Search This Blog

Monday, June 18, 2018

भाग- 5 : एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा



एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 5  
 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"




आपने भाग 1,2,3 और 4 में पढा किस प्रकार मां काली ने दर्शन देकर और सीने पर लात मारकर दीक्षा दे दी। जिसके बाद मैं रोज मरता रहा जीता रहा पर पाठ और जाप बंद न किया। मुरारी बापू ने भी हाथ जोडकर मुझे संभालने से इंकार कर दिया। बाद में एक तांत्रिक ने मुझे अपना चेला बनाने के चक्कर में कितने तंत्र किये पर बेइज्जत होकर भागा। अब यह सिद्द हो गया था कि कोई शक्ति मेरा अहित तो नहीं कर सकती हैं। सब मां काली की देन थी। भटकते भटकते मैं स्वप्न और ध्यान के माध्यम और एक संत की भभूत के सहारे अपने गुरू तक पहुंचा। दीक्षा के पूर्व किस प्रकार ईश ने वाराणसी की अद्भुत यात्रा कराई। शिव दर्शन के साथ मस्ती में लखनऊ लौटा। बचपन की यादों में पिता जी का पिटाई उत्सव और कीडे मकोडे की भुनाई पर मुझे महामकडे के दर्शन। कैसे मैंनें अपना नाम देवीदास विपुल कर दिया।
अब आगे .......................
 
 
 
शोध निष्कर्ष 
 
 
आगे बढने के पूर्व मैं अपने अनुभवो से क्या निष्कर्ष निकाल सकता हूं।
पहला सत्य - सनातन पूर्णतया: सत्य है। ग़ीता की वाणी को अनुभव किया जा सकता है। तुलसी की नवधा भक्ति “मंत्र जाप मोही दृढ विस्वासा।“ सत्य है। मंत्र जप सबसे सरल और सहज मार्ग है। नवार्ण मंत्र की महिमा और देवी पाठ की लीला अपार है जिसको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। मैनें सन 1984 में हवन के साथ जाप आरम्भ किया और 7 वर्षों में मां ने कृपा की।

अत: मित्रों आप भी प्रभु प्राप्ति हेतु मंत्र जाप में जुट जाइये। हो सकता है इस ही जन्म में प्रभु कृपा कर दें। 
 
 
मेरे अनुभव से सिद्द हो गया है कि ईश्वर है है और है। हलांकि कुछ मूर्ख और उल्टी बुद्दी के तर्कशास्त्री बोलेगें यह मन का भ्रम है कल्पना है मनोविज्ञान है। तो उन गधों को मैं बोलना चाहता हूं कि आज की तारीख में मैं तुमको सनातन के शक्ति के अनुभव की चुनौती देता हूं कि ब्लाग पर दी समवैध्यावि अपने घर पर करो पर ईमानदारी से। यदि तुमको अनुभव न हो तो मुझे जो सजा देना चाहते हो दे देना। जीवन के हर कार्य हेतु समय तो देना ही पडता है। ईश अनुभव कोई फालतू नही कि तुमको बिना समय दिये बिना इच्छा के हो जायेगा।
 
 
वैज्ञानिकों को चुनौती  
 
 
 
वैज्ञानिकों तुम दुनिया के सबसे बडे मूर्ख हो। इंसान की बनाई वस्तु उपकरण और यंत्रों पर यकीन करते हो पर इंसान पर नहीं। कोई प्रयोग करने हेतु वर्षों दे सकते हो पर ईश प्राप्ति के अनुभव हेतु समय नहीं है। इस वैज्ञानिक की दुनिया के वैज्ञानिक और मूर्ख हाफकिन जो मर गया उसके प्रयोगों को चुनौती। उसको आवाज और बोलने का जरिया इस भारत की भूमि के एक धार्मिक सनातन साफ्ट्वेयर इंजिनियर ने दी थी। प्राय: जो अपंग़ होता है वह जानते हुये भी ईश को नहीं मानता है। 
 
 
 

मेरी दीक्षा और गुरू महाराज  बोले काली शक्ति 
 
 

खैर किसी तरह दिसम्बर 1993 की 10 तारीख आई। मैं पत्नि और 5 साल की बच्ची के साथ मुम्ब्रा स्थित आश्रम पहुंच गया। सुबह 2 बजे उठना था। कुछ कुछ ठंड पडने लगी थी। वहां जाकर भी मन में शंकायें भरी थी। मैं गुरू को मानता ही न था। एक ही बात बार बार दिमाग में कौंधती मानव शरीर कैसे गुरू हो जब मां काली सब कुछ पर रोज मरने जीने से अच्छा है यह भी देख लिया जाये। आष्रम में पल्लवी और योगेश्वरी नाम की दो अविवाहित कन्यायें भी थी।
 
 
 
कालीदास रात को आये तो कुछ हिम्म्त बंधी पर शक तो शक। यहां ये दो कन्यायें क्यों। वास्तव में ये दोनों पहले से दीक्षित थी। 
 
