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Tuesday, January 14, 2020

क्या हैं: द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत

क्या हैं: द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

जिस आचार्य ने जिस रूप में (ब्रह्म) को देखा उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएँ होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टी का नियंता है।


अद्वैत वेदान्त, वेदान्त की एक शाखा है। जिसको आदि शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया। उसे शांकराद्वैत भी कहा जाता है।

अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टी में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखों से पानी आता है और हाथ काँटा निकालने के लिए जाता है ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।


मधवाचार्य द्वारा प्रतिपादित तथा उनके अनुयायियों द्वारा उपबृंहित द्वैतवाद रामानुज के विशिष्ट द्वैतवाद से काफी मिलता-जुलता है। मधवाचार्य बिना संकोच द्वैत का प्रतिपादन करते हैं।

अद्वैत वेदांत को मध्व "मायावादी दानव' कहते हैं। इनके अनुसार जगत्प्रवाह पाँच भेदों से समन्वित है- (१) जीव और ईश्वर में, (२) जीव और जीव में, (३) जीव और जड़ में, (४) ईश्वर और जड़ में तथा (५) जड़ और जड़ में भेद स्वाभाविक है।

संसार सत्य है और इसमें होनेवाले भेद भी सत्य हैं। वस्तु का स्वरूप ही भेदमय है। ज्ञान में हम वस्तु को अन्य वस्तुओें से अलग करके एक विलक्षण रूप में जानते हैं। चूँकि ज्ञेय विषय भिन्न हैं अत: हमारा ज्ञान भी ज्ञेय के अनुसार भिन्न भिन्न होता है।


रामानुज की तरह द्वैतवाद में भी ईश्वर, चित्‌ और अचित्‌ इन तीन नित्य, परस्पर भिन्न तत्वों को सत्य माना गया है। इनमें से चित्‌ और अचित्‌ ईश्वराश्रित हैं। केवल ईश्वर अनाश्रित तत्व है। वह अनंत सद्गुणों से युक्त है। वही विश्व का स्रष्टा, पालक और संहारक है। वह दिव्य शरीरधारी विश्वातीत और विश्वांतर्यामी दोनों माना गया है। ईश्वर पूर्ण है- कर्मों का अधिष्ठाता ईश्वर केवल भक्ति से प्रसन्न होता है। वह अवतारों और व्यूहों में प्रकट होता है तथा मूर्तियों में निवास करता है। उसकी सहचरी लक्ष्मी उसी की तरह सर्वव्यापिनी है पर उसके गुण लक्ष्मीपति से कुछ न्यून हैं। उसी को ईश्वर की शक्ति कहते हैं।

वेदों के अध्ययन से ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है, अत: वह अनिर्वचनीय नहीं है। पर उसको पूर्ण रूप से जानना भी सहज नहीं है। ईश्वर के गुण अनंत हैं, अत: उसकी सत्ता सीमित नहीं है- असीमता के कारण उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। वही ईश्वर विष्णु है। अपनी इच्छा से वह विश्व का नियमन करता है- वह जीव और जड़ को नए सिरे से बना नहीं सकता और न ही उनका विनाश कर सकता है। वह केवल निमित्त कारण है - उपादान कारण नहीं।


ईश्वर को जब सृष्टि करने की इच्छा होती है, मूल प्रकृति नाना भौतिक पदार्थों के रूप में अपना विकास करती है। सृष्टि का अर्थ है सूक्ष्म का स्थूल रूप में परिणाम तथा जीवों को कर्मानुसार फल देने के लिए शरीरप्रदान। द्वैत वेदांत अद्वैत-मत-परक वैदिक वाक्यों का खींच तानकर अर्थ निकालता है - जैसे "एकमेवाद्वितीयम्‌' का अर्थ होगा - ब्रह्म के समान कोई दूसरा नहीं है। इसीलिए द्वैतवाद वेदों की अपेक्षा आगमों और पुराणों को अधिक महत्व देता है।


विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट+अद्वैत) आचार्य रामानुज (सन् 1037-1137 ईं.) का प्रतिपादित किया हुआ मत है। इसके अनुसार यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं। इस सिद्धांत में आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन है। शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है। लेकिन रामानुज ने अपने सिद्धांत में यह स्थापित किया है कि जगत भी ब्रह्म ने ही बनाया है। परिणामस्वरूप यह मिथ्या नहीं हो सकता।


द्वैताद्वैत दर्शन के प्रणेता निम्बार्क हैं। उनके दर्शन को भेदाभेदवाद (भेद+अभेद वाद) भी कहते हैं। ईश्वर, जीव व जगत् के मध्य भेदाभेद सिद्ध करते हुए द्वैत व अद्वैत दोनों की समान रूप से प्रतिष्ठा करना ही निम्बार्क दर्शन (द्वैताद्वैत) की प्रमुख विशेषता रही है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद विपरीत स्मृतियाँ अमान्य हैं।

जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही धर्म हैं। किसी एक को उपादेय तथा अन्य को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की कल्पना करना उचित नहीं है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।

