Search This Blog

Monday, March 2, 2020

एक कटु चर्चा

एक कटु चर्चा 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
 सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

जिस ज्ञान को लेकर हम बड़े-बड़े पोथी लिखते हैं और पढ़ रहे हैं वह केवल कुछ वाक्यों का है।

यह जानना कि हम ब्रह्म है यह जानना की सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्व ब्रह्म इसका अनुभव होना ही ब्रह्म ज्ञान है।

यदि निराकार पद्धति से कोई अंतर्मुखी होता है और फिर उसे आत्म गुरू जागृत होकर शक्ति जागृत कर अनुभव कराता है योग कराता है तो उसे निराकार का ही अनुभव होता है और वह निराकार के गुण गाने लगता है।

कोई भी पद्धति रुकावट नहीं है चाहे वह द्वेत हो चाहे वह अद्वेत हो चाहे वह साकार हो या निराकार हो।

मात्र ओम का जाप आपको निराकार की अनुभूतियां देगा लेकिन उसी ओम को यदि किसी साकार देव के आगे लगा देंगे तो वह देव आपको उसी रूप में दर्शन देकर आपका मार्गदर्शन कर सकता है।

इसमें रामचरितमानस की कहा बुराई की गई मैं तो स्वयं रामचरितमानस को बेहद सम्मान करता हूं। और यही कहता हूं यदि वेदों को गौशाला मानते हो तो उपनिषदों को पलनेवाली गाय।‌भगवत गीता है उसका दूध और रामचरितमानस है उसका मक्खन।

यह कहीं और चर्चा है उसका प्रसंग मैंने पोस्ट किया इसको उल्टे अर्थों में क्यों लेते हैं आप लोग।

मेरी टिप्पणी उन पर है जो मात्र किताबें पढ़कर गुरु की दुकानें खोलते हैं और किसी के लिए नहीं।

क्रोध आने के कारण कई होते हैं और यह कई प्रकार का होता है 1 अज्ञानी के लिए जो भगवत गीता में कहा है मनुष्य को मोह से किसी वस्तु की मिलने की इच्छा प्रकट होती है और जब इच्छा पूरी नहीं होती है तब क्रोध उत्पन्न होता है। यह आम जगत के लिए है।

दुर्वासा ऋषि ब्रह्म ऋषि ही थे वह ब्रह्म में लीन रहते थे उनका क्रोध बनावटी ही था अक्सर बड़े बड़े महर्षि बनावटी क्रोध दिखाते हैं ताकि लोग उनको परेशान ना करें उनके पास आकर अपनी परेशानियां न बताएं और उनसे आशीर्वाद मांगने की परेशानियों को दूर करने की दवा न मांगे। वैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध कारण है जब आप साधन करते हैं साधना करते हैं आराधना करते हैं कुछ भी करते हैं तो आपके शरीर की ऊर्जा बढ़ती है और जब आपके शरीर की ऊर्जा बढ़ती है तो आपके शरीर उस लायक नहीं होता है कि ऊर्जा को संभाल सकें। ऊर्जा क्रोध के रूप में निकलती है इसीलिए कहा जाता है। क्यों कहा जाता है यम और नियम का पालन। पतंजलि ने बताया है यम यानी समाज के लिए।  नियम यानी अपने लिए 5 । 5 बताएं।

सच्चिदानंद ब्राह्मण ही है।

सत चित आनंद जिस मनुष्य के चित्त में सत्य होता है।

पतंजलि का दूसरा सूत्र चित्त में वृत्ति का निरोध ही योग है।

जिसके चित्त में कोई वृत्ति घर नहीं करती। और केवल सत्य ही मौजूद है।

और वेदांत महावाक्य  आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग तो।

जब जिसके चित्त में सत्य है सत्य क्या है ब्रह्म है। जिसका चित्त ब्रह्म में रम जाता है तब वह आनंद को प्राप्त कर लेता है। और जिसका चित्त ब्रह्म में रमा हुआ है वह ब्राह्मण है। यानी सच्चिदानंद वही है जो ब्राह्मण है।

यहां पर सत चित आनंद ईश्वर की अपेक्षा मानव में प्रयोग कर देखें।

फेसबुक से एक प्रश्न

कहते हैं जीवात्मा/ जीवन के अन्तिम क्षणों की लेश्या, भाव लेकर अग्रिम जीवन प्रारम्भ करती हैं/तो जीवन भर के भावों को लेकर क्यों नहीं?

