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Monday, August 26, 2019

आरती का पूजा में महत्व व प्रकार

आरती का पूजा में महत्व व प्रकार

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

आरती का भगवान की पूजा में बहुत महत्त्व होता है। पूजा की समाप्ति पर इन्हे गाने से पूजा में अज्ञानवश या असावधानी से यदि कोई भी त्रुटी रह जाती है तो उसकी पूर्ति जाती है।


पुराणों में कहा गया है की जो प्राणी धूप आरती दोनों हाथों से  श्रद्धा पूर्वक लेता है वह अपनी करोड़ो पीढ़ियों का उद्धार कर लेता है और विष्णु लोक में परम पद को प्राप्त होता है।


इसके अलावा आरती के लिए जलाये जाने वाले घी , कपूर आदि से वातावरण शुद्ध होता है। कई प्रकार के नुकसान देह कीटाणु आदि इससे नष्ट होते है। वातावरण में एक पॉज़िटिव एनर्जी का संचार होता है। आरती करने और गाने से मन प्रसन्न होता है अतः सभी को बहुत अच्छा लगता है ।


आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।


सामान्यतः पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।


आरती  के लिए कैसा दीपक लेना चाहिए , दीपक मे कितनी बत्तियां होनी चाहिए , कपूर से करें या घी के दीपक से , दीपक को कितनी बार घुमाएँ , इष्ट देव के किस अंग की और करके घुमाएँ इत्यादि पर संशय बना रहता है। और मन में संशय रहता है कि पता नहीं आरती सही तरीके से हुई या नहीं।


आजकल एकल परिवार के कारण आरती के बोल  आरती लय भी पता नहीं होती कैसे गाते हैं।  वैसे ओम जय जगदीश हरे आरती सबसे अधिक गाई जाती है।

 

आरती अपने इष्ट देव की प्रतिमा के चारों ओर घी का दीपक ,  कपूर , धूप ,अगरबत्ती आदि को जलाकर उसे घूमाते हुए की जाती है। कृष्ण भगवान की आरती के समय घी का दीपक होना चाहिए। घर में एक बत्ती के दीपक से आरती की जाती है। अपनी श्रद्धा के अनुसार आरति करने के लिए दीपक , कपूर या अगरबत्ती आदि ले सकते हैं।


आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। 

 

आरती पांच प्रकार से की जाती है।

पहली दीपमाला से,

दूसरी जल से भरे शंख से,

तीसरी धुले हुए वस्त्र से,

चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से

और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से।

पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।


मंदिरों में पांच बत्ती , सात बत्ती या ग्यारह बत्ती वाला दीपक जलाकर आरति की जाती है। घर पर एक बत्ती वाले दीपक से आरती की जाती है।


यदि आप एक से अधिक बत्ती वाले दीपक से आरती करना चाहते है तो विषम संख्या में बत्ती होनी चाहिए , उनमे भी तीन , नौ व तेरह बत्ती नहीं होने चाहिए। पांच , सात , ग्यारह , इक्कीस संख्या शुभ होती है।


पहले दीपक को चार बार इष्ट देव के चरणों की तरफ घुमाएँ ,

फिर दीपक को दो बार इष्ट देव की नाभि की ओर करके घुमाएँ  ,

इसके बाद एक बार इष्ट देव के मुख मंडल की ओर करके घुमाएँ ,

फिर एक बार इष्ट देव के चारों ओर घुमाएं ।

इस तरह सात बार दीपक को घूमाना चाहिए ।


आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता हैआरती पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ करनी चाहिए। ताली , घंटी , मंजीरे आदि बजाने से इष्ट देव में ध्यान अच्छे से लगता है और आरति का आनंद मिलता है।


घंटी अपनी श्रद्धा के अनुसार सोने , चाँदी की या पीतल की ले सकते है । घंटी से मधुर ध्वनी निकालनी चाहिए। आरती में परिवार के सभी लोगों को इकठ्ठा होना  चाहिए । इससे परिवार में प्रेम बढ़ता है और ईश्वर की कृपा पूरे परिवार पर बनी रहती है।

 

आरती का थाल धातु का बना होता है, जो प्रायः पीतल, तांबा, चांदी या सोना का हो सकता है। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या 101 भी हो सकती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।

 

आरती पूरी होने के बाद दो तीन बार इष्ट देव का जयकारा करना चाहिए। इसके बाद सभी को दीपक की लौ के ऊपर दोनों हाथ श्रद्धा पूर्वक फेरकर अपने सिर ,आँख और मुँह पर फेरना चाहिए। इससे सारे शरीर की शुद्धि हो जाती है।


अंत में इष्ट को दंडवत प्रणाम कर विनती करनी चाहिये। 

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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा

आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं। मैं पूरी कथा न लिखूंगा आप नेट पर पढ लें। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा था “राजन जितना पैर घोडे की एक रकाब पर एक पैर रखकर दूसरा पैर दूसरे रकाब पर रखने में लगता है। ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करनें में सिर्फ इतना ही समय लगता है”। बाद में उन्होने राजा जनक को शक्तिपात दीक्षा दी थी। पर दक्षिणा पहले ही मांग ली। जनक के बोलने पर अष्टावक्र ने कहा “राजन ब्रह्म ज्ञान होने के बाद तुम मुझमें और अपने में भेद न कर पाओगे तो कौन किसको देगा और कौन किससे लेगा। अत: तुम फिर दक्षिणा न दे पाओगे”।


शक्तिपात एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में संचरित करता है ताकि उसकी सुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण हो जाए अथवा उसकी बुद्धि अतीन्द्रिय विषय को समझ सके। गुरु कृपा शक्तिपात गुरु कृपा पर निर्भर करती है। सद्गुरु सर्वतत्त्व वेत्ता और अध्यात्म विद्या के जानने वाले होते हैं। ‘मालिनी विजय’ में भी कहा है- स गुरुमंत्समः प्रोक्तो मंत्रवीर्य प्रकाशकः। अर्थात् वही गुरु मेरे समान कहा गया है जो तंत्रों के वीर्य का प्रकाश करने वाला हो। सिद्धि प्राप्त करने के लिए शक्तिपात आवश्यक माना गया है जिसके लिए गुरु ही एकमात्र साधन है। शक्तिपात के न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती।



आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें। 

 

 
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।

षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।

ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।

 

 

बात सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत: क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत: निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।

 

सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं–    “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।


‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं । श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं।

तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।  
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥



“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।  

    
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र  और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया । ” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।


‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। ) ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।


 शक्तिपात होने पर शिष्य में जो बाहरी और आन्तरिक लक्षण (विशेषताऐं) उत्पन्न हो जाते हैं उनका विवरण शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है। वे सब कुण्डलनी जागरण के बाद ही होते हैं। 