 
और एक बात जो मेरे को बहुत बात में समझ में आई कि जब दीक्षा होती है तो गुरू महाराज उस वक्त उपस्थित हर एक के सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हैं। बाकी समय वह किसी को स्पर्श नहीं करते हैं। दीक्षा के समय जब शक्तियों का आह्वाहन होता है तो गुरू महाराज शिव और अपने पूर्व गुरुओ की शक्तियों प्राप्त कर लेते हैं। अत: उनका स्पर्श विशेष होता है। अत: हर साधक को चाहिये जब दीक्षा हो तो अवश्य उपस्थित रहे। 
 
 
 

आश्रम में ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश (वर्तमान में स्वामी चैतन्यविलास तीर्थ जी महाराज, जो उस समय भोजन रसोई की व्यवस्था देखते थे। ब्रह्मचारी शेखर प्रकाश अन्य देख्ते थे। सन्यासी स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज गुरू रूप में दीक्षा देते थे। उडीसा निवासी ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश पहले अंतर्राष्ट्रीय योग संस्थान, हरिद्वार में योग गुरू थे। 
 
 
 
 
स्वामी रामदेव की तरह सभी आसनों में पारंगत वे निकट के छोटे के आश्रम में ठहरे स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज के सम्पर्क में आये तो महसूस हुआ कि योग क्या है उसकी शक्ति क्या है। क्योकिं अनुभव बिना सब बेकार। इन्ही के साथ एक अन्य उडीसा के ब्रह्मचारी पंकज, जो आजकल नर्मदा तट पर किसी आश्रम में सन्यास दीक्षा लेकर गुरू पद सम्भाले हैं। (बाकी विवरण पता कर लिखूंगा)। दोनो को लगा अब आया ऊंट पहाड के नीचे। लेकिन आप दोनों अपनी भव्य जिंदगी को त्यागकर स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज की शरण में  ब्रह्मचारी की दीक्षा लेकर गुरू सेवा में एक चाकर की तरह रहने लगे। गुरू आज्ञा से ब्रह्मचारी निर्मल मुम्ब्रा आश्रम आकर साधकों की सेवा करने लगे और ब्रह्मचारी पंकज गुरू महाराज के साथ महाराज जी द्वारा दस हजार से अधिक रचित भजनों को गाने में लीन हो गये। ब्रह्मचारी शेखर एम बी ए थे। अपनी नौकरी छोडकर वैराग्य ले लिया, बाद में उन्होने अपना शरीर भी त्याग दिया। 
 
 
 

अपनी मोहक मुस्कान से कटारी मारनेवाले स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज पहले अमलनेर में तीन विषयों में पोस्ट ग्रेजुएशन के साथ कालेज में प्रिंसिपल थे। पूणे के शक्तिपात गुरू गुलवर्णी महाराज से शक्तिपात दीक्षा लेकर साधनरत रहे। सेवानिवृती के बाद स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज से सन्यास दीक्षा लेकर मुम्बई बस गये। स्वर्गीय देवी भक्त टी. कालीदास जी, जो मलयाली थे, ने स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज के आदेश पर आश्रम की स्थापना की थी और वे प्रशासक थे। आश्रम में अक्सर चंडी पाठ और हवन कराते थे। एक सधे हुये ज्योतिष होने के साथ परम गुरू भक्त थे और अक्सर आश्रम में रहते थे।
 
 
 

सुबह दो बजे हम तीनों उठे, दोनो ब्रह्मचारी तो पता नहीं सोये कि नहीं क्योकि नौ लोगों की दीक्षा का प्रबंध करना था। दीक्षा की तैयारी हुई। स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज आये पहले गुरू महाराज को प्रणाम किया पूजन किया फिर हमारे सामने कुछ फीट की दुरी पर बैठ गये। हम नौ लोगों ने बारी स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज को गुरू स्वीकार करते हुये उनका पाद पूजन किया और अपने आसनों पर वापिस बैठ गये। महाराज जी का सर दायें बायें होता जा रहा था। साफ लग रहा था महाराज जी शक्ति आह्वाहन कर रहें हैं। फिर महाराज जी ने बारी बारी सबका मंत्र पूछा। दो लोग नहीं बता पाये तो उनसे इष्ट पूछकर मंत्र बताया और क्रमश: उन मंत्रों को बुदबुदाया और सामनेवाले को जोर से बोलने को कहा। यह तीन बार किया। मैं मेरी पत्नी की दीक्षा भी हुई। पुत्री 5 साल की थी अत: उसकी मंत्र दीक्षा बाद में सुबह 9 बजे के आस पास हुई। मतलब कम पावर की दीक्षा। 
 
 
 

अब हाल में बिजली बंद। एक मात्र जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। हम नये नौ में 6 पुरुष और 3 स्त्रियां कन्यायें थी। हमारे पीछे पहले से दीक्षित करीबन 25   /  30 लोग भी अपने आसन पर बैठे थे। मैं उत्सुकता पूर्वक आंख खोलें देख रहा था। साधन चालू। पहले जोर सा कोलाहल क्योकिं हर एक का मंत्र अलग और सब अपने अपने मंत्र का जाप ऊंची आवाज में करें। पुराने लोगों को क्रिया चालू। कोई हंस रहाकोई रोये, कोई चिल्लाये, कोई घोडे की तरह हिनहिनाये, कोई मेढक की तरह उछले।   
 
