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Sunday, August 4, 2019

ईसाईयत में छूआछूत और जाति भेद चरम पर

ईसाईयत में छूआछूत और  जाति भेद  चरम पर


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"



मध्यकाल में जो भी भारतीय लालची डरपोक या कायर थे वे इस्लाम और ईसाइयत  स्वीकार कर  रहे थे। 

बाद में दलित छुआछूत के कारण हिंदू धर्म को त्याग कर और कुछ लालच के साथ बेहतर जिंदगी  के लिये ईसाइयत में चले गये अथवा इसके अतिरिक्त भय के कारण इस्लाम में चले गये। लेकिन प्रसिद्ध महापुरूष डा भीमराव अम्बेडकर ने इनको न चुना बल्कि भारतीय सनातन की एक शाखा बौद्ध को चुना। आखिर क्यों ???  क्योकिं वे विद्वान होने के साथ देश भक्त और दूरदर्शी थे।  किंतु दु:खद यह है कि उन्ही को माननेवाले मात्र उनके नाम पर फायदा लेना चाहते है। किंतु उनका अनुकरण कर उनकी बातों को बिल्कुल नहीं मानते। वे जानते थे  एक मात्र बौद्ध अनुयायियों में छूआछूत लगभग नगण्य है बाकी सभी धर्मों में यह एक विकराल समस्या है। वे जानते थे ऊंच नीच का दंश उनको हर धर्म में झेलना पडेगा।


जब आप “जाति प्रथा” का नाम सुनते हैं, तब आपके मन में क्या आता है? शायद आप भारत और ऐसे लाखों लोगों के बारे में सोचते हैं जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हैं। हालाँकि जाति प्रथा हिंदू धर्म का भाग है, फिर भी निम्न जातियों और अजातियों पर इसके जो प्रभाव हुए हैं उनको दूर करने के लिए हिंदू सुधारकों ने संघर्ष किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, आप क्या कहेंगे यदि आप सुनें कि मसीही होने का दावा करनेवाले गिरजों में भी जाति प्रथा प्रचलित है?

लोगों का सामाजिक वर्गों में विभाजन, जिसमें कुछ लोग अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं, ऐसा नहीं कि सिर्फ भारत में हो। सभी महाद्वीपों पर एक-न-एक रूप में वर्ग भेद हुआ है। भारत की जाति प्रथा इसलिए भिन्‍न है कि ३,००० साल से पहले, यहाँ सामाजिक दमन की एक प्रक्रिया धर्म का भाग बन गयी।


हालाँकि जाति प्रथा के आरंभ के बारे में निश्‍चित रूप से नहीं कहा जा सकता, फिर भी कुछ विद्वान कहते हैं कि इसकी जड़ें सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यता में हैं जो आज के पाकिस्तान में स्थित थी। पुरातत्त्व-विज्ञान संकेत देता है कि वहाँ के आरंभिक निवासियों को बाद में उत्तर-पश्‍चिम की जनजातियों ने जीत लिया था, और सामान्य रूप से इसे “आर्य आगमन” कहा जाता है। अपनी पुस्तक द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जवाहरलाल नेहरु इसे “पहला बड़ा सांस्कृतिक संमिश्रण और समेकन” कहता है, जिसमें से “भारतीय जातियों और मूल भारतीय संस्कृति” का जन्म हुआ। लेकिन, इस समेकन से जातीय समानता परिणित नहीं हुई।


दी न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “भारतीयों के अनुसार अंतर्विवाह के कारण (जो धर्म के बारे में हिंदू रचनाओं में वर्जित है), चार वर्गों या वर्णों के पुनःविभाजन से जातियों (अक्षरशः ‘जन्म’) का फैलाव हुआ है। लेकिन, आधुनिक सिद्धांतवादी अकसर यह अनुमान लगाते हैं कि जातियाँ पारिवारिक रीति-रिवाज़ों, जातीय भिन्‍नताओं, और पेशा-संबंधी भिन्‍नताओं तथा विशेषताओं के कारण बनीं। अनेक आधुनिक विद्वान इस पर भी संदेह करते हैं कि सरल वर्ण प्रथा कभी एक सैद्धांतिक सामाजिक-धार्मिक आदर्श से अधिक थी या नहीं, और उन्होंने इस पर ज़ोर दिया है कि लगभग ३,००० जातियों और उपजातियों में हिंदू समाज का अति जटिल विभाजन संभवतः प्राचीन समय में भी था।”


