प्रसाद - पेठा, मालपुआ, दूध पाक, का भोग लगाएं। इसके
बाद प्रसाद को किसी ब्राह्मण को दान कर दें और खुद भी खाएं।
5.
स्कंदमाता
देवी स्कंदमाता वात्सल्य की
मूर्ति है। पौराणिक कथा के अनुसार जब इंद्र कार्तिकेय को परेशान कर रहे
थे, तब मां ने उग्र रूप
धारण कर लिया। चार भुजा और शेर पर सवार मां
प्रकट हुई। मां ने कार्तिकेय को गोद में उठा लिया। इसके बाद इंद्र आदि देवताओं
ने मां की स्कंदमाता के रूप में आराधना की। माता के इस रूप की पूजा करने
वालों को किसी तरह की हानि कोई भी व्यक्ति नहीं पहुंचा सकता। इस दिन
कार्तिकेय की पूजा का भी विधान है।
नवरात्रि में पांचवें दिन स्कंदमाता की पूजा-अर्चना की जाती है। शास्त्र बताते
हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय
की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से भी जाना जाता है।
देवी स्कन्दमाता की तीन आंखें और चार भुजाएं हैं। स्कंदमाता अपने
दो
हाथों में कमल का फूल धारण
करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं
जबकि मां का चौथा हाथ भक्तों को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे होता है। ऐसा कहा जाता है कि
मां
स्कंदमाता की पूजा करने से, मूर्ख व्यक्ति भी ज्ञानी या बुद्धिमान बन सकता है। स्कंदमाता की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी
होती हैं। कामकाज की रुकावटें भी खत्म होती हैं। स्कंदमाता की आराधना से संतान सुख
मिलता है।
नवरात्रि के पांचवें दिन
लाल चुनरी,
पांच तरह के फल, सुहाग का सामान और गेहूं या चावल से मां की गोद भरनी चाहिए। इससे मां खुश
होती हैं और भक्तों को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान
रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। स्कंदमाता
जी प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे।
पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति
कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है।
इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के
कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
कैसे करें पूजा -
सबसे
पहले चौकी (बाजोट) पर स्कंदमाता की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित
करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से
शुद्धिकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर कलश रखें।
उसी चौकी पर श्रीगणेश, वरुण, नवग्रह, षोडश मातृका (16 देवी), सप्त घृत मातृका (सात
सिंदूर की बिंदी लगाएं) की स्थापना भी
करें। देवि स्कंदमाता की पूजा
में लाल फूल,
लाल वस्त्र, घी का दीपक और अन्य सुगंधित और सौभाग्य सामग्री होनी चाहिए। माता की पूजा
से पहले स्कंद कुमार यानी कार्तिकेय जी की पूजा करनी चाहिए। फिर देवि स्कंदमाता को
पंचामृत और
गंगाजल से स्नान करवाएं।
इसके बाद सुगंधित चीजें और सौभाग्य सामग्रियों से माता की पूजा करें। चंदन, कुमकुम, लाल फूल और हल्दी, मेहंदी माता को चढ़ाएं। इसके बाद फल और मिठाई का नैवेद्य लगाएं। फिर आरती करें और
प्रसाद
बांट दें।
इसके
बाद व्रत, पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों
द्वारा स्कंदमाता सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार
पूजा करें। इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण
कर पूजन संपन्न करें।
मंत्र :
सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
या देवी सर्वभूतेषु मां स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
ध्यान: वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्॥
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्। अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्। मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्। कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ: नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्। समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्। ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्। सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्। मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्। सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥
स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्। अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्। जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥
ॐ ह्रीं सः स्कंदमात्रैय नमः , इस मंत्र का 108 बार जाप करें।
प्रसाद - केसर, पिश्ता, ड्रायफ्रूट्स और खीर
6.
माँ कात्यायनी : नवदुर्गा के छठवें स्वरूप में माँ
कात्यायनी की पूजा की जाती है. माँ कात्यायनी का जन्म कात्यायन ऋषि के घर हुआ था अतः इनको कात्यायनी कहा जाता है.
