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Tuesday, September 3, 2019
गुरूद्वारा मे सर पर कपड़ा से सिर क्यो ढाँकते हैं???
गुरूद्वारा मे सर पर कपड़ा से सिर क्यो ढाँकते हैं???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
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आज गुरूद्वारा जाना पड़ा। सर पर रूमाल बांधना सीखाया गया।
कोई यह बताये सर पर कपड़ा से सिर क्यो ढाँकते हैं।
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सिखी धर्म में पांच क का बड़ा महत्व है। केश, कंघा, कृपाण कच्छा और कड़ा। जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी का आदेश माना जाता है और हर सिख इसका सख्ती और श्रद्धा से पालन करता है। केश अति पवित्र मने जाते है, इसलिये इनको बांध के सुसज्जित रखना आस्था और पवित्रता को दर्शाते हैं और खुले केश विनाश और अपिवत्र्ता को दर्शाते हैं इसलिये सर ढक कर रखा जाता है। सर ढकना हिंदुओ में भी अति शुभ माना जाता है
यह कारण तो युद्ध मे सर बचाने हेतु पगड़ी बांधना है।
पर सिर ढांकना क्यो।
ऊर्जा का संचार नीचे से ऊपर की तरफ होता है और सिद्ध स्थानों पर ऊजा उरधवगामी हो जाती है और कपड़ा या पगड़ी लगाने से विकीरण नहीं होता है और इसका अनुभव ध्यान में भी सिर में पगड़ी या कपड़ा लगाकर कर सकते हैं।। सिर पर बालो को लम्बे रखने के पीछे विज्ञान है और आजकल इसे धर्म से जोड़ दिया गया है।।जय गुरुदेव👏🙏🏻🌹😊
चलो यह वैज्ञानिक पहलू हो सकता है पर आध्यात्मिक क्या।
यदि कपड़ा होगा तो सिर पर आशीष रूप में ऊर्जा अंदर भी नहीं जाएगी। क्योकि सिर चरणों मे रखते हो।
यह व्याख्या गूगल गुरू नहीं बता पाया। जो मेरे आत्म गुरू ने समझाई
एक हिंट है। मनुष्य के सर पर प्रायः कपड़ा सिर पर कब रखा जाता है।
जब हमारी अंतिम विदाई होती है तो कफ़न डाला जाता है।
यह सर ढांकना उसी का प्रतीक है।
है गुरूदेव, प्रभु, इष्ट हम आपके सामने अपने मस्तिष्क में व्याप्त मन बुद्धि अहंकार को नष्ट कर कफ़न पहनाकर आपकी शरण मे आएं है।
कारण
पांच स्थूल तत्व है तीन सूक्ष्म है वो मन बुद्धि और अहंकार है जो ईश प्राप्ति और समर्पण हेतु सबसे बड़ी बाधा है।
गुरू या देव तक पहुँचने हेतु इनको दफनाना आवश्यक है।
अतः यह अर्थ ही होंगे। यह मेरे आत्म गुरू की व्याख्या है।
वैसे अन्य कारण
मुस्लिम के अनुसार शैतान टीप न लगाएं।
हिन्दू सम्मान का प्रतीक
सिख गुरू ने कहा बस मानो।
शक्तिपात के अनुसार जहाँ शक्ति होती है वहाँ अपनी कुण्डलनी ऊपर चढ़ने के प्रयास करती है। सर पर ठंड इत्यादि न लगे। इन्सुलेशन रहे वातावरण से। ऊर्जा बाहर न निकले।
करत करत अभ्यास संग, जड़मति होत सुजान।
तेर ग्यारह पाई ले, दोहा उसको मान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।
ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
ग्यारह तेरहा मात्रा लेकर, काव्य रूप को मैं ही भानू।
छंद बना के सोलह का, गायन गात गान।
होंठ हिलाकर जाप जो, मध्यमा कहलाये।
मुख निकले आवाज जो, वैखर गुण समाये।
मन सोंचे जो जाप हो, पश्यन्ति श्रेणी जाप।
अंग फड़क संग जप कर, परा ही कहे आप।
काला कहे कान्हा को, जो परकाश अपार।
धुंधला शीशा साफ कर, फिर देखे उजियार।।
अष्ट प्राप्ति की चेश्टा, जन्म अष्टमी होये।
जब तन डोले जगत में, मन कृष्ण को खोये।।
भक्ति बने जो बांकुरा, जामे लूटन चाह।
ककंर पग में जो लगे, नही पर्व कुछ आह।।
मार्ग अनेको ईश के, मूरख एक बताय।
सगुण निर्गुण बहस में, जीवन व्यर्थ गवाय।।
मार्ग सभी मिल जायेंगे, चले कदम उस ओर।
सत्य सनातन विश्व में, है अंतिम ही ठौर।।
वेद उपनिषद वाणी है, अंतिम ईश का ज्ञान।
मूरख सर को फोड़ता, शब्द ज्ञान कर भान।।
आओ मैं दिखलाता हूँ, ईश है सबका बाप।
समय तुम्हें देना पड़े, वरना करो संताप।।
बात किताबी ज्ञान धर, ज्ञानी बने अनेक।
मनमिठ्ठू ऐसे जगत, पर न ज्ञानी एक।।
कलियुग की यही मार है, ज्ञानी सब बन जाय।
दूजे को समझा रहे, सदगुरू ज्यों समझाय।।
क्या खोया क्या पाया जग में
सार छोड धन पाया जग में
सारा समय व्यर्थ गंवाया।
सोंचे न क्यों आया जग में।।
एक अचंभा देख कर, विपुल हुआ हैरान।
कैसे गुरू बन जाऊं मैं, खोलूं धरम दुकान।।
हाथ पांव यदि मोड़ना, कहीं योग बन जाय।
सरकस का जोकर कहो, महायोगी कहाय।।
जब तलक न अनुभव करो, महावाक्य जो वेद।
नहीं समझ में आयेगा, योगी योग भेद।।
मारग इतने देखकर, मनवा है बेचैन।
भटक भटक कर भटक गये, मिले कहीं न चैन।।
अपना अपना राग है, ढफली बजती साथ।
देख दुकान ऊंची मिली, करें सभी फरियाद।।
मूरख देखे अलग सब, निराकार चिल्लाये।
रहे साकार जगत में, किंतु समझ न आये।।
एक कहे साकार वो, दूजा कह निराकार।
दोनो मूरख जगत हैं, सर्व रूप वो धार।।
पुत्र सनातन सत्य मैं, विपुल नाम यह शरीर।
आओ मैं दिखाता क्या, ईश रूप तहरीर।।
गुरू नहीं न सन्यासी मैं, किंतु पथ दिखलाऊँ।
जिसको ईश प्रेम की चाह, सदगुरू तक पहुँचाऊँ।।
अहंकार यह बोलता, अहंकार मुझ ज्ञान।
अहंकार से दूर मैं, तनिक अहं न भान।।
पहले अनुभव ही करे, पाछे ईश को मान।
सत्य सनातन शक्ति क्या, इसका कर तू ज्ञान।।
खुली चुनौती नास्तिक को, करे जो बोलूं मान।
ईश तो जग का बाप है, मूरख कर यह भान।।
धन तुझसे माँगू नहीं, घर में कर तू ध्यान।
ईश की शक्ति बानगी, तुझको होवे ज्ञान।।
प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।
ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
ग्यारह तेरहा मात्रा लेकर, काव्य रूप को मैं ही भानू।
छंद बना के सोलह का, गायन गात गान।
होंठ हिलाकर जाप जो, मध्यमा कहलाये।
मुख निकले आवाज जो, वैखर गुण समाये।
मन सोंचे जो जाप हो, पश्यन्ति श्रेणी जाप।
अंग फड़क संग जप कर, परा ही कहे आप।
काला कहे कान्हा को, जो परकाश अपार।
धुंधला शीशा साफ कर, फिर देखे उजियार।।
🖕👏
अष्ट प्राप्ति की चेश्टा, जन्म अष्टमी होये।
जब तन डोले जगत में, मन कृष्ण को खोये।।
भक्ति बने जो बांकुरा, जामे लूटन चाह।
ककंर पग में जो लगे, नही पर्व कुछ आह।।
मार्ग अनेको ईश के, मूरख एक बताय।
सगुण निर्गुण बहस में, जीवन व्यर्थ गवाय।।
मार्ग सभी मिल जायेंगे, चले कदम उस ओर।
सत्य सनातन विश्व में, है अंतिम ही ठौर।।
वेद उपनिषद वाणी है, अंतिम ईश का ज्ञान।
मूरख सर को फोड़ता, शब्द ज्ञान कर भान।।
आओ मैं दिखलाता हूँ, ईश है सबका बाप।
समय तुम्हें देना पड़े, वरना करो संताप।।
मेरा बोलना आत्म श्लाघा होगी।
नहीं कोई आवश्यक नहीं। तुम साधन करते हो साधना नहीं।
बात किताबी ज्ञान धर, ज्ञानी बने अनेक।
मनमिठ्ठू ऐसे जगत, पर न ज्ञानी एक।।
क्या खोया क्या पाया जग में
सार छोड धन पाया जग में
कलियुग की यही मार है, ज्ञानी सब बन जाय।
दूजे को समझा रहे, सदगुरू ज्यों समझाय।।
सारा समय व्यर्थ गंवाया।
सोंचे न क्यों आया जग में।।
एक अचंभा देख कर, विपुल हुआ हैरान।
कैसे गुरू बन जाऊं मैं, खोलूं धरम दुकान।।
तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक है। किंतु यह फेस बुक पर चर्चा कर रहे थे।
फिर दूसरी बात हो सकता है दूसरे को ईश प्रेम का प्याला पीता देखकर इनको भी प्यास लग जाये।
तीसरी बात यदि कोई छद्म भेष घर ग्रुप में आये तो भी मैं अपना सदकर्म कर रहा हूँ। पापी का पाप उसके साथ।
मैं निर्मल निष्काम भाव से सनातन का प्रचार कर रहा हूँ।
🙏🙏🌹🌹🙏🙏
तुम्हारी चिंता जायज है। कुछ लोग दसियों सिम से बार बार प्रवेश करता है। यह पाप उसके नाम। अपनी पहिचान छिपाना पाप ही है। पर वह ज्ञानी बन उपदेश झाड़ता है। इसमें मुझे क्या प्रभाव।
देखो उसके प्रश्नो के द्वारा औरो की भी जिज्ञासा शांत होती होगी।
कभी नेगेटिव न सोंचो। कल किसी के साथ उसकी निंदा के कारण किंतने दोहे बन गए थे।
🙏🙏🙏😁😁😁
हाथ पांव यदि मोड़ना, कहीं योग बन जाय।
सरकस का जोकर कहो, महायोगी कहाय।।
जब तलक न अनुभव करो, महावाक्य जो वेद।
नहीं समझ में आयेगा, योगी योग भेद।।
मारग इतने देखकर, मनवा है बेचैन।
भटक भटक कर भटक गये, मिले कहीं न चैन।।
अपना अपना राग है, ढफली बजती साथ।
देख दुकान ऊंची मिली, करें सभी फरियाद।।
मूरख देखे अलग सब, निराकार चिल्लाये।
रहे साकार जगत में, किंतु समझ न आये।।
निराकार जो रूप है अंतिम उसको जान।
शिव काली त्रिदेव संग, करूँ जगत परनाम।।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.htmlMonday, September 2, 2019
क्यों होता है पुनर्जन्म
क्यों होता है पुनर्जन्म
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
हिन्दु धर्म में पुनर्जन्म को सत्य माना गया है। हिन्दु धर्म के अनुसार आत्मा कैसे जन्म लेती है इसके बारे में भी स्पष्ट तरीके से बताया गया है। हिन्दु धर्म में कौन-सी आत्मा भटकती है और फिर कब जन्म लेती है इसके बारे में भी विस्तार से बताया गया है। यह भी कि कौन-सी आत्मा कुछ काल तक पितृलोक, स्वर्गलोक, नरक लोग आदि लोकों में रहकर पुन:कब धरती पर लौटेगी। शास्त्रों के अनुसार आत्मा तब पुनर्जन्म लेती है।
-जब कभी-भी किसी की धोके से मृत्यु की जाती है या दुश्मनी के लिए किसी मारा जाता है तो आत्मा बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेती है।
- कभी-कभी किसी व्यक्ति द्वारा अत्यधिक पुण्य कर्म किए जाते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है, तब उन पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा पुन: जन्म लेती है।
- अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिए।
-जब किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है तो आत्मा पुनर्जन्म लेती है।
- भगवान किसी विशेष कार्य के लिए महात्माओं और दिव्य पुरुषों की आत्माओं को पुन: जन्म लेने की आज्ञा देते हैं।
- बदला चुकाने के लिए।
- संसार में किए गए पुण्य कर्म के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा स्वर्ग में सुख भोगती है और जब तक पुण्य कर्मों का प्रभाव रहता है, वह आत्मा दैवीय सुख प्राप्त करती है। जब पुण्य कर्मों का प्रभाव खत्म हो जाता है।
मृत्यु के बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। वैसे इस विषय में कुछ महापुरूषों को सीद्ध होकर स्थूल शरीर त्याग कर सूक्ष्म या कारन शरीर में रहते है जैसे स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज, महाअवतार बाबा, लाहिडी महाशय या महऋषि अमर जैसे बिरले जो ईश से सायुज्यता ही प्राप्त कर लेतए हैं। किंतु वे बोल्ते नहीं सब ईश को समर्पित कर देते हैं।
वैसे कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-
तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम् उपसँहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।। – बृ. ४.४.३
जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है।
यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।
आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।
मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है।
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। – बृ. उ.४.४.१
अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।
एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। – बृ.उ. ४.४.२
अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि।
इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है।
इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।
इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।
इसका उत्तर है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है- असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। – यजु. ४०.३
इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं।
एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।
इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।
वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।
जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।
मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है।
मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं।
अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग कहते हैं, 'नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?
यदि आप यह महसूस करते हो कि मेरा अस्तित्व है तो खुद से कभी यह सवाल भी पूछा होगा कि मरने के बाद व्यक्ति या आत्मा को कब मिलता है दूसरा जन्म या दूसरा शरीर? वेद और पुराणों में इस संबंध में भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलता है। वेदों के तत्वज्ञान को उपनिषद या वेदांत कहते हैं और गीता उपनिषदों का सारतत्व है।
उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।
यदि वह प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।
पंचकोष, तीन प्रमुख शरीर और चेतना के चार स्तर :
पहले खुद की स्थिति को समझेंगे तो स्वत: ही खुद की स्थिति का ज्ञान होने लगेगा। यह आत्मा पंचकोष में रहती है और 4 तरह के स्तरों या प्रभावों में जीती है।
पंचकोष : 1. जड़, 2. प्राण, 3. मन, 4. बुद्धि और 5. आनंद।
आपको अपने शरीर की स्थिति का ज्ञान है? इसे जड़ जगत का हिस्सा माना जाता है अर्थात जो दिखाई दे रहा है, ठोस है। ...आपके भीतर जो श्वास और प्रश्वास प्रवाहित हो रही है इसे रोक देने से यह शरीर नहीं चल सकता। इसे ही प्राण कहते हैं। शरीर और प्राण के ऊपर मन है। पांचों इन्द्रियों से आपको जो दिखाई, सुनाई दे रहा या महसूस हो रहा है उसका प्रभाव मन पर पड़ता है और मन से आप सुखी या दुखी होते हैं। मन से आप सोचते हैं और समझते हैं। मन है ऐसा आप महसूस कर सकते हैं, लेकिन बुद्धि है ऐसा बहुत कम ही लोग महसूस करते हैं और जब व्यक्ति की चेतना इन सभी से ऊपर उठ जाती है तो वह आनंदमय कोष में स्थित हो जाती है।
चेतना के 4 स्तर : 1. जाग्रत, 2. स्वप्न, 3. सुषुप्ति और 4. तुरीय।
छांदोग्य उपनिषद के अनुसार व्यक्ति के होश के 4 स्तर हैं। पहले 3 प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथा स्तर प्रयासों से प्राप्त होता है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं। आप इन 3 के अलावा किसी अन्य तरह के अनुभव को नहीं जानते। इसी में जीते और मरते हैं। इन स्तरों की स्थिति से आपकी गति तय होती है।
सिद्ध संत कहते हैं कि मरने के
उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में
रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल
होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में
रुचि लेते हुए देखा गया है।
उनका मानना है कि मरणोपरांत की थकान
दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए
उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह
समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं
अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व
का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती
हैं।
पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण
में बीता है। वे स्वभावत: सेवा व सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित
शक्ति अपनों-परायों को यथासंभव सहायता पहुंचाती रहती है, इसके लिए विशेष
अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमंदों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता
है। कितनी ही घटनाएं ऐसी सामने आती रहती हैं जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय
में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें
उबारा।
बृहदारण्यक उपनिषद में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का
वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय
लगता है, इस विषय में उपनिषद कहते हैं कि कभी-कभी तो बहुत ही कम समय लगता
है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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Monday, August 26, 2019
आरती का पूजा में महत्व व प्रकार
आरती का पूजा में महत्व व प्रकार
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
