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Saturday, October 17, 2020
क्या तैयारी करें दूसरे दिन की। मां ब्रह्मचारिणी।
आशा है आप सब ने आज सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि को मां शैलपुत्री के मंत्र के साथ संपन्न किया होगा और दिन भर मां शैलपुत्री का मंत्र पढ़कर शाम को आरती और हवन किया होगा।
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यज्ञ हेतु अग्नि का गूढ़ मंत्र जो आपको कोई नहीं बताएगा।
यज्ञ हेतु अग्नि का गूढ़ मंत्र जो आपको कोई नहीं बताएगा।
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
मित्रों सनातन में हवन या यज्ञ की बहुत महिमा है लेकिन कभी-कभी हवन या यज्ञ ऐसा बिगड़ जाता है की अग्नि प्रज्वलित नहीं होती है और अगर होती है तो भयंकर धुआं पैदा होता है लपटें पैदा नहीं होती है जिसके कारण मन में शंका बन जाती है कि हमारा हवन सही नहीं हुआ।
इस कारण मैं आपको एक मंत्र अग्निमंत्र बता रहा हूं जिसको आप अग्नि प्रज्वलित करने के पहले और अग्नि प्रज्वलित करते समय जाप कर ले और फिर अग्नि प्रज्वलित करें।
आप देखेंगे आपकी अग्नि की ज्वालाएं हैं वह इतनी सुंदर निकलेंगी कि आपका दिल प्रसन्न हो जाएगा और आप का यज्ञ सफल हो जाएगा।
इस मंत्र पर मैंने प्रयोग किए हैं और सफल हुए हैं आप लोग भी अपना फीडबैक देने का कष्ट करें।
ओम रं वहिर्चैतन्याय नमः।
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जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या)
जय गुरुदेव जय महाकाली।
Friday, October 16, 2020
बुद्ध का अष्टांगिक सनातन दर्शन
बुद्ध अष्टांगिक मार्ग बनाम पातांजलि अष्टांग योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
महात्मा बुद्ध को लोग चारवाक की श्रेणी में रखते हैं लेकिन यदि आप महात्मा बुद्ध का साहित्य पढ़ते हैं तो आप देखेंगे महात्मा बुद्ध ने जो कुछ भी कहा है वह सनातन से ही प्रेरित है। सनातन का आधार वेद है वेद से षड्दर्शन निकले हैं षड्दर्शन में एक है योग शास्त्र जिसको की पतंजलि महाराज ने लिखा था और उसमें है एक अष्टांग योग बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग भगवत गीता के द्वारा और पतंजलि के अष्टांग योग के द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है और इसकी व्याख्या की जा सकती है।
दुखद पहलू यह रहा महात्मा बुद्ध के साहित्य पर लिखने वाले अनुभवहीन योग किताबी ज्ञान वाले लोग पूर्वाग्रहित होकर लिखते हैं और उनकी अंदर की बात को ऊपरी सतह से समझते हैं।इस लेख में यही प्रयास किया गया है की बुद्ध भी सनातन से प्रेरित है सनातन से अलग नहीं।
पहले आप प्रयुक्त होनेवाले शब्द “सम्यक” के हिंदी अर्थ देखें। पुल्लिंग में अर्थ होते है समुदाय, समूह। विशेषण में अर्थ होते है पूरा, सब, समस्त। उचित, उपयुक्त। मनोनुकूल। क्रिया विशेषण में अर्थ होते है पूरी तरह से। अच्छी तरह, भली–भाँति। मतलब साफ है किसी भी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना। और कहूं तो न लेना न देना मगन रहना। यह अर्थ हैं सम्यक के।
अब महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं – 1. दुख, दुख की उत्पत्ति, 2. दुख से मुक्ति और 3. मुक्तिगामी 4. आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
अब आर्य क्यों?? पहले आर्य का अर्थ जानें: विशेषण में उत्तम, श्रेष्ठ। पूज्य, मान्य। कुलीन। उपयुक्त, योग्य। और पुल्लिंग में प्रतिष्ठित व्यक्ति। धर्म एवं नियमों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति। आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। आर्य शब्द का अन्य अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, में पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है, देवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्य, विशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों - बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहा। सामाजिक अर्थ में "आर्य' का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था।
अर्थात इसका अर्थ हुआ सनातन सत्य है। जिस प्रकार सनातन सत्य है उसी प्रकार जीवन में चार अटल सत्य हैं। अत: प्रयोग हुआ आर्य सत्य।
अब आप यह देखें बुद्ध ने यह कब बताया जब उन्होने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पहले वे भी एक साधारण मानव थे जिन्होने जीवन की तीन दुखद घटनाओं को देखकर दुख से निवारण की सोंची। उनके ज्ञान प्राप्त करने का मूल कारण था उनका दुखी मन। अवचेतन में दुख की अनूभूति साथ थी। अत: उनके ज्ञान का आरम्भ दुख से हुआ। मतलब जो बीज वही ज्ञान का बृक्ष बना। उससे अधिक दुखद यह है कि उनकी व्याख्या स्वार्थी और बिन अनुभव के लोग शब्दों में कर के अर्थ के अनर्थ लगाकर दुकान चला रहें हैं।
