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Wednesday, June 27, 2018

मंगल, वासना और मृत्यु कुछ उत्तर




मंगलवासना  और  मृत्यु
कुछ उत्तर

सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

सदा दूसरे की ओर दौड़ने वाले चित्र का नाम कामना एवं वासना है। क्योंकि कामना दुःख है, वासना दुःख है। महावीर ने उसे वासना, तो बुद्ध ने उसे तृष्णा कहा है। नाम चाहे जो भी दें- वह दूसरे को चाहने की ही दौड़ है। वही दुःख है।

मंगल क्या है? सुख क्या है? आनंद क्या है? निश्चित ही वह उस समय मिलेगा, जब हमारी वासना कहीं दौड़ नहीं रही होगी। वासना का दौड़ना आत्मा का खो जाना है।

भगवान महावीर कहते हैं, 'अहिंसा संजमो तवो'। इतना छोटा सूत्र शायद ही जगत में किसी ने कहा हो जिसमें सारा धर्म समा जाए। अहिंसा धर्म की आत्मा है। धर्म का सेंटर है। तप धर्म की परिधि है और संयम केंद्र एवं परिधि को जोड़ने वाला बीच का सेतु है।

ऐसा समझ ले अहिंसा आत्मा, तप शरीर और संयम प्राण है। वह जो दोनों को जोड़ती है- श्वास है। श्वास टूट जाए तो शरीर भी होगा, आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होंगे। संयम टूट जाए तो तप भी हो सकता है, अहिंसा भी हो सकती है, लेकिन धर्म नहीं हो सकता।
भगवान महावीर की दृष्टि में अहिंसा आत्मा है। अहिंसा पर क्यों महावीर इतना जोर देते हैं। महावीर कहते हैं अहिंसा, कोई कहता है परमात्मा, कोई कहेगा सेवा, कोई ध्यान, कोई योग, कोई प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा। महावीर कहते हैं यह अहिंसा एवं तप दौड़ती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियों के नाम हैं। जब वह रुक जाएगी तो स्वयं में रमेगी, स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी। जैसे कोई ज्योति वायु के वेग से कंपे नहीं वैसी।

कामना व वासना अंदर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को बहा ले जाने के कारण हैं व हिंसा के द्वार। जब तक ये द्वार बंद नहीं होंगे, तब तक हमारी ऊर्जा अहिंसा का सार्थक पुरुषार्थ नहीं कर पाती है।

इसीलिए महावीर स्वामी कहते हैं, जहां कामना है, वासना (तृष्णा) है, वहां अहिंसा नहीं है और जहां अहिंसा नहीं, वहां धर्म भी नहीं हैं।

जो भक्त बड़े प्यार से मुझे भजता है, मैं बिना मांगे ही उसके चित्त में ज्ञान का दीप जलाता हूं। भगवान कहते हैं कि भक्त के मन में मुझसे मिलने की इच्छा तीव्र हो तो मैं उसे अपने आप ही मिल जाऊंगा। भगवान अपने भक्तों का गुणगान करते हैं। भक्त का चित्त और प्राण ईश्वर में समाहित होता है।

भगवान कहते हैं- बुद्घि, ज्ञान, क्षमा, सत्य, शम-दम, सुख-दुख, अहिंसा, समता, दान, यश, शक्ति, प्रकाश, तेज आदि मुझसे ही हैं। जैसे जल का ऐश्वर्य बर्फ है, उसी तरह ईश्वर का ऐश्वर्य विभूति कहलाता है।

साधक के जीवन में गुरु का होना ईशकृपा का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है।
श्रीमद्भागवत कथा आध्यात्मिक रस वितरण की वह सार्वजनिक प्याऊ है जिसमें व्यक्ति को शांति और समाज को कांति का शीतल पेय मिलता है।
जो देता है उसे देवता कहते है। अतः सूर्य, जल, वायु, आकाश तथा पृथ्वी पांचों जड़ देवता है तथा चेतन देवता ईश्वर, गुरु तथा माता-पिता है। पूजा का अर्थ होता है यथा योग्य व्यवहार करना। यज्ञ के द्वारा जड़ तथा चेतना देवताओं के साथ यथा योग्य व्यवहार अर्थात्‌ पूजा का अवसर प्राप्त होता है

और मैंने बंगलौर में देखा कि ऑटो में आपके सामने एक बॉक्स होगा। जिसमें किताबे रखी होंगी और लिखा होगा। आप कोई भी पुस्तक ले सकते है। समय काटने के लिए आप किताब उठाये तो पाएंगे वह ईसाइयत की किताब होगी। और आपसे ईसाइयत बनने की अपील होगी।

इसमें बहुत कुछ भृमित कर रहा है। समाधि को निश्चयात्मक बुद्दी शायद बताना गलत है। और घण्टो बैठे रहने पर दर्द इत्यादि नही भी समझ से परे है। यह सत्य है जिस वक्त देहभान चला जाता है उस समय शरीर का ध्यान नही रहता तो मस्तिष्क कोई भी सिग्नल नही लेता। पर जब आप वापिस चेतना में आते है और आपको योगाभ्यास द्वारा बैठने का अभ्यास नही है तो आपको पेन किलर खाने के साथ मालिश भी करनी पड़ जाएगी। अतः यह सब लेटकर किया जाता है। ताकि शरीर भी तकलीफ न ले।
 
दूसरी बात इस तरह की समाधि लोग प्रायः मृत्यु के समय ही लेते है। हा सिद्दियों के समय भी कुछ समय के लिए यह सब कर लेते है।
मित्र हमारा उद्दार किसमे है। किसमे नही है। हमें क्या पता। अतः बस एक ही रास्ता है कि प्रभु को समर्पित हो जाओ। वो ही जो मार्ग दिखायेगा वो ही उद्दार का मार्ग होगा। हमारी बुद्दी भृमित हो सकती है पर आत्मरूपी प्रभु नही।

प्रभु समझदार कौन मूर्ख कौन यह कैसे ज्ञात होगा। अपने को समझदार समझनेवाले तो सबसे बड़ा मूर्ख होता है। समय से बड़ा गुरु भी नही होता तो प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करवा देता है। अब यह शिष्य पर ग्रहण करे या न करे। गुरु ने अपना काम कर दिया।
यह एकदम से आनेवाली वस्तु नही है। प्रायः मनुष्य की जब मनमानी इच्छा पूरी होने लगती है तो वह प्रभु को मानने लगता है  और सोंचता है कि मैं समर्पित हो गया हूँ। पर जरा सी बात मन के विपरीत हो तो भगवान को कोसना चालू।
समर्पण का अर्थ है । सम धन अपर्ण अर्थात जो भी मुझे प्राप्त है सुख दुख अच्छा बुरा ऊंचा नीचा वह सब मेरे लिये एक समान है। और वह सब तुझको समर्पित। तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।
 इस तरह की भावना आने में बहुत समय लगता है।
प्रायः यह प्रभु कृपा से ही होता है।
प्रभु कृपा हेतु हमे पहले अपने को जानना होगा। हम कौन है।
हम कौन है यह जानने हेतु हमें अंतर्मुखी होना होगा। तब धीरे धीरे जब हम अनुभवों से जान पाएंगे हम क्या है। आत्मा क्या है। तब जान पाएंगे प्रभु क्या है।
यह सब प्रभु कृपा से ही होता है। जिसके लिए और नाम पर जगत में तमाम दुकाने खुली है।
कुछ सही पर अधिकतर गलत।
अतः इसका सबसे सुंदर सस्ता टिकाऊ आरम्भिक मार्ग है।
गुरु के चक्कर हेतु भटको मत।
अपने ही घर में सब करो। मन्त्र जप करो। जो तुमको आवश्यकता पड़ने पर गुरु तक आत्मज्ञान तक और अनन्त तक ले जाने की क्षमता रखता है।
मैं तुमको लिंक देता हूँ। पहले वह पढो। ताकि तुम्हारी कुछ जिज्ञासा शांत हो।
साथ ही mmst भी देता हूँ। जिसे घर पर करो। कही भटको नही। अपने अनुभव शेयर करो।
पढ़े और जाने । आखिर कौन है गणेश। सँस्कृत देव भाषा क्यो। 
आपको कही न मिलेगा लिंक देखे।

'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- भगवान कृष्ण 
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विस्मृत होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।

व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।

आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।

तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो ‍आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।

होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।

हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।

पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।

गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृ‍ति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। 

गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति। लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सु‍षुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता।

कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।

इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।

जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।

सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।


कुछ संदर्भ वेद, योग और पुराण गूगल से 


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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