एक
वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 5
सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"
आपने
भाग 1,2,3
और 4 में पढा किस प्रकार मां काली ने दर्शन
देकर और सीने पर लात मारकर दीक्षा दे दी। जिसके बाद मैं रोज मरता रहा जीता रहा पर
पाठ और जाप बंद न किया। मुरारी बापू ने भी हाथ जोडकर मुझे संभालने से इंकार कर
दिया। बाद में एक तांत्रिक ने मुझे अपना चेला बनाने के चक्कर में कितने तंत्र किये
पर बेइज्जत होकर भागा। अब यह सिद्द हो गया था कि कोई शक्ति मेरा अहित तो नहीं कर
सकती हैं। सब मां काली की देन थी। भटकते भटकते मैं स्वप्न और ध्यान के माध्यम और
एक संत की भभूत के सहारे अपने गुरू तक पहुंचा। दीक्षा के पूर्व किस प्रकार ईश ने
वाराणसी की अद्भुत यात्रा कराई। शिव दर्शन के साथ मस्ती में लखनऊ लौटा। बचपन की
यादों में पिता जी का पिटाई उत्सव और कीडे मकोडे की भुनाई पर मुझे महामकडे के
दर्शन। कैसे मैंनें अपना नाम देवीदास विपुल कर दिया।
अब
आगे .......................
शोध
निष्कर्ष
आगे
बढने के पूर्व मैं अपने अनुभवो से क्या निष्कर्ष निकाल सकता हूं।
पहला
सत्य - सनातन पूर्णतया: सत्य है। ग़ीता की वाणी को अनुभव किया जा सकता है। तुलसी की
नवधा भक्ति “मंत्र जाप मोही दृढ विस्वासा।“ सत्य है। मंत्र जप सबसे सरल और सहज
मार्ग है। नवार्ण मंत्र की महिमा और देवी पाठ की लीला अपार है जिसको प्रत्यक्ष देख
सकते हैं। मैनें सन 1984 में हवन के साथ जाप आरम्भ किया और 7 वर्षों में मां ने
कृपा की।
अत:
मित्रों आप भी प्रभु प्राप्ति हेतु मंत्र जाप में जुट जाइये। हो सकता है इस ही
जन्म में प्रभु कृपा कर दें।
मेरे
अनुभव से सिद्द हो गया है कि ईश्वर है है और है। हलांकि कुछ मूर्ख और उल्टी बुद्दी
के तर्कशास्त्री बोलेगें यह मन का भ्रम है कल्पना है मनोविज्ञान है। तो उन गधों को
मैं बोलना चाहता हूं कि आज की तारीख में मैं तुमको सनातन के शक्ति के अनुभव की
चुनौती देता हूं कि ब्लाग पर दी समवैध्यावि अपने घर पर करो पर ईमानदारी से। यदि
तुमको अनुभव न हो तो मुझे जो सजा देना चाहते हो दे देना। जीवन के हर कार्य हेतु समय
तो देना ही पडता है। ईश अनुभव कोई फालतू नही कि तुमको बिना समय दिये बिना इच्छा के
हो जायेगा।
वैज्ञानिकों
को चुनौती
वैज्ञानिकों
तुम दुनिया के सबसे बडे मूर्ख हो। इंसान की बनाई वस्तु उपकरण और यंत्रों पर यकीन
करते हो पर इंसान पर नहीं। कोई प्रयोग करने हेतु वर्षों दे सकते हो पर ईश प्राप्ति
के अनुभव हेतु समय नहीं है। इस वैज्ञानिक की दुनिया के वैज्ञानिक और मूर्ख हाफकिन
जो मर गया उसके प्रयोगों को चुनौती। उसको आवाज और बोलने का जरिया इस भारत की भूमि
के एक धार्मिक सनातन साफ्ट्वेयर इंजिनियर ने दी थी। प्राय: जो अपंग़ होता है वह
जानते हुये भी ईश को नहीं मानता है।
मेरी दीक्षा और
गुरू महाराज बोले काली शक्ति
खैर किसी तरह
दिसम्बर 1993 की 10 तारीख आई। मैं पत्नि और 5 साल की बच्ची के साथ मुम्ब्रा स्थित
आश्रम पहुंच गया। सुबह 2 बजे उठना था। कुछ कुछ ठंड पडने लगी थी। वहां जाकर भी मन में
शंकायें भरी थी। मैं गुरू को मानता ही न था। एक ही बात बार बार दिमाग में कौंधती
मानव शरीर कैसे गुरू हो जब मां काली सब कुछ पर रोज मरने जीने से अच्छा है यह भी
देख लिया जाये। आष्रम में पल्लवी और योगेश्वरी नाम की दो अविवाहित कन्यायें भी थी।
कालीदास रात को आये तो कुछ हिम्म्त बंधी पर शक तो शक। यहां ये दो कन्यायें क्यों।
वास्तव में ये दोनों पहले से दीक्षित थी।
और एक बात जो मेरे को बहुत बात में समझ