जैसे आधा गिलास पानी को बोलना कि आधा गिलास भरा है। यह सकारात्मक। आधा गिलास खाली है यह नकारात्मक। बुद्ध ने कहा जीवन दु:ख है। दु:ख दूर करो तो सुख। नकारात्मक सोंच को बताता है। वहीं सनातन कहता है मनुष्य का मूल स्वभाव आनंद है। उसको प्राप्त करो। यानि सकारात्मक सोंच। बात एक पर शब्दों का फेर जो आम आदमी न समझ कर अपने जीवन में नकारात्मक होकर कार्य करता है। वास्तव में चार आर्य सत्य चार अवस्थायें अवधियां हैं। जैसे जीवन में दुख ही दुख है। दुख का कारण या उत्पत्ति क्या है। दुख से मुक्ति कैसे हो। दुख से मुक्ति का मार्ग क्या है? कैसे हो मुक्तगामी। साथ ही दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
अब आप देखें कि गीता में कहा गया है कि समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ योगी के लक्षण हैं। बुद्ध ने जो हम देखते हैं, जो संकल्प करते हैं, या सोंचते हैं जो बोलते हैं, जो कर्म करते हैं, जो नौकरी या आजीविका हेतु कर्म करते हैं, जो कसरत या व्यायाम करते हैं, जो पुरानी बातों को सोंचते है मतलब किसी को पुरानी बातों को बताते है बिना नमक मिर्च लगाये और जो स्वत: हो जाये वह समाधि मतलब जबरिया नहीं। यानि हमारे शरीर का जो भी सम्बंध है उसमें मिलावट नहीं। जो है वैसा ही स्वीकार करना। यह जगत से सम्यक लेन देन हुआ। इनके प्रत्येक शब्द की व्याख्या आप खुद सोंच सकते हैं पर याद रहे ये वाक्य बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद के स्तर पर जाकर कहे। आम मानव इस अवस्था पर पहुंच कर ही यह स्थिति प्राप्त कर सकता है। मात्र रटने या तर्क कुतर्क करने से काम न चलेगा।
अब आप अष्टांग योग देखें जो पातांजलि महाराज ने कहा। 1. यम यानि क्या करें। (क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। (ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। (ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। (घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना। सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम यानि क्या न करें या न करें। पाँच व्यक्तिगत नैतिकता: (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा 4. आसन: आसन योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 5. प्रणायाम: प्राणायाम श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण 3. प्रत्याहार यानि त्याग की आदत। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। 6. धारणा: धारणा एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना। 7. ध्यान: ध्यान निरंतर ध्यान 8. समाधि: समाधि आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!
बुद्ध ने जो कहा उसका स्तर आता है पातांजलि महाराज के अष्टांग योग को प्राप्त करने के बाद मनुष्य में जो परिवर्तन आता है वह है सम्यक। पतांनजलि महाराज सम्यक यानि “चित्त में वृत्ति का निरोध है योग” यानि योग का लक्षन यानि सम्यक होना। वही बुद्ध का सम्यक साधारण मानव नही प्राप्त कर सकता। पर अष्टांग योग एक साधारण मानव को योगी बनाने की प्रक्रिया बताता है। वहीं गीता ने जो कहा वह भी योगी के गुण में सम्यक की अवस्था है। जैसे समत्व यानि जो सबको बराबर देखता हो। यानि जैसे के तैसा पर समानता के साथ। जिसकी बुद्धि स्थिर बुद्धि यानि सुख दुख से अविचलित यानि सम्यक जो है सो है। मेरे लिये सब बराबर। न कोई मित्र न शत्रु न निकट न दूर। स्थित प्रज्ञ यानि जिसकी बुद्धि व्यहार मुझमें आत्म स्वरूप में स्थित मतलब सर्व समाधि की अवस्था। मतलब सबने आगे पीछे एक ही बात कहीं। आत्माराम होना, उसके लक्षण और उसके गुण।
अंतर कुछ नहीं बुद्ध कहते हैं, चार आर्य सत्य हैं- दुख है, दुख की उत्पत्ति है, दुख से मुक्ति है और मुक्तिगामी आर्य-आष्टांगिक मार्ग हैं। ये आठ अंग हैं उस दुख-मुक्ति के लिए। बुद्ध ने आर्य-आष्टांगिक मार्ग कहा है, उस संबंध में थोड़ी-सी बात समझ लेनी चाहिए।
पहला सूत्र है आठ अंगों में- सम्यक दृष्टि। जो है, वही देखना। जैसा है, वैसा ही देखना। अन्यथा न करना। कोई धारणा बीच में न लाना। कामना, वासना, धारणा को बीच में न लाना। जो है, वैसा ही देखना। चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना (हिंसा और मांसाहार मे अंतर है), चोरी नहीं करना, व्यभिचार( पर-स्त्रीगमन) नहीं करना, ये शारीरिक सदाचरण हैं। झूठ नहीं बोलना, चुगली नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना, बकवास नहीं करना, ये वाणी के सदाचरण हैं। लालच नहीं करना, द्वेष नहीं करना, सम्यक दृष्टि रखना ये मन के सदाचरण है। धम्म आचरण का विषय है, आचरण करोगे तभी फल मिलेगा, और तुरंत फल मिलेगा और इसके लिए ईश्वर मानने या ना मानने के लिए आप स्वतंत्र है, कोई पाबंदी नहीं है, आँख, कान, नाक, मुख, त्वचा(पाँच इंद्रियाँ) के आनंद से बड़ा सुख है मन(छठी इंद्री) का सुख ये जानना और निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) को परम सुख जानना, धम्म के लिए परा-प्राकृतिक बातों की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा जानना, दुनिया मे सब कुछ प्रतित्य-समुत्पाद (कार्य-कारण का सिद्धान्त) से हो रहा है, ये जानना।
