उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत
यमराज और नचिकेता संवाद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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पिता के मोह को दूर करने
के लिए नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि वे अपने पुत्र को किसे दान
देंगे। उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, लेकिन नचिकेता ने फिर यही प्रश्न पूछा। बार-बार यही पूछने पर
ऋषि क्रोधित हो गए
और उन्होंने कह दिया कि
तुझे मृत्यु (यमराज) को दान करुंगा। पिता के वाक्य से नचिकेता को दु:ख हुआ, लेकिन
सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प भी
पिता से पूरा करवा लिया। तब नचिकेता यमराज को खोजते हुए यमलोक पहुंच गया।
यम के दरवाजे पर पहुंचने
पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है, फिर
भी उसने हार नहीं मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए बैठा रहा। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता के बारे में जाना
तो बालक की पितृभक्ति
और कठोर संकल्प से वे बहुत
खुश हुए। यमराज काँप उठे । अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतय परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी
ॠषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वार
बिना अन्न-जल ग्रहण किए तीन रात बिता चुके थे । यम जलपूरित स्वर्ण-कलश
अपने ही हाथों में लिए दौड़े । उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य
देकर अत्यन्त विनय से कहा -'आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य
अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह
मेरा अपराध है । आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें । यमराज ने नचिकेता की पिता की आज्ञा के पालन और तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर
मांगने के लिए कहा। नचिकेता ने सबसे पहले कहा, ‘मेरे
पिता बहुत लालची हैं। वह सांसारिक सुख-सुविधाएं चाहते हैं।
इसलिए आप उन्हें सारे भौतिक ऐशोआराम का आशीर्वाद दें। उन्हें राजा बना
दीजिए।’ यम ने कहा ‘तथास्तु’। उसने दूसरा वरदान मांगा, ‘मैं
जानना चाहता हूं कि मुझे ज्ञान प्राप्त करने के लिए किस तरह के कर्मों और यज्ञों को करने की जरूरत है।’ वैदिक साहित्य
में हमेशा यज्ञों
की बात की जाती है। सारा
वैदिक साहित्य ऐसा ही है – यज्ञों के बारे में। यम ने उसे सिखाया कि उसे क्या
करना चाहिए।
फिर
नचिकेता ने उनसे पूछा, ‘मृत्यु का रहस्य क्या है? मृत्यु के बाद क्या होता है?’
यम ने कहा,
‘यह प्रश्न तुम
वापस ले लो। तुम मुझसे और कुछ भी मांग
लो। तुम चाहो तो मुझसे एक राज्य मांग
लो,
मैं तुम्हें दे दूंगा। मैं तुम्हें
धन-दौलत दे सकता हूं। मैं तुम्हें दुनिया के सारे सुख दे सकता हूं।’ वह बोलते रहे,
‘तुम मुझे बताओ,
क्या
चाहते हो। तुम मुझसे दुनिया की सारी
खुशियां ले लो, मगर यह प्रश्न मत
पूछो।’ नचिकेता ने कहा,
‘इन सब का मैं क्या करूंगा?
आप पहले ही मुझे बता
चुके हैं कि ये सब चीजें नश्वर हैं।
मैं पहले ही समझ चुका हूं कि सारे क्रियाकलाप, लोग जिन चीजों में संलिप्त हैं,
वे सब अर्थहीन हैं। वह सिर्फ
दिखता है,
वह हकीकत नहीं है। फिर मुझे और धन-दौलत
देने का क्या लाभ? वह तो मेरे लिए सिर्फ एक जाल होगा। मैं कुछ नहीं चाहता,
आप बस मेरे प्रश्न का
उत्तर दीजिए।’
यमराज-नचिकेता संवाद:
किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है, जो ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं। इस रहस्य
को समझकर जो मनुष्य ध्यान और चिंतन करता है, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं
होता है। ऐसा ध्यान और चिंतन करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म-मृत्यु के
बंधन से भी मुक्त हो जाता है।
क्या आत्मा मरती या मारती
है?
जो लोग आत्मा को मारने वाला या
मरने वाला मानते हैं, वे असल में आत्मा को नहीं जानते और भटके हुए
हैं। उनकी बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।
कैसे हृदय में माना जाता
है परमात्मा का वास?
मनुष्य का हृदय ब्रह्म को पाने
का स्थान माना जाता है। यमदेव ने बताया मनुष्य ही परमात्मा को पाने का
अधिकारी माना गया है। उसका हृदय अंगूठे की माप का होता है। इसलिए इसके
अनुसार ही ब्रह्म को अंगूठे के आकार का पुकारा गया है और अपने हृदय में भगवान
का वास मानने वाला व्यक्ति यह मानता है कि दूसरों के हृदय में भी ब्रह्म
इसी तरह विराजमान है। इसलिए दूसरों की बुराई या घृणा से दूर रहना चाहिए।
क्या है आत्मा का स्वरूप?
