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Monday, September 14, 2020
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 16 (कोरोना बचाव मंत्र)
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 16 (कोरोना बचाव मंत्र)
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 15
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 15
Bhakt Varun: पहले जब दीक्षित नहीं था तब मैं विपस्सना करता था उस समय मेरा ध्यान लगता था तो मेरा दम घुटने लगता था उसके बाद में विपुल जी से मिला विपुल जी ने मुझे गुरुजी तक पहुंचाया। विपुल जी का दिल से धन्यवाद गुरु जी से मिलवाने का।
+91 79828 87645: यह उन सब के लिए सुगम मार्ग है जो पूछते हैं मैं कौन हूं
http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_32.html?m=1
Bhakt Varun: पहले मुझे विपस्सना की जरूरत पड़ती थी पर अब मुझे नहीं लगता कि विपस्सना जरूरी है क्योंकि गुरु मंत्र से ही ध्यान में उतर जाते हैं अंतर्मुखी हो जाते हैं
तुमको यार रह-रहकर झटके लगते। शक्तिपात परंपरा की गूढंता को समझो।
+91 79828 87645: अब मैं ईनको डायरेक्ट कह दूंगा कि तुम मन के पीछे छिपी हुई आत्मा हो उसको ढूंढो तो यह उस आत्मा को ढूंढ नहीं पाएंगे
यदि सांसो पर ध्यान लगाएंगे तो मन कुछ ही समय में शांत हो जाएगा इधर सांसे शांत होंगी इधर मन भी शांत हो जाएगा और निर्विचार में आत्मा का अनुभव होने लगेगा
फिर प्रश्न खत्म हो जाएगा कि मैं कौन हूं मैं सर्व व्यापक आत्मा हूं ऐसा जान लेंगे
👆 और इस अनुभव को बाहर का कोई भी व्यक्ति नहीं दे सकता शब्दों से तो बिल्कुल नहीं
Bhakt Varun: मैंने कानों से भी ध्यान लगाया है उसे कान इतने थे स्ट्रांग हो गए हैं कि छोटी से छोटी आवाज भी बड़ी जल्दी सुन लेते हैं
जी बिल्कुल
Bhakt Varun: झटके समय के साथ-साथ शांत होते जा रहे हैं
मित्र सबके मार्ग अलग हो सकते हैं।
आप एक विधि जानते हैं।
Bhakt Varun: जी
+91 79828 87645: बिल्कुल हो सकते हैं इसीलिए तो सबसे पहले हमने इस बात को रखा कि आप कौन हो या आपको पता होना चाहिए विपुल जी कैसे बताएंगे
Bhakt Varun: मैं तो अभी अज्ञानी हूं।
+91 79828 87645: बहुत अच्छी बात है परंतु टाइट हुए पड़े हो अज्ञानी इतना टाइट नहीं होता
एक बार योग की अनुभूति हो जाए तो सारे मार्ग समझ में आ जाते हैं।
जो एक का राग गाता है वह अपूर्ण ज्ञानी है।
Bhakt Varun: पर समय के साथ करते-करते अब विपश्यना की जरूरत नहीं पड़ती है
Bhakt Varun: बहुत कम
यह लेख देखो। कुछ स्पष्ट होगा।
+91 79828 87645: ध्यान में श्वास को चलती हुई महसूस करते हो कि ऐसा लगता है जैसे बंद पड़ी हो
Bhakt Varun: दिल की धड़कन तक शांत हो जाती है कुछ सुनाई नहीं देता जैसे शब हो
ध्यान लग जाने के बाद कोई एहसास नहीं होता कहां है क्या है
- +91 79828 87645: जब सब कुछ शांत हो गया तो फिर प्रश्न क्यों करते हो मैं कौन हूं
Bhakt Varun: मुझे सुनाई दिया पर मैं समझ हीं नहीं पाया
+91 79828 87645: दोबारा सुनने की कोशिश करो इसमें कोई दिक्कत थोड़ी है
यार उसने मुझसे पूछा था।
Bhakt Varun: एक क्रिया बार-बार नहीं होती
जी बिल्कुल
यार यह क्रिया नहीं समझते।
+91 79828 87645: बार-बार एक ही क्रिया को वापस लाने की कोशिश करोगे तो ध्यान भंग हो जाएगा ध्यान में नहीं प्रवेश कर पाओगे
Bhakt Varun: जी
+91 79828 87645: कभी-कभी पृथ्वी लोक में उतर करके आता हूं साहब चलता हूं
ब्रह्मांड भ्रमण पर मिलते हैं एक युग के बाद😌😌😌😌😌😌
Bhakt Varun: धन्यवाद आपका
+91 79828 87645: अब धन्यवाद स्वीकार करने वाला भी कोई नहीं है वह तो जा चुके
Bhakt Varun: शरीर से इधर उधर गए हैं मन से नहीं
Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 जी मैं आपसे एक अनुरोध करूंगा आप भटके नहीं। आप गुरु परंपरा में है तो यह सब आपके सोचने के विचार नहीं है सब गुरु कृपा का विषय है। जब प्रश्न अंदर से उपजा है तो आपको उत्तर भी वही मिलेगा। और उसी उत्तर पर आपका संकल्प दृ ड होगा । अन्य किसी के अनुभव पर नहीं।
Bhakt Varun: जी
कहां मिलना है।
💐💐💐
Bhakt Acharya Dharm Dhar: *ओ३म्*
*🌷कर्म-फल पर भावना और ज्ञान का प्रभाव🌷*
*(पिता-पुत्र संवाद)*
*पुत्र―*यह बात मेरी समझ में भली प्रकार नहीं आई कि नीयत के साथ-साथ ज्ञान और अज्ञान का भी कर्मफल पर कुछ प्रभाव पड़ता है, कृपया विस्तारपूर्वक बतलाइये?