आरती का भगवान की पूजा में बहुत महत्त्व होता है। पूजा की समाप्ति पर इन्हे गाने से पूजा में अज्ञानवश या असावधानी से यदि कोई भी त्रुटी रह जाती है तो उसकी पूर्ति जाती है।
पुराणों में कहा गया है की जो प्राणी धूप आरती दोनों हाथों से श्रद्धा पूर्वक लेता है वह अपनी करोड़ो पीढ़ियों का उद्धार कर लेता है और विष्णु लोक में परम पद को प्राप्त होता है।
इसके अलावा आरती के लिए जलाये जाने वाले घी , कपूर आदि से वातावरण शुद्ध होता है। कई प्रकार के नुकसान देह कीटाणु आदि इससे नष्ट होते है। वातावरण में एक पॉज़िटिव एनर्जी का संचार होता है। आरती करने और गाने से मन प्रसन्न होता है अतः सभी को बहुत अच्छा लगता है ।
आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।
सामान्यतः पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।
आरती के लिए कैसा दीपक लेना चाहिए , दीपक मे कितनी बत्तियां होनी चाहिए , कपूर से करें या घी के दीपक से , दीपक को कितनी बार घुमाएँ , इष्ट देव के किस अंग की और करके घुमाएँ इत्यादि पर संशय बना रहता है। और मन में संशय रहता है कि पता नहीं आरती सही तरीके से हुई या नहीं।
आजकल एकल परिवार के कारण आरती के बोल आरती लय भी पता नहीं होती कैसे गाते हैं। वैसे ओम जय जगदीश हरे आरती सबसे अधिक गाई जाती है।
आरती अपने इष्ट देव की प्रतिमा के चारों ओर घी का दीपक , कपूर , धूप ,अगरबत्ती आदि को जलाकर उसे घूमाते हुए की जाती है। कृष्ण भगवान की आरती के समय घी का दीपक होना चाहिए। घर में एक बत्ती के दीपक से आरती की जाती है। अपनी श्रद्धा के अनुसार आरति करने के लिए दीपक , कपूर या अगरबत्ती आदि ले सकते हैं।
आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं।
आरती पांच प्रकार से की जाती है।
पहली दीपमाला से,
दूसरी जल से भरे शंख से,
तीसरी धुले हुए वस्त्र से,
चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से
और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से।
पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।
मंदिरों में पांच बत्ती , सात बत्ती या ग्यारह बत्ती वाला दीपक जलाकर आरति की जाती है। घर पर एक बत्ती वाले दीपक से आरती की जाती है।
यदि आप एक से अधिक बत्ती वाले दीपक से आरती करना चाहते है तो विषम संख्या में बत्ती होनी चाहिए , उनमे भी तीन , नौ व तेरह बत्ती नहीं होने चाहिए। पांच , सात , ग्यारह , इक्कीस संख्या शुभ होती है।
पहले दीपक को चार बार इष्ट देव के चरणों की तरफ घुमाएँ ,
फिर दीपक को दो बार इष्ट देव की नाभि की ओर करके घुमाएँ ,
इसके बाद एक बार इष्ट देव के मुख मंडल की ओर करके घुमाएँ ,
फिर एक बार इष्ट देव के चारों ओर घुमाएं ।
इस तरह सात बार दीपक को घूमाना चाहिए ।
आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता हैआरती पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ करनी चाहिए। ताली , घंटी , मंजीरे आदि बजाने से इष्ट देव में ध्यान अच्छे से लगता है और आरति का आनंद मिलता है।
घंटी अपनी श्रद्धा के अनुसार सोने , चाँदी की या पीतल की ले सकते है । घंटी से मधुर ध्वनी निकालनी चाहिए। आरती में परिवार के सभी लोगों को इकठ्ठा होना चाहिए । इससे परिवार में प्रेम बढ़ता है और ईश्वर की कृपा पूरे परिवार पर बनी रहती है।
आरती का थाल धातु का बना होता है, जो प्रायः पीतल, तांबा, चांदी या सोना का हो सकता है। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या 101 भी हो सकती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।
आरती पूरी होने के बाद दो तीन बार इष्ट देव का जयकारा करना चाहिए। इसके बाद सभी को दीपक की लौ के ऊपर दोनों हाथ श्रद्धा पूर्वक फेरकर अपने सिर ,आँख और मुँह पर फेरना चाहिए। इससे सारे शरीर की शुद्धि हो जाती है।
अंत में इष्ट को दंडवत प्रणाम कर विनती करनी चाहिये।
पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
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“bullet"
कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं। मैं पूरी कथा न लिखूंगा आप नेट पर पढ लें। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा था “राजन जितना पैर घोडे की एक रकाब पर एक पैर रखकर दूसरा पैर दूसरे रकाब पर रखने में लगता है। ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करनें में सिर्फ इतना ही समय लगता है”। बाद में उन्होने राजा जनक को शक्तिपात दीक्षा दी थी। पर दक्षिणा पहले ही मांग ली। जनक के बोलने पर अष्टावक्र ने कहा “राजन ब्रह्म ज्ञान होने के बाद तुम मुझमें और अपने में भेद न कर पाओगे तो कौन किसको देगा और कौन किससे लेगा। अत: तुम फिर दक्षिणा न दे पाओगे”।
शक्तिपात एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में संचरित करता है ताकि उसकी सुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण हो जाए अथवा उसकी बुद्धि अतीन्द्रिय विषय को समझ सके। गुरु कृपा शक्तिपात गुरु कृपा पर निर्भर करती है। सद्गुरु सर्वतत्त्व वेत्ता और अध्यात्म विद्या के जानने वाले होते हैं। ‘मालिनी विजय’ में भी कहा है- स गुरुमंत्समः प्रोक्तो मंत्रवीर्य प्रकाशकः। अर्थात् वही गुरु मेरे समान कहा गया है जो तंत्रों के वीर्य का प्रकाश करने वाला हो। सिद्धि प्राप्त करने के लिए शक्तिपात आवश्यक माना गया है जिसके लिए गुरु ही एकमात्र साधन है। शक्तिपात के न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती।
आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें।
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।
व
षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।
व
ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।
बात
सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी
को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत:
क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर
बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत:
निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने
लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।
सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं– “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।
‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं । श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं।
तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥
“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया । ” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।
‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। ) ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।
शक्तिपात होने पर शिष्य में जो बाहरी और आन्तरिक लक्षण (विशेषताऐं) उत्पन्न हो जाते हैं उनका विवरण शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है। वे सब कुण्डलनी जागरण के बाद ही होते हैं।
''देहपात: तथा कम्प:-परमानन्द हर्षणे। स्वेदो, रोमांच इत्येत-शक्तिपातस्य लक्षणम्'' । ''प्रहर्ष: स्वरनेत्रांग विक्रिया कम्पनं तथा स्तोम: शरीरपातश्च भ्रमणं चोदगतिस्तथा। अदर्शनं च देहस्य........निग्रहानुग्रहे शक्ति:''। ''शिष्यस्य देहे विप्रेन्द्रा-धरिण्यां पतते सति प्रसाद: शंकरस्तस्य-द्विजा संजात एव हि''॥
अर्थात् शक्तिपात होने से शिष्य का देहपात (शरीर का भूमि पर गिरना) होता है। शरीर में कम्पन्न उत्पन्न होता है। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने से शिष्य जोर-जोर से हॅंसने लगता है। शरीर का रोमांचित होना तथा पसीना होना भी शक्तिपात का ही लक्षण है। इसके अतिरिक्त निद्रा आना, मूर्छित हो जाना तथा दिमाग का घूमना भी शक्तिपात हो जाने के ही लक्षण होते हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सूतसंहिता'' के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में अनेकों लक्षणों का विवरण दिया गया है।
इन सभी लक्षणों में महत्वपूर्ण लक्षण है 'देहपात होना' अर्थात् शक्तिपात होते ही शिष्य का शरीर तत्क्षण भूमि पर गिर जाता है और वह निर्वाध गति से भूमि पर दीर्घकाल तक चक्कर काटता रहता है। इसका महत्व बताते हुए शास्त्र कहता है-
अर्थात् जब शिष्य का शरीर धरती पर गिरता है तो इसे भगवान शंकर की कृपा समझना चाहिए। ऐसा शिष्य श्री गुरूकृपा से कृतार्थ हो जाता है तथा उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
''तस्य प्रसाद युक्तस्य........तम: सूर्योदयो यथा''
इस प्रकार शक्तिपात प्राप्त सत्शिष्य की समस्त-अविद्याऐं उसी प्रकार भस्म हो जाती है जैसे सूर्योदय हो जाने पर समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।
इस विषय पर पूज्यपाद वामनदत्तात्रेय गुलवणी महाराज (महाराष्ट्र-पुणे निवासी) शक्तिपात के पश्चात शिष्य में उत्पन्न होने वाले विभिन्न लक्षणों का विवरण अपने अद्वितीय लेख 'शक्तिपात से आत्मसाक्षात्कार' में दिया गया है।
''गुरूकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं होती। प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाती है। उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाऐं अपने-आप होती है वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है। शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद से सब क्रियाऐं अपने-आप होती है और उनसे चित्त को अधिकाधिक - स्थिरता प्राप्त होती है..........................जिस साधक के द्वारा जिस क्रिया का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं। ........................... योगशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार इन सब-क्रियाओं का अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। ...............इस प्रकार होने वाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता। किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता। प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाऐं साधक से उसके प्रकृति के अनुरूप करा लिया करती है। शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधना से जो क्रियाऐं होती हैं, उनसे शरीर रोगरहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं। ........... परन्तु इस साधना में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है। शक्ति का जागना जहॉं एक बार हुआ वहॉं फिर वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है। इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी फिर कभी सुप्त नहीं होती।''
