम्पादित होते है , शास्त्रो मे इनको उपदेव का दर्ज़ा भी प्राप्त है ।
इतने प्रकार के होते हैं भूत-प्रेत आत्माएं।
भले ही विज्ञान भूत-प्रेतों की बातों पर विश्वास ना करें परन्तु ज्योतिष के मुताबिक भूत-प्रेत और आत्माएं होती हैं। तंत्र शास्त्रों के मुताबिक तो दुनिया में करीब 3० प्रकार की अनदेखी आत्माएं और भूत-प्रेत होते हैं। आइये जानते है इनके बारे में.
(1) भूत :- सामान्य भूत जिसके बारे में आप अक्सर सुनते हैं, इसके बारे में कुछ प्रमाण देते हैं तो कुछ को उपरी हवा बताते हैं।
(2) प्रेत : परिवार के सताए हुए बिना क्रियाकर्म के मरे हुए आदमी, जो पीडि़त होते हैं वे इस श्रेणी में आते हैं।
(3) हाडल : बिना नुक्सान पहुचाये प्रेतबाधित करने वाली आत्माएं।
(4) चेतकिन :- चुडैलें जो लोगो को प्रेतबाधित कर दुर्घटनाए करवाती है।
(5) मुमिई :- मुंबई के कुछ घरों में प्रचलित प्रेत, जो कभी कभी दिखाई देते है।
(6) मोहिनी या परेतिन : -प्यार में धोखा खाने वाली आत्माएं जिनसे मनुष्यों को मदद मिल सकती है।
(7) विरिकस:- घने लाल कोहरे में छिपी और अजीबो-गरीब आवाजे निकलने वाला होता है।
(8) डाकिनी :- मोहिनी और शाकिनी का मिला जुला रूप किन्ही कारणों से हुई मौत से बनी आत्मा होती है।
(9) शाकिनी:- शादी के कुछ दिनों बाद दुर्घटना से मरने वाली औरत की आत्मा जो कम खतरनाक होती है।
(10) कुट्टी चेतन :- बच्चे की आत्मा जिस पर तांत्रिको का नियंत्रण होता है।
(11) ब्रह्मोदोइत्यास :- बंगाल में प्रचलित, श्रापित ब्राह्मणों की आत्माए,जिन्होने धर्म का पालन ना किया हो।
(12) सकोंधोकतास :- बंगाल में प्रचलित रेल दुर्घटना में मरे लोगो की सर कटी आत्माए होती हैं।
(13) निशि :- बंगाल में प्रचलित अँधेरे में रास्ता दिखाने वाली आत्माएं।
(14) कोल्ली देवा :- कर्नाटक में प्रचलित जंगलों में हाथों में टोर्च लिए घूमती आत्माएं।
(15) कल्लुर्टी :-कर्नाटक में प्रचलित आधुनिक रीती रिवाजों से मरे लोगों की आत्माएं।
(16) किचचिन:- बिहार में प्रचलित हवस की भूखी आत्माएं।
(17) पनडुब्बा:- बिहार में प्रचलित नदी में डूबकर मरे लोगों की आत्माएं।
(18) चुड़ैल:- उत्तरी भारत में प्रचलित राहगीरों को मारकर बरगद के पेड़ पर लटकाने वाली आत्माएं।
(19) बुरा डंगोरिया :- आसाम में प्रचलित सफ़ेद कपडे और पगड़ी पहने घोड़े पसर सवार होने वाली आत्माएं।
(20) बाक :- आसाम में प्रचलित झीलों के पास घुमती हुई आत्माएं।
(21) खबीस:- पाकिस्तान, गल्फ देशों और यूरोप में प्रचलित जिन्न परिवार से ताल्लुक रखने वाली आत्माएं।
(22) घोडा पाक :- आसाम में प्रचलित घोड़े के खुर जैसे पैर बाकी मनुष्य जैसे दिखाई देने वाली आत्माएं।
(23) बीरा :- आसाम में प्रचलित परिवार को खो देने वाली आत्माएं।
(24) जोखिनी :-आसाम में प्रचलित पुरुषों को मारने वाली आत्माएं।
(25) पुवाली भूत :-आसाम में प्रचलित छोटे घर के सामनों को चुराने वाली आत्माएं।
(26) रक्सा :- छतीसगढ़ मे प्रचलित कुंवारे मरने वालों की खतरनाक आत्माएं।
(27) मसान:- छतीसगढ़ की प्रचलित पांच छह सौ साल पुरानी प्रेत आत्मा नरबलि लेते हैँ, जिस घर मेँ निवास करे। ये पूरे परिवार को धीरे धीरे मार डालते है।
(28) चटिया मटिया :- छतीसगढ़ मेँ प्रचलित बौने भूत जो बचपन मेँ खत्म हो जाते हैँ वो बनते हैँ बच्चो को नुकसान नहीँ पहुँचाते। आंखे बल्ब की तरह हाथ पैर उल्टे काले रंग के मक्खी के स्पीड में भागने वाले चोरी करने वाली आत्माएं।
(29) बैताल:- पीपल पेड़ मेँ निवास करते हैँ एकदम सफेद रंग वाले ,सबसे खतरनाक आत्माएं।
(30) गरूवा परेत:- बीमारी या ट्रेन से कटकर मरने वाले गांयों और बैलों की आत्मा जो कुछ समय के लिए सिर कटे रूप मेँ घुमते दिखतेँ हैँ। ये नुकसान नही पहुचाते। छतीसगढ में प्रचलित है।
ब्रह्म का दास बनकर ही उचित मार्ग है।
वेदों की वाणी और निर्माण का एकमात्र उद्देश्य है कि तुम जान सको कि तुम ही ब्रह्म हो। इसी हेतु वेद महावाक्यों का जन्म हुआ। क्योकि ब्रह्म का अंतिम रूप निराकार सगुण निर्गुण ब्रह्म ही है।
इसी को समझाते हुए उपनिषद भी रचे गए। और सर्व खलु मिदम ब्रह्म सार वाक्य बना।
इसी बात को और अधिक तरीके से योग को समझाते हुए षट दर्शन बने। जिसमे अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रयास हुए।
इसी को गीता ने संक्षेप में समझाया। फिर तुलसीदास ने साकार के उदाहरण देते हुए व्याख्या की।
कुल मिलाकर मनुष्य का जन्म अपने को जानने हेतु ही हुआ है।
यह सभी शक्तियां शिव के ही अधीन होती है। शिव यानि गुरू। शिव इनको कैसे भी नचा सकता है। अतः शिव की बारात। यानि गुरू तत्व जब शक्ति से मिलता है तो सभी शक्तियां प्रसन्न होती है और अपनी उपस्थिति का एहसास कराती है।
क्योकि गुरू शक्ति यानि शिव शक्ति ही उनको मुक्ति दिला सकती है।
सब एक ही ऊर्जा के विभिन्न रूप है किंतु स्वयं कोई भी अपनी पूजा हेतु नहीं कहता है। कृष्ण ने समझाने हेतु अर्जुन को यह वाक्य कहा। क्योकि उस समय कृष्ण अहम ब्रह्मास्मि के भाव मे थे।
कृष्ण को अन्य ने कहा किंतु कृष्ण ने कभी ऐसा नही कहा।
कृष्ण ने भी किंतने गुरु से दीक्षाले थी।
👉👉क्या होते हैं वैष्णव👈👈
साथ ही एक स्वप्न जो बचपन से देखता रहा हूँ वह भी बताना चाहता हूँ।
मेरी इच्छा रही है कि माँ शक्ति का एक सुंदर मन्दिर बनवाऊँ जो जगत निराला हो।
उसकी कल्पना इस प्रकार है।
बीच मे 50 फुट या अधिक ऊंची तीन मूर्तिया जो पीठ से सटी हो। जो माँ सरस्वती महा लक्ष्मी और महाकाली की हो।
उनके सामने गोलाई में नव दुर्गा की 6 फीट की मूतियां जो इन तीनो को घेरे हो।
कुछ इस तरह का निर्माण हो।
कल्पना में जब इनकी आरती एक साथ 12 लोग घूमते हुए करें। तो कितना मनोरम दृश्य होगा।
मेरे पास तो न जमीन है और न इतना धन। सब कुछ बेच कर भी यह कल्पना साकार नहीं हो सकती।
किंतु आपसे शेयर करता हूँ। शायद आप महात्मा लोगोँ का आशीर्वाद मिल जाये और यह स्वप्न साकार हो।
मैं भाग्यशाली होऊंगा यदि नेत्र बन्द होने के पूर्व यह कल्पना साकार होते देख सकूँ। कोई भी इस तरह का मंदिर देश में नहीं है किंतु यदि कोई बनवाये तो दर्शन कर सकूं।
जय माँ। जय गुरुदेव। आपका ही सहारा।
