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Tuesday, August 6, 2019

“श्रीरुद्राष्टकम्” हिंदी काव्य

“श्रीरुद्राष्टकम्”   हिंदी काव्य

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


तुलसीकृत इस स्तुति को काव्यांतर करने हेतु कुछ शब्दो को जोड़ा भी गया है।

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥ 


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् । 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥

हे मोक्ष रूप, हे सर्वव्याप्त, हे ब्रह्म सदा तेरा वंदन।
हे वेद स्वरूप,  ईशान प्रभु, सबके स्वामी शिव का वंदन॥ 
हे निजस्वरूप, गुण भेद रहित, तुमको सदा हम नमन करते। 
जो इच्छारहित चेतना और चिद आकाश निवास भजन करते॥ 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् । 
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥

जो निराकार है ओमकार,  है गुणातीत तुरीय रहता। 
उस वाक् ज्ञान इंद्री से परे,  ईशो के ईश नमन करते॥
गिरि ईश बना है महाकाल है महाकृपाल नमन करते।
है गुणनिधान भव सागर तरे नतमस्तक सभी भजन करते॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् । 
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥

हिमराज समान गम्भीर सदा, आकाश समान विशाल धरा।
हरमन  स्वामी करोड़ो प्रात: सम ज्योति रूप नमन करते॥
जिनके सिर गंगा जटा भटक है चंद्र सदा ही नमन करते॥
शोभित हो बाल चंद्र सदा धर कंठ सदा हम भजन करते॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् । 
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥

जिनके कर्ण कुण्डल नेत्र विशाल शोभित धनु समान भृकुटी।
जो प्रसन्नसदा हर्षित रहते,  नीलकण्ठ  दयालु नमन करते॥
सिंह चर्म वस्त्र मुण्डमाल गले उस दीन दयाल नमन करते।
सबके प्यारे जग के स्वामी प्रभु शंकर का हम भजन करते॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् । 
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥


जिन महातेज  प्रचंड सदा है परमेश्वर उसको भजते।
सदा अजन्मा अखंड सदा कोटि सूर्य प्रकाश नमन करते।
त्रिशूलधारी सब ताप हरे त्रै शूल निवारण जो करते।
भक्तभाव वश भवानीपति उनका सदा हम भजन करते॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी । 
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥


कल्याण स्वरूप प्रलयकर्ता जो रहे सदा कलाओं से परे।
जो सदा सज्जन आनन्द देते अरि त्रिपुर का दमन जो करे॥


सत् चित्त आनंद संदेह हरे जो भक्त ह्रदय सब मोह हरते॥
मन को अब मथ डालो प्रभु हो जाओ प्रसन्न हम भजन करते॥  

 

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् । 
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥


जब तक भक्त भवानीपति श्री शंकर चरण को न भजते।
तब तक भक्त इस लोक नहीं परलोक कभी सुख न वरते॥
न ही कष्ट हमारे कटते हैं न शांति हमें कुछ मिलती है।
हे सुखदाता ह्रदयनिवासी तेरा सदा ही भजन करते॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् । 
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥


नही जप का कोई ज्ञान हमें नही योग पता न पूजन क्या।
हे शिव शम्भु दीनहीन विपुल तुझको सदा ही नमन करते॥
हम दु:ख से पीड़ित वृद्ध हुये हैं काम क्रोध सदा जलते।
हे प्रभु विपुल रक्षा करना हम मूर्ख सदा तुझको भजते॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । 
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

 प्रभुदास विपुल शिवोमगुरो नित्यबोधानंदनं सर्वदा।
मातृकालिके गंसहायकं नम: देवाधिदेव॥


यह रूद्राष्टक छंद सदा निज भक्ति भाव जो गायेगा।
है तुलसीदास का वास्ता प्रभु मनवांछित वो पायेगा॥

प्रभुदास विपुल शिवोम् गुरू नित्यबोधानंद सदा रहते।
माता काली सहाय गणेश देवाधिदेव नमन करते॥ 

 

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं दास विपुल काव्यानुवादकम् श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥



 
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Monday, August 5, 2019

यह छप्पन इंची सीना है। काव्य

यह छप्पन इंची सीना है। काव्य


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
   vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

यह छप्पन इंची सीना है।

दुश्मन को छूटे पसीना है॥

छोटा मोटा हीरा नहीं है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


जो बोला वह कर के दिया।

देश की खातिर वो है जिया॥

सर्वस्य अपना देश को देकर।

देशप्रेम हेतु जीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


राष्ट्र द्रोही की खैर नहीं अब।

देश विरोधी हार गये सब॥

एक वैरागी एक संन्यासी।

गरल देश का पीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


कितने नेता आये गये।

देश को लूटा खाये गये॥

बने गुलाम विदेशी के।

तलवे धोकर पीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


परिवारों को पूजा किये।

देश को लंगड़ा लूला किये।

कुत्तों को सब मार भगाया।

मोदी का यह पसीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


कलम विपुल की बोली है।

यह जयकारा डोली है॥

जुग जुग जियो मोदी राजा।

बरसों तुमको जीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


निर्वाण षट्कम नहीं निर्वाण सप्तकम् (काव्यात्मक)

   निर्वाण षट्कम नहीं निर्वाण सप्तकम् (काव्यात्मक)


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

आदिशंकराचार्य लिखित  इस स्तुति को काव्यांतर करने हेतु कुछ शब्दो को जोड़ा भी गया है। 



मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥

                                      न तो मन या बुद्धि ही हूं मैं। 

                                      अहंकार चित्त कदापि नहीं हूं॥  


                                      न मैं कर्ण हूं नही मैं जिव्हा। 

                                      नाक या नेत्र कदापि नहीं हूं॥


                                      न तो मैं हूं आकाश, धरती।

                                      अग्नि या वायु कदापि नहीं हूं॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥

 
                                     न ही प्राण  रूप मेरा कोई है।

                                     नहीं  पंच प्रकार की कोई वायु।


                                     न सात धातु मिश्रण ही समझो।

                                     न पंचकोष शरीर ही जानो॥ 


                                     न मैं हूं वाणी न हाथ न पैर।

                                     न  उत्‍सर्जन इन्द्री मुझको मानो॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

  न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥

                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।


                                     न मैं द्वेष न रागों में बसता।

                                     न लोभ कोई मुझे है डसता॥


                                     न मैं मद न ईर्ष्या वरे हूं।

                                     मैं धर्म काम मोक्ष परे हूं॥ 

 

                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

 

पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं   नैव   भोज्यं न  भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥

                                     न पुण्य का कोई लेखा जोखा।

                                     न पापों की गठरी मैं हूं कोई॥


                                     न मैं सुख अथवा न मैं दुख हूं।

                                     न मंत्र,  तीर्थ,  ज्ञान  या यज्ञ हूं॥


                                     न मैं भोगने की वस्‍तु कोई।

                                     न भोग अनुभव न कोई भोक्ता॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥

                                     न मृत्यु का कोई भय है मुझको।

                                     न जाति न भेद भाव है कोई॥


                                     न मेरे मात न कोई पिता है।

                                     कोई न भाई न कोई सखा है॥


                                     न गुरू कोई दिखता जगत में।

                                     न शिष्य कोई जग में है दीखे॥ 


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र  सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः  शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥


                                     न कोई जग में विकल्प है मेरा

                                     मैं हूं निराकार न रूप कोई।


                                     मैं सर्वव्यापी चैतन्य रूप हूं।

                                     सब इंद्रियों में मैं हूं उपस्थित॥


                                     समत्व का भाव सदा साथ मेरे।

                                     न कोई बंधन न मुक्त है स्थित॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                    आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

 

       ॥  इति श्रीमच्छशंराचार्य विरचित दास विपुल काव्यानुवादम् 
श्री निर्वाण षट्कम्  सम्पूर्णम् ॥

 यह श्लोक मैंनें जोड़ने का प्रयास किया है। संस्कृत के ज्ञानीजन विचार बतायें।

न यञो न अग्निर्न काष्ठ न समिधा। नच सूर्य तेजो न दीप्त न ताप:॥
अहं न क्षुधा न जलं पिपाषा। चिदानन्द रूप: शिवोहं शिवोहम॥

न मैं यज्ञ हूं न हूं मैं अग्नि।

लकड़ी या समिधा कदापि नहीं हूं॥

नहीं सूर्य तेज से निर्मित बना हूं।

न ज्वाला न ताप से हूं मैं जन्मा।

न मैं हूं भूख न भूख से जन्मा।

न प्यास हूं मैं और जल भी नहीं हूं॥

मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

आदि अनादि अनंत शिवा मैं॥



                                 






MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Sunday, August 4, 2019

ईसाईयत में छूआछूत और जाति भेद चरम पर

ईसाईयत में छूआछूत और  जाति भेद  चरम पर


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"



मध्यकाल में जो भी भारतीय लालची डरपोक या कायर थे वे इस्लाम और ईसाइयत  स्वीकार कर  रहे थे। 

बाद में दलित छुआछूत के कारण हिंदू धर्म को त्याग कर और कुछ लालच के साथ बेहतर जिंदगी  के लिये ईसाइयत में चले गये अथवा इसके अतिरिक्त भय के कारण इस्लाम में चले गये। लेकिन प्रसिद्ध महापुरूष डा भीमराव अम्बेडकर ने इनको न चुना बल्कि भारतीय सनातन की एक शाखा बौद्ध को चुना। आखिर क्यों ???  क्योकिं वे विद्वान होने के साथ देश भक्त और दूरदर्शी थे।  किंतु दु:खद यह है कि उन्ही को माननेवाले मात्र उनके नाम पर फायदा लेना चाहते है। किंतु उनका अनुकरण कर उनकी बातों को बिल्कुल नहीं मानते। वे जानते थे  एक मात्र बौद्ध अनुयायियों में छूआछूत लगभग नगण्य है बाकी सभी धर्मों में यह एक विकराल समस्या है। वे जानते थे ऊंच नीच का दंश उनको हर धर्म में झेलना पडेगा।


जब आप “जाति प्रथा” का नाम सुनते हैं, तब आपके मन में क्या आता है? शायद आप भारत और ऐसे लाखों लोगों के बारे में सोचते हैं जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हैं। हालाँकि जाति प्रथा हिंदू धर्म का भाग है, फिर भी निम्न जातियों और अजातियों पर इसके जो प्रभाव हुए हैं उनको दूर करने के लिए हिंदू सुधारकों ने संघर्ष किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, आप क्या कहेंगे यदि आप सुनें कि मसीही होने का दावा करनेवाले गिरजों में भी जाति प्रथा प्रचलित है?

लोगों का सामाजिक वर्गों में विभाजन, जिसमें कुछ लोग अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं, ऐसा नहीं कि सिर्फ भारत में हो। सभी महाद्वीपों पर एक-न-एक रूप में वर्ग भेद हुआ है। भारत की जाति प्रथा इसलिए भिन्‍न है कि ३,००० साल से पहले, यहाँ सामाजिक दमन की एक प्रक्रिया धर्म का भाग बन गयी।


हालाँकि जाति प्रथा के आरंभ के बारे में निश्‍चित रूप से नहीं कहा जा सकता, फिर भी कुछ विद्वान कहते हैं कि इसकी जड़ें सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यता में हैं जो आज के पाकिस्तान में स्थित थी। पुरातत्त्व-विज्ञान संकेत देता है कि वहाँ के आरंभिक निवासियों को बाद में उत्तर-पश्‍चिम की जनजातियों ने जीत लिया था, और सामान्य रूप से इसे “आर्य आगमन” कहा जाता है। अपनी पुस्तक द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जवाहरलाल नेहरु इसे “पहला बड़ा सांस्कृतिक संमिश्रण और समेकन” कहता है, जिसमें से “भारतीय जातियों और मूल भारतीय संस्कृति” का जन्म हुआ। लेकिन, इस समेकन से जातीय समानता परिणित नहीं हुई।


दी न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “भारतीयों के अनुसार अंतर्विवाह के कारण (जो धर्म के बारे में हिंदू रचनाओं में वर्जित है), चार वर्गों या वर्णों के पुनःविभाजन से जातियों (अक्षरशः ‘जन्म’) का फैलाव हुआ है। लेकिन, आधुनिक सिद्धांतवादी अकसर यह अनुमान लगाते हैं कि जातियाँ पारिवारिक रीति-रिवाज़ों, जातीय भिन्‍नताओं, और पेशा-संबंधी भिन्‍नताओं तथा विशेषताओं के कारण बनीं। अनेक आधुनिक विद्वान इस पर भी संदेह करते हैं कि सरल वर्ण प्रथा कभी एक सैद्धांतिक सामाजिक-धार्मिक आदर्श से अधिक थी या नहीं, और उन्होंने इस पर ज़ोर दिया है कि लगभग ३,००० जातियों और उपजातियों में हिंदू समाज का अति जटिल विभाजन संभवतः प्राचीन समय में भी था।”


कुछ समय तक जातियों के बीच अंतर्विवाह होते थे, और त्वचा के रंग पर आधारित पुरानी पूर्वधारणाएँ कम हो गयीं। जाति को नियंत्रित करनेवाले सख्त नियम बाद में विकसित हुए। वे वैदिक शास्त्रों और हिंदू ऋषि, मनु की संहिता (या नियमावली) में बताये गये। ब्राह्मणों ने निजी स्वार्थ हेतु सिखाया कि उच्च जातियाँ उस शुद्धता के साथ जन्मी हैं जो उन्हें निम्न जातियों से अलग करती है। उन्होंने शूद्र, या निम्नतम जाति के लोगों में यह विश्‍वास बिठा दिया कि उनका छोटा काम उनके पिछले जन्म के बुरे कामों का परमेश्‍वर-नियुक्‍त दंड है और जाति बंधन को तोड़ने का कोई भी प्रयास उन्हें अजाति बना देगा। अंतर्विवाह, अंतर्भोज, एक ही जगह से पानी भरना, या उसी मंदिर में प्रवेश करना जिसमें शूद्र जाता है उच्च जाति के व्यक्‍ति को अजाति बना सकता है।


जबकि वेद, उपनिषद, षट्दर्शन या शास्त्र कहीं भी जाति भेद की बात नहीं करते। यह मात्र कुछ स्वार्थी और विरोधी लोगों के मन की ही उपज है। 

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वर्ष १९४७ में स्वतंत्रता पाने के बाद, भारत की धर्म-निरपेक्ष सरकार ने एक संविधान बनाया जिसमें जाति भेद को दंडनीय अपराध बनाया गया। यह स्वीकार करते हुए कि सदियों से निम्न-जाति हिंदुओं का दमन हुआ है, सरकार ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी और निर्वाचित पदों साथ ही शैक्षिक संस्थानों में सीटों के आरक्षण का कानून बनाया। इन हिंदू समूहों के लिए “दलित” नाम प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ है “कुचला हुआ।”


लेकिन हाल में एक अखबार की सुर्खियों में आया: “दलित ईसाई आरक्षण (नौकरी और विश्‍वविद्यालय कोटा)  की माँग करते हैं।” यह स्थिति कैसे आयी?