''देहपात: तथा कम्प:-परमानन्द हर्षणे। स्वेदो, रोमांच इत्येत-शक्तिपातस्य लक्षणम्'' । ''प्रहर्ष: स्वरनेत्रांग विक्रिया कम्पनं तथा स्तोम: शरीरपातश्च भ्रमणं चोदगतिस्तथा। अदर्शनं च देहस्य........निग्रहानुग्रहे शक्ति:''। ''शिष्यस्य देहे विप्रेन्द्रा-धरिण्यां पतते सति प्रसाद: शंकरस्तस्य-द्विजा संजात एव हि''॥


अर्थात् शक्तिपात होने से शिष्य का देहपात (शरीर का भूमि पर गिरना) होता है। शरीर में कम्पन्न उत्पन्न होता है। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने से शिष्य जोर-जोर से हॅंसने लगता है। शरीर का रोमांचित होना तथा पसीना होना भी शक्तिपात का ही लक्षण है। इसके अतिरिक्त निद्रा आना, मूर्छित हो जाना तथा दिमाग का घूमना भी शक्तिपात हो जाने के ही लक्षण होते हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सूतसंहिता'' के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में अनेकों लक्षणों का विवरण दिया गया है।



इन सभी लक्षणों में महत्वपूर्ण लक्षण है 'देहपात होना' अर्थात् शक्तिपात होते ही शिष्य का शरीर तत्क्षण भूमि पर गिर जाता है और वह निर्वाध गति से भूमि पर दीर्घकाल तक चक्कर काटता रहता है। इसका महत्व बताते हुए शास्त्र कहता है-



अर्थात् जब शिष्य का शरीर धरती पर गिरता है तो इसे भगवान शंकर की कृपा समझना चाहिए। ऐसा शिष्य श्री गुरूकृपा से कृतार्थ हो जाता है तथा उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

''तस्य प्रसाद युक्तस्य........तम: सूर्योदयो यथा''

इस प्रकार शक्तिपात प्राप्त सत्शिष्य की समस्त-अविद्याऐं उसी प्रकार भस्म हो जाती है जैसे सूर्योदय हो जाने पर समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।



इस विषय पर पूज्यपाद वामनदत्तात्रेय गुलवणी महाराज (महाराष्ट्र-पुणे निवासी) शक्तिपात के पश्चात शिष्य में उत्पन्न होने वाले विभिन्न लक्षणों का विवरण अपने अद्वितीय लेख 'शक्तिपात से आत्मसाक्षात्कार' में दिया गया है।


''गुरूकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं होती। प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाती है। उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाऐं अपने-आप होती है वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है। शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद से सब क्रियाऐं अपने-आप होती है और उनसे चित्त को अधिकाधिक - स्थिरता प्राप्त होती है..........................जिस साधक के द्वारा जिस  क्रिया  का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं। ........................... योगशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार इन सब-क्रियाओं का अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। ...............इस प्रकार होने वाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता। किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता। प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाऐं साधक से उसके प्रकृति के अनुरूप करा लिया करती है। शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधना से जो क्रियाऐं होती हैं, उनसे शरीर रोगरहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं। ........... परन्तु इस साधना में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है। शक्ति का जागना जहॉं एक बार हुआ वहॉं फिर वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है। इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी फिर कभी सुप्त नहीं होती।''



शास्त्रों में शक्तिपात सम्पन्न (कुण्डलिनी जागरण)  साधक में पाये जाने वाले जिन विभिन्न लक्षणों का उल्लेख मिलता है। उनमें से प्रमुख है –

मूलाधार में कम्पन होना, शरीर में अत्यन्त स्फूर्ति उत्पन्न होना, स्वत: ही कुम्भक लग जाना, आखों के तारे घूमना तथा दृष्टि का भ्रूमध्य की तरफ आकर्षित होना, शराब तथा भॉंग पिये बिना ही हर समय नशे की हालत बनी रहना, आखें बन्द करते ही गर्दन तथा शरीर का चक्राकार घूमना, अनेक भाषाऐं (ज्ञात–अज्ञात) वोल सकने की क्षमता उत्पन्न होना तथा स्तोत्रादि, कीर्तन के शब्द स्वत: ही उच्चरित होने लगना, ध्यान में बैठते ही भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगना, कम समय में वेदों तथा उपनिषदों का सार तत्व समझ लेना, दिन, प्रात: सांय एवं रात्रि में पूजा-ध्यान का समय होते ही शरीर, मन तथा प्राण में आनन्दमय स्थिति उत्पन्न हो जाना। स्पष्ट है कि सत्गुरू से प्राप्त शक्तिपात सम्पन्न साधक शीघ्र ही मनुष्यत्व से देवत्व की तरफ अनायास ही अग्रसर होने लग जाता है।


अंत में मैं इतना ही कहूंगा जिस व्यक्ति के प्रभु भक्ति में प्रेमाश्रु न निकले उसका जीवन व्यर्थ है। क्योकिं वह व्यक्ति प्रेम और विरह को नहीं समझ सकता। जिस व्यक्ति ने आंतरिक नशा न किया जिसे रामरस या शिव का नशा कहते हैं। उसने असली नशा जाना ही नहीं। मूर्ख और पाखंडी शिव के नाम पर भांग धतूरा गांजा चढाकर आनंद की बात भक्ति की बात करते हैं। वे महा अज्ञानी और ढोग़ी हैं। कारण राम रस का जो नशा आंतरिक रूप में मिलता है वह कुछ कुछ भांग धतूरे के नशे से मिलता है। अत: मूर्ख लोग इनका वाहिक सेवन करते हैं। जो नुकसान दायक होता है।  अरे राम रस से सर्वोच्च आनन्द के साथ शारिरिक शक्ति मिलती है।

और यह सब स्वत: शक्तिपात में होने लगता है।

आनंदम। अति आनंदम्॥ सर्वत्र आनंदम्। जय गुरूदेव। जय महाकाली । जय महाकाल

शक्तिपात दीक्षा कैसे होती है जानने हेतु यह ब्लाग देख सकते हैं। 

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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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आखिर क्या है क्रिया योग

आखिर क्या है क्रिया योग

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


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क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ।



इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है।


परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है। प्रत्यक्छ प्राणशक्तिके द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रियायोग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा।


क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीत गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है।



योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में क्रिया योग भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। योगानन्द जी का कहना है कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है:
बाह्यगामी श्वासों में अंतरगामी श्वाशों को समर्पित कर और अंतरगामी श्वासों में बाह्यगामी श्वासों को समर्पित कर, एक योगी इन दोनों श्वासों को तटस्त करता है; ऐसा करके वह अपनी जीवन शक्ति को अपने ह्रदय से निकाल कर अपने नियंत्रण में ले लेता है।



योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब “भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।” योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा “क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।” और फिर जब वह कहते हैं, “उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।” श्री युक्तेशवर गिरि के एक शिष्य, श्री शैलेंद्र बीजॉय दासगुप्ता ने लिखा है कि, “क्रिया के साथ कई विधियां जुडी हुई हैं जो प्रमाणित तौर पर गीता, योग सूत्र, तन्त्र शास्त्र और योग की संकल्पना से ली गयी हैं।”



नवीनतम इतिहास में  हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी |


1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा | मार्शल गोविन्दन पिछले 12 वर्षों से क्रिया योग का अनवरत अभ्यास कर रहे थे | प्रति सप्ताह 56 घंटे अभ्यास करने के अतिरिक्त उन्होंने 1981 में श्री लंका के समुद्र तट पर एक वर्ष मौन तपस्या की थी | गुरु के दिये हुए अतिरिक्त शर्तों को पूरा करने में गोविन्दन जी को तीन वर्ष और लगे | इतना होने पर योगियार ने उन्हें प्रतीक्षा करते रहने को कहा | योगियार अक्सर कहते थे कि शिष्य को गुरु अर्थात बाबाजी के चरणों तक पंहुचा देना भर ही उनका काम था |

1988 में क्रिस्मस की पूर्व संध्या पर गहन आध्यात्मिक अनुभूति के दौरान गोविन्दन जी को सन्देश मिला कि वो अपने शिक्षक के आश्रम और उनका संगठन छोड़ कर लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें |



इसके बाद मार्शल गोविन्दन के जीवन की दिशा गुरु की प्रेरणा से प्रकाशमान हुई | 1989 से उनका जीवन इस नयी दिशा में अग्रसर हुआ | लोगों तक इस शिक्षा को लाने के द्वार खुलते गए, मार्ग प्रशस्त होता गया | इस कार्य में अन्तःप्रज्ञा और अंतर-दृष्टि के माध्यम से गुरु का मार्गदर्शन निरंतर मिलता रहा | गोविन्दन जी ने मोंट्रियल में ही साप्ताहांत में क्रिया योग सिखलाना शुरू किया | क्रिया योग पर उनकी पहली पुस्तक का प्रकाशन 1991 में हुआ और इसके बाद वे सारी दुनिया में कई जगहों पर साप्ताहांत दीक्षा शिविर आयोजित करने लगे | तब से गुरु के प्रकाश से ज्यादा से ज्यादा लोगों को आलोकित करना ही उन्हें आनंदित करता है | अब तक 20 से अधिक देशों में फैले हुए 10,000 से ज्यादा लोग आध्यात्म कि इस बहुमूल्य वैज्ञानिक प्रणाली से जुड़ चुके हैं | उन्होंने क्रिया योग के 16 शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया है |

एम. गोविंदन सत्चिदानन्द को सन् 2014 में सम्मानित "पतंजलि पुरस्कार" दिया गया।


क्रिया योग का अभ्यास
जैसा की लाहिरी महाशय द्वारा सिखाया गया, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, “बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य को संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं।”



जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, “एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति कर सकता है; जैसे आधे मिनट का क्रिया योग एक वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर होता है।”
स्वामी सत्यानन्द के क्रिया उद्धरण में लिखा है, “क्रिया साधना को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह “आत्मा में रहने की पद्धति” की साधना है”।



बाबाजी का क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है | प्राचीन सिद्ध परम्परा के 18 सिद्धों की शिक्षा का संश्लेषण कर भारत के एक महान विभूति बाबाजी नागराज ने इस प्रणाली को पुनर्जीवित किया | इसमें योग के विभिन्न क्रियाओं को 5 भागों में बांटा गया है |



1. क्रिया हठ योग: इसमें विश्राम के आसन, बंध और मुद्रा सम्मिलित हैं | इनसे नाङी एवं चक्र जागरण के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है | बाबाजी ने 18 आसनों की एक श्रृंखला तैयार की है जिन्हें दो आसन के युगल में करना सिखाया जाता है | अपने शारीर की देख-भाल मात्र शारीर के लिए नहीं बल्कि इसे ईश्वर का वाहन अथवा मंदिर समझ कर किया जाता है |

2. क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम: यह व्यक्ति की सुप्त चेतना एवं शक्ति को जगा कर उसे मेरुदंड के मूल से शीर्ष तक स्थित 7 प्रमुख चक्रों में प्रवाहित करने की शक्तिशाली स्व्शन क्रिया है | यह 7 चक्रों से सम्बद्ध क्षमताओं को जागृत कर अस्तित्व के पांचों कोषों को शक्तिपुंज में परिणत करते है |

3. क्रिया ध्यान योग: यह ध्यान की विभिन्न पद्धतियों से मन को वश में करने, अवचेतन मन की शुद्धि, एकाग्रता का विकास, मानसिक स्पष्टता एवं दूरदर्शिता, बौधिक, सहज ज्ञान तथा सृजनात्मक क्षमताओं की वृद्धि और ईश्वर के साथ समागम अर्थात समाधि एवं आत्म-ज्ञान को क्रमशः प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है |

4. क्रिया मंत्र योग: सूक्ष्म ध्वनि के मौन मानसिक जप से सहज ज्ञान, बुद्धि एवं चक्र जागृत होते हैं | मंत्र मन में निरंतर चलते हुए कोलाहल का स्थान ले लेता है एवं अथाशक्ति संचय को आसान बनाता है | मंत्र के जप से मन की अवचेतन प्रवृत्तियों की शुद्धि होती है |

5. क्रिया भक्ति योग: आत्मा की ईश्वर प्राप्ति की अभीप्सा को उर्वरित करता है | इसमें मंत्रोच्चार, कीर्तन, पूजा, यज्ञ एवं तीर्थ यात्रा के साथ-साथ निष्काम सेवा सम्मिलित है | इनसे अपेक्षारहित प्रेम एवं आनंद की अनुभूति होती है | धीरे-धीरे साधक के सभी कार्य मधुर एवं प्रेममय हो जाते हैं और उसे सब में अपने प्रियतम का दर्शन होता है |