*पिता―*देखो! जैसे किसी मनुष्य से कोई पाप हो गया परन्तु उसकी नीयत ठीक थी। नीयत का ठीक होना ही ज्ञान और बे-ठीक अथवा बुरा होना ही अज्ञान है। एक मनुष्य से कोई धर्म-कार्य हो गया, परन्तु उसकी नीयत बुरी थी। वह वास्तव में यह शुभ कार्य करना नहीं चाहता था, अनजाने में ही उससे यह हो गया या यों समझो कि अपनी बदनीयत का तो उसे ज्ञान था वह धर्म कार्य, वह हुआ उसके अज्ञान तथा भूल से। अब उसे फल वैसा ही मिलेगा, जैसा कि उसका ज्ञान था। या यों कह लो, जैसा कि उसकी नीयत थी। इन दोनों वाक्यों में शब्दों का भेद होने पर भी कुछ अन्तर नहीं।
*पुत्र―*मैं अभी नहीं समझा! कोई दृष्टान्त देकर समझाने की कृपा कीजिए।
*पिता―*एक वृक्ष के ऊपर सांप चढ़ रहा है। उस की नीयत किसी पक्षी के बच्चे खाने की है, जिसका घोंसला उस वृक्ष पर है। एक मनुष्य यह सब कुछ देख रहा है। उसने बच्चों को बचाने के लिए सांप पर तीर चलाया, परन्तु वह तीर जा लगा पक्षी को, उस मनुष्य की नीयत तो सांप को मारकर बच्चों की रक्षा करने की थी, किन्तु मर गया बीच में आकर पक्षी और उससे अनजाने में वह पाप हो गया। इस पाप का उसे कोई दण्ड नहीं मिलेगा। वरन्, वह पक्षी के बच्चों को बचाने के सम्बन्ध में अपने मानसिक कर्म के पुण्य फल का ही भागी समझा जायेगा।
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और लो, एक मनुष्य नदी के किनारे खड़ा हुआ किसी मछवे से मछली मोल ले रहा है। उसकी नीयत यह है कि वह उसे भूनकर खाये। परन्तु भाग्यवश ज्यों ही वह मछली को उस मछवे से लेता है, वह फड़फड़ा कर उसके हाथ से छूट जाती है और तड़पती हुई पानी में गिर पड़ती है। पानी में गिरते ही वह तैर कर अपनी जान बचा लेती है। अब उस मनुष्य की नीयत तो उस मछली के सम्बन्ध में बुरी थी। उसके ज्ञान में उसे भून कर खाने का पाप कर्म था परन्तु हो गया अज्ञान से यह पुण्य कर्म कि मछली उसके हाथ से छूटकर पानी में जा पड़ी। अब उसे मछली के जीवन-दान देने के कर्म-कार्य का पुण्य-फल कदापि नहीं मिल सकता। उसे तो मछली भूनकर खाने के मानसिक पाप-कर्म का ही दण्ड मिलेगा।
*[साभार: महात्मा प्रभु आश्रित जी महाराज, "कर्म भोग चक्र" पुस्तक से]*
इसीलिए स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज कहते हैं यह जगत तुम्हारे मन का विस्तार है।
Bhakt Brijesh Singer: राजा दशरथ की नियति श्रवण कुमार को मारने की नही थी लेकिन अनजाने मे मर गये थे फिर भी कर्म भुगतने पड़े।
भीष्म पितामह की नियति सांप को रस्ते से हटाने की थी लेकिन अनजाने मे सांप कांटो पर चला गया और कांटो से बिंध गया और भीष्म को कर्मफल भुगतना पड़ा।
कर्म फल से कोई नही बच सकता। बस अनजाने का असर थोड़ा कम होता है।
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Bhakt Brijesh Singer: सिर्फ निष्काम कर्म ही कर्म फल से छुटकारा दिला सकते है।
Bhakt Jagat Bhatt Bhav Nagar: फिर भि अच्छे आदमी के श्राप से भी किसी का अच्छा हो जाता है।जैसे राजा दशरथजी के भाग्य में पुत्र था ही नही श्रवण का श्राप था कि आप भी पुत्र वियोग से तड़पेंगे,,ओर उसको पुत्र प्राप्ति हुई👏
Bhakt Brijesh Singer: पुत्र के रूप मे भगवान का अवतार तो उनको होना ही था पूर्व मे तपस्या जो की थी।
Bhakt Brijesh Singer: कितने पुत्र और कितने पुत्री यह आपके प्रारब्ध कर्म के अनुसार आपके हाथ और जन्मपत्री मे भी अंकित होते है।
Bhakt Jagat Bhatt Bhav Nagar: जी,,पर राजा दशरथ जी के भाग्य में तो सन्तानयोग ही नही था प्रभु
Bhakt Brijesh Singer: This message was deleted
Bhakt Brijesh Singer: कर्मफल से तो भगवान श्रीराम भी नही बचे। बाली श्री कृष्ण अवतार मे बहेलिया बन के आया था।
Bhakt Jagat Bhatt Bhav Nagar: जी क्षमा,,मेरी भूल हो सकती है,,पर है नही ये पक्का है😊
Bhakt Jagat Bhatt Bhav Nagar: राम जी बड़े थे लक्ष्मण जी छोटे,,तो कृष्ण जन्म में लक्ष्मण जी दाऊजी बनकर बड़े बने और रामजी कृष्ण बन कर छोटे ,जो रामयुग में सेवा की थी तो कृष्ण युग मे उन कर्म को पूरा किया भगवन
Bhakt Acharya Dharm Dhar: *सांस्कृतिक - तार्किक - दार्शनिक प्रश्नोत्तरी"*
*विषय : कर्मफल सिद्धान्त* अर्थात् ईश्वर की न्याय व्यवस्था
दिव्य कर्म फल प्रसाद : ०३यह उन सब के लिए सुगम मार्ग है जो पूछते हैं मैं कौन हूं
(७) प्रश्न :- कर्म करने के क्या क्या साधन हैं ?
उत्तर :- *ऋषियों ने मुख्य रूप से कर्म करने के तीन साधन बताए हैं :- मन, वाणी और शरीर* ।
(८) कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :- *कर्म तो अनन्त होते हैं परन्तु ऋषियों ने तीन कोटियों (शरीर - वाणी - मन को आधार बनाकर ) में कर्मों का वर्गीकरण किया है* :-
(क) शरीर से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( रक्षा, दान, सेवा )
अशुभ कर्म :- ( हिंसा, चोरी, व्यभिचार )
(ख) वाणी से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( सत्य, मधुर, हितकर, स्वध्याय करना )
अशुभ कर्म :- ( असत्य, कठोर, अहितकर, व्यर्थ बोलना )
(ग) मन से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( दया, अस्पृहा, आस्तिकता )
अशुभ कर्म :- ( द्रोह, स्पृहा, नास्तिकता )
(९) प्रश्न :- शास्त्रों के अनुसार कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :-कर्मों के भेद शास्त्रों में इस प्रकार जानने को मिलता है :-
(क) *मनुस्मृति के अनुसार मानसिक बुरे कर्म* :-
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधंकर्म मानसम् ।। *( मनुस्मृति १२/५ )*
मन के पाप कर्म :- परद्रव्यहरण ( चोरी का विचार करना ) , लोगों का बुरा चिंतन करना, मन में द्वेष करना, ईर्ष्या करना तथा मिथ्या निश्चय करना ।
(ख) *मनुस्मृति के अनुसार वाणी के बुरे कर्म*:-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङमयंस्याच्चतुर्विधम् ।। *( मनुस्मृति १२/६ )*
वाणी के पाप कर्म :- कठोर भाषा, अनृत भाषण अर्थात झूठ, असूया ( चुगली ) करना, जानबूझकर बात को उड़ाना ( लांछन लगाना ) ।
(ग) *मनुस्मृति के अनुसार शारीरिक बुरे कर्म* :-
अदत्तानामुपदानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम् ।। ( *मनुस्मृति १२/७* )
शारीरिक अधर्म तीन हैं :- चोरी, हिंसा, अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म तथा व्यभिचार कर्म करना ।
*पतंजलि के "योगदर्शन" के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर चार भेद बताए* :-
(क) शुक्लकर्म :- सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म जैसे दान, सेवा आदि ।
(ख) कृष्णकर्म :- दुख प्राप्त कराने वाले पाप कर्म जैसे चोरी, हिंसा आदि ।
(ग) शुक्लकृष्णकर्म :- सुख दुख प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म जैसे खेती करना, चोरी करके दान करना आदि ।
(घ) अशुक्लअकृष्णकर्म :- निष्काम कर्म जो मोक्ष प्राप्त कराने की इच्छा से किए जाएँ ।
*फल के आधार पर तीन भेद* हैं :-
(क) संचित :- पिछले जन्मों से लेकर अब तक किए हुए कर्म जिनका फल मिलना अभी बाकी है ।
(ख) प्रारब्ध :- जिनका फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या जिनका फल मिल रहा है ।
(ग) क्रियमाण :- जो वर्तमान में किए जा रहे हैं ।
*गीता में कर्म के तीन भेद* :-
(क) कर्म :- अच्छे कर्म
(ख) विकर्म :- बुरे कर्म
(ग) अकर्म :- निष्काम कर्म
(१०) प्रश्न :- कर्मों का कर्ता कौन ?
इत्यादि सवालों को देखेंगे ......