निम्न-जाति हिंदुओं को जो अनेक सरकारी लाभ दिये जाते हैं वे इस तथ्य पर आधारित हैं कि उन्होंने जाति प्रथा के कारण अन्याय सहा है। सो यह तर्क किया गया कि जिन धर्मों में जाति प्रथा का चलन नहीं है वे इन लाभों की अपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन, दलित ईसाई कहते हैं कि वे निम्न जाति के अथवा अछूत धर्मांतरित हैं, इसलिए वे भी भेदभाव सह रहे हैं। यह भेदभाव वे केवल हिंदुओं से नहीं, बल्कि अपने ‘संगी ईसाइयों’ से भी सह रहे हैं। क्या यह सही है?

उपनिवेशी समय में कैथोलिक और प्रोटॆस्टॆंट धर्म के पुर्तगाली, फ्रांसीसी, और ब्रिटिश मिशनरियों ने अनेक हिंदुओं को धर्मांतरित किया। हर जाति के लोग नाममात्र के ईसाई बन गये। कुछ प्रचारकों ने ब्राह्‍मणों को आकर्षित किया, दूसरों ने अछूतों को। जाति भेद में लोगों के गहरे विश्‍वास पर मिशनरियों की शिक्षा और आचरण का क्या प्रभाव हुआ?


भारत में ब्रिटिश लोगों के बारे में लेखक नीरद चौधरी कहता है कि गिरजों में “भारतीय कलीसिया यूरोपीय लोगों के साथ नहीं बैठ सकती थी। मसीहियत में जातीय श्रेष्ठता का वही भाव दिखा जिस पर भारत में ब्रिटिश राज्य टिका हुआ था।” ऐसी ही मनोवृत्ति दिखाते हुए, १८९४ में एक मिशनरी ने अमरीका के बोर्ड ऑफ फौरन मिशन्स को रिपोर्ट दी कि निम्न जाति के लोगों को धर्मांतरित करना “चर्च में कूड़ा-करकट इकट्ठा करना” हुआ।


मिशनरियों में जातीय श्रेष्ठता की भावना और ब्राह्‍मणी विचार का चर्च शिक्षाओं के साथ मिश्रण ही मुख्यतः इसका ज़िम्मेदार है कि आज भारत में अनेक तथाकथित मसीहियों के बीच खुलकर जाति प्रथा का पालन हो रहा है।

कैथोलिक आर्चबिशप जॉर्ज ज़र ने १९९१ में भारत में कैथोलिक बिशप्स कॉनफ्रॆंस को संबोधित करते हुए कहा: “अनुसूचित जाति के धर्मांतरितों के साथ न केवल उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा बल्कि उच्च जाति के ईसाइयों द्वारा भी निम्न जाति के जैसा व्यवहार किया जाता है। . . . गिरजों और कब्रिस्तानों में उनके लिए अलग स्थान रखे जाते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। . . . पादरियों के बीच जाति प्रथा व्यापक है।”


युनाइटॆड प्रोटॆस्टॆंट चर्च, चर्च ऑफ साउथ इंडिया के बिशप एम, ऎज़राया ने अपनी पुस्तक भारतीय चर्च का अ-मसीही पहलू (अंग्रेज़ी) में कहा: “इस प्रकार विभिन्‍न गिरजों में अनुसूचित जाति (दलित) ईसाइयों से उनकी अपनी किसी गलती के कारण नहीं, परंतु उनके निम्न जाति में जन्म लेने के कारण संगी ईसाइयों द्वारा भेदभाव रखा जाता है और उनका दमन किया जाता है। ऐसा तब भी होता है जब वे दो, तीन, या चार पीढ़ी पहले ईसाई बने थे। उच्च जाति के ईसाई जो चर्च में अल्पसंख्यक हैं पीढ़ियों बाद भी अपनी जाति पूर्वधारणाएँ बनाए रखते हैं। वे मसीही विश्‍वास और व्यवहार से अप्रभावित हैं।”


मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध, भारत में पिछड़े वर्गों की समस्याओं की एक सरकारी जाँच ने पाया कि केरल के तथाकथित ईसाई “अपनी जाति पृष्ठभूमि के आधार पर विभिन्‍न नृजातीय समूहों में” विभाजित हैं। “धर्मांतरण के बाद भी, निम्न जाति के धर्मांतरित लोगों के साथ हरिजन* की तरह व्यवहार किया जाता है . . . एक ही चर्च के सिरियन और पूलाया सदस्य अलग-अलग होकर अलग-अलग इमारतों में धार्मिक संस्कार करते हैं।”


अगस्त १९९६ में इंडियन ऎक्सप्रॆस की एक समाचार रिपोर्ट ने दलित ईसाइयों के बारे में कहा: “तमिल नाडु में, उनके निवास उच्च जातियों से अलग हैं। केरल में, वे ज़्यादातर भूमिहीन मज़दूर हैं, और सिरियन ईसाइयों तथा उच्च जातियों के दूसरे भूमिधरों के लिए काम करते हैं। दलितों और सिरियन ईसाइयों के बीच अंतर्भोज या अंतर्विवाह का प्रश्‍न ही नहीं उठता। अनेक मामलों में, दलित अपने गिरजों में उपासना करते हैं, जिन्हें ‘पूलाया गिरजा’ या ‘पाराया गिरजा’ कहा जाता है।” ये उपजाति नाम हैं। “पाराया” का अंग्रेज़ी रूप है PARIAH (अछूत)।


ईसाई शोषण विरुद्ध मंच (FACE) जैसे जन-सुधारक समूह, ईसाई दलितों को सरकारी लाभ प्राप्त करवाने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्य चिंता है ईसाई धर्मांतरितों के लिए आर्थिक सहायता। लेकिन, दूसरों को इसकी चिंता है कि चर्च के अंदर कैसा व्यवहार किया जाता है।

पोप जॉन पॉल द्वितीय को एक पत्र में, करीब १२० हस्ताक्षर-कर्ताओं ने कहा कि उन्होंने “जाति प्रथा से मुक्‍त होने के लिए मसीहियत अपनायी” थी लेकिन उन्हें गाँव के गिरजे में न तो प्रवेश करने दिया जाता है और न ही सभाओं में हिस्सा लेने दिया जाता है। उन्हें एक ही सड़क किनारे घर बनाने के लिए मजबूर किया गया जहाँ न तो कोई उच्च-जाति ईसाई—और न ही पैरिश पादरी—कभी कदम रखता है! इसी तरह परेशान एक कैथोलिक स्त्री ने कहा: “मेरे लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि मेरा बेटा किसी अच्छे कॉलॆज में पढ़े। लेकिन यह उससे भी महत्त्वपूर्ण है कि उसके [कैथोलिक] भाई उसे बराबर का समझें।”