इनकी चार भुजाओं मैं अस्त्र शस्त्र और कमल का पुष्प है , इनका
वाहन सिंह है. ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं, गोपियों
ने कृष्ण की प्राप्ति के लिए इनकी पूजा की थी. विवाह सम्बन्धी मामलों के लिए इनकी पूजा अचूक
होती है , योग्य और मनचाहा पति इनकी कृपा से प्राप्त होता है। ज्योतिष में
बृहस्पति का सम्बन्ध इनसे माना जाना चाहिए।
सर्वप्रथम कलश और उसमें उपस्थित देवी
देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें। इनकी पूजा के पश्चात देवी कात्यायनी
जी की पूजा कि जाती है। पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर
देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान किया जाता है। देवी की पूजा के पश्चात
महादेव और परम पिता की पूजा करनी चाहिए। श्री हरि
की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए। मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त
दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह
अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं। इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका
एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में
तलवार तथा कमल का फूल है।
माता कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र
जाग्रति की सिद्धियां साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं। वह इस लोक
में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है तथा उसके रोग, शोक, संताप, भय
आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।
इनके
नाम से जुड़ी कथा है कि एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ऋषि थे। उनके
पुत्र ऋषि कात्य हुए,
उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र
से, विश्वप्रसिद्ध ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुए। उन्होंने
भगवती पराम्बरा की उपासना करते हुए कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि
भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। माता ने उनकी यह
प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ समय के पश्चात जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार
बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा,
विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और
प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न
किया था। महर्षि कात्यायन ने इनकी पूजा
की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी
कहलायीं। अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म
लेने के बाद शुक्ल सप्तमी,
अष्टमी और नवमी,
तीन दिनों तक कात्यायन ऋषि ने
इनकी पूजा की,
पूजा ग्रहण कर दशमी को इस देवी ने
महिषासुर का वध किया। इन का स्वरूप अत्यन्त ही दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के
समान चमकीला है। इनकी चार भुजायें हैं,
इनका दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में
है, नीचे का हाथ
वरदमुद्रा में है। बांये ऊपर वाले हाथ
में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है और इनका वाहन सिंह है। आज के दिन साधक का मन
आज्ञाचक्र में स्थित होता है। योगसाधना में आज्ञाचक्र का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। इस चक्र में स्थित साधक कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व
अर्पित कर देता है। पूर्ण आत्मदान करने से साधक को सहजरूप से माँ के दर्शन हो
जाते हैं। माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ,
कर्म,
काम,
मोक्ष की प्राप्ति हो
जाती है।
इनकी
पूजा
से
निम्न मनोकामना
पूरी
होती
है?
- कन्याओं के शीघ्र विवाह के लिए इनकी पूजा अद्भुत मानी जाती है
- मनचाहे विवाह और प्रेम विवाह के लिए भी इनकी उपासना की जाती है
- वैवाहिक जीवन के लिए भी इनकी पूजा फलदायी होती है
- अगर कुंडली में विवाह के योग क्षीण हों तो भी विवाह हो जाता है।
माता
का
सम्बन्ध
किस
ग्रह
और
देवी-देवता
से
है?
- महिलाओं के विवाह से सम्बन्ध होने के कारण इनका भी सम्बन्ध बृहस्पति से है
- दाम्पत्य जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इनका आंशिक सम्बन्ध शुक्र से भी है
- शुक्र और बृहस्पति , दोनों दैवीय और तेजस्वी ग्रह हैं , इसलिए माता का तेज भी अद्भुत और सम्पूर्ण है
- माता का सम्बन्ध कृष्ण और उनकी गोपिकाओं से रहा है , और ये ब्रज मंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं।
कैसे
करें
माँ
कात्यायनी
की
सामान्य
पूजा?
- गोधूली वेला के समय पीले अथवा लाल वस्त्र धारण करके इनकी पूजा करनी चाहिए.
- इनको पीले फूल और पीला नैवेद्य अर्पित करें . इनको
शहद अर्पित करना विशेष शुभ होता है
- माँ को सुगन्धित पुष्प अर्पित करने से शीघ्र विवाह के योग बनेंगे साथ ही प्रेम सम्बन्धी बाधाएँ भी दूर होंगी.
- इसके बाद माँ के समक्ष उनके मन्त्रों का जाप करें।
शीघ्र विवाह के लिए कैसे करें माँ कात्यायनी की पूजा?
