दु:ख, ध्यान और ज्ञान: शंका समाधान
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
अजपा
जप।
बहुत
से लोग पश्यंती को अजपा जप बोल देते है। जो उचित नही।
यह
जप स्वतः होता है। इसका मन्त्र सोअह्म और प्रदेश हंस: है।
मतलब
वह जप जो हम अपनी ओर से नही करते पर होता रहता है। हमारे मनीषियों ने यह बात कही
है। आश्चर्य हम नही करते पर होता।
यह
जप तो पैदा होते ही हम चालू कर देते है पर हमें मालूम नही। जब तक जिंदा यह होता
रहता। इस मन्त्र का रुकना मतलब मौत।
जी
आप ठीक समझे यह है श्वास। सांस जो हम लेते है उसी को अजपा जप कहते है।
पर
कैसे। हम तो कोई शब्द नही बोलते।
जी
आप शब्द बोलते है। पर सुन नही पाते। मैं तो यह भी कहूंगा जब आप विपश्यना करते है
प्रेक्षा ध्यान करते है श्वासो श्वास करते है तो आप मन्त्र जप ही करते है।
कैसे।
तो जरा अपने ऊपर गौर करो।
एक
सांस जोर से लो। कोई ध्वनि निकली। अच्छा कुछ बोझ उठाई। तो क्या निकला।
जब
हम सांस लेते है तो मुख से ध्वनि निकलती है हं । हम hm।
ठीक
है।
अब
सांस छोड़ो। तो मुख से निकलता है सः ।
तो
सांस लेने और छोड़ने में निकलता है हं सः
इसी
हंस कहते है जहाँ से यह निकलता है उसे हंस प्रदेश।
अच्छा
अब जब बोलते हो तो मुख से हवा निकलती भी है।
तो
इसका उल्टा करो। सः हं ।
सन्धि
विच्छेद। सः + हं = सोअह्म।
यानी
मानव सांस छोड़कर अपना परिचय ड्ता है तो कहता है सोअह्म। जब प्राण निकलते है तो
सांस अंदर नही आती। यानी सोअह्म उस ब्रह्म में विलीन हो गया।
यह
है अजपा जप।
क्रोध से विवेक का नाश होता है। जिससे बुद्धी नष्ट हो
जाती है और मनुष्य मतिमूढ़ होकर कार्य कर बैठता है जो निंदा का पात्र बन जाता है।
आलोक इस तरह के कट पेस्ट से बचो। यार अनुभव की बात ही
पोस्ट करो।
मित्रो यह पापी भी मेरा इंजीनियरिंग का बैच मेट है।
दिल्ली में उद्योगपति है।
मित्रो बाल गीतों की यह पुस्तक, जिसके कुछ गीत तो बेहद अनूठे है। जिसमे महापुरूषो सन्तो और प्रकृति की कुल
51 कविताएं दी है। आज छपकर आ गई।
यदि आप इसको प्राप्त करना चाहते है और अपने नौनिहालों
को प्रकृति और देश प्रेम के साथ अच्छे संस्कार देना चाहते है तो इस पुस्तक की
कविताएं बच्चों को याद करवाये।
मेरा दावा है आपका बच्चा विद्यालय में पुरुस्कार तो
अवश्य जीतकर लाएगा।
फ़ॉर कलर चित्रों युक्त इस पुस्तक का मूल्य मात्र 125 रुपये है।
जी इस पुस्तक का आरम्भ आध्यात्मिक ज्ञान से ही हुआ
है। बच्चों को संस्कारी कैसे बनाये। इस पर भी चर्चा है। यह पुस्तक बच्चों में भारतीय
संस्कार, देश प्रेम और प्रकृति से प्रेम करना
सिखाएगा।
जो व्यक्ति प्रकृति से प्रेम नही करता। वह आध्यात्मिक
हो ही नही सकता।
मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसके पूर्व जन्म के
संस्कार चित्त में संग्रहित होकर साथ चले आते है। यह संस्कार कर्मफल भी होते है और