दूसरा है- सम्यक संकल्प। जिसमें आता है, चित्त से राग-द्वेष नहीं करना, ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है, करुणा, मैत्री, मुदिता, समता रखना, दुराचरण(सदाचरण के विपरीत कार्य) ना करने का संकल्प लेना, सदाचरण करने का संकल्प लेना, धम्म पर चलने का संकल्प लेना।हठ मत करना। अक्सर लोग हठ को संकल्प मान लेते हैं और हठी आदमी को कहते हैं, यह संकल्पवान है। जिद तो अहंकार है। संकल्प में कोई अहंकार नहीं होता। हठ और संकल्प में यही फर्क है। बुद्ध कहते हैं, सम्यक संकल्प का अर्थ होता है, जो करने योग्य है, वह करना। और जो करने योग्य है, उस पर पूरा जीवन दांव पर लगा देना है।
तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता है, सत्य बोलने का अभ्यास करना, मधुर बोलने का अभ्यास करना, टूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करना, धम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो है, वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं, क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।
चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता है, प्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करना, चोरी ना करना, पर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा को, यदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करना, जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता है, वही करना है, जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना है, वही करना।
तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता है, सत्य बोलने का अभ्यास करना, मधुर बोलने का अभ्यास करना, टूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करना, धम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो है, वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं, क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।
चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता है, प्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करना, चोरी ना करना, पर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा को, यदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करना, जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता है, वही करना है, जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना है, वही करना।
पांचवां है- सम्यक आजीविका में आता है, मेहनत से आजीविका अर्जन करना, पाँच प्रकार के व्यापार नहीं करना, जिनमे आते हैं, शस्त्रों का व्यापार, जानवरों का व्यापार, मांस का व्यापार, मद्य का व्यापार, विष का व्यापार, इनके व्यापार से आप दूसरों की हानि का कारण बनते हो।बुद्ध कहते हैं, हर किसी चीज को आजीविका मत बना लेना। अब कोई आदमी कसाई बन कर अपनी रोटी कमा रहा है। यह भी कोई कमाना हुआ! रोटी ही कमानी थी, हजार ढंग से कमा सकते थे, कसाई होने की क्या जरूरत थी? रोटी तो कमानी ही है, यह बात सच है, लेकिन सम्यक खोजना। अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो तो तुम्हारे जीवन में शांति होगी।
छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता है, आष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करना, शुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखना, पापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचना, उन वितर्कों को मन मे जगह ना देना, उन वितर्कों को संस्कार स्वरूप मानना, गलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करना, दबाना, संताप करना। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओ, तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।
छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता है, आष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करना, शुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखना, पापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचना, उन वितर्कों को मन मे जगह ना देना, उन वितर्कों को संस्कार स्वरूप मानना, गलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करना, दबाना, संताप करना। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओ, तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।
