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Thursday, September 10, 2020
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 3
राही तो मनुष्य है।
*श्री "गुरुचरित्र" अध्याय : १ (श्लोक 57-69 )*
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 2 (विशेष” क्या है अलख निरंजन)
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 2 (विशेष” क्या है अलख निरंजन)
कोरोना ने जीवन का सार समझा दिया: एक कथा (लेखक अज्ञात)
राम गोपाल सिंह एक सेवानिवृत अध्यापक हैं ।
सुबह दस बजे तक ये एकदम स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे । शाम के सात बजते- बजते तेज बुखार के साथ-साथ वे सारे लक्षण दिखायी देने लगे, जो एक कोरोना पॉजीटिव मरीज के अंदर दिखाई देते हैं।
परिवार के सदस्यों के चेहरों पर खौफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहा था ।
उनकी चारपाई घर के एक पुराने बड़े से बाहरी कमरे में डाल दी गयी, जिसमें इनके पालतू कुत्ते "मार्शल" का बसेरा है ।
राम गोपाल जी कुछ साल पहले एक छोटा सा घायल पिल्ला सड़क से उठाकर लाये थे और अपने बच्चे की तरह पालकर इसको नाम दिया "मार्शल"।
इस कमरे में अब राम गोपाल जी, उनकी चारपाई और उनका प्यारा मार्शल हैं ।
दोनों बेटों -बहुओं ने दूरी बना ली और बच्चों को भी पास ना जानें के निर्देश दे दिए गये l
सरकार द्वारा जारी किये गये नंबर पर फोन कर के सूचना दे दी गयी ।
खबर मुहल्ले भर में फैल चुकी थी, लेकिन मिलने कोई नहीं आया ।
साड़ी के पल्ले से मुँह लपेटे हुए, हाथ में छड़ी लिये पड़ोस की कोई एक बूढी अम्मा आई और राम गोपाल जी की पत्नी से बोली - "अरे कोई इसके पास दूर से खाना भी सरका दो, वे अस्पताल वाले तो इसे भूखे को ही ले जाएँगे उठा के ।"
अब प्रश्न ये था कि उनको खाना देनें के लिये कौन जाए ?
बहुओं ने खाना अपनी सास को पकड़ा दिया l
अब राम गोपाल जी की पत्नी के हाथ, थाली पकड़ते ही काँपने लगे, पैर मानो खूँटे से बाँध दिये गए हों ।
इतना देखकर वह पड़ोसन बूढ़ी अम्मा बोली- "अरी तेरा तो पति है, तू भी ........। मुँह बाँध के चली जा और दूर से थाली सरका दे, वो अपने आप उठाकर खा लेगा ।"
सारा वार्तालाप राम गोपाल जी चुपचाप सुन रहे थे, उनकी आँखें नम थी और काँपते होठों से उन्होंने कहा कि-
"कोई मेरे पास ना आये तो बेहतर है, मुझे भूख भी नहीं है ।"
इसी बीच एम्बुलेंस आ जाती है और राम गोपाल जी को एम्बुलेंस में बैठने के लिये बोला जाता है ।
राम गोपाल जी घर के दरवाजे पर आकर एक बार पलटकर अपने घर की तरफ देखते हैं ।
पोती -पोते प्रथम तल की खिड़की से मास्क लगाए दादा को निहारते हुए और उन बच्चों के पीछे सर पर पल्लू रखे उनकी दोनों बहुएँ दिखाई पड़ती हैं ।
घर के दरवाजे से हटकर बरामदे पर, दोनों बेटे काफी दूर अपनी माँ के साथ खड़े थे।
विचारों का तूफान राम गोपाल जी के अंदर उमड़ रहा था।
उनकी पोती ने उनकी तरफ हाथ हिलाते हुए टाटा एवं बाई बाई कहा ।
एक क्षण को उन्हें लगा कि 'जिंदगी ने अलविदा कह दिया ।'
राम गोपाल जी की आँखें लबलबा उठी ।
उन्होंने बैठकर अपने घर की देहरी को चूमा और एम्बुलेंस में जाकर बैठ गये ।
उनकी पत्नी ने तुरंत पानी से भरी बाल्टी घर की उस देहरी पर उलेड दी, जिसको राम गोपाल चूमकर एम्बुलेंस में बैठे थे।
इसे तिरस्कार कहो या मजबूरी, लेकिन ये दृश्य देखकर कुत्ता भी रो पड़ा और उसी एम्बुलेंस के पीछे - पीछे हो लिया, जो राम गोपाल जी को अस्पताल लेकर जा रही थी।
राम गोपाल जी अस्पताल में 14 दिनों के अब्ज़र्वेशन पीरियड में रहे ।
उनकी सभी जाँच सामान्य थी । उन्हें पूर्णतः स्वस्थ घोषित करके छुट्टी दे दी गयी ।
जब वह अस्पताल से बाहर निकले तो उनको अस्पताल के गेट पर उनका कुत्ता मार्शल बैठा दिखाई दिया ।
दोनों एक दूसरे से लिपट गये । एक की आँखों से गंगा तो एक की आँखों से यमुना बहे जा रही थी ।
जब तक उनके बेटों की लम्बी गाड़ी उन्हें लेने पहुँचती, तब तक वो अपने कुत्ते को लेकर किसी दूसरी दिशा की ओर निकल चुके थे ।
उसके बाद वो कभी दिखाई नहीं दिये ।
आज उनके फोटो के साथ उनकी गुमशुदगी की खबर छपी है l
*अखबार में लिखा है कि सूचना देने वाले को 40 हजार का ईनाम दिया जायेगा ।*
40 हजार - हाँ पढ़कर ध्यान आया कि इतनी ही तो मासिक पेंशन आती थी उनकी, जिसको वो परिवार के ऊपर हँसते गाते उड़ा दिया करते थे।
एक बार रामगोपाल जी के जगह पर स्वयं को खड़ा करो l
कल्पना करो कि इस कहानी में किरदार आप हो ।
आपका सारा अहंकार और सब मोहमाया खत्म हो जाएगा।
इसलिए मैं आप सभी से निवेदन करता हूं कि कुछ पुण्य कर्म कर लिया कीजिए l
जीवन में कुछ नहीं है l
कोई अपना नहीं है l
*जब तक स्वार्थ है, तभी तक आपके सब हैं।*
जीवन एक सफ़र है, मौत उसकी मंजिल है l
मोक्ष का द्वार कर्म है।
यही सत्य है ।
शिक्षा:
हे कोरोना, तूं पूरी दुनिया में मौत का तांडव कर रहा है पर सचमुच में, तूने जीवन का सार समझा दिया है:
" अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, स्त्री-पुरुष, धर्म-जाति, श्रेत्र-देश, राज़ा-रंक, कोई भेदभाव नहीं, सब एक समान हैं!
असली धर्म इंसानियत है! निस्वार्थ भाव से, निष्काम कर्म, सच्चाई, ईमानदारी, निर्मल प्रेम, मधुर वाणी, सद्भाव, भाईचारा, परोपकार करना ही सर्वश्रेष्ठ है! "
अलख निरंजन' क्या है?
दत्तात्रेय भगवान का एक प्रचलित जयघोष है ‘अलख निरंजन’।अलख निरंजन का भावार्थ क्या है!
अंजन से तात्पर्य अज्ञान से लिया जाता है। अज्ञान का नष्ट होना यानी निरंजन होना इसलिए निरंजन का अर्थ है अज्ञान की कालिमा से मुक्त होकर ज्ञान में प्रवेश करना।
लक्ष का तात्पर्य देख पाने की शक्ति से है। अलक्ष यानी ऐसा जिसे हम सामान्य नेत्रों से देख ही न पाएं। सामान्य बुद्धि जिसे समझ ही न पाए। वह इतना चमकीला इतना तेजस्वी है कि उसे देख पाना सहज संभव नहीं।
‘अलक्ष’ शब्द का अपभ्रंश है ‘अलख’। तो ‘अलख निरंजन’ का भाव हुआ, ज्ञान का ऐसा प्रकाशमान तेज, जिसे देख पाना संभव न होते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है।
इसका एक अर्थ और भी बताया जाता है-
अघोरपंथियों के अनुसार अलख का अर्थ होता है जगाना (या पुकारना) और निरंजन का अर्थ होता है अनंत काल का स्वामी…
अलख निरंजन का घोष करके वे कहते हैं- हे! अनंतकाल के स्वामी जागो, देखो हम पुकार रहे हैं।
अलख का अर्थ है अगोचर; जो देखा न जा सके।
निरंजन परमात्मा को कहते हैं। 'अलख निरंजन' का अर्थ यह भी हुआ- "परमात्मा जिन्हें देखा न जा सके पर सब जगह व्याप्त हैं।"
"अलख-निरंजन" गुरू गोरखनाथ द्वारा प्रचारित ईश्वर को स्मरण करने के शब्द हैं।
वैसे अलख निरंजन गोरखनाथ महाराज के गुरुदेव मछिंद्रनाथ वह इसका जाप करते थे इस कारण यह गोरखनाथ परंपरा का मंत्र बन गया।
अलख निरंजन यह भगवान शिव का भी एक सिद्ध प्रचलित मंत्र है जिसे नागा साधु प्राया जो नाथ संप्रदाय के होते हैं वह जाप करते हैं।
इसके अर्थ तो ऊपर की पोस्ट में दिए हुए हैं।
कोई भी अगर आपको अर्थ मालूम कर ले हो यह अन्य वस्तु के विषय में जानना हो तो पहले आप नेट पर जाकर उसको सर्च करें उसको पढ़ें और यदि वहां पर भी समझ में ना आए या नेट पर ना मिले तब आप पटल पर प्रश्र रखें।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Sundram Shukla:
*श्री "गुरुचरित्र" अध्याय : 1 (श्लोक 47-56)
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श्री गुरुदेव जी के चरणो में जो निरंतर समर्पित भाव पूर्ण श्रद्धा रखते थे ऐसे गंगाधर जी मुझे पिता स्वरूप मिले ।। ४७ ।।
मैं, श्री गंगाधर के पुत्र, सरस्वती गंगाधर एक निश्चल बालक के समान सभी संतो को और श्रोताओं को नमस्कार करता हूँ ।। ४८ ।।
जो शाश्वत गुरुध्यान में लीन है उन वेदांभ्यास रत सन्यासी, यती, योगेश्वर, तपस्वीयोंको मेरा सादर प्रणाम ।। ४९ ।।
आप सब से सविनय विंनती करता हूँ कि आप मेरे अल्प मति शिशु गीत सहृदय स्वीकार करना ।। ५० ।।
मैं छोटा बालक अपनी अल्प मति से काव्य निर्मिती नहीं कर सकता । मुझे निमित्त बना कर श्री गुरुदेव जी ने ही इसकी निर्मिती की है ।। ५१ ।।
हमारे पूर्वजों के असीम भक्ति से प्रसन्न होकर श्री गुरूदेव जी ने गुरुचरित्र विस्तार से उद्धृत करने की आज्ञा मुझे दी ।। ५२ ।।
श्री गुरुदेव जी ने कहा, "अमृतमय गुरुचरित्र का निर्माण करो । गुरु महिमा कथन करो । मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे पूरे वंश को चारों पुरुषार्थ प्रदान होंगे " ।। ५३ ।।
मेरे लिए गुरुदेव जी का हर वाक्य किसी कामधेनु के समान है । मैं सौंभाग्य शाली हूँ कि मुझे श्री नृसिंह सरस्वती गुरुदेव जी के आशीष मिले ।। ५४ ।।
श्री दत्तात्रेय जी के पूर्ण अवतार श्री नृसिंह सरस्वती मनुष्य देह में अवतरित हुवे । साक्षात उस ब्रह्म तत्व की महिमा कौन वर्णन कर पाएगा ।। ५५ ।।
साक्षात ब्रह्म स्वरूप श्री गुरुदेव जी का चरित्र मैं अल्पमती कैसे वर्णित कर पाऊंगा लेकिन श्री गुरुदेव जी की आज्ञा है इसी कारण ये प्रयास कर रहा हूँ ।। ५६ ।।
क्रमशः ...