दिव्य कर्म फल प्रसाद : ०४
Bhakt Brijesh Singer: आप लोगो को जब तक सबूत न दो मानते नही हो 🙂
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
*धरहु धीर होइहहिं सुत चारी।* *त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ।*
- Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 प्रभु क्या ये भी कह सकते है कि मन का बहिर्मुख होना या संकल्प विकल्प करना ही कर्म है।
Bhakt Anil Vibhute Thane Dir: सबूत नहीं प्रभु
लठ्ठ बजाओ तब मानेंगे 😃
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 14
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 14
Bhakt Lokeshanand Swami: भरतजी अयोध्या पहुँचे, आज अयोध्या शमशान लग रही है।
कोई नगरवासी भरत जी की ओर सीधे नहीं देखता। आज तो सब उन्हें संत मानते हैं, पर उस समय सब के मन में भरतजी को लेकर संशय था।
यही संसार की रीत है, जीवित संत को पहचान लेना हर किसी के बस की बात नहीं, क्योंकि संत चमड़े की आँख से नहीं, हृदय की आँख से पहचाना जाता है। पर वह है कितनों के पास? हाँ! उनके जाने के बाद तो सब छाती पीटते हैं।
भरतजी सीधे कैकेयी के महल में गए, क्योंकि रामजी वहीं मिलते थे। कैकेयीजी आरती का थाल लाई है, भरतजी पूछते हैं, भैया राम कहाँ हैं? पिताजी कहाँ हैं? काँपती वाणी से उत्तर मिला। वही हुआ जिसका कैकेयीजी को भय था। भरतजी की आँखों से दो वस्तु गिर गई, एक वो जो फिर गिरते ही रहे, आँसू। और दूसरी जो फिर नजरों में कभी उठ नहीं पाईं, कैकेयीजी।
संत की नजरों से गिर जाना और जीवन नष्ट हो जाना, एक जैसी बात है।
भगवान के राज्याभिषेक के बाद की घटना है, कैकेयीजी रामजी के पास आईं, बोलीं- राम! मैं कुछ माँगूगी तो मिलेगा?
रामजी की आँखें भीग आईं, कहने लगे, माँ! मेरा सौभाग्य है, कि आपके काम आ सकूं, आदेश दें।
कैकेयीजी ने कहा, हो सके तो एकबार भरत के मुंह से मुझे "माँ" कहलवा दो।
रामजी ने तुरंत भरतजी को बुलवा भेजा। भरतजी दौड़े आए, दरबार में कदम धरते ही कनखियों से समझ लिया कि वहाँ और कौन बैठा है। तो कैकेयीजी को पीठ देकर खड़े हो गए।
रामजी ने पूछा, भरत! मेरी एक बात मानोगे भाई?
भरतजी के प्राण सूख गए, गला रुंध गया, परीक्षा की घड़ी आ गई। बोले, मानूँगा भगवान, जो आदेश देंगे मानूँगा, पर एक बात को छोड़ कर।
रामजी ने पूछा, वह क्या भरत?
भरतजी कहते हैं, इन्हें माँ नहीं कहूँगा॥
अब विडियो देखें- भरत जी अयोध्या आए-
https://youtu.be/9TWpf3t8gIs
Bhakt Lokeshanand Swami: एक आदमी ने एक भूत पकड़ लिया और उसे बेचने शहर गया। संयोगवश उसकी मुलाकात एक सेठ से हुई। सेठ ने उससे पूछा- भाई! यह क्या है?
उसने जवाब दिया कि यह एक भूत है। इसमें अपार बल है। कितना भी कठिन कार्य क्यों न हो, यह एक पल में निपटा देता है। यह कई वर्षों का काम मिनटों में कर सकता है।
सेठ भूत की प्रशंसा सुनकर ललचा गया और उसकी कीमत पूछी। उस आदमी ने कहा- कीमत बस पाँच सौ रुपए है। कीमत सुनकर सेठ ने हैरानी से पूछा- बस पाँच सौ रुपए?
उस आदमी ने कहा- सेठ जी! जहाँ इसके असंख्य गुण हैं वहाँ एक दोष भी है। अगर इसे काम न मिले तो मालिक को खाने दौड़ता है।
सेठ ने विचार किया कि मेरे तो सैकड़ों व्यवसाय हैं, विलायत तक कारोबार है। यह भूत मर जाएगा पर काम खत्म न होगा। यह सोचकर उसने भूत खरीद लिया।
भूत तो भूत ही था। उसने अपना चेहरा फैलाया बोला- काम! काम! काम! काम!
सेठ भी तैयार ही था। तुरंत दस काम बता दिए। पर भूत उसकी सोच से कहीं अधिक तेज था। इधर मुंह से काम निकलता, उधर पूरा होता। अब सेठ घबरा गया।
संयोग से एक संत वहाँ आए। सेठ ने विनयपूर्वक उन्हें भूत की पूरी कहानी बताई। संत ने हँस कर कहा- अब जरा भी चिंता मत करो। एक काम करो। उस भूत से कहो कि एक लम्बा बाँस लाकर, आपके आँगन में गाड़ दे। बस, जब काम हो तो काम करवा लो, और कोई काम न हो, तो उसे कहें कि वह बाँस पर चढ़ा और उतरा करे। तब आपके काम भी हो जाएँगे और आपको कोई परेशानी भी न रहेगी।
सेठ ने ऐसा ही किया और सुख से रहने लगा।
लोकेशानन्द कहता है कि यह मन ही वह भूत है। यह सदा कुछ न कुछ करता रहता है। एक पल भी खाली बिठाना चाहो तो खाने को दौड़ता है। श्वास ही बाँस है। श्वास पर नामजप का अभ्यास ही, बाँस पर चढ़ना उतरना है।
आप भी ऐसा ही करें। जब आवश्यकता हो, मन से काम ले लें। जब काम न रहे तो श्वास में नाम जपने लगो। तब आप भी सुख से रहने लगेंगे।
Hb 87 lokesh k verma bel banglore: 🕉🌹13.05.2020 बुद्धवार🌹
*जरा रूपं हरति धैर्य माशा मॄत्यु प्राणान धर्मचर्या सूया ।*
*कामो दि्वयं वॄत्तमनार्य सेवा क्रोध: श्रियंसर्वमेवाभिमान: ।।*
वृद्धावस्था युवावस्था की बैरी है,
क्रोध उन्नति मे बाधक है,व घमंड पूरे व्यक्तित्व का शत्रु है।
Old age is the enemy of youth, death is the enemy of life, anger is the enemy of prosperity and PRIDE is the enemy of whole personality.