अपनी फोटो के मोह से निकल नहीं पाए। बिना यह त्यागे कैसे आगे बढोगे। ?????
मित्र क्षमा की कोई बात नहीं। तुमको इसलिए टोका क्योकि तुम एक अच्छे साधक हो।
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मन्त्र जप एक तरीका है। जब हमारा तन मन सब मन्त्र जप में लीन हो जाता है। हम देह भान भूल जाते है। हमारा सब कुछ मन्त्र में लीन होने लगता है। तब मन्त्र अपने इष्ट को हमारे सामने प्रकट कर देता है।
तीव्र प्रकाश के साथ हमें अपने इष्ट के साक्षात दर्शन हो जाते है। हमारा इष्ट हमसे बात भी करता है। इसी के साथ कुण्डलनी भी स्वतः खुल सकती है यदि हमें इष्ट स्पर्श कर देता है और हम क्रिया का आनन्द लेने लगते है।
यह कथा यहीं खत्म नहीं होती। इष्ट हमें खुले नेत्रों और इंन्द्रियों से अहम ब्रह्मास्मि की अनुभूति भी करा सकता है। बशर्ते हम दुकान न खोले। कोई लालसा न करें।
यह बात स्वयम मेरे अनुभव की है। आप यकीन करें या न करें।
जिस क्षण आप अपना सब कुछ प्रभु में विलीन कर दो। प्रभु उसी क्षण आपके मन्त्र का इष्ट बनकर सामने आएगा। लेकिन आप न किसी पर यकीन करते है और न खुद कुछ करते है। आपको यकीन दिलाने हेतु इतनी शक्तिशाली ध्यान विधि mnstm का निर्माण स्वयं कृष्ण और काली ने करवाया। जिसके कारण आपको सनातन की शक्ति का एहसास मात्र कुछ दिनों में हो जाता है। लेकिन आप को तो झूठी वाह वाही चाहिए। अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर गुरू की सन्यासी बनने की लालसा ही मोहित करती है।
एक बार प्रभु को को समर्पित होकर देखो। तब मालूम होगा वह अपने दासों की रक्षा किस प्रकार करता है।
कभी किसी भी प्राप्ति हेतु जिद्द न करो। जैसे अनिल करता था। यह जिद्द मात्र उपहास का कारण बनकर दुख ही देगी।
सिरफ और सिर्फ प्रभु स्मरण और समर्पण करो। है प्रभु तेरी इच्छा मेरी इच्छा। मुझे यदि मृत्यु देना तो अपने चरणों मे ही जगह देना। मुझे जगत का कुछ नहीँ चाहिए। यदी च्चाहिये तो सिर्फ तू ही तू।
अपने एक गुरु भाई हैं। अच्छे साधक है। सूक्ष्म तक की यात्रा करते है। किंतु सन्यासी बनने की तमन्ना रखते है। बस यही तमन्ना उनको ऊपर नहीं उठने देगी।
सवाल यह है कि सन्यासी क्यों बनना चाहते हो। ताकि लोग तुम्हे प्रणाम करें आदर दें। जिससे हमारा अहम पोषित हो।
मैं बिल्कुल सन्यासी बनना नहीं चाहता। पिछले दिनों मुझे स्वप्न में भगवा रंग दिखने लगा मैं डर गया कि कहीं प्रभु मुझे सन्यास की भट्टी में न झोंक दे।
मैं अपनी परम्परा के एक गुरू के पास गया उनको स्वप्न बता कर प्रार्थना की कि बड़े महाराज से विनती करें। मुझे सन्यासी या गुरू बिल्कुल नहीं बनना है। एक सेवक हूँ मुझे वो ही रहना है।
लोगो को पता नहीं सन्यासी या गुरू का जीवन कितना कष्टप्रद होता है। वे या नकली सन्यासी को देखते है या सम्मान को देखकर आकर्षित होते है।
सदगुरू और वास्तविक सन्यासी का जीवन बेहद दुरूह और कष्टप्रद होता है। मुझे उनकी पीड़ाओं का अनुभव होता है।
मंत्रो के परिशुद्ध ज्ञान को समझने के लिए मंत्रो की किस पुस्तको का अध्ययन करना चाइये किस publisher की कृपा मार्गदर्शन करें sir ji
अध्य्यन नहीं मनन करो। यही मन्त्र परिपक्व होकर सब ज्ञान स्वतः दे देता है।
जो आपका इष्ट हो उसका मन्त्र।
एक साधे सब सधे। सब साधे सब खोय।।
जो इष्ट आपको संकट में याद आये वह इष्ट है।
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा॥
यह बात इतनी सत्य है। जितना सूर्य की परिक्रमा धरती करती है। और गर्मी के बाद वर्षा आती है।
मित्रो मैं देखता हूँ कि कुछ ग्रुप के मित्र ग्रुप में नही तो फेस बुक पर मुँह बना बना कर फोटो डालते रहते है मैं उनसे पूछना चाहता हूँ उनको इससे क्या मिलता है।
अपनी फोटो खुद बे वजह डालना क्या आत्म श्लाघा या सूक्ष्म रूप में अहंकार नहीं है।
अब आप कहेंगे आप भी लेख में डालते है। जी बिल्कुल सही यह 10 साल पुरानी घटिया फोटो सिर्फ परिचय हेतु होती है ताकि लोग पहचान सके। प्रचार होगा तो शायद सनातन की सेवा भी अधिक हो सके। और शायद लेख कविता चोरी न हो।
किंतु इससे मुझे तनिक लगाव नहीं। किसी की सलाह पर पुरानी फोटो डाल देता हूँ कभी कभी।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
इस ब्लाग पर प्रकाशित मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
Friday, August 23, 2019
श्रीमद्भग्वद्गीता में योग
श्रीमद्भग्वद्गीता में योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
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अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदान्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है। यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा, यह अनुभूति देता है। जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है। कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही। मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान और अनुभव होना योग है।
श्रीमद्भग्वद्गीता में योग से सम्बधित तीन श्लोक मिलते हैं जो विधि को समझाते हैं जिनको क्रिया योग में सम्मिलित करा गया है और कुछ सीमा तक रामदेव बाबा भी इसी का अभ्यास स्वस्थ्य रहने हेतु कर रहे हैं। किंतु वह पूरा श्लोक का अनुसरण नहीं कर रहे हैं।
भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 29
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।
।।4.29।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।
हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी
4.29। व्याख्या अपाने जुह्वति ৷৷. प्राणायामपरायणाः (टिप्पणी प0 258.1) प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है (टिप्पणी प0 258.2)। श्वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है। इसलिये श्वासको बाहर निकालना प्राण का कार्य और श्वासको भीतर ले जाना अपान का कार्य है। योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका(चन्द्रनाड़ी) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है। इसको पूरक कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु दोनोंकी गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको कुम्भक कहते हैं। इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका(सूर्यनाड़ी) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछेपीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करना है। इसको रेचक कहते हैं। चार भगवन्नामसे पूरक सोलह भगवन्नामसे कुम्भक और आठ भगवन्नामसे रेचक किया जाता है।
इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं। इस तरह बारबार पूरककुम्भकरेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है।
परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 258.3)।अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति नियमित आहारविहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं।
अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता 6। 16 17)।
प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपनेअपने स्थानोंपर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे स्तम्भवृत्ति प्राणायाम भी कहते हैं। इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है। केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है उनका अनुष्ठान करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ सर्वेऽप्येते पद आया है। उन यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहनेसे उनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्माका प्राप्ति हो जाती है।वास्तवमें सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये ही हैं ऐसा जाननेवाले ही यज्ञवित् अर्थात् यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले हैं। कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है। जो लोग अविनाशी परमात्माका अनुभव करनेके लिये यज्ञ नहीं करते प्रत्युत इस लोक और परलोक (स्वर्गादि) के विनाशी भोगोंकी प्राप्तिके लिये ही यज्ञ करते हैं वे यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले नहीं हैं। कारण कि विनाशी पदार्थोंकी कामना ही बन्धनका कारण है गतागतं कामकामा लभन्ते (गीता 9। 21)।
अतः मनमें कामनावासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़ेबड़े यज्ञ करनेपर भी जन्ममरणका बन्धन बना रहता है मिटी न मनकी वासना नौ तत भये न नास।तुलसी केते पच मुये दे दे तन को त्रास।।विशेष बात यज्ञ करते समय अग्निमें आहुति दी जाती है। आहुति दी जानेवाली वस्तुओंके रूप पहले अलगअलग होते हैं परन्तु अग्निमें आहुति देनेके बाद उनके रूप अलगअलग नहीं रहते अपितु सभी वस्तुएँ अग्निरूप हो जाती हैं। इसी प्रकार परमात्मप्राप्तिके लिये जिन साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है उनमें आहुति देनेका तात्पर्य यही है कि आहुति दी जानेवाली वस्तुओँकी अलग सत्ता रहे ही नहीं सब स्वाहा हो जायँ। जबतक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है तबतक वास्तवमें उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात् यज्ञका अनुष्ठान हुआ ही नहीं।इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकसे भगवान् कर्मोंके तत्त्व (कर्ममें अकर्म) का वर्णन कर रहे हैं। कर्मोंका तत्त्व है कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना। कर्मोंसे न बँधनेका ही एक साधन है यज्ञ। जैसे अग्निमें डालनेपर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं ऐसे ही केवल लोकहितके लिये किये जानेवाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते (गीता 4। 23)।निष्कामभावपूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारणसेसाधारण कर्म भी परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हो जाते हैं। परन्तु सकामभावपूर्वक किये गये बड़ेसेबड़े कर्मोंसे भी परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। कारण कि उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंकी कामना ही बाँधनेवाली है। पदार्थ और क्रियारूप संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यमात्रमें पदार्थ पाने और कर्म करनेका राग रहता है कि मुझे कुछनकुछ मिलता रहे और मैं कुछनकुछ करता रहूँ। इसीको पानेकी कामना तथा करनेका वेग कहते हैं।मनुष्यमें जो पानेकी कामना रहती है वह वास्तवमें अपने अंशी परमात्माको ही पानेकी भूख है परन्तु परमात्मासे विमुख और संसारके सम्मुख होनेके कारण मनुष्य इस भूखको सांसारिक पदार्थोंसे ही मिटाना चाहता है।
सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है। अविनाशीकी भूख विनाशी पदार्थोंसे मिट ही कैसे सकती है परन्तु जबतक संसारकी सम्मुखता रहती है तबतक पानेकी कामना बनी रहती है। जबतक मनुष्यमें पानेकी कामना रहती है तबतक उसमें करनेका वेग बना रहता है। इस प्रकार जबतक पानेकी कामना और करनेका वेग बना हुआ है अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध बना हुआ है तबतक जन्ममरण नहीं छूटता। इससे छूटनेका उपाय है कुछ भी पानेकी कामना न रखकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना। इसीको लोकसंग्रह यज्ञार्थ कर्म लोकहितार्थ कर्म आदि नामोंसे कहा गया है।केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे संसारसे सम्बन्ध छूट जाता है और असङ्गता आ जाती है। अगर केवल भगवान्के लिये कर्म किये जायँ तो संसारसे सम्बन्ध छूटकर असङ्गता तो आ ही जाती है इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान्का प्रेम प्राप्त हो जाता है सम्बन्ध चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक भगवान्ने कुल बारह प्रकारके यज्ञोंका वर्णन किया और तीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें यज्ञ करनेवाले साधकोंकी प्रशंसा की। अब भगवान् आगेके श्लोकमें यज्ञ करनेसे होनेवाले लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि बताते हैं।
भक्तिपाद प्रभु पाद द्वारा व्याख्या:
श्लोक 4 . 29
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेSपानं तथापरे |
प्राणापानगति रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः |
अपाने – निम्नगामी वायु में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; प्राणम् – प्राण को; प्राणे – प्राण में; अपानम् – निम्नगामी वायु को; तथा – ऐसे ही; अपरे – अन्य; प्राण – प्राण का; अपान – निम्नगामी वायु; गती – गति को; रुद्ध्वा – रोककर; प्राण-आयाम – श्र्वास रोक कर समाधि में; परायणाः – प्रवृत्त; अपरे – अन्य; नियत – संयमित, अल्प; आहाराः – खाकर; प्राणान् – प्राणों को; प्राणेषु – प्राणों में; जुह्वति – हवन करते हैं, अर्पित करते हैं |
अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्र्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम) | वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण-अपान को रोककर समाधि में रहते हैं | अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं |
तात्पर्य
श्र्वास को रोकने की योगविधि प्राणायाम कहलाती है | प्रारम्भ में हठयोग के विविध आसनों की सहायता से इसका अभ्यास किया जाता है | ये सारी विधियाँ इन्द्रियों को वश में करने तथा आत्म-साक्षात्कार की प्रगति के लिए संस्तुत की जाती हैं | इस विधि में शरीर के भीतर वायु को रोका जाता है जिससे वायु की दिशा उलट सके | अपान वायु निम्नगामी (अधोमुखी) है और प्राणवायु उर्ध्वगामी है | प्राणायाम में योगी विपरीत दिशा में श्र्वास लेने का तब तक अभ्यास करता है जब तक दोनों वायु उदासीन होकर पूरक अर्थात् सम नहीं हो जातीं | जब अपान वायु को प्राणवायु में अर्पित कर दिया जाता है तो इसे रेचक कहते हैं | जब प्राण तथा अपां वायुओं को पूर्णतया रोक दिया जाया है तो इसे कुम्भक योग कहते हैं | कुम्भक योगाभ्यास द्वारा मनुष्य आत्म-सिद्धि के लिए जीवन अवधि बढ़ा सकता है | बुद्धिमान योगी एक ही जीवनकाल में सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, वह दूसरे जीवन की प्रतीक्षा नहीं करता | कुम्भक योग के अभ्यास से योगी जीवन अवधि को अनेक वर्षों के लिए बढ़ा सकता है | किन्तु भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में स्थित रहने के कारण कृष्णभावनाभावित मनुष्य स्वतः इन्द्रियों का नियंता (जितेन्द्रिय) बन जाता है | उसकी इन्द्रियाँ कृष्ण की सेवा में तत्पर रहने के कारण अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त होने का अवसर ही नहीं पातीं | फलतः जीवन के अन्त में उसे स्वतः भगवान् कृष्ण के दिव्य पद पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है, अतः वह दीर्घजीवी बनने का प्रयत्न नहीं करता |
वह तुरंत मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है, जैसा कि भगवद्गीता में (१४.२६) कहा गया है –
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ||
“जो व्यक्ति भगवान् की निश्छल भक्ति में प्रवृत्त होता है वह प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और तुरन्त आध्यात्मिक पद को प्राप्त होता है |”
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति दिव्य अवस्था से प्रारम्भ करता है और निरन्तर उसी चेतना में रहता है | अतः उसका पतन नहीं होता और अन्ततः वह भगवद्धाम को जाता है | कृष्ण प्रसादम् को खाते रहने में स्वतः कम खाने की आदत पड़ जताई है | इन्द्रियनिग्रह के मामले में कम भोजन करना (अल्पाहार) अत्यन्त लाभप्रद होता है और इन्द्रियनिग्रह के बिना भाव-बन्धन से निकल पाना सम्भव नहीं है |
भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 27
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः| प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ|
हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी (भगवद् गीता 5.27)
।।5.27।।बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अपने वशमें हैं जो मोक्षपरायण है तथा जो इच्छा भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है वह मुनि सदा मुक्त ही है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद
।।5.27।। बाह्य विषयों को बाहर ही रखकर नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके।।
हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी
5.27।। व्याख्या स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्धविच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है।चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः यहाँ भ्रुवोः अन्तरे पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13) ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ नासिकासे बाहर निकलनेवाली वायुको प्राण और नासिकाके भीतर जानेवाली वायुको अपान कहते हैं।प्राणवायुकी गति दीर्घ और अपानवायुकी गति लघु होती है। इन दोनोंको सम करनेके लिये पहले बायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर दायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। फिर दायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर बायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। इन सब क्रियाओंमें बराबर समय लगना चाहिये। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहनेसे प्राण और अपानवायुकी गति सम शान्त और सूक्ष्म हो जाती है। जब नासिकाके बाहर और भीतर तथा कण्ठादि देशमें वायुके स्पर्शका ज्ञान न हो तब समझना चाहिये कि प्राणअपानकी गति सम हो गयी है। इन दोनोंकी गति सम होनेपर (लक्ष्य परमात्मा रहनेसे) मनसे स्वाभाविक ही परमात्माका चिन्तन होने लगता है। ध्यानयोगमें इस प्राणायामकी आवश्यकता होनेसे ही इसका उपर्युक्त पदोंमें उल्लेख किया गया है।यतेन्द्रियमनोबुद्धिः प्रत्येक मनुष्यमें एक तो इन्द्रियोंका ज्ञान रहता है और एक बुद्धिका ज्ञान। इन्द्रियाँ और बुद्धि दोनोंके बीचमें मनका निवास है। मनुष्यको देखना यह है कि उसके मनपर इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है या बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है अथवा आंशिकरूपसे दोनोंके ज्ञानका प्रभाव है। इन्द्रियोंके ज्ञानमें संयोग का प्रभाव पड़ता है और बुद्धिके ज्ञानमें परिणाम का। जिन मनुष्योंके मनपर केवल इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है वे संयोगजन्य सुखभोगमें ही लगे रहते हैं और जिनके मनपर बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है वे (परिणामकी ओर दृष्टि रहनेसे) सुखभोगका त्याग करनेमें समर्थ हो जाते हैं न तेषु रमते बुधः (गीता 5। 