जबकि कुछ लोग दलित ईसाइयों की स्थिति सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, बहुतों के धीरज का बाँध टूट रहा है। विश्‍व हिंदू परिषद्‌ जैसे संगठन ईसाई धर्मांतरितों को फिर से हिंदू समुदाय में लाने की कोशिश कर रहे हैं। इंडियन ऎक्सप्रॆस ने एक धर्म-अनुष्ठान के बारे में रिपोर्ट दी जिसमें १०,००० लोग उपस्थित हुए और ६०० से अधिक ऐसे “ईसाई” परिवारों ने हिंदुत्व को फिर से अपना लिया।


“अनुसूचित जातियाँ” एक औपचारिक पद है जो हिंदुओं के बीच निम्न जातियों, अथवा अजातियों, अछूतों के लिए प्रयोग किया जाता है, जिन्होंने सामाजिक और आर्थिक हानि उठायी है।


एम. के. गांधी ने निम्न जातियों को यह नाम दिया था। इसका अर्थ है “हरि के लोग।” हरि विष्णु देवता का एक नाम है।


जो मसीही होने का दावा करते हैं उन्हीं लोगों द्वारा अजाति की तरह दुतकारे जाने पर कैसा लगता है? एक मसीही के पूर्वज हिंदुओं की एक निम्न जाति, चर्मार या पूलाया से धर्मांतरित हुए थे। वह अपने गृह राज्य केरल में कुछ साल पहले घटी एक घटना का ज़िक्र करता है:


मुझे एक विवाह में न्यौता दिया गया। वहाँ काफी मेहमान चर्च सदस्य थे। जब उन्होंने मुझे दावत में देखा, तब काफी हंगामा हो गया, और जो ऑर्थोडॉक्स सिरियन चर्च के थे उन्होंने कहा कि यदि मैं वहाँ से नहीं गया तो वे दावत से चले जाएँगे, क्योंकि वे किसी पूलाया के साथ भोजन नहीं करते। जब दुलहन के पिता ने उनकी धमकी के आगे हार नहीं मानी, तब उन सब ने मिलकर दावत का विरोध किया। उनके जाने के बाद, भोजन परोसा गया। लेकिन भोजन परोसनेवालों ने मेरी मेज़ साफ करने और केले के उस पत्ते को उठाने से इनकार कर दिया जिस पर मैंने भोजन किया था।


http://newsloose.com के अनुसार दलितों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण करा रही ईसाई मिशनरी उनके साथ बेहद बुरा सलूक कर रही हैं। ईसाई बन चुके दलितों के एक संगठन ने संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिखकर अपने साथ भेदभाव की शिकायत की है। उनकी ये शिकायत वेटिकन के खिलाफ भी है। इन लोगों की शिकायत है कि सामाजिक भेदभाव से छुटकारा दिलाने के नाम पर मिशनरियों ने उन्हें ईसाई तो बना लिया, लेकिन यहां भी उनके साथ अछूतों जैसा बर्ताव हो रहा है। कई चर्च में दलित ईसाइयों के घुसने पर भी एक तरह से पाबंदी लगी हुई है। नाराजगी इस बात से है कि ईसाइयों की सर्वोच्च संस्था वेटिकन इस भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ नहीं कर रही। दिल्ली में यूएन के दफ्तर के जरिए ये शिकायत कुछ वक्त पहले भेजी गई है। कुछ वक्त पहले न्यूज़लूज़ पर हमने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज की खबर बताई थी, जहां प्रिंसिपल की भर्ती के लिए निकले विज्ञापन में साफ कहा गया था कि कैंडिडेट मारथोमा सीरियन चर्च का होना चाहिए। पढ़ें: ईसाई प्रिंसिपल चाहिए, लेकिन धर्मांतरण वाला नहीं

दलित क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (डीसीएलएम) और मानवाधिकार संस्था विदुथलाई तमिल पुलिगल काची ने कहा है कि “वेटिकन और इंडियन कैथोलिक चर्च भारतीय दलित ईसाइयों को तुच्छ नज़र से देखते हैं। हर जगह उन ईसाइयों को प्राथमिकता दी जाती है जो उनकी नजर में उच्च वर्ग के हैं। यह भेदभाव धार्मिक, शैक्षिक और प्रशासनिक सभी क्षेत्रों में हो रहा है।” दलित ईसाइयों के संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र से फरियाद की है कि वो वेटिकन पर इस बात का दबाव डालें ताकि वो भारतीय दलितों के साथ दोहरा रवैया छोड़ें। पिछले कुछ दशकों में लाखों की संख्या में दलितों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, लेकिन इनमें से ज्यादातर खुद को ठगा महसूस करते हैं क्योंकि अब उनकी सामाजिक स्थिति पहले से बदतर है। ऐसी घटनाएं मीडिया में भी नहीं आने पातीं। इसके उलट हिंदू धर्म में हो रहे सुधारों के कारण जाति-पाति के आधार पर भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है।

‘दलितों के लिए अलग कब्रिस्तान’

दलित ईसाई संगठनों की कई शिकायतें हैं, लेकिन इनमें सबसे गंभीर हैं वो सामाजिक भेदभाव जिनके नाम पर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए उकसाया गया था। दलित ईसाई संगठनों के मुताबिक ज्यादातर जगहों पर कैथोलिक ईसाई पसंद नहीं करते कि उनके सेमेंटरीज़ (यानी कब्रिस्तानों) में दलित ईसाइयों को दफनाया जाए। वो उन्हें कमतर मानते हैं लिहाजा उनकी जगह कोई सुनसान कोना या अलग जगह होती है।यहां तक कि कई चर्च में भी दलित जाति के ईसाइयों के बैठने की जगह अलग और पीछे होती है।  क्रिसमस पर निकलने वाली शोभा यात्राएं दलित ईसाइयों के मोहल्लों में नहीं जातीं। दलित ईसाइयों को पढ़ा-लिखा होने के बावजूद ज्यादातर सहायक, ड्राइवर या इससे भी निचले दर्जे की नौकरियां दी जाती हैं। इसकी शिकायत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया से भी की जा चुकी है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।  क्योंकि इस पर खुद को प्योर ब्लड का बताने वाले ईसाइयों का कब्जा है। इस भेदभाव का नतीजा है कि एक पीढ़ी पहले धर्मांतरण करने वाले कई दलित परिवार वापस सनातन धर्म अपनाने की सोच रहे हैं। अकेले केरल में पिछले एक दशक में 100 के करीब परिवार वापस हिंदू धर्म अपना चुके हैं।


http://hindi.webdunia.com के अनुसार ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह हैं जिनका जन्म बेथलेहम में हुआ था। भारत में ईसाइयों की संख्या लगभग 2.78 करोड़ है। कब ईसाई धर्म का भारत में प्रवेश हुआ और कैसे ईसाई धर्म भारत में फैला इस संबंध में संक्षिप्त जानकारी।

ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल उम्र के बीच तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र और उसके बाद 33 से 112 वर्ष की उम्र तक ईसा मसीह भारत में रहे थे। माना जाता है कि इस दौरान उन्होंने भारतीय राज्य कश्मीर में बौद्ध और नाथ संप्रदाय के मठों में रहकर ध्यान साधना की थी। मान्यता है कि यहीं कश्मीर के श्रीनगर शहर के एक पुराने इलाके खानयार की एक तंग गली में 'रौजाबल' नामक पत्थर की एक इमारत में एक कब्र बनी है जहां उनका शव रखा हुआ है।