मेरा उत्तर

वाह सुंदर प्रश्न।

क्या होता है मित्र हमारी मन में जो भाव आते हैं जो विचार आते हैं जो विकार आते हैं उनको हम यह शरीर रहते हुए पूरा कर सकते हैं। अब एक ऐसी सांस जो बाहर निकलेगी अंदर नहीं आएगी। उस वक्त हमारे मन में यदि कोई भाव आया कोई विकार आया जैसे यह प्यास ही लगी तो क्या हम पानी पी पाएंगे। नहीं पी पायेंगे। तो प्यास का भाव हमारे शरीर में जो आकाश तत्व है उसमें एक संस्कार के रूप में गहन रूप से स्थित हो जाएगा और जब हम अगला जन्म लेंगे तो सबसे पहले प्यास का जो भाव संस्कार है हम उसके अधीन जाकर ढेर सारा पानी पिएंगे।

क्योंकि जो स्थूल शरीर होता है जब इसमें से भूमि तत्व और जल तत्व निकल जाता है तो जगत से जुड़ने की जो क्षमता है मतलब क्या कार्य करने की क्षमता वह चली जाती है क्योंकि शरीर में तीन ही तत्व होते हैं और कभी-कभी अग्नि तत्व भी नहीं होता है और कारण शरीर जो होता है वह भाव शरीर प्रधानता होता है इसमें मात्र आकाश तत्व होता है और आकाश तत्व ही हमारी अगली जन्म को निर्धारित करता है हां यदि योग के द्वारा हम स्थूल शरीर से शरीर और कारण शरीर में जाने का अभ्यास कर ले तो बात अलग है तो हम मनचाहा गर्भ धारण भी कर सकते हैं।

दूसरे ग्रुप में जबरदस्त चर्चा हो रही थी और धीरे-धीरे वह उपहास में बदलने लगी तो मैंने उसको बंद करके यह लिखा।

मित्रों आप विद्वान बनना चाहेंगे या ज्ञानी।

पढ़ने का अर्थ यह नहीं होता है कि रट लिया जाए।

मैंने भी तमाम पढ़ाई करी लेकिन मुझे श्लोक याद नहीं है मुझे गीता वेद का सार क्लियर है क्या कहा है वह भी बता देंगे लेकिन कहो कि  कहां है क्या है मैं नहीं बता पाऊंगा।

मैंने कितनी बार निवेदन किया है की किताबी लड़ाई मत करो विद्वान बनने का प्रयास मत करो ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करो अनुभव के माध्यम से अध्ययन करने का प्रयास करो लेकिन आप लोग केवल वाहिक वस्तुओं के लिए सर फोड़ रहे हैं।

वेदों में गीता में या किसी भी पुस्तक में अग्नि कांड हो तो सब भस्म हो जाएंगी किंतु यदि आपके मस्तिष्क में है और आपको उसकी समझ है तो वह आपके जीवन घर चलेगी और आप उसके द्वारा काम चला सकते हैं।

कारण क्या है कि विद्वानों के बीच में अहंकार की लड़ाई होती है लेकिन ज्ञानी इनसे दूर रहता है।

अष्टावक्र ने आचार्य बंदी को हराया लेकिन माफ कर दिया आचार्य बंदी ने जिनको  हराया उनको मृत्युदंड दिया जल समाधि ली।

हमारा अध्ययन हमारा भौतिक अध्ययन ज्ञान हमारा अहंकार बनाता है लेकिन वास्तविक ज्ञान अहंकार को नष्ट करने का प्रयास करता है और निरंतर उसमें ही लगा रहता है।

मुझको फेसबुक पर किसी ने मैंने गधे का उदाहरण दिया तो मुझे गधा बोल दिया लेकिन मैंने गधे को इस तरीके से समझाया कि बाद में वह प्रणाम करने लगा।