 
 
(और जानने के लिये ब्लाग पर दिये अन्य लेख पढे)। 
 
 
 
 
 
 
 
कुछ देर बाद गुरू महाराज उठे और टार्च की रोशनी में चलकर सबके पास पहुंचे और सर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। अचानक मैं भी शेर की तरह दहाडने लगा। फिर कुछ देर बाद आसन पर लेट गये। कुछ सो गये। तब मैं भी लेट कर मंत्र जप करने लगा। अब हाल में शांति थी। बस कुछ अब भी बडबडा र्हे थे। 
 
 
 
करीबन 7 बजे जो नये दीक्षित उठ गये थे उनको महाराज जी ने उनको कक्ष में बुलवाया। पूजन साम्रगी को स्पर्श कर स्वीकार किया। प्रसाद दिया। सबसे अनुभुति पूछी। और बोला साधन करते रहो। तीन दिन तक यही चलना था। क्रिया के अनुभवों के आधार पर शिष्य की दशा और दिशा देखी गई। पर मुझ पर कोई विशेष प्रभाव न हुआ। 
 
 

परन्तु दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता। दिमाग में शक का कीडा रेंग रहा था। तमाम बाबाओं की अनेको फरेब की कहाँनियां भी सुन रखी थी। सोंचा सफाई के बहाने गुरू महाराज के कमरे की तलाशी ली जाये। अत: छोटे से कुटियानुमा रूम में सफाई चालू कर दी। पिछले चार पांच महीने के वक्त में आश्रम जाकर लगभग सभी किताबें खरीद कर पढ डाली। जिसमें गुरू सेवा को भी बताया गया था। अत: मन के कीडे के साथ गुरू सेवा चालू। 
 
 
 
करीबन दो तीन घंटे लगे पर हाथ कुछ न लगा। सिर्फ किताबें और किताबे, कुछ दवाई और देवी देवताओं की फोटो। चलो एक संदेह तो दूर हुआ यहां कोई आपत्तिजनक वस्तु न मिली। तीन दिन बीतने के बाद लौटा पर बीच बीच में जाता रहा। कभी कभी तो हफ्ते में तीन तीन बार। गुरू श्रद्धा के दिखावे और चढावे के साथ। क्रिया पहले जैसी चलती र्ही पर कुछ अजीब किस्म की बेहूदी। हो यूं कि अहम ब्रह्मास्मि का आवेग क्रिया में और इसकी अनुभुति में जग में सब तुच्छ कीडे मकोडे लगे। और मैंने पुस्तके तो पढी थी तो गुरू परम्परा के आदि गुरूओ के पूर्व नाम लेकर पुकारना चालू। जैसे वो अभी दौडे चले आयेगें। गुरू महाराज सर पर कई बार हाथ रखें पर कोई असर न। एक दिन महाराज पत्नि से बोले इस पर किसी बुरी काली शक्ति का वास है जो किसी के वश में नहीं।  
 
 
 

गुरू महाराज की शक्ति 
 
 
 

आगे बढने के पूर्व मैं कुछ किस्से बताना चाहूंगा कि गुरू महाराज के आदर्शों और शक्ति को बतायेगें।
बाद का किस्सा है वर्ष 1996 का जो हमारे गुरू भाई और “आत्म अवलोकन व्हाट्स अप ग्रुप के सदस्य भी है, ने बताया। उस वक्त मैं आश्रम में न था। हलांकि मेरे साम्ने जैन मुनियों, सरदारो, इसाइयों और मुस्लिम की भी दीक्षा हुई थी पर यह कुछ अलग थी। 
 
 
 

एक दिन सुबह एक बस में 20 / 25 शिष्यों के साथ नासिक के किसी मठ के गुरू जो लगभग 105 साल के थे। साधना करते करते उनके हाथ गुटनों के ऊपर ही रहते थे। वे आये। महाराज जी मराठी में बोले। “मेरे गुरू महाराज स्वप्न में आये थे और बोले अपनी मृत्यु के पूर्व शक्ति जागृत करो तब ही मुक्ति मिलेगी, आप दीक्षा दे दे”। कुछ समय बाद हमारे गुरू महाराज ने पूरा आश्रम खाली करा दिया और सबको दूर चले जाने का आदेश दे दिया। कुछ देर बाद सबको बुलाया। नासिक के मठ के गुरू के चेलों ने भोजन किया और चले गये। व्यवस्था तो ब्रह्मचारी निर्मल की थी।
 
 

शाम को एक ने पूछा महाराज जी आपने सबको बाहर क्यों भेज दिया। महाराज ने बताया जिस शक्ति के साथ उनको दीक्षा देनी पडी। वह शक्ति यदि किसी सामान्य व्यक्ति को लग जाये तो उसकी मृत्यु हो सकती है। यह कह कर मौन हो गये। 
 
 
 