कुछ समय तक जातियों के बीच अंतर्विवाह होते थे, और त्वचा के रंग पर आधारित पुरानी पूर्वधारणाएँ कम हो गयीं। जाति को नियंत्रित करनेवाले सख्त नियम बाद में विकसित हुए। वे वैदिक शास्त्रों और हिंदू ऋषि, मनु की संहिता (या नियमावली) में बताये गये। ब्राह्मणों ने निजी स्वार्थ हेतु सिखाया कि उच्च जातियाँ उस शुद्धता के साथ जन्मी हैं जो उन्हें निम्न जातियों से अलग करती है। उन्होंने शूद्र, या निम्नतम जाति के लोगों में यह विश्‍वास बिठा दिया कि उनका छोटा काम उनके पिछले जन्म के बुरे कामों का परमेश्‍वर-नियुक्‍त दंड है और जाति बंधन को तोड़ने का कोई भी प्रयास उन्हें अजाति बना देगा। अंतर्विवाह, अंतर्भोज, एक ही जगह से पानी भरना, या उसी मंदिर में प्रवेश करना जिसमें शूद्र जाता है उच्च जाति के व्यक्‍ति को अजाति बना सकता है।


जबकि वेद, उपनिषद, षट्दर्शन या शास्त्र कहीं भी जाति भेद की बात नहीं करते। यह मात्र कुछ स्वार्थी और विरोधी लोगों के मन की ही उपज है। 

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freedhyan.blogspot.com

पर प्राणामिकता के साथ कई लेख देख सकते हैं।


वर्ष १९४७ में स्वतंत्रता पाने के बाद, भारत की धर्म-निरपेक्ष सरकार ने एक संविधान बनाया जिसमें जाति भेद को दंडनीय अपराध बनाया गया। यह स्वीकार करते हुए कि सदियों से निम्न-जाति हिंदुओं का दमन हुआ है, सरकार ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी और निर्वाचित पदों साथ ही शैक्षिक संस्थानों में सीटों के आरक्षण का कानून बनाया। इन हिंदू समूहों के लिए “दलित” नाम प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ है “कुचला हुआ।”


लेकिन हाल में एक अखबार की सुर्खियों में आया: “दलित ईसाई आरक्षण (नौकरी और विश्‍वविद्यालय कोटा)  की माँग करते हैं।” यह स्थिति कैसे आयी?


निम्न-जाति हिंदुओं को जो अनेक सरकारी लाभ दिये जाते हैं वे इस तथ्य पर आधारित हैं कि उन्होंने जाति प्रथा के कारण अन्याय सहा है। सो यह तर्क किया गया कि जिन धर्मों में जाति प्रथा का चलन नहीं है वे इन लाभों की अपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन, दलित ईसाई कहते हैं कि वे निम्न जाति के अथवा अछूत धर्मांतरित हैं, इसलिए वे भी भेदभाव सह रहे हैं। यह भेदभाव वे केवल हिंदुओं से नहीं, बल्कि अपने ‘संगी ईसाइयों’ से भी सह रहे हैं। क्या यह सही है?

उपनिवेशी समय में कैथोलिक और प्रोटॆस्टॆंट धर्म के पुर्तगाली, फ्रांसीसी, और ब्रिटिश मिशनरियों ने अनेक हिंदुओं को धर्मांतरित किया। हर जाति के लोग नाममात्र के ईसाई बन गये। कुछ प्रचारकों ने ब्राह्‍मणों को आकर्षित किया, दूसरों ने अछूतों को। जाति भेद में लोगों के गहरे विश्‍वास पर मिशनरियों की शिक्षा और आचरण का क्या प्रभाव हुआ?


भारत में ब्रिटिश लोगों के बारे में लेखक नीरद चौधरी कहता है कि गिरजों में “भारतीय कलीसिया यूरोपीय लोगों के साथ नहीं बैठ सकती थी। मसीहियत में जातीय श्रेष्ठता का वही भाव दिखा जिस पर भारत में ब्रिटिश राज्य टिका हुआ था।” ऐसी ही मनोवृत्ति दिखाते हुए, १८९४ में एक मिशनरी ने अमरीका के बोर्ड ऑफ फौरन मिशन्स को रिपोर्ट दी कि निम्न जाति के लोगों को धर्मांतरित करना “चर्च में कूड़ा-करकट इकट्ठा करना” हुआ।


मिशनरियों में जातीय श्रेष्ठता की भावना और ब्राह्‍मणी विचार का चर्च शिक्षाओं के साथ मिश्रण ही मुख्यतः इसका ज़िम्मेदार है कि आज भारत में अनेक तथाकथित मसीहियों के बीच खुलकर जाति प्रथा का पालन हो रहा है।