Bhakt Lokeshanand Swami: रामजी संकोच करते हैं, इन्हें कुछ दिया नहीं। लक्षमणजी बोले, इन्हें तो इतना दे दिया, जितना बड़ों बड़ों को भी नहीं दिया। रामजी आँख से चुप ही रहने का इशारा करते हैं, कि ऐसा मत बोलो, उतराई तो देने को है नहीं, कहीं चरण धुलाई और न देनी पड़ जाए।
केवट भगवान से कुछ लेता नहीं तो सीताजी कहती हैं, आप भगवान से नहीं लेते हैं तो मुझसे ही ले लें, अंगूठी उतारने लगीं।
केवट ने सिर झुका लिया, कहते हैं, मैंने जनकजी जैसे ही इनके चरण धोए हैं, अब आप मेरी बिटिया हो गई हैं, आप पहली बार आई हैं, विदा हो रही हैं, मैं बेटी को कुछ दे तो नहीं पाया, ले कैसे लूं?
सीताजी को लगा मेरे पिताजी ही सामने खड़े हैं।
केवट कहता है- आपके चरणों की सेवा मिल गई, मेरा जन्म जन्म का भिखारीपना मिट गया, मुझे और क्या चाहिए? फिर भी आप जब वापसी आएँगे, तब पुनः सेवा का मौका मुझे ही देना, मैं यहीं प्रतीक्षा करता बैठा मिलूंगा। आज कुछ नहीं लूंगा।
"राम जी उतराई नहीं लूंगा॥
आप जगत के मात पिता हो, सेवा फिर मैं करूंगा।
चरणकमल धो, जल अमृत कर, चरणोदक पिऊँगा॥
मेरी बारी, राम घाट पर, जो देंगे ले लूंगा।
कहे लोकेशानन्द राम तरु छाया ही में रहूँगा॥"
रामजी कहते हैं, केवट! जो एक बार मेरे चरण धो लेता है, फिर उसे दोबारा मेरे चरण धोने नहीं मिलते। फिर तो उसी के चरण मैं धोता हूँ।
कदाचित् ये केवट ही जाकर सुदामा हो गए-
"देखी सुदामा की दीन दशा,
करुणा करके करुणानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुओ नहीं,
नैनन के जल से पग धोए॥"
बड़ी दुख भरी कहानी है। पर कहानी दूसरे की है तो दुख भी दूसरे का है। और दूसरे के दुख से सीखने को मिल जाए तो अपने जीवन में दुख न हो।
एक तीन बच्चों का पिता एक रात थका हुआ घर आया। आज घर में बड़ी चुप्पी है। न बच्चे दिखाई दे रहे हैं, न उनकी आवाज ही आ रही है। रोज तो दौड़े आते थे, चिपके जाते थे। पत्नी भी महकती हुई आगे पीछे घूमती थी, आज वह भी मालूम नहीं पड़ती।
"बाबू!" उसने अपने बड़े पुत्र को आवाज लगाई। कोई उत्तर नहीं मिला, पर सामने के कमरे का दरवाजा खोल, पत्नी बाहर आई। एक दम शांत, गंभीर। नकली मुस्कान दिखा कर बोली- "आ गए आप?" और पानी का गिलास लाई।
"आज बच्चे दिखाई नहीं दे रहे? कहाँ हैं?" पिता ने पूछा।
पत्नी ने कहा- "वे जल्दी सो गए हैं। आप पानी पी लें। कपड़े बदल लें। आपसे कुछ बात पूछनी है।"
पिता- "पूछो! ऐसी क्या बात है? आज बड़ा विचित्र लग रहा है। क्या हो रहा है?"
"मैं पूछना चाहती हूँ कि अगर बहुत समय पहले कोई, अपनी कोई वस्तु दे गया हो, और इतने समय बाद आज वह, अपनी वह वस्तु वापिस ले जाए, तो क्या करना चाहिए?" पत्नी ने पूछा।
पिता- "हाँ तो वापिस दे दो, इसमें पूछना क्या है?"
पत्नी- "दुख नहीं होगा?"
पिता- "तूं मूर्ख है क्या? इसमें दुख की क्या बात है? जिसकी वस्तु है, वह कभी तो ले ही जाएगा। आज नहीं तो कल ले जाता। कौन क्या ले गया?"
पत्नी ने एक कमरे का दरवाजा खोला, धीरे से बोली- "आज शाम।"
बाबू, बब्बू और बेबी, तीनों फर्श पर पड़े थे। निष्प्राण।
पिता- "तूं तो कह रही थी, ये सो गए हैं?"
पत्नी- "हाँ! हमेशा हमेशा के लिए।"
शाम को बेबी को करंट लग गया था, बब्बू और बाबू भी उसे बचाते हुए चिपक गए थे।
लोकेशानन्द कहता है कि इस जगत के सभी व्यक्ति और वस्तु, अपने को मिले हुए हैं, अपने हैं नहीं। या तो इनके होते हुए ही हम इन्हें छोड़ चलेंगे, या हमारे देखते हुए ये हमें छोड़ जाएँगे।
किसी को अपना न मानें, सब कुछ भगवान का ही मानें, तो दुख का काम तमाम हो जाए।
Bhakt Baliram Yadav: माफ़ कीजियेगा
परिवार में तो एक दूसरे के लिए तड़प होगी ही मां पिता भाई बहन से मोह रहेगा ही हमे पता है ये हमारे नहीं फिर फिकर नहीं जैसा नहीं कर सकते कुछ बंदिशे कुछ कर्म जो हमे करने होंगे अगर सभी यही समझे की परिवार भी मोह है तो संसार में घर ही ना होंगे
और कलयुग में गृहस्थ जीवन जीना भी तप है 🙏🙏🙏
lokesh k verma bel banglore:
*यदाचराति कल्याणीशुभम वा अशुभम् ।*
*तदैव लभते भद्रे कर्ता कर्म जमात्मन: ।।*
जैसा कर्म करेंगे वैसा ही परिणाम प्राप्त होगा ।अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा।
यह एक अद्वैत सत्य है।
Whatever one does good or bad ;one gets the same as a result of actions.
Newtons 3rd Law of motion - To every action there is an equal and opposite reaction .