एक बार स्वामी चिन्मयानंद के दो शिष्य आये और बोले “ मुझे गीता पूरी याद है हम लोग गुरू हैं पर अनुभव बिल्कुल नहीं। आप हमको अनुभव करा दे। दीक्षा दे दे”। महाराज जी बोले आप भी सन्यासी मैं अपने को बडा कैसे मानूं। वैसे आप अपने गुरू से पत्र ले आयें तो मैं सोंचूंगा। वे दोनो स्वामी चिन्मयानंद से पत्र न ला पाये और दीक्षा न हो सकी। ऐसे अनेको किस्से हैं। 
 
 

पर एक किस्सा सहन शीलता का। हुआ यूं मेरी माता जी की दीक्षा मैंने वर्ष 1996 में कराई थी। माता जी आश्रम में थी। कि पता चला कि गुरू महाराज की कुछ तबियत खराब है। अत: प्रवचन नहीं देंगे। बाद में पता चला। मां डरे नहीं इस लिये नहीं बताया। महाराज की तौलिया में एक बिच्छू बैठा था। जिसने महाराज जी को तीन डंक मारे थे। पर महाराज जी ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश को बुलाकर बिच्छू चिमटे से पकडवाकर सकुशल उसको बाहर फिकवा दिया। इस घटना के बाद एक दिन आम के पेड की कुछ टहनियां जो बैठने के स्थान पर सर पर लगती थी। उनको ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश के कहने पर मैंनें काट दिया। गुरू महाराज को पेडों से बहुत लगाव था। यह सुनकर मेरी और ब्रह्मचारी निर्मल प्रकाश की खूब चम्पी की। 
 
 
 

पर इधर गुरू महाराज जी कुछ भी जतन करे मेरी अजीब किसम की गरीब क्रिया सब गुरूओ के नाम के साथ चालू रही। कभी कभी महाराज जी विचलित तक हो जाते थे पर चुप रहते थे। 
 
 

जब बडे महाराज ने किया भीषण शक्तिपात
 
 

बात फरवरी 1994 की है। स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज यानि बडे गुरू महाराज  आये हुये थे। परमपरा के सभी चेले सन्यासी और उनके एक गुरू भाई पर सन्यास के चेले जो गुजरात के थे करीबन 100 साल के थे। वह भी आये हुये थे। कक्ष में सभा लगी थी। ब्रह्मचारी पंकज प्रकाश सुरीली आवाज में भजन गा रहे थे। कुछ को क्रिया हो रही थी। मुझे भी अजीबो गरीब क्रिया चालू हो गई। हमारे गुरू महाराज ने बडे महाराज को कुछ बोला। बडे गुरू महाराज ने सबको कक्ष के बाहर कर दिया और मेरे सर पर तालू पर तीन बार जोर से हाथ मारा और बाहर चले गये। जिसके कुछ देर बाद मैं अकेला कक्ष में, शांत हो गया और मुझे बुखार आने लगा। 
 
 

अब यहां पर जब मेरी पत्नी ने जब यह देखा था तो गुरू महाराज से क्षमा मांगकर रोते हुये गुस्से और ग्लानि में घर लौट गई। मुझे दूसरे दिन बुखार में महाराज जी ने किसी की कार से घर पर जो वाशी में था मुझे भिजवा दिया। इसके बाद मेरी क्रिया बंद सी हो गई। अनुभुतियां और अनुभव भी लगभग बंद हो गये। धीरे धीरे मैं 1996 तक सामान्य हो गया। पर आश्रम जाता रहा। साधन पर बैठता पर मन न लगता। पर मंत्र जप करता रहा। अब मैंनें पूरा नवार्ण मंत्र का जाप आरम्भ कर दिया। मन शेयर मार्केट और कविता और कवि सम्मेलन की ओर भागने लगा। यद्यपि ज्ञान चछु तो पहले ही खुल चुके थे पर मन इधर उधर भी भागने लगा।

             ................................... क्रमश: .......................................


भाग 6 का लिंक




"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 

 

 

 

जय गुरूदेव जय मां काली

 
 

Friday, June 15, 2018

भाग- 4: एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा




एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 4 
 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"





आपने भाग 1,2 और 3 में पढ़ा किस प्रकार मां काली ने दर्शन देकर और सीने पर लात मारकर दीक्षा दे दी। जिसके बाद मैं रोज मरता रहा जीता रहा पर पाठ और जाप बंद न किया। मुरारी बापू ने भी हाथ जो ड़ कर मुझे संभालने से इंकार कर दिया। बाद में एक तांत्रिक ने मुझे अपना चेला बनाने के चक्कर में कितने तंत्र किये पर बेइज्जत होकर भागा। अब यह सिद्द हो गया था कि कोई शक्ति मेरा अहित तो नहीं कर सकती हैं। सब मां काली की देन थी। भटकते भटकते मैं स्वप्न और ध्यान के माध्यम और एक संत की भभूत के सहारे अपने गुरू तक पहुंचा। दीक्षा के पूर्व किस प्रकार ईश ने वाराणसी की अद्भुत यात्रा कराई। शिव दर्शन के साथ मस्ती में लखनऊ लौटा।

अब आगे .......................