सातवां- सम्यक् स्मृति में आता है, कायानुपस्सना, वेदनानुपस्सना, चित्तानुपस्सना, धम्मानुपस्सना, ये सब मिलकर विपस्सना साधना कहलाता है, जिसका अर्थ है, स्वयं को ठीक प्रकार से देखना। ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है। किसी भी मनुष्य को, जिसे स्वयं को जानने की इच्छा हो, को विपस्सना जरूर करनी चाहिए, इसी से दुख-निवारण के पथ की शुरुआत होगी। व्यर्थ को भूलना और सार्थक को सम्हालना। तुम अक्सर उल्टा करते हो। सार्थक तो भूल जाते हो, व्यर्थ को याद रखते हो। जीवन में जो भी बहुमूल्य है, उसको तो बिसार देते हो। सबसे ज्यादा बहुमूल्य तो तुम्हारी चेतना है, उसको तो तुम बिल्कुल बिसार कर बैठ गए हो और ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो और उनका हिसाब लगा रहे हो। इसको बुद्ध ने कहा, सम्यक् स्मृति। बुद्ध के स्मृति शब्द से ही संतों का सुरति शब्द आया। सुरति स्मृति का ही अपभ्रंश है। जिसे कबीर सुरति कहते हैं, वह बुद्ध की स्मृति ही है। उसे थोड़ा मीठा कर लिया- सुरति, अपनी याद, अपनी पहचान।
आठवां है- सम्यक समाधि में आता है, अनुत्पन्न पाप धर्मो को ना उत्पन्न होने देना, उत्पन्न पाप धर्मो के विनाश मे रुचि लेना, अनुत्पन्न कुशल धर्मो के उत्पत्ति मे रुचि, उत्पन्न कुशल धर्मो के वृद्धि मे रुचि। इन सबको शब्दशः पालन करने से जीवन सुखमय होगा, निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) की प्राप्ति होगी।
नशीली चीजों से हमेशा दूर रहें क्योंकि ये दुराचार(बुराई) की जननी है, इससे मन का भटकाव होता है, मन को जो भी दिमाग मे आता है, वो ही अच्छा लगता है, सही और गलत की पहचान खत्म हो जाती है।
बुद्ध समाधि में भी कहते हैं सम्यक ख्याल रखना। क्यों? क्योंकि ऐसी भी समाधियां हैं, जो सम्यक नहीं हैं। जड़ समाधि। एक आदमी मूर्छित पड़ जाता है, इसको बुद्ध सम्यक समाधि नहीं कहते। ऐसा आदमी गहरी निद्रा में पड़ गया, बेहोशी। मन के तो पार चला गया है, लेकिन ऊपर नहीं गया, नीचे चला गया। मन तो बंद हो गया, क्योंकि गहरी मूच्र्छा में मन तो बंद हो जाएगा, लेकिन यह बंद होना कुछ काम का न हुआ। मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। मन तो चुप हो जाए, विचार तो बंद हो जाएं, लेकिन बोध न खो जाए। तीन स्थितियां हैं मन की। स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति। स्वप्न तो बंद होना चाहिए- चाहे सम्यक समाधि हो, चाहे असम्यक समाधि हो, स्वप्न तो दोनों में बंद हो जाएगा। विचार की तरंगें बंद हो जाएंगी। लेकिन जड़ समाधि में आदमी गहरी मूच्र्छा में पड़ गया, सुषुप्ति में डूब गया, उसे होश ही नहीं है। जब वापस लौटेगा तो निश्चित ही शांत लौटेगा, बड़ा प्रसन्न लौटेगा, क्योंकि इतना विश्राम मिल गया। लेकिन यह कोई बात न हुई! यह तो नींद का ही प्रयोग हुआ। यह तो योगतंद्रा हुई। असली बात तो तब घटेगी, जब तुम भीतर जाओ और होशपूर्वक जाओ। तब तुम प्रसन्न भी लौटोगे, आनंदित भी लौटोगे और प्रज्ञावान होकर भी लौटोगे। तुम बाहर आओगे, तुम्हारी ज्योति और होगी। तुम्हारी प्रभा और होगी। दो तरह की समाधियां हैं। जड़ समाधि, आदमी गांजा पीकर जड़ समाधि में चला जाता है, अफीम खाकर जड़ समाधि में चला जाता है।
बुद्ध ने उनका बड़ा विरोध किया। बुद्ध ने कहा, यह भी कोई बात है! माना कि सुख मिलता है, इसमें कोई शक नहीं है। गांजे का दम लगा लिया तो डूब गए, एक तरह का सुख मिलता है। मगर यह डुबकी नींद की है। यह कुछ मनुष्य योग्य हुआ! ऊपर उठो, जागते हुए भीतर जाओ। मशाल लेकर भीतर जाओ, ताकि सब रास्ता भी उजाला हो जाए और तुम्हें पता भी हो जाए, तो जब जाना हो, तब चले जाओ। और तुम फिर किसी चीज पर निर्भर भी न रहोगे। असली बात है, जाग्रत होकर आनंद को उपलब्ध हो जाना। उसको उन्होंने सम्यक समाधि कहा।
यह हैं आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प को ‘प्रज्ञा’ कहा गया है।
सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम को ‘शील’ कहा गया है।
सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि को ‘समाधि’ कहा गया है।
इस प्रकार प्रज्ञा, शील समाधि मे आष्टांगिक मार्ग शामिल हो जाता है।
अंतिम अवस्था है निर्वाण जिसका सुख बड़ा है और ये सबको प्राप्त हो सकता है, इसके लिए गृह-त्याग की आवश्यकता नहीं है। बस माध्यम मार्ग के पालन की आवश्यकता है। बहुत लोगों को गलतफहमी है की बुद्ध का धम्म भिक्षुओं का धम्म है। पर ऐसा नहीं है, बुद्ध का धम्म भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासक और उपासिकाओ से पूर्ण होता है।
अब आप स्वयं ही सोंचे कि अष्टांग मार्ग और अष्टांग योग एक ही सिक्के के दो पहलू है कुछ इस तरह:
आठ अंग तब योग घटित (अष्टांग योग) ---à अष्टांग मार्ग (सम्यक अवस्था) ----à चित्त में वृत्ति का निरोध यानि निष्काम कर्म -------à समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ।
जब योग घटित तो निम्न अनुभव (ध्यान दें अनुभव किताबी कीडी ज्ञान नहीं) जो वेदांत महावाक्य समझाते हैं।
1. अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" (बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
2. तत्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
3. अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
4. प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
5. सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