में आई कि जब दीक्षा होती है तो गुरू महाराज उस वक्त उपस्थित हर एक के सर पर हाथ
रख कर आशीर्वाद देते हैं। बाकी समय वह किसी को स्पर्श नहीं करते हैं। दीक्षा के
समय जब शक्तियों का आह्वाहन होता है तो गुरू महाराज शिव और अपने पूर्व गुरुओ की
शक्तियों प्राप्त कर लेते हैं। अत: उनका स्पर्श विशेष होता है। अत: हर साधक को
चाहिये जब दीक्षा हो तो अवश्य उपस्थित रहे।
आश्रम में
ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश (वर्तमान में स्वामी चैतन्यविलास तीर्थ जी महाराज, जो उस समय भोजन रसोई की व्यवस्था देखते थे। ब्रह्मचारी शेखर प्रकाश अन्य
देख्ते थे। सन्यासी स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज गुरू रूप में दीक्षा देते
थे। उडीसा निवासी ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश पहले अंतर्राष्ट्रीय योग संस्थान,
हरिद्वार में योग गुरू थे।
स्वामी रामदेव की तरह सभी आसनों में
पारंगत वे निकट के छोटे के आश्रम में ठहरे स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज के
सम्पर्क में आये तो महसूस हुआ कि योग क्या है उसकी शक्ति क्या है। क्योकिं अनुभव
बिना सब बेकार। इन्ही के साथ एक अन्य उडीसा के ब्रह्मचारी
पंकज, जो आजकल नर्मदा तट पर किसी आश्रम में सन्यास दीक्षा
लेकर गुरू पद सम्भाले हैं। (बाकी विवरण पता कर लिखूंगा)। दोनो को लगा अब आया ऊंट
पहाड के नीचे। लेकिन आप दोनों अपनी भव्य जिंदगी को त्यागकर स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज
की शरण में ब्रह्मचारी की दीक्षा लेकर
गुरू सेवा में एक चाकर की तरह रहने लगे। गुरू आज्ञा से ब्रह्मचारी निर्मल मुम्ब्रा
आश्रम आकर साधकों की सेवा करने लगे और ब्रह्मचारी पंकज गुरू महाराज के साथ महाराज
जी द्वारा दस हजार से अधिक रचित भजनों को गाने में लीन हो गये। ब्रह्मचारी शेखर एम
बी ए थे। अपनी नौकरी छोडकर वैराग्य ले लिया, बाद में उन्होने
अपना शरीर भी त्याग दिया।
अपनी मोहक
मुस्कान से कटारी मारनेवाले स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज पहले अमलनेर में
तीन विषयों में पोस्ट ग्रेजुएशन के साथ कालेज में प्रिंसिपल थे। पूणे के शक्तिपात
गुरू गुलवर्णी महाराज से शक्तिपात दीक्षा लेकर साधनरत रहे। सेवानिवृती के बाद
स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज से सन्यास दीक्षा लेकर मुम्बई बस गये। स्वर्गीय देवी
भक्त टी. कालीदास जी, जो मलयाली थे, ने स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज के आदेश पर आश्रम की स्थापना की थी और
वे प्रशासक थे। आश्रम में अक्सर चंडी पाठ और हवन कराते थे। एक सधे हुये ज्योतिष
होने के साथ परम गुरू भक्त थे और अक्सर आश्रम में रहते थे।
सुबह दो बजे हम
तीनों उठे, दोनो ब्रह्मचारी तो पता नहीं सोये कि नहीं क्योकि नौ
लोगों की दीक्षा का प्रबंध करना था। दीक्षा की तैयारी हुई। स्वामी नित्यबोधानंद
तीर्थ जी महाराज आये पहले गुरू महाराज को प्रणाम किया पूजन किया फिर हमारे सामने
कुछ फीट की दुरी पर बैठ गये। हम नौ लोगों ने बारी स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी
महाराज को गुरू स्वीकार करते हुये उनका पाद पूजन किया और अपने आसनों पर वापिस बैठ
गये। महाराज जी का सर दायें बायें होता जा रहा था। साफ लग रहा था महाराज जी शक्ति
आह्वाहन कर रहें हैं। फिर महाराज जी ने बारी बारी सबका मंत्र पूछा। दो लोग नहीं
बता पाये तो उनसे इष्ट पूछकर मंत्र बताया और क्रमश: उन मंत्रों को बुदबुदाया और
सामनेवाले को जोर से बोलने को कहा। यह तीन बार किया। मैं मेरी पत्नी की दीक्षा भी