शोध निष्कर्ष

           

आगे बढने के पूर्व मैं अपने अनुभवो से क्या निष्कर्ष निकाल सकता हूं।

पहला सत्य - सनातन पूर्णतया: सत्य है। ग़ीता की वाणी को अनुभव किया जा सकता है। तुलसी की नवधा भक्ति “मंत्र जाप मोही दृढ विस्वासा।“ सत्य है। मंत्र जप सबसे सरल और सहज मार्ग है। नवार्ण मंत्र की महिमा और देवी पाठ की लीला अपार है जिसको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। मैनें सन 1984 में हवन के साथ जाप आरम्भ किया और 7 वर्षों में मां ने कृपा की।



अत: मित्रों आप भी प्रभु प्राप्ति हेतु मंत्र जाप में जुट जाइये। हो सकता है इस ही जन्म में प्रभु कृपा कर दें।


मेरे अनुभव से सिद्द हो गया है कि ईश्वर है है और है। हलांकि कुछ मूर्ख और उल्टी बुद्दी के तर्कशास्त्री बोलेगें यह मन का भ्रम है कल्पना है मनोविज्ञान है। तो उन गधों को मैं बोलना चाहता हूं कि आज की तारीख में मैं तुमको सनातन के शक्ति के अनुभव की चुनौती देता हूं कि ब्लाग पर दी समवैध्यावि अपने घर पर करो पर ईमानदारी से। यदि तुमको अनुभव न हो तो मुझे जो सजा देना चाहते हो दे देना। जीवन के हर कार्य हेतु समय तो देना ही प ड़ ता है। ईश अनुभव कोई फालतू नही कि तुमको बिना समय दिये बिना इच्छा के हो जायेगा।


वैज्ञानिकों को चुनौती  

 


वैज्ञानिकों तुम दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख हो। इंसान की बनाई वस्तु उपकरण और यंत्रों पर यकीन करते हो पर इंसान पर नहीं। कोई प्रयोग करने हेतु वर्षों दे सकते हो पर ईश प्राप्ति के अनुभव हेतु समय नहीं है। इस वैज्ञानिक की दुनिया के वैज्ञानिक और मूर्ख हाफकिन जो मर गया उसके प्रयोगों को चुनौती। उसको आवाज और बोलने का जरिया इस भारत की भूमि के एक धार्मिक सनातन साफ्ट्वेयर इंजिनियर ने दी थी। प्राय: जो अपंग़ होता है वह जानते हुये भी ईश को नहीं मानता है।


कैंसर होते होते बचा

 

जब सारी तरफ़ ईश दिखे और किसी को छूने मात्र से रोग ठीक हो तो मन में यह विचार आता था यदि मेरे प्राण भी चले जायें और दुनिया में सब सुखी हो जायें तो मैं अपने प्राण भी दे दूं। बस इसी भावना से अपने इंजीनियरिंग कालेज के 1969 के पास आउट अभिलाष चंद्र सक्सेना,  जो भारत पेट्रिलियम कार्पोरेशन संयंत्र में इलेक्ट्रिकल के हेड थे, उनसे घरेलू सम्बध हो गये थे। एक बार वाशी सेक्टर 15 स्थित उनके निवास पर उनके पत्नी की बहन की बेटी, जिसको कैंसर था आई हुई थी। संयोगवश एक दिन मैं उनके घर गया और उस 6 वर्ष की बच्ची पर दया आकर मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा मंत्र जप आरम्भ कर अपनी हथेली का कम्पन उसके सर के कम्पन से मिलाया और आंख बंद कर प्रभु से उसको ठीक करने की विनती की। इसके बाद मुझको कुछ कमजोरी आई। पर उनके घर भोजन कर अपने घर सेक्टर 4 में लौट आया। तीन दिन बाद फिर गया तो पता चला उसको अचानक बहुत फायदा हो रहा है और डाक्टर को उसके बचने की उम्मीद हो गई। मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मां का धन्यवाद कर अपने घर लौटा।

 


जब उल्टा हवन किया

 
रात को स्वप्न में मां आईं स्वप्न में दर्शन देकर बोलीं। यहां पर एक बात मैं बताना चाहता हूं माता जी हमेशा मुझे मूर्ख या गधा कहकर ही आवाज देती थी। और यह भी कहती थी यह गधा है पर है मुझे प्रिय। इसकी गधा बुद्धि मुझे भाती है। माता जी बोली “ रे मूर्ख तूने उसको ठीक कर दिया पर अब यह कैंसर तुझे हो आयेगा। अब भोग भोग। मैं डर कर बोला मां मैंनें तो कल्याण की भावना से यह किया। मुझे क्या मालूम। उत्तर मिला “ रे गधे कुछ समझ यह कर्म फल होता है जो आदमी को भोगना ही पड़ता है। चाहे कोई भी हो अपना कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है। मैं रोने लगा मैंनें कहा माता जी अब ऐसा नहीं करूंगा। अबकी बार बचा लो। तब माता जी ने बोला ठीक है। और उसके अगले दिन मुझसे उल्टा हवन करवाया। कुछ याद नहीं पर मैंनें उल्टा हवन किया। फिर ध्यान में मां बोली अब तू बच जायेगा पर ध्यान रख। बाद में मालूम पड़ा जिस दवा ने फायदा किया उसकी डोज दुर्घटना की वजह से 50 घंटे लेट हो गई। जिसके बाद उस लड़की की तबियत अचानक बिग ड़ी और वह चल बसी।