क्रिया योग में दीक्षाएं
1. प्रथम दीक्षा : क्रिया योग की प्रथम दीक्षा साप्ताहांत में आयोजित एक गहन सेमिनार में दी जाती है | इस सेमिनार में आप बाबाजी द्वारा संकलित क्रिया हठ योग के 18 स्वास्थ्यवर्धक, शक्तिवर्धक तथा विश्रामदायी आसन सीखेंगे | साथ ही सूक्ष्म उर्जा को जाग्रत एवं प्रवाहित करने के लिये “क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम” नामक शक्तिशाली श्वसन प्रणाली के 6 चरण का अभ्यास सीखेंगे | इसके अतिरिक्त अवचेतन मन को परिशुद्ध कर अपने मन का स्वामी बनने तथा आत्म-साक्षात्कार एवं ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ध्यान की 7 क्रियाएँ सीखेंगे |
2. द्वितीय दीक्षा : प्रकृति की गोद में किसी ग्रामीण स्थल पर साप्ताहांत में आयोजित ‘आध्यात्मिक अंतर्यात्रा’ के दौरान द्वितीय दीक्षा दी जाती है | मंत्र दीक्षा के साथ साथ इसमें चक्रों को जाग्रत करने की शक्तिशाली तकनीक, योगनिद्रा, मौन एवं क्रियाशील ध्यान का अभ्यास सिखलाया जाता है | योग को रोजमर्रे की सामान्य गतिविधियों में उतारना इसका लक्ष्य है |
3. तृतीय दीक्षा : क्रिया योग के कुल 144 क्रियाओं में से प्रथम एवं द्वितीय दीक्षा के बाद बाकी बची हुई क्रियाओं को किसी ग्रामीण स्थल पर आयोजित 9 दिवसीय गहन अंतर्यात्रा-शिविर में सिखाया जाता है | इनमें वो क्रियाएँ भी शामिल हैं जो समाधि के विभिन्न स्तरों एवं इश्वर-सान्निध्य का अनुभव कराती है |


क्रिया योग के चार सोपान
1- ब्रह्म ग्रन्थी
2- विष्णु ग्रन्थी
3- रूद्र ग्रन्थी
4- परब्रह्म ग्रन्थी

ब्रह्म ग्रन्थी – इस सोपान में

तालव्य क्रिया
जिह्वा चालन
मानसिक ध्यान
प्राणायाम.
नाभी क्रिया
ज्योति मुद्र

छ.महा मुद्रा है । इस मे खेचरी मुद्रा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।
प्राणायाम के साथ ऊँ का जाप करते हुऐ षटचक्र का ध्यान किया जाता हैं।इस मे एक प्राणायाम 44सैकिण्ड का होता है। एक समय 144प्राणायाम किये जाते है।
खेचरी मुद्रा पूर्ण होने पर ब्रह्म ग्रन्थी भेदन होती है।

परिणाम-
1- आसन सिद्ध होता है।2.खेचरी मुद्रा लगने लगती है।3 चेतना मूलाधार से उठ कर अनाहत मे आ जाती हैं।4 साधक की कामनाऐ समाप्त हो जाती है।5 ब्रह्मा जी के दर्शन होते हैं।
विष्णु ग्रन्थी या ह्रदय ग्रन्थी
इस मे प्राणायाम 66 सैकिण्ड का होता है।
मन्त्र द्वादश अक्षर का हैं। एक समय 200प्राणायाम किये जाते है ।प्राणायाम के साथ सिर को घूमाने एक विशेष क्रिया की जाती हैं।
नाभि क्रिया कुम्भक लगा कर की जाती है।ज्योति मुद्रा व म हा मुद्रा भी की जाती है।
परिणाम-
1- हृदय गति रूकने लग जाती हैं।
2.वासुदेवम् कटुम्भक की भावना हो जाती है।
3- चेतना ह्रदय से उठ कर आज्ञा चक्र पर आ जाती है।
4.साधक को भगवान विष्णु जी के दर्शन होते है।
रूद्र ग्रन्थी

प्राणायाम88 सैकिण्ड का होता है । मन्त्र ओंकार है। इसमेआज्ञा चक्र पर ध्यान लगा कर श्वास लिया जाता है व छोडा जाता है। प्राणायाम करते हुऐ एक ही धारणा करनी चाहिए आज्ञा चक्र से श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हूँ।
शेष क्रिया ह्रदय ग्रन्थी वाली करनी हैं।
परिणाम-
1.श्वास लम्बे समय तक रूकने लगता है।
2 तीसरा नेत्र खुल जाता है।
3 साधक मृत्यु को जान लेता हैं। मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
4 चेतना आज्ञा चक्र से दशम द्वार की तरफ चल पडती है।
5 भगवान शिव जी के साक्षात दर्शन होते है।

 
परब्रह्म ग्रन्थी
इस के दो भाग है।
1- पहले भाग मे प्रतिदिन पहले श्रीविद्या साधना की साधना की जाती
2- . दूसरे भाग मे प्राणायाम
लंम्बे से लम्बा खिचना है व लंम्बे से लम्बा छोडना है।साधना करते हुऐ संकल्प करे की दशम द्वार से श्वास ले रहा हू और छोड रहा।कुछ समय तो इस प्रकार करे व कुछ समय ध्यान व संकल्प करे की बिन्दु से topसे श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हू। यह क्रिया केवल खेचरी मुद्रा लगा कर ही करनी है ।अन्यथा परिणाम नही आऐगा।

 
परिणाम-
1 दशम द्वार खुल जाता है।
2.चिदाकाश मे प्रवेश हो जाता हैं
3.केवल कुम्भक की स्थिति आ जाती है।
4.आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
5.ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है।
6.साधक मोक्ष पा लेता है।जीते जी संसार छुट जाता है ।साधक विदेही हो जाता है।
नियम :-यह विद्या प्रथम दिवस से एक घण्टा प्रातः व एक घण्टा साय । दूसरे मास से दो-दो घंटे व तीसरे मास तीन -तीन घण्टे व कम से कम छः वर्ष व अधिक से अधिक बारह वर्षो तक निरन्तर बिना रुके साधना करनी होती है साथ ही इस विद्या को गुप्त रखना होता है | ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवाय है | क्रिया योग के मार्ग पर मार्गदर्शन जरुरी है |

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Sunday, August 25, 2019

जय कन्हैयालाल की

 जय कन्हैयालाल की

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

 

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।

त्रिभंगी तेरी चाल की जय कन्हैयालाल की।।


देवकी नन्दन जन्म लिया पाल यशोदा माई।

कारागृह ताले सब खुल गए यमुना बाढ़ आई।।

चरण अगूंठा यमुना छूकर धन्य हुई बन पाल की।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।


खेल खेल में मात यशोदा मुख खोले घबराये।

माटी लिपटे दन्तावली ब्रह्मांड नजर जो आये।।

समझ न पाई कुछ भी मैय्या लीला तेरे बाल की।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।


मित्र सुदामा मन का काला चना छिपा कर खाये।

ऐसे कपटी बाल सखा पर सब न्योछावर जाये।।

सूखे तांदूळ मुख में चबाकर सुख सम्पत्ति गाल की।।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।


भक्त बना अर्जुन जब तेरा उन चरणन में बैठा।

बना सारथी रथ को हांका जब अर्जुन था ऐंठा।।

गर्व चूर कर बड़े बड़ों का  रूप धर कर ग्वाल की।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।


भक्तो को देकर आश्वासन निर्भय जगत बनाया।

धर्म की हानि जब हो धरा पर जन्म तेरा जग पाया।।

ज्ञान की धारा रण छोड़ बखानी गीता ज्ञान काल की।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।


दास विपुल पल भर जो देखा बाल रूप दर्शाया।

ग्वाल रूप दर्शन देकर निराकार समझाया।।

निराकार तू परम ब्रह्म है बीह भक्तन की ढाल की।।

हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।।

 

जय हो कुमार साहब की बोलो भजन एक बनवाया।
इसी बहाने दास विपुल ने कृष्ण लीला को गाया।।
प्रेरक रूप बनाता जग में बन कर मोती प्रवाल की।
हाथी घोडा पालकी जय कन्हैयालाल की।

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

 

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जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल।

नन्हे मुन्ने मदन गोपाल।।

सूरत सीरत तेरी न्यारी।

देख यशोदा होत निहाल।।


जनम अष्टमी धरा पे आओ।

साधुन मन हर्षायो।।

द्वार के ताले टूट गये जब।

वासु मथुरा आयो।।

युगों युगों से तेरी पूजा।

भक्त प्रेम बेहाल।।

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल।

नन्हे मुन्ने मदन गोपाल।।


राधा राधा प्रेम की धारा।

श्यामल दर्शन पाये।।

उद्धव भूले ज्ञान गठरिया।

प्रेमल भक्ति आये।।

यमुना तट पर नाचे ऐसे।

कालिया मर्दन जाल।।

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल।

नन्हे मुन्ने मदन गोपाल।।


लीलाधारी तेरी लीला।

जान सके न कोय।

योगी तेरा योग करे जब।

वो ही बिरला होय।।

तेरी माया जग भरमाये।

तू है दींन दयाल।।

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल।

नन्हे मुन्ने मदन गोपाल।।


दास विपुल अब चरण परे।

मायापति कुछ दया करे।।

मेरा लेखन लेख न जाने।

शब्दो का भंडार भरे।।

चरण पखारू प्रीतम तोरे।

कलुष ह्रदय संजाल।।

 

जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल।

नन्हे मुन्ने मदन गोपाल।।

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आफत पर्यावरण की

आफत पर्यावरण की 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,

 

 

उलीच ली नदियां। खोद लिए पहाड़।।

आत्मा को मारकर। सजा लिया हाड़।।

काट दिए  पेड़। ऊँन हेतु भेड़।।

पानी की चोरी । तोड़ डाली मेड़।।

पक्की सड़क । बड़ा सा मकान।।

प्यासी धरती । सूखे खलिहान।।

मरते है कुएं। ऊंची दुकान।।

हाथी को मारा। हाथी दांत पाया।

फिर बस उसी से। हाथी बनाया।।

बच्चों का खिलौना। उन्हें समझाया।।

कैसा यह खेल। विपुल समझ न आया।।

लालच की चाह। पात्र है खाली।।

अंडे का लालच। मुर्गी काट डाली।।

यही है उत्थान। नया है विज्ञान।।

हम तो है पुराने। नया युग महान।।


द्ण्ड, भूत और चर्चा

दण्ड,  भूत और चर्चा 

  सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bulle

👉👉शिव और उनके प्रतीक👈👈
👉👉रुद्राक्ष: रुद्र के आंसू👈👈


बुद्धि का अनावश्यक प्रदर्शन।
घर के बर्तन मांजने आये नहीं। सूक्ष्म का शोधन।


👉👉विवेक की व्याख्या👈👈
 

"विवेक का अर्थ है। ब्राह्मण हेतु कार्य करना"।
इसके सही अर्थ बताये।क्या यह वाक्य गलत है।
अधिकतर गलत ही बताएंगे??? समझेंगे ही नहीं। क्यों??????

 

कुण्डलनी जागरण मार्ग का पड़ाव होता है। किंतु बिना यह जागृत बने न तो आध्यात्म का और न ही योग का अनुभव होता है।
लक्ष्य तो अलक्ष्य को प्राप्त होना है।
इस विषय मैं कल रात्रि का स्वप्न ध्यान कुछ भी कहो, उसका जिक्र करूंगा।
स्वप्न में मैं देवी पूजन और आरती या भजन गा रहा था। मस्ती में झूम रहा था सभी लोग झूमकर नृत्य कर गान कर रहे थे।
अचानक मेरे मुख से कृष्ण राधे। राधे कृष्ण निकलने लगा जो बाद में राधे राधे होने लगा।
इसके अर्थ यह हुए कि राधे का माँ शक्ति काली से कुछ सम्बन्ध है।
सुबह गूगल गुरू सर्च किया। तो पता चला कि कृष्ण काली का अवतार और राधे शिव का अवतार हैं।
मतलब स्वप्न या ध्यान सही जानकारी दे गया। 
 


जय हो प्रभु। जय हो प्रभु। लीला अपरम्पार प्रभु।
तुझको समझा यह सोंचू मैं। यह भी तेरा उपकार प्रभु।


##गया के #आकाशगंगा पहाड़ पर एक ##परमहंस जी वास करते थे। एक दिन ##परमहंस जी के शिष्य ने एकादशी के दिन #निर्जला उपवास करके द्वादशी के दिन प्रातः उठकर फल्गु नदी में स्नान किया, #विष्णुपद का दर्शन करने में उन्हें थोड़ा विलम्ब हो गया। वे साथ में एक #गोपाल जी को सर्वदा ही रखते थे। द्वादशी के पारण का समय बीतता जा रहा था, देखकर वे अधीर हो गये एवं शीघ्र एक #हलवाई की दुकान में जाकर उन्होंने दुकानदार से कहा - 'पारण का समय निकला जा रहा है, मुझे कुछ मिठाई दे दो, गोपाल जी को भोग लगाकर मैं थोड़ा जल ग्रहण करुँगा।



       
#दुकानदार उनकी बात अनसुनी कर दी। #साधु के तीन - चार बार माँगने पर भी हाँ ना कुछ भी उत्तर नहीं मिलने से व्यग्र होकर एक बताशा लेने के लिए जैसे ही उन्होने हाथ बढ़ाया, दुकानदार और उसके #पुत्र ने साधु की खुब पिटाई की, निर्जला उपवास के कारण साधु दुर्बल थे, इस प्रकार के #प्रहार से वे सीधे गिर पड़े। रास्ते के लोगों ने बहुत प्रयास करके साधु की रक्षा की। साधु ने दुकानदार से एक शब्द भी नहीं कहा, ऊपर की ओर देखकर थोड़ा हँसते हुए प्रणाम करके कहा-भली रे दयालु गुरुजी, तेरी लीला। केवल इतना कहकर साधु पहाड़ की ओर चले गये।




   #गुरुदेव परमहंस जी पहाड़ पर ##समाधि में बैठे हुए थे, एकाएक #चौक उठे एवं चट्टान से नीचे कूदकर बड़ी तीव्र गति से गोदावरी नामक रास्ते की ओर चलने लगे। रास्ते में #शिष्य को देखकर परमहंस जी कहा 'क्यो रे बच्चा, क्या किया? शिष्य ने कहा, गुरुदेव मैने तो कुछ नहीं किया। परमहंस जी ने कहा' बहुत किया। तुमने बहुत बुरा काम किया। ##परमात्मा के ऊपर बिल्कुल छोड़ दिया। जाकर देखो, #परमात्मा ने उसका कैसा हाल किया। यह कहकर शिष्य को लेकर #परमहंस जी हलवाई की दुकान के पास जा पहुँचे। उन्होंने देखा हलवाई का #सर्वनाश हो गया है।




    ##साधु को पीटने के बाद, जलाने की लकड़ी लाने के लिए हलवाई का लड़का जैसे ही कोठरी में घुसा था उसी समय एक #काले नाग ने उसे डस लिया। हलवाई घी गर्म कर रहा था, सर्पदंश से मृत अपने पुत्र को देखने दौड़ा। उधर चूल्हे पर रखे घी के जलने से दुकान की फूस की छत पर आग लग गई।




        ##परमहंस जी ने देखा, लड़का रास्ते पर मृतवत पड़ा है, दुकान धू-धू करके जल रही है, रास्ते के लोग #हाहाकार कर रहे है। #भयानक दृश्य था। ##परमहंस जी शिष्य को लेकर पहाड़ पर आ गए। शिष्य को खूब फटकारते हुए कहा कि बिना अपराध के कोई अत्याचार करता है, तो क्रोध न आने पर भी साधु पुरुष को कम-से-कम एक गाली ही देकर आना चाहिए। #साधु के थोड़ा भी प्रतिकार करने से अत्याचारी की रक्षा हो जाती है, #परमात्मा के ऊपर सब भार छोड़ देने से #परमात्मा बहुत कठोर दंड देते हैं। #भगवान् का दंड बड़ा भयानक है।

 

क्या भूत प्रेत पिशाच दाकन सच मे होते है।

यह होते है। नकारात्मक ऊर्जा के कारण।
यदि मनुष्य दुर्बल मन का हो तो प्रभाव डाल सकते है।
यह सब सोंच से बनते है। कीड़ो की सोंच नही होती।
जैसा की सभी जानते है, भूत जिसको इतर योनि कहा जाता है, ये कई प्रकार के होते है । प्रेत , बेताल , पिशाच आदि । परंतु इस पोस्ट पर मे भूतो का वर्गीकरण अलग आधार पर करूँगा । इस वर्गीकरण मे इतर योनि की दो श्रेणियाँ ही है, जिसमे सभी प्रेत वर्ग सम्मिलित है ।


1) पहली श्रेणी के भूत वो इतर योनि है , जो कभी मनुष्य थी , पर मृत्यु उपरांत वो अपने कर्म या अतृप्त इच्छा के कारण प्रेत योनि मे आ जाती है , इनको भूत , प्रेत , चुड़ैल , ब्रहम राक्षस आदि कहा जाता है , यहा ये ज्ञात रखे की भूतो की इस श्रेणी की भी काफी sub श्रेणियाँ होती है , जैसे बडवा , कलवा , आदि , आजकल महेश भट्ट की हॉरर फिल्मो मे इन्हीं भूतो को आधार बनाया जाता है , इन भूतो की शक्ती सीमित होती है , ओर ज्यादातर तान्त्रिक इनको गुलाम बनाकर अच्छे बुरे काम लेते है , पर इस श्रेणी के भूत अपनी इच्छा पूरी होने पर या भोग कर्म समाप्त होने पर दुबारा जन्म ले लेते है ।

2) दुसरी श्रेणी के भूत वो इतर योनि है , जो कभी भी मनुष्य योनि मे नही थे, ये योनि इनकी parmanent योनि होती है , ये अलग लोक के वासी होते है , जैसे बेताल , पिशाच , ड़ाकिनी , शाकिनी , राक्षस , शैतान आदि ,शास्त्रो मे इनको मन्त्रो का अधिपति भी बोला
गया है , इनकी शक्ति ओर बल असीमित होता है , इनको सहज रूप से दुसरी इतर योनि की तरह गुलाम नही बनाया जा सकता , इनका साधक चमत्कारी कार्य कर सकता है , महाराजा विक्रम केवल ताल बेताल को प्रसन्न करके ही महान कार्य सम्पादित कर पाये थे , ऐसे ही ड़ाकिनी की शक्ति भी असीमित होती है , ये अपने साधक को अति विशिष्ट तंत्र मन्त्र का ज्ञान कराती है , जिसमे रूप परिवर्तन , परकाय प्रवेश विभिन्न लोको मे गमन प्रमुख है , ओर कुरान मे ज़िक्र है, शैतानो ने मुस्लिमो के अल्लाह को भी चुनौती दे दी थी । इस विशिष्ट इतर योनि को रामसे बंधुओ ने अपनी फिल्मो मे काफी प्रमुखता से स्थान दिया है , उनकी अधिकतर हॉरर फिल्मो के भूत विशिष्ट श्रेणी के ही अधिक देखने को मिले । इस श्रेणी की इतर योनि अमर होती है , ओर अधिकतर मन्त्र या बीज़ मन्त्र इनके द्वारा ही सम्पादित होते है , शास्त्रो मे इनको उपदेव का दर्ज़ा भी प्राप्त है ।
इतने प्रकार के होते हैं भूत-प्रेत आत्माएं।
भले ही विज्ञान भूत-प्रेतों की बातों पर विश्वास ना करें परन्तु ज्योतिष के मुताबिक भूत-प्रेत और आत्माएं होती हैं। तंत्र शास्त्रों के मुताबिक तो दुनिया में करीब 3० प्रकार की अनदेखी आत्माएं और भूत-प्रेत होते हैं। आइये जानते है इनके बारे में.
(1) भूत :- सामान्य भूत जिसके बारे में आप अक्सर सुनते हैं, इसके बारे में कुछ प्रमाण देते हैं तो कुछ को उपरी हवा बताते हैं।
(2) प्रेत : परिवार के सताए हुए बिना क्रियाकर्म के मरे हुए आदमी, जो पीडि़त होते हैं वे इस श्रेणी में आते हैं।
(3) हाडल : बिना नुक्सान पहुचाये प्रेतबाधित करने वाली आत्माएं।
(4) चेतकिन :- चुडैलें जो लोगो को प्रेतबाधित कर दुर्घटनाए करवाती है।
(5) मुमिई :- मुंबई के कुछ घरों में प्रचलित प्रेत, जो कभी कभी दिखाई देते है।
(6) मोहिनी या परेतिन : -प्यार में धोखा खाने वाली आत्माएं जिनसे मनुष्यों को मदद मिल सकती है।
(7) विरिकस:- घने लाल कोहरे में छिपी और अजीबो-गरीब आवाजे निकलने वाला होता है।
(8) डाकिनी :- मोहिनी और शाकिनी का मिला जुला रूप किन्ही कारणों से हुई मौत से बनी आत्मा होती है।
(9) शाकिनी:- शादी के कुछ दिनों बाद दुर्घटना से मरने वाली औरत की आत्मा जो कम खतरनाक होती है।
(10) कुट्टी चेतन :- बच्चे की आत्मा जिस पर तांत्रिको का नियंत्रण होता है।
(11) ब्रह्मोदोइत्यास :- बंगाल में प्रचलित, श्रापित ब्राह्मणों की आत्माए,जिन्होने धर्म का पालन ना किया हो।
(12) सकोंधोकतास :- बंगाल में प्रचलित रेल दुर्घटना में मरे लोगो की सर कटी आत्माए होती हैं।
(13) निशि :- बंगाल में प्रचलित अँधेरे में रास्ता दिखाने वाली आत्माएं।
(14) कोल्ली देवा :- कर्नाटक में प्रचलित जंगलों में हाथों में टोर्च लिए घूमती आत्माएं।
(15) कल्लुर्टी :-कर्नाटक में प्रचलित आधुनिक रीती रिवाजों से मरे लोगों की आत्माएं।
(16) किचचिन:- बिहार में प्रचलित हवस की भूखी आत्माएं।
(17) पनडुब्बा:- बिहार में प्रचलित नदी में डूबकर मरे लोगों की आत्माएं।
(18) चुड़ैल:- उत्तरी भारत में प्रचलित राहगीरों को मारकर बरगद के पेड़ पर लटकाने वाली आत्माएं।
(19) बुरा डंगोरिया :- आसाम में प्रचलित सफ़ेद कपडे और पगड़ी पहने घोड़े पसर सवार होने वाली आत्माएं।
(20) बाक :- आसाम में प्रचलित झीलों के पास घुमती हुई आत्माएं।
(21) खबीस:- पाकिस्तान, गल्फ देशों और यूरोप में प्रचलित जिन्न परिवार से ताल्लुक रखने वाली आत्माएं।
(22) घोडा पाक :- आसाम में प्रचलित घोड़े के खुर जैसे पैर बाकी मनुष्य जैसे दिखाई देने वाली आत्माएं।
(23) बीरा :- आसाम में प्रचलित परिवार को खो देने वाली आत्माएं।
(24) जोखिनी :-आसाम में प्रचलित पुरुषों को मारने वाली आत्माएं।
(25) पुवाली भूत :-आसाम में प्रचलित छोटे घर के सामनों को चुराने वाली आत्माएं।
(26) रक्सा :- छतीसगढ़ मे प्रचलित कुंवारे मरने वालों की खतरनाक आत्माएं।
(27) मसान:- छतीसगढ़ की प्रचलित पांच छह सौ साल पुरानी प्रेत आत्मा नरबलि लेते हैँ, जिस घर मेँ निवास करे। ये पूरे परिवार को धीरे धीरे मार डालते है।
(28) चटिया मटिया :- छतीसगढ़ मेँ प्रचलित बौने भूत जो बचपन मेँ खत्म हो जाते हैँ वो बनते हैँ बच्चो को नुकसान नहीँ पहुँचाते। आंखे बल्ब की तरह हाथ पैर उल्टे काले रंग के मक्खी के स्पीड में भागने वाले चोरी करने वाली आत्माएं।
(29) बैताल:- पीपल पेड़ मेँ निवास करते हैँ एकदम सफेद रंग वाले ,सबसे खतरनाक आत्माएं।
(30) गरूवा परेत:- बीमारी या ट्रेन से कटकर मरने वाले गांयों और बैलों की आत्मा जो कुछ समय के लिए सिर कटे रूप मेँ घुमते दिखतेँ हैँ। ये नुकसान नही पहुचाते। छतीसगढ में प्रचलित है।

 

 
ब्रह्म का दास बनकर ही उचित मार्ग है।
वेदों की वाणी और निर्माण का एकमात्र उद्देश्य है कि तुम जान सको कि तुम ही ब्रह्म हो। इसी हेतु वेद महावाक्यों का जन्म हुआ। क्योकि ब्रह्म का अंतिम रूप निराकार सगुण निर्गुण ब्रह्म ही है।
इसी को समझाते हुए उपनिषद भी रचे गए। और सर्व खलु मिदम ब्रह्म सार वाक्य बना।
इसी बात को और अधिक तरीके से योग को समझाते हुए षट दर्शन बने। जिसमे अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रयास हुए।
इसी को गीता ने संक्षेप में समझाया। फिर तुलसीदास ने साकार के उदाहरण देते हुए व्याख्या की।
कुल मिलाकर मनुष्य का जन्म अपने को जानने हेतु ही हुआ है।
यह सभी शक्तियां शिव के ही अधीन होती है। शिव यानि गुरू। शिव इनको कैसे भी नचा सकता है। अतः शिव की बारात। यानि गुरू तत्व जब शक्ति से मिलता है तो सभी शक्तियां प्रसन्न होती है और अपनी उपस्थिति का एहसास कराती है।
क्योकि गुरू शक्ति यानि शिव शक्ति ही उनको मुक्ति दिला सकती है।
सब एक ही ऊर्जा के विभिन्न रूप है किंतु स्वयं कोई भी अपनी पूजा हेतु नहीं कहता है। कृष्ण ने समझाने हेतु अर्जुन को यह वाक्य कहा। क्योकि उस समय कृष्ण अहम ब्रह्मास्मि के भाव मे थे।
कृष्ण को अन्य ने कहा किंतु कृष्ण ने कभी ऐसा नही कहा।
कृष्ण ने भी किंतने गुरु से दीक्षाले थी।

 