यमदेव के अनुसार शरीर के नाश
होने के साथ जीवात्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका
कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका
कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है।
यदि कोई व्यक्ति
आत्मा-परमात्मा के ज्ञान को नहीं जानता है तो उसे कैसे फल भोगना पड़ते हैं?
जिस तरह बारिश का पानी एक ही
होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों पर बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता और नीचे की ओर बहता है, कई प्रकार के रंग-रूप और गंध में बदलता है। उसी प्रकार एक ही परमात्मा से जन्म लेने वाले
देव, असुर और मनुष्य भी भगवान को अलग-अलग
मानते हैं और अलग मानकर ही पूजा करते हैं। बारिश के जल की तरह ही
सुर-असुर कई योनियों में भटकते रहते हैं।
कैसा है ब्रह्म का स्वरूप
और वे कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गुणों से
एकदम अलग हैं, वे स्वयं प्रकट होने वाले देवता हैं। इनका नाम वसु है।
वे ही मेहमान बनकर हमारे घरों में आते हैं। यज्ञ में पवित्र अग्रि और
उसमें आहुति देने वाले भी वसु देवता ही होते हैं। इसी तरह सभी मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि हो या पर्वतों में नदी, झरने और यज्ञ फल के तौर पर भी
ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष देव हैं।
आत्मा निकलने के बाद शरीर
में क्या रह जाता है?
जब आत्मा शरीर से निकल जाती है
तो उसके साथ प्राण और इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है। मृत शरीर में
क्या बाकी रहता है, यह नजर तो कुछ नहीं आता, लेकिन वह परब्रह्म उस शरीर में
रह जाता है, जो हर चेतन और जड़ प्राणी में विद्यमान हैं।
मृत्यु के बाद आत्मा को
क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?
यमदेव के अनुसार अच्छे और बुरे
कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से
देखी-सुनी बातों के आधार पर पाप-पुण्य होते हैं। इनके आधार पर ही आत्मा मनुष्य
या पशु के रूप में नया जन्म प्राप्त करती है। जो लोग बहुत ज्यादा पाप करते
हैं, वे मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त अन्य योनियों में जन्म पाते हैं। अन्य योनियां जैसे पेड़-पौध, पहाड़, तिनके आदि।
परमात्मा प्राप्ति के तकनीक:
यमराज
ने नचिकेता को ब्रह्म की प्राप्ति के तकनीक दो चरणों में बतायें हैं :
प्रथम चरण - किसी वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिये उसके अस्तित्व और सार तत्व दोनों का जानना आवश्यक होता है । यही बात ब्रह्म के लिये भी लागू होता है उसके अस्तित्व के लिये ही किसी अनुभवी गुरू अर्थात् आत्मोपलब्ध श्रेश्ठ पुरूष को वरण करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो सके कि हमारे शरीर, मन, इन्द्रियों से परे इस भौतिक जगत के पीछे कोई तत्व ब्रह्म है । इसी संदर्भ में प्रथम चरण की आवश्यकता है जब साधक निश्चिंत विश्वास से परमात्मा को स्वीकार कर लेता है और परमात्मा अवश्य हैं और अपने हृदय में ही विराजमान हैं तथा वे साधक को अवश्य मिलते हैं।
ऐसे दृढतम निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिये
उत्कंठा के साथ प्रयत्नशील रहता है तो उस परमात्मा का तात्विक, दिव्य स्वरूप उसके विशुद्ध हृदय में अपने आप प्रकट हो जाता है । इस
प्रकार का ज्ञान होने से आत्मा के प्रति अज्ञान से सीमित देह की
अज्ञान-भावना खंडित हो जाती है । फिर उस मनुष्य को भले ही वह न चाहे, ‘मैं मनुष्य हूँ’ इस भाव से भी मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साधक
देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है और साधक को यह बोध हो जाता है कि वह
अनन्त, असीम, पूर्ण बोध युक्त परमात्मा अर्थात् ब्रह्म है तब वह ‘सोSहम्’ या ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की भावना से अनुप्राणित हो उठता है
और विविधता से भरे विश्व से परे एकात्मकता के बोध को प्राप्त हो जाता है।
इस हेतु ईश प्राणीधान पर्म आवश्यक है।