कुल मिलाकर आप पायेगें हर ज्ञानी वेदांत और सनातन की ही व्याख्या करता है। अत: मै6 उनको मूर्ख ही कहूंगा जो कहते हैं कि बुद्ध सनातन विरोधी थे।
महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें।
"योग की व्याख्यायें"
https://freedhyan.blogspot.com/2018/10/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html
महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें।
"योग की व्याख्यायें"
https://freedhyan.blogspot.com/2018/10/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html
दश विद्या के वैज्ञानिक अर्थ और व्याख्या
दश विद्या के वैज्ञानिक अर्थ और व्याख्या
व्याख्याकार सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
वास्तव में हम जितना अधिक विज्ञान में खोज करते जायेंगे हम उतना अधिक सनातन को समझ पायेंगे और यह सोंचने पर विवश हो जायेंगे कि आज का विज्ञान कितना बौना है जो सनातन के रहस्यों पर प्रकाश नहीं डाल पाता और बिना जाने निंदा करता है। सनातन की ऊंचाई गहन अध्ययन चिंतन और ईश कृपा के बिना नहीं पाई जा सकती है। वास्तव में सनातन में सृष्टि में होनेवाले सभी अविष्कारों को गूढ रूप में समझाया गया है। जो हम समझ नहीं सकते और पूर्वाग्रह के कारण सिर्फ बकवास ही करते हैं। इसमें सुपर भौतिकी मेटा भौतिकी सहित विज्ञान के हर आयाम को बताया गया है।
चूंकि इस जन्म में मैं इंजीनियरिंग में पोस्ट ग्रेजुएट के साथ परमाणु वैज्ञानिक और 38 साल का अनुभवी हूं अत: मैं कह सकता हूं कि वैज्ञानिक कौम सबसे बडी मूर्ख और पूर्वाग्रहित कौम है जो किसी उपकरण की सूचना को सही मानेगा पर जिसने उपकरण बनाया उस पर यकीन नहीं करेगा। साथ ही किसी घटना के घटने के लिये 50 साल प्रतीक्षा करेगा पर उसको बोलो मुझे मात्र कुछ दिन कुछ समय दो। तुमको पराशक्ति के सनातन अनुभव होंगे तो वह कन्नी काटेगा।
मैं समझता हूं सनातन के ऊपर शोध हेतु कोई शिक्षा प्रणाली और संस्थान होनें चाहिये।
प्रयोग करें एक टंकी के अंदर पानी भर दे गुब्बारों के अंदर पानी भरकर टंकी में छोड़ दें आप देखेंगे गुब्बारे के अंदर भी पानी है गुब्बारे के, बाहर भी पानी है। लेकिन उन दोनों पानी का कोई आपस में जोड़ नहीं मेल नहीं। बस यही अंतर है 10 विद्या में और नवरात्रि में।
साकार ब्रह्म की मूर्ती के अंदर भी जल है बाहर भी है। वैसे ब्रह्म सर्वव्यापी है निराकार रूप में लेकिन साकार रूप में भी वह मौजूद है यानी गुब्बारों के आकार के अंदर भी वही है और बाहर भी वही है। बीच में इस शरीर का बंधन है।
वह गुब्बारा कौन है हम हैं जो साकार है वह जो पदार्थ है जो हमें दिखते हैं जिसको कि भगवान श्री कृष्ण ने भागवत में कहा की विज्ञान वह है जिसमें मनुष्य हमारे साकार सगुण रूप के विषय में शोध करता है और उस विषय में चिंतन करता रहता है जानने का प्रयास करता रहता है। ज्ञान क्या है जो निराकार सगुण स्वरूप को जानता है जानने का प्रयास करता है वह ज्ञानी है और वह ज्ञान है।
10 विद्या जो गुब्बारों के बाहर व्याप्त है यानी जो हमारे शरीर के बाहर ऊर्जा है जो रूप है वह विद्याएं हैं क्योंकि विद्या के द्वारा हम बाहर कुछ करते हैं। इस पर भी अलग लेख लिखूंगा।
मैं यह कहना चाहूंगा पहले 10 विद्या का प्रादुर्भाव हुआ फिर दुर्गा का प्रादुर्भाव हुआ और जिसने की नव दुर्गा के रूप धरे। इसी के साथ गायत्री का प्रादुर्भाव हुआ।
यानी पहले वाहिक जो 10 विद्या थी उर्न्होने सृष्टि उत्पन्न की और फिर उस सृष्टि ने मनुष्य की उत्पत्ति की और फिर नवदुर्गा उत्पन्न हुई। फिर मनुष्य को ज्ञान हेतु वेदों को उत्पन्न करने हेतु मां गायत्री का रूप।
अब मैं योग की एक नई परिभाषा देता हूं। “ जब तुम्हारे अंदर की दुर्गा का काली से मिलन होगा तब योग होगा”।
मेरे ब्लाग का पहला लेख जो “वैज्ञानिक” पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उसको पढें और कुछ समझें कि मां काली क्या है।
ब्रह्मांड की उत्पत्ति
कुछ यूं समझना चाहिए इस सबसे पहले सिर्फ निराकार ऊर्जा फिर उस निराकार ऊर्जा में ध्वनि से सृष्टि का निर्माण और उस उर्जा में जब हल-चल आरंभ हुई वह बनी काली। E = MC 2 के अनुसार सृष्टि का निर्माण आरम्भ हुआ।
फिर जब और आगे बढ़े तो जैसे धरा और आकाश होता है आकाश नीले रंग का माना जाता है उसने निर्माण किया तारा का वह एक शक्ति बनी फिर वह शक्ति ज्योति उसने पूरे विश्व को व्याप्त किया तो वही त्रिपुर सुंदरी जो महा माया बनी। फिर यही शक्ति ने फिर पूरे विश्व को व्याप्त कर उसकी मालकिन बन गई और कहलाई भुवनेश्वरी लेकिन भुवनेश्वरी के साथ में कोई नहीं तो क्या करेंगे तो उसके लिए फिर बनी छिन्नमस्ता यानी भुवनेश्वरी ने ही अपने अंगों को काटकर एक तरीके से ऊर्जा को अलग कर विभिन्न सृष्टि के निर्माण की ओर एक कदम बढ़ाया लेकिन पालन पोषण हेतु बनी छिन्नमस्ता मतलब पूरी सृष्टि को इसी के द्वारा संचालित होना है यही पालनकर्ता का काली रू है। इसके पश्चात आई त्रिपुर भैरवी त्रिपुर भैरवी भैरवी यानी वहां पर कुछ नहीं तो एक यह भावना की