22)।प्रायः साधकोंके मनपर आंशिकरूपसे इन्द्रियों और बुद्धि दोनोंके ज्ञानका प्रभाव रहता है। उनके मनमें इन्द्रियों तथा बुद्धिके ज्ञानका द्वन्द्व चलता रहता है। इसलिये वे अपने विवेकको महत्त्व नहीं दे पाते और जो करना चाहते हैं उसे कर भी नहीं पाते। यह द्वन्द्व ही ध्यानमें बाधक है। अतः यहाँ मन बुद्धि तथा इन्द्रियोंको वशमें करनेका तात्पर्य है कि मनपर केवल बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव रह जाय इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव सर्वथा मिट जाय।मुनिर्मोक्षपरायणः परमात्मप्राप्ति करना ही जिनका लक्ष्य है ऐसे परमात्मस्वरूपका मनन करनेवाले साधकको यहाँ मोक्षपरायणः कहा गया है। परमात्मतत्त्व सब देश काल आदिमें परिपूर्ण होनेके कारण सदासर्वदा सबको प्राप्त ही है। परन्तु दृढ़ उद्देश्य न होनेके कारण ऐसे नित्यप्राप्त तत्त्वकी अनुभूतिमें देरी हो रही है। यदि एक दृढ़ उद्देश्य बन जाय तो तत्त्वकी अनुभूतिमें देरीका काम नहीं है। वास्तवमें उद्देश्य पहलेसे ही बनाबनाया है क्योंकि परमात्मप्राप्तिके लिये ही यह मनुष्यशरीर मिला है। केवल इस उद्देश्यको पहचानना है। जब साधक इस उद्देश्यको पहचान लेता है तब उसमें परमात्मप्राप्तिकी लालसा उत्पन्न हो जाती है। यह लालसा संसारकी सब कामनाओंको मिटाकर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव करा देती है। अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको पहचाननेके लिये ही यहाँ मोक्षपरायणः पदका प्रयोग हुआ है।कर्मयोग सांख्ययोग ध्यानयोग भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी आवश्यकता है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा तो साधनसे सिद्धि कैसे मिलेगी इसलिये यहाँ मोक्षपरायणः पदसे ध्यानयोगमें दृढ़ निश्चयकी आवश्यकता बतायी गयी है।विगतेच्छाभयक्रोधो यः अपनी इच्छाकी पूर्तिमें बाधा देनेवाले प्राणीको अपनेसे सबल माननेपर उससे भय होता है कि निर्बल माननेसे उसपर क्रोध आता है। ऐसे ही जीनेकी इच्छा रहनेपर मृत्युसे भय होता है और दूसरोंसे अपनी इच्छापूर्ति करवाने तथा दूसरोंपर अपना अधिकार जमानेकी इच्छासे क्रोध होता है। अतः भय और क्रोध होनेमें इच्छा ही मुख्य है। यदि मनुष्यमें इच्छापूर्तिका उद्देश्य न रहे प्रत्युत एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रह जाय तो भयक्रोधसहित इच्छाका सर्वथा अभाव हो जाता है। इच्छाका सर्वथा अभाव होनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। कारण कि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छासे ही मनुष्य जन्ममरणरूप बन्धनमें पड़ताहै। साधकको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि क्या वस्तुओंकी इच्छासे वस्तुएँ मिल जाती हैं और क्या जीनेकी इच्छासे मृत्युसे बच जाते हैं वास्तविकता तो यह है कि न तो वस्तुओंकी इच्छा पूरी कर सकते हैं और न मृत्युसे बच सकते हैं। इसलिये यदि साधकका यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमानमें ही मुक्त हो सकता है। परन्तु यदि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्युके भयसे भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोधसे भी छुटकारा नहीं होगा। इसलिये मुक्त होनेके लिये इच्छारहित होना आवश्यक है।यदि वस्तु मिलनेवाली है तो इच्छा किये बिना भी मिलेगी और यदि वस्तु नहीं मिलनेवाली है तो इच्छा करनेपर भी नहीं मिलेगी। अतः वस्तुका मिलना या न मिलना इच्छाके अधीन नहीं है प्रत्युत किसी विधानके अधीन है। जो वस्तु इच्छाके अधीन नहीं है उसकी इच्छाको छोड़नेमें क्या कठिनाई है यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते। परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है। यदि वस्तुओंकी इच्छा न रहे तो जीवन आनन्दमय हो जाता है और यदि जीनेकी इच्छा न रहे तो मृत्यु भी आनन्दमयी हो जाती है। जीवन तभी कष्टमय होता है जब वस्तुओंकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है जब जीनेकी इच्छा करते हैं। इसलिये जिसने वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है वह जीतेजी मुक्त हो जाता है अमर हो जाता है।सदा मुक्त एव सः उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही बन्धन है। इस माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग करना ही मुक्ति है। जो मुक्त हो गया है उसपर किसी भी घटना परिस्थिति निन्दास्तुति अनुकूलताप्रतिकूलता जीवनमरण आदिका किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता।सदा मुक्त एव पदोंका तात्पर्य है कि वास्तवमें साधक स्वरूपसे सदा मुक्त ही है। केवल उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण उसे अपने मुक्त स्वरूपका अनुभव नहीं हो रहा है। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही स्वतःसिद्ध मुक्तिका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध भगवान्ने योगनिष्ठा और सांख्यनिष्ठाका वर्णन करके दोनोंके लिये उपयोगी ध्यानयोगका वर्णन किया। अब सुगमतापूर्वक कल्याण करनेवाली भगवन्निष्ठाका वर्णन करते हैं।
भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 28
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।
हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 5.28)
।।5.27।।बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अपने वशमें हैं जो मोक्षपरायण है तथा जो इच्छा भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है वह मुनि सदा मुक्त ही है। हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद
।।5.28।। जिस पुरुष की इन्द्रियाँ मन और बुद्धि संयत हैं ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।।
हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी
5.28।। व्याख्या स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्धविच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है।
चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः यहाँ भ्रुवोः अन्तरे पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13) ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ नासिकासे बाहर निकलनेवाली वायुको प्राण और नासिकाके भीतर जानेवाली वायुको अपान कहते हैं।प्राणवायुकी गति दीर्घ और अपानवायुकी गति लघु होती है। इन दोनोंको सम करनेके लिये पहले बायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर दायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। फिर दायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर बायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। इन सब क्रियाओंमें बराबर समय लगना चाहिये। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहनेसे प्राण और अपानवायुकी गति सम शान्त और सूक्ष्म हो जाती है। जब नासिकाके बाहर और भीतर तथा कण्ठादि देशमें वायुके स्पर्शका ज्ञान न हो तब समझना चाहिये कि प्राणअपानकी गति सम हो गयी है। इन दोनोंकी गति सम होनेपर (लक्ष्य परमात्मा रहनेसे) मनसे स्वाभाविक ही परमात्माका चिन्तन होने लगता है। ध्यानयोगमें इस प्राणायामकी आवश्यकता होनेसे ही इसका उपर्युक्त पदोंमें उल्लेख किया गया है।यतेन्द्रियमनोबुद्धिः प्रत्येक मनुष्यमें एक तो इन्द्रियोंका ज्ञान रहता है और एक बुद्धिका ज्ञान। इन्द्रियाँ और बुद्धि दोनोंके बीचमें मनका निवास है। मनुष्यको देखना यह है कि उसके मनपर इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है या बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है अथवा आंशिकरूपसे दोनोंके ज्ञानका प्रभाव है। इन्द्रियोंके ज्ञानमें संयोग का प्रभाव पड़ता है और बुद्धिके ज्ञानमें परिणाम का। जिन मनुष्योंके मनपर केवल इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है वे संयोगजन्य सुखभोगमें ही लगे रहते हैं और जिनके मनपर बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है वे (परिणामकी ओर दृष्टि रहनेसे) सुखभोगका त्याग करनेमें समर्थ हो जाते हैं।
न तेषु रमते बुधः (गीता 5। 22)।प्रायः साधकोंके मनपर आंशिकरूपसे इन्द्रियों और बुद्धि दोनोंके ज्ञानका प्रभाव रहता है। उनके मनमें इन्द्रियों तथा बुद्धिके ज्ञानका द्वन्द्व चलता रहता है। इसलिये वे अपने विवेकको महत्त्व नहीं दे पाते और जो करना चाहते हैं उसे कर भी नहीं पाते। यह द्वन्द्व ही ध्यानमें बाधक है। अतः यहाँ मन बुद्धि तथा इन्द्रियोंको वशमें करनेका तात्पर्य है कि मनपर केवल बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव रह जाय इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव सर्वथा मिट जाय।
मुनिर्मोक्षपरायणः परमात्मप्राप्ति करना ही जिनका लक्ष्य है ऐसे परमात्मस्वरूपका मनन करनेवाले साधकको यहाँ मोक्षपरायणः कहा गया है। परमात्मतत्त्व सब देश काल आदिमें परिपूर्ण होनेके कारण सदासर्वदा सबको प्राप्त ही है। परन्तु दृढ़ उद्देश्य न होनेके कारण ऐसे नित्यप्राप्त तत्त्वकी अनुभूतिमें देरी हो रही है। यदि एक दृढ़ उद्देश्य बन जाय तो तत्त्वकी अनुभूतिमें देरीका काम नहीं है। वास्तवमें उद्देश्य पहलेसे ही बनाबनाया है क्योंकि परमात्मप्राप्तिके लिये ही यह मनुष्यशरीर मिला है। केवल इस उद्देश्यको पहचानना है। जब साधक इस उद्देश्यको पहचान लेता है तब उसमें परमात्मप्राप्तिकी लालसा उत्पन्न हो जाती है। यह लालसा संसारकी सब कामनाओंको मिटाकर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव करा देती है। अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको पहचाननेके लिये ही यहाँ मोक्षपरायणः पदका प्रयोग हुआ है।कर्मयोग सांख्ययोग ध्यानयोग भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी आवश्यकता है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा तो साधनसे सिद्धि कैसे मिलेगी इसलिये यहाँ मोक्षपरायणः पदसे ध्यानयोगमें दृढ़ निश्चयकी आवश्यकता बतायी गयी है।विगतेच्छाभयक्रोधो यः अपनी इच्छाकी पूर्तिमें बाधा देनेवाले प्राणीको अपनेसे सबल माननेपर उससे भय होता है कि निर्बल माननेसे उसपर क्रोध आता है। ऐसे ही जीनेकी इच्छा रहनेपर मृत्युसे भय होता है और दूसरोंसे अपनी इच्छापूर्ति करवाने तथा दूसरोंपर अपना अधिकार जमानेकी इच्छासे क्रोध होता है।
अतः भय और क्रोध होनेमें इच्छा ही मुख्य है। यदि मनुष्यमें इच्छापूर्तिका उद्देश्य न रहे प्रत्युत एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रह जाय तो भयक्रोधसहित इच्छाका सर्वथा अभाव हो जाता है। इच्छाका सर्वथा अभाव होनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। कारण कि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छासे ही मनुष्य जन्ममरणरूप बन्धनमें पड़ताहै। साधकको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि क्या वस्तुओंकी इच्छासे वस्तुएँ मिल जाती हैं और क्या जीनेकी इच्छासे मृत्युसे बच जाते हैं वास्तविकता तो यह है कि न तो वस्तुओंकी इच्छा पूरी कर सकते हैं और न मृत्युसे बच सकते हैं। इसलिये यदि साधकका यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमानमें ही मुक्त हो सकता है। परन्तु यदि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्युके भयसे भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोधसे भी छुटकारा नहीं होगा। इसलिये मुक्त होनेके लिये इच्छारहित होना आवश्यक है।यदि वस्तु मिलनेवाली है तो इच्छा किये बिना भी मिलेगी और यदि वस्तु नहीं मिलनेवाली है तो इच्छा करनेपर भी नहीं मिलेगी।