अब यह क्या था। उसकी दवाई का फायदा न होना फिर होना फिर दवा न मिलना या मेरा उल्टा हवन?????? जरा विज्ञानी बतायें।


गांठ कैसे ठीक हुई।



इसी प्रकार लखनऊ में छोटे भाई की पत्नि को डाक्टर ने स्तन में गांठ बताई और उसके आप्रेशन की तिथि फिक्स की। मैं लखनऊ में था। मैंनें ध्यान लगाया मुझे एक काली गांठ दिखाई दी। मैंने माता जी के दीपक का काला जला तेल प्रार्थना कर भाई को दिया और उसे माता जी को याद कर लगाने को बोला। तीसरे दिन आप्रेशन के पहले एक्स रे लिया तो गांठ गायब थी। मूर्ख तर्क शास्त्रियो यह कौन सा विज्ञान था।

 

डंडा मालिश और कुटाई महोत्सव

 


वैसे बचपन में  बहुत शरारती था। मां ने बताया कि एक बार वह आटा गूंथ रही थी। मैनें गुस्से में उनके आटे में मूत दिया था। मुझे याद नहीं। ऐसे ही एक बार मेरे थूकने पर खाना बनाते समय माता जी ने गरम चिमटा मेरे सीने पर लगा दिया था। जिसका दाग अभी तक है। कारण मैं खटिया पर बैठ कर खाना खाते खाते थूक रहा था।

 

 
वैसे अपने पिता जी साल छह महीने में बच्चों का पिटाई उत्सव मानते थे। हम भाईयों की साल भर की शैतानियों पर कम से कम एक घन्टा धुलाई होती थी। लात घूंसा, थप्पड़, जूता, चप्पल, डंडा, चिमटा, लोटा, ताला, मतलब जो भी दिख गया वह अस्त्र होते थे। अत: हम लोग खेलने के सामान को छिपा कर रखते थे कहीं बैट उनके हाथ न पड़ जाये और बैटास्त्र का या हाकीआस्त्र का प्रयोग न हो जाये। पिटाई भी प्रोटोकाल के हिसाब से होती थी। सबसे अधिक पिटते थे बड़े भैय्या और सबसे कम छोटा भाई। बाद में चूंकि बड़े भाई कमजोर थे और मैं सबसे मजबूत अत: प्रोटोकाल बदल गया। मेरे बड़े भाई 5 साल के थे पर घर के सबसे बड़े। आज छोटा भाई 55 का पर सबसे छोटा। अब मैं बीच का। और बीच वाले को तो दाह संस्कार या किसी शुभ अशुभ कार्य में कुछ भी करने की मनाही। बड़े को मार नहीं सकते। छोटा तो छोटा है उसके सब खून माफ। 

 

 

यह असर मेरे विवाह में भी महसूस हुआ। कारण दो थे बड़े भाई का विवाह फरवरी 85 में हुआ। यह घर का पहला पुरूष विवाह था वह भी बड़े लड़के का। लाजिमी है दूर दूर से लोग आयेग़े ऐसा हुआ भी लगभग सभी मातृ पितृ पक्ष के लोग आये। मेरा 16 जून 85 को हुआ। वह भी चट मंगनी पट ब्याह। तो केवल एक मामा आये बदायूं वह रोडवेज के डिपो इंचार्ज थे। दूसरे यह दूसरा विवाह था। अभी छोटे में तो जाना हो जायेगा ही। पर यहां पर रिश्तेदार कल्पना नहीं कर सकते थे क्योकिं छोटे ने विजातिय विवाह किया। अत: कोई बुलाया ही नहीं गया। कोर्ट विवाह वो भी वधू  के पिता जो आरडीएसओ के निदेशक की बिना मर्जी से। यहां पर एक बात स्पष्ट है और जिसका गुमान मेरी मां को अधिक था कि उनकी सभी बहुयें सुंदर है। शायद आस पास के दूर दूर तक किसी की सभी बहुयें एक से ब ढ़ कर एक। भाभी जी दक्षिण भारत के फीचर्स वाली। बीच वाली जैसे काशमीरी या अंगेज। छोटी वाली कमानेवाली और वह भी पंजाबिन।

 

अपनी माता जी का गर्व देवी जी ने तोड़ा।

 