कैथोलिक आर्चबिशप जॉर्ज ज़र ने १९९१ में भारत में कैथोलिक बिशप्स कॉनफ्रॆंस को संबोधित करते हुए कहा: “अनुसूचित जाति के धर्मांतरितों के साथ न केवल उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा बल्कि उच्च जाति के ईसाइयों द्वारा भी निम्न जाति के जैसा व्यवहार किया जाता है। . . . गिरजों और कब्रिस्तानों में उनके लिए अलग स्थान रखे जाते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। . . . पादरियों के बीच जाति प्रथा व्यापक है।”


युनाइटॆड प्रोटॆस्टॆंट चर्च, चर्च ऑफ साउथ इंडिया के बिशप एम, ऎज़राया ने अपनी पुस्तक भारतीय चर्च का अ-मसीही पहलू (अंग्रेज़ी) में कहा: “इस प्रकार विभिन्‍न गिरजों में अनुसूचित जाति (दलित) ईसाइयों से उनकी अपनी किसी गलती के कारण नहीं, परंतु उनके निम्न जाति में जन्म लेने के कारण संगी ईसाइयों द्वारा भेदभाव रखा जाता है और उनका दमन किया जाता है। ऐसा तब भी होता है जब वे दो, तीन, या चार पीढ़ी पहले ईसाई बने थे। उच्च जाति के ईसाई जो चर्च में अल्पसंख्यक हैं पीढ़ियों बाद भी अपनी जाति पूर्वधारणाएँ बनाए रखते हैं। वे मसीही विश्‍वास और व्यवहार से अप्रभावित हैं।”


मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध, भारत में पिछड़े वर्गों की समस्याओं की एक सरकारी जाँच ने पाया कि केरल के तथाकथित ईसाई “अपनी जाति पृष्ठभूमि के आधार पर विभिन्‍न नृजातीय समूहों में” विभाजित हैं। “धर्मांतरण के बाद भी, निम्न जाति के धर्मांतरित लोगों के साथ हरिजन* की तरह व्यवहार किया जाता है . . . एक ही चर्च के सिरियन और पूलाया सदस्य अलग-अलग होकर अलग-अलग इमारतों में धार्मिक संस्कार करते हैं।”


अगस्त १९९६ में इंडियन ऎक्सप्रॆस की एक समाचार रिपोर्ट ने दलित ईसाइयों के बारे में कहा: “तमिल नाडु में, उनके निवास उच्च जातियों से अलग हैं। केरल में, वे ज़्यादातर भूमिहीन मज़दूर हैं, और सिरियन ईसाइयों तथा उच्च जातियों के दूसरे भूमिधरों के लिए काम करते हैं। दलितों और सिरियन ईसाइयों के बीच अंतर्भोज या अंतर्विवाह का प्रश्‍न ही नहीं उठता। अनेक मामलों में, दलित अपने गिरजों में उपासना करते हैं, जिन्हें ‘पूलाया गिरजा’ या ‘पाराया गिरजा’ कहा जाता है।” ये उपजाति नाम हैं। “पाराया” का अंग्रेज़ी रूप है PARIAH (अछूत)।


ईसाई शोषण विरुद्ध मंच (FACE) जैसे जन-सुधारक समूह, ईसाई दलितों को सरकारी लाभ प्राप्त करवाने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्य चिंता है ईसाई धर्मांतरितों के लिए आर्थिक सहायता। लेकिन, दूसरों को इसकी चिंता है कि चर्च के अंदर कैसा व्यवहार किया जाता है।

पोप जॉन पॉल द्वितीय को एक पत्र में, करीब १२० हस्ताक्षर-कर्ताओं ने कहा कि उन्होंने “जाति प्रथा से मुक्‍त होने के लिए मसीहियत अपनायी” थी लेकिन उन्हें गाँव के गिरजे में न तो प्रवेश करने दिया जाता है और न ही सभाओं में हिस्सा लेने दिया जाता है। उन्हें एक ही सड़क किनारे घर बनाने के लिए मजबूर किया गया जहाँ न तो कोई उच्च-जाति ईसाई—और न ही पैरिश पादरी—कभी कदम रखता है! इसी तरह परेशान एक कैथोलिक स्त्री ने कहा: “मेरे लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि मेरा बेटा किसी अच्छे कॉलॆज में पढ़े। लेकिन यह उससे भी महत्त्वपूर्ण है कि उसके [कैथोलिक] भाई उसे बराबर का समझें।”