कर्म के प्रति लालसा का भी परिणाम होते है। मनुष्य इन संस्कारों को विहीन किये
बिना मुक्त नही हो सकता। प्रायः विभिन्न साधनाओ के द्वारा यदि कुण्डलनी जग जाए तो
यह संस्कार क्रिया रूप में पुनः उदित होते है और क्रिया कर नष्ट हो जाते । परन्तु अज्ञानी
साधक इन कर्मफलों को भोगने में पुनः कर्म या कर्मफल के प्रति आसक्त होकर संस्कार
का बीज पैदा कर डालता है। जिसे भोगने के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है।
अतः पातञ्जलि ने कहा। जब तक योग होगा मुक्ति न होगी।
योग कब होगा जब "जब चित्त में वृत्ति का निरोध हो जाएगा। यानी हमारे अंदर
निष्काम कर्म होगा। यानी कर्म योग होगा। और यह भी कब होगा जब हम ज्ञान योग को
प्राप्त होंगे।
मजे की बात यह भी कब होगा। जब हम भक्ति योग जैसे
सुंदर सस्ते टिकाऊ मार्ग पर अनन्य भाव से चलते जायेगे।
अन्य मार्ग भी है पर भक्ति मार्ग सबसे सरल होता है।
देव जी। मैं खोजी हूँ। बिना बात या अनुभव के अनुभूति
के कोई तर्क नही करता हूँ। क्योकि सिर्फ किताबी ज्ञान बहस से मैं दूर भागते हूँ।
बस इतना ही।
अन्तररमुखी होने की सभी विधियाँ आप मेरे ब्लॉग पर देख
सकते है।
यही अनुभूति आगे भृमित कर मनुष्य को गिरा भी देती है।
क्योंकि मनुष्य फिर ज्ञान बांटने के चक्कर मे बिना परम्परा का गुरू प्रवचक इत्यादि
बन कर पतित हो जाता है। जो नही फंसता वही आगे निकल पाता है। पर अधिकतर स्वघोषित
गुरू बनकर आश्रम चेले इत्यादि की गिनती कर पतित हो जाते है।
यही अनुभूति माहामाया का अंतिम फंदा है जिससे बचना
सिर्फ गुरू कृपा से या अनन्य भक्ति से हो पाता है। माहामाया से सिर्फ महामाया ही
बचा सकती है।
चूंकि मनुष्य के भोजन का प्रभाव उसके विचारों पर पड़ता
है। अतः सात्विक भोजन ही खाना चाहिए।
यदि आप अवधूत हो गए तैलंग स्वामी की तरह तो बात अलग
है।
पर आध्यात्मिक उत्थान हेतु मांस यानी शव का भक्षण नही
करना चाहिए यह वर्जित है।
हा वामाचारी मार्ग पर इसके द्वारा तो अनुष्ठान ही
होता है।
पर भक्तिमार्ग पर हिंसा बिल्कुल वर्जित है।
जब हमारी ऊर्जा का व्यय बन्द हो जाता है तो हम बिना
खाये भी रह सकते है।
यदि आस पास झींगुर नही तो यह नाद है। यार तुम तो पहले
से अन्तर्मुखी हो। बस भटक रहे हो।
यदि मनुष्य देहभान के बाहर रहता है तो केवल धीमी
श्वास हेतु ही ऊर्जा खर्च होती है। अतः मनुष्य लम्बे समय तक बिना खाये रह सकता है।
बिल्कुल गलत। पाप का फल भोगना ही पड़ता है। यह सब
दुकानदारों के चोचले है।
यार तू बेकार की जिद्द किये बैठा है तू गुरू से बात
भी कर चुका है। वे तुझे स्वप्न में फिकहे भी थे। पर तू हठ कर रहा है।
मैं बोल तो रहा हूँ मूर्खाधिराज। तुम सुनते कब हो।
मित्रो आप लोग अधिकतर लोगो को नही जानते है। अतः
प्रयास व्यर्थ रहता है।
श्री अली पूर्व जन्म के बड़े योगी थे। किसी पापकर्म से
मुस्लिम हो गए है। इनके इस जन्म के अनुभव भी बड़े बड़ो को नही होते है।
