जी यह विभिन्न रूप में शक्तियां के प्रकार है जो सृष्टि को चलाते हैं!
इनके नामों का क्रम विभिन्न पुराणों में अलग भी हो सकता है और कहीं कहीं नाम भी।
12 आदित्य यानि वह जो निर्माण करतीं हैं। आदित्य यानि इस नक्षत्र मंडल का सूर्य जो जीवन दाता है अत: आदित्य कहते हैं पर यह वाला सूर्य मात्र एक उदाहरण है और जो मात्र इस नक्षत्र नंडल से ही सम्बंधित है। मनुष्य को समझाने के लिये मात्र शब्द जो यह बताये कि वह शक्तियां जो इस सृष्टि का निर्माण करें।
इन्द्र: यह प्रथम रूप आदित्य है। यह देवाधिपति इन्द्र को दर्शाता है। देवों के राज के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम हैं इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। विकार रूपी शत्रुओं का दमन और सत्वगुणों की रक्षा का भार इन्हीं पर है। वहीं रजो और तमोगुण द्वारा मनुष्य की बुद्धि हर लेना।
धाता : दूसरे आदित्य हैं जिन्हें श्री विग्रह के रूप में जाना जाता है। यह प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है, सामाजिक नियमों का पालन ध्यान इनका कर्तव्य रहता है। इन्हें सृष्टि कर्ता भी कहा जाता है। इनका काम सृष्टि का शासन और निर्माण है।
पर्जन्य: तीसरे आदित्य का नाम पर्जन्य है। यह मेघ शक्ति जो ह्मारे बाहर और भीतर होती है। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बाहर बरसता है। उसी भांति हमारे भीतर अश्रु।
त्वष्टा: आदित्यों में चौथा नाम श्री त्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में हैं पेड़ पोधों में यही व्याप्त हैं औषधियों में निवास करने वाले हैं। अपने तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है। मतलब सृष्टि की वनस्पतियों का निर्माण।
पूषा: पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में यह विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं उर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है। यानि हमारे अन्नमय होष में भोजन पचकर जो रस निकलता है जो हमें ऊर्जा देता है और संग्रहित करता है। वह रस की शक्ति।
अर्यमा: आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। यह वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करती हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। यानि प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
भग: सातवें आदित्य हैं भग, प्राणियों की देह में अंग रूप में विध्यमान हैं। यह शरीर में चेतना, उर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करनेवाली शक्ति है।
विवस्वान: आठवें आदित्य हैं विवस्वान हैं। यह अग्नि देव हैं यानि सृष्टि को चलाने हेतु ऊर्जा। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी के द्वारा होता है।
विष्णु: नवें आदित्य हैं विष्णु, दुर्गुणों का संहार करते हैं मानव शरीर में वहीं पृकति में बुरी शक्तियों का विनाश कर बचाते हैं। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं।
अंशुमान: वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वहीं दसवें आदित्य अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है। जल का महत्व तो आप जानते हैं हमारे अंदर और बाहर।
वरूण: जल तत्व का प्रतीक हैं वरूण देव। जल का महत्व तो आप जानते हैं।
मित्र: बारहवें आदित्य हैं मित्र. विश्व के कल्याण हेतु तत्पर।
11 रुद्र यानि रौद्र यानि विनाश हेतु शक्तियां। बिना विनाश सृष्टि नहीं चल सकती पर यह निर्माण से एक कम हैं। क्योकिं विनाश का काम निर्माण से कुछ कम होगा तब ही सृष्टि चल पायेगी।
यद्यपि वेदों में रुद्र को मात्र एक ही बताया है और शिव रूप बताया है पर यहां वैज्ञानिक रूप में समझाने हेतु विनाशक शक्तियों का पुंज जो कल्याणकारी ही होता है। इसको आप इको साइकिल से समझ सकते हैं। यहां आप यह समझे एक चक्र को इंद्र शक्ति निर्मित कर रही है। और रुद्र नष्ट।
एकादश रुद्र का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में मिलता है। तत्पश्चात् अनेक पुराणों में एकादश रुद्र के नाम मिलते हैं, परन्तु सर्वत्र एकरूपता नहीं है। अनेक नामों में भिन्नता मिलती है। बहुस्वीकृत नाम इस प्रकार हैं।
1. हर-रुद्र : वह जो किसी सृष्टि को विनाश कर सकता है।
2. बहुरूप: वह कोई भी रूप धरकर प्रकट होकर विनाश करता है।
3. महामृत्युंजय मंत्र जो यजुर्वेद में है वहां यह शब्द है जिसका अर्थ तीन नेत्रवाले यानि साकार से चला जाता है। निराकार अर्थ तीनो काल मतलब जन्म पोषण और मृत्यु के आयामों का दृष्टा जो देखता है और विनाश करता है।
4. अपराजित-रुद्र् : विनाश को कोई नहीं रोक सकता यह शाश्वत है।
5. वृषाकपि : जो वृष के समान कल्याणकारी कपि के समान बलशाली। ब्रह्म पुराण के अनुसार भगवान शिव और श्री हरि विष्णु दोनों ने एक ही शरीर में अंशावतार लिया था, जिसका नाम वृषाकपि था और उस दिव्यपुरुष ने पाताललोक मे जाकर दैत्यराज महाशनि का वध किया जो वृषाकपि के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मतलब यह शक्ति निर्माण और विनाश दोनों करती है।