जबकि कुछ लोग दलित ईसाइयों की स्थिति सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, बहुतों के धीरज का बाँध टूट रहा है। विश्‍व हिंदू परिषद्‌ जैसे संगठन ईसाई धर्मांतरितों को फिर से हिंदू समुदाय में लाने की कोशिश कर रहे हैं। इंडियन ऎक्सप्रॆस ने एक धर्म-अनुष्ठान के बारे में रिपोर्ट दी जिसमें १०,००० लोग उपस्थित हुए और ६०० से अधिक ऐसे “ईसाई” परिवारों ने हिंदुत्व को फिर से अपना लिया।


“अनुसूचित जातियाँ” एक औपचारिक पद है जो हिंदुओं के बीच निम्न जातियों, अथवा अजातियों, अछूतों के लिए प्रयोग किया जाता है, जिन्होंने सामाजिक और आर्थिक हानि उठायी है।


एम. के. गांधी ने निम्न जातियों को यह नाम दिया था। इसका अर्थ है “हरि के लोग।” हरि विष्णु देवता का एक नाम है।


जो मसीही होने का दावा करते हैं उन्हीं लोगों द्वारा अजाति की तरह दुतकारे जाने पर कैसा लगता है? एक मसीही के पूर्वज हिंदुओं की एक निम्न जाति, चर्मार या पूलाया से धर्मांतरित हुए थे। वह अपने गृह राज्य केरल में कुछ साल पहले घटी एक घटना का ज़िक्र करता है:


मुझे एक विवाह में न्यौता दिया गया। वहाँ काफी मेहमान चर्च सदस्य थे। जब उन्होंने मुझे दावत में देखा, तब काफी हंगामा हो गया, और जो ऑर्थोडॉक्स सिरियन चर्च के थे उन्होंने कहा कि यदि मैं वहाँ से नहीं गया तो वे दावत से चले जाएँगे, क्योंकि वे किसी पूलाया के साथ भोजन नहीं करते। जब दुलहन के पिता ने उनकी धमकी के आगे हार नहीं मानी, तब उन सब ने मिलकर दावत का विरोध किया। उनके जाने के बाद, भोजन परोसा गया। लेकिन भोजन परोसनेवालों ने मेरी मेज़ साफ करने और केले के उस पत्ते को उठाने से इनकार कर दिया जिस पर मैंने भोजन किया था।


http://newsloose.com के अनुसार दलितों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण करा रही ईसाई मिशनरी उनके साथ बेहद बुरा सलूक कर रही हैं। ईसाई बन चुके दलितों के एक संगठन ने संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिखकर अपने साथ भेदभाव की शिकायत की है। उनकी ये शिकायत वेटिकन के खिलाफ भी है। इन लोगों की शिकायत है कि सामाजिक भेदभाव से छुटकारा दिलाने के नाम पर मिशनरियों ने उन्हें ईसाई तो बना लिया, लेकिन यहां भी उनके साथ अछूतों जैसा बर्ताव हो रहा है। कई चर्च में दलित ईसाइयों के घुसने पर भी एक तरह से पाबंदी लगी हुई है। नाराजगी इस बात से है कि ईसाइयों की सर्वोच्च संस्था वेटिकन इस भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ नहीं कर रही। दिल्ली में यूएन के दफ्तर के जरिए ये शिकायत कुछ वक्त पहले भेजी गई है। कुछ वक्त पहले न्यूज़लूज़ पर हमने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज की खबर बताई थी, जहां प्रिंसिपल की भर्ती के लिए निकले विज्ञापन में साफ कहा गया था कि कैंडिडेट मारथोमा सीरियन चर्च का होना चाहिए। पढ़ें: ईसाई प्रिंसिपल चाहिए, लेकिन धर्मांतरण वाला नहीं

दलित क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (डीसीएलएम) और मानवाधिकार संस्था विदुथलाई तमिल पुलिगल काची ने कहा है कि “वेटिकन और इंडियन कैथोलिक चर्च भारतीय दलित ईसाइयों को तुच्छ नज़र से देखते हैं। हर जगह उन ईसाइयों को प्राथमिकता दी जाती है जो उनकी नजर में उच्च वर्ग के हैं। यह भेदभाव धार्मिक, शैक्षिक और प्रशासनिक सभी क्षेत्रों में हो रहा है।” दलित ईसाइयों के संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र से फरियाद की है कि वो वेटिकन पर इस बात का दबाव डालें ताकि वो भारतीय दलितों के साथ दोहरा रवैया छोड़ें। पिछले कुछ दशकों में लाखों की संख्या में दलितों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, लेकिन इनमें से ज्यादातर खुद को ठगा महसूस करते हैं क्योंकि अब उनकी सामाजिक स्थिति पहले से बदतर है। ऐसी घटनाएं मीडिया में भी नहीं आने पातीं। इसके उलट हिंदू धर्म में हो रहे सुधारों के कारण जाति-पाति के आधार पर भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है।