*शुभोदयम् ! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*
+91 79828 87645: परंतु प्रश्न क्या था प्रश्न को तो मैं भूल ही गया❓🙏
कोई बात नहीं भूलना ही अच्छा है।
स्वामी तूफानगिरी महाराज की जय हो।
प्रभु जी लाक डाउन फिर बढ़ गया अब उन साधुओं के हत्यारों के बारे में क्या विचार है।
+91 79828 87645: गुरुजी जब तक हिंदू लोग मुस्लिमों की तरह हिंसा पर नहीं उतरेंगे जब तक कुछ नहीं होने वाला
हमको बोलना कम चाहिए कार्य अधिक करना चाहिए।
ग्रुप में इस तरह की बातें न करें धन्यवाद।
🙏🏻🙏🏻
कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिए जिसमें कानून तोड़ने का जिक्र हो।
Ba Kuldeep Yadav Ref Nu: कोई बात नहीं भूलना ही अच्छा है।
कोई बात नहीं, भूलना ही अच्छा है।
यार तुम भी राजनीतिज्ञ हो यह बात मैंने प्रश्न के लिए कही है और तुमने इस को कहा पर पोस्ट किया इसके क्या अर्थ लिए जाएंगे।
☹️☹️
Bhakt Lalchand Yadav: 🕉🌞🌞🌞🚩🌞🌞🌞🕉
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरियावस्था क्या है ?इन्हें विस्तार से समझाने की कृपा कीजिए।
- तरसेम लाल जी
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🌞 तरसेम जी ॐ जय मां आदिशक्ति! मानव शरीर में आत्मा ही सब कुछ है अन्य सभी प्रकृति है जो जड़ है । हमारे शरीर में जो कुछ भी जड़ है वह आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। स्थूल शरीर हो, सूक्ष्म शरीर हो ,चाहे कारण शरीर हो ,उसमें सारी क्रियाओं का कारण यह आत्मा ही है ।अन्य सभी पदार्थ एवं अवयव जड़ प्रकृति से निर्मित होने के कारण कोई क्रिया नहीं कर सकते ।स्थूल शरीर में देखना, स्वाद लेना, सुनना, स्पर्श करना , स्पर्श करना आदि तथा कर्मेंद्रियों की सभी क्रियाओं का कारण यह आत्मशक्ति ही है । मन, बुद्धि, अहंकार का कारण भी यह चेतन तत्व ही है ।चेतना के अभाव में यह शरीर कुछ भी नहीं कर सकता ।यह चेतन शक्ति चार अवस्थाओं में हमारे शरीर में विद्यमान रहती है ।जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरिया अवस्था। 👉 जागृत अवस्था -जागृत अवस्था में यह आत्मशक्ति इस संसार का अनुभव करती है भगवान शंकराचार्य ने आत्म तत्व की 4 अवस्थाओं को समझाते हुए लिखा है --जागृत अवस्था आत्मा का स्थूल शरीर है ।इंद्रियों में विषयों की उपलब्धि ही जागृत अवस्था है अर्थात जागृत अवस्था वह अवस्था है जिसमें यह आत्म तत्व समस्त सांसारिक कार्यों का संपादन एवं उपयोग करता है । हमारी पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं तथा इनके पाँच ही विषय हैं। इनके द्वारा जो विशेष अनुभव होता है उसी को "जागृत अवस्था" कहते हैं। इस अवस्था में स्थूल शरीर का अभिमान रहने से आत्मा विश्व नाम वाला होता है चेतना कि इसी अवस्था को "वेश्वानर" कहते हैं ।
👉 स्वप्नावस्था- जागृत अवस्था में मनुष्य को जो भी ज्ञान प्राप्त होता है। वह पांँचों ज्ञानेंद्रियों द्वारा होता है। इसके सिवा ज्ञान प्राप्ति का अन्य कोई साधन नहीं है किंतु स्वप्नावस्था में इंद्रियां विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। जिससे उनसे कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।स्वप्न में जो भी दृश्य दिखाई देते हैं वे जागृत अवस्था में जो कुछ देखा, सुना गया है उसकी सूक्ष्म वासना मन में समाहित रहती है। मन की इसी वासना के कारण निद्रा काल में जगत का जो व्यवहार दिखाई देता है उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं। वस्तु के होते हुए भी उसका दिखाई देना मन की वासना के कारण ही होता है इस अवस्था में स्थूल शरीर तो निष्क्रिय हो जाता है किंतु सूक्ष्म शरीर जागृत रहता है आत्मा को उस समय सूक्ष्म शरीर का अभिमान होता है कि मैं सूक्ष्मा शरीर हूं इस अवस्था में आत्मा तेजस रूप वाला होता है आत्मा के तेज से ही सभी दृश्य दिखाई देते हैं आदि गुरु भगवान शंकराचार्य ने कहा है कारणों का उपसंहार हो जाने पर जागृत के संस्कार से उत्पन्न जो सविषयक वृत्ति है उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं।
👉 सुषुप्तावस्था- जागृत अवस्था में ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है। स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से उसकी वासना के अनुसार होता है जबकि सुसुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है। इस अवस्था में उसे किसी प्रकार का अनुभव नहीं होता मात्र निद्रा का अनुभव होता है । इस अवस्था में आत्म चेतना को अपने कारण शरीर का अभिमान रहता है । वह इसी को अपना वास्तविक स्वरूप मानता है ।आत्मा की यह अवस्था 'प्राज्ञ'कहलाती है जिसमें यह अनुभव स्वयं आत्मा द्वारा होता है। वास्तव में यदि देखा जाए तो जानने वाला केवल आत्मा है। आत्मा की उपस्थिति में ही जानने योग्य विषय वस्तु को जाना जाता है । आत्मा सीधा ही ज्ञान का कारण है। जागृत अवस्था में ज्ञान का कारण शरीर की ज्ञानेंद्रियां होती है। स्वप्ना अवस्था में ज्ञान का कारण मन होता है । इस अवस्था में मन भी शांत हो जाता है इसलिए यहां पर ज्ञान का बोध सिर्फ आत्मा के द्वारा किया जाता है।
👉 तुरियावस्था- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में आत्मा विश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्था में रहती है। इसकी चौथी अवस्था "तुरीया "कही गयी है। इस अवस्था में सभी दृश्य तथा ज्ञान का विलय हो जाता है। केवल परब्रह्म के समान निर्विकल्प ,निर्विचार ,शून्य अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस स्थिति में सभी विकल्प समाप्त होकर केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है। यही जीवात्मा की मुक्तावस्था है। आरंभ की तीन अवस्थाओं में जीव और आत्मा के बीच भेद बना रहता है ।ज्ञाता और ज्ञान का भेद रहता है। अभेद का ज्ञान होने पर भी भेद बना रहता है। जीव और ब्रह्म में भेद रहने से ही जीव ब्रह्म की साधना करता है । जीवात्मा उसी का अंश है किंतु प्रकृति के आवरण में आकर वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती है। नाशवान जड़ तत्वों से बने हुए भौतिक शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगती है । इसी के दुख एवं सुख को अपना दुख एवं सुख मानने लगती है। जब निरंतर ध्यान के अभ्यास से उसे अपने वास्तविक स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर हो जाता है तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को ही धारण कर लेती है । साधक के हृदय में "आत्मवत् सर्वभूतेषु "की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।उसे संपूर्ण संसार अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है।न कोई अपना न कोई पराया ,सब कुछ अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है अर्थात उसकी चेतना ब्रह्मांड व्यापी अस्तित्व को धारण कर लेती है। इस स्थिति में साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती । अब कौन किसकी साधना करें? तुझमें मुझमें बस भेद यही मैं नर हूंँ तू नारायण है किंतु यहां पर पहुंचने के बाद योगी की यह स्थिति समाप्त हो जाती है । फिर जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें साधक कह उठता है- तुझमें मुझमें अब भेद नहीं तू नारायण ,मैं भी नारायण हूँ। एक ही में साधना नहीं हो सकती ।इसलिए तुरियावस्था में सभी साधनाएं समाप्त हो जाती हैं क्योंकि इसमें आत्मा को परमात्मा से एकत्त्व का अनुभव हो जाता है ।नदी पार होने पर फिर नाव की आवश्यकता नहीं रहती।उसे भी छोड़ना पड़ता है। इस स्थिति में योगी को जगत अपना ही स्वरूप ज्ञात होने लगता है ।वह वासना शून्य हो जाता है ।वासना ही जन्म का कारण बनती है तथा वासना शून्य होना ही वास्तविक मुक्ति है ।जिस साधक के मन में इस संसार के प्रति कोई वासना नहीं ,कोई आसक्ति नहीं! वह समस्त बंधनों से मुक्त होकर हमेशा हमेशा के लिए इस संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है।
⚜🚩 सत्यमेव जयते
⚜🚩 जय मां आदिशक्ति 🚩⚜
Bhakt Lalchand Yadav: पुराने जमाने में जब हॉस्पिटल नहीं होते थे तो . . .