देखिये उनको दूसरे दिन ही बिस्कुट इत्यादि पहुचा दिए
गए थे।
आक्सीजन का स्तर 15 प्रतिशत हो गया था। जिसके नीचे आदमी कोमा में जा सकता है। अतः सिलिंडर भी
पहुँचा दिए गए थे।
बच्चों ने निरन्तर मन्त्र जप के साथ ध्यान किया।
मन्त्र था।
बुध्दम शरणम गच्छामि।
मन्त्र जप से धीरे धीरे ध्यान लगता है साथ ही कम आक्सीजन
ध्यान गहरा कर देती है क्योंकि कोमा की तरफ मनुष्य जाता है। पर जप से जागृति रहती
है।
अतः गुफा में लोग तप करते है। जहां कम ऊर्जा खर्च
होती है क्योंकि ऊष्मा का ह्वास नही होता है।
मित्र यह सब वैज्ञानिकी है। खाया हुआ केवल 7 प्रतिशत तक ही अधिकतम प्रयोग होता है बाकी विष्ठा।
यह सब शरीर की मेटाबोलिज्म पर निर्भर करता है।
शुक्ल जी कृपया ग्रुप की परीक्षा न ले। आप काफी कुछ जानकर
है। अनावश्यक पोस्टो को उत्साहित न करे। बेहतर है अपने अनुभव बताये ताकि ग्रुप को
मालूम पड़े और फायदा हो।
इस ग्रुप में अनुभवित लोगो को जो कुछ ऐसे अनुभव करते
है कि डर कर अपनी आराधना बन्द कर देते है या भृमित होते है। उनको मार्गदर्शन किया
जाता है।
केवल अनुभव की बाते पोस्ट होती है।
गुड़ मानिग इवनिग सन्देश वर्जित है। कोई भाई चारा
बढ़ाना भी उद्देश्य नही। सदस्य व्यक्तिगत सन्देश से सम्बन्ध बना सकते है।
अपनी चिंता करो। सामनेवाले की नही। क्या दुकान खोलना
है।
मतलब सामनेवाले के बारे में जानकर क्या मिलेगा।
जिनको धर्म की दुकान खोलना है जबरिया गुरू बनना है। प्रवचक
बनना है। वह यह सब तकनीकियों से मुर्गे
फँसाते है।
यह तो आप ही जान सकते है।
आपकी मनोदशा क्या रहती है।
क्या सर में नशा रहता है।
क्या भूख लगती है।
क्या सोते रहने का मन करता है।
बिल्कुल सही। भोजन छोड़ना कोई महानता नही प्रभु
प्राप्ति हेतु।
तुम्हारे हाथ मे कुछ नही कि तुम कुछ भी बन सको। सिर्फ
साधन और मन्त्र जप तुम्हारे हाथ मे है।
देखो मित्र सबके अनुभव अलग अलग होते है।अतः सब पर यह
नियम लागू नही होता।
यह पूर्णतयः सत्य है। किंतु मैं तो यह ही समझ पाया सब
ईश कृपा होती है। माया का प्रहार होता है कि हम बह जाते है। ईश कृपा से बच जाते है
ईश कृपा से ही नष्ट हो जाते है। हम व्यर्थ ही बहस करते है। सत्य तो यह है सब नाटक
है हम बस उस नाटक के पात्र है। नचानेवाला तो वह ही एक है।
अतः न कोई अहंकार करता है और न कोई मूर्ख है। सब उसी
का खेल है। हम बस माया के अधीन मोहरे है।
सिर्फ माया की माया से ही हम उस माया के बंधन से
मुक्त हो सकते है।
अतः एक ही मार्ग अपने को समर्पित करने की कोशिश करो।
मन्त्र जप साधन। वैसे सब उसी की इच्छा। हम भी बकवास कर रहे है।
शायद। सब हमारा ही लेखा जोखा है।
परन्तु यह जानना ही तो ज्ञान है।
देखो किसी भी बात का अनुभव महत्व रखता है। लिखा हुआ
नही।
नही तो हम दुख में दुखी सुख में सुखी हो जाते है
हमे एक पत्थर की भांति जगत की धारा को दृष्टा भाव से अविचलित