माना जाता है कि भारत में ईसाई धर्म की शुरुआत केरल के तटीय नगर क्रांगानोर में हुई जहां, किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देता है।

इसके बाद सन् 1542 में सेंट फ्रांसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्‍थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिन्दू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। कुछ लोग उन पर सेवा की आड़ में भोलेभाले लोगों को ईसाई बनाने का आरोप लगाते रहे हैं।

16वीं सदी में पुर्तगालियों के साथ आए रोमन कैथोलिक धर्म प्रचारकों के माध्यम से उनका सम्पर्क पोप के कैथोलिक चर्च से हुआ। परन्तु भारत के कुछ इसाईयों ने पोप की सत्ता को अस्वीकृत करके 'जेकोबाइट' चर्च की स्थापना की। केरल में कैथोलिक चर्च से संबंधित तीन शाखाएठ दिखाई देती हैं। सीरियन मलाबारी, सीरियन मालाकारी और लैटिन- रोमन कैथोलिक चर्च की लैटिन शाखा के भी दो वर्ग दिखाई पड़ते हैं- गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था, तथा तमिल समूह जो अपनी प्राचीन भाषा-संस्कृति से जुड़ा रहा। काका बेपतिस्टा, फादर स्टीफेंस (ख्रीस्ट पुराण के रचयिता), फादर दी नोबिली आदि दक्षिण भारत के प्रमुख ईसाई धर्म प्रचारक थे।


उत्तर भारत में अकबर के दरबार में सर्व धर्म सभा में विचार-विमर्श हेतु जेसुइट फादर उपस्थित थे। उन्होंने आगरा में एक चर्च भी स्थापित किया था। भारत में प्रोटेस्टेंट धर्म का आगमन 1706 में हुआ। बी. जीगेनबाल्ग ने तमिलनाडु के ट्रंकबार में तथा विलियम केरी ने कलकत्ता के निकट सेरामपुर में लूथरन चर्च स्थापित किया।

भारत में जब अंग्रेजों का शासन प्रारंभ हुआ तब ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। अंग्रेजों के काल में दक्षिण भारत के अलावा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म के लाखों प्रचारकों ने इस धर्म को फैलाया। उस दौरान शासन की ओर से ईसाई बनने पर लोगों को कई तरह की रियायत मिल जाती थी। बहुतों को बड़े पद पर बैठा दिया जाता था साथ ही ग्रामिण क्षेत्रों में लोगों को जमींदार बना दिया जाता था। अंग्रेजों के काल में कॉन्वेंट स्कूल और चर्च के माध्यम से ईसाई संस्कृति और धर्म का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ।

ईसाई प्रचारक मदर टेरेसा के बारे में प्रचारित है कि भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने सेवा की आड़ में बड़े पैमाने पर गरीब लोगों को ईसाई बनाया। इस संबंध में ओशो रजनीश ने कहा था कि उन्होंने लोगों के दुखों का शोषण कर उन्हें ईसाई बनाया। मदर टेरेसा और अधिक गरीब लोग चाहती है। ताकि वह उनका धर्मांतरण कैथोलिक धर्म में कर सके। यह शुद्ध राजनीति है। सभी धर्म शोषण कर रहे है।

मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने भारत में 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले जहां वे अनाथ और गरीबों को रखती थी। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली और व्यापकर रूप से ईसाई धर्म की सेवा में लग गई।


7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से 'मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी' की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था। 1983 में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के दौरान उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा पड़ा और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में उन्हें न्यूमोनिया और ह्रदय की परेशानी हो गयी। 13 मार्च 1997 को उन्होंने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।

भारत में वर्तमान में प्रत्येक राज्य में बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मप्रचारक मौजूद है जो मूलत: ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। अरुणालच प्रदेश में वर्ष 1971 में ईसाई समुदाय की संख्या 1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2011 में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय राज्यों में ईसाई प्रचारक किस तरह से सक्रिय हैं। इसी तरह नगालैंड में ईसाई जनसंख्‍या 93 प्रतिशत, मिजोरम में 90 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और मेघालय में 70 प्रतिशत हो गई है। चंगाई सभा और धन के बल पर भारत में ईसाई धर्म तेजी से फैल रहा है।


भारत सरकार ने 2015 में छह धर्मों-हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन के जनसंख्या के आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011 में भारत की कुल आबादी 121.09 करोड़ है। जारी जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में ईसाइयों की आबादी 2.78 करोड़ है। जो देश की कुल आबादी का 2.3% है। ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर 15.5% रही, जबकि सिखों की 8.4%, बौद्धों की 6.1% और जैनियों की 5.4% है। देश में ईसाई की जनसंख्या हिंदू और मुस्लिम के बाद सबसे अधिक है।


भारत में 96.63 करोड़ हिंदू हैं, जो कुल आबादी का 79.8% है। मुस्लिम 17.22 करोड़ है जो कुल आबादी का 14.23% है। दूसरे अल्पसंख्यकों में ईसाई समुदाय है। एक दशक में देश की आबादी 17.7% बढ़ी है। आंकड़ों के मुताबिक देश की आबादी 2001 से 2011 के बीच 17.7% बढ़ी। मुस्लिमों की 24.6%, हिंदुओं की आबादी 16.8%, ईसाइयों की 15.5%, सिखों की 8.4%, बौद्धों की 6.1% तथा जैनियों की 5.4% आबादी बढ़ी है।


साल 2001 से 2011 के बीच कुल आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 0.7%, सिखों की आबादी 0.2% और बौद्धों की 0.1% घटी है जबकि मुस्लिमों की हिस्सेदारी में 0.8% वृद्धि दर्ज की गई है। ईसाइयों और जैनियों की कुल जनसंख्या में हिस्सेदारी में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं दर्ज की गई।


 


https://www.bbc.com/  के अनुसार हाल ही में भारत के एक कैथोलिक चर्च ने आधिकारिक तौर पर पहली बार यह बात मानी है कि दलित ईसाइयों को छुआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.


नीतिगत दस्तावेज़ों के जरिए ये जानकारी सामने आई, जिसमें कहा गया है कि उच्च स्तर पर नेतृत्व में उनकी (दलित ईसाइयों की) सहभागिता न के बराबर है.

इस बारे में अमृतसर से सटे मजीठा कस्बे में रहने वाले सुच्चा मसीह कहते हैं, "मैं क़रीब 35 साल पहले ईसाई मिशन में शामिल हुआ था. पहले हम सिख थे और हमारा दलित पृष्ठभूमि से वास्ता रहा. लेकिन धर्म परिवर्तन के बाद हमें कोई मदद नहीं मिली. हम लोग आज तक अपने घर पर ही प्रभु जी का नाम लेते हैं. मिशन ने हमें प्रार्थना हॉल देने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ." 

इस कस्बे के पास ही पंडोरी गांव में रहने वाले पास्टर यूसुफ़ मसीह बताते हैं कि उनके और बाकी मिशनरी लोगों के बारे में ईसाई मिशन वालों ने अब तक पूछा भी नहीं है. वे प्रभु ईशु पर विश्वास करते हैं और उनकी ही भक्ति में लगे हुए हैं.