मेरी मां को अपने बेटों पर कुछ अधिक ही घमंड था कारण बड़ावाला और बीचवाला लगातार प्रथम श्रेणी से सम्मान सहित पास होते थे। एक बार मां ने घमंड में किसी से बोल “अरे भाई साहब रिजल्ट क्या हमारे वहां सब फर्स्ट ही आते हैं”। बस उसके बाद बड़े भाई जिन्होने बी.एस.सी आनर्स कर एम.एस.सी स्पेशल की परीक्षा और मैंने बी.एस.सी की परीक्षा दी दोनो मात्र दो नम्बर से प्रथम श्रेणी चूक गये। पहले दो नम्बर का ग्रेस मिलता था पर उस साल से वह बंद हो गया था। शायद इसीलिये कहा गया है “ बड़ा कौरा निगल ले पर बडी बात न बोले”। खैर उसके बाद भाई ने आई आई टी कानपुर से फिजिक्स में पी.एच.डी कर डाली और मैं भी एम.टेक. तक प्रथम श्रेणी के साथ टापर लिस्ट में रहा। पर छोटे भाई साहब जो हाई स्कूल में थे उनको बी.ए. तक दो बैसाखियों के साथ पास होना पड़ा और एल.एल.बी. कर मां का स्कूल सम्भाल लिया। आज तो वह माता पिता द्वारा बनवाया घर भी अकेले सम्भाल रहे हैं। लगता यही आगे भी उनके पुत्र ही सम्भालेगें क्योकिं मेरी एक बेटी एस.एन.डी.टी. से इलेकट्रानिक्स में बी.टेक. कर डी.आर.डी.ओ. सितार, बंगलौर में कार्यरत है। उनके पति आई.आई.टी. खडगपुर के बी.टेक और नासर मनजी से एम.बी.ए. कर निजी कम्पनी में कार्यरत हैं। बड़े भाई की बेटी बी.टेक., एम.बी.ए. कर अपने बी.टेक., एम.बी.ए. पति के साथ मलेशिया में है। छोटा लडका यू.एस. में मास्टर्स कर रहा है। भाई साहब रक्षा विभाग से सेवा निवृत होकर हैदराबाद बस गये। बड़े भाई तो कलाम साहब प्रिय रहे थे और मिसाइल के क्ष्रेत्र में उन्होने काम किया। कुल मिलाकर हम चारो देश की राजधानियों के निवासी हो गये। एक बार तो कुछ दिन पहले प्रसिद्ध वीररस कवि वेद व्रत बाजपई एक कवि ग्रुप में अन्य कवियों पर चढ़ गये थे और लिखा कि इन भाइयों के बारे में तुम जानते क्या हो। पूरा खानदान देश सेवा में लगा है। पर छोटे भाई के बड़े बेटे पिता की तरह पढ़ाई में आर्थोडाक्स है। फोटोग्राफी का कोर्स और छोटी लड़की पढ़ाई में तेज है डाक्टरी में है। 

 


कुछ किस्से


हमारे छोटे भाई जी खेल में अव्वल घंटो बैटिंग करते हम पद्दी करते। जैसे ही आउट हुये। दादा अब खेल खत्म। मन भर गया। हलांकि मैं दो तीन गेंद में ही आउट होता था पर छोटे भाई की मर्जी। मार सकते नहीं क्योकि छोटे की जरा सी ऐं सुनकर पिता जी लक्ष्मण अवतार में मुझ मेघनाद का वध करने आ जायेगें। और कहीं जरा सा मैं रोया तो बेवकूफ बड़ा होकर रोता है। और अपने घंटा बनकर बजने की सम्भावना। अब बोलो तो क्या बोलें।



मां बताती थी बड़ी बहन 9 साल की थी बड़ा भाई 6 का मैं 2 साल का था। एक चिठ्ठी घर आई। दोनो भाई बहन लड़ने लगे। बड़े भाई ने बहन पर चप्पल फेंक मारी। लगी नहीं पर पिता जी देख लिया। बस फिर क्या माता जी के हिसाब से परिवार में ऐतिहासिक पिटाई महोत्सव चालू। अपने घर से लेकर पड़ो स के स्व बौड़म लखनवी की पत्नि तक ने अपनी गोद में छिपाया पर पिता जी परशुराम अवतार लेकर एक नाम जप कर रहे थे। बड़ी बहन को मारता है। तेरी हिम्मत कैसे हुई जिसपर मैं हाथ  नहीं उठाता मां कुछ नहीं कहती तूने चप्पल मारी। वैसे प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं यह ऐतिहासिक धुलाई महोत्सव वार्षिक कार्यक्रम पूरा एक शो के समय तक चला यानी करीबन तीन घंटे। वह भी बिना इंटरवल।