द्वितीय चरण - इस चरण में परमात्मा या ब्रह्म साक्षात्कार के बारे में बताते हुये कहा गया है कि ससीम मानव मन के लिए आत्मा या परमात्मा या ब्रह्म जो असीम चेतना की ज्योति है, आत्मा की भी आत्मा है, पर ध्यान करना अत्यंत दुश्कर है । अतः वेदान्त साधकों को कई जगत् विख्यात त्रैलोक्यवंदित उपमाओं द्वारा सहयोग करता है ।
यथा -
अंगुष्ठमात्रः पुरूशोन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविश्ठ: । तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुंजादिवेशीकां धैर्येण तं विद्यांच्छुक्रममृतं तं विद्यांच्छुक्रममृतमिति ।। (कठोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, तृतीय बल्ली,श्लोक संख्या-17)
अंगुष्ठमात्रः पुरूशोन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविश्ठ: । तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुंजादिवेशीकां धैर्येण तं विद्यांच्छुक्रममृतं तं विद्यांच्छुक्रममृतमिति ।। (कठोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, तृतीय बल्ली,श्लोक संख्या-17)
अन्तरात्मा-सबका अन्तर्यामी,
अंगुष्ठमात्रः-अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला, पुरुषः-परम् पुरूष,
सदा-सदैव,
जनानाम्-मनुष्यों के,
हृदये
-हृदय में,
सन्निविश्ठः-भलीभांति प्रविश्ट है,
तम्-उसको,
मुन्जात्-मूंज से,
इशीकाम इव-सींक की भांति,
स्वात्-अपने से,
शरीरात्-शरीर से,
धैर्येण-धीरतापूर्वक,
प्रबृहेत्-पृथक करके देखे,
तम्-उसी को,
शुक्रम अमृतम्
विधात्-विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे,
तम शुक्रम अमृतम् विधात्-और उसी को
विशुद्ध अमृत स्वरूप समझे ।
अर्थात्
ऐसी भावना करे कि अंगुष्ठ मात्र पुरूष,
जो जीवों के हृदय में स्थित उनका
अन्तरात्मा है,
उसे धैर्यपूर्वक मूंज से सींक के निकालने
के समान शरीर से पृथक है। शरीर से पृथक किये हुए उस अंगुष्ठ मात्र
पुरूष को ही चिन्मात्र विशुद्ध अर्थात् निर्धूम अग्नि के समान
तेजोमय और अमृतमय ब्रह्म जाने ।
इस तरह से प्रथम चरण में तो परमात्मा की प्राप्ति के योग्य सुदृढ़ मनःस्थिति तथा उदार हृदय की प्राप्ति की तकनीक बताई गई है परन्तु द्वितीय चरण में परमात्मा प्राप्ति का उपाय बताया गया है । वैसे ध्यान मे तो इसी स्थूल हृदय में इस प्रक्रिया को करना प्रतीत होता है परन्तु ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था मे स्थूल हृदय के पीछे एक सूक्ष्य हृदय है वह खुल जाता है और फिरविशुद्ध अमृतमय ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है । इसके बाद कहने को कुछ नहीं रह जाता है, वह अवर्णनीय होता है । हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे हृदय में प्रकट होकर हमें कृतार्थ करें ।
अगर देखा जाये तो मूंज घास से सींक के निकालने की प्रक्रिया बडी नाजुक होती है । घास पत्ती में से कोमल भीतरी भाग को निकालना, बिना देानों को क्षति पहुंचाये बहुत कठिन होती है । यहां धीरज व सतत् प्रयास आवश्य क है ।
यह धीरज तथा प्रयत्नशीलता तब शक्य होती है जब साधक
आश्वस्त हो जाता है कि दुष्कर साधना के बाद मिलने वाला फल मनुश्य के लिए
श्रेष्ठतम, उच्चतम फल है, जो कि प्रज्ञा और अमरत्व है । अंत में यम घोषणा करते
हैं कि आत्मा ही प्रकाश व अमृत है । वही मानव हृदय में सदा निवास करती
हैं: "सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।"
यह बोध ही आध्यात्म है। यही है -नचिकेता का मूर्तिमंत वेदांत का अन्तिम दर्शन। वेदांत केवल घोषणा ही नहीं करता है - ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का, बल्कि उसे प्रत्यक्ष भी करता है। अंत में कठोपनिषद उदारता पूर्वक कहता है - अन्योप्येवं योविद्ध्यातमं एवम्-और भी जो ब्रह्मसाक्षात्कार करेगा, उसी प्रकार अमर हो जायेगा। अर्थात् यह विद्या केवल नचिकेता के लिये ही नहीं है। यह तो सृष्टि एवं उसमें विराजमान ईश्वर द्वारा समस्त मानवजाति को दिया हुआ आशीर्वाद है।
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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