अतः वस्तुका मिलना या न मिलना इच्छाके अधीन नहीं है प्रत्युत किसी विधानके अधीन है। जो वस्तु इच्छाके अधीन नहीं है उसकी इच्छाको छोड़नेमें क्या कठिनाई है यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते। परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है। यदि वस्तुओंकी इच्छा न रहे तो जीवन आनन्दमय हो जाता है और यदि जीनेकी इच्छा न रहे तो मृत्यु भी आनन्दमयी हो जाती है। जीवन तभी कष्टमय होता है जब वस्तुओंकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है जब जीनेकी इच्छा करते हैं। इसलिये जिसने वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है वह जीतेजी मुक्त हो जाता है अमर हो जाता है।सदा मुक्त एव सः उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही बन्धन है। इस माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग करना ही मुक्ति है। जो मुक्त हो गया है उसपर किसी भी घटना परिस्थिति निन्दास्तुति अनुकूलता प्रतिकूलता जीवनमरण आदिका किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता।सदा मुक्त एव पदोंका तात्पर्य है कि वास्तवमें साधक स्वरूपसे सदा मुक्त ही है। केवल उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण उसे अपने मुक्त स्वरूपका अनुभव नहीं हो रहा है। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही स्वतःसिद्ध मुक्तिका अनुभव हो जाता है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
शक्तिपात बनाम क्रिया योग (संशोधित लेख)
शक्तिपात बनाम क्रिया योग (संशोधित लेख)
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
मो. 09969680093
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet
यदि योग को क्रमवार समझा जाये। तो सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी विधि* को करते करते " (तुम्हारी) आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो" तो समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग" हुआ।
अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदान्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है। यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा, यह अनुभूति देता है। जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है। कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही। मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान और अनुभव होना योग है।
अपने व्यक्तिगत अनुभवों, जो मैंनें ब्लाग पर समय समय पर लिखें हैं। विभिन्न दीक्षा विधियों का अध्ययन किया तो मुझे अपनी “शक्तिपात दीक्षा परम्परा” के अतिरिक्त महाअवतार बाबा के शिष्य लाहिडी महाशय द्वारा प्रणित “क्रिया योग” ही प्रमुख लगे। यद्यपि कलियुग में भक्ति योग ही सबसे आसान सस्ता सुंदर और टिकाऊ है किंतु इसमें समय अधिक लग सक्ता है। यदि पूर्व जन्म की साधनायें हों तो यह जल्दी भी घटित हो जाता है। अत: मात्र शक्तिपात और क्रिया योग पर ही चर्चा करूंगा।
उनके अनुसार मैंनें कुछ निष्कर्ष निकाले हैं।
1. शक्तिपात अंतिम दीक्षा है किंतु इसे सोच समझ कर ही प्रदान करना चाहिये। कारण यह साधक को आलसी बना सकती है। क्योकिं जिसके लिये आदमी युगों तक तमाम साधनायें करता है वह सहज ही फलित हो जाती हैं। क्योकिं इसमें गुरू अपने तप से संचित साधना संचित शक्ति से शिष्य की कुंडलनी ही जागृत कर देता है। जिसमें शिष्य को मात्र अपनी दीक्षा में लिये गये कम्बल आसन पर मात्र बैठना होता है बाकी काम गुरू शक्ति द्वारा जागृत कुंडलनी करती है। जो स्वत: क्रिया के माध्यम से पूर्व संचित संस्कारों को भीतर से निकाल कर क्रिया के माध्यम से बाहर फेंकती है। यानि पातांजलि के दिवतीय सूत्र “चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त में वृत्ति का निरोध करने की दिशा में कदम बढाती है।
आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें।
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।
व
षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।
व
ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।
बात सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत: क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत: निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।
2. वहीं क्रिया योग में शिष्य को स्वयं परिश्रम करके कई अवस्थाओं से गुजरना होता है। लाहिडी महाशय ने चार चर्ण बना दिये। मार्शल गोवोंदन ने तीन सोपान बना दिये। वास्तव में यह पूरा का पूरा पातांजलि का अष्टांग योग से भरा है जिसमें प्राणायाम और आसनों की भरमार रहती है। कोई एक ही इन सभी चरणों को पार कर पाता है।
आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ। उनके वंशज शिवेंदू लाहिडी भी क्रिया योग के शिक्षक हैं।
नवीनतम इतिहास में हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में महावतार बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी। 1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा। 1988 में मार्शल गोविन्दन लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें। एम. गोविंदन सत्चिदानन्द को सन् 2014 में सम्मानित "पतंजलि पुरस्कार" दिया गया है।
3. क्रिया योग दीक्षा में शरीर को युवा और पूर्ण रुपेण स्वस्थ्य होना चाहिये। शक्तिपात में यह बंधन नहीं है।
4. शक्तिपात दीक्षा में शिष्य सीधे सीधे क्रिया योग के तीसरे चरण (लाहिडी महाशय) या एम. गोविंदन के दूसरे सोपान में सीधे ही पहुंच जाता है। लाहिडी महाराज ने चार चरण अर्चना, जप, ध्यान और प्राणायाम बताये हैं। वहीं मार्शल जी ने छह बतायें हैं।
वैसे मैंनें यह जाना कि मैं शक्तिपात दीक्षा के पहले मंत्र जप करता था तो क्रिया योग के चरण भी करता था। मतलब प्राणायाम के साथ मंत्र जप करता हुआ ध्यान लगाता था। उसी का परिणाम हुआ कि मुझे देव दर्शन के साथ मां काली द्वारा दीक्षा अनुभुति हुई और मुझे शक्तिपात दीक्षा में वर्णित भयंकर क्रियायें आरम्भ हुई किंतु मेरा पापी शरीर उसको सम्भाल न सका और मैं मरणासन्न स्थित में गुरू के लिये भटकता हुआ मां की कृपा से स्वप्न और ध्यान के माध्यम से अपनी शक्तिपात परम्परा में पहुंचा जहां मुझे सम्भाला गया।
इससे यह स्पष्ट होता है कि क्रिया योग को शक्तिपात ही नियंत्रित कर सकता है। मतलब साफ है कि शक्तिपात परम्परा ही सर्वश्रेष्ठ और अंतिम है। क्रिया योग का शिष्य भी क्रिया करते करते स्वत: क्रिया योग यानि शक्तिपात में पहुंचता है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