शास्त्रों में शक्तिपात सम्पन्न (कुण्डलिनी जागरण) साधक में पाये जाने वाले जिन विभिन्न लक्षणों का उल्लेख मिलता है। उनमें से प्रमुख है –
मूलाधार में कम्पन होना, शरीर में अत्यन्त स्फूर्ति उत्पन्न होना, स्वत: ही कुम्भक लग जाना, आखों के तारे घूमना तथा दृष्टि का भ्रूमध्य की तरफ आकर्षित होना, शराब तथा भॉंग पिये बिना ही हर समय नशे की हालत बनी रहना, आखें बन्द करते ही गर्दन तथा शरीर का चक्राकार घूमना, अनेक भाषाऐं (ज्ञात–अज्ञात) वोल सकने की क्षमता उत्पन्न होना तथा स्तोत्रादि, कीर्तन के शब्द स्वत: ही उच्चरित होने लगना, ध्यान में बैठते ही भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगना, कम समय में वेदों तथा उपनिषदों का सार तत्व समझ लेना, दिन, प्रात: सांय एवं रात्रि में पूजा-ध्यान का समय होते ही शरीर, मन तथा प्राण में आनन्दमय स्थिति उत्पन्न हो जाना। स्पष्ट है कि सत्गुरू से प्राप्त शक्तिपात सम्पन्न साधक शीघ्र ही मनुष्यत्व से देवत्व की तरफ अनायास ही अग्रसर होने लग जाता है।
अंत में मैं इतना ही कहूंगा जिस व्यक्ति के प्रभु भक्ति में प्रेमाश्रु न निकले उसका जीवन व्यर्थ है। क्योकिं वह व्यक्ति प्रेम और विरह को नहीं समझ सकता। जिस व्यक्ति ने आंतरिक नशा न किया जिसे रामरस या शिव का नशा कहते हैं। उसने असली नशा जाना ही नहीं। मूर्ख और पाखंडी शिव के नाम पर भांग धतूरा गांजा चढाकर आनंद की बात भक्ति की बात करते हैं। वे महा अज्ञानी और ढोग़ी हैं। कारण राम रस का जो नशा आंतरिक रूप में मिलता है वह कुछ कुछ भांग धतूरे के नशे से मिलता है। अत: मूर्ख लोग इनका वाहिक सेवन करते हैं। जो नुकसान दायक होता है। अरे राम रस से सर्वोच्च आनन्द के साथ शारिरिक शक्ति मिलती है।
और यह सब स्वत: शक्तिपात में होने लगता है।
आनंदम। अति आनंदम्॥ सर्वत्र आनंदम्। जय गुरूदेव। जय महाकाली । जय महाकाल
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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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आखिर क्या है क्रिया योग
आखिर क्या है क्रिया योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
मो. 09969680093
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
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क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ।
इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है।
परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है। प्रत्यक्छ प्राणशक्तिके द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रियायोग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा।
क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीत गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है।
योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में क्रिया योग भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। योगानन्द जी का कहना है कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है:
बाह्यगामी श्वासों में अंतरगामी श्वाशों को समर्पित कर और अंतरगामी श्वासों में बाह्यगामी श्वासों को समर्पित कर, एक योगी इन दोनों श्वासों को तटस्त करता है; ऐसा करके वह अपनी जीवन शक्ति को अपने ह्रदय से निकाल कर अपने नियंत्रण में ले लेता है।
योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब “भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।” योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा “क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।” और फिर जब वह कहते हैं, “उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।” श्री युक्तेशवर गिरि के एक शिष्य, श्री शैलेंद्र बीजॉय दासगुप्ता ने लिखा है कि, “क्रिया के साथ कई विधियां जुडी हुई हैं जो प्रमाणित तौर पर गीता, योग सूत्र, तन्त्र शास्त्र और योग की संकल्पना से ली गयी हैं।”
नवीनतम इतिहास में हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी |
1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा | मार्शल गोविन्दन पिछले 12 वर्षों से क्रिया योग का अनवरत अभ्यास कर रहे थे | प्रति सप्ताह 56 घंटे अभ्यास करने के अतिरिक्त उन्होंने 1981 में श्री लंका के समुद्र तट पर एक वर्ष मौन तपस्या की थी | गुरु के दिये हुए अतिरिक्त शर्तों को पूरा करने में गोविन्दन जी को तीन वर्ष और लगे | इतना होने पर योगियार ने उन्हें प्रतीक्षा करते रहने को कहा | योगियार अक्सर कहते थे कि शिष्य को गुरु अर्थात बाबाजी के चरणों तक पंहुचा देना भर ही उनका काम था |
1988 में क्रिस्मस की पूर्व संध्या पर गहन आध्यात्मिक अनुभूति के दौरान गोविन्दन जी को सन्देश मिला कि वो अपने शिक्षक के आश्रम और उनका संगठन छोड़ कर लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें |
इसके बाद मार्शल गोविन्दन के जीवन की दिशा गुरु की प्रेरणा से प्रकाशमान हुई | 1989 से उनका जीवन इस नयी दिशा में अग्रसर हुआ | लोगों तक इस शिक्षा को लाने के द्वार खुलते गए, मार्ग प्रशस्त होता गया | इस कार्य में अन्तःप्रज्ञा और अंतर-दृष्टि के माध्यम से गुरु का मार्गदर्शन निरंतर मिलता रहा | गोविन्दन जी ने मोंट्रियल में ही साप्ताहांत में क्रिया योग सिखलाना शुरू किया | क्रिया योग पर उनकी पहली पुस्तक का प्रकाशन 1991 में हुआ और इसके बाद वे सारी दुनिया में कई जगहों पर साप्ताहांत दीक्षा शिविर आयोजित करने लगे | तब से गुरु के प्रकाश से ज्यादा से ज्यादा लोगों को आलोकित करना ही उन्हें आनंदित करता है | अब तक 20 से अधिक देशों में फैले हुए 10,000 से ज्यादा लोग आध्यात्म कि इस बहुमूल्य वैज्ञानिक प्रणाली से जुड़ चुके हैं | उन्होंने क्रिया योग के 16 शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया है |
एम. गोविंदन सत्चिदानन्द को सन् 2014 में सम्मानित "पतंजलि पुरस्कार" दिया गया।
क्रिया योग का अभ्यास
जैसा की लाहिरी महाशय द्वारा सिखाया गया, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, “बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य को संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं।”
जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, “एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति कर सकता है; जैसे आधे मिनट का क्रिया योग एक वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर होता है।”
स्वामी सत्यानन्द के क्रिया उद्धरण में लिखा है, “क्रिया साधना को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह “आत्मा में रहने की पद्धति” की साधना है”।
बाबाजी का क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है | प्राचीन सिद्ध परम्परा के 18 सिद्धों की शिक्षा का संश्लेषण कर भारत के एक महान विभूति बाबाजी नागराज ने इस प्रणाली को पुनर्जीवित किया | इसमें योग के विभिन्न क्रियाओं को 5 भागों में बांटा गया है |
1. क्रिया हठ योग: इसमें विश्राम के आसन, बंध और मुद्रा सम्मिलित हैं | इनसे नाङी एवं चक्र जागरण के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है | बाबाजी ने 18 आसनों की एक श्रृंखला तैयार की है जिन्हें दो आसन के युगल में करना सिखाया जाता है | अपने शारीर की देख-भाल मात्र शारीर के लिए नहीं बल्कि इसे ईश्वर का वाहन अथवा मंदिर समझ कर किया जाता है |
2. क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम: यह व्यक्ति की सुप्त चेतना एवं शक्ति को जगा कर उसे मेरुदंड के मूल से शीर्ष तक स्थित 7 प्रमुख चक्रों में प्रवाहित करने की शक्तिशाली स्व्शन क्रिया है | यह 7 चक्रों से सम्बद्ध क्षमताओं को जागृत कर अस्तित्व के पांचों कोषों को शक्तिपुंज में परिणत करते है |
3. क्रिया ध्यान योग: यह ध्यान की विभिन्न पद्धतियों से मन को वश में करने, अवचेतन मन की शुद्धि, एकाग्रता का विकास, मानसिक स्पष्टता एवं दूरदर्शिता, बौधिक, सहज ज्ञान तथा सृजनात्मक क्षमताओं की वृद्धि और ईश्वर के साथ समागम अर्थात समाधि एवं आत्म-ज्ञान को क्रमशः प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है |
4. क्रिया मंत्र योग: सूक्ष्म ध्वनि के मौन मानसिक जप से सहज ज्ञान, बुद्धि एवं चक्र जागृत होते हैं | मंत्र मन में निरंतर चलते हुए कोलाहल का स्थान ले लेता है एवं अथाशक्ति संचय को आसान बनाता है | मंत्र के जप से मन की अवचेतन प्रवृत्तियों की शुद्धि होती है |
5. क्रिया भक्ति योग: आत्मा की ईश्वर प्राप्ति की अभीप्सा को उर्वरित करता है | इसमें मंत्रोच्चार, कीर्तन, पूजा, यज्ञ एवं तीर्थ यात्रा के साथ-साथ निष्काम सेवा सम्मिलित है | इनसे अपेक्षारहित प्रेम एवं आनंद की अनुभूति होती है | धीरे-धीरे साधक के सभी कार्य मधुर एवं प्रेममय हो जाते हैं और उसे सब में अपने प्रियतम का दर्शन होता है |
क्रिया योग में दीक्षाएं
1. प्रथम दीक्षा : क्रिया योग की प्रथम दीक्षा साप्ताहांत में आयोजित एक गहन सेमिनार में दी जाती है | इस सेमिनार में आप बाबाजी द्वारा संकलित क्रिया हठ योग के 18 स्वास्थ्यवर्धक, शक्तिवर्धक तथा विश्रामदायी आसन सीखेंगे | साथ ही सूक्ष्म उर्जा को जाग्रत एवं प्रवाहित करने के लिये “क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम” नामक शक्तिशाली श्वसन प्रणाली के 6 चरण का अभ्यास सीखेंगे | इसके अतिरिक्त अवचेतन मन को परिशुद्ध कर अपने मन का स्वामी बनने तथा आत्म-साक्षात्कार एवं ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ध्यान की 7 क्रियाएँ सीखेंगे |
2. द्वितीय दीक्षा : प्रकृति की गोद में किसी ग्रामीण स्थल पर साप्ताहांत में आयोजित ‘आध्यात्मिक अंतर्यात्रा’ के दौरान द्वितीय दीक्षा दी जाती है | मंत्र दीक्षा के साथ साथ इसमें चक्रों को जाग्रत करने की शक्तिशाली तकनीक, योगनिद्रा, मौन एवं क्रियाशील ध्यान का अभ्यास सिखलाया जाता है | योग को रोजमर्रे की सामान्य गतिविधियों में उतारना इसका लक्ष्य है |
3. तृतीय दीक्षा : क्रिया योग के कुल 144 क्रियाओं में से प्रथम एवं द्वितीय दीक्षा के बाद बाकी बची हुई क्रियाओं को किसी ग्रामीण स्थल पर आयोजित 9 दिवसीय गहन अंतर्यात्रा-शिविर में सिखाया जाता है | इनमें वो क्रियाएँ भी शामिल हैं जो समाधि के विभिन्न स्तरों एवं इश्वर-सान्निध्य का अनुभव कराती है |
क्रिया योग के चार सोपान
1- ब्रह्म ग्रन्थी
2- विष्णु ग्रन्थी
3- रूद्र ग्रन्थी
4- परब्रह्म ग्रन्थी
ब्रह्म ग्रन्थी – इस सोपान में
तालव्य क्रिया
जिह्वा चालन
मानसिक ध्यान
प्राणायाम.