इस प्रकार भेद और अभेद दोनों विरुद्ध पदार्थों का निर्देश करने वाली श्रुतियों में से किसी एक प्रकार की श्रुति को उपादेय अथवा प्रधान कहें तो दूसरी को हेय या गौण कहना पड़ेगा। इससे शास्त्र की हानि होती है। क्योंकि वेद सर्वांशतया प्रमाण है। श्रुति स्मृतियों का निर्णय है। अतः तुल्य होने से भेद और अभेद दोनों को ही प्रधान मानना होगा, व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो जावे।


श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं। यथा- ‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८) ‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१) ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) । ‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३) अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८) इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।


‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १) आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा. ३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।


श्रीनिम्बार्काचार्यपाद ने उक्त समस्या का समाधान करके ऐसे ही अविरोधी समन्वयात्मक मार्ग का उपदेश किया है।  उनका कहना है– ‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। उसके बिना घडे की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप से रहते हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’

‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उतपत्ति होती है। सद्रूप होने से यह अभेद स्वाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है। वह दूध से दही जैसा नहीं है। दूध, दही बनकर अपने दुग्धत्व (दूधपने) को जिस प्रकार समाप्त कर देता है, वैसे ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत होकर अपने स्वरूप को समाप्त नहीं करता, अपितु मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं। ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल भुगताता है, अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत् का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही है।

इसी समन्वयात्मक दार्शनिक प्रणाली को स्वाभाविक भेदाभेद अथवा स्वाभाविक द्वैताद्वैत शब्द से अभिहित करते हैं, जिसका उपदेश श्रीनिम्बार्काचार्य चरण ने किया है।


शुद्धाद्वैत वल्लभाचार्य (1479-1531 ई) द्वारा प्रतिपादित दर्शन है। वल्लभाचार्य पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं। यह एक वैष्णव सम्प्रदाय है जो श्रीकृष्ण की पूजा अर्चना करता है। वल्लभाचार्य का जन्म बनारस में हुआ।बनारस में दीक्षा पूरी करके अपने गृहनगर विजयनगर चले गए जहां इनको कृष्णदेवराय का संरक्षण प्राप्त हुआ।


शुद्धाद्वैत दर्शन, आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। 'केवलाद्वैत' मत में जहां माया शबलित ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है एवं सम्पूर्ण जगत् को मिथ्या कहा गया है, वहीं शुद्धाद्वैत मत में माया सम्बन्धरहित नितान्त शुद्ध ब्रह्म को जगत् का कारण माना जाता है।


आचार्य शंकर अपने सिद्धान्त के अनुरूप अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु श्रीवल्लभाचार्यचरण भगवान् कृष्णद्वैपायनव्यास के मतानुसार ‘‘शुद्धाद्वैत साकार ब्रह्मवाद“ का प्रतिपादन करते हैं। ‘‘साकार ब्रह्मवादैकस्थापकः“ ।


श्रीवल्लभाचार्यजी स्पष्ट आज्ञा करते हैं ‘‘शब्द एव प्रमाणम्“ ‘‘तत्राप्यलौकिकज्ञापकमेंव, तत् स्वतः सिद्धप्रमाणभावं प्रमाणम्“। प्रत्यक्षादि प्रमाणों में भ्रान्तत्व का भी दर्शन होने से उनका प्रामाण्य एकान्तिक नहीं हो सकता। अतः उन सबों को न कहकर केवल ‘‘शब्द प्रमाण“ को ही स्वीकार किया गया है एवं उसमें भी अलौकिक ज्ञापक शब्द का ही स्वीकार है।


केवलाद्वैत में जहां द्वैत को सर्वथा मायिक मानते हुए जगत् को मिथ्या माना गया है तथा जीव को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब माना गया है ( अर्थात् जीव ही ब्रह्म है), वहीं शुद्धाद्वैत में ‘‘ब्रह्मसत्यं जगत्सत्यं अंशोजीवोहि नापरः“ (ब्रह्म सत्य है, जगत सत्य है, जीव ब्रह्म का अंश है) ऐसा कहा गया है।

सरल रूप में महान् सन्देश -

एकमेवाद्वितीयम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा एक ही है , अद्वितीय है ।  इस प्रकार आत्मा का #एक ही होना और #अद्वितीय होना वेदसिद्ध है ।

शान्तं_शिवमद्वैतम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा शान्त है , शिव है , #अद्वैत है ।

सत्यं_ज्ञानमनन्तम्- यह श्रुति आत्मा को सत्य , ज्ञान और #अनन्त लक्षण बताती है ।

सर्वं_खल्विदं_ब्रह्म - यह श्रुति कहती है कि यह सब आत्मा ही है ।

अहं_ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा_ब्रह्म इत्यादि  श्रुतियॉ जीव को भी ब्रह्म ही बताती हैं ।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मम् - यह श्रुति आत्मा को अत्यन्त सूक्ष्म बताती है ।

जब आत्मा एक ही है , वह सत्य है , ज्ञानस्वरूप है, अनन्त है   यह सब है ,  शान्त है, शिव है , अद्वैत है  और अत्यन्त सूक्ष्म है , तो  फिर  भेद का अवकाश ही कहॉ रहा ?

 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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