- गोधूलि वेला में पीले वस्त्र धारण करें
- माँ के समक्ष दीपक जलायें और उन्हें पीले फूल अर्पित करें
- इसके बाद 3 गाँठ हल्दी की भी चढ़ाएं
- माँ कात्यायनी के मन्त्रों का जाप करें
- मन्त्र होगा:
"कात्यायनी महामाये , महायोगिन्यधीश्वरी।
नन्दगोपसुतं देवी, पति मे कुरु ते नमः।।"
- हल्दी की गांठों को अपने पास सुरक्षित रख लें ।
माँ कात्यायनी की उपासना से बढ़ेगा तेज?
-
माँ कात्यायनी को शहद अर्पित करें
- अगर ये शहद चांदी के या मिटटी के पात्र में अर्पित किया जाय तो ज्यादा उत्तम होगा
- इससे आपका प्रभाव बढेगा और आकर्षण क्षमता में वृद्धि होगी
ध्यान: वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्। वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्। मंजीर,
हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्। कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥
स्तोत्र पाठ: कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां। सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति,
परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
7.
मां कालरात्रि: दुर्गा
जी का सातवां स्वरूप मां कालरात्रि है. इनका रंग काला होने के कारण ही इन्हें कालरात्रि
कहा गया और असुरों के राजा रक्तबीज का वध करने के लिए देवी दुर्गा ने अपने
तेज से इन्हें उत्पन्न किया था. इनकी पूजा शुभ फलदायी होने के कारण इन्हें 'शुभंकारी' भी कहते
हैं.
असुरों
को वध करने के लिए दुर्गा मां बनी कालरात्रि। देवी कालरात्रि का शरीर रात के अंधकार की तरह काला है
इनके बाल बिखरे हुए हैं और इनके गले में विधुत की माला है. इनके चार हाथ
हैं जिसमें इन्होंने एक हाथ में कटार और एक हाथ में लोहे का कांटा धारण
किया हुआ है. इसके अलावा इनके दो हाथ वरमुद्रा और अभय मुद्रा में है. इनके तीन
नेत्र है तथा इनके श्वास से अग्नि निकलती है. कालरात्रि का वाहन
गर्दभ(गधा) है.
कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और
रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था. इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के
पास गए. शिव जी ने देवी पार्वती से
राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा.
शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने
दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ
का वध कर दिया. परंतु
जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा
उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए. इसे देख
दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया.
इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को
मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका
गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया.
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत
भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की
आवश्यकता नहीं है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग
जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को
भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो
जाता है। माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को
अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए।
नवग्रह,
दशदिक्पाल,
देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता
की पूजा करनी चाहिए, फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए। दुर्गा पूजा
में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है। इस दिन से भक्त
जनों के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी
के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं। सर्वप्रथम कलश और उसमें
उपस्थित देवी देवता की पूजा करें, इसके पश्चात
माता कालरात्रि जी की पूजा कि जाती है।
पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का
ध्यान किया जाता है। सप्तमी की पूजा अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में
विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है। इस दिन कहीं कहीं
तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है। सप्तमी
की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है।
सप्तमी
तिथि के दिन भगवती की पूजा में गुड़ का नैवेद्य अर्पित करके ब्राह्मण को दे देना चाहिए. ऐसा करने से पुरुष शोकमुक्त हो
सकता है. नवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना इस
मंत्र से करनी चाहिए:
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता,
लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
माँ कालरात्रि
- नवरात्र का सातवाँ दिन माँ दुर्गा के कालरात्रि स्वरूप की पूजा विधि
ध्यान: करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्। कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्। भयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा। घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्। एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥
स्तोत्र पाठ: हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती। कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी। कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी। कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥
8. मां महागौरी: नवरात्रि के आठवें दिन
मां महागौरी की पूजा
का विधान है. भगवान शिव की प्राप्ति के
लिए इन्होंने कठोर पूजा की थी, जिससे इनका शरीर काला पड़ गया था. जब भगवान शिव ने
इनको दर्शन दिया, तब उनकी
कृपा से इनका शरीर अत्यंत गौर हो गया
और इनका नाम गौरी हो गया. माना जाता है कि माता सीता ने श्री राम की प्राप्ति के
लिए इन्हीं की पूजा की थी. मां गौरी श्वेत वर्ण की हैं और श्वेत रंग
में इनका ध्यान करना अत्यंत लाभकारी होता है. नवरात्रि की अष्टमी तिथि को
आठ वर्ष की कन्या की पूजा करें. उसके चरण
धुलाकर भोजन करवाएं. फिर उपहार देकर
आशीर्वाद लें. आपकी गौरी पूजा संपन्न
होगी.