हालांकि पास्टर यूसुफ़ मसीह मांग करते हैं कि अपना धर्म छोड़कर ईसाई मिशन में शामिल हुए सभी लोगों को मदद मिलनी चाहिए.


इसी गांव में रहने वालीं बलवीर कौर ख़ुद को तक़रीबन 40 साल से ईसाई मिशन से जुड़ा हुआ बताती हैं. उनका दावा है कि वे अपने गांव के ही लगभग 15 दलित परिवारों को अपने साथ जोड़ चुकी हैं. बलवीर कौर लगभग 15 दलित परिवारों को क्रिश्चियन मिशन से जोड़ चुकी हैं.


बलवीर कहती हैं, "हम लोगों ने भी मिशन के लिए बहुत काम किया है. लेकिन हमें कोई सहूलियत नहीं दी गई. आलम यह है कि मिशन में जुड़े ज्यादातर लोगों के लिए अब अपने परिवारों का पालन पोषण भी मुश्किल हो गया है."


उनके साथ ही इस मिशन में जुड़े धरमिंदर भट्टी ईसाई मिशन के इस रवैये से ख़ासे नाराज़ दिखे. उन्होंने कहा कि दलितों के साथ भेदभाव तो होता ही है. साथ ही जिन दलित परिवार के लोगों को बिशप बनाया गया, उन्होंने भी कभी उनका हाल नहीं पूछा. धरमिंदर भट्टी क्रिश्चियन मिशन के रवैये से ख़ासे नाराज़ दिखे.


धरमिंदर कहते हैं, "मेरे पिता 45 साल से इस मिशन से जुड़े हैं. लेकिन मिशन की और से अभी तक कोई भी ओहदा उन्हें नहीं दिया गया. यह सच है कि मिशन के लोगों ने हमेशा ही दलित परिवारों को पीछे रखा. लेकिन जो दलित परिवार भी बिशप बने, उन्होंने भी कभी पीछे छूट गए परिवारों के बारे में नहीं सोचा."


धरमिंदर दावा करते हैं कि जब उनका समुदाय सरकार के पास किसी किस्म की मदद के लिए जाता है, तो उन्हें बोला जाता है कि उनकी जाति बहुत बड़ी है और उन्हें किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं दी जा सकती.

https://hindi.firstpost.com/  के अनुसार  यह एक एतिहासिक घटना है. इंडियन कैथलिक चर्च ने पहली बार आधिकारिक तौर पर माना है कि दलित क्रिश्चियन चर्च के कार्यकलापों में छुआछूत और भेद-भाव जैसी बीमारियां भुगतने पर मजबूर हैं और नेतृत्व के ऊंचे पदों पर उनकी सहभागिता सिरे से गायब है. कैथलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया (CBCI) के नीति-पत्र में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है.


यह समिति क्रिश्चियन समाज के पिछड़ा-वर्गों के प्रति भेदभाव को समाप्त करने और उन्हें इससे मुक्त कराने का काम करती है.


ये प्रश्न अनायास ही उठता है कि इस सच्चाई को ‘अब’ स्वीकार करने के पीछे की सच्चाई क्या है?


‘भारतीय कैथलिक चर्च में दलितों को सशक्त बनाने हेतु नीति’ शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की गई है.


इस रिपोर्ट में चर्च के सभी 171 धर्म-प्रदेशों से कहा गया है कि वे साल भर के भीतर ऐसी छोटी-बड़ी योजनाएं बनाएं, जिससे ‘दलित-क्रिश्चियनों’ के साथ हो रही इस छुआछूत को खत्म किया जा सके.


अगर यह जाति-आधारित दोहरा व्यवहार हममें मौजूद है तो इसे तत्काल प्रभाव से समाप्त होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं हुआ तो चर्च के संबंधित अधिकारी कठोर कदम उठाने पर मजबूर होंगे'. सवाल और मजबूत होता है कि अब इतनी कठोरता क्यों?


क्योंकि यह भेद-भाव तो चर्च के काम-काज में हमेशा से मौजूद है और आम दलित-क्रिश्चियन ने जब भी इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उसे कठोरता से कुचला गया है.


आज, उन्हें कुचलने की बात हो रही है जो अब तक कुचलते आये हैं. ‘कैथलिक बिशप’ कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, बेसलिओस कार्डिनल क्लिमेस कैथालिकोस इसे दलित क्रिश्चियन के हक में एक क्रांतिकारी कदम मानते हैं.


'क्रिश्चियन भावनाओं के अनुसार यह भेदभाव जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है. हम इसे मान रहे हैं, और जो नीति हम बना रहे है, वह चर्च द्वारा हो रहे इस भेद-भाव की समाप्ति के प्रति एक अहम कदम है, एक संदेश है और आत्मविश्लेषण है'.


एक अनुमान के मुताबिक, भारत में रह रहे 19 लाख कैथलिक-क्रिश्चियन में लगभग 12 लाख दलित-क्रिश्चियन हैं. लेकिन चर्च के उच्च-कार्यकलापों में उनका नेतृत्व शून्य है.


पांच हजार बिशप यानी कैथोलिक धर्मगुरुओं में केवल 12 बिशप दलित हैं. यह इस बात का अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि कैथोलिक क्रिश्चियनों में दलितों का क्या हाल है.


भारत में जब कभी धर्मांतरण की चर्चा होती है और विशेषकर ईसाइयत और दलितों के संदर्भ में तो सबसे पहले एक प्रश्न उभरता है. दलित क्यों इसाई धर्म स्वीकार करते हैं?


जाहिर है इसका आसान जवाब यही सूझता है कि हिंदू-जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए.


पर यह पूरा सच नहीं है. इसका सच जानने के लिए आपको बेंगलुरु से 60 किलोमीटर दूर स्थित ‘हरोबेले’ तक जाना पड़ेगा. यहां सैकड़ों साल पहले इसाईयत ने अपने कदम रक्खे.


कर्नाटक का सबसे पुराना ईसाई मिशन यहीं है जो 1675 में स्थापित हुआ. एक समझ बनाने के लिए आप कह सकते हैं कि हजार परिवारों में से 980 परिवार यहां, कैथलिक हैं.


इन परिवारों में, हिंदू उच्च जाति से धर्मांतरित होकर इसाई बने हुए परिवार भी शामिल हैं. इन्होने धर्म तो बदल लिया है लेकिन जाति के बंधन से छूट नहीं पाए हैं.


यह स्थिति केवल इसाईयों में ही नहीं है, इस्लाम में भी, कहते हैं, जात-पात का चक्कर नहीं है, फिर भी जब यह धर्म भारत में प्रवेश करता है तो जाति-चक्र से अछूता नहीं रह पता है.


यहां मुसलमानों में जुलाहा, बहना, धुनिया, नाई आदि जातियां उसी जाति-वर्ग का दूसरा रूप हैं. हमने तो अपने गावों में मुसलमान-मेहतर भी देखे हैं.


अशराफ (यानी उच्च श्रेणी के मुसलमान) इन नीची जातियों से रिश्ता नहीं बनाते हैं. यानी मुसलमान तो आप हो गए हैं लेकिन किस जाति से आकर मुसलमान या ईसाई हुए हैं यह धर्मांतरण से ज्यादा महत्वपूर्ण है.