 
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साथ ही एक स्वप्न जो बचपन से देखता रहा हूँ वह भी बताना चाहता हूँ।
मेरी इच्छा रही है कि माँ शक्ति का एक सुंदर मन्दिर बनवाऊँ जो जगत निराला हो।
उसकी कल्पना इस प्रकार है।
बीच मे 50 फुट या अधिक ऊंची तीन मूर्तिया जो पीठ से सटी हो। जो माँ सरस्वती महा लक्ष्मी और महाकाली की हो।
उनके सामने गोलाई में नव दुर्गा की 6 फीट की मूतियां जो इन तीनो को घेरे हो।
कुछ इस तरह का निर्माण हो।
कल्पना में जब इनकी आरती एक साथ 12 लोग घूमते हुए करें। तो कितना मनोरम दृश्य होगा।
मेरे पास तो न जमीन है और न इतना धन। सब कुछ बेच कर भी यह कल्पना साकार नहीं हो सकती।
किंतु आपसे शेयर करता हूँ। शायद आप महात्मा लोगोँ का आशीर्वाद मिल जाये और यह स्वप्न साकार हो।
मैं भाग्यशाली होऊंगा यदि नेत्र बन्द होने के पूर्व यह कल्पना साकार होते देख सकूँ। कोई भी इस तरह का मंदिर देश में नहीं है किंतु यदि कोई बनवाये तो दर्शन कर सकूं।
जय माँ। जय गुरुदेव। आपका ही सहारा।

 

 
अपनी फोटो के मोह से निकल नहीं पाए। बिना यह त्यागे कैसे आगे बढोगे। ?????
मित्र क्षमा की कोई बात नहीं। तुमको इसलिए टोका क्योकि तुम एक अच्छे साधक हो।

 

 
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मन्त्र जप एक तरीका है। जब हमारा तन मन सब मन्त्र जप में लीन हो जाता है। हम देह भान भूल जाते है। हमारा सब कुछ मन्त्र में लीन होने लगता है। तब मन्त्र अपने इष्ट को हमारे सामने प्रकट कर देता है।
तीव्र प्रकाश के साथ हमें अपने इष्ट के साक्षात दर्शन हो जाते है। हमारा इष्ट हमसे बात भी करता है। इसी के साथ कुण्डलनी भी स्वतः खुल सकती है यदि हमें इष्ट स्पर्श कर देता है और हम क्रिया का आनन्द लेने लगते है।
यह कथा यहीं खत्म नहीं होती। इष्ट हमें खुले नेत्रों और इंन्द्रियों से अहम ब्रह्मास्मि की अनुभूति भी करा सकता है। बशर्ते हम दुकान न खोले। कोई लालसा न करें।
यह बात स्वयम मेरे अनुभव की है। आप यकीन करें या न करें।
जिस क्षण आप अपना सब कुछ प्रभु में विलीन कर दो। प्रभु उसी क्षण आपके मन्त्र का इष्ट बनकर सामने आएगा। लेकिन आप न किसी पर यकीन करते है और न खुद कुछ करते है। आपको यकीन दिलाने हेतु इतनी शक्तिशाली ध्यान विधि mnstm का निर्माण स्वयं कृष्ण और काली ने करवाया। जिसके कारण आपको सनातन की शक्ति का एहसास मात्र कुछ दिनों में हो जाता है। लेकिन आप को तो झूठी वाह वाही चाहिए। अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर गुरू की सन्यासी बनने की लालसा ही मोहित करती है।
एक बार प्रभु को को समर्पित होकर देखो। तब मालूम होगा वह अपने दासों की रक्षा किस प्रकार करता है।
कभी किसी भी प्राप्ति हेतु जिद्द न करो। जैसे अनिल करता था। यह जिद्द मात्र उपहास का कारण बनकर दुख ही देगी।

 

 
सिरफ और सिर्फ प्रभु स्मरण और समर्पण करो। है प्रभु तेरी इच्छा मेरी इच्छा। मुझे यदि मृत्यु देना तो अपने चरणों मे ही जगह देना। मुझे जगत का कुछ नहीँ चाहिए। यदी च्चाहिये तो सिर्फ तू ही तू।
अपने एक गुरु भाई हैं। अच्छे साधक है। सूक्ष्म तक की यात्रा करते है। किंतु सन्यासी बनने की तमन्ना रखते है। बस यही तमन्ना उनको ऊपर नहीं उठने देगी।
सवाल यह है कि सन्यासी क्यों बनना चाहते हो। ताकि लोग तुम्हे प्रणाम करें आदर दें। जिससे हमारा अहम पोषित हो।
मैं बिल्कुल सन्यासी बनना नहीं चाहता। पिछले दिनों मुझे स्वप्न में भगवा रंग दिखने लगा मैं डर गया कि कहीं प्रभु मुझे सन्यास की भट्टी में न झोंक दे।
मैं अपनी परम्परा के एक गुरू के पास गया उनको स्वप्न बता कर प्रार्थना की कि बड़े महाराज से विनती करें। मुझे सन्यासी या गुरू बिल्कुल नहीं बनना है। एक सेवक हूँ मुझे वो ही रहना है।
लोगो को पता नहीं सन्यासी या गुरू का जीवन कितना कष्टप्रद होता है। वे या नकली सन्यासी को देखते है या सम्मान को देखकर आकर्षित होते है।
सदगुरू और वास्तविक सन्यासी का जीवन बेहद दुरूह और कष्टप्रद होता है। मुझे उनकी पीड़ाओं का अनुभव होता है।
मंत्रो के परिशुद्ध ज्ञान को समझने के लिए मंत्रो की किस पुस्तको का अध्ययन करना चाइये किस publisher की कृपा मार्गदर्शन करें sir ji
अध्य्यन नहीं मनन करो। यही मन्त्र परिपक्व होकर सब ज्ञान स्वतः दे देता है।
जो आपका इष्ट हो उसका मन्त्र।
एक साधे सब सधे। सब साधे सब खोय।।
जो इष्ट आपको संकट में याद आये वह इष्ट है।
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा॥
यह बात इतनी सत्य है। जितना सूर्य की परिक्रमा धरती करती है। और गर्मी के बाद वर्षा आती है।
मित्रो मैं देखता हूँ कि कुछ ग्रुप के मित्र ग्रुप में नही तो फेस बुक पर मुँह बना बना कर फोटो डालते रहते है  मैं उनसे पूछना चाहता हूँ उनको इससे क्या मिलता है।
अपनी फोटो खुद बे वजह डालना क्या आत्म श्लाघा या सूक्ष्म रूप में अहंकार नहीं है।
अब आप कहेंगे आप भी लेख में डालते है। जी बिल्कुल सही यह 10 साल पुरानी घटिया फोटो सिर्फ परिचय हेतु होती है ताकि लोग पहचान सके। प्रचार होगा तो शायद सनातन की सेवा भी अधिक हो सके। और शायद लेख कविता चोरी न हो।
किंतु इससे मुझे तनिक लगाव नहीं। किसी की सलाह पर पुरानी फोटो डाल देता हूँ कभी कभी।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

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