यहां और कुछ नहीं है यदि कोई अकेला होता है तो उसे भय लगता ही है इसीलिए इसे भैरवी भी कहा गया इसके बाद आई धूमावती क्योंकि अभी भी सृष्टि निर्माण आरंभ हुआ था के प्रलय आ गई क्योकि धूमावती सब नष्ट करती है। अत: विनाश प्रलय की देवी यानि शक्ति कहलाईं। चारों और धुंध ही था फिर आई बगलामुखी। बगलामुखी ने धूमावती के जो प्रलय के अंदाज़ को रोका और रोक करके वह बनी बगलामुखी और यह कथा में भी उनके हैं कि उन्होंने प्रलय को रोका था क्योंकि धूमावती एक तरह से पहले का प्रतीक अब इसके बाद जब सृष्टि की में विनाश होता है तो चारों और आपको इस तरह से गंदगी ही गंदगी दिखेगी चारों ओर सब चीज व्यस्त दिखेगी तो फिर निर्माण हुआ मातंगी। मातंगी यानी सफाई हेतु वह शक्ति जो कि मनुष्य को सफाई करती है मनुष्य के ह्रदय से गंदी बातें निकालती है और इसके बाद आई कमला। कमला यानी वैभव की देवी जो कि मनुष्य को रहने के लिए सारी सुविधाएं देती है इस तरीके से यह 10 विद्या का व्याख्यान हुआ।
सही बात तो यह है कि हमारा जो सनातन साहित्य है बहुत ही गूढ़ है और उसको लोगों ने केवल भौतिक रूप में देखा उसके अंदर जाने का प्रयास नहीं किया भौतिक रूप में उन शक्तियों की आराधना करें और सुख दुख प्राप्त किया अधिक से अधिक मोक्ष प्राप्त किया या स्वर्ग प्राप्त किया लेकिन वह शक्ति का नाम वह क्यों रखा गया उस शक्ति का काम क्या था इसके ऊपर किसी ने चिंतन नहीं किया इसलिए यह व्याख्यान किसी भी गूगल में नहीं दिया है किसी दवाब पुस्तकों में नहीं दिया है यहां तक कि कि संतों ने भी इस पर प्रकाश नहीं डाला है शायद पहुंचाना हो या समझ ना पाए हो।
अब यह स्पष्ट हो गया की काली ने इस ब्रह्मांड की सृष्टि का निर्माण आरंभ किया 10 विद्याओं के माध्यम से इसके पश्चात जब मनुष्य का निर्माण हुआ तब सभी देवों की शक्ति से दुर्गा का निर्माण होने के पश्चात उनके नौ रूप 9 चक्रों में स्थापित होकर मनुष्य के अंदर की शक्ति को संचालित करने लगी यानी 10 विद्या शरीर के बाहर की ऊर्जा की पूजा और नवरात्रि की पूजा यानी शरीर के अंदर की जो ऊर्जा है उसकी पूजा अब बात आती है गायत्री की जब मनुष्य का निर्माण हो गया तो उसका उद्देश्य क्या होना चाहिए क्योंकि वह तो ब्रह्म का ही अंश है नर नारायण बराबर तो इसके लिए एक शक्ति ने जन्म लिया जिसको हम कहते हैं गायत्री गायत्री यानी इसने अपने मुख से तीन वेदों को जन्म दिया बाद में यह वेद चार बने बहुत सी जगह लिखा है कि गायत्री ने चारों मुख से चार वेद बोले वह गलत है मैं उसे बिल्कुल सहमत नहीं हूं क्योंकि तमाम साहित्य में यही लिखा हुआ है कि पहले तीन ही वे थे इसलिए त्रयपथी बोलते हैं वेद पहले तीन ही वे थे फिर बाद में वह चार हो गए कहने का मतलब यह है कि जो शक्ति का निर्माण का करम है सबसे पहले काली विद्या उसके बाद मानव के निर्माण के साथ गायत्री का निर्माण और दुर्गा का निर्माण जो मनुष्य के अंदर की बात है और 10 विद्या मनुष्य के बाहर की बात है।
गायत्री का प्रादुर्भाव कब हुआ विष्णु के क्षीरसागर के रूप का क्या अर्थ है विज्ञान में इनको कैसे व्याख्या कर सकते हैं यह सब मेरे ध्यान में है।
एक बहुत आनंददायक बात अभी हुई वह योग के संबंध में यह परिभाषा आपको बहुत अद्भुत लगेगी और मेरी कई बातें तो गूगल में मिलेगी नहीं किताबों में मिलेगी नहीं आपको।
मैं योग को यू परिभाषित करना चाहता हूं कि जब तुम्हारी दुर्गा शक्ति का काली मां की शक्ति से मिलन होता है तब योग घटित होता है।
क्योंकि योग की अनुभूति में क्या है इस पर कहीं कोई साहित्य नहीं है लेकिन योग का अनुभव साकार भी हो सकता है निराकार भी हो सकता है यह तो मेरी अनुभूति में है ही।
यह परिभाषा साकार योग के लिए है।
कुछ प्रतीक्षा करें इन विषयों पर लेखों की। आप चाहें तो ब्लाग को सबक्राइब कर दे जिससे आपको जब कभी लेख डालूं तो सूचना मिलती रहे।
जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या)
जय गुरुदेव जय महाकाली।
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या)
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या में भेद
(पहलीबार व्याख्या)
व्याख्याकार सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
मित्रों कुछ दिन पूर्व मैनें 10 विद्या पर लेख लिखे थे तो 10 विद्या का कुछ अर्थ का प्रादुर्भाव हुआ था। इसके बाद मां दुर्गा के नव रूपं पर भी लेख लिखे थे। तब यह प्रश्न उठा। जिस पर मां सरस्वती और गुरूदेव की कृपा हुई और मैं वह कुछ खोज पाया जो आपको कहीं नहीं मिलेगा। बल्कि आपने सुना तक न होगा।
कुछ प्रतीक्षा करें इन विषयों पर लेखों की। आप चाहें तो ब्लाग को सबक्राइब कर दे जिससे आपको जब कभी लेख डालूं तो सूचना मिलती रहे।