नाभी क्रिया
ज्योति मुद्र
छ.महा मुद्रा है । इस मे खेचरी मुद्रा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।
प्राणायाम के साथ ऊँ का जाप करते हुऐ षटचक्र का ध्यान किया जाता हैं।इस मे एक प्राणायाम 44सैकिण्ड का होता है। एक समय 144प्राणायाम किये जाते है।
खेचरी मुद्रा पूर्ण होने पर ब्रह्म ग्रन्थी भेदन होती है।
परिणाम-
1- आसन सिद्ध होता है।2.खेचरी मुद्रा लगने लगती है।3 चेतना मूलाधार से उठ कर अनाहत मे आ जाती हैं।4 साधक की कामनाऐ समाप्त हो जाती है।5 ब्रह्मा जी के दर्शन होते हैं।
विष्णु ग्रन्थी या ह्रदय ग्रन्थी
इस मे प्राणायाम 66 सैकिण्ड का होता है।
मन्त्र द्वादश अक्षर का हैं। एक समय 200प्राणायाम किये जाते है ।प्राणायाम के साथ सिर को घूमाने एक विशेष क्रिया की जाती हैं।
नाभि क्रिया कुम्भक लगा कर की जाती है।ज्योति मुद्रा व म हा मुद्रा भी की जाती है।
परिणाम-
1- हृदय गति रूकने लग जाती हैं।
2.वासुदेवम् कटुम्भक की भावना हो जाती है।
3- चेतना ह्रदय से उठ कर आज्ञा चक्र पर आ जाती है।
4.साधक को भगवान विष्णु जी के दर्शन होते है।
रूद्र ग्रन्थी
प्राणायाम88 सैकिण्ड का होता है । मन्त्र ओंकार है। इसमेआज्ञा चक्र पर ध्यान लगा कर श्वास लिया जाता है व छोडा जाता है। प्राणायाम करते हुऐ एक ही धारणा करनी चाहिए आज्ञा चक्र से श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हूँ।
शेष क्रिया ह्रदय ग्रन्थी वाली करनी हैं।
परिणाम-
1.श्वास लम्बे समय तक रूकने लगता है।
2 तीसरा नेत्र खुल जाता है।
3 साधक मृत्यु को जान लेता हैं। मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
4 चेतना आज्ञा चक्र से दशम द्वार की तरफ चल पडती है।
5 भगवान शिव जी के साक्षात दर्शन होते है।
परब्रह्म ग्रन्थी
इस के दो भाग है।
1- पहले भाग मे प्रतिदिन पहले श्रीविद्या साधना की साधना की जाती
2- . दूसरे भाग मे प्राणायाम
लंम्बे से लम्बा खिचना है व लंम्बे से लम्बा छोडना है।साधना करते हुऐ संकल्प करे की दशम द्वार से श्वास ले रहा हू और छोड रहा।कुछ समय तो इस प्रकार करे व कुछ समय ध्यान व संकल्प करे की बिन्दु से topसे श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हू। यह क्रिया केवल खेचरी मुद्रा लगा कर ही करनी है ।अन्यथा परिणाम नही आऐगा।
परिणाम-
1 दशम द्वार खुल जाता है।
2.चिदाकाश मे प्रवेश हो जाता हैं
3.केवल कुम्भक की स्थिति आ जाती है।
4.आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
5.ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है।
6.साधक मोक्ष पा लेता है।जीते जी संसार छुट जाता है ।साधक विदेही हो जाता है।
नियम :-यह विद्या प्रथम दिवस से एक घण्टा प्रातः व एक घण्टा साय । दूसरे मास से दो-दो घंटे व तीसरे मास तीन -तीन घण्टे व कम से कम छः वर्ष व अधिक से अधिक बारह वर्षो तक निरन्तर बिना रुके साधना करनी होती है साथ ही इस विद्या को गुप्त रखना होता है | ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवाय है | क्रिया योग के मार्ग पर मार्गदर्शन जरुरी है |
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
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