‘दलितों के लिए अलग कब्रिस्तान’

दलित ईसाई संगठनों की कई शिकायतें हैं, लेकिन इनमें सबसे गंभीर हैं वो सामाजिक भेदभाव जिनके नाम पर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए उकसाया गया था। दलित ईसाई संगठनों के मुताबिक ज्यादातर जगहों पर कैथोलिक ईसाई पसंद नहीं करते कि उनके सेमेंटरीज़ (यानी कब्रिस्तानों) में दलित ईसाइयों को दफनाया जाए। वो उन्हें कमतर मानते हैं लिहाजा उनकी जगह कोई सुनसान कोना या अलग जगह होती है।यहां तक कि कई चर्च में भी दलित जाति के ईसाइयों के बैठने की जगह अलग और पीछे होती है।  क्रिसमस पर निकलने वाली शोभा यात्राएं दलित ईसाइयों के मोहल्लों में नहीं जातीं। दलित ईसाइयों को पढ़ा-लिखा होने के बावजूद ज्यादातर सहायक, ड्राइवर या इससे भी निचले दर्जे की नौकरियां दी जाती हैं। इसकी शिकायत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया से भी की जा चुकी है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।  क्योंकि इस पर खुद को प्योर ब्लड का बताने वाले ईसाइयों का कब्जा है। इस भेदभाव का नतीजा है कि एक पीढ़ी पहले धर्मांतरण करने वाले कई दलित परिवार वापस सनातन धर्म अपनाने की सोच रहे हैं। अकेले केरल में पिछले एक दशक में 100 के करीब परिवार वापस हिंदू धर्म अपना चुके हैं।


http://hindi.webdunia.com के अनुसार ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह हैं जिनका जन्म बेथलेहम में हुआ था। भारत में ईसाइयों की संख्या लगभग 2.78 करोड़ है। कब ईसाई धर्म का भारत में प्रवेश हुआ और कैसे ईसाई धर्म भारत में फैला इस संबंध में संक्षिप्त जानकारी।

ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल उम्र के बीच तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र और उसके बाद 33 से 112 वर्ष की उम्र तक ईसा मसीह भारत में रहे थे। माना जाता है कि इस दौरान उन्होंने भारतीय राज्य कश्मीर में बौद्ध और नाथ संप्रदाय के मठों में रहकर ध्यान साधना की थी। मान्यता है कि यहीं कश्मीर के श्रीनगर शहर के एक पुराने इलाके खानयार की एक तंग गली में 'रौजाबल' नामक पत्थर की एक इमारत में एक कब्र बनी है जहां उनका शव रखा हुआ है।

माना जाता है कि भारत में ईसाई धर्म की शुरुआत केरल के तटीय नगर क्रांगानोर में हुई जहां, किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देता है।

इसके बाद सन् 1542 में सेंट फ्रांसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्‍थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिन्दू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। कुछ लोग उन पर सेवा की आड़ में भोलेभाले लोगों को ईसाई बनाने का आरोप लगाते रहे हैं।

16वीं सदी में पुर्तगालियों के साथ आए रोमन कैथोलिक धर्म प्रचारकों के माध्यम से उनका सम्पर्क पोप के कैथोलिक चर्च से हुआ। परन्तु भारत के कुछ इसाईयों ने पोप की सत्ता को अस्वीकृत करके 'जेकोबाइट' चर्च की स्थापना की। केरल में कैथोलिक चर्च से संबंधित तीन शाखाएठ दिखाई देती हैं। सीरियन मलाबारी, सीरियन मालाकारी और लैटिन- रोमन कैथोलिक चर्च की लैटिन शाखा के भी दो वर्ग दिखाई पड़ते हैं- गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था, तथा तमिल समूह जो अपनी प्राचीन भाषा-संस्कृति से जुड़ा रहा। काका बेपतिस्टा, फादर स्टीफेंस (ख्रीस्ट पुराण के रचयिता), फादर दी नोबिली आदि दक्षिण भारत के प्रमुख ईसाई धर्म प्रचारक थे।


उत्तर भारत में अकबर के दरबार में सर्व धर्म सभा में विचार-विमर्श हेतु जेसुइट फादर उपस्थित थे। उन्होंने आगरा में एक चर्च भी स्थापित किया था। भारत में प्रोटेस्टेंट धर्म का आगमन 1706 में हुआ। बी. जीगेनबाल्ग ने तमिलनाडु के ट्रंकबार में तथा विलियम केरी ने कलकत्ता के निकट सेरामपुर में लूथरन चर्च स्थापित किया।

भारत में जब अंग्रेजों का शासन प्रारंभ हुआ तब ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। अंग्रेजों के काल में दक्षिण भारत के अलावा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म के लाखों प्रचारकों ने इस धर्म को फैलाया। उस दौरान शासन की ओर से ईसाई बनने पर लोगों को कई तरह की रियायत मिल जाती थी। बहुतों को बड़े पद पर बैठा दिया जाता था साथ ही ग्रामिण क्षेत्रों में लोगों को जमींदार बना दिया जाता था। अंग्रेजों के काल में कॉन्वेंट स्कूल और चर्च के माध्यम से ईसाई संस्कृति और धर्म का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ।

ईसाई प्रचारक मदर टेरेसा के बारे में प्रचारित है कि भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने सेवा की आड़ में बड़े पैमाने पर गरीब लोगों को ईसाई बनाया। इस संबंध में ओशो रजनीश ने कहा था कि उन्होंने लोगों के दुखों का शोषण कर उन्हें ईसाई बनाया। मदर टेरेसा और अधिक गरीब लोग चाहती है। ताकि वह उनका धर्मांतरण कैथोलिक धर्म में कर सके। यह शुद्ध राजनीति है। सभी धर्म शोषण कर रहे है।

मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने भारत में 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले जहां वे अनाथ और गरीबों को रखती थी। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली और व्यापकर रूप से ईसाई धर्म की सेवा में लग गई।


7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से 'मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी' की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था। 1983 में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के दौरान उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा पड़ा और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में उन्हें न्यूमोनिया और ह्रदय की परेशानी हो गयी। 13 मार्च 1997 को उन्होंने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।

भारत में वर्तमान में प्रत्येक राज्य में बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मप्रचारक मौजूद है जो मूलत: ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। अरुणालच प्रदेश में वर्ष 1971 में ईसाई समुदाय की संख्या 1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2011 में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय राज्यों में ईसाई प्रचारक किस तरह से सक्रिय हैं। इसी तरह नगालैंड में ईसाई जनसंख्‍या 93 प्रतिशत, मिजोरम में 90 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और मेघालय में 70 प्रतिशत हो गई है। चंगाई सभा और धन के बल पर भारत में ईसाई धर्म तेजी से फैल रहा है।


भारत सरकार ने 2015 में छह धर्मों-हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन के जनसंख्या के आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011 में भारत की कुल आबादी 121.09 करोड़ है। जारी जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में ईसाइयों की आबादी 2.78 करोड़ है। जो देश की कुल आबादी का 2.3% है। ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर 15.5% रही, जबकि सिखों की 8.4%, बौद्धों की 6.1% और जैनियों की 5.4% है। देश में ईसाई की जनसंख्या हिंदू और मुस्लिम के बाद सबसे अधिक है।


भारत में 96.63 करोड़ हिंदू हैं, जो कुल आबादी का 79.8% है। मुस्लिम 17.22 करोड़ है जो कुल आबादी का 14.23% है। दूसरे अल्पसंख्यकों में ईसाई समुदाय है। एक दशक में देश की आबादी 17.7% बढ़ी है। आंकड़ों के मुताबिक देश की आबादी 2001 से 2011 के बीच 17.7% बढ़ी। मुस्लिमों की 24.6%, हिंदुओं की आबादी 16.8%, ईसाइयों की 15.5%, सिखों की 8.4%, बौद्धों की 6.1% तथा जैनियों की 5.4% आबादी बढ़ी है।


साल 2001 से 2011 के बीच कुल आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 0.7%, सिखों की आबादी 0.2% और बौद्धों की 0.1% घटी है जबकि मुस्लिमों की हिस्सेदारी में 0.8% वृद्धि दर्ज की गई है। ईसाइयों और जैनियों की कुल जनसंख्या में हिस्सेदारी में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं दर्ज की गई।


 


https://www.bbc.com/  के अनुसार हाल ही में भारत के एक कैथोलिक चर्च ने आधिकारिक तौर पर पहली बार यह बात मानी है कि दलित ईसाइयों को छुआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.


नीतिगत दस्तावेज़ों के जरिए ये जानकारी सामने आई, जिसमें कहा गया है कि उच्च स्तर पर नेतृत्व में उनकी (दलित ईसाइयों की) सहभागिता न के बराबर है.

इस बारे में अमृतसर से सटे मजीठा कस्बे में रहने वाले सुच्चा मसीह कहते हैं, "मैं क़रीब 35 साल पहले ईसाई मिशन में शामिल हुआ था. पहले हम सिख थे और हमारा दलित पृष्ठभूमि से वास्ता रहा. लेकिन धर्म परिवर्तन के बाद हमें कोई मदद नहीं मिली. हम लोग आज तक अपने घर पर ही प्रभु जी का नाम लेते हैं. मिशन ने हमें प्रार्थना हॉल देने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ." 

इस कस्बे के पास ही पंडोरी गांव में रहने वाले पास्टर यूसुफ़ मसीह बताते हैं कि उनके और बाकी मिशनरी लोगों के बारे में ईसाई मिशन वालों ने अब तक पूछा भी नहीं है. वे प्रभु ईशु पर विश्वास करते हैं और उनकी ही भक्ति में लगे हुए हैं.


हालांकि पास्टर यूसुफ़ मसीह मांग करते हैं कि अपना धर्म छोड़कर ईसाई मिशन में शामिल हुए सभी लोगों को मदद मिलनी चाहिए.


इसी गांव में रहने वालीं बलवीर कौर ख़ुद को तक़रीबन 40 साल से ईसाई मिशन से जुड़ा हुआ बताती हैं. उनका दावा है कि वे अपने गांव के ही लगभग 15 दलित परिवारों को अपने साथ जोड़ चुकी हैं. बलवीर कौर लगभग 15 दलित परिवारों को क्रिश्चियन मिशन से जोड़ चुकी हैं.


बलवीर कहती हैं, "हम लोगों ने भी मिशन के लिए बहुत काम किया है. लेकिन हमें कोई सहूलियत नहीं दी गई. आलम यह है कि मिशन में जुड़े ज्यादातर लोगों के लिए अब अपने परिवारों का पालन पोषण भी मुश्किल हो गया है."


उनके साथ ही इस मिशन में जुड़े धरमिंदर भट्टी ईसाई मिशन के इस रवैये से ख़ासे नाराज़ दिखे. उन्होंने कहा कि दलितों के साथ भेदभाव तो होता ही है. साथ ही जिन दलित परिवार के लोगों को बिशप बनाया गया, उन्होंने भी कभी उनका हाल नहीं पूछा. धरमिंदर भट्टी क्रिश्चियन मिशन के रवैये से ख़ासे नाराज़ दिखे.


धरमिंदर कहते हैं, "मेरे पिता 45 साल से इस मिशन से जुड़े हैं. लेकिन मिशन की और से अभी तक कोई भी ओहदा उन्हें नहीं दिया गया. यह सच है कि मिशन के लोगों ने हमेशा ही दलित परिवारों को पीछे रखा. लेकिन जो दलित परिवार भी बिशप बने, उन्होंने भी कभी पीछे छूट गए परिवारों के बारे में नहीं सोचा."


धरमिंदर दावा करते हैं कि जब उनका समुदाय सरकार के पास किसी किस्म की मदद के लिए जाता है, तो उन्हें बोला जाता है कि उनकी जाति बहुत बड़ी है और उन्हें किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं दी जा सकती.

https://hindi.firstpost.com/  के अनुसार  यह एक एतिहासिक घटना है. इंडियन कैथलिक चर्च ने पहली बार आधिकारिक तौर पर माना है कि दलित क्रिश्चियन चर्च के कार्यकलापों में छुआछूत और भेद-भाव जैसी बीमारियां भुगतने पर मजबूर हैं और नेतृत्व के ऊंचे पदों पर उनकी सहभागिता सिरे से गायब है. कैथलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया (CBCI) के नीति-पत्र में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है.


यह समिति क्रिश्चियन समाज के पिछड़ा-वर्गों के प्रति भेदभाव को समाप्त करने और उन्हें इससे मुक्त कराने का काम करती है.


ये प्रश्न अनायास ही उठता है कि इस सच्चाई को ‘अब’ स्वीकार करने के पीछे की सच्चाई क्या है?


‘भारतीय कैथलिक चर्च में दलितों को सशक्त बनाने हेतु नीति’ शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की गई है.


इस रिपोर्ट में चर्च के सभी 171 धर्म-प्रदेशों से कहा गया है कि वे साल भर के भीतर ऐसी छोटी-बड़ी योजनाएं बनाएं, जिससे ‘दलित-क्रिश्चियनों’ के साथ हो रही इस छुआछूत को खत्म किया जा सके.


अगर यह जाति-आधारित दोहरा व्यवहार हममें मौजूद है तो इसे तत्काल प्रभाव से समाप्त होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं हुआ तो चर्च के संबंधित अधिकारी कठोर कदम उठाने पर मजबूर होंगे'. सवाल और मजबूत होता है कि अब इतनी कठोरता क्यों?


क्योंकि यह भेद-भाव तो चर्च के काम-काज में हमेशा से मौजूद है और आम दलित-क्रिश्चियन ने जब भी इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उसे कठोरता से कुचला गया है.