सोचिये इकबाल के एक बहुत मशहूर शेर, इन दलितों के साथ कितना भद्दा मजाक है- 'एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़/ फिर कोई बाँदा रहा और ना कोई बंदा-नवाज़.'


ईसाइयत में भी जो नायर, रामास्वामी जैसे उच्च-जाति के ब्रह्मिन आये, वह निचली जाति के ईसाई बने दलितों को बर्दाश्त नहीं कर पाए.


और यह छुआछूत या भेद-भाव जो आज कैथलिक-चर्च में चिंता का विषय है वह सदियों से चला आ रहा है.


मुझे अपने विद्यार्थी जीवन के अध्यापक की बात हमेशा याद रहेगी जो समाज-शास्त्र पढ़ाते हुए इस बात पर विस्तार से चर्चा करना कभी नहीं भूलते थे कि इस देश में जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं जिन्हें शायद कभी खत्म नहीं किया जा सके.


आज यदि ‘कैथलिक बिशप’ कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, बेसलिओस कार्डिनल क्लिमेस कैथालिकोस आत्मविश्लेषण कर रहे हैं तो उनका यह कदम स्वागत योग्य है.


सदियों बाद ही सच सामने आया, आया तो. वसीम बरेलवी के इस शेर के साथ आइये अपनी बात को ख़त्म करते हैं- सच घटे या बढ़े तो सच न रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं.

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Thursday, August 1, 2019

इस्लाम में छूआछूत बनाम हिंदू वर्ण व्यवस्था

इस्लाम में छूआछूत बनाम हिंदू वर्ण व्यवस्था

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


जातिगत भेद और वर्गीकरण सम्पूर्ण विश्व की सुरसा रूपी समस्या है। किंतु भारत एक हिंदू बाहुल्य और सनातन देश है अत: यह हमें अधिक दिखाई देती है। साथ ही हिंदुत्व के सिदांत बेहद मानवीय और सहिष्णु है अत: इस पर हमले अधिक होते हैं। आप देखें मुस्लिम से 72 फिकरे हैं। यहां तक शिया सुन्नी दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे रहते हैं। 

भारत में दलित (जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था) सबसे ख़राब स्थितियों में जीते हैं क्योंकि हिंदुओं की जाति व्यवस्था उन्हें समाज में सबसे निचले स्थान पर रखती है। हालांकि हिंदुओं में छुआछूत के बहुत सारे प्रमाण हैं और इस पर बहुत चर्चा भी हुई है लेकिन भारत के मुसलमानों के बीच छुआछूत पर बमुश्किल ही बात की गई है। इसकी एक वजह तो यह है कि इस्लाम में जाति नहीं है बल्कि एक सम्प्रदाय है।


भारत के 14 करोड़ मुसलमानों में से ज़्यादातर स्थानीय हैं जिन्होंने धर्मपरिवर्तन किया है.। अधिकतर ने हिंदू उच्च-जातियों के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम ग्रहण किया।

सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के एक संगठन के प्रतिनिधि एजाज़ अली के अनुसार वर्तमान भारतीय मुसलमान की 75 फ़ीसदी दलित आबादी इन्हीं की है जिन्हें दलित मुसलमान कहा जाता है। इस विषय पर काम करने वाले राजनीति विज्ञानी डॉक्टर आफ़ताब आलम कहते हैं, "भारत और दक्षिण एशिया में रहने वाले मुसलमानों के लिए जाति और छुआ-छूत जीवन की एक सच्चाई है."


अध्ययनों से पता चलता है कि "छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है।  शुद्धता और अशुद्धता का विचार;  साफ़ और गंदी जातियां" मुसलमानों के बीच मौजूद हैं.


अली अलवर की एक किताब के अनुसार हिंदुओं में दलितों को अस्पृश्य कहा जाता है तो मुसलमान उन्हें अर्ज़ाल (ओछा) कहते हैं। डॉक्टर आलम के साल 2009 में किए एक अध्ययन के अनुसार किसी भी प्रमुख मुस्लिम संगठन में एक भी 'दलित मुसलमान' नहीं था और इन सब पर 'उच्च जाति' के मुसलमानों ही प्रभावी थे।


अब कुछ शोधकर्ताओं के समूह के किए अपनी तरह के पहले बड़े अध्ययन से पता चला है कि भारतीय मुसलमानों के बीच भी छुआछूत का अभिशाप मौजूद है। प्रशांत के त्रिवेदी,  श्रीनिवास गोली,  फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण किया।


उनके अध्ययन के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैः


• 'दलित मुसलमानों' के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता।  यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है.


• 'दलित मुसलमानों' के एक समूह ने कहा कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है. इसी संख्या के एक और समूह ने कहा कि वह लोग उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही खाते हैं।  बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है।


• करीब 8 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' ने कहा कि उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है।


• कम से कम एक तिहाई ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते. वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में।


• ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर 'दलित मुसलमानों' को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है।


• 'दलित मुसलमानों' के एक उल्लेखनीय तबके ने कहा कि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके समुदाय को छोटे काम करने वाला समझा जाता है.


• 'दलित मुसलमानों' से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है।


• इसी तरह करीब 20 फ़ीसदी प्रतिभागियों को लगा कि उच्च जाति के मुसलमान उनसे दूरी बनाकर रखते हैं और 25 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' के साथ को उच्च जाति के हिंदुओं ने ऐसा बर्ताव किया।


• जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई 'दलित मुसलमान' परिवार नहीं रहता था।


• 20 फ़ीसदी ने दलित मुसलमानों के साथ किसी तरह की सामाजिक संबंध होने से इनकार किया।  और जो लोग 'दलित मुसलमानों' के घर जाते भी हैं उनमें से 20 फ़ीसदी उनके घरों में बैठते नहीं और 27 फ़ीसदी उनकी दी खाने की कोई चीज़ ग्रहण नहीं करते।


• गैर-दलित मुसलमानों से पूछा गया था कि वह जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है. इस पर 20 फ़ीसदी ने कहा कि कोई 'दलित मुसलमान' उनके घर नहीं आता।  और जिनके घऱ 'दलित मुसलमान' आते भी हैं उनमें से कम से कम एक तिहाई ने कहा कि 'दलित मुसलमानों' को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं।


भारत में जाति के आधार पर भेदभाव सभी धार्मिक समुदायों में मौजूद है- सिखों में भी।  पारसी ही शायद अपवाद हैं।

इससे सबक यह मिलता है कि भारत में भले ही आप जाति छोड़ दें लेकिन जाति आपको नहीं छोड़ती।

जाति (अंग्रेज़ी: species, स्पीशीज़) जीवों के जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक नज़रिए से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है जो एक दुसरे के साथ संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी संतान स्वयं आगे संतान जनने की क्षमता रखती हो। उदाहरण के लिए एक भेड़िया और शेर आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं। एक घोड़ा और गधा आपस में बच्चा पैदा कर सकते हैं (जिसे खच्चर बुलाया जाता है), लेकिन क्योंकि खच्चर आगे बच्चा जनने में असमर्थ होते हैं, इसलिए घोड़े और गधे भी अलग जातियों के माने जाते हैं। इसके विपरीत कुत्ते बहुत अलग आकारों में मिलते हैं लेकिन किसी भी नर कुत्ते और मादा कुत्ते के आपस में बच्चे हो सकते हैं जो स्वयं आगे संतान पैदा करने में सक्षम हैं। इसलिए सभी कुत्ते, चाहे वे किसी नसल के ही क्यों न हों, जीववैज्ञानिक दृष्टि से एक ही जाति के सदस्य समझे जाते हैं।