6. शम्भु : ‘शम्भू’, यह शब्द अपभ्रंश है। इसका मूल शब्द है ‘स्वयंभू’। स्वयंभू शब्द का अर्थ है ‘जो स्वयं उत्पन्न हुआ हो’। अर्थात् जो स्वयं उत्पन्न हुआ या प्रकट हुआ हो। तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या । ऋग्वेद १०/८२/३। नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च । यजुर्वेद १६/४१ । सभी संज्ञा-विशेषणों का अर्थ कल्याणकर है । यही शिव शम्भु का स्वरूप है । ‘शम्भु’ शम्भव का ही तद्भव रूप मानना योग्य प्रतीत होता है । आमतौर पर यह शब्द भगवान् शिव के लिए प्रयुक्त होता है।
7. कपर्दी: सामान्य भाषा में कपर्दी उसे कहा जाता है जिसके सिर पर बालों की जटाएं हों। कपर्दी का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि जो कपः, कम्पन दे। जब हम कोई स्वादिष्ट भोजन करते हैं तो हमारी देह के कोशों में कहीं कम्पन उत्पन्न होता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इससे हमारे शरीर में बहुत से हारमोन स्रवित होते हैं। भोजन से प्राप्त स्वाद से उत्पन्न होने वाला कम्पन क्षणिक होता है। ऋग्वेद की ६ ऋचाओं में कपर्दी अथवा कपर्द शब्द प्रकट हुआ है।
8. रैवत: पृथ्वी पर के जल से निकली हुई वह भाप जो घनी होकर आकाश में फैल जाती है और जिससे पानी बरसता है। यह भी विनाश करता है यदा कदा। यानि बाढ।
9. मृगव्याध : वेशभूषा का नाम और अर्जुन के साथ युद्ध में यह रूप धारण किया।
10. शर्व: शर्व नाम का मतलब देवी दुर्गा, देवी पार्वती होता है। मतलब वह शक्ति जो मनुष्य / सृष्टि को स्वयं का विनाश करने को प्रेरित करती है। कहीं कहीं शर्भ लिखा है। यह वह अवतार विनाश शक्ति जो नृसिंह अवतार को शांत करने हेतु प्रकट हुई थी। इसने नृसिंह को हराकर उनका क्रोध शांत किया था।
11. कपाली: शमशान विहारिणी शक्ति
मतलब आप आज के समय में यह समझे विनाशक शक्ति कोरोना का अवतार या रूप बनाकर आपको मारने का प्रयास कर रही है। ऐसे तमाम नाम से विभिन्न रोगाणु आपका विनाश करने को तैयार रहते हैं। विज्ञान के अनुसार इस समय सृष्टि संतुलन हेतु आवश्यक 24 चक्रों में मात्र 10 ही शुद्ध है 14 प्रदूषित होकर खंडित हो चुके हैं।
आठ वासुदेव: अष्टांग का शाब्दिक अर्थ है - अष्ट अंग या आठ अंग। भारतीय संस्कृति में यह कई सन्दर्भों में आता है-
योग की क्रिया के आठ भेद — यम, नियम, आसन प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
आयुर्वेद के आठ विभाग - शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतंत्र, रसायनतंत्र और वाजीकरण।शरीर के आठ अंग — जानु, पद, हाथ, उर, शिर, वचन, दृष्टि, बुद्धि, जिनसे प्रणाम करने का विधान है। आठ अंगों का उपयोग करते हुए प्रणाम करने को साष्टांग दण्डवत कहते हैं।
अर्घविशेष जो सूर्य को दिया जाता है। इसमें जल, क्षीर, कुशाग्र, घी, मधु, दही, रक्त चंदन और करवीर होते हैं।
आत्म उद्धार अथवा आत्मसमर्पण की रीतियों के अन्दर "अष्टांग प्रणिपात" भी एक है; जिसका अर्थ है - (१) आठों अंगों से पेट के बल गुरु या देवता के प्रसन्नार्थ सामने लेट जाना (अष्टंग दण्डवत), (२) इसी रूप में पुन: लेटते हुये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। इसके अनुसार किसी पवित्र वस्तु की परिक्रमा करना या दण्डवत प्रणाम करना भी माना जाता है। अष्टांग परिक्रमा बहुत पुण्यदायिनी मानी जाती है। साधारण जन इसको दंडौती देना कहते है। इसका विवरण इस प्रकार से है:-"उरसा शिरसा दृष्टया मनसा वचसा तथा, पदभ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्च्यते" (छाती मस्तक नेत्र मन वचन पैर जंघा और हाथ इन आठ अंगो के झुकाने से अष्टांग प्रणाम कियी जाता है।
वहीं कृष्ण के पिता वासुदेव: मतलब देखें। कृष्ण के जीवन में आठ अंक का अजब संयोग है। उनका जन्म आठवें मनु के काल में अष्टमी के दिन वासुदेव के आठवें पुत्र के रूप में जन्म हुआ था। उनकी आठ सखियां, आठ पत्नियां, आठ मित्र और आठ शत्रु थे। इस तरह उनके जीवन में आठ अंक का बहुत संयोग है।
वहीं आपके आठ अंगों की शक्तियां यहां कही जा सकतीं है आठ वासुदेव।
दो अश्वनी कुमार: अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्विनी कुमार रखा गया। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है।
इनका संबंध रात्रि और दिवस के संधिकाल से ऋग्वेद ने किया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में की गई है। वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं।
उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और इसी कारण उनको सूर्य पुत्र मान लिया गया। निरुक्तकार इन्हें 'स्वर्ग और पृथ्वी' और 'दिन और रात' के प्रतीक कहते हैं। चिकित्सक होने के कारण इन्हें देवताओं का यज्ञ भाग प्राप्त न था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।
दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर रख दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी।
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