हम दोनों भाइयों की मैं और मेरे बडे भाई की तो इतनी अधिक डंडा मालिश हुई है कि यदि आज के किसी 20 साल के बच्चे को भी कर दें। तो शायद वह जिंदा न बचे। बस अपना रिकार्ड गर किसी ने तोड़ा तो बौड़म लखनवी तोड़ते थे। क्योकि उनका बाल कुटाई अभियान तो बंद कमरे में अपने बड़े बेटे अविनाश चंद्र तिवारी जो मुझसे 7 साल बडे थे। वहां अक्सर टूटता था। मजे की बात पिता जी पीठ पर जोर जोर से धान कूटते पर चिल्लाते जाते चुप चुप मुंह से आवाज नहीं। मतलब बिना मुंह से आवाज निकाले पीठ पर डंडा मालिश करवाओ। कभी कभी तो पिछवाड़े के स्व. विजय शंकर अवस्थी या उनके बड़े भाई दया शंकर अवस्थी को पिता जी से धान कुटाई यंत्र छीनना पड़ता अथवा बौड़म लखनवी की पत्नी को बचाना पड़ता। बस ऐसे बचपन में पिटाई महोत्सव साल में एकाध बार होते होते कब जवान होकर घर से दूर मुम्बई आ गये। अंतिम बार मार वर्ष 2006 में खाई थी। जब पिता जी अंतिम सांस गिनते थे। अंत के अंतिम दिन मैंने वार्ड ब्याय का काम करीबन 22 दिन निभाया। बड़ी बहिन डाक्टर, बड़े भाई डाक्टरों और दवाई के फेर में, छोटे भाई लखनऊ निवासी तो अन्य इंतजाम में व्यस्त और मैं वार्ड ब्याय। दूसरे यह भी कि सबको मल मूत्र में बदबू आती थी, उबकाई आती थी। वह तो मैं हूं जिसे खुशबू आती थी। गधा तो गधा, नाक तो बंद रहेगी ही।

 

 

मैं करीबन 12 साल का रहा होऊंगा। शैतानी तो प्रिय। बेरी के पेड़ पर चढ़ना, शर्ट फाड़ लेना। इनके साथ खुजली के कीड़े किसी डंडी पर चढ़ाना। फिर उनको अंगीठी की राख जो घर के बाहर फेंकी जाती थी और कुछ गरम रहती थी। उसमें कीड़े को घुसेड़ देना। इसमें कीड़ा फट की आवाज के साथ फटता था। इस तरह के पाप करना। बड़े साइज के मकोड़े मोमबत्ती से जलाने में आनंद आता था। हाथ से मक्खी पकड़कर मार देना फिर उसको काली चीटी के बिल में चीटियों को खाने में सहायता हेतु घुसेड़ना। लाल चीटी से घृणा करना क्योकि बहुत जोर से काटती है। यही सब चलता था। गली में एकमात्र बिजली का खम्बा लगा था। उसके बल्ब को निशाना लगाना। कोई देख कर शिकायत कर दे पिटाई हो जाना। कुल मिलाकर नाम टिल्लू तो शैतानी भी टिल्लू वाली।

 


यह क्या था



एक बार रात्रि सात बजे जाड़े के दिन। गली में सन्नाटा। मैं किसी काम के लिये अपने घर का गेट खोलकर बाहर निकला। सामने गली के उसपार बौड़म लखनवी की खुड्डीवाली लैट्रिन की दीवार। अचानक दीवार पर तीन चार फुट मकड़ा चट्ट की आवाज के साथ प्रकट हुआ। मैं यह देखकर डर गया। वापिस गेट बंद किया किसी को बताया नहीं। सहम कर मकड़ा मारना बंद कर दिया। लेकिन एक खौफ़ बना रहा लम्बे अर्से तक।


ऐसा ही कुछ किस्सा मेरी बेटी ने बताया था। वह छह सात साल की थी तो तितलियां पकड कर शीशी में पालने के लिये बंद करती थी। एक दिन बाथरूम में वह गई तो देखा। दो तीन फीट की तितली पानी की टंकी पर बैठी है। वह डरकर बाहर आई मैं भी गया पर कुछ न था। पर बेटी थर थर कांप रही थी। इसके बाद उसने तितली पकड़ना बंद कर दिया।

 

 
यह घटना अजीब और न माननेवाली है पर घटी है। क्या इसको शक्ति की लीला कह सकते हैं या एक वहम था। पर घटना तो सत्य है।

 

 

शरारतें



चार पांच साल की उमर रही होगी। मैं और मेरा एक हमउम्र चचेरा भाई चीटे पकड़कर मार कर खाते थे। स्वाद में वह खट्टे और कुरकुरे होते थे। एक बार भाई ने जो चीटा खाया वह मरा नहीं उसने जीभ को पकड़ लिया। उसकी रोवा राई देख कर मैंनें भी चीटे खाना बंद कर दिया।

 

कुछ इसी प्रकार खट्टी मीठी यादो को याद करते आज मैं 58 वर्ष की आयु में अपनी कथा लिख रहा हूं। ऊपर की पीढ़ी जा चुकी है। अपनी पीढ़ी मे किसका नम्बर आना है यह तो ईश ही जानता है। पर मैं अपने को बेहद भाग्यशाली मानता हूं जो मां जगदम्बे की कृपा मिली। अत: मैंनें अपना नाम कालीदास सोंचा पर महसूस हुआ मुझ पर काली मां की कृपा के अतिरिक्त मां सरस्वती की उनसे पहले से कृपा चल रही है। अत: नाम देवीदास विपुल कर दिया। मैं सभी मातृशक्तियों का दास|



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 

 

 

 

 

जय गुरूदेव जय मां काली

 
 
 
 
 
 

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...