वास्तव में हम जितना अधिक विज्ञान में खोज करते जायेंगे हम उतना अधिक सनातन को समझ पायेंगे और यह सोंचने पर विवश हो जायेंगे कि आज का विज्ञान कितना बौना है जो सनातन के रहस्यों पर प्रकाश नहीं डाल पाता और बिना जाने निंदा करता है। सनातन की ऊंचाई गहन अध्ययन चिंतन और ईश कृपा के बिना नहीं पाई जा सकती है। वास्तव में सनातन में सृष्टि में होनेवाले सभी अविष्कारों को गूढ रूप में समझाया गया है। जो हम समझ नहीं सकते और पूर्वाग्रह के कारण सिर्फ बकवास ही करते हैं। इसमें सुपर भौतिकी मेटा भौतिकी सहित विज्ञान के हर आयाम को बताया गया है।
चूंकि इस जन्म में मैं इंजीनियरिंग में पोस्ट ग्रेजुएट के साथ परमाणु वैज्ञानिक और 38 साल का अनुभवी हूं अत: मैं कह सकता हूं कि वैज्ञानिक कौम सबसे बडी मूर्ख और पूर्वाग्रहित कौम है जो किसी उपकरण की सूचना को सही मानेगा पर जिसने उपकरण बनाया उस पर यकीन नहीं करेगा। साथ ही किसी घटना के घटने के लिये 50 साल प्रतीक्षा करेगा पर उसको बोलो मुझे मात्र कुछ दिन कुछ समय दो। तुमको पराशक्ति के सनातन अनुभव होंगे तो वह कन्नी काटेगा।
मैं समझता हूं सनातन के ऊपर शोध हेतु कोई शिक्षा प्रणाली और संस्थान होनें चाहिये।
अभी नवरात्रि हेतु नवदुर्गा के नव रूपों पर लेख लिख रहा था तब नवरात्रि का अर्थ समझ में आया और अनायास ही मां सरस्वती की कृपा से अपने प्रथम गुरु मां काली की दया से व भौतिक गुरू की लीला से अचानक स्पष्ट हुआ नवरात्रि और 10 विद्या में यानी मां दुर्गा के नौ रूपों में और 10 विद्या के 10 रूपों में बहुत ही अंतर है।
इसको मैंने इंटरनेट पर गूगल गुरु की शरण में जाकर देखा वहां कुछ नहीं मिला न ही किसी किताब में कुछ मिला न ही किसी संत ने इस पर व्याख्या की। मैंने व्यक्तिगत रूप में उनको निवेदन किया कुछ तांत्रिकों से भी पूछ पर कोई बता न सका। कुछ ने मां दुर्गा के नव रूपों पर प्रकाश डाला। अत: यह हो सकता है यह व्याख्या आपको इस लेख के अलावा कहीं और न मिले। हो सकता है यह व्याख्या हमारे मन का भ्रम हो यानी गलत हो। लेकिन यह बात तो सही है अभी तक के हमारे अनुभव अनुभूति व आत्मगुरू की व्याख्या मां जगदंबे की कृपा से सही ही रही। वह सब के सब वेद से उपनिषद से भगवत गीता से अंत में मेल खा जाते और कहीं न कहीं उस अनुभूति का जिक्र मिल जाता है।
यद्यपि यह बात सही है कि ब्रह्म निराकार है और उसने समय-समय पर साकार रूप धारण किए तो यह कह देना कि सब एक ही है यह बहुत ही उच्च स्तर की बात होगी जब आप उस ब्रह्म के स्तर पर बैठे हो।
यह तो बिल्कुल वही बात हो गई आप बोलो सब आलू या बटाटा या पोटैटो है लेकिन आलू की चाट बनती है सब्जी बनती है उबाल के बनता है चिप्स बनते हैं नमकीन बनती है भुजिया बनती है सब में अंतर है कि नहीं उसी भांति इन नौ रूपों में और 10 विद्या में अंतर है। इन सबको आप एक तब ही कह सकते हैं जब यह मूल रूप में हो। कुछ ऐसे ही ब्रह्म समझें। जब कुछ समझ में न आये तो बोल देना सब एक ही है।
कुछ इसी भांति मां गायत्री के विषय में कुछ असत्य बातें दीं हुई हैं जो तर्कों पर खरी नहीं उतरती हैं। इस पर भी लिखना है। विष्णु का क्षीरसागर रूप भौतिकी से समझा जा सकता है। इसलिए मैं विज्ञान की दृष्टि से और तर्क के साथ आपके समक्ष इस विषय पर चिंतन करना चाहूंगा। आपका सुझाव आपके प्रश्न का हमेशा की भांति स्वागत रहेगा।
प्रयोग करें एक टंकी के अंदर पानी भर दे गुब्बारों के अंदर पानी भरकर टंकी में छोड़ दें आप देखेंगे गुब्बारे के अंदर भी पानी है गुब्बारे के, बाहर भी पानी है। लेकिन उन दोनों पानी का कोई आपस में जोड़ नहीं मेल नहीं। बस यही अंतर है 10 विद्या में और नवरात्रि में।
साकार ब्रह्म की मूर्ती के अंदर भी जल है बाहर भी है। वैसे ब्रह्म सर्वव्यापी है निराकार रूप में लेकिन साकार रूप में भी वह मौजूद है यानी गुब्बारों के आकार के अंदर भी वही है और बाहर भी वही है। बीच में इस शरीर का बंधन है।
वह गुब्बारा कौन है हम हैं जो साकार है वह जो पदार्थ है जो हमें दिखते हैं जिसको कि भगवान श्री कृष्ण ने भागवत में कहा की विज्ञान वह है जिसमें मनुष्य हमारे साकार सगुण रूप के विषय में शोध करता है और उस विषय में चिंतन करता रहता है जानने का प्रयास करता रहता है। ज्ञान क्या है जो निराकार सगुण स्वरूप को जानता है जानने का प्रयास करता है वह ज्ञानी है और वह ज्ञान है।
10 विद्या जो गुब्बारों के बाहर व्याप्त है यानी जो हमारे शरीर के बाहर ऊर्जा है जो रूप है वह विद्याएं हैं क्योंकि विद्या के द्वारा हम बाहर कुछ करते हैं। इस पर भी अलग लेख लिखूंगा।
मैं यह कहना चाहूंगा पहले 10 विद्या का प्रादुर्भाव हुआ फिर दुर्गा का प्रादुर्भाव हुआ और जिसने की नव दुर्गा के रूप धरे। इसी के साथ गायत्री का प्रादुर्भाव हुआ।
यानी पहले वाहिक जो 10 विद्या थी उर्न्होने सृष्टि उत्पन्न की और फिर उस सृष्टि ने मनुष्य की उत्पत्ति की और फिर नवदुर्गा उत्पन्न हुई। फिर मनुष्य को ज्ञान हेतु वेदों को उत्पन्न करने हेतु मां गायत्री का रूप।
अब मैं योग की एक नई परिभाषा देता हूं। “ जब तुम्हारे अंदर की दुर्गा का काली से मिलन होगा तब योग होगा”।
सोचने की बात यह है कि शब्द नवरात्रि क्यों है नव दिन क्यों नहीं है नव दिवस क्यों नहीं है नौ रूपों के लिए नवरात्रि ही क्यों कहा जाता है?????