बच्चे की नाभि कौन काटता था मतलब पिता से भी पहले कौन सी जाति बच्चे को स्पर्श करती थी ?
आपका मुंडन करते वक्त कौन स्पर्श करता था ?
शादी के मंडप में नाईं और धोबन भी होती थी। लड़की का पिता लड़के के पिता से इन दोनों के लिए साड़ी की मांग करता था।
वाल्मीकियों के बनाये हुए सूप से ही छठ व्रत होता हैं ।
आपके घर में कुँए से पानी कौन लाता था?
भोज के लिए पत्तल कौन सी जाति बनाती थी?
किसने आपके कपडे धोये?
डोली अपने कंधे पर कौन मीलो मीलो दूर से लाता था और उनके जिन्दा रहते किसी की मजाल न थी कि आपकी बिटिया को छू भी दे।
किसके हाथो से बनाये मिट्टी की सुराही से जेठ में आपकी आत्मा तृप्त हो जाती थी ?
कौन आपकी झोपड़ियां बनाता था?
कौन फसल लाता था?
कौन आपकी चिता जलाने में सहायक सिद्ध होता हैं?
जीवन से लेकर मरण तक सब सबको कभी न कभी स्पर्श करते थे।
. . . और कहते है कि छुवाछूत था ??
यह छुआ छूत की बीमारी मुगलों और अंग्रेजों ने हिंदु धर्म को तोड़ने के लिए एक साजिश के तहत डाली थी।
जातियां थी, पर उनके मध्य एक प्रेम की धारा भी बहती थी, जिसका कभी कोई उल्लेख नहीं करता।
अगर जातिवाद होता तो राम कभी शबरी के झूठे बेर ना खाते,
सत्यकाम जाबाल महर्षि जाबाल ना कहलाए जाते,
रत्नाकर महर्षि बाल्मीकी के नाम से ना पूजे जाते
जाति में मत टूटीये, धर्म से जुड़िये . . . देश जोड़िये।
सभी जातियाँ सम्माननीय हैं...
एक हिंदु, एक भारत श्रेष्ठ भारत🌱⛳🙏🙏
फेसबुक पर एक चर्चा
गुरु ढूंढ रहा हूं कई सालों से 🙏
जब तक वक़्त नही आता तब तक गुरु नही मिलते। ,,,,,हम 15 साल के थे जब हमको गुरु मिले। सब पिछले जन्मों की। कहानी होती है।
मेरा उत्तर
गुरु को ढूंढा नहीं जाता है गुरु खुद शिष्य को ढूंढ लेता है।
इस गुरु के चक्कर में किसी गुरु घंटाल के चक्कर में मत पड़ जाना।
सत्य सुंदर उपाय होता है अपने इष्ट का अपने कुलदेव का सतत निरंतर मंत्र जप करो यह मंत्र जप तुमको गुरु से लेकर निर्वाण तक योग से लेकर ब्रह्म ज्ञान तक स्वत: पहुंचा देता है।
यदि उचित लगे तो अपने ही घर पर बिना पैसे खर्च किए बिना गुरु के सचल मन वैज्ञानिक ध्यान की विधि करो जो तुमको अनुभव के साथ गुरु तक पहुंचाने में सहायता कर देगा। लिंक नीचे है।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html
+91 79828 87645: परंतु किसी बात को भूल जाना खाला जी का घर है क्या
अब आपने विपुल जी की बात पर प्रतिक्रिया पर डबल पुनरावृत्ति करके प्रतिक्रिया दी है इस बात को भूल कर दिखा दो
Hbg P N Agnihotri: Kya bhakti ko yog mana ja sakta hai
Bhakt Shivkumar bhardwaj ji: हां योग ही है
Hbg P N Agnihotri: Pahle itana to pacha len yah bhari yog hai sahab
Bhakt Shivkumar bhardwaj ji: जब यह पच 😄😄😄😄😄 जाए तब दोबारा पूछ लेना
यह संभव है कि आपको भक्ति के द्वारा योग अनुभूति हो जाए।
किंतु योग होने के बाद आप भक्त हो जाएंगे यह बिल्कुल आवश्यक नहीं।
क्योंकि भक्ति द्वैत की बात करता है।
जबकि योग होने का अर्थ होता है अद्वैत का अनुभव।
यदि आप ज्ञान मार्ग से योग का अनुभव करते हैं तो आवश्यक नहीं कि आपके अंदर भक्ति पैदा हो।
Bhakt Nayyer Healer Reki: Mera anubhav bhi yahi kehta hai ki apne guru se milne ke liye apna time kharab na kre, apni sadhna se Jude rahe, jab guru theek samjhenge khud aap se sampark kr lenge.
Mei 12years ki age se regular Dhyan aur Pooja kr raha hu, aur mujhe mere guru 60 years ki age me mile.
Is karya Mei jaldbaji na kare.
Sachal Mn vigyanic Dhyan ke dwara aap bahut jald apne guru aur easht tk pahuch sakte hei.
Bhakt Komal: शत प्रतिशत सही कहा🌹🙏
और गुरु मिले हैं तो वह भी विपुल सेन के द्वारा।
Sadguru bhi apne chelo se kam lena jante hei.
+91 81785 22322: जनाब बाकी तीन कोष को भी विभाजित करके लिख देते तो पूर्ण पंच कोष नश्वर शरीर की व्याख्या हो जाती ।
+91 81785 22322: पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है।
वैसे इस तरह के प्रश्न पूछना इस सभा में उचित नहीं है क्योंकि अभी हम उस तह तक नहीं पहुंचे है।
शिव पुत्र: 1) *अन्नमय कोष*
जो पृथ्वी आप तेज वायु और आकाश पंचतत्व से बना है अर्थात माता पिता के रजबेरी असे उत्पन्न होता है उसे *स्थूल शरीर* कहते है उसी का दुसरा नाम *अन्नमय कोश* क्यु की ये अन्न के विकार से उत्पन्न होता है और अन्न के सहारे ही जीवित रहता है
पाच ज्ञानेंद्रिये पाच कर्मेंद्रिये पंचप्राण मन और बुद्धी ये सतरा त्व से बने हुए शरीर को *सूक्ष्म शरीर* कहते है
अब इन 17 तत्वों में से पंचप्राण के प्राबल्य से ये सूक्ष्म शरीर *प्राणमय कोष*
मन के प्राबल्य से *मनोमय कोष*
बुद्धि के प्रधानता से *विज्ञानमय कोष*
कहलाये जाते है
अज्ञान को *कारणशरीर* शरीर कहते है, एक इंसान को बुद्धि तक ही ज्ञान होता है उसके पर ज्ञान नही रहता है उसे *अज्ञान* कहते है. औए ये अज्ञान पूरे शरीर का है ऐसी वजह से उसे *कारणशरीर* कहा जाता है
*"" अज्ञानमेवास्य हि मुलकरणम ""*
यही कारणशरीर को स्वभाव,आदत, प्रकृति या *आनंदमय कोष* भी कहत है
] +91 81785 22322: बहुत सुंदर व्याख्यान
] शिव पुत्र: *जागृत अवस्था* मे स्थूलशरीर की प्रधानता के कारण उस के साथ सूक्ष्म और कारणशरीर भी साथ होते है
*स्वप्न अवस्था* मे सूक्ष्म शरीर की प्रधानता के कारण उस के साथ कारण शरीर भी होत है
*सुषुप्ति अवस्था* में स्थूल शरीर ( अन्नमय कोष) के ज्ञान का अभाव होता है,ये सूक्ष्म शरीर प्राणमय,मनोमय,और विज्ञानमय कोष का बना हुवा होता है मतलब बुद्धि अज्ञानता में लीन हो जाती है इसलिए सुषुप्ति अवस्था कारणशरीर की होती है
जागृत अवस्था मे और स्वप्न अवस्था मे सुख दुःख दोनों का अनुभव होता है,परंतु सुषुप्ति अवस्था मे केवल सुख का अनुभव रहता है वह दुःख का अनुभव नही होता है
इसलिए कारणशरीर को *आनंदमय कोष* कहते है
शिव पुत्र: *इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते |*
*एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ||*
(भ.गीता 13 \ 1 )
SHIVJI: प्रकृति पुरुष तथा चेतना अध्याय 13
अर्जुन उवाच
प्राकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।१।।
हे केशव प्रकृति पुरुष क्षेत्र और क्षेत्र को जानने वाले के विषय में मैं जानना चाहता हूं ज्ञान और ज्ञेय के विषय में भी बताने की कृपा करें ?