Thursday, August 22, 2019
क्या, कब और कैसे है जन्माष्टमी 2019
क्या, कब और कैसे है जन्माष्टमी 2019
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
हर साल भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि पर भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस साल भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कब मनाई जाए, व्रत कब किया जाए, इसे लेकर पंचांग भेद हैं। कुछ पंचांग में 23 अगस्त को और कुछ में 24 अगस्त को जन्माष्टमी की तिथि बताई गई है। उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में हुआ था और 23 अगस्त को ये दोनों योग रहेंगे। जबकि श्रीकृष्ण की जन्म स्थली मथुरा में 24 अगस्त को जन्माष्टमी मनाई जाएगी।
स्मार्त संप्रदाय के मंदिरों में, साधु-संन्यासी, शैव संप्रदाय शुक्रवार यानी 23 अगस्त को, जबकि वैष्णव संप्रदाय के मंदिरों में शनिवार यानी 24 अगस्त को जन्माष्टमी मनाई जाएगी। स्मार्त संप्रदाय यानी जो लोग पंचदेवों की पूजा करते हैं। शैव संप्रदाय वाले शिवजी को प्रमुख मानते हैं। विष्णु के उपासक या विष्णु के अवतारों को मानने वाले वैष्णव कहलाते हैं। जन्माष्टमी को लेकर पंचांग भेद है, क्योंकि 23 अगस्त को उदया तिथि में रोहिणी नक्षत्र नहीं रहेगा, 24 अगस्त को अष्टमी तिथि नहीं है। श्रीकृष्ण का जन्म इन्हीं दोनों योग में हुआ था।
23 अगस्त को जन्माष्टमी मनाने के तर्क
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के योग में हुआ था। शुक्रवार, 23 अगस्त को अष्टमी तिथि रहेगी और इसी तारीख की रात में 11.56 बजे से रोहिणी नक्षत्र शुरू हो जाएगा, इस वजह से 23 अगस्त की रात जन्माष्टमी मनाना ज्यादा शुभ रहेगा। भक्तों को 23 अगस्त को ही श्रीकृष्ण के लिए व्रत-उपवास और पूजा-पाठ करना चाहिए। अष्टमी तिथि 24 अगस्त को सूर्योदय काल में रहेगी, लेकिन दिन में तिथि बदल जाएगी। ये दिन अष्टमी-नवमी तिथि से युक्त रहेगा। इसलिए 24 अगस्त को जन्माष्टमी मनाना उचित नहीं होगा।
उज्जैन के गोपाल मंदिर में 23 अगस्त की रात मनेगा श्रीकृष्ण जन्मोत्सव
उज्जैन के प्राचीन गोपाल मंदिर में जन्माष्टमी पर्व 23 अगस्त की रात 12 बजे मनाया जाएगा। पुजारी अर्पित जोशी के अनुसार 24 अगस्त को नंद उत्सव मनेगा। पूरे दिन भजन-कीर्तन और अन्य कार्यक्रम होंगे।
मथुरा में 24 अगस्त को मनाई जाएगी जन्माष्टमी
श्रीकृष्ण की जन्म स्थली मथुरा में इस साल 24 अगस्त को जन्माष्टमी मनाई जाएगी। 24 तारीख को ही यहां के सभी मंदिरों में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनेगा। इस संबंध में मथुरा के ज्योतिषियों का मानना है कि 24 अगस्त को सूर्योदय के समय अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र का संयोग रहेगा। इस वजह से 24 अगस्त को जन्माष्टमी मनाना शुभ रहेगा।
जन्माष्टमी पर क्या करें
व्रत-पूजन कैसे करें
1. उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें।
2. उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएंं।
3. पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें।
4. इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें-
ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥
5. अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें।
6. तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
7. मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो।
8. इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें।
पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः लेना चाहिए।
9. फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें-
'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।'
10. अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रतजगा करें।
नहीं तो इस दिन सुबह जल्दी उठें और स्नान के बाद में श्रीकृष्ण के मंदिर जाएं और मोर पंख चढ़ाएं। भगवान श्रीकृष्ण को पीले वस्त्र चढ़ाएं। मंत्र कृं कृष्णाय नम: का जाप 108 बार करें। दक्षिणावर्ती शंख से लड्डू गोपाल का अभिषेक करें। गौमाता की सेवा करें। किसी गौशाला में धन का और हरी घास का दान करें।
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लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Monday, August 19, 2019
राम नाम की प्यास
राम नाम की प्यास
विपुल लखनवी। नवी मुंबई।
9969680093
कुछ समय न तेरे पास।
तुझे न राम नाम की प्यास।।
बहुत पछतायेगा।
अंत जब आयेगा॥
तू कितना मचा ले शोर।
हुई न तेरी अभी भोर।।
बहुत पछतायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
तू क्या है यह न जाने।
न अपने को ही पहिचाने॥
हाथ क्या पायेगा।
अंत जब आयेगा॥
तुझे न मॉनव रूप ज्ञान।
मिथ्य माया का अभिमान।।
व्यर्थ रह जायेगा॥
अंत जब आयेगा॥
कर डाली इकठ्ठा भीड़।
सोंच ये कभी न होंगे क्षीण।।
कुछ न कर पायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
बस पकड़ राम नाम डोर।
मिले तुझे वहीं चितचोर।।
ज्ञान दे जायेगा॥
अंत जब आयेगा॥
गई देख जवानी बीत।
बुढापा न सकते हो जीत।।
मौत संग जायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
अब तो सम्भल तू आज।
प्रभु को करे समर्पित काज।।
सत्य सुख पायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
है दास विपुल यह बात।
सोंच न गलत तुझे आघात।।
चला यूं जायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
कर माँ जगदम्बिके ध्यान।
गुरूवर धरे यदि सम्मान।।
वो ही तर जायेगा॥
अंत जब आयेगा॥
कर शिवओम नित्यबोध।
जस हो बालक एक अबोध।।
मारग बतलायेगा॥
अंत जब आयेगा॥
लिखे दास विपुल सम्वाद।
पकड ले चरण गुरू के आज॥
समझ कुछ पायेगा।।
अंत जब आयेगा॥
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कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
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कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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