*शुभोदयम् ! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*
Bhakt Lokeshanand Swami: बात तो सही है भाईसाहब। मेरे आदर्श गुरू गोविंद सिंह जी महाराज हैं। प्रेम, शौर्य और बलिदान, तीनों का पालन एक साथ करने वाले ही दुनिया में याद किए जाते हैं।
Swami Pranav Anshuman Jee: https://www.facebook.com/372279763585667/posts/671641256982848/
ऐसा माना जाता है कि महा अवतार बाबा ने नृसिंह सरस्वती महाराज से दीक्षा ली थी।
अति आनंददायक स्तुति।
Bhakt Pallavi: सभी गुरूजनो को मेरा प्रणाम🙇🏻♀️🙏🏻,
मेरा प्रश्न है कि अपने नाम का क्या महत्व है, या किसी ने इस शरीर को जो नाम दिया है हमे उसको कितना महत्व देना चाहिए? कृपया मार्गदर्शन करें🙏🏻
Bhakt Shyam Sunder Mishra: *धन्यवाद लॉकडाउन !*
*01 . हजारों बाल विवाह पर लगा ब्रेक !!*
*02 . युवा पीढी में बढती हुई नशे की लत को छोड़ने की मजबूरियां देखने को मिली !!*
*03 . मृत्युभोज पर हुआ अनावश्यक खर्च बन्द !!*
*04 . लाखों रुपयों की शादी हुई हजारों में !!*
*05 . रिश्वतखोरों की धुस की मिली धांस !!*
*06 . इंसानों की असलियत आई सामने !!*
*07 . मेडिकल का अनावश्यक खर्च हुआ बन्द !!*
*08 . घरवालों के साथ बिताया पूरा समय👌👌!!*
*09. बड़े बड़े पैसे वाले लोगों को पता चल गया है कि इंसानों को अतिआवशक व रोजमर्रा के लिए किया किया सामग्री जरूरी होती है!!*
*10. बेफालतू के खर्चो पर अंकुश लगाने में कारगर सिद्ध हुआ है !!*
*11. किसानों लोगों को ज्यादा से ज्यादा खेती के करने के लिए मजबूर करने में अहम भूमिका निभाने वाला !!*
*12. धेर्यवान,आपसी तालमेल,संतोषपूर्वक जिंदगी जीने के लिये प्रेरणा देने वाला !!*
*13. प्रकृति का वातावरण शुद्धता के लिये कारगार सिद्ध हुआ !!*
*14. जिंदगी पैसा को सब कुछ मानने लोगों को भी पता चला है !!*
*"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान ।*
*काबां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण ।"*
*#🔐लॉकडाउन अभी ज़िंदा है👻*
Bhakt Shyam Sunder Mishra: सभी गुरुजनों से निवेदन है की इसमें *"काबां लूटी गोपियाँ "*का भावार्थ स्पष्ट करें।
Bhakt Brijesh Singer: पुरुष बली नहि होत है
समय होत बलवान
भीलन लूटी गोपिया
वही अर्जुन वही बाण
प्रभु जी क्या आपने इंटरनेट पर इसके अर्थ देखें।
कृपया पहले वहां पर सर्च करके देख ले उसके बाद चर्चा करते हैं।
जय हो गूगल गुरु। भौतिक जगत का सर्वश्रेष्ठ गुरु।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/03/blog-post_28.html?m=0
http://freedhyan.blogspot.com/2018/03/normal-0-false-false-false-en-in-x-none_76.html?m=0
Bhakt Shyam Sunder Mishra: गुरुदेव वहाँ कुछ नही मिला।
और हमें तो मात्र ३ शब्दों के भावार्थ ही समझना है।
🌹*भीलन लूटी गोपियाँ *🌹
हमें तो यह उम्मीद थी कि यहाँ मेरी जिज्ञासा शांत हो जाएगी।इस लिए मैने यह प्रश्न इस पटल पर रखा। जो आज्ञा प्रभु। कोई बात नहीं। 🌹🙏🌹
ठीक है उत्तर मिल जाएगा।
Bhakt Shyam Sunder Mishra: आभार🌹🙏🌹
यहां पर कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अंदर अहंकार करता है और यह सोचता है कि मैं ही बलवान हूं या मैं ही करता हूं और भरता हूं।जो की पूर्णता गलत है ईश्वर की कृपा से ही मनुष्य सामर्थ शाली बनता है।
अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण की सहायता से महाभारत जीती थी लेकिन उनको अहंकार था कि मैं शक्तिशाली हूं उनके अहंकार को कई बार तोड़ा गया एक बार तो हनुमान जी के रूप में और दूसरी बात महाभारत के युद्ध के बाद। अहंकार युधिष्ठिर का भी तोड़ गया था नेवले के द्वारा। तो यहां पर इस कहावत में यह समझाया गया है कि मनुष्य कभी यह न सोचें कि वह सर्वशक्तिमान हो गया है क्योंकि जब समय होता है तभी उसको ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है और ईश्वरीय कृपा सदैव प्राप्त नहीं होती है। हालांकि सारी कर्म फल और हमारे कर्म ईश्वर की प्रेरणा से ही होते हैं।
और देखो महाभारत वाला धनुष बाण था अर्जुन के पास लेकिन भीलीनी भी उन्हें धनुष बाण के द्वारा परास्त नहीं हुई।
यह सब समय समय की बात है इसलिए समय को बलवान बोला गया।
अब आप मेरी बात देख लीजिए मैं कम से कम 25 बार गिरा हूं चोट बिल्कुल नहीं आई। लेकिन जरा सी स्लीप होने में पैर की तीन हड्डियां टूटी एक क्रेक हो गई।
मैं मित्रों इसीलिए आग्रह करता हूं कि आप लोग नेट देखने का अभ्यास करें।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जय गुरूदेव । जय महाकाली
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 1
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 1
Bhakt Sundram Shukla:
*श्री "गुरुचरित्र" अध्याय : 1 (श्लोक 35-45)
सर्व देवादिक, साधु सिद्ध पुरुष, गंधर्व यक्ष किन्नर और सभी ऋषि मुनीयों को मेरा प्रणाम ।। ३५ ।।
पराशर, व्यास, वाल्मीकि आदि सर्व कवि और गीतकार ऋषि मुनीयों को मैं अब नमन करता हूँ ।। ३६ ।।
आप सभी ऋषि-मुनियोंको अत्यंत विनीत भाव से प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे कवित्व का ज्ञान प्रदान करे ।। ३७ ।।
ऋषिवर, मुझे किसी भी ग्रंथ प्रकार या ग्रंथ शाखा का ज्ञान नहीं है और नाही मुझे कोई शास्त्र अवगत है । मेरी मातृ भाषा भी मराठी नहीं है इसी कारण मैं आप सभी से विनती कर रहा हूँ कि आप मुझे ज्ञान दे ।। ३८ ।।
आप सभी ऋषि-मुनियों को मैं विनीत भाव से विनती करूं कि आप सभी मुझ पर कृपा करे। मुझे सहायता करे । शब्द, अर्थ और उनका ज्ञान मुझे प्रदान करे ।। ३९ ।।
इसी प्रकार सब को प्रणाम कर, अब मैं अपने पूर्वजों को प्रणाम करता हूँ । मेरे माता और पिता इन दोनों पक्षों के पूर्वजों का पुण्य स्मरण करता हूँ और उनका महात्म्य वर्णित करता हूँ ।। ४० ।।
कौण्डिन्य गोत्र के, आपस्तंब शाखा के ब्राह्मण, सायंदेव प्रमुख पुरुष, जिनका उपनाम साखरे था ।। ४१ ।।
सायंदेव के सुपुत्र नागनाथ, उनके सुपुत्र देवराय और सदा सद्गुरु चरणों मे लीन मेरे पिता गंगाधर जी थे ।। ४२ ।।
अपने पिता के चरणों में वंदन कर, मैं अब अपनी माता पूर्वज को सादर प्रणाम करता हूँ । काश्यप गोत्र कुलउत्पन्न श्री चौंडेश्वरी नाम कुलस्त्री जो आश्वलायन शाखा की ब्राह्मण थी ।। ४३ ।।
साक्षात आदिभवानी स्वरूप मेरी माता चंपादेवी उनकी सुपुत्री थी ।। ४४ ।।
अपने माता पिता को वंदन कर अब मैं अपने गुरुदेव जी को प्रणाम करता हूँ और गुरु चरण स्मरण करने आप मुझे बुद्धी प्रदान करें यह विनती करता हूँ ।। ४५ ।।
क्रमशः
सुंदर प्रार्थना प्रार्थना करने वाले ने कितनी सुंदर बात करी है जो प्रायः लोग नहीं करते हैं।
उन्होंने कहा कि हम माता-पिता दोनों पक्षों के पूर्वजजनों को प्रणाम करता हूं।
हम चर्चा में पिता के पक्ष को ले आते हैं मां के पक्ष को ध्यान नहीं देते।
प्रार्थना करने वाले को कोटिश: नमन।
प्रश्न यह है ध्यान में गहराई कैसे लाई जाए। तो मित्रों यदि आप षष्टांग योग देखें। यानी 6 अंग वाला योग विधि सप्तांग देखें 7 अंग वाला योग विधि तो उसमें उन्होंने प्राणायाम को हटाकर उसकी जगह पर मुद्रा योग पर ध्यान दिया है।
यानी मुद्राओं के द्वारा हम ध्यान की गहराई में जा सकते हैं।
यदि आप संकेत उंगली और अंगूठे की ऊपर की छोरों को मिलाकर ध्यान करते हैं तो आप देखेंगे आप बहुत ही शीघ्र गहराई में उतर जायेंगे।
अष्टांग योग तो बहुत बाद में आया है उसके पहले ऋषियों ने षटअंग और सप्तांग योग की विधियां बताई हैं।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/11/blog-post_60.html?m=1
फेसबुक पर चर्चा।
मनुष्य सदैव करने के पीछे भागता है जिस दिन मनुष्य न करना सीख लेगा समझो उस दिन उसकी साधना परिपक्व हो गई।
वैसे कलयुग में मंत्र जप से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं मंत्र जाप मम् दृढ़ विश्वासा पंचम भक्ति वेद प्रकाशा।
गुरु करना कोई पहचान नहीं जब समय आता है तो गुरु से मिल जाएगा अपने इष्ट के मंत्र जप में लगे रहो सतत निरंतर निर्बाध क्योंकि गुरु की जल्दबाजी में किसी गुरु घंटाल के चक्कर में लोग अक्सर पड़ जाते हैं।
अपने घर पर लाक डाउन के समय का भरपूर उपयोग करो और अधिक कुछ करना है तो सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि करो ना रंग लगे ना हल्दी रंग चोखा।
जी, ऐसा भी नहीं है कि समय आता है तो गुरु मिल जाता है और आपने कहा कि जल्दबाजी में गुरु घंटाल के चक्कर में पड़ जाता है आपकी बात बिल्कुल सही है इस बात से मैं भी सहमत हूं लेकिन गुरु ऐसा किया जाए जिससे हमारी ज्ञान की विकास हो हमारे जीवन की दायित्व ले सके, शरीर धारी गुरु के चक्कर में पड़कर संभव नहीं है इसलिए जगद्गुरु भगवान शिव को अपना गुरु बनाया जाए जो वही गुरु भी है वही भगवान भी है वह स्वयं भोग और मोक्ष के दाता भी है और उस शिव को अपना गुरु बनाने के लिए केवल तीन काम करना है जो कर सकते हैं बिल्कुल आसानी से करके देखा जाए कि जीवन में क्या परिणाम आता है
शिव गुरु के अलावा सारे गुरु की स्थिति यही है जो आपने कहा है गुरु घंटाल, शिव शिष्य ता में कोई व्यक्ति गुरु नहीं है केवल भगवान शिव को अपना गुरु बनाने की बात कहा जा रहा है
Bisnu Dew शिव आपके मानने से आपके गुरु नहीं हो सकते।
शरीरी और अशरीरी गुरु में अंतर होता है।
कारण अशरीरी गुरु हमेशा आपके चाहने पर आपके साथ नहीं हो सकता।
किंतु शरीर गुरु आपके साथ आपकी सहायता प्रत्यक्ष रूप में कर सकता है।
यह अवस्थाएं होती है अशरीरी गुरु एक अवस्था के बाद स्वयं ही शिष्य को शरीर गुरु की ओर प्रेषित कर देता है।
मैं समझता हूं आपको अभी गुरु तत्व का ज्ञान अधूरा है।
जब तक गुरु तत्व का ज्ञान अधूरा है आप शिव तत्व को नहीं जान सकते।
यह बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं और आप वैसे रामकृष्ण परमहंस की जीवनी देख सकते
*परोअ्पेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि।*
*परेहि न त्वा कामये वृक्षां,वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मन:।।*
अपने मन, मस्तिष्क को हमेशा व्यस्त रखिए , इसे कभी खाली न रखें।
*" व्यस्त रहें, स्वस्थ्य व प्रसन्न रहें "*
In order that your mind doesn't wander away in bad thoughts,
keep it busy in some work or the other. Don't allow it to remain idle.
"BE BUSY,BE HAPPY AND BE HEALTHY"
*शुभोदयम् ! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma+*
Amit Singh: सर मैंने देवी कवच, सिद्धकुंजिकास्त्रोत, क्षमा प्रार्थना ये तीनो प्रतिदिन पाठ करना शुरू कर दिया। क्या सही या कोई अन्य भी जोड़ना चाहिए इनके साथ, एक बात और सर आरती नही करता पता नही क्यो मन नही लगता जरूरी है तो शुरू कर दु या रहने दू । 🙏🏻🙏🏻
इस ग्रुप में बगलामुखी भक्त स्वामी तूफान गिरी महाराज जी मौजूद है मेरी इच्छा है वह हम लोगों को देवी की आराधना के प्रति अनुष्ठान का ज्ञान कराएं।
मैंने कितनी बार निवेदन किया है कि कृपया वीडियो तो बिल्कुल ना पोस्ट करें और फोटो यदि बहुत आवश्यक हो तो डालें वह भी यदि आप कोई लेख लिख रहे हो तो।
क्योंकि वीडियो इत्यादि डालने से समस्याएं पैदा होती है।
पहली बात आप अनजाने में पर्यावरण प्रदूषण फैलाने के दोषी हो जाते हैं और जिस व्यक्ति को पर्यावरण से प्रेम नहीं वह आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता।
दूसरा इतनी अधिक वाइट्स से मोबाइल हैंग हो जाते हैं।
तीसरा आपकी मोबाइल की जो बाइट्स की सीमा है वह जल्द समाप्त हो जाती है।
अतः आपसे कर मध्य प्रार्थना है कि आप वीडियो ना डालें।
फोटो भी ना डालें स्वयं की जिज्ञासा निर्माण या उत्तर डालने का कष्ट करें।
किसी को ग्रुप से निकालते हुए अच्छा नहीं लगता।
Mera sbhi mitro se anurodh hai ke krapya mera margdarshan kre
Mai, Vipul sir ke kahne pr group ke sabhi mitro se apne sapne share kr rhi hu
Mera Vipul sir se Vishesh nivedan hai ke mera margdarshan kre 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Mai childhood se hi Mehandipur Bala ji ki puja karti hu
Bala ji ko kuch btana ho to Bala ji sapno ke through mujhko bta dete hai
Maine 3 sapne dekhe h, jinko mai smjh ni pa rhi hu
Maine sapne me dekha ki rat ka time hai ek ground hai, us ground me Hanuman ji khade hai or unse kuch door mai v khadi hu. Hanuman ji ne Jai Shree Ram bola or unka sarir kuch bda ho gya, fir Maine v Jai Shree Ram bola to mera v sarir kuch bda ho gya. Asa Hanuman ji ne 3 ya 4 bar kiya.Or Hanuman ji bhut bde ho gye. Puri duniya chhoti ho gai. Hanuman ji ko dekh kr Maine v 3, 4 bar Jai Shree Ram bola. Mera v sarir Prabhu ki trh bda ho gya. Or puri duniya chhoti ho gai
Pabhu ne mujhse bola sb kuch tumko krna hai. Mai kuch v ni krunga. Mai sath hmesa rhunga tumhre, pr krna tumko hi sb kuch hai
Fir Maine kuch din bad spna dekha. Spne me rat ka time hai.Mai ek khandahar me fas gai hu or vha se nikl ni pa rhi hu. Fir kuch der bad awaj aai ki koi mujhse bol rha h ki kyo presan ho rhi ho. Maine tumko btaya to hai Jai Shree Ram bolo. Fir uske bad Maine Jai Shree Ram bola or Mai khandahr se nikl aai
Kuch din phele Maine fir sapna dekha. Sapne me evening ka time hai. Or Sky me Ram ji khade hai or unka sarir bhut hi bda ha
Mera group me sbhi se nivedan hai krapya mera margdarshan kre
बहन जी आपको बहुत-बहुत बधाई आपकी बालाजी की स्तितुयां रंग लाई।
बालाजी विष्णु का रूप है राम जी भी विष्णु का रूप है तो आपको अनजाने में भगवान बजरंगबली ने राम का नाम दे दिया।
यानी आपको बजरंगबली ने गुरू बनकर मार्गदर्शन किया।
अब आप बजरंगबली को अपना अशरीरी गुरु मानिए।
बजरंगबली को प्रार्थना करते हुए प्रभु राम के मंत्र से आप सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि करें।
इस विधि में आपकी आध्यात्मिक शक्तियां एकत्र होकर आपको शरीरी गुरु तक प्रेषित कर सकती हैं।
जब तक आप को गुरु नहीं मिलते हैं तब तक भगवान बजरंगबली आप के गुरु रूप हैं।
हो सकता है आपको सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि में और मित्रों की भांति कुछ विशेष अनुभव हो।
वे अनुभव आपको गुरु तक पहुंचाने में सहायक हो सकते हैं।
मैं आपके स्वप्न को नमन करता हूं।
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आप बिल्कुल परेशान ना हो आपको प्रभु श्री राम का बजरंग बली बाबा का वरद हस्त स्वप्न के माध्यम से प्राप्त हो गया है।
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सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधियों हेतु mmstm हेतु
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भजन और कविताओं हेतु देखें।
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अंतिम लिंक में देख लो तुम्हें महाविद्या के सभी रूपों के बारे में वर्णन मिल जाएगा।]
शक्तिपात दीक्षित साधक का एक ग्रुप बनाया है।
उसमें एक कल कुछ प्रश्न उत्तर हुए थे मैं उनको कट पेस्ट कर रहा हूं।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
शक्तिपात की परिभाषा क्या है
यह हमारी परंपरा में लगभग हर गुरु ले अपने प्रवचन में समझाया है शक्तिपात का अर्थ होता हैशक्ति का गिरना। कहां से गिरना हाई वोल्टेज से लो वोल्टेज पर गिरना। गुरु से शिष्य पर गिरना। या गुरु से शिष्य को शक्ति प्राप्त होना।
मेरा प्रश्न है कुंडलिनी जागरण कब कैसे होता है??????
कुंडलिनी जागरण का सबसे सहज मार्ग तो है शक्तिपात गुरु की अनुकंपा से कुंडलनी का जागरण होना।
दूसरों मार्ग जो आजकल यूट्यूब पर समझाते हैं लोग मूलाधार चक्र का मंत्र का जप करना।
तीसरा है जो कुछ लोगों ने प्रयोग किया है उन्होंने मूलाधार के नीचे कृत्रिम रूप से एक वाइब्रेटर रखिए उस पर कंपन के आघात दिए।
चौथा है अपने इष्ट मंत्र का निरंतर जाप करना।
पांचवा है बीज मंत्र का निरंतर ध्यान करना और जाप करना।
लेकिन पहले और पांचवी के अतिरिक्त सभी तरीकों में शक्ति आघात का खतरा रहता है। जिससे मनुष्य पागल हो सकता है अथवा मृत्यु भी हो सकती है।
कुंडलनी जागरण हेतु कभी भी निराकार मंत्र का या ओम का जाप नहीं करना चाहिए।
क्या सिद्धी के लिये साधना कर्णेवला सचमुच मे साधक होता हैं ?
मात्र सिद्धि के लिए साधना करने वाला महामूर्ख और अज्ञानी होता है।
प्रश्नों के उत्तर को ठीक से समझने के लिए साधन का आधार होना बहुत जरूरी है बिना साधन के प्रश्न के उत्तर को समझना बहुत ही कठिन है
यह बात सत्य है और दीक्षित जानता भी है।
जब तक में जिज्ञासा शांत नहीं होती है मन शांत नहीं होता है और साधन के समय भटकता रहता है।
शक्तिपात परंपरा में साधक आलसी और कामचोर हो जाता है।
क्योंकि हमको कुछ करने की आदत है अतः हम साधन में बैठकर भी कुछ न कुछ अपनी ओर से सोचने का करने का प्रयास करते हैं।
जबकि शक्तिपात परंपरा संस्कारों को नष्ट कर हमको निर्वाण की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। जिसमें हमको केवल और केवल दीक्षा के समय दिए गए आसन पर बैठना होता है और कुछ नहीं। कमर में दर्द होने लगे तो लेट जाओ और कुछ नहीं।
किंतु हम कुछ करना ही नहीं चाहते हैं।
साधन की परिपक्वता आने के पश्चात आसन की आवश्यकता नहीं रहती है।
शिवओम तीर्थ जी महाराज ने कहा है साधन ऐसे किया जाए की जगत के कर्म ही हमारे क्रिया रूप हो जाएं।
इसका एक अनुभव खुद मैनें किया।
करीबन 2 साल पहले बैंगलोर गया था वहां पर सिद्धार बेटी नामक एक पहाड़ी है जिस पर चढ़ना उतरना करीबन 3 किलोमीटर के आसपास पड़ता है।
मार्ग भी कोई खास आसान नहीं सीड़िया कहीं-कहीं बनी है लेकिन पकड़ने के लिए रस्सियां लगी है।
मेरा वजन 114 किलो का। मैं बेटी दमाद के साथ मात्र 2 या 3 जीने चढ़ा कि मुझे थकान आने लगी और हांफी आने लगी।
फिर मैंने प्रभु से प्रार्थना की गुरु महाराज को याद किया मां काली को याद किया और उसके पश्चात मेरा चलना क्रिया रूप हो गए और मैं बड़ी आसानी से चोटी तक जाकर नीचे आ गया और मुझे तनिक भी थकान नहीं आई।
पर अभी तो पैर की तीन हड्डियां टूटी है एक डिसलोकेट होकर दरार पड़ी। राड पड़ी है प्लेट पड़ी है तार पड़ा है। और तमाम स्कर्ऊ लगे हैं। पैर में सूजन भी है तो शायद में ना चल सके लेकिन यदि चल लिया तो हो सकता है मेडिकल की समस्या हो जाए।
इसीलिए मुझे चलने में पहले तकलीफ नहीं होती थी क्योंकि अपने चलने को यदि क्रिया रूप में कर लिया जाए तो स्वयं चलने लगते हैं।
जय गुरूदेव । जय महाकाली
कुछ ब्लाग “सहस्त्रसार चक्र क्या है” पर टिप्प्णी
कुछ ब्लाग “सहस्त्रसार चक्र क्या है” पर टिप्प्णी
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जय गुरूदेव । जय महाकाली
आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा
आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
तत्व व्याख्या
मन यह हमारे आकाश तत्व में स्थित भावों का भौतिक रूप से एक राजा है वास्तव में यह इंद्र है क्योंकि सभी इंद्रियां इसके अधीन होती है। आप यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो आप देखेंगे जब आप भोजन करते हैं तो वह कहां जाता है आपके पेट में जाता है यानी वह भोजन का तल है या कोष है जो भौतिक है और आपको दिखता है।
फिर वह भोजन अग्नि तत्व के द्वारा जो आपको नहीं दिखता है आपको ऊर्जा देता है यानी ऊर्जा का तल या कोष।
इस ऊर्जा से हम जीवित रह पाते हैं यानी प्राण हमारे प्राण इसी से बचे रहते हैं तो हम कहां पर आए प्राण के तल पर या कोष पर।
फिर जब जीवित बचे तब हम अन्य विषयों में जब हमारा पेट भरा हुआ तब चिंतन करना आरंभ हुआ हम क्या करें क्या न करें यानी हमारा मन जो कहेगा हम करेंगे तो यह हो गया मनोमय तल यह हमारे मन का कोष।
लेकिन मन कोई कार्य करता है और उसका आदेश देता है तो हमारे अंदर से हमारी बुद्धि हमको एक आवाज देती है कि यह गलत है न करो।
यानी यह हुआ हमारा बुद्धि तल या बुधमय कोष।
लेकिन यह सारे तल तभी है जब हम जीवित हैं या इन सभी तलों में कोई विशिष्ट शक्ति कार्यरत है।
यानी तब आया आत्ममय कोश या तल।
फिर इसके बाद आता है आनंदमय कोश या तल।
जब हमारी बुद्धि हमारे मन के अधीन हो जाती है और मन बुद्धि के ऊपर चला जाता है तब हम प्रतीत होने लगते हैं और हम भ्रष्ट होने लगते हैं।
प्रयास किया जाए कि हमारी बुद्धि हमारे मन के ऊपर रहे इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने बताया है निरंतर अभ्यास और प्रभु चिंतन ही एकमात्र मार्ग है।
यदि गुरु कृपा मिल जाए या प्रभु अनुग्रह कर दे तो यह तुरंत हो जाता है।
प्रभु श्यामाचरण लहरी महाराज उनको भी जब महावतार बाबाजी ने एक तेल पिलाया तब लहरी महाराज के मन से जगत की वासनाएं शांत हुई और उनकी बुद्धि मन के ऊपर चली गई।
अब आप पूछे जो पूर्व जन्म के संत थे महाअवतार बाबा की मंडली के सदस्य थे उनका यह हाल था तो हम लोग तो बहुत छोटे लोग हैं।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: परमपिता परमात्मा सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी हमें सहज प्राप्त क्यों नहीं है?
दूरियां 3 तरह की होती है एक देश गत दूरी अर्थात एक वस्तु पूर्व में तो है पर पश्चिम में नहीं है यह देश गत दूरी है लेकिन ईश्वर सर्वत्र हमारे अंदर और बाहर भी व्याप्त
है इसलिए ईश्वर और आत्मा के बीच देश गत दूरी नहीं है अर्थात स्थान की दूरी नहीं है।
दूसरी दूरी है कालगत अर्थात कोई वस्तु आज है पर वही कल ना हो लेकिन परमपिता परमात्मा हर समय मौजूद रहता है उसमें काल गत दूरी भी नहीं है। अर्थात् ईश्वर और आत्मा में समय की भी दूरी नहीं है।
तीसरी दूरी है ज्ञान गत। कोई वस्तु पास में हो और हम उसे जानते न हो तो वह हमसे दूर होती है पर जब हम जान जाते हैं तो वह वस्तु हमारे पास होती है।इसी तरह जब हम ईश्वर को जान लेते हैं तो वह हमारे पास है जब तक हम उसे नहीं जानते तब तक ही वह हमसे दूर है। इससे पता चलता है कि ईश्वर और हमारे बीच न तो देश गत दूरी है न ही काल गत दूरी है केवल ज्ञान गत दूरी है। अतः ईश्वर को जान कर सारी दूरी मिटा कर आनन्द प्राप्त करें।
विजयपाल शास्त्री
प्रभु जी क्या हम कर्मगत दूरी भी कह सकते हैं।
क्योंकि हमारे दुष्कर्म हमें उससे दूर कर देते हैं और सत्कर्म हमें उसके पास जाने की प्रेरणा को प्यास को और बढ़ा देते हैं।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: आप महान चिंतक हैं भगवन् लखनवी जी। अवश्य कर्म की दूरी है👏👏👏
प्रभु जी आप सभी का आशीर्वाद है। आप ही के मंदिर के प्रांगण से वक्तव्य देना आरंभ किया था।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
इसलिए मां गायत्री का आशीर्वाद तो अवश्य है।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: धन्य हो भगवन👏👏👏
Hb 96 A A Dwivedi: जगत बडि माया ।
खा जाये पुरी काया फिर भी तु पगले समझ नहीं पाया
जय हो प्रभु जय हो।
उठ गया है लाल अब कुछ कर दिखाएगा।
🙏🏻🙏🏻😀😀
गुरु जी हमारे अन्दर स्वय जब भगवान है तो हम बाहर किसकी पूजा करते है़ं
Swami Somendratirthji: जब तक हम स्वयं के अंदर स्वयं परमात्मा को जान नहीं लेते तब तक बाहर हम अनेक प्रकार के भगवान की पूजा करते हैं किंतु अंदर के परमात्मा को जानने के लिए बाहर के भगवान की पूजा भी जरूरी है वर्णमाला सीखे बिना आप जैसे पढ़ नहीं सकते इस प्रकार बहिरंग पूजा द्वारा ही अंतरंग में प्रवेश संभव है
केवल दो ही वर्ग हैं एक वह जो ज्ञानी कहलाते हैं वह वर्ग है जो यह जानता है कि अयम आत्मा ब्रह्म। वेद महावाक्य का अनुभव कर अनुभूति कर यह जान लेता है कि ईश्वर उसके अंदर है।
दूसरा वह जिसने केवल सुना रख है लेकिन वह जानता नहीं है ईश्वर अंदर है यानी अयम आत्मा ब्रह्म।
प्रश्न यह है कि हम कैसे जाने।
ज्ञानियों ने कहा है कि जब हम अंतर्मुखी हो जाएंगे यानी हमारी जो ऊर्जा बाहर की ओर निकल रही है वह अंदर की ओर प्रवाहित हो जाएगी तब हम शायद वेद महावाक्य का अनुभव कर इसकी अनुभूति कर सकें।
अब प्रश्न यह है कि हम अंतर्मुखी कैसे हो।
हमारे जिस इंद्री से जो ऊर्जा निकल रही है हम उसी ऊर्जा के सहारे अंतर्मुखी हो सकते हैं।
सबसे ऊपर है नेत्र। नेत्रों से त्राटक फिर आते हैं कान। कांन के द्वारा कर्ण सिद्धि नाद योग ध्वनि योग इत्यादि के द्वारा।
फिर आते हैं नाक। नाक के द्वारा हम प्राणवायु लेते हैं जब उस पर ध्यान करते हैं तो बन जाता है विपश्यना और जब हम नाक के द्वारा प्राणायाम करते हुए अपना मंत्र जप करते रहते हैं और एक विभिन्न तरीके से करते हैं तब बन जाता है क्रियायोग। और जब नाक की वायु पर ध्यान करते हुए हम बीच-बीच में परायम का सहारा लेते हैं और अपने ध्यान को विशेष जगह पर केंद्रित करते हैं तब बन जाता है प्रेक्षा ध्यान।
इसी के द्वारा सुगंध सिद्धि।
फिर आता है मुख। मुख से सबसे आसान है मंत्र जप। जबकि भी तीन अवस्थाएं होती है वैखरी मध्यमा पश्यन्ति।
बैखरी में मुख से आवाज निकलती रहती है यह आरंभिक अवस्था होती है लेकिन अनुष्ठान हेतु वैखरी ही सहायक होती है क्योंकि सारे अनुष्ठान को बैखरी में ही करना पड़ता है।
मध्यमा में होठ हिलते हैं आवाज नहीं निकलती यह अवस्था बैखरी के परिपक्व होने के बाद आती है।
फिर होता है पश्यन्ती। यानी हम सोचने लगते हैं और मंत्र जप आरंभ हो जाता है।
यह काफी मंत्र जप करने के बाद आती है।
फिर आता है परा पश्यन्ति। जिसमें हम शरीर के किसी भी अंग से मंत्र जप कर सकते हैं अनुभव कर सकते हैं।
यह परा पश्यन्ती एक प्रकार से टच थेरेपी को जन्म देती है। यदि हम अपनी हथेली के कंपन रोगी के कंपन के साथ मिलाकर संकल्प करें तो रोगी का रोग ठीक हो सकता है लेकिन यदि आप में सामर्थ नहीं तो आपके ऊपर आ सकता है।
इसी द्वारा आप अपनी ऊर्जा उसमें प्रवाहित कर सकते हैं।
जो अंतर्मुखी हो जाते हैं तो मंत्र जबकि एक अवस्था के बाद। यह उनके लिए जिनके गुरु नहीं है।
शक्तिपात साधकों में तो शिष्य आलसी बन जाता है। केवल आसन पर बैठना है फिर भी नहीं बैठता है क्योंकि कुछ करने की आदत है बिना करें चैन मिलता ही नहीं।
मंत्र जप के बाद हो सकता है अनायास आपका साकार मंत्र आपका इष्ट मंत्र आपके इष्ट को प्रसन्न कर इष्ठ मंत्र के देव को प्रकट ही कर दे। आपको सघन दर्शनाभूति हो जाए। और फिर उस देव की कृपा से हो सकता है आपको द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो जाए और आपको अहम् ब्रह्मास्मि का भी अनुभव हो जाए। धीरे-धीरे अन्य वेद महावाक्यों के अनुभव भी आ सकते हैं।
इसीलिए मेरा यह मानना है जिनके गुरु नहीं है। वह गुरु के लिए बिल्कुल परेशान न हो अपने इष्ट का सतत निरंतर निर्बाध मंत्र करते रहे यह मंत्र जप में इतनी शक्ति है कि वह गुरु से लेकर निवार्ण तक और सिद्धियों से लेकर किसी भी लोक तक ले जा सकता है।
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यक्ष बात
विपुल लखनवी
कहां क्या कहे हम अक्सर भूल जाते हैं।
किस दिशा में बहें हम अक्सर भूल जाते हैं।।
आवेग में हम क्या करें हम अक्सर भूल जाते हैं।
अत्याचारों को कब तक सहें हम अक्सर भूल जाते हैं।
किस अस्त्र से होंगे हम विजयी यह चुनना भूल जाते हैं।
हर मानव की सोच है अलग हम अक्सर भूल जाते हैं।।
कर बैठते हैं कुछ गलत बाद में हम अक्सर पछताते हैं।।
सद्गुरु कौन हो उसके क्या लक्षण है। इस विषय पर परम् पूज्य गुरुमहाराज विष्णुतीर्थ जी ने जो वक्तव्य दिया, जिनका उल्लेख उन्होंने अन्तर्विथी पुस्तक में किया है।
Swami Triambak giri Fb: परमात्मा है यह बात मानते हैं परमात्मा अंग संग है यह बात जानते हैं, इसका बोध हो चुका हैं अब और कौन सा ज्ञान चाहिए अब अंग संग परमात्मा है तो इसकी प्रार्थना कीजिए और उसकी प्रार्थना करते हुए अपने सच्चाई और ईमानदारी से कर्म कीजिए और अगर इससे भी आगे बढ़ना है तो परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछिए और भी इससे आगे बढ़ना है तो द्रष्टा भाव में आ जाइए जो भी कुछ हो रहा है होने दीजिए उसको देखते रहिए अपने आप हो रहा है होता रहेगा होगा करवाने वाला करवा रहा है कर्म फल से अब ऊपर उठ जाएंगे मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाएंगे अब इसमें और किसी चीज की कहां जरूरत है कौन से ज्ञान की जरूरत है किस गुरु की जरूरत है क्यों जरूरत है गुरु की |
परमात्मा को ही गुरु बना लीजिए परमात्मा को ही अपना सतगुरु बना लीजिए |
परमात्मा आपके अंदर की आवाज को अंदर ही सुनता है आपको विचार भी प्रदान करता है जो विचार आपने दुनिया में कहीं नहीं सुने कहीं नहीं पढ़े कहीं जिन का अवलोकन भी नहीं किया तो परमात्मा आपके अंदर ही है आप परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछ |
परमात्मा की पहचान होने के बाद हर पल परमात्मा में ध्यान रहे शरीर को सुलाकर भी परमात्मा में विचरण हो तो ही मोक्ष मुक्ति संभव |
Swami Triambak giri Fb:
एष उक्तः सूक्तेऽपि पौरुषे।
धात्रादिस्तम्बपर्यन्तानेतस्यावयवान् विदुः।।
विश्वरूपाध्याय के पुरुषसूक्त में जो वर्णन है वह इसी 'विराट्' का है। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त जगत् को इसी विराट् का अवयव बताया जाता है।
ईशसूत्रविराड्वेधोविष्णुरुद्रेन्द्रवन्हयः।
विघ्नभैरवमैरालमरिकायक्षराक्षसाः।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा गवाश्वमृगपक्षिणः।
अश्वत्थवटचूताद्या यवव्रीहितृणादयः।।
जलपाषाणमृत्काष्ठवास्यकुद्दालकादयः।
ईश्वराः सर्व एवैते पूजिताः फलदायिनः।।
ईश (अन्तर्यामी) हिरण्यगर्भ, विराट्, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि, गणेश, मैराल, मरिका, यक्ष, राक्षस, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गौ, घोड़ा, मृग, पक्षी, पीपल, बढ़, आम आदि वृक्ष जौ, धान, तिनके आदि औषधियां, जल, पाषाण, मिट्टी, काठ, यहां तक कि बिसोला और कुदाल तक ये सभी ईश्वर हैं। जब कोई इनकी पूजा करता है तब ये अपनी अपनी शक्ति के अनुसार उसको फल दे देते हैं |
इस ईश्वर की जैसे जैसे उपासना करते हैं, वैसे वैसे ही फल मिल जाते हैं क्योंकि उपासना भी एक कर्म है। जब कि ये सभी ईश्वर हैं तब समान ही फल मिलना चाहिये था। परन्तु फल की जो न्यूनाधिकता होती है वह तो पूज्यों और पूजाओं के अनुसार हो जाती है घट बढ़ जाती है। पूज्यों और पूजाओं के सात्विक राजस आदि होने से भिन्न भिन्न फल मिल जाते हैं।
सांसारिक फलों की प्राप्ति इन छोटे मोटे ईश्वरों से हो जाए , परन्तु मुक्ति तो अद्वितीय परम्ब्रह्मतत्व के ज्ञान से ही होती है। इस के अतिरिक्त मुक्ति का कोई भी अन्य मार्ग नहीं है। देखते नहीं हो कि - अपने जागे बिना अपनी निद्रा में जिस स्वप्न को बना रखा है उस अपने सुपने का भंग नहीं होता है। इस दृष्टान्त से यह बात समझ लेनी चाहिये कि आत्मतत्व को जाने बिना, (आत्मतत्व को न जानने से ही बना हुआ,) यह अपना संसार रूपी सुपना कदापि निवृत नहीं हो सकता | इस #आत्मतत्व को जानने के लिए परमब्रह्मतत्व को पहचानना बहुत जरुरी है |
ईश्वर और जीव आदि के रूप से वर्तमान जो यह जडात्मक और चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् है यह सब इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व में एक बड़ा सुपना है क्योंकि यह सब अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को ही तो अन्यथा समझ लिया गया है।
सुपना 'सुपना' है, यथार्थ ज्ञान नहीं है यह बात जागने से पहले मालूम नहीं पड़ सकती, जागने पर ही यह मालूम पड़ा करता है। इसी प्रकार 'यह जगत् एक सुपना है' ऐसा ज्ञान ब्रह्मविद्या नाम के जागरण के हो जाने पर ही हो सकता है, पहले नहीं।
आनन्दमय और विज्ञानमय जिनको ईश्वर और जीव भी कहते हैं, दोनों ही माया के कल्पित किये हुए हैं। इस कारण ये ईश्वर तथा जीव यद्यपि परमब्रह्म से अभिन्न हैं तो भी ये जगत् के अन्दर की ही वस्तुएँ हैं, ये जगत् के बाहर की वस्तुएँ नहीं हैं। इन ईश्वर और जीव दोनों ने मिलकर पीछे से यह सब कल्पित कर डाला है।
विज्ञान के बाद आनन्द आता है। विज्ञान भिन्न भिन्न होते हैं। आनन्द सब को एक जैसा ही आता है। शूकर को शूकरी से जितना आनन्द आता है, राजा को रानी से भी उतना ही - उस जैसा ही आनन्द आता है। यों आनन्द नाम का जो ईश्वर तत्व है वह एक जैसा है - एक है। परन्तु आनन्द को प्रकट करनेवाले - उसका दर्शन करने वाले, जो विज्ञानमय कोश ये शरीर हैं, वे भिन्न भिन्न हैं। यही तो ईश्वर और जीव का वेदान्तसम्मत भेद है। ये दोनों ही माया के कल्पित हैं।
ईश्वर से लेकर कि उसने बहुभाव का ईक्षण किया किंवा संकल्प किया] प्रवेश तक [कि इस जीव रूप से इसी सृष्टि में प्रवेश कर जाऊँ] कि सब सृष्टि तो ईश्वर की बनायी हुई है। जाग्रत् से लेकर मोक्षपर्यन्त सब संसार जीव का बनाया हुआ है। क्योंकि वही अपने आप को जागता हुआ या मुक्त होता हुआ माना करता है। वह इसमें अभिमान रखता है। यदि यह जीव साधना करके इन सब अवस्थाओं में से अपना अभिमान हटा ले तो जाग्रदादि संसार का एकपदे विध्वंस हो जाय। जाग्रदादि संसार का वर्णन तो यों है कि - यह प्राणी माया से मोहित होकर इस मांस के झोंपड़े में अहंभाव से निवास कर लेता है तो फिर भले बुरे सभी काम करने लगता है। यह जाग्रत् काल में अन्न पान आदि नाना भोगों से अपने शरीर की तृप्ति करना मानता है। स्वप्न में यह इश्वर अपनी माया से ही सम्पूर्ण लोक को बनाता है और अपने बनाये हुए इसी से सुख दुःख भोगा करता है। सुषुप्तिकाल में जब सब कुछ विलीन हो जाता है, जब अज्ञान से अभिभूत हो जाता है, तब सुखरूप हुआ रहता है। यह तो एक शरीर की जाग्रत् आदि अवस्थायें हुईं। जब एक शरीर में निवास के कर्म समाप्त हो जाते हैं और जन्मान्तर देनेवाले कर्मों की बारी आ जाती है तब वही जीव फिर जन्म लेता है और फिर यों ही जागता है, सुपने देखता है और सोया करता है। यों यह जीव इन जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं और स्थूल, सूक्ष्म आदि तीनों शरीरों में खेल से करता फिरा करता है। इसी जीव के कर्मों के प्रताप से यह सब विचित्र जगत् उत्पन्न हो गया है। जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति आदि के इस प्रपंच को जो परमब्रह्यम्तत्व प्रकाशित कर रहा है, इसी परमब्रह्म रुप के तत्व का अंश मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा यदि किसी को मालूम हो जाय, तो उसका बन्धनों से छुटकारा हो जाय, उसका कल्पित संसार विलीन हो जाय।
इस संसार में जो एक अद्वितीय तथा असंग परम्ब्रह्मतत्व है इसको तो आप पहचानते ही नहीं हैं और फिर वृथा ही मायाकल्पित जीव तथा मायाकल्पित ईश्वर के विषय में परस्पर लड़े मरे जाते हैं। आप किसी को भी श्रुतिसिद्ध परमार्थ तत्व का परिज्ञान नहीं हैं।
विद्वान ज्ञानी नीतिनिपुण पुरुष इसी ईश्वर के कहने से प्रशंसनीय व्यवहार करता है। इसका ईश्वर इससे अच्छा व्यवहार कराता है। दूसरे प्रकार के पुरुष दूसरी तरह का वर्ताव करते हैं।इनका ईश्वर इनसे बुरा व्यवहार कराता है। यों ईश्वरतत्व प्राणियों का भागी बन कर रहता है। यह इनसे भिन्न कोई तटस्थ शासक कदापि नहीं है। जबकि यह ईश्वर को अपने ऊपर शासक नियंत्रक मानकर चल रहे हैं |
इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को जब से हम पहचान गये हैं, तभी से तत्वनिष्ठ होकर हम तो बड़े ही प्रसन्न रहने लगे हैं। जिन मन्द भागियों को इस तत्व का ज्ञान नहीं हुआ है उन पर तो हमें केवल थोड़ा सा शोक ही होता है। भ्रान्ति में फँसकर हम उनके साथ विवाद करना पसन्द नहीं करते हैं।पर आप लोगों तक हमारी बात को पहुंचाने के लिए थोड़ा सा वाद विवाद आप लोगों से करना पड़ता है क्योंकि आप लोग लालच में इतने अंधे हो चुके हो कि आपको सत्य और असत्य का भान कभी हो ही नहीं रहा है |
तृणपूजकों से लेकर योग पर्यन्त वादियों को 'ईश्वरतत्व' के विषय में भ्रान्ति हो रही है। लोकायत से लेकर सांख्य पर्यन्त वादियों को 'जीव' के विषय में बड़ा भ्रम हो रहा है।
अद्वितीय परमब्रह्मतत्वं न जानन्ति यदा तदा।
भ्रान्ता एवाखिलास्तेषां क्व मुक्तिः क्वेह वा सुखम्।।
अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को नहीं जानते हैं वे तो सभी भ्रान्त हैं। उनको मर जाने पर न तो विदेहमुक्ति ही मिलती है और न इस लोक में ही वे सुख पा सकते हैं।
परमब्रह्म का तत्वज्ञान न होने से आपलोगो को मुक्ति नहीं मिलेगी तथा वैराग्यसम्पन्न न होने के कारण इस लोक के सुखों से भी आप लोग स्वयं ही परहेज़ कर बैठेंगे। यों आप दोनों सुखों से वंचित हो जायेंगे।
ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त और विद्याओं के कारण यदि आपमें ऊँच नीच भाव होता हो तो हुआ करो। ऐसे उत्तमाधम भाव से मुमुक्षु लोगों को लाभ ही क्या? देखते नहीं हो कि सुपने में राज्य करने से और सुपने में भीख माँगने से, जागे हुए आदमी का कुछ भी घटता बढ़ता नहीं है।इस कारण हमारा तो यही कहना है कि - जो लोग मुक्ति चाहते हों, वे 'जीववाद' और 'ईश्वरवाद' के झगड़े में कभी भी न पड़ें। उन्हें तो चाहिये कि वे सदा परम्ब्रह्मतत्व का ही विचार करें और विचार कर इस परमब्रह्मतत्व को पहचान जाँय।
परम प्रभु की जय
Swami Toofangiri Bhairav Akhada: *राजयोग, लययोग,स्तंभन की प्रतिमूर्ति, समस्त दुःखों एवं पापों का शमन करने वाली देवी माँ बगलामुखी के प्राकट्य उत्सव की आप सभी को ढेरों बधाई सहित कोटिशः मंगल शुभकामनाएं।माँ का आशीर्वाद ऐसे ही चराचर जगत को प्राप्त होता रहे और देश निरन्तर नवीन कीर्तिमान स्थापित करे। आज के दिन इस मंत्र का उच्चारण करें वैशाख शुक्ल अष्टमी को देवी बगलामुखी का अवतरण दिवस कहा जाता है इसे मां बगलामुखी जयंती के रूप में मनाया जाता है.
मां बगलामुखी जयंती 1 मई 2020 को है। इस दिन को मां पीतांबरा जयंती के नाम से भी जाना जाता है
ये स्तम्भन की देवी भी हैं। सारे ब्रह्मांड की शक्ति मिलकर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती। शत्रु नाश, वाक सिद्धि, वाद-विवाद में विजय के लिए देवी बगलामुखी की उपासना की जाती है।
मां बगलामुखी मंत्र :-
'ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा।'
*आपके चरणों का दास-* स्वामी तूफान गिरी जी महाराज मां बगलामुखी उपासक श्री पंच दशनाम भैरव जूना अखाड़ा {राष्ट्रीय प्रवक्ता व प्रचारक श्री हिंदू तख्त एवं राष्ट्रीय महामंत्री अखिल भारतीय हिंदू सुरक्षा समिति}
Bhakt Lokeshanand Swami: इधर, भगवान प्रतीक्षा में खड़े हैं, कि ये आया, लगा चरण धोने और धो धोकर पीने। रामजी ने एक चरण तो धुलवा लिया, पर दुसरा तो कठोते में तब रखें, जब पहला कहीं टिकाएँ। जैसे ही चरण रखने लगे, केवट कहता है- खबरदार! फिर से धूल न लगा लेना।
-तो इसे कहाँ रखूँ?
-हवा में ही रखें रहें।
तो रामजी एक पैर पर ही खड़े रहे। पर कितनी देर खड़े रहते? थक गए, तब केवट बोला, आप थक गए हों तो मेरे सिर का सहारा ले लें।
लक्षमणजी कहते हैं कि सारी दुनिया भगवान से कहती है कि भगवान! मेरे सिर पर हाथ रख दो, हमें सहारा हो जाएगा। ये कहता है मेरे सिर पर हाथ रख लो, आपको सहारा हो जाएगा?
भगवान कहते हैं- लक्षमण! मैं जो सारी दुनिया को सहारा देता हूँ, वह इन केवट जैसे संतों के सहारे ही तो देता हूँ।
"मोते अधिक संत करि लेखा।"
दोनों चरण धुल चुके, तो केवट ने भगवान को गोद में उठा लिया। रामजी केवट की छाती से चिपक गए। सबको नाव में चढ़ाकर केवट नाव चलाने लगा।
आज भगवान के पार जाने का तो बहाना है, केवट के जीवन की नैय्या पार हो रही है।
दूसरा किनारा आया, रामजी उतरकर खड़े हुए, केवट ने दण्डवत् कर चरण पकड़ लिए।
लक्षमणजी ने पूछा कि उधर तो अकड़ रहा था, इधर पकड़ रहा है?
केवट रोने लगा, बोला- छोटे सरकार! अकड़ के या पकड़ के, कैसे भी, मुझे तो भगवान को रोकने का बहाना चाहिए। और लक्षमण भैया! मुझे आपका भी तो भय है, आप शुरु से ही, मेरी ओर ही घूर रहे हैं, और मैं यह रहस्य जानता हूँ कि जो मनुष्य इन चरणों में दण्डवत् करता है, उसे दण्ड नहीं मिलता।
लोकेशानन्द केवट की बुद्धिमता पर मुस्कुराने लगा।
जय मां जगदंबे हे मां।
सभी तेरे रूप हर रूप में तू है मां।
एक राजा शिकार करने जंगल में गया था। शिकार के पीछे दौड़ते हुए, वह बहुत दूर निकल गया, सैनिक तो पीछे छूट ही गए, अंधेरा भी हो गया।
'अब इस जंगल में यह रात कैसे बीतेगी?' यह विचार उसे मारे दे रहा था। कि तभी उसे दूर एक रोशनी दिखाई दी। रोशनी है, तो जरूर कोई मनुष्य वहाँ होगा ही। तो वह रोशनी की ओर बढ़ चला।
वहाँ एक टूटी फूटी झोपड़ी नें एक गरीब फटेहाल आदमी मिला। मजबूरी थी, दूसरा कोई चारा न था, राजा वहीं रुक गया।
बातचीत हुई, मालूम पड़ा कि वह एक लकड़हारा है, जंगल से लकड़ी काट कर, उसका कोयला बनाकर बेचता है।
भूख और थकान से बेहाल राजा, भूमि पर ही सो गया। सुबह सैनिक आए, और राजा को लिवा ले गए।
दरबार में पहुँचते ही राजा ने उस लकड़हारे को बुलवा कर, अपनी जान बचने की खुशी में, एक सौ एकड़ का चंदन का बाग उसे ईनाम में दे दिया।
इस घटना के कईं वर्षों बाद, राजा को उस लकड़हारे की याद आई। मंत्रियों से कहा कि उसे ढूंढो, पता करो कि वो कहाँ है और क्या मौज ले रहा है?
मंत्रियों ने उसे बहुत जगह खोजा। और उनकी हैरानी की कोई सीमा न रही जब उन्होंने उस लकड़हारे को उसी जंगल की, उसी टूटी फूटी झोपड़ी में, उसी हाल में पाया।
उसे राजा के सामने दरबार में पेश किया गया। राजा ने उसकी अवस्था देखकर, बड़ी हैरानी से, उससे पूछा- भले आदमी! तुझे सौ एकड़ का चंदन का बाग दिया गया था। चंदन की तो एक ही लकड़ी की कीमत भी हजारों रुपए होती है। तब भी तूं वैसे के वैसा ही रहा? आखिर तूंने उस बाग का किया क्या?
लकड़हारा बोला- महाराज! मैंने उसकी लकड़ी का भी कोयला बना बनाकर बेच दिया।
राजा ने अपना सिर पीट लिया और कहा- मूर्ख! चंदन की लकड़ी का भी कोई कोयला बनाता है?
लोकेशानन्द कहता है कि हम भी उस लकड़हारे जैसे ही मूर्ख हैं। हम वही वही करते हैं, जो हम अभी तक करते आए हैं।
संत लाख कृपा करते हैं, कीमती से कीमती ज्ञान की बात बताते हैं, पर हम उन बातों की वास्तविक कीमत न जानने के कारण, उनका लाभ नहीं उठा पाते। हम भी उनका कोयला ही बनाते हैं।
Bhakt Ashish Tyagi Delhi: क्रपया ज्ञानीजन मेरे एक मन मे आ रहे विचार को मुझे समझाय।
भगवान राम विष्णु जी के अवतार थे या महाविष्णु जी के।
ओर ऐसा क़ बोला जाता है कि जो काम भगवान राम भी नही कर सकते थे वो कम राम नाम जाप हो जाता है।
क्रपया उचित जवाब दे । ओर बहस के पात्र ना बने।
आपको मेरा ह्दय से प्रड़ाम 🙏🙏
क्या आप यह जानते हैं कि विष्णु या महाविष्णु में अंतर क्या है।
क्या महा लगा लेने से कोई वस्तु विशालकाय हो जाती है।
यही मिथक टीवी में दिखाया जाता है
यह सत्य है ब्रह्मा विष्णु महेश यह भी पद है।
इस तरह की तमाम गणनाएं नेट पर मौजूद है।
देखो मेरा यह मानना है इस महा लगा देने से उस शक्ति का अर्थ हो जाता है निराकार से।
क्योंकि ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप निराकार ही है और आवश्यकता पड़ने पर वह साकार रूप में भी है।
मानव इतना शक्तिशाली है कि वह अपनी आराधनाओं से प्रार्थना उसे उस निराकार ब्रह्म को रूप धारण करने को बाध्य कर देता है।
और यह भी सत्य है कि मोक्ष हेतु निर्वाण हेतु हमको निराकार के अनुभव और ज्ञान होना चाहिए।
जहां तक मुझे समझाया गया कृष्ण के द्वारा की महा लगाने से वस्तु असीमित हो जाती है उसकी कोई सीमा नहीं होती है इसलिए उसको महा कह देते हैं।
यदि हम मात्र गणेश कहैं। तो साकार प्रतिमूर्ति है और साकार की सीमाएं होती है लेकिन निराकार अनंत होता है।
यदि हम महागणेश के हैं तो उस साकार के निराकार के उनके अर्थ है इसलिए उसको कथानक में आकार में बड़ा कर देते हैं।
सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्व ब्रह्मा।
सृष्टि का कोई भी कण बिना ब्रह्म के नहीं है जहां तक हम सोच सकते हैं उसके आगे और पीछे ब्रह्म ही है।
राम नाम इतना अधिक लिया गया है कि यह सिद्ध हो चुका है।
यह अंतर्मुखी होने के एक माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है।
राम के लोगों ने कई अर्थ बताएं हैं और यह वास्तव में हमारे शरीर के अग्नि तत्व को इंगित करता है। क्योंकि जो इसका बीज मंत्र है वह अग्नि तत्व का मंत्र है।
मेरा तो यह भी मानना है यदि आप अपने नाम का जाप करें किसी भी शब्द का जाप करें तो उसमें समय लग सकता है क्योंकि शायद वह सिद्ध ना हुआ हो किंतु आप उसके द्वारा भी अंतर्मुखी हो सकते हैं।
क्योंकि अक्षर ब्रह्म।
साथ ही जो वेद महावाक्य का सार वाक्य है सर्व खलु इदम् ब्रह्म।
वह भी हमें यही बताता है और समझाता है।
रामकथा का सुनना या कहना रामनाम का जाप करना एक ही चीज है क्योंकि दोनों में आप का भाव भक्ति का होता है।
नवधा भक्ति में भी यह चीज देखी जा सकती है।
देखो विष्णु हमारी पैदा होने से लेकर मृत्यु तक के मालिक हैं लक्ष्मी उनकी पत्नी है क्योंकि लक्ष्मी का जो आवश्यकता है वह जीवित शरीर को ही होती है।
अत: मनुष्य रूप में अवतार लेने का कार्य कृष्ण का ही है विष्णु का ही है।
आपने पढ़ा होगा नर के साथ नारायण लिखा है यानी विष्णु का रूप लिखा है नर के साथ ब्रह्मा या शिव नहीं लिखा है।
हर कार्य के लिए एक शक्ति का निर्माण हुआ है जिसको की उस महामाया ने निर्मित किया जिसको हम महाकाली के रूप से जानते हैं। जो निराकार है।
जब मां काली जो साकार है अपने सभी दसों विद्धाओं को रूपों को समेट लेती है तो वह महाकाली बन जाती हैं।
एक बात और जब तक हमारा द्वैत पक्का नहीं होगा वह सिद्ध नहीं होगा तब तक हम अद्वैत को नहीं समझ सकते।
सनातन में इन दो विचारधाराओं को लेकर परस्पर टकराव होते रहते हैं जोकि वास्तव में कुछ हद तक मूर्खता को प्रदर्शित करते हैं।
जब सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्र ब्रह्म है तो उससे छूटा क्या है।
अब देखो भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य। उनके मानने वाली आंख बंद करके इस बात को बिना अनुभव किए बिना जाने चिल्लाते रहते हैं।
उन्होंने यह बात क्यों बोला इस पर कोई जानने की कोशिश नहीं करता।
वही माधवाचार्य रामानुजम ने बोला जगत भी सत्य ब्रह्म ही सत्य।
और माधवाचार्य तो सब कुछ कुछ बता कर वहीं पर समाप्त कर दिया।
इन दोनों के मानने वालों के बीच में परस्पर विवाद होते रहते हैं।
लेकिन मेरे विचार से दोनों ने एक ही बात कही है अब यह हमारी सोच पर हैं कि हम उसके क्या अर्थ निकाले।
जय गुरूदेव । जय महाकाली
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