हुई। पुत्री 5 साल की थी अत: उसकी मंत्र दीक्षा बाद में सुबह 9 बजे के आस पास हुई।
मतलब कम पावर की दीक्षा।
अब हाल में
बिजली बंद। एक मात्र जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। हम नये नौ में 6 पुरुष और 3
स्त्रियां कन्यायें थी। हमारे पीछे पहले से दीक्षित करीबन 25 / 30 लोग भी अपने आसन
पर बैठे थे। मैं उत्सुकता पूर्वक आंख खोलें देख रहा था। साधन चालू। पहले जोर सा
कोलाहल क्योकिं हर एक का मंत्र अलग और सब अपने अपने मंत्र का जाप ऊंची आवाज में
करें। पुराने लोगों को क्रिया चालू। कोई हंस रहा, कोई रोये, कोई चिल्लाये, कोई
घोडे की तरह हिनहिनाये, कोई मेढक की तरह उछले।
(और जानने के
लिये ब्लाग पर दिये अन्य लेख पढे)।
कुछ देर बाद गुरू महाराज उठे और टार्च की रोशनी
में चलकर सबके पास पहुंचे और सर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। अचानक मैं भी शेर की
तरह दहाडने लगा। फिर कुछ देर बाद आसन पर लेट गये। कुछ सो गये। तब मैं भी लेट कर
मंत्र जप करने लगा। अब हाल में शांति थी। बस कुछ अब भी बडबडा र्हे थे।
करीबन 7 बजे जो
नये दीक्षित उठ गये थे उनको महाराज जी ने उनको कक्ष में बुलवाया। पूजन साम्रगी को
स्पर्श कर स्वीकार किया। प्रसाद दिया। सबसे अनुभुति पूछी। और बोला साधन करते रहो।
तीन दिन तक यही चलना था। क्रिया के अनुभवों के आधार पर शिष्य की दशा और दिशा देखी
गई। पर मुझ पर कोई विशेष प्रभाव न हुआ।
परन्तु दूध का
जला छाछ भी फूंक कर पीता। दिमाग में शक का कीडा रेंग रहा था। तमाम बाबाओं की अनेको
फरेब की कहाँनियां भी सुन रखी थी। सोंचा सफाई के बहाने गुरू महाराज के कमरे की
तलाशी ली जाये। अत: छोटे से कुटियानुमा रूम में सफाई चालू कर दी। पिछले चार पांच
महीने के वक्त में आश्रम जाकर लगभग सभी किताबें खरीद कर पढ डाली। जिसमें गुरू सेवा
को भी बताया गया था। अत: मन के कीडे के साथ गुरू सेवा चालू।
करीबन दो तीन घंटे लगे
पर हाथ कुछ न लगा। सिर्फ किताबें और किताबे, कुछ दवाई और देवी
देवताओं की फोटो। चलो एक संदेह तो दूर हुआ यहां कोई आपत्तिजनक वस्तु न मिली। तीन
दिन बीतने के बाद लौटा पर बीच बीच में जाता रहा। कभी कभी तो हफ्ते में तीन तीन
बार। गुरू श्रद्धा के दिखावे और चढावे के साथ। क्रिया पहले जैसी चलती र्ही पर कुछ
अजीब किस्म की बेहूदी। हो यूं कि अहम ब्रह्मास्मि का आवेग क्रिया में और इसकी
अनुभुति में जग में सब तुच्छ कीडे मकोडे लगे। और मैंने पुस्तके तो पढी थी तो गुरू
परम्परा के आदि गुरूओ के पूर्व नाम लेकर पुकारना चालू। जैसे वो अभी दौडे चले
आयेगें। गुरू महाराज सर पर कई बार हाथ रखें पर कोई असर न। एक दिन महाराज पत्नि से
बोले इस पर किसी बुरी काली शक्ति का वास है जो किसी के वश में नहीं।
गुरू महाराज की शक्ति
आगे बढने के
पूर्व मैं कुछ किस्से बताना चाहूंगा कि गुरू महाराज के आदर्शों और शक्ति को
बतायेगें।
बाद का किस्सा
है वर्ष 1996 का जो हमारे गुरू भाई और “आत्म अवलोकन व्हाट्स अप ग्रुप के सदस्य भी
है, ने बताया। उस वक्त मैं आश्रम में न था। हलांकि मेरे
साम्ने जैन मुनियों, सरदारो, इसाइयों
और मुस्लिम की भी दीक्षा हुई थी पर यह कुछ अलग थी।
एक दिन सुबह एक
बस में 20 / 25 शिष्यों के साथ नासिक के किसी मठ के गुरू जो लगभग 105 साल के थे।
साधना करते करते उनके हाथ गुटनों के ऊपर ही रहते थे। वे आये। महाराज जी मराठी में
बोले। “मेरे गुरू महाराज स्वप्न में आये थे और बोले अपनी मृत्यु के पूर्व शक्ति
जागृत करो तब ही मुक्ति मिलेगी, आप दीक्षा दे दे”।