समझाते समझाते मैं गुरु दत्तातेरय तक पहुंच गया

दूसरे की बात की खिल्ली उड़ाना उपहास उड़ाना। उसने जो कहा है उसको गलत सिद्ध करना यह हमारा अहंकार है और इन विकारों के साथ हम प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकते।

हमको अहंकार नष्ट करने के साथ निर्मल होना होगा तब प्रभु हम पर कृपा करेंगे अहंकार सबसे बड़ी रुकावट है यह अहंकार सद्गुण का होगा तो बहुत ही बड़ा होता है।

वेद शास्त्र उपनिषद का अध्ययन यह सत्वगुणी  अहंकार है।

हमने 100000 यज्ञ कर लिए 1000000 मालायें कर ली। सभी धाम देख लिए। हमसे बड़ा भक्त कौन हमसे बड़ा ज्ञानी कौन क्योंकि हमने सभी कुछ पढ़ लिया यह मात्र अहंकार है। और यह अहंकार हमको पैर में बोझ है आगे नहीं बढ़ने देता।

इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं जो कोई भी इस चर्चा में शामिल हुए आप सब क्षमा मांगें अपने व्यवहार के लिए।

यदि किसी को पुराण पढ़कर मार्ग मिलता है तो क्या बुराई है यदि किसी को भगवत गीता पढ़कर ज्ञान प्राप्त होता है तो क्या बुराई है और यदि कोई वेद या उपनिषद पढ़कर आगे बढ़ता है तो इसमें क्या बुराई है यह सब माध्यम हैं हम को आगे बढ़ाने के। न कि आपस में झगड़ कर पीछे घसीटने के।

इसी अहंकार और लड़ाई के कारण हिंदुत्व का पतन होता चला गया।

और बहुत सी चीजें है जो पुराणों में दी है गलत है उनको जानकर कि वह गलत है या सही है हमें क्या प्राप्त होना है हमारे मन में संस्कार उत्पन्न होगी हमारे मन में विकार आएंगे इसलिए बहुत अधिक खोजबीन करने से बेहतर होता है हम कुछ बन जाए।

चर्चा इस प्रकार की हो कि हम कुछ ग्रहण करें जो कि सार्थक हो ना कि यह ग्रहण करें कि हमारे मन में कटुता और विकार आ जाए।

"परमपूज्य परमहंस  स्वामी जी महाराज ....पीताम्बरा  पीठ"


""सगुण या साकार उपासना अत्यन्त सरल है । भगवत तत्व के इस भाव के साक्षात्कार का कारण मुख्यता उनकी कृपा ही वताई जाती है  , तथापि अखण्ड भजन से वह कृपा प्राप्त होती है ।


नाम जप से साधक अपने अभीष्ट रूप को प्रत्यक्ष करता है । नाम और नामी का अभेद है , इस भाव को हृदय में रखकर अनन्य भाव से धारण करना चाहिए ।


अपना सर्वस्व-- श्री--भगवान्  को  अर्पण कर देना चाहिए .......यहाँ तक कि जीवन भी उन्हीं के लिए समझें ।


ऐसी भावना दृढ होने पर कैसे भी अधम क्यों न हो , उनका भी शीघ्र  ही  उद्धार हो जाता है ।।।

----------------''-------'"-------

सत्य बात है यह पोस्ट एक तरीके से भड़काने वाली पोस्ट है कृपया यह सब ना डालें क्योंकि यह राजनीतिक समाचार है और सत्य बात यह भी है कि शंकराचार्य भी कोई उस पद के लायक है ही नहीं।

गिरती हुई मूल्यों के कारण और मजबूरी के कारण कलयुग के कारण किसी को ही पोस्ट दे दी जाती है लेकिन ज्ञान किसी को नहीं है।

त्याग सबसे आवश्यक होता है और किसी भी में भी मुझे त्याग नहीं दिखता है अगर त्यागी दिखता है तो स्पष्ट सिर्फ नरेंद्र मोदी दिखता है।

जितने भी धर्मगुरु है मैंने देखे हैं शंकराचार्य हैं सब अहंकार की मूर्ति है एक बार तर्क करके देख लो तुम।

मैं कइयो से मिला हूं मित्र।

हर किसी को ठेस लगी हो तो मैं क्षमा मांगता हूं मैंने आवेग में लिख दिया सबकी अपनी अपनी श्रद्धा होती है किसी की श्रद्धा को ठेस पहुंचाना मेरा काम नहीं।