आज, उन्हें कुचलने की बात हो रही है जो अब तक कुचलते आये हैं. ‘कैथलिक बिशप’ कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, बेसलिओस कार्डिनल क्लिमेस कैथालिकोस इसे दलित क्रिश्चियन के हक में एक क्रांतिकारी कदम मानते हैं.


'क्रिश्चियन भावनाओं के अनुसार यह भेदभाव जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है. हम इसे मान रहे हैं, और जो नीति हम बना रहे है, वह चर्च द्वारा हो रहे इस भेद-भाव की समाप्ति के प्रति एक अहम कदम है, एक संदेश है और आत्मविश्लेषण है'.


एक अनुमान के मुताबिक, भारत में रह रहे 19 लाख कैथलिक-क्रिश्चियन में लगभग 12 लाख दलित-क्रिश्चियन हैं. लेकिन चर्च के उच्च-कार्यकलापों में उनका नेतृत्व शून्य है.


पांच हजार बिशप यानी कैथोलिक धर्मगुरुओं में केवल 12 बिशप दलित हैं. यह इस बात का अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि कैथोलिक क्रिश्चियनों में दलितों का क्या हाल है.


भारत में जब कभी धर्मांतरण की चर्चा होती है और विशेषकर ईसाइयत और दलितों के संदर्भ में तो सबसे पहले एक प्रश्न उभरता है. दलित क्यों इसाई धर्म स्वीकार करते हैं?


जाहिर है इसका आसान जवाब यही सूझता है कि हिंदू-जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए.


पर यह पूरा सच नहीं है. इसका सच जानने के लिए आपको बेंगलुरु से 60 किलोमीटर दूर स्थित ‘हरोबेले’ तक जाना पड़ेगा. यहां सैकड़ों साल पहले इसाईयत ने अपने कदम रक्खे.


कर्नाटक का सबसे पुराना ईसाई मिशन यहीं है जो 1675 में स्थापित हुआ. एक समझ बनाने के लिए आप कह सकते हैं कि हजार परिवारों में से 980 परिवार यहां, कैथलिक हैं.


इन परिवारों में, हिंदू उच्च जाति से धर्मांतरित होकर इसाई बने हुए परिवार भी शामिल हैं. इन्होने धर्म तो बदल लिया है लेकिन जाति के बंधन से छूट नहीं पाए हैं.


यह स्थिति केवल इसाईयों में ही नहीं है, इस्लाम में भी, कहते हैं, जात-पात का चक्कर नहीं है, फिर भी जब यह धर्म भारत में प्रवेश करता है तो जाति-चक्र से अछूता नहीं रह पता है.


यहां मुसलमानों में जुलाहा, बहना, धुनिया, नाई आदि जातियां उसी जाति-वर्ग का दूसरा रूप हैं. हमने तो अपने गावों में मुसलमान-मेहतर भी देखे हैं.


अशराफ (यानी उच्च श्रेणी के मुसलमान) इन नीची जातियों से रिश्ता नहीं बनाते हैं. यानी मुसलमान तो आप हो गए हैं लेकिन किस जाति से आकर मुसलमान या ईसाई हुए हैं यह धर्मांतरण से ज्यादा महत्वपूर्ण है.


सोचिये इकबाल के एक बहुत मशहूर शेर, इन दलितों के साथ कितना भद्दा मजाक है- 'एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़/ फिर कोई बाँदा रहा और ना कोई बंदा-नवाज़.'


ईसाइयत में भी जो नायर, रामास्वामी जैसे उच्च-जाति के ब्रह्मिन आये, वह निचली जाति के ईसाई बने दलितों को बर्दाश्त नहीं कर पाए.


और यह छुआछूत या भेद-भाव जो आज कैथलिक-चर्च में चिंता का विषय है वह सदियों से चला आ रहा है.


मुझे अपने विद्यार्थी जीवन के अध्यापक की बात हमेशा याद रहेगी जो समाज-शास्त्र पढ़ाते हुए इस बात पर विस्तार से चर्चा करना कभी नहीं भूलते थे कि इस देश में जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं जिन्हें शायद कभी खत्म नहीं किया जा सके.


आज यदि ‘कैथलिक बिशप’ कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, बेसलिओस कार्डिनल क्लिमेस कैथालिकोस आत्मविश्लेषण कर रहे हैं तो उनका यह कदम स्वागत योग्य है.


सदियों बाद ही सच सामने आया, आया तो. वसीम बरेलवी के इस शेर के साथ आइये अपनी बात को ख़त्म करते हैं- सच घटे या बढ़े तो सच न रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं.

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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