विवाह सम्बन्धी तमाम बाधाओं के निवारण मैं इनकी पूजा अचूक होती है.
ज्योतिष में इनका सम्बन्ध शुक्र नामक
ग्रह से माना जाता है.
ऐसे
करें पूजा: पीले
वस्त्र धारण करके पूजा आरम्भ करें. मां के समक्ष दीपक जलाएं और उनका ध्यान करें.
पूजा
में मां को श्वेत या पीले फूल अर्पित करें. उसके बाद इनके मन्त्रों का जाप करें. अगर
पूजा मध्य रात्रि में की जाय तो इसके परिणाम ज्यादा शुभ होंगे.
मां की उपासना सफेद वस्त्र धारण करके करें. मां को
सफेद फूल और सफेद मिठाई अर्पित करें.
साथ में मां को इत्र भी अर्पित करें.
पहले
मां के मंत्र का जाप करें. फिर शुक्र के मूल मंत्र "ॐ शुं शुक्राय नमः"
का जाप करें.
मां को अर्पित किया हुआ इत्र अपने पास रख लें और उसका
प्रयोग करते रहें. अष्टमी तिथि के दिन कन्याओं
को भोजन कराने की परंपरा है, इसका महत्व और नियम क्या है. नवरात्रि
केवल व्रत और उपवास का पर्व नहीं है. यह नारी शक्ति के और कन्याओं के सम्मान का भी
पर्व है. इसलिए नवरात्रि में कुंवारी
कन्याओं को पूजने और भोजन कराने की परंपरा भी है.
हालांकि नवरात्रि में हर दिन कन्याओं के
पूजा की परंपरा है, पर अष्टमी और नवमी को अवश्य ही पूजा की जाती है. अष्टमी
के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ माना जाता है। कन्याओं की संख्या 9 होनी
चाहिए नहीं तो 2 कन्याओं की पूजा करें। कन्याओं की आयु 2 साल
से ऊपर और 10 साल से अधिक न हो। भोजन कराने के बाद कन्याओं को दक्षिणा देनी चाहिए।
ध्यान: वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्। वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्। कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥
स्तोत्र पाठ: सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्। ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्। डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्। वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥
2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक की कन्या की पूजा का विधान किया गया है. अलग-अलग उम्र की कन्या देवी के अलग अलग रूप को बताती
है.
अगर
जरूरत के समय धन नहीं रहता तो करें ये उपाय: मां गौरी
को दूध की कटोरी में रखकर चांदी का
सिक्का अर्पित करें. इसके बाद मां गौरी से धन के बने रहने की प्रार्थना
करें. सिक्के को धोकर सदैव के लिए अपने पास रख लें।
भगवान
शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे
इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें
स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर
को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान
गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में
देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की
प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये,
शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये
त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते।।”
महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती
हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी
के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी
जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर
बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी।
इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।
अष्टमी
के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती
हैं। सबसे पहले लकड़ी की चौकी पर या
मंदिर में महागौरी की मूर्ति या तस्वीर
स्थापित करें। इसके बाद चौकी पर सफेद
वस्त्र बिछाकर उस पर महागौरी यंत्र रखें और यंत्र की स्थापना करें। मां सौंदर्य प्रदान
करने वाली हैं। हाथ में श्वेत पुष्प लेकर मां का ध्यान करें।
9.
मां सिद्धिदात्री: नवरात्रि
के नौवें दिन मां दुर्गा के सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा होती
है. इनकी पूजा और उपासना करने से समस्त
मनोकामनाएं पूरी होती हैं और व्यक्ति को हर क्षेत्र में सफलता मिलती है. नवमी के दिन अगर इन्हीं देवी की पूजा कर ली जाए तो व्यक्ति
को सभी देवियों की पूजा का फल मिल सकता है.
इस दिन कमल के पुष्प पर बैठी हुई देवी सिद्दिदात्री
का ध्यान करना चाहिए और विभिन्न प्रकार के सुगंधित पुष्प उनको अर्पित करने
चाहिए. साथ ही इस दिन देवी को शहद अर्पित करना चाहिए और
"ॐ सिद्धिदात्री देव्यै नमः"
का जाप करना चाहिए.
इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः
फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के
सभी पाप धुल जाते हैं और पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप,
दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं
जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और
अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
इस
दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी
सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता
है। ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य
उसमें आ जाती है। देवी सिद्धिदात्री का वाहन सिंह है। वह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां
प्राप्त होती हैं। यह अंतिम देवी हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की
कामनाओं की पूर्ति हो जाती है।
भगवान शिव ने भी सिद्धिदात्री देवी की कृपा से तमाम
सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी
का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से
प्रसिद्ध हुए। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना
करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता
का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर
ले जाते हैं।
देवी पुराण में ऐसा उल्लेख मिलता है कि
भगवान शंकर ने भी इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। ये कमल पर आसीन हैं और केवल मानव ही नहीं
बल्कि सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, देवता और असुर सभी इनकी आराधना करते हैं। संसार
में सभी वस्तुओं को सहज और सुलभता से प्राप्त करने के लिए नवरात्र
के नवें दिन इनकी पूजा की जाती है। इनका स्वरुप मां सरस्वती का भी स्वरुप
माना जाता है।
दुर्गा
पूजा में इस तिथि को विशेष हवन किया जाता है। यह नौ दुर्गा का
आखरी दिन भी होता है तो इस दिन माता
सिद्धिदात्री के बाद अन्य देवताओं की
भी पूजा की जाती है। सर्वप्रथम माता जी की चौकी पर सिद्धिदात्री माँ की
तस्वीर या मूर्ति रख इनकी आरती और हवन
किया जाता है। हवन करते वक्त सभी
देवी दवताओं के नाम से हवि यानी अहुति
देनी चाहिए। बाद में माता के नाम से
अहुति देनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोक मंत्र रूप हैं अत:सप्तशती के सभी श्लोक के साथ आहुति दी जा सकती है। भगवान शंकर और ब्रह्मा जी की पूजा पश्चात
अंत में इनके नाम से हवि देकर आरती
करनी चाहिए। हवन में जो भी प्रसाद
चढ़ाया है जाता है उसे समस्त लोगों में बांटना चाहिए।
ऐसे
करें की
पूजा: - मां के समक्ष दीपक जलाएं. मां को नौ कमल के या लाल फूल अर्पित करें.
इसके बाद मां को नौ तरह के खाद्य पदार्थ भी अर्पित
करें. अर्पित किए हुए फूल को लाल वस्त्र में लपेट कर रखें. पहले निर्धनों को भोजन कराएं. इसके बाद स्वयं भोजन करें.
मां सिद्धिदात्री के अंदर सभी
देवियां समाहित हैं. अगर नवरात्रि में केवल इन्हीं की पूजा कर
ली जाए तो सम्पूर्ण नवरात्रि का फल मिल जाता है. इनकी पूजा से अपार वैभव की
प्राप्ति होती है. साथ ही इनकी उपासना से
व्यक्ति को समस्त सिद्धियां भी मिल जाती हैं. मां के इस स्वरूप की उपासना
करने से व्यक्ति ग्रहों के दुष्प्रभाव से बच जाता है.
नवमी के दिन नवरात्रि की पूर्णता के लिए हवन भी किया
जाता है. नवमी के दिन पहले पूजा करें,
फिर हवन करें.
हवन सामग्री में 1 भाग जौ, आधा भाग चावल, चौथा
भाग काला
तिल मिलाएं.
इसके बाद
कन्या
पूजन करें.
कन्या पूजन के बाद सम्पूर्ण भोजन का दान करें.
आर्थिक
लाभ के लिए- मखाने और खीर से हवन करें.
कर्ज मुक्ति के लिए-
राई से हवन करें.
संतान सम्बन्धी समस्याओं के लिए-
माखन मिसरी से हवन करें.
ग्रह शान्ति के लिए-
काले तिल से हवन करें.
सर्वकल्याण के लिए-
काले तिल और जौ से हवन करें.
ध्यान: वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्। कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्। शख,
चक्र, गदा, पदम,
धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। मंजीर,
हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्। कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ: कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो। स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता। नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता। विश्व वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी। भव सागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी। मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
देवी के बीज मंत्र “ऊँ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नम:” से कम से कम 108 बार हवि दें।