मित्र मैंने सब को नहीं बोला बस यही का जितने मैंने देखे हैं।

कारण क्या है कि जो कार से उतरता है और बड़ा आता है उसको बड़ा अच्छा प्रसाद देते हैं।और जो बेचारा गरीब होगा कुछ नहीं ले जाएगा उसको जो है वह ढंग से दर्शन भी नहीं देते।

फेस बुक:

ब्रह्म निर्गुण नहीं हो सकता उसमें सारे गुण होते हैं जो आप सोच सकते हैं। यही तो उसका गुण है जिसमें समाता है वही गुण धारण कर लेता है जल की भांति।


होता है नहीं होता है इसके लिए श्रुति प्रमाण है। सगुणनिर्गुणस्वरूपं ब्रह्म, मायातीतं गुणातीतं ब्रह्म ऐसी त्रिपादविभूतिमहानारायण श्रुति है।

प्रभु जी मैंने जब ज्ञान और विज्ञान की परिभाषा ढूंढी तो कहीं नहीं मिली केवल चतुर्थ श्लोकी भागवत में मिली। जिसको की गीता प्रेस गोरखपुर के गोयनका जी ने लिखा था।

उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कहा जो मेरे सगुण साकार रूप को भजता है उसको जानता है उसका मनन करता है वह विज्ञानी है। जो मेरे सगुण निराकार रूप को जानता है पहचानता है वह ज्ञानी है।

मैंने इसी के आधार पर और चिंतन मनन करके देखा की ब्रह्म का रूप न होते हुए भी सभी रूप उसके हैं और कोई गुण न होते हुए भी सभी गुणों में विद्यमान है।

इसी आधार पर कहा और दूसरा मैं निवेदन करना चाहता हूं मैं अधिकतर अनुभव के आधार पर उत्तर देता हूं।

अनुभव प्रमाण नहीं होता। अनुभव तो सौ व्यक्तियों के 1000 प्रकार के हो सकते हैं। ब्रह्म के सम्बन्ध में श्रुति ही एकमात्र प्रमाण है।

कहीं श्रुति से भेद दिख रहा हो तो वह मान्य नहीं होता। श्रुति ही परमप्रमाण है।

जी यह कदापि आवश्यक नहीं।

क्योंकि इसके अर्थ अनेको हो सकते हैं।

किसी से पूछा की एक यह गिलास आधा भरा है आधा खाली है एक ने उत्तर दिया अरे यह तो आधा भरा हुआ है दूसरे आधा खाली है।

इसी भांति ब्रह्म उसको जैसे चाहो व्याख्या करो क्योंकि सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्व ब्रह्म।

और यह आवश्यक नहीं कि उसको समझने वाला ज्ञानी हो।

क्योंकि कवि हमेशा एक ही भाव से रचता है लेकिन उसकी व्याख्या करने वाले अनेकों अर्थ बता देते हैं।

जैसे नेति को लोग कुछ भी बोले लेकिन मैं उसको न इति मानता हूं।

जैसे बहुत सारे लोग बोलते हैं कि उन्होंने आदिशंकराचार्य अद्वैत है। वास्तव में उनको किसी ने समझा नहीं। इसका एकमात्र कारण कि सब रट्टू तोता बनना चाहते हैं लेकिन किसी को अनुभव नहीं। शंकराचार्य की आधी से अधिक रचनाएं साकार की है देवी की है और स्तुति उन्होंने नरसिंह भगवान की है। तो वह मात्र अद्वित कैसे हो गए। कारण आरंभ में वे अद्वैत की बात करते थे। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बीत गई वे द्वैत की ओर भी झुके और उसकी महत्ता को समझा। लेकिन लोग उनकी जवानी की आरंभ की पुस्तकों को लेकर अद्वैत की कहानी गाते हैं।

और यदि आप योग की परिभाषा देखें तो वेदांत महावाक्य क्या कहता है आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव योग है यहां पर अनुभव की बात है किताबी ज्ञान कि नहीं।

Vipul Luckhnavi Bullet ji, मनोराज्य है कुछ भी बोलते रहो। मेरा अनुभव है बोल दो। श्रुति विरुद्ध हो तो कह दो कि कई अर्थ निकल सकते हैं। भाष्य विरूद्ध हो तो कह दो किसी ने समझा ही नहीं।

महोदय यह सब बच्चों की चर्चाओं में ही अच्छे लगते हैं। इन का कोई महत्व नहीं। प्रौढ चर्चा करनी है तो शास्त्रार्थ ही करना पडेगा।

सर शास्त्रार्थ में तोता जीतता है।

चलिए एक चीज बताइए।

अहम् ब्रह्मास्मि अनुभव में मनुष्य के शरीर में क्या परिवर्तन आता है।

मनुष्य को देव दर्शन में कैसे आरंभ होता है।

इसके जवाब आप ढूढ़ते रहिए।

फालतू अनपढों की बातें हैं अपने अज्ञान को छुपाने की।

सत्य कहा आपने बिल्कुल सत्य कहा।

तोता फिर वही बता सकता है जो रटा है।

आप पतंजलि के योग सूत्र को अनपढ़ों का सूत्र बोल रहे हैं।

बातें ब्रह्म ज्ञान की कर रहे हैं जिसका रास्ता योग से ही खुलता है।

प्रभु जी किसी समर्थ गुरु की शरण में जाइए एक बार अनुभव हो गया न। तो वेद उपनिषद और गीता में वही लिखा होता है जो आप बोलते हैं।

एक बात और हमारे वेद अनुभव किए जा सकते हैं वेद महावाक्यों का अनुभव आज भी होता है गीता में लिखे वाक्यों का अनुभव आज भी मनुष्य कर सकता है बस केवल एक समर्थ गुरु की और उसकी लगन की आवश्यकता है।

महोदय यहां अद्वैत वेदान्त की चर्चा है। यहां केवल श्रुतियों की चर्चा करें। यहां ये पातंजलियोग सांख्यदर्शन आदि न लायें। ये श्रुतिमूलक नहीं हैं।

पुन: कहते हैं शास्त्र चर्चा करनी है तो शास्त्रों के अनुसार करें ये व्यर्थ की बच्चों वाली बातें छोडें। ये अनुभव करो वो अनुभव करो ये व्यर्थ की बातें छोडें।

मेरा ये अनुभव मेरा वो अनुभव। अरे आप के अनुभव को हम क्या जानें? आप के अनुभव पर हम या कोई और कहां से चर्चा करेगा? आपने गुड खाया और हमें कहो कि चर्चा करो कि आपको इस गुड का स्वाद कैसे लगा? हमें क्या पता आपके अनुभव का?

चर्चा सैदव शास्त्रों पर होती है।

एक बात और निवेदन करना चाहूंगा यदि आपको सनातन की शक्ति का अनुभव करना है सनातन की शक्ति का योग का नहीं तो आप घर बैठे कर सकते हैं और इसमें मेरा सहयोग हो सकता है।

श्रीमन ब्रह्म गुड़ खाने के समान ही है।

इसको किताबों से पढ़कर नहीं खाया जा सकता।

वेदान्तियों को तो बस वेदान्त श्रवण में ही रस आता है। ये शक्ति आदि आप ही देखें प्रभु। धन्यवाद।

ब्रह्मज्ञान का साधन श्रवण ही है। अन्य मूर्ख बनाने वाली बातें हैं।

अभी भी आप अपनी किताबी ज्ञान को सर्वश्ररेष्ठ बता रहे हो। श्रवण नवधा भक्ति में एक अंग है जिसके द्वारा भक्ति योग हो सकता है और भक्ति योग के बाद ज्ञान योग होकर योग होता  है।

मतलब यह है कि आपने कभी अपनी बुद्धि से न पढ़ा न जाना एक तोते की भांति रट लिया। अनुभव तो आप को लेश मात्र है ही नहीं।

चलिए यदि आपको मेरे वचन कटु लगे हो तो क्षमा मांगता हूं मैं तो बस समझाने का प्रयास कर रहा था मैं चाहता हूं कि लोग सनातन की शक्ति समझें और उसका अनुभव करें।

श्री हरी श्री हरी

 

 

 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$



No comments:

Post a Comment

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...