वहीं 10 रूपों को विद्या कहा जाता है और कुछ नहीं। बस आरंभ यहीं से होता है।
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दश विद्या के वैज्ञानिक अर्थ और व्याख्या
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥
Tuesday, October 13, 2020
नव रात्रि में सरल और सुगम आराधना कैसे करें।
नव रात्रि में सरल और सुगम आराधना कैसे करें।
सनातनपुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
बहुत चिंतन के बाद मुझे महसूस हुआ कि सभी देव भक्तों और हिंदुओं को यह आराधना अवश्य ही करनी चाहिये। क्योंकि यह शक्ति पूजन है। एक बात याद रखें जिस कार्य में मन न लगे अथवा खीझ पैदा हो। उसको कतई न करें। क्योंकि प्रभु मात्र भाव के ही भूखें होते हैं। बाकी वाहिक ताम झाम तो हम अपने मन और माहौल के लिये ही करते हैं। अत: मैं न्यूनतम आराधना विधि को ही बताना चाहूंगा।
एक बात और यदि आप मातृ कृपा और भक्ति हेतु पूजन करते हैं तो सारी गलती माफ़ लेकिन यदि अनुष्ठानिक पूजन करते हैं तो बेहद सावधानी के साथ पूजन करना होता है। अत: यह विधि मातृ कृपा और सामान्य भक्ति आराधना हेतु ही दी गई है।
1. सबसे पहले आप मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले। जिससे आपको स्पष्टता आ जाये कि आप क्या करने जा रहें हैं।
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और
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या)
भक्तों को कष्ट न हो इस कारण मैंनें कई ब्लाग लिखे हैं जिनके लिंक इस ब्लाग पर जाकर समझे जा सकते हैं। आप इतना अवश्य समझ लें कि नवरात्रि पूजन नौ रूपों हेतु पूजन है जो दस रूपों की दस विद्यायों से अलग है। इस पर मुझे लिखना है कुछ प्रतीक्षा करें।
2. बेहतर होगा कि आप दिनों के रूप के मंत्र के साथ सचल मन वैज्ञानिक विधि के अनुसार पूजन करें। दिन भर उस रूप के मंत्र का जाप करें।
👉👉लिंक को दबायें: सचल मन वैज्ञानिक विधि
3. रात्रि में आरती के बाद शयन के समय से अगले दिन के रूप और मंत्र का ध्यान और जाप कर सोंयें।
4. प्रतिदिन सुबह और शाम क्षमा प्रार्थना व सिद्ध कुंजिका स्त्रोत का पाठ अवश्य करें।
5. प्रयास यह करें कि आप दिनभर कोई भी काम करते समय मंत्र जप अवश्य करते रहें।
6. सम्भव हो तो मुझे अपने अनुभव व्हाट्सअप द्वारा 99690680093 पर बताते रहें। जिससे मेरी खोज को बल मिलेगा।
7. यदि सम्भव हो तो गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करें। यदि संस्कृत न पढे तो हिंदी अनुवाद ही पढ लें। सम्भव हो तो आराधनायें संस्कृत में पढें।
सम्भव हो तो दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करें।
8. एक बात समझ लें जो घी तेल आप खाते हैं उसी का दीपक जलायें। पूजा वाला तेल के नाम पर मिलावटी और चर्बी से बना घी तेल बिकता है जो खाने को मना करते हैं। वह कदापि प्रयोग न करें। तनिक सोंचे जो आप नहीं खा सकते उसे प्रभु को अर्पित करना कितना गलत है।
9. सम्भव हो तो देवी के नव रूपों और दश विद्या को याद करें।
हालांकि पूजन विधि में हर रूप के अलग आसन इत्यादि दिये हैं लेकिन आप परेशान न हों। जितना हो सके उतना करें।
यदि मां दुर्गा की फोटो हो तो अच्छा है यदि नहीं है तो परेशान न हों। किसी भी देव की फोटो रख लें नहीं तो एक साफ कागज पर मां जग्दम्बे लिखकर सामने रख लें।
कुल मिलाकर तनावरहित और भक्ति भाव से ही पूजन करें।
किसी तांत्रिक या अन्य के बहकावे में न आयें। ईश्वर सरलता और सज्जनता का दूसरा रूप है। वह कभी अपनी संतानों का बुरा नहीं कर सकता।
हमारे पाप कर्म ही दंड के रूप में सामने आते हैं। प्रभु कृपा से हमें कष्ट सहने में कोई कठिनाई नहीं आती है।
अत: अपने प्रभु पर अपने पर विश्वास रखें।
ईश्वर के नाम पर दुकानदारी करनेवालों से सदैव दूर रहें।
चमत्कारों पर विश्वास न करें। यह ठग भी हो सकते हैं।
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🙏🙏🙇🙇🙏🙏
अजीब किस्म की गरीब दुनिया
अजीब किस्म की गरीब दुनिया
विपुल लखनवी
फेंको फेंको कुछ भी फेंको। सब चलता है इस दुनिया में॥
गली गली ज्ञानी बैठें हैं। पर न ज्ञानी मिले दुनिया में॥
सब खोलें हैं अपनी दुकान। राम नाम महिमा नहीं जान॥
बन चेला हूं गुरु मैं तेरा। मुझको अपना गुरू तू मान॥
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