कुछ समय बाद हमारे गुरू महाराज ने पूरा आश्रम खाली करा दिया और सबको दूर चले जाने
का आदेश दे दिया। कुछ देर बाद सबको बुलाया। नासिक के मठ के गुरू के चेलों ने भोजन
किया और चले गये। व्यवस्था तो ब्रह्मचारी निर्मल की थी।
शाम को एक ने
पूछा महाराज जी आपने सबको बाहर क्यों भेज दिया। महाराज ने बताया जिस शक्ति के साथ
उनको दीक्षा देनी पडी। वह शक्ति यदि किसी सामान्य व्यक्ति को लग जाये तो उसकी
मृत्यु हो सकती है। यह कह कर मौन हो गये।
एक बार स्वामी चिन्मयानंद के दो शिष्य आये और बोले “ मुझे गीता
पूरी याद है हम लोग गुरू हैं पर अनुभव बिल्कुल नहीं। आप हमको अनुभव करा दे। दीक्षा
दे दे”। महाराज जी बोले आप भी सन्यासी मैं अपने को बडा कैसे मानूं। वैसे आप अपने
गुरू से पत्र ले आयें तो मैं सोंचूंगा। वे दोनो स्वामी चिन्मयानंद से पत्र न ला
पाये और दीक्षा न हो सकी। ऐसे अनेको किस्से हैं।
पर एक किस्सा
सहन शीलता का। हुआ यूं मेरी माता जी की दीक्षा मैंने वर्ष 1996 में कराई थी। माता
जी आश्रम में थी। कि पता चला कि गुरू महाराज की कुछ तबियत खराब है। अत: प्रवचन
नहीं देंगे। बाद में पता चला। मां डरे नहीं इस लिये नहीं बताया। महाराज की तौलिया
में एक बिच्छू बैठा था। जिसने महाराज जी को तीन डंक मारे थे। पर महाराज जी
ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश को बुलाकर बिच्छू चिमटे से पकडवाकर सकुशल उसको बाहर
फिकवा दिया। इस घटना के बाद एक दिन आम के पेड की कुछ टहनियां जो बैठने के स्थान पर
सर पर लगती थी। उनको ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश के कहने पर मैंनें काट दिया। गुरू
महाराज को पेडों से बहुत लगाव था। यह सुनकर मेरी और ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश की
खूब चम्पी की।
पर इधर गुरू
महाराज जी कुछ भी जतन करे मेरी अजीब किसम की गरीब क्रिया सब गुरूओ के नाम के साथ
चालू रही। कभी कभी महाराज जी विचलित तक हो जाते थे पर चुप रहते थे।
जब बडे महाराज ने
किया भीषण शक्तिपात
बात फरवरी 1994
की है। स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज यानि बडे गुरू महाराज आये हुये थे। परमपरा के सभी चेले सन्यासी और
उनके एक गुरू भाई पर सन्यास के चेले जो गुजरात के थे करीबन 100 साल के थे। वह भी
आये हुये थे। कक्ष में सभा लगी थी। ब्रह्मचारी पंकज प्रकाश सुरीली आवाज में भजन गा
रहे थे। कुछ को क्रिया हो रही थी। मुझे भी अजीबो गरीब क्रिया चालू हो गई। हमारे
गुरू महाराज ने बडे महाराज को कुछ बोला। बडे गुरू महाराज ने सबको कक्ष के बाहर कर
दिया और मेरे सर पर तालू पर तीन बार जोर से हाथ मारा और बाहर चले गये। जिसके कुछ
देर बाद मैं अकेला कक्ष में, शांत हो गया और मुझे
बुखार आने लगा।
अब यहां पर जब
मेरी पत्नी ने जब यह देखा था तो गुरू महाराज से क्षमा मांगकर रोते हुये गुस्से और
ग्लानि में घर लौट गई। मुझे दूसरे दिन बुखार में महाराज जी ने किसी की कार से घर
पर जो वाशी में था मुझे भिजवा दिया। इसके बाद मेरी क्रिया बंद सी हो गई। अनुभुतियां
और अनुभव भी लगभग बंद हो गये। धीरे धीरे मैं 1996 तक सामान्य हो गया। पर आश्रम जाता
रहा। साधन पर बैठता पर मन न लगता। पर मंत्र जप करता रहा। अब मैंनें पूरा नवार्ण मंत्र
का जाप आरम्भ कर दिया। मन शेयर मार्केट और कविता और कवि सम्मेलन की ओर भागने लगा। यद्यपि
ज्ञान चछु तो पहले ही खुल चुके थे पर मन इधर उधर भी भागने लगा।
...................................
क्रमश: .......................................
भाग 6 का लिंक
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल