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Thursday, September 17, 2020
पंच कोश और भौतिक विज्ञान
पंच कोश और भौतिक विज्ञान
यद्यपि लोगों ने 5 कोश की बात की है।
लेकिन मैं यह विज्ञान की दृष्टि से 7 कोश की बात करता हूं।
आपने खाना खाया कहां गया पेट में तो वहां पर क्या हुआ अन्न मय कोष।
खाना हजम हुआ कैसे हजम हुआ और उसमें से क्या हुआ उसमें से ऊर्जा निकली जिसने कि हमारे अंदर के एएमपी को एडीपी और फिर एटीपी बांध के ऊर्जा का भंडार किया और हमारा शरीर निर्मित हुआ।
इसलिए यह क्या हुआ अग्निमय कोश।
अब जब यह ऊर्जा मिली तो क्या हुआ हम जीवित रह सके यानी हमारे प्राण रह सके यानी प्राण मय कोष।
अब जब हम जीवित हैं पेट भरा हुआ है तो हम क्या खाएं क्या करें यह निर्धारित करने के लिए हमारा मन हमें नियंत्रित करता है तो हो गया मनो मय कोष।
लेकिन हमारा मन जब भटकता है तो हमारे अंदर से कोई हमें रोकता है समझाता है वह कौन होता है वह होती है बुद्धि यानी बुद्धि मय कोष।
अब बुद्धि भी तब तक रहती है जब तक में आत्मा शरीर में रहती है यानी आत्म मय कोष।
और जब मनुष्य इन सब को भूलकर आनंद में स्थित होकर अपने मूल स्वभाव में आता है तो कहलाता है आनंदमय कोश।
लेकिन बुद्ध दर्शन के हिसाब से आत्मा में कोष के बाद वह दुख मय उसकी बात करते हैं।
किसी संदेह की दृष्टि में विचारों का स्वागत है।
Bhakt Brijesh Singer: वाह प्रभु
आपने तो बहुत सरल तरीके से समझा दिया 👍🙏
वास्तव में कोष वैवारा नाम की कोई चीज है नहीं।
लोगों ने समझाने के लिए इस तरह की बातें की।
जैसे कि यदि आप फिजिक्स पढ़ें तो उसमें लायमन बामर फैशन सीरीज होती हैं या कोई इलेक्ट्रॉन जो फिल होता है ऑर्बिट में। एस पी डी एफ के नियम के अनुसार फिल होता है बस उसी तरीके से उसको आप ऊर्जा की परतें समझ लें।
जैसे पहली आर्बिट के इलेक्ट्रॉन बहुत अधिक ऊर्जा चाहते हैं दूसरी आर्बिट में जाने के लिए और अंतिम आर्बिट के इलेक्ट्रॉन रेडियोएक्टिव एलिमेंट्स में खुद निकल जाते हैं।
बस उसी प्रकार भौतिक शरीर को समझने के लिए और उसके विचारों से बाहर निकलने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है लेकिन जैसे जैसे आप ऊपर जाते हैं काफी कम ऊर्जा में और ऊपर चले जाते हैं।
अंतिम आर्बिट पर पहुंचने के बाद आप संकल्प मात्र से ब्रह्मांड का भ्रमण भी करने लगते हैं।
तत्वों के हिसाब से देखें तो आकाश तत्व जो दिखता नहीं है लेकिन संपूर्ण सृष्टि उसी में समाई है उसी भांति आकाश तत्व में आत्मा परमात्मा प्राण मन बुद्धि अहंकार कर्मफल संस्कार सब उसी में सचिंत रहते हैं।
मनुष्य आध्यात्मिक उत्थान में आकाश तत्व की भाषा को समझने लगता है उसके नियमों को धीरे-धीरे जानने लगता है और उन पर अनुसरण करने लगता है तो अपने आप में एक आर्बिट से दूसरी में जा आ सकता है।
Bhakt Brijesh Singer: अर्थात spdf की theory हमारे मनीषियों ने पहले ही समझा रखा है बस समझाने का तत्व अलग ले रखा था ।
Wednesday, September 16, 2020
समापन के सिपाही
समापन के सिपाही
कवि विपुल लखनवी नवी मुंबई।
भारत की संस्कृति पर लिखी कैसी काली स्याही है।
भारतवंशी जाग उठे अब हर बच्चा बना सिपाही है।।
हमको मुगलों ने था लूटा फिर अंग्रेज लूट गए।
फिर हमको अपनों ने लूटा भाग्य हमारे फूट गए।।
अब हम न लूटने देंगे अपनी कला और संस्कृति को।
उसको नष्ट करेंगे मिलकर जमी जो काली काही है।।
भारतवंशी जाग उठे अब हर बच्चा बना सिपाही है।।
हमको अंधेरे में था रखा दुश्मन महान बनाया था।
हीन भावना हम में भरकर यह इतिहास पढ़ाया था।।
सारे षड्यंत्र टूट चुके अब गद्दारों को जान लिया।
सबके चेहरे अब देखते हैं सबने मुंह की खाई है।।
भारतवंशी जाग उठे अब हर बच्चा बना सिपाही है।।
भारत विश्व का सूरज ही था काले मेघों ने घेरा था।
वाणी भी नीलाम हुई थी सांसों पर भी पहरा था।।
अब सब कुछ ही दिखता है जब हम थोड़े सबल हुए।
अब षड्यंत्र सफल न होए बीड़ा यही उठाई है।।
भारतवंशी जाग उठे अब हर बच्चा बना सिपाही है।।
कलम विपुल की जय बोलेगी संस्कृति पर अभिमान करें।
हम भी योद्धा भारत मां के उसका ही गुणगान करें।।
नष्ट करेंगे दुश्मन को हम शपथ यही भी खाई है।
कलयुग नष्ट होता दिखता है सतयुग की परछाई है।
भारतवंशी जाग उठे अब हर बच्चा बना सिपाही है।।
अपराधी गद्दार देश के
अपराधी गद्दार देश के
विपुल लखनवी नवी मुंबई।
जब तक देश के टुकड़े न हो। इन को चैन नहीं आए।।
जब तक हिंदू मिट न जाए। इनको भोजन न भाए।।
सात दशक में इन ने केवल। देश को लूटा खाया है।।
आपस में सबको ही लड़ा कर। वोट सत्ता का पाया है।।
गद्दारी इन्हे मिली विरासत। जयचंद इनके पूर्वज थे।।
हिंदू इनको दुश्मन दिखते। उनको सदा ही ठगते थे।।
तुष्टिकरण की राजनीति ही। महामंत्र कहलाती है।।
हिंदू अंधा गूंगा बहरा। उसको समझ न आती है।।
ऊंच-नीच का विष इनके। मन में ऐसा डाला है।।
खुद अपने को मार ही देगा। ऐसा तीक्ष्ण यह भाला है।।
गर न जागे विपुल देश ये। मिट्टी में मिल जाएगा।।
खूनी नंगी तलवारों से। गरदन यह कटवाएगा।।
अब कुछ समय बचा जो मिलता। बेहोशी से बाहर आओ।।
देश की संस्कृति नष्ट हुई जो। पुनर्स्थापित कर जाओ।।
वरना तुमको तेरे बालक। माफ नहीं कर पाएंगे।।
तेरी संस्कृति तेरी पूजा। कभी नहीं कर पाएंगे।।
चलो विपुल अब शपथ यह ले लो। देश को अपने बचाएंगे।।
नहीं इराक यह बन पाएगा। बलि वेदी चढ़ जाएंगे।।
कुछ जयचंदी दोहे
कुछ जयचंदी दोहे
विपुल लखनवी नवी मुंबई।
आंधुर बहरे साथ ले, बनती जब सरकार।
सत्ता लाठी लालच में, खुद पर करें प्रहार।।
हिन्द रचा इतिहास है, हिन्दू होता गद्दार।
नहीं सीखते हिन्दू कुछ, कर दुश्मन से प्यार।।
यही देश दुर्भाग्य है, करें जिन पर विश्वास।
सत्ता खातिर वे बिके, विश्वासों पर घात।।
नहीं समझते लालची, सत्ता ऐसे न आय।
मिट जाएंगे वे सदा, दुश्मन के घर जाय।।
मृत समान वे लालची, स्व भूले निज मोह।
रहें कलंकी वे सदा, जो करते निज द्रोह।।
विपुल कभी इतिहास में, पाएं जब स्थान।।
थूकेगा इतिहास ही, इनको जयचंद मान।।
विपुल लखनवी के मूर्ख हिंदुओं को समर्पित दोहे।
विपुल लखनवी के मूर्ख हिंदुओं को समर्पित दोहे।
भारत में बसते सदा, दुष्ट कमीने लोग।
इसीलिए दुश्मन सदा, यहां लगाते भोग।।
नाम भले भूषण हुआ, पर भारत के दाग।
जनम कुलीन पा लिया, विश्वासघाती साथ।।
देश हारता है सदा, पल आस्तीनी सांप।
समय आज अब आ गया, अब इनको तू भांप।।
गर निश्चिंत बैठा रहा, मिटेगा तेरा नाम।
जाग सके तो जाग ले, लेकर हरि का नाम।।
पानी सीने तक हुआ, पर मूरख तो सोय।
एक लहर जो नाक तक, अपना जीवन खोय।।
हिंदू सभी नादान है, पशु समान स्वभाव।
आपस में लड़ कर मरें, दे अपनों को घाव।।
धीरे-धीरे मिट रहे, नहीं समझ कुछ आय।
खुद मिटने की सोचते, कौन इन्हें समझाय।।
समझाने का जो कभी, करता है परयास।
उसको मूरख बोलते, करते हैं उपहास।।
दास विपुल समझे यही, यही नियति का खेल।
अपनी बुद्धि फिर गई, नहीं पाए अब झेल।।
विपुल लखनवी के 11 गणपति दोहे
विपुल लखनवी के 11 गणपति दोहे
नहीं बजे इस साल में, कहीं शोर नाहीं ढोल ।
सब अपने मन में भजे, गणपति गणेश बोल।।
तेरा जन स्वागत करें, दिवस बीतता जाय।
काल करोना आ गया, सबको रहा डराय।।
शानेशौकत न मिले, मिलेगा मन का भाव।
हे प्रभु घर आंगन बसो, नहीं प्रेम अभाव।।
भक्ति भावना हीन हम, विपुल विकल है भाव।
हे गणपति हिरदय बसो, काग समान मुझ कांव।।
एक दन्त लीला तेरी, जगत समझ न पाय।
समझे जन लीला विपुल, बिरला जग कहलाय।।
शिव शक्ति के पुत्र तुम, जग के पालनहार।
रूप न्यारा अद्भुत धरा, करने दुष्ट संहार।।
मूषक वाहन कर लिया, काटे जग जंजाल।
वरद हस्त जिसको मिला, उसे नहीं भय काल।।
हे गणपति विनती विपुल, तारण तेरो नाम।
सदा ध्यान तेरा करूं, विपुल कोटि प्रणाम।।
रिद्धि सिद्धि संग में तेरे, सदा विराजे श्री धाम।
पंच देव हिरदय बसें, सदा करूं मैं ध्यान।।
प्रभु आये घर मेरे, मत जाना अब छोड़।
निराकार तुझ रूप है, रूप सकार निचोड़।।
ग्यारह पुष्प शब्द लिखे, तुम्हें समरपित आज।
विपुल अश्रु चरनन तेरे, रखियो अपनी लाज।।
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