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।२।।
हे कुंती पुत्र यह शरीर (स्थूल शरीर) क्षेत्र कहलाता है इसे इस प्रकार (क्षेत्र को) यह जो जानने वाला है वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है क्षेत्र क्षेत्रज्ञ ज्ञानवान अस्तित्व ही तत्व वेत्ता है
क्षेत्रज्ञ चापि मां विद्ध सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञानम् यततत्ज्ञानं मतं मम ।।३।।
हे भरतवंशी ! क्षेत्रज्ञ भी मैं हूं निश्चित ही सभी क्षेत्रों को मुझ क्षेत्रज्ञ के द्वारा ही जाना जा रहा है
क्षेत्र और क्षेत्र को जानने वाले को जानना ज्ञान से मेरा अभिप्राय है।
भावार्थ
इन दो श्लोक में जो भगवान ने कहा है
है बात तो बहुत गहरी है परंतु 2 4 बात ख्याल में लेंगे तो बात क्लियर हो जाएगी क्षेत्र है शरीर शरीर को महसूस करने वाला है मन (दि माईंड )और मन को भी जानने वाला है आत्मा आत्मा ही क्षेत्रज्ञ और आत्मा ही परमात्मा है परमात्मा का हिस्सा है परमात्मा का अंश है परमात्मा की ही एक मात्रा है क्योंकि हमारी पकड़ में अभी आत्मा नहीं है पकड़ का मतलब है कि हम अपने आपको केवल मन समझे बैठे हैं आत्मिक बोध हमें नहीं हैं आत्मिक बोध जब प्रकट होता है तो शरीर भी दिखाई देता है और मन भी दिखाई देता है प्रथक प्रथक सब चीजें दिखाई देने लग जाती हैं और हम केवल दृष्टा होते हैं
इस बात को इस उदाहरण से समझैं
एक बच्चा मैदान में खेल रहा है और खेलते समय अचानक उसके पैर में चोट लग गई है और पैर में से खून बह निकला है और खेल देखने वाले दर्शक सभी देख रहे हैं कि बच्चे के पैर में से खून निकल रहा है परंतु बच्चे का ध्यान पूरी तरीके से खेल में है बच्चे की सारी चेतना बाहर की तरफ खींची हुई है पूरी तरीके से ध्यान खेल पर है पैर का उसे तनिक भी ध्यान नहीं है ना दर्द का पता है ना खून का पता है परंतु खेल रुक गया बच्चा बैठ गया और अचानक से बहुत तेज दर्द पैर में महसूस करता है और देखता है खून पैर को पकड़ कर के बैठ जाता है अभी भी उसे पैर के दर्द को पता चल रहा है परंतु उसे नहीं जान रहा जिसको दर्द हो रहा है दर्द को महसूस करने वाला है मन मन को दर्द हो रहा है इस बात को देखना क्षेत्रज्ञ का काम है और क्षेत्रज्ञ की समझ ही ज्ञान है और क्षेत्रज्ञ ही आत्मा है
भगवान कृष्ण के करीब करीब सभी सूत्र अंततः दृष्टा की ओर ही इशारा करते हैं
मेरी बात को इतने ध्यान से पढ़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Npc Narendra Parihar: एक अल्पविराम ने बात को सकारात्मक बना दिया।
आराम से बोलना बातों में सौहाद्र भर देता है।
🙏🙏🙏🙏
Swami Pranav Anshuman Jee: ॐ शांति 💐💐🙏🙏
13/05/2020, 20:02 - Bhakt Varun: मै कौन हू ?
आप बताओ।
13/05/2020, 20:16 - Bhakt Varun: मैं क्या जानू अज्ञानी हू
Bhakt Varun: Vipul g pls bataye
तुम शक्तिपात साधक हो। क्रिया से समझो।
Bhakt Parv Mittal Hariyana: देवास टेकरी स्थित मां चामुंडा देवी का सन 1940 का दुर्लभ चित्र....
+91 79828 87645: वरुण कड हो
Bhakt Varun: मेडिटेशन करते समय मुझे यह आवाज सुनाई दी इसका क्या मतलब है
सुंदर अनुभव।
Bhakt Varun: साधक जैसी बात करो मजाक मत करो
+91 79828 87645: आपने प्रश्न ही मजाक करने वाला किया है
आप कौन हो इसका आपको पता होना चाहिए कि विपुल जी को❓
निराकार का सीमित साकार रूप हो।
इस बात को तो यह एक लाख बार सुन चुके हैं परंतु कुछ नहीं निकलता
Bhakt Varun: पता होता तो मैं पूछता ही क्यों ?
तुम्हारा यह अनुभव बहुत ही सुंदर है मतलब तुम्हारी साधन सही दिशा में जा रही है।
जब तक योग का अनुभव नहीं होगा तब तक इसको समझना मुश्किल है।
Bhakt Varun: योग का अनुभव मतलब ?
किसी भी वेद महावाक्य का अनुभव इस तरह के प्रश्नों के उत्तर सहजता से दे देता है।
नहीं योग का अनुभव नहीं हुआ है अभी।
वेदांत महावाक्य के अनुसार आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है।
+91 79828 87645: एक छोटा सा सूत्र बता देता हूं अगर इसको पकड़ कर के बैठ गए तो पक्का संकल्प करके तो जिंदगी में दोबारा किसी और से पूछना नहीं पड़ेगा कि मैं कौन हूं
आपके भीतर से सांस कौन ले रहा है इस बात का लगातार निरीक्षण करते रहो
पकड़ो उसको जो आपके भीतर से सांस ले रहा है पूरे संकल्प के साथ
विपश्यना करो।
+91 79828 87645: ✅🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉
उसके बिना तो मेडिटेशन होता ही नहीं है विपश्यना करता आ रहा हूं शुरू से जब से मेडिटेशन स्टार्ट किया है
शक्तिपात संस्कार नष्ट करती है। विपश्यना पैदा करती है।
मतलब विपस्सना में तो सिर्फ सांस को ही देखना होता है आते जाते
विपश्यना मात्र एक विधि है। अंतर्मुखी होने की विधियां अनेकों है।
+91 79828 87645: कुछ ही दिन में सांसे छोड़ करके आप अपने सैल्फ को जानने लगेंगे
Bhakt Varun: पर अब विपस्सना नहीं करना पड़ता
वरुण तुम भटको नहीं।
विपश्यना कि इन सब की एक सीमा होती है।
Bhakt Varun: जी वी
+91 79828 87645: परंतु अभी केवल जैसे ड्यूटी करते हैं वैसे सांसो को देख रहे हो स्थिर नहीं हो पाए
+91 79828 87645: विपश्यना अपने सेल्फ के नजदीक पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग है
Bhakt Varun: ज्यादा 1 मिनट ही विपश्यना करता हूं ज्यादा नहीं पहले ज्यादा करता था
शक्तिपात संस्कार नष्ट करती है। विपश्यना पैदा करती है।
वरुण तुम मात्र गुरु प्रदत आसन पर साधन करो और कुछ नहीं।
यह आपके लिए होगा।
+91 79828 87645: 1 1 मिनट 1 मिनट में क्या होता है❓😃
+91 79828 87645: सबसे पहली शर्त यह है कि आपको हिसाब छोड़ना पड़ेगा उसे आपको अपनी आदत से जोड़ना पड़ेगा।
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 15
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 13
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 13
Bhakt Shyam Sunder Mishra: मननीय संजीव जी,हरिॐ।।आपके कथनानुसार आप जिस दर्शन की बात कर रहे है,उसको मान लेते हैं, तब तो हमें भगवान श्रीकृष्ण की श्रीमदभगवद्गीता तो व्यर्थ है, सिर्फ वही नही श्रीराम चरित्र मानस, श्री दुर्गा सप्तशती इत्यादि यह सभी जो हमारे धर्म ग्रंथ हैं उसका हम सनातनियों को कदापि अनुसरण नही करना चाहिए। क्यूँ की उन ग्रंथों में सन्निहित जो संदेश हैं वह तो इस परिप्रेक्ष्य में आपके इस कथित दर्शन से सर्वथा भिन्न और आज के युग में भी प्रासंगिक हैं। कही आप सतयुग से तो नही आ गये मान्यवर।
Bhakt Brijesh Singer: भगवान श्री कृष्ण कहते है
*दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।*
*मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।*
मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।।
+1 (913) 302-8535: There is a difference between reaction and response. I have already written that I will give a calm response. I did not elaborate what that calm response would be. If I give my response in a haste then it would be a reaction.
If I am in a position to make a decision, I will make decision for the severity of punishment to the deserving person(s) who has / have committed this crime against humanity. First, I will gather the facts and the credibility of facts. This may take some time. That is I used the word "response" which is very well thought of, calculated, and exemplary. I did not use the word "reaction" because reaction reflects upon lack of self-control.
Lord Rama is "Maryada Prushottam." He has shown us the way to conduct ourselves under any circumstances. Lord Rama gave a well-measured, calm response to Ravana. We all know how much time Lord Rama took to deliver the justice to Ravana. I follow Lord Rama to conduct my self on day to day basis. My answer was based on Lord Rama's conduct rather than Shree Laxman's conduct.
+1 (913) 302-8535: Very true. However, first I would do sincerest effort to figure who deserves the punishment. That will take some time to gather the facts surrounding this crime.
Justice must be delivered to person(s) who deserve it. No innocent person should be punished.
Will you be able to fight alone।
How will you gather others to help you।
Bhakt Lokeshanand Swami: भरत जी ने सुबह होते ही-
"बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना।
सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई।
कुसल मातु पितु परिजन भाई॥"
दु:स्वप्न आया तो अनिष्ट की आशंका से भरतजी ने कर्मकाण्ड प्रारंभ किया। सकाम अनुष्ठान किया।
माँगा क्या? चार की कुशलता माँगी, किनकी? क्रम देखें, सबसे पहले माँ की, फिर पिता, पुनः सुहृदजन और अंत में भाई की, माने रामजी की।
फल क्या मिला? जो माँगा था वो नहीं ही मिला। माँ की कुशलता माँगी थी, विधवा हो गई, पिता की कुशलता माँगी थी, पिता मर गए, पुरजनों की कुशलता माँगी, सब पाँच दिनों से बेहाल हैं, किसी के घर चूल्हा तक नहीं जला। और भाई? उनकी कुशल का तो कहना ही क्या?
तो इस लीला से क्या संकेत मिल रहा है?
"यद्धात्रा निज भाल पट लिखितम्"
"कर्म प्रधान विश्व करि राखा"
"काहु ना कोउ सुखदुखकर दाता"
तो क्या कर्मकाण्ड निष्फल है? नहीं! पर उसका वो फल नहीं जिसकी कामना की गई हो। वह तो कभी कभी प्रारब्धवश संयोग बैठ जाए, और ऐसा लगने लगे, पर क्या अनन्त बार कामना निष्फल होती देखी नहीं जाती?
देखें, भरतजी को अनुपम फल मिला। मेरेपन का क्रम उलट गया, नियम यह है कि मन में ममता जिससे अधिक होती है, कामना उसी के लिए पहले की जाती है। पहले जहाँ माँ थी अब वहाँ रामजी आ गए, माँ अंतिम स्थान पर खिसक गईं। दृष्टि परमात्मोन्मुख हो गई, भगवान के चरणों में अनुराग हो गया।
यही ममता का केन्द्र बदल जाना ही कर्मकाण्ड का एकमात्र फल है।
अब विडियो देखें- कर्मकाण्ड का फल
https://youtu.be/bUfx4a2-Uh8
http://shashwatatripti.wordpress.com
Hb 87 lokesh k verma bel banglore:
*न देवा दण्डमादाय*
*रक्षन्ति पशुपालवत्,*
*यं तु रक्षितुमिच्छन्ति*
*बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ।।*
देवता किसी भी मनुष्य की , स्वयं हाथ मे शस्त्र लेकर रक्षा नही करते।
जिनका रक्षण करने की इच्छा करते है, उन्हे "बुध्दि" प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करते है।
God don't protect any body like we protect our animals ; I.e by stick or sword because God has given us "BUDHI",( Intellect) to protect our self.
*शुभोदयम्! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*
Bhakt Lokeshanand Swami: यूनान में एक संत हुए हैं डायोजनीज। एक कुत्ते को सागर से निकल कर, रेत में लोटते हुए देखकर, डायोजनीज ने अपना लंगोट और कटोरा गिरा दिया था, कि कुत्ता इनके बिना मस्त रह सकता है तो मैं क्यों नहीं? तब से वह सागर किनारे ही रहने लगे।
उधर सिकंदर ने विश्व विजय के लिए निकलने से पहले, उसके दर्शन करने का विचार किया।
डायोजनीज रेत में लेटा था। सिकंदर आया और बोला- मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ।
डायोजनीज ने कहा- दर्शन हो गए हों, तो सामने से हट जाओ। तुम मेरी धूप में बाधा बन रहे हो।
सिकंदर- तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं सिकंदर हूँ।
डायोजनीज- ओह! तो तुम हो सिकंदर? यहाँ से रोज जो लाव लश्कर निकलते हैं, वे तुम्हारे हैं?
"हाँ!" सिकंदर मुस्कुराया।
डायोजनीज- इतनी तैयारी किसलिए चल रही है?
सिकंदर- मैं विश्व विजय के लिए जा रहा हूँ।
डायोजनीज- अच्छा? पर किसलिए?
सिकंदर- यह मेरी इच्छा है। जब तक मैं पूरा विश्व न जीत लूं मेरे मन को चैन नहीं पड़ता।
डायोजनीज- लेकिन तुम विश्व को जीत कर करोगे क्या?
सिकंदर- तब करने को कुछ बचेगा ही कहाँ? तब तो मैं आराम करूंगा।
डायोजनीज- जो करना हो करो। मेरा कोई आग्रह नहीं है, पर अगर तुम आखिर आराम ही करना चाहते हो, तो उसके लिए पूरी दुनिया का चक्कर लगाने की क्या जरूरत है? देखते हो? कितना सुंदर मौसम है? कितनी प्यारी धूप है? कितनी नर्म रेत है? कितनी मस्त हवा चल रही है?
छुट्टी कर सब की, तूं भी सबसे छूट जा। ये ताज गिरा दे, कपड़े उतार, और यहीं लेट जा। यहाँ बहुत आराम है। आराम ही आराम है।
पर सिकंदर को आराम कहाँ? और आप जानते ही होंगे, वह कभी यूनान न लौट सका, कभी आराम न कर सका। वह रास्ते में ही मर गया।
लोकेशानन्द कहता है कि सिकंदर तो सिकंदर की कहानी नहीं जानता था। पर अब आप तो जानते हैं? 'आप' कब आराम करेंगे?