हुए देखने का स्तर जब मिले। तब समझो यह वाणी सत्य। अन्यथा असत्य।
पर हम यह भी कहा रह पाते है। तुम अपने को देखो। तुम
खुद किंतने उत्तर देने का प्रयास करते हो।
सब किताबी बाते अलग होती है। अनुभव की अलग।
तुम्हारी बात कोई न माने तुम क्रोधित हो जाते हो।
यहाँ तक तुम ईश को भी गाली देने लगते हो।
यह तुम जानते हो पर सामने वाला तो कुछ और सोंचता है।
बस इसी प्रकार अंनय बाते है।
अतः अपने को देखो। जगत को देखना बन्द करो। इसी में
कल्याण है।
देखा। मतलब तुम्हारी बाते सिर्फ सुनी हुई।
इसका कोई मतलब नही।
सही है। सब उसी का रूप। पर यह तुम्हारे सिर्फ तार्किक
शब्द है
सतः संगति सत्संगति कथ्यते। अर्थात सज्जन पुरुषों की
संगति ही सत्संगति है।
प्रथम भगति सन्तन के संग। दिव्तीय भक्ति कथा प्रसंगा।
नवधा भक्ति तुलसीदास।
करते रहो। सीट फूल रहती है। वेटिंग लिस्ट लंबी।
मानो भाई तुम्हारी मर्जी।
बस ईश को atm मत समझो और न ही
बियरर चेक।
जी क्रिया आंख खोलकर बिना ध्यान के भी हो सकती है।
जिसे गुरू नियंत्रित करना सिखाता है।
यार यह तो आप ही सोंच सकते है। मैं कैसे बताऊँ। क्या
आप बिना विचार के सब देखते है तो दृष्टा भाव है।
यह सबसे अच्छा है। यदि आपकी बुद्धि प्लेन है। उल्टे सीधे
षडयंत्रो से मुक्त है। आप झूठ नही बोलते तो ईश कृपा जल्दी होती है।
कभी भी बहुत चतुर स्याना व्यक्ति ईश को प्राप्त नही
कर सकता। धूर्त और झूठा तो कभी नही।
लोग तर्क जीतने के लिए झूठ का सहारा लेते है।
हमेशा जो ह्रदय है वो ही बाहर रखो।
मन मे कुछ जीभ पर कुछ है तो कभी प्रभु कृपा न मिलेगी।
गधे सी बुध्दि ही ईश्वर को प्रिय है। घोड़े या सियार
की नही।
देखिये ये दो कारण है। पहला मेडिकल कभी कभी किसी शिरा
के पंचर होने पर रक्त रंग दिखता है। और यह अक्सर या हमेशा दिखे तो डॉक्टर को
दिखाए।
दूसरा यदि आप मूलाधार पर ध्यान करते है तो यह रंग दिख
सकता है।
यदि यह कभी यदा कदा दिखे फिर बदल जाये भगवा या नीला
या श्वेत तो आद्यायात्मिक और ध्यान है।
आप स्पष्ट बताये टुकड़ो में नही।
इनकी चमक कैसी है।
चमकीला या सादा
आप ध्यान कैसे करते है।
क्या आप चक्र साधना करते है।
मतलब आप क्या और कैसे करते है। कुछ तो करते होंगे।
तोता।
मतलब खुली आँखों से रंग दिखते है।
जब बन्द रहती है तो ध्यान हुआ न।
सोती रहती है या जगती रहती है
आप mmstm करे। सब खुल कर
बाहर आ जायेगा।
यह आवश्यक नही। लेट कर भी ध्यान होता है।
आप महाआलसी की श्रेणी में आ चुकी है। आप आध्यात्मिक
भी नही है हा थोड़ा बहुत रंग दिखना कोई महत्व नही रखता। यह प्रारम्भिक का प्रारम्भिक
लक्षण है।
वैसे पता नही क्यो मुझे बुरा नही लगा। न प्रशंसा में
आनन्द आता है और न अपमान में क्रोध।
यह जीवन बस चलते जाना है यही लगता है।
न कुछ इच्छा। न किसी से मोह। न कोई मित्र लगता है। न
कोई शत्रु। किसी को कटु बोलने में झिझक नही होती । किसी के प्रति शत्रुता की भावना