एक-दूसरे से समानताएँ रखने वाली ऐसी भिन्न जातियाँ को, जिनमें जीववैज्ञानिकों को यह विश्वास हो कि वे अतीत में एक ही पूर्वज से उत्पन्न होकर क्रम-विकास (इवोल्यूशन) के ज़रिये समय के साथ अलग शाखों में बंट गई हैं, एक ही जीववैज्ञानिक वंश में डाला जाता है। मसलन घोड़े, गधे और ज़ेब्रा अलग जातियों के हैं लेकिन तीनों एक ही 'एक्वस' (Equus) वंश के सदस्य माने जाते हैं।


आधुनिक काल में जातियों की परिभाषा अन्य पहलुओं को जाँचकर भी की जाती हैं। उदाहरण के लिए आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके अक्सर जीवों का डी एन ए परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति घोषित किया जाता है जिनकी डी एन ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।


वास्तव में आप जिस प्रकार अन्न का वर्गीकरण करते हैं जैसे:


ऋतु आधारित फसलें:  रबी,  जायद, ख‍रीफ

जीवनचक्र पर आधारित फसलें: एकवर्षीय फसलें ,  द्विवर्षीय फसलें  बहुवर्षीय फसलें

उपयोगिता या आर्थिक आधार पर फसलें:  अन्‍न या धान्‍य,  तिलहन,  दलहन,  मसाला, रेशेदार,   चारा, फल, जड एवं कन्‍द,  उद्दीपक, शर्करा, औषधीय।


अब आप ने देखा के विभिन्न आधारों पर वर्गीकरण किया गया। कुछ इसी प्रकार मानव जाति का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया गया। भाषा, प्र्देश, रंग, व्यवहार और कर्म। अब चूंकि वैदिक काल में अन्य पूजा पद्द्ति नहीं थी मात्र सनातन ही था। अत: य्ह हिंदू वर्गीकरण कर्म के आधार पर हुआ।


जैसे जो बालक बचपन से ज्ञानी हो, पठन पाठन में रूचि रखे। पूजा पाठ करे और साथ ही ब्रह्म वरण हेतु प्रेरित हो या कर चुका हो। उस वर्ग को पठन पाठन हेतु लगा दो। वह मानव को आध्यात्म की शिक्षा दे। लेकिन जो आध्यात्मिक कार्यों से पेट भरे और वृत्ति करे उनका उप वर्गीकरण कर दो।


इसी भांति जिसको बचपन से अस्त्र शस्त्र कुश्ती का शौक हो शक्ति प्रदर्शन का मन करे। वह समाज की रक्षा अधिक अच्छी कर सकता है उसे क्षत्रिय बोलो। जिसे व्यापार में रुचि हो उसे वैश्य बनाओ। जिस बालक को किसी अन्य कर्म में मन न लगे। दूसरों की सेवा में आनन्द लगे। उसे शूद्र कहकर वर्गीकृत कर दो।


इन सभी वर्गों को कर्म के अनुसार उप वर्ग में बांट दो।


यहां तक पारंपरिक सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्मा जी ने जाति व्यवस्था का निर्माण किया था। ब्रह्मा के जी के विभिन्न अंगों से जैसे उनके मुख से ब्राह्मणों का, हाथ से क्षत्रिय, वैश्य पेट से, शूद्र पैर से।


अब आप इसके अर्थ देखें। ब्राह्मण मुख से आजीविका चलाता है। यानि वह शिक्षक है। लोगों को मुख से उपदेश देकर ईश की ओर प्रेरित कर समाज में ज्ञान बांटता है। मुख से समाज सेवा करता है।


क्षत्रिय  बाहुबली होना अनिवार्य है। वह बाहुबल से समाज की रक्षा करता है। समाज सेवा करता है।


वैश्य समाज को आजीविका देता है। पेट भरता है। पेट भरने की समाज सेवा करता है।


इस शरीर का सारा भार पैर ही लेकर चलतें हैं। पैर ही हमें गति देते हैं। श्रम देते हैं। अत: शूद्र बेहद मह्त्वपूर्ण वर्ग है क्योकिं यह समाज की सेवा करता है इन पैरों की भांति।


यदि पैर न हो तो आप कोई कर्म नहीं कर सक्ते क्योंकि आप गतिहीन हो जायेगें।


किंतु दु:खद यह रहा कि मध्यकाल में कुछ लोग सत्ता का सहारा लेकर जन्म से वर्गीकरण करने लगे। जिसके कार्ण समाज बिखर गया।


वेद में, किसी भी उपनिषद में यहां तक शास्त्रों में भी जन्म से वर्गीकरण नहीं है कर्म से हैं।

राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण समाज पर शासन करने के अलावा उन्हें पूर्ण नियंत्रण में रखना चाहते थे। इसलिए उनके राजनीतिक हित ने भारत में एक जाति व्यवस्था बनाई। जो जन्म आधारित रही।


धार्मिक सिद्धांतके अनुसार विभिन्न धार्मिक परंपराओं ने भारत में जाति व्यवस्था को जन्म दिया था। राजा और ब्राह्मण जैसे धर्म से जुड़े लोग उच्च पदों पर आसीन थे लेकिन अलग-अलग लोग शासक के यहां प्रशासन के लिए अलग-अलग कार्य करते थे जो बाद में जाति व्यवस्था का आधार बन गए थे। इसके साथ साथ, भोजन की आदतों पर प्रतिबंध लगाया जो जाति व्यवस्था के विकास के लिए प्रेरित हुआ। इससे पहले दूसरों के साथ भोजन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था क्योंकि लोगों का मानना था कि उनका मूल एक पूर्वज से था। लेकिन जब उन्होंने अलग-अलग देवताओं की पूजा शुरू की तो उनकी भोजन की आदतों में बदलाव आया। इसने भारत में जाति व्यवस्था की नींव रखी।


व्यावसायिक सिद्धांतके अनुसार भारत में जाति किसी व्यक्ति के व्यवसाय के अनुसार विकसित हुई थी। जिसमें श्रेष्ठ और निम्नतर जाति की अवधारणा भी इस के साथ आयी क्योंकि कुछ व्यक्ति बेहतर नौकरियां कर रहे थे और कुछ कमजोर प्रकार की नौकरियों में थे। जो लोग पुरोहितों का कार्य कर रहे थे, वे श्रेष्ठ थे और वे ऐसे थे जो विशेष कार्य करते थे। ब्राह्मणों में समूहीकृत समय के साथ उच्च जातियों को इसी तरह से अन्य समूहों को भी भारत में विभिन्न जातियों के लिए अग्रणी बनाया गया।


मूल जाति सिद्दांत यही था किंतु यह कर्म से बदलकर जन्म से हो गया। जो कि गलत है।

 


सत्य यह हे कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है। कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता हे यह सत्य है।

इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं जैसे…..

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।


(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)


(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।


(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)


(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)


(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)


(6) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)


(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |


(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |


(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)


(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |


(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |



(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |



(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |



(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |



(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |



विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |



(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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