Bhakt Parv Mittal Hariyana: अथ श्रीगुरुगीता...
यस्मात्परतरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः।
मनसा वचसा चैव नित्यमाराधयेद्गुरुम्॥८२॥
गुरोः कृपा प्रसादेन ब्रह्म विष्णु सदाशिवाः।
समर्थाः प्रभवादौ च केवलं गुरुसेवया॥८३॥
अर्थ: जिन से बढ़कर और कुछ नहीं है, श्रुतियां भी यह- नहीं, यह नहीं कह कर मौन हो जाती हैं।अतः मन और वाणी से नित्य गुरुदेव की आराधना करनी चाहिए।।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव केवल गुरु सेवा के प्रसाद से ही सृष्टि, पालन, संहार प्रक्रिया में समर्थ होते हैं।।
व्याख्या: गुरु तत्व सर्वोपरि है। श्रुतियां भी अर्थात वेद भी उस गुरु तत्व का प्रतिपादन करने का प्रयत्न करते हैं, किंतु अंत में यह नहीं, यह भी नहीं कह कर मौन हो जाते हैं। गुरु तत्व का विश्लेषण शास्त्रों के द्वारा नहीं हो सकता। वह, गुरु शरीर के माध्यम से ही प्रकाशित हो सकता है। ऐसे गुरुदेव की मन, वाणी से नित्य आराधना करनी चाहिए- अर्थात मन से चिंतन एवं वाणी से प्रार्थना (स्तुति) करते हुए उनकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।।
यहां गुरु सेवा के विशेष महत्व का प्रतिपादन हुआ है, ब्रह्म में जो, सृजन सकती है, वह गुरु सेवा से प्राप्त हुई है। विष्णु की पालन शक्ति भी उसी का प्रताप है, तथा महेश्वर की संहार लीला भी उसी का फल है। अर्थात गुरुतत्व की शक्ति के द्वारा ही यह त्रिदेव अपने अपने नियत कर्मों को कर पाते हैं।।
Swami Pranav Anshuman Jee: बड़े मंगल की हार्दिक शुभकामानायें। श्रीहनुमानजी को समर्पित आडियो समय निकालकर सुनें ।जय श्रीराम ।🙏🙏🙏
Bhakt Anjana Dixit Mishra: *एक बार मध्यप्रदेश के इन्दौर नगर में एक रास्ते से ‘महारानी देवी अहिल्यावाई होल्कर के पुत्र मालोजीराव’ का रथ निकला तो उनके रास्ते में हाल ही की जनी गाय का एक बछड़ा सामने आ गया।*
*गाय अपने बछड़े को बचाने दौड़ी तब तक मालोरावजी का ‘रथ गाय के बछड़े को कुचलता’ हुआ आगे बढ़ गया।*
*किसी ने उस बछड़े की परवाह नहीं की। गाय बछड़े के निधन से स्तब्ध व आहत होकर बछड़े के पास ही सड़क पर बैठ गई।*
*थोड़ी देर बाद अहिल्यावाई वहाँ से गुजरीं। अहिल्यावाई ने गाय को और उसके पास पड़े मृत बछड़े को देखकर घटनाक्रम के बारे में पता किया।*
*सारा घटनाक्रम जानने पर अहिल्याबाई ने दरबार में मालोजी की पत्नी मेनावाई से पूछा-*
*यदि कोई व्यक्ति किसी माँ के सामने ही उसके बेटे की हत्या कर दे, तो उसे क्या दंड मिलना चाहिए?*
*मालोजी की पत्नी ने जवाब दिया- उसे प्राण दंड मिलना चाहिए।*
*देवी अहिल्यावाई ने मालोराव को हाथ-पैर बाँध कर मार्ग पर डालने के लिए कहा और फिर उन्होंने आदेश दिया मालोजी को मृत्यु दंड रथ से टकराकर दिया जाए। यह कार्य कोई भी सारथी करने को तैयार न था।*
*देवी अहिल्याबाई न्यायप्रिय थी। अत: वे स्वयं ही माँ होते हुए भी इस कार्य को करने के लिए भी रथ पर सवार हो गईं।*
*वे रथ को लेकर आगे बढ़ी ही थीं कि तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी।*
*वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो गई, उसे जितनी बार हटाया जाता उतनी बार पुन: अहिल्याबाई के रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती।*
*यह दृश्य देखकर मंत्री परिषद् ने देवी अहिल्यावाई से मालोजी को क्षमा करने की प्रार्थना की, जिसका आधार उस गाय का व्यवहार बना।*
*उस तरह गाय ने स्वयं पीड़ित होते हुए भी मालोजी को द्रौपदी की तरह क्षमा करके उनके जीवन की रक्षा की।*
*इन्दौर में जिस जगह यह घटना घटी थी, वह स्थान आज भी गाय के आड़ा होने के कारण ‘आड़ा बाजार’ के नाम से जाना जाता है।*
*उसी स्थान पर गाय ने अड़कर दूसरे की रक्षा की थी। ‘अक्रोध से क्रोध को, प्रेम से घृणा का और क्षमा से प्रतिशोध की भावना का शमन होता है’।*
*भारतीय ऋषियों ने यूँ ही गाय को माँ नहीं कहा है, बल्कि इसके पीछे गाय का ममत्वपूर्ण व्यवहार, मानव जीवन में, कृषि में गाय की उपयोगिता बड़ा आधारभूत कारण है।*
*गौसंवर्धन करना हर भारतीय का संवैधानिक कर्तव्य भी है*
+1 (913) 302-8535: I can pray alone with the purest heart. God will help. With God's help everything is possible.
Duryodhan chose army; Arjun chose Lord Shree Krishna. Rest is the story.
Good।
I did it with whole group for पालघर brutal murder of 2 sadhus।
Even few members started साधना for।
Bhakt Brijesh Singer: अगर हम धर्म का साथ न दे और तटस्थ बने रहे तो ये भी एक प्रकार से अधर्म का साथ देना हुआ। क्या धर्म है औरक्या अधर्म इसका निर्णय केवल सतगुणी ही कर सकता है। इसलिए अगर हम सतगुणी नही है तो जो सतगुणी है और वो जैसा कह रहा है वैसा मानना चाहिए ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17
कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है।
+1 (913) 302-8535: No innocent should be punished. Likewise no criminal should be left unhooked.
It takes sometime to understand the qualities or weaknesses of a person.
Having a sadguru in life is a blessing. Guru teaches to be humble, be respectful, and be fearless.
Bhakt Brijesh Singer: महाभारत के युद्घ मे 45 लाख लोग मारे गए, कौन निर्णय करेगा कि कौन सैनिक दोषी था और कौन नही?
श्री कृष्ण जी ने स्वभाव और गुण की भी बात करी है। आप अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करो।
+1 (913) 302-8535: Lord Krishna gave a final call to Kauravas and their army just before Mahabharat started. Five brothers of Duryodhan changed the side because they were righteous and noble.
Those who took the side of Kauravas, whether Guru Dronacharya or Bhishm Pitamah lost.
It is better to die for Dharma then to took the side of Adharma.
Thinking suggestion and talking are most easiest jobs।
But practicals are most difficult।
Every one is looking that what is the condition of India।
You can teach them who wants to listen you।
In fact in last 70 years the rulers always tried to split Hindus by provoking dalits and backwards।
On the other hand they funded others to get strength। Accordingly they twisted the laws also।
All possible efforts were done to break Hindus and Hindustan
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 14
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