नही आती।
जोड़ लो यार। बोलने दो। भड़ास निकलनी भी जरूरी है।
मुझ कोई असर नही। चिकना घड़ा हो गया हूँ।
मुझे कोई दुकान तो चलानी नही। चेले चपाडे भी नही
बनाने है। अतः क्या अंतर पड़ता है। उनसे बोलो और बताये। उनको उत्साहित करो। शायद उनका
उपचार हो जाये।
वैसे सब प्रभु कृपा ही है। मुझ जैसे क्रोधी मूर्ख शठ
और नीच पापी पर इतनी दया करते है। माँ जगदम्बे की दया करुणा से ही जिंदा हूँ। भूख
प्यास क्रोध कुछ भी बर्दाश्त नही। न ध्यान न पूजा न जप न तप कुछ नही आता। पर माँ
तो माँ है जो हमेशा दया करती है बच्चों पर। वो ही मेरे जैसे नालायक बेटे को संभाल
रही है। कभी गुरू बनकर कभी पत्नी बनकर कभी कोई बनकर।
उस माँ की महिमा निराली है। महाआलसी तो मैं हूँ।
अन्य एडमिन । धीरे धीरे यह ग्रुप कट पेस्ट किताबी
ज्ञान का ग्रुप बन रहा है। आप सब इसके निवारण के उपाय बताए।
माता जी से मुझे मेरा भविष्य जानना है। क्या मेरा
सनातन के प्रचार का लक्ष्य पूरा होगा।
वैसे आत्मा भी सुखी और दुखी होती है यह मुझे पता न
था। मुझे तो पता था यह बुद्दी और मन का खेल है। आत्मा तो निश्छल प्रभावहीन होती है।
चलो मेरी छुट्टी सार्थक हो रही है कुछ नया मालूम पड़
रहा है।
मुझे तो सिर्फ यही पता था कि आनन्द मनुष्य का मूल रूप
है। आत्ममय कोष के ऊपर आनन्दमय कोष होता है। जहाँ पहुँच कर मनुष्य आनन्द में स्थिर
हो जाता है। पहले अन्नमय कोष फिर प्राणमय फिर मनोमय फिर बुद्दीमय फिर आत्ममय फिर
आनन्दमय। जिसमे पीड़ा हर्ष सिर्फ बुद्दीमय कोष तक ही महसूस होता है।
सत्य वचन।
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।
मैं तो एक गधा हूँ। माता जी जिधर हांकती है चल देता
हूँ। भला गधे के भी दिमाग होता हैं क्या।
लाभ यश हानि मरण सब विधना के हाथ।
प्रायः लोग बोलते है कि मैं अपने बाप की बात नही
मानता। मरने के बाद बाप का भी पता नही पर वह होता है। हमें विज्ञानी खोजी बनना चाहिए।
किसी की बातों पर नही किताबो पर नही। सिर्फ अपने अनुभव पर यकीन करना चाहिए पर हम
केवल सुनी सुनाई बातो पर ही यकेँ कर ज्ञानी बनने की कोशिश करते है । जो मात्र
मूर्खता ही है। इसी कारण मैंने कहा अग्निवेश भले ही अच्छा समाज सेवक हो पर है वह
गधा क्योकि वह जो नही जानता उस पर टिप्पणी करता है।
क्या आप दिल से ईश की शक्ति का अनुभव अपने घर पर बिना
गुरू करना चाहते है। यदि कोई पागल या शठ नही, चाहे नास्तिक हो या आस्तिक,
मुस्लिम हो या ईसाई उसे ईश की अनुभूति होगी।
यदि तैयार हो तो इस लिंक पर जाओ और अपनी इच्छानुसार
विधि चुन कर अपने घर पर प्रयोग आरम्भ करो। mmstm moving mind scientific techniques
for meditation or सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि यह विधि देख लो।
https://freedhyan.blogspot.com/
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी