हिंदुओ
के विभिन्न सम्प्रदाय और विवाद क्यों???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फूट
नामक फल केवल भारत में ही पाया जाता है। पेठा नामक फल भी भारत की उपज है। फूट खरबूजे
की भांति और पेठा कद्दू की तरह बेस्वाद फल होता है। जिनको चीनी में पाग कर खाने
योग्य बनाया जाता है।
फूट
और पेठे के अनेकों अर्थ हैं। एक अर्थ है आपसी झगडा और कलह्। शायद इसी कारण आज सनातन
और हिंदू, जो पूरी दुनिया में फैले थे। सिकुडकर छोटे से भूभाग
तक सीमित हो गये पर अभी भी नासमझी का काम कर रहे हैं।
वैसे
मेरा यह मानना है कि आपसी फूट का कारण अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने की अंधी दौड और
गिरते हुये वेद के उपदेशों के पालन।
साथ
ही ब्राह्मणो की परिभाषा कर्मणे ब्राह्मण की जगह व्यापारिक जन्मने ब्राह्मण का बढता
भाव प्रभाव और प्रभाव। शिक्षा का व्यवसायीकरण और निजी करण होना रहा है।
जैसे
जन्मने ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी अन्य को संसकृत पढने की अनुमति नहीं देना।
जिसके कारण गोरखनाथ को साबरी मंत्रों का निर्माण करना पडा। जो भोजपुरी भाषा में
हैं।
इसके
अलावा जिस ऋषि ने जिस देव की अराधना कर ज्ञान प्राप्त किया बस उसी को
श्रेष्ठ बता देना। इसी आधार पर लिखे गये
पुराणों में कई आसामानतायें हैं।
प्राचीनकाल
में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं।
देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती
के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट
गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की
लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और
विश्वामित्र की लड़ाई चली। इन
लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता
गया।
हजारों
वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का
धर्म प्रकट हुआ, यही आगे
चलकर विभिन्न धर्म तक पैदा कर गया। कहा
जाता है । लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों
के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो
ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे।
इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर
में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।
वैसे
यदि आप वेदों को देखें तो उनमें 33 कोटि यानी 33 प्रकार के देवता होते हैं। देवता बना
है दिव धातु से जिसके अर्थ है देने वाला। उसी आधार पर इनका वर्गी करण हुआ। (मेरा अलग
लेख देखें)। कारण सत्य एक: विप्र बहुल: वदंति। ईश्वर एक पर उस पर पहुंचने के मार्ग अलग। बस यही कारण
है आपसी झगडे का। अब जो हमको देते हैं उनका वर्गीकरण 12 आदित्य : जिनसे मिले विष्णु और पैदा हुये वैष्णव।
11 रुद्र जिनसे बने शिव
और पैदा हुये शैव। 8 वसु और रुद्र आदित्य, जिनकी शक्ति बनी शाक्त। सबको माननेवाले बने स्मार्त। वहीं
वेदों के निराकार को लेकर बन गये वैदिक।
शैव
और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति
हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि
पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा,
विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का
कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर
जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।
इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदायों माने जा
सकते हैं।
1. वैष्णव, 2.
शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय।
वैष्णव जो विष्णु को ही
परमेश्वर
मानते हैं, शैव
जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं,
शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न
रूपों को एक ही समान
मानते हैं। अंत में वे लोग
जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं।
हालांकि सभी संप्रदाय का धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध किया है। जो ग्रंथ ब्रह्म (परमेश्वर) के मार्ग से भटकाए, वे सभी अवैदिक माने गए हैं।
वैष्णव संप्रदाय के उप
संप्रदाय :
वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं।
जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय
आदि।
वैष्णव का मूलरूप आदित्य
या सूर्य देव की आराधना में मिलता है। भगवान विष्णु का
वर्णन भी वेदों में
मिलता है। पुराणों में
विष्णु पुराण प्रमुख है। विष्णु का निवास समुद्र के भीतर माना गया है।
शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख 10 अवतार माने जाते हैं- मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। वैसे मैं बुद्ध को अवतार नहीं मानता हूं।कारन सभी सृष्टि उनका अवतारहै। मैं भी आप भी।
1. आदि पुरुष, 2. चार सनतकुमार, 3. वराह, 4. नारद, 5. नर-नारायण, 6. कपिल, 7. दत्तात्रेय, 8. याज्ञ, 9. ऋषभ, 10. पृथु, 11. मत्स्य, 12. कच्छप, 13. धन्वंतरि, 14. मोहिनी, 15. नृसिंह, 16. हयग्रीव, 17. वामन, 18. परशुराम, 19. व्यास, 20. राम, 21. बलराम, 22. कृष्ण, 23. बुद्ध और 24. कल्कि।
ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है। ईश्वर संहिता, पाद्मतन्त, विष्णु संहिता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण आदि।
वैष्णव
पर्व और व्रत : एकादशी, चातुर्मास, कार्तिक मास, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, होली, दीपावली आदि।
वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम, मथुरा, अयोध्या, तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।
वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम, मथुरा, अयोध्या, तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।
वैष्णव : 1. वैष्णव मंदिर में विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां होती हैं। एकेश्वरवाद के प्रति कट्टर नहीं है। 2. इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं।
3. इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं।
4. ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं।
5. ये सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं।
6. जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं।
7. वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। जो 12 आदित्य का एक रूप है।
8. वैष्णव दाह-संस्कार की रीति है।
9. यह चंदन का तिलक खड़ा लगाते हैं।
वैष्णव
धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव
हैं, जिन्हैं, ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज- इन छ: गुणों से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक
मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत'*
के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के
समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें
ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ
ब्राह्मण'[1] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की
व्याख्या की गयी थी। इस कारण इसका यह नाम पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
अनुमान
है कि लगभग 600 ई॰पू॰, जिस समय ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की
प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे,
उससे भी पहले से अपेक्षाकृत शान्त,
किन्तु स्थिर
ढंग से एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय
विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से
वृष्णि-वंशीय क्षत्रियों की सात्वत
नामक जाति में सीमित था। वैदिक परम्परा
का इसने सीधा विरोध नहीं किया,
प्रत्युत अपने अहिंसाप्रधान धर्म को
वेद-विहित ही बताया इसलिए तथा इस कारण
भी कि उसकी प्रवृत्ति बौद्ध और जैन सुधार-आन्दोलनों की भाँति खण्डनात्मक और प्रबल
उपचारात्मक नहीं थी, इस सम्प्रदाय की वैसी धूम नहीं मची। ई॰पू॰ चौथी शती में
पाणिनि की अष्टाध्यायी के* सूत्र से वासुदेव के उपासक का प्रमाण मिलता है। ई॰पू॰
तीसरी-चौथी शती से पहली शती तक वासुदेवोपासना के अनेक प्रमाण प्राचीन
साहित्य और पुरातत्त्व में मिले हैं।
जैनों
के सलाक पुरुषों में वासुदेव और बलदेव भी हैं तथा अरिष्टनेमि और
वासुदेव के सम्बन्ध का भी उल्लेख
प्राचीन जैन साहित्य में मिलता है। बौद्धजातकों (घत और महा उमग्ग) में वासुदेव की कथा
कही गयी है। बौद्ध साहित्य के 'चुल्लनिद्देस' मे आजीवक, निगंठ, जटिल बलदेव आदि श्रावकों के
साथ वासुदेव को पूजने वाले वासुदेवकों
का भी उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित
होता है कि यह सम्प्रदाय तीसरी-चौथी
शती ई॰पू॰ में विद्यमान था। इसी काल में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा के यूनानी राजदूत
मेगास्थनीज ने 'सौरसेनाई' (शौरसेनी) जाति में जो 'जोबेरीज' (यमुना) नदी के किनारे बसती थी और 'मेथोरा' (मथुरा) और क्लोसोबारा (कृष्णपुर) जिसके प्रधान नगर थे,
हेराक्लीज (कृष्ण) के विशेष रूप से पूजे जाने का उल्लेख किया है। 200
ई॰ पू॰ के वेसनगर
(भिलसा) के एक स्तम्भ लेख के अनुसार
वैक्ट्रिया के राजदूत हेलियाडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरूडस्तम्भ का
निर्माण कराया था। वह अपने को भागवत कहता था। ई॰पू॰ पहली शती के नानाघाट के
गुहाभिलेख में अन्य देवताओं के साथ संकर्षण और वासुदेव का भी नामोल्लेख है। इसी
समय का एक और शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप घोसुण्डी में मिला है,
जिसमें कण्ववंशी राजा सर्वतात
द्वारा
अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भगवान संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर के
लिए 'पूजाशिला-प्राकार'
बनवाये जाने का उल्लेख है। मथुरा के एक
महाक्षत्रप शोडाश (ई॰पू॰ 80-57) के समय के एक शिलालेख के अनुसार वसु नामक एक व्यक्ति
ने महास्थान (जन्मस्थान मथुरा) में
भगवान वासुदेव का मन्दिर बनवाया था। इन
प्रमाणों से सूचित होता है कि भागवत
धर्म का सबसे पहला नाम वासुदेव धर्म या
वासुदेवोपासना है। भागवत नाम भी
कम-से-कम ई॰पू॰ दूसरी-तीसरी शती में प्रचलित हो गया था। प्रारम्भ में यह उपासना-मार्ग
शूरसेन (आधुनिक ब्रजप्रदेश) में बसने वाली सात्वत जाति में सीमित था,
परन्तु इसका प्रचार
कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के
फलस्वरूप ई॰पू॰ दूसरी-तीसरी शताब्दियों
में ही पश्चिम की ओर भी हो गया था तथा
कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे।
दक्षिण
के प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव, संकर्षण तथा कृष्ण के
अनेक सन्दर्भ मिलते है। इन सन्दर्भों
के आधार पर अनुमान किया गया है कि उपर्युक्त सात्वत लोग,
जो वैदिक पुरूवंशक एक जाति विशेष के थे,
मगध
के राजा
जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के
शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्तप्रदेश की ओर चले गये।
मार्ग में इनमें से कुछ लोग पालव और उसके दक्षिण की ओर बस गये और वहीं से
दक्षिण देश के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र तथा कोंकण में फैल गये। इन्हीं में से
कुछ और दक्षिण की ओर चले गये। दक्षिण के अद्विया,
अण्डार और इडैयर जातियों के लोग
पशुपालक अहीर या आभीरों के समकक्ष हैं। सात्वत जाति भी पशुपालक
क्षत्रियों की जाति थी। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा
इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है। अत: जान पड़ता है कि सात्वतों का
दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था। वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी
अवश्य लेते गये होंगे।
भागवत
धर्म भी प्रारम्भ में क्षत्रियों द्वारा चलाया हुआ एक अब्राह्मण
अपासना-मार्ग था परन्तु कालान्तर में
सम्भवत: अवैदिक और नास्तिक जैन-बौद्ध
मतों का प्राबल्य देखकर ब्राह्मणों ने
उसे अपना लिया और वैष्णव या नारायणीय
धर्म के रूप में उसका विधिवत संघटन
किया। 'महाभारत' शान्तिपर्व * के नारायणीय उपाख्यान में इस नवीन धर्म को वैष्णव
यज्ञ कहा गया है और यज्ञ प्रधान वैदिक कर्मकाण्ड के प्रवृत्ति-मार्ग के विपरीत
इसे निवृत्ति-मार्ग बताया गया है। इस वैष्णव यज्ञ में पशुवध का स्पष्ट
रूप में निषेध तथा तप, सत्य, अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह का विधान किया गया था। 'महाभारत' में ही वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु से अभिन्न बताया गया
तथा साथ ही कृष्ण को भी द्वितीय वासुदेव के रूप में उन्हीं का अवतार प्रसिद्ध
किया गया। ॠग्वेद में विष्णु-सम्बन्धी जो थोड़ी-सी ऋचनाएँ मिलती हैं,
उनमें उनका अत्यन्त
भव्य वर्णन हुआ है। वे त्रिविक्रम है
तीन पाद-प्रक्षेपों में समग्र संसार को नाप लेते हैं
[2] इसीलिए वे उरूगाय (विस्तीर्ण गतिवाले) और उरूक्रम
(विस्तीर्णपाद-प्रक्षेपवाले) कहे गये
हैं। उनका तीसरा पद-क्रम सबसे ऊँचा है। उनके परमपद में मधु का उत्स है। विष्णु
पृथ्वी पर लोकों के निर्माता हैं,
ऊर्ध्वलोक में आकाश को स्थिर करने वाले
हैं तथा तीन डगों से सर्वस्व को नापने वाले है। ऋग्वेद में
विष्णु को अजेय गोप विष्णुर्गोपा अदाभ्य:
* भी कहा गया है। उनके परमपद में भूरिश्रृंगा चंचल
गायों का निवास है।* उनका वह सर्वोच्च लोक गोलोक कहलाता है। यज्ञ-प्रधान
ब्राह्मण-काल में विष्णु का महत्त्व बढ़ता गया। उन्हें स्वयं 'यज्ञ' की संज्ञा दी गयी। उनकी
अपेक्षा वैदिक देवता
अग्नि को हीन बताया गया है। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में उल्लेख है, कि विष्णु ने असुरों से छीनकर समस्त पृथ्वी इन्द्र को
दे दी थी। ऐतरेय ब्राह्मण* और 'शतपथ ब्राह्मण'* में भी इसी प्रकार का एक उल्लेख है। इस प्रकार
सर्वाधिक शक्तिशाली वैदिक देवता इन्द्र की अपेक्षा विष्णु की महत्ता ब्राह्मण काल से ही
बढ़ने लगी थी। ब्राह्मण–ग्रन्थों से विष्णु के अवतारों- वामन,
वराह,
मत्स्य और कूर्म
सम्बन्धी प्रमाण भी एकत्र किये गये
हैं। जो हो, पशु-यज्ञ-विरोधी नवीन धर्म
के उपास्य बनने के लिए वैदिक देवताओं
में विष्णु ही सबसे अधिक उपयुक्त थे और इसीलिए 'महाभारत' में उन्हें वासुदेव से अभिन्न बताया गया तथा
वासुदेवोपासकों के सात्वत धर्म को वैष्णव धर्म के नाम से प्रसिद्ध किया गया।
कृष्ण
मूल वासुदेव या पर वासुदेव से भिन्न हैं, ऐसा अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है। कृष्ण सम्बन्धी वैदिक उल्लेखों-
अंगिरसृ ऋषि, कृष्ण और कृष्सुर के उल्लेखों- में उनके वासुदेव होने का कोई
संकेत नहीं है। 'छान्दोग्य
उपनिषद
तेरहवें
खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक छान्दोग्य उपनिषद' के देवकी-पुत्र कृष्ण घोर
आंगिरस के शिष्य हैं और वे गुरु से ऐसा ज्ञान उपलब्ध करते
हैं, जिससे फिर कुछ भी
जानने को शेष नहीं रहता तथा यज्ञ की एक
ऐसी सरल रीति सीखते हैं, जिसकी दक्षिणा तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य है
[3] इससे स्पष्ट विदित होता है आंगिरस गोत्र का घोर नामक
ऋषि वैदिक आंगिरस का उत्तराधिकारी था। आंगिरसों में सबसे प्रमुख बृहस्पति
कहे गये हैं, जिन्हें
किसी समय पांचरात्र का ज्ञान सौंपा गया
था घोर आंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपर्युक्त यज्ञ की विधि बतायी थी,
वह भी भागवत यज्ञ या
वैष्णव यज्ञ की ही थी,
अत: देवकी-पुत्र कृष्ण या वासुदेव
कृष्ण भागवत धर्म के आदि प्रवर्तक नहीं थे। यह बात स्वयं
गीता [4] से प्रमाणित होती है कि कृष्ण से भिन्न कोई और
वासुदेव पहले हो चुका था। 'महाभारत' शान्तिपर्व में वर्णित उपर्युक्त वैष्णव यज्ञ के
उपास्य का असली नाम नारायण है, जिन्हें विष्णु से अभिन्न कहकर बताया गया है कि यही
नारायण वासुदेव हैं और यही दुरात्मा कंस का नाश करने के लिए
द्वापर और कलियुग की सन्धि में मथुरा में जन्म लेंगे। उस समय लोग कहेगें
कि महात्माओं पर और नारायण संसार का हित करने के लिए अर्जुन व कृष्ण के
ही रूप में प्रकट हुए है। यही नारायण
हंस, कूर्म, मत्स्य,शवाराह,
नृसिंह वामन, परशुराम, राम, कृष्ण और कल्कि अवतार लेंगे। *
अन्य अनेक प्रमाणों से यह स्पष्ट विदित
होता है कि महाभारत के समय तक अध्यात्मतत्व के देवता नारायण, ऐतिहासिक पूज्य पुरुष वासुदेव और वैदिक देवता
उरूगाय विष्णु एकाकार होकर भारत-युद्ध के कृष्ण में समन्वित होने लगे थे
और नाना प्रकार से यह उद्योग होने लगा था कि कृष्ण ही एकमात्र द्वितीय वासुदेव, नारायण, हरि, भगवत
और विष्णु के अवतार हैं हरिवंश तथा अनेक पुराणों में
कृष्ण के एकमात्र द्वितीय वासुदेव होने के, श्रृगाल वासुदेव और पोण्ड्र, वासुदेव सम्बन्धी आख्यान मिलते हैं। महाभारत और पुराणों में कृष्ण को
सात्त्वतर्षभ कहा गया है, जिससे कृष्ण के भी वृष्णिवंशीय सात्त्वत होने की
सूचना मिलती है। इस प्रकार सात्त्वत होने की सूचना मिलती है। इस प्रकार सात्त्वतों
के कुल-धर्म को महाभारत और पुराणों की महायता से एक व्यापक लोकधर्म
बनाने का सतत उद्योग किया गया। कदाचित भागवत धर्म की यह परिणति चौथी-पाँचवीं
शताब्दी में गुप्त वंश के
राज्यकाल में हुई। गुप्त सम्राट अपने को परम भागवत घोषित करने में गर्व का
अनुभव करते थे। उन्होंने पौराणिक वैष्णव धर्म को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया।
फिर भी गुप्तवंश की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप शैव और
बौद्ध धर्म भी यथेष्ट उन्नति कर रहे थे। वैदिक ब्राह्मण धर्म का स्मार्त रूप, जिसमें विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश- इन
पांच देवताओं की पूजा विहित थी, व्यापक प्रचार पा रहा था। वैष्णव धर्म के
प्रचार से ही अहिंसा और अवतारवाद के सिद्धान्त का व्यापक रूप में प्रचलन हो
गया था। इस प्रकार लगभग 600 ई॰ पू॰ से 500 ई॰
तक भागवत धर्म के प्रथम उत्थानकाल में ही उसके प्रचार के प्रचुर साधन पौराणिक साहित्य के रूप में तैयार
हो गये थे। रामायण और
महाभारत की भी वैष्णव परिणति हो चुकी थी।
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को
मानने वालों को शैव कहते हैं। शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय
हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं:
(i)
शैव
(ii)
पाशुपत
(iii)
कालदमन
(iv)
कापालिक। शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद
में रुद्र की आराधना में हैं। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे
चलकर शिव,
शंकर, भोलेनाथ और महादेव
कहलाए।
शैव मत का
मूल रूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना
में है। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव,
शंकर,
भोलेनाथ और महादेव
कहलाए। इनकी पत्नी का नाम है पार्वती
जिन्हें दुर्गा भी कहा जाता है। शिव का निवास कैलाश पर्वत पर माना गया है।
शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है, जो निम्नलिखित है- 1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 5.भैरव, 6.छिन्नमस्तक गिरिजा, 7.धूम्रवान, 8.बगलामुखी, 9.मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं।
शिव के अन्य 11 अवतार : 1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरुपाक्ष, 4. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 9. शम्भू, 10. चण्ड तथा 11. भव का उल्लेख मिलता है।
इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है जिन्हें अंशावतार माना जाता है।
शैव संस्कार : 1. शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। 2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं। 3. इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। 4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। 5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। 6. ये निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। 7. शैव चन्द्र पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं। 8. शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। 9. शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं, जहां सिर्फ शिवलिंग होता है। 10. ये भभूति तिलक आड़ा लगाते हैं।
शैव धर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी
और तथ्य:
(1) भगवान शिव की पूजा
करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है।
(2) शिवलिंग उपासना का
प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।
(3) ऋग्वेद में शिव के
लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है।
(4) अथर्ववेद में शिव को
भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है।
(5) लिंगपूजा का पहला
स्पष्ट वर्णन मत्स्यपुराण में मिलता है।
(6) महाभारत के अनुशासन
पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है।
(7) वामन पुराण में शैव
संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है: (i) पाशुपत (ii) काल्पलिक (iii) कालमुख (iv) लिंगायत
पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन
संप्रदाय है। इसके संस्थापक लवकुलीश थे
जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।
(8) पाशुपत संप्रदाय के
अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया, इस मत का सैद्धांतिक
ग्रंथ पाशुपत सूत्र है।
(9) कापलिक संप्रदाय के
ईष्ट देव भैरव थे, इस संप्रदाय का प्रमुख केंद्र शैल नामक स्थान था।
(10) कालामुख संप्रदाय के
अनुयायिओं को शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है। इस
संप्रदाय के लोग नर-पकाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते
थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे।
(11) लिंगायत समुदाय दक्षिण में
काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम भी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग
शिव लिंग की उपासना करते थे।
(12) बसव पुराण में
लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया
गया है, इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था।
(13) दसवीं शताब्दी में
मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का
व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ।
(14) दक्षिण भारत में
शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा।
(15) नायनारों संतों की
संख्या 63 बताई गई है। जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर
मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है।
(16) पल्लवकाल में शैव
धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया।
(17) ऐलेरा के कैलाश
मदिंर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया।
(18) चोल शालक राजराज
प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया था।
(19) कुषाण शासकों की
मुद्राओं पर शिंव और नंदी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
(20) शिव पुराण में शिव
के दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से
संबंधित हैं: (i) महाकाल (ii) तारा (iii) भुवनेश (iv) षोडश (v) भैरव (vi) छिन्नमस्तक गिरिजा (vii) धूम्रवान (viii) बगलामुखी (ix) मातंग (x) कमल
(21) शिव के अन्य ग्यारह
अवतार हैं: (i) कपाली (ii) पिंगल (iii) भीम (iv) विरुपाक्ष (v) विलोहित (vi) शास्ता (vii) अजपाद (viii) आपिर्बुध्य (ix) शम्भ (x) चण्ड (xi) भव
(22) शैव ग्रंथ इस प्रकार
हैं: (i) श्वेताश्वतरा उपनिषद (ii) शिव पुराण (iii) आगम ग्रंथ (iv) तिरुमुराई
(23) शैव तीर्थ इस प्रकार
हैं: (i) बनारस (ii) केदारनाथ (iii) सोमनाथ (iv) रामेश्वरम (v) चिदम्बरम (vi) अमरनाथ (vii) कैलाश मानसरोवर
(24) शैव सम्प्रदाय के
संस्कार इस प्रकार हैं: (i) शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते
हैं। (ii) इसके संन्यासी जटा रखते हैं। (iii) इसमें सिर तो
मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। (iv) इनके अनुष्ठान
रात्रि में होते हैं। (v) इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। (vi) यह निर्वस्त्र भी
रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी
रमाते हैं। (vii) शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। (viii) शैव संप्रदाय में
समाधि देने की परंपरा है। (ix) शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहां
सिर्फ शिवलिंग होता है। (x) यह भभूति तीलक आड़ा लगाते हैं।
(25) शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा,औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है।
वसुगुप्त को कश्मीर शैव दर्शन की परम्परा का
प्रणेता माना जाता है। उन्होने 9वीं शताब्दी के
उतरार्द्ध में कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का गठन किया। इनके कल्लट और सोमानन्द दो प्रसिद्ध शिष्य
थे। इनका दार्शनिक मत ईश्वराद्वयवाद था। सोमानन्द ने
"प्रत्यभिज्ञा मत" का प्रतिपादन किया।
प्रतिभिज्ञा शब्द का तात्पर्य है कि साधक अपनी पूर्वज्ञात वस्तु को
पुन: जान ले। इस अवस्था में साधक को अनिवर्चनीय आनन्दानुभूति होती
है। वे अद्वैतभाव में द्वैतभाव और निर्गुण में भी सगुण की कल्पना कर लेते
थे। उन्होने मोक्ष प्राप्ति के लिए
कोरे ज्ञान और निरीभक्ति को असमर्थ बतलाया। दोनों का समन्वय से ही मोक्ष
प्राप्ति करा सकता है। यद्यपि शुद्ध भक्ति बिना द्वैतभाव के संभव
नहीं है और द्वैतभाव अज्ञान मूलक है किन्तु ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जब द्वैत
मूलक भाव की कल्पना कर ली जाती है तब उससे किसी प्रकार की हानि की
संभावना नहीं रहती। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कतिपय ऐसे भी साधक थे जो
योग-क्रिया द्वारा रहस्य का वास्तविक पता पाना चाहते थे क्योंकि उनकी धारणा
थी कि योग-क्रिया से हम माया के आवरण को समाप्त कर सकते है और इस दशा में ही
मोक्ष की सिद्ध सम्भव है।
वीरशैव वह परम्परा है जिसमें
भक्त शिव परम्परा से बंधा हो। यह दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुई। ये वेदों पर आधारित धर्म है और भारत का तीसरा
सबसे बड़ा शैव मत है। इसके अधिकांश उपासक कर्नाटक में हैं और भारत का
दक्षिण राज्यों महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल, और तमिलनाडु में वीरशैव उपासक अधिकतम
हैं। यह एकेश्वरवादी धर्म है। तमिल में इस धर्म को शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत धर्म भी कहते हैं। उत्तर
भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम शैवागम है। वीरशैव की सभ्यता को
द्राविड सभ्यता कहते हैं।
इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में वीरशैव
अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान आचार्य ) अपने भगवान शिव को
प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद
में शिव भगवान को परमब्रह्म प्रतिपादन को प्रमाण किया श्रीकर भाष्य ने, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद
जगद्गुरु श्री वागिश पंडितारध्य शिवाचार्य उपनिषद जैसे ग्रन्थ को प्रस्थान
त्रय ग्रन्थ में शिवोत्तम का प्रतिपाद्य किया गया। १२वीं शताब्दी में बसवेश्वर जी ने जन भाष्य में
सरल शिवतत्व का दर्शन दिया।
शक्ति को विशिष्ट रूप से उपासन करने के कई
पंथ हैं,
जिसमें
से शक्ति
वुशिष्टाद्वैत
प्रमुख है। इसके अनुसार त्रिगुणात्मक माया तथा विशिष्टाद्वैत के अंशी – भाव दोनों
मिलके शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाती है, ऐसे वीरशैव मत के दार्शनिक प्रतिपादन
है। वीरशैव दर्शन के प्रकार २८ शैवागम हैं, जिसमे से एक है ‘ वीरागम ‘। इसमें
” सर्व वेदेषुयत द्रष्टन्तत सर्वन्तु शिवागमे।। ” मतलब सर्व वेद तथा
वेदोचित सिद्धांतो को ‘ शिवागम ‘ सम्मत करती है, यह तात्पर्य है। इस वाक्य
के अनुसार ‘ वीरशैव ‘ दर्शन भी वेदानुसारी है, यह ध्वनि निकलती है।
पारमेश्वर तंत्र में वीरशैव दर्शन को बाकी वैदिक मतों से जोड़ा गया है।
वीरशैवं वैष्णवंच
शाक्तं सौरम विनायकं। कापालिकमिति विज्नेयम दर्शानानि षडेवहि॥
पाणिनि के सूत्रानुसार ‘ वी ‘ नामक
धातु को ‘ गमन ‘ अर्थ है और उसके लक्षनार्थ ‘ ज्ञान ‘
कहा जाता है। ‘ र ‘ मतलब ‘ रमना ‘ – इस प्रकार वीरशैव का मतलब ज्ञान में
रमनेवाले (‘संतुष्ट होनेवाले‘) शिव-भक्त, ऐसे वीरशैव दर्शन कहता है।
वीरशैव दर्शन में “ आशब्धिम स्पर्शरूपं
अव्ययं अस्तूलम अनन्वहृस्वदीर्घमलोहितं ”
यह उपनिषत प्रमाण और ” तदैक्षत
बहूस्यामप्रजायेय ” श्रुति वाक्य को
प्रमाण देकर वेद-प्रामाण्य को सम्मति दी है। वीरशैव दर्शन में 'शक्ति' को प्राधानता रहने
की कारण, इसे 'शक्ति विशिष्टाद्वैत' कहा गया है।
'शक्ति' को ही सत्व, रजस, तम नामक त्रिगुण
माया, ऐसे दर्शाया है। इस तरह शक्ति के २
रूप है, एक है सद-चित-आनंद रूप। दूसरा, गुण-त्रयों से मिला हुआ ‘मायारूप‘।
इन दो रूपों की मिलन को वीरशैव दर्शन पराशक्ति‘ नाम से पुकारती है।
कापालिक-सम्प्रदाय महाव्रत -सम्प्रदाय
कापालिक -सम्प्रदाय का ही नामान्तर प्रतीत होता है। यामुन मुनि के आगम
प्रामाण्य,
शिवपुराण
तथा आगमपुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद
दिखाय गये हैं। वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम लिये
हैं। यह प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध (१०, ८८ ) में समसिद्धान्त
नाम से जिसका उल्लिखित है, वह कापालिक सम्प्रदाय ही है।
कपालिक नाम के उदय का कारण नर -कपाल
धारण करना बताय जाता है। वस्तुतः यह भी
बहिरंग मत ही है। इसका अन्तरंग रहस्य प्रबोध -चन्द्रोदय की प्रकाश नाम की टीका
में प्रकट किया गया है। तदनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात्
ब्रह्मारन्ध्र उपलक्षित नरकपालस्थ अमृत या चान्द्रीपान करते थे। इस प्रकार
के नामकरण का यही रहस्य है। इन लोगों की धारणा के अनुसार यह अमृतपान
है, इसी से लोग महाव्रत की समाप्ति करते थे, यही व्रतपारणा थी। बौद्ध
आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान
थे। सरबरतन्त्र में १२ कापालिक गुरुओं और उनके १२ शिष्यों के नाम सहित
वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं — आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों
के नाम हैं –नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब
शिष्य तन्त्र के प्रवर्तक रहे हैं। पुराणादि में कापालिक मत के
प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है।
वैदिक लकुलीश लिंग, रुद्राक्ष और भस्म
धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण
करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे।
मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के
पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में लकुलीश मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव
हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की
सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा। कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत
में फैला।
लकुलीश सम्प्रदाय या ‘नकुलीश
सम्प्रदाय’ के प्रवर्तक ‘लकुलीश’ माने जाते हैं। लकुलीश को
स्वयं भगवान शिव का अवतार माना गया है। लकुलीश सिद्धांत पाशुपतों
का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ था। वहाँ इसके दार्शनिक
साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था।
इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना। यह सम्प्रदाय छठी से
नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था।
शिव के अवतारों की सूची, जो वायुपुराण से
लिंगपुराण और कूर्मपुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख
करती है। लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख किया गया है, जो गुजरात के
‘झरपतन’ नामक स्थान में है। लकुलीश की यह मूर्ति
सातवीं शताब्दी की बनी हुई प्रतीत होती है लिंगपुराण में
लकुलीश के मुख्य चार शिष्यों के नाम ‘कुशिक’, ‘गर्ग’, ‘मित्र’ और ‘कौरुष्य’
मिलते हैं। प्राचीन काल में इस सम्प्रदाय के अनुयायी बहुत थे, जिनमें मुख्य साधु
होते थे। इस संप्रदाय का विशेष वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णुपुराण, लिंगपुराण आदि में
मिलता है। इसके अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्ति-स्थान
‘कायावरोहण’ बतलाते थे।
वारंगल, 12वीं सदी में उत्कर्ष पर
रहे आन्ध्र प्रदेश के काकतीयों की प्राचीन राजधानी था। वर्तमान शहर
के दक्षिण–पूर्व में स्थित वारंगल दुर्ग कभी दो दीवारों से घिरा हुआ था।
जिनमें भीतरी दीवार के पत्थर के द्वार (संचार) और बाहरी दीवार के अवशेष
मौजूद हैं। 1162
में
निर्मित 1000
स्तम्भों
वाला शिव
मन्दिर
शहर के भीतर ही स्थित है। कालमुख य अरध्य शैव के कवियों ने तेलुगु भाषाओं की अभूतपूर्व
उन्नति कियी। शैव मत के अंतर्गत कालमुख सम्प्रदाय का यह उत्कर्षकाल था।
वारंगल के संस्ककृत कवियों में सर्वशास्त्र विशारद का लेखक वीरभल्लातदेशिक, और नलकीर्तिकामुदी के रचयिता अगस्त्य के
नाम उल्लेखनीय
हें। कहा जाता है कि अलंकारशास्त्र के
प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतापरुद्रभूषण का लेखक विद्यनाथ यही अगस्त्य था। गणपति का
हस्तिसेनापति जयप, नृत्यरत्नावली का रचयिता था। संस्कृत कवि शाकल्यमल्ल भी इसी का समकालीन था।
तेलगु के कवियों में रंगनाथ रामायणुम का लेखक पलकुरिकी सोमनाथ मुख्य हैं। इसी
समय भास्कर रामायणुम भी लिखी गई। वारंगल नरेश प्रतापरुद्र स्वयं भी तेलगु का अच्छे
कवि थे। आज के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में जो मूर्ति है (बालाजी य वेंकटेश्वर )
वह मूर्ति वीरभद्र स्वामी का है। कहा जाता है कि कृष्ण देवराय के
काल में रामानुज आचार्य ने इस मंदिर को वैष्णवीकरण किया है और वीरभद्र
के मूर्ति को बालाजी का नाम दिया गया।
छठी से नवीं शताब्दी के मध्य
तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ,
जो कवि भी थे। सन्त तिरुमूलर शिवभक्त तथा प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ
तिरुमन्त्रम् के रचयिता थे। तमिल शैव
सिद्धान्त यह एक महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय
अनेकान्त यथार्थवादी समूह था। इसके अनुसार विश्व वास्तविक तथा
आत्माएं अनेक है। यह आंदोलन अंशत: आदि
शैव संतों की कविताओं तथा अंशतः नयनारों (७वीं से १०वी सदी के बीच
) की उत्तम भक्ति पूर्ण कविताओं से विकसित हुआ। इस पंथ के मान्य ग्रंथों के चार वर्गों में २ वेद, २८ आगम, १२ तिमुरई तथा १४ शैव सिद्धान्त शास्त्र शामिल हैं, यद्यपि वेदों का उच्च स्थान है। पर एक्यं शिव द्वारा अपने भक्तो के लिए वर्णित गोपनीय आगमों को अधिक
महत्त्व दिया गया है। १३वीं तथा
१४वीं सदी के आरम्भ में ६ आचार्य ( अधिकांश अब्राह्मण तथा निम्न उत्पति वाले ) द्वारा सिद्धान्त शास्त्र रचे
गए थे। तमिल शैव ग्रंथो तथा
कविताओं में तीन महान शैव आचार्यों अप्पर
तिरुज्ञान, संबंध, एवं सुन्दरमूर्ति
की रचनाएँ शामिल हैं। अघोर
शिवाचार्य जी को संस्थापक माना जाता है।
शाक्त धर्म : मां पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को
प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह
प्रकृति नहीं हो जाती। हर मां प्रकृति है। जहां भी सृजन की
शक्ति है, वहां प्रकृति ही मानी गई है इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है।
प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है।
शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रैण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।
शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रैण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।
मां पार्वती : मां पार्वती का मूल नाम सती है। ये 'सती' शब्द बिगड़कर शक्ति हो गया। पुराणों के अनुसार सती के पिता का नाम दक्ष प्रजापति और माता का नाम मेनका है। पति का नाम शिव और पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं। यज्ञ में स्वाहा होने के बाद सती ने ही पार्वती के रूप में हिमालय के यहां जन्म लिया था।
इन्हें हिमालय की पुत्री अर्थात उमा हैमवती भी कहा जाता है। दुर्गा ने महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करके जनता को कुतंत्र से मुक्त कराया था। उनकी यह पवित्र गाथा मार्केण्डेय पुराण में मिलती है। उन्होंने विष्णु के साथ मिलकर मधु और कैटभ का भी वध किया था।
भैरव, गणेश और हनुमान : अकसर जिक्र होता है कि मां दुर्गा के साथ भगवान भैरव, गणेश और हनुमानजी हमेशा रहते हैं। प्राचीन दुर्गा मंदिरों में आपको भैरव और हनुमानजी की मूर्तियां अवश्य मिलेंगी। दरअसल, भगवान भैरव दुर्गा की सेना के सेनापति माने जाते हैं और उनके साथ हनुमानजी का होना इस बात का प्रमाण है कि राम के काल में ही पार्वती के शिव थे।
प्रमुख पर्व नवदुर्गा : मार्कण्डेय पुराण में परम गोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों की रक्षार्थ बताया गया है। जो देवी की 9 मूर्तियांस्वरूप हैं जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।
धर्म ग्रंथ : शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी 51-52 शक्तिपीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशती भी है।
शाक्त धर्म का उद्देश्य : सभी का उद्देश्य मोक्ष है फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त संप्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियां प्राप्त करते रहते हैं।
वेदों को श्रुति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात जिस ज्ञान को परमेश्वर से सुनकर जाना
गया। वेदों को छोड़कर
सभी ग्रंथ स्मृति ग्रंथ
कहलाते हैं अर्थात जिस ज्ञान को परंपरा के माध्यम से जाना या जिसे स्मृतियों के आधार पर जाना। अधिकतर लोग इस संप्रदाय का नाम शंकराचार्य से जोड़ते हैं। शंकराचार्य ने तो दसनामी संप्रदाय की स्थापना की थी, जो
सभी शिव के उपासक शैव पंथ से हैं।
धर्मग्रंथ : सभी पुराण, स्मृतियां।
प्रमुख देवता : शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य एवं गणेश।
स्मृति ग्रंथों में मनु स्मृति सहित सभी स्मृतियां और पुराण आते हैं। वेदों को छोड़कर जो इन ग्रंथों पर आधारित जीवन-यापन करते हैं उनको स्मार्त संप्रदाय का माना जाता है। जैसे जो विष्णु को भी माने और शिव को भी, दुर्गा को भी और अन्य देवी-देवताओं का भी पूजन करें, वे सभी स्मार्त संप्रदाय के हैं। अधिकतर हिन्दू स्मार्त संप्रदाय के ही हैं जिसमें एकनिष्ठता का अभाव है।
वैदिक संप्रदाय : हालांकि सभी संप्रदाय का
धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन
आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध
किया है।
संत मत : भारत के संत मत को भी वैदिक संप्रदाय का माना जाता है जैसे कबीर, दादू आदि सभी एकेश्वरवाद पर ही जोर देते हैं।
वैदिक धर्म-कर्म पर आधारित हैं। इसमें एक परमेश्वर को ही सर्वोपरि शक्ति माना जाता है
परन्तु
छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी की लगभग समाप्ति तक उत्तरभारत में भागवत धर्म
उन्नति नहीं कर सका। स्मार्त वैदिक
धर्म और बौद्ध
धर्म में लोकरूचि को आकृष्ट करने की होड़ सी हो रही थी।
इसी प्रतिस्पर्धा में बौद्ध धर्म ने एक ओर वैष्णव धर्म की अनेक बातें अपना
लीं तथा दूसरी ओर लोक-विश्वासों और लोक-प्रथाओं को अपनाता हुआ वह
महायान, मन्त्रयान, वज्रयान, सहजयान आदि रूपों में परिणत होता हुआ धीरे-धीरे
नाम-शेष हो गया। पौराणिक धर्म और शंकराचार्य के उद्योग भी बौद्ध-धर्म
को नष्ट करने में धीरे-धीरे सफल होने लगे। परन्तु इस काल में
दक्षिणभारत में भागवत धर्म का उत्कर्ष हो रहा था। दक्षिण के आलवार भक्तों की
परम्परा नवीं शताब्दी तक अविच्छिन्न चलती रही। उनकी भक्ति में प्रपत्ति की
भावना और भगवान के अनुग्रह का सबसे अधिक महत्त्व है। आलवारों की संख्या
बारह मानी जाती है। इनके भावपूर्ण गीत तमिल के 'प्रबन्धम' में संगृहीत है, जिन्हें तमिल वेद की संज्ञा दी जाती है। इन आलवार भक्तों में गोदा या
अण्डाल नाम की एक प्रसिद्ध स्त्री भक्त भी हुई है। इन प्रपत्तिभाव
प्रधान भक्तों ने विष्णु, वासुदेव या नारायण तथा उनके अवतार राम और कृष्ण के प्रति अनन्यभाव का प्रेम प्रकट किया है तथा कृष्ण
और गोपियों की आनन्द-क्रीड़ाओं का तन्मयतापूर्वक वर्णन करते हुए
उनके प्रति दास्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की भक्ति प्रकट की है।
आलवारों की भक्तिभावपूर्ण गीति-रचनाओं में केवल भक्ति
के साधन पक्ष का उद्घाटन मिलता है। नवीं-दसवीं
शती में तमिल प्रदेश में ही आलवारों के भक्ति आन्दोलन को वैदिक और शास्त्रीय रूप देने वाले
आचार्यों का उदय हुआ। शंकर मायावाद-अद्वैतवाद के साथ
भक्ति का सामंजस्य कैसे हो, यह एक विकट समस्या थी। अत: अद्वैत के स्थान पर विशिष्टाद्वैत का
प्रतिपादन किया गया और मायावाद का प्रबल तर्कों के
आधार पर खण्डन किया गया। सबसे पहले आचार्य रंगनाथ मुनि (824-924 ई॰) हुए, जो नाथ मुनि के नाम से
प्रसिद्ध हैं। लुप्तप्राय तमिल वेद * का उद्धार करके उन्होंने
श्रीरंगम के प्रसिद्ध मन्दिर में उसके गायन की व्यवस्था की। 'योगरहस्य' और 'न्याय-तत्त्व' नामक इनके दो संस्कृत ग्रन्थ भी कहे जाते हैं, जिनमें विशिष्टाद्वैत का
प्रतिपादन हुआ है। नाथ मुनि के पौत्र यामुनाचार्य
(आलबंदार) हुए, जिन्होंने 'गीतार्थ-संग्रह, 'सिद्धित्रय', 'महापुरुष-निर्णय' और 'आगम-प्रामाण्य' आदि अनेक ग्रन्थो की रचना करके विशिष्टद्वैत सिद्धान्त का समर्थन , मायावाद का खण्डन, विष्णु की श्रेष्ठता का प्रतिपादन तथा पांचरात्र-सिद्धान्त की
वैदिक प्रामाणिकता की स्थापना की। परन्तु वैष्णव
आचार्यो में सबसे अधिक प्रसिद्ध श्री रामानुजाचार्य (1016-1137) हुए। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर
'श्रीभाष्य' लिखा। इसके अतिरिक्त 'वेदार्थसंग्रह','वेदान्तसार', 'वेदान्तदीप','गद्यत्रय' और 'गीताभाष्य' की रचना करके इन्होंने शंकर
अद्वैत', और भेदाभेद वादी भास्कर मत का खण्डन अपने मायाविरहित विशिष्टाद्वैत तथा उस पर
आधारित प्रपत्तिपूर्ण भक्तिधर्म का प्रतिपादन किया।
रामानुज द्वारा स्थापित भक्ति-धर्म श्रीवैष्णव कहा जाता है, क्योंकि विश्वास किया जाता है
कि इसका प्रवर्तन स्वयं श्री (लक्ष्मी) के
द्वारा हुआ है। लक्ष्मीनारायण इसके उपास्य देव हैं।
रामानुज की मृत्यु के सौ वर्ष के भीतर
दक्षिण में एक अन्य आचार्य मध्व हुए, जिनके नाम पर माध्व मत प्रसिद्ध हुआ। मध्वाचार्य का आध्यात्मिक सिद्धान्त
भेदवाद या द्वैतवाद है। भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ब्रह्मसम्प्रदाय
की स्थापना की, क्योंकि उसके मूल प्रवर्तक स्वयं ब्रह्म माने
जाते हैं। मध्वाचार्य ने
स्पष्ट रूप में मायावाद-अद्वैतवाद का खण्डन करके भक्ति का पथ प्रशस्त किया।
दक्षिण भारत में इस भक्ति-सम्प्रदाय ने, विशेष रूप से कर्नाटक और दक्षिणी महाराष्ट्र में कृष्णभक्ति का व्यापक प्रचार किया। बंगाल का गौड़ीय वैष्णव
सम्प्रदाय भी माध्व मत की एक शाखा कहा जाता है। मध्वाचार्य का एक नाम
आनन्दतीर्थ भी था। इनके लिखे तीस ग्रन्थ कहे जाते हैं, जिनमें 'गीताभाष्य', 'ब्रह्मसूत्रभाष्य', 'अणुभाष्य', 'अनुपाख्यान' , 'दशोपनिषदभाष्य' , 'गीतातात्पर्यनिर्णय' , 'भागवततात्पर्य-निर्णय', 'महाभारततात्पर्य-निर्णय' मुख्य
है।
दक्षिण
के ही एक और आचार्य निम्बार्क या निम्बादित्य प्रसिद्ध हैं। रामगोपाल भण्डारकर के अनुसार इनका समय बारहवीं
शताब्दी (मृत्यु 1162 ई॰) है। कुछ लोगों का विचार है कि ये इससे भी पूर्व हुए
थे और इनका भक्ति-सम्प्रदाय सबसे प्राचीन है। जाति के ये तैलंग
ब्राह्मण और बेलारी ज़िले के निवासी बताये जाते हैं। परन्तु दक्षिण में
निम्बार्क की कोई परम्परा नहीं मिलती। इनके सम्प्रदाय का प्रधान
केन्द्र वृन्दावन ही है तथा गोवर्धन के समीप निम्ब गाँव इनका स्थान कहा जाता है। इनका
असली नाम नियमान्द था, निम्बादित्य या निम्बार्क नाम एक चमत्कार के फलस्वरूप
मिला था। कहते हैं, स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें गोपालमन्त्र की दीक्षा देकर कृष्णोपासना का
उपदेश दिया था। अपने 'वेदान्तपारिजातसौरभ' में इन्होंने बिना किसी का खण्डन किये ब्रह्मसूत्र की संक्षिप्त सृत्ति के रूप में अपने द्वैताद्वैत
सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। 'दशश्लोकी' 'श्रीकृष्णस्तवराज',
'मन्त्ररहस्यषोडशी'
, 'प्रपन्नकल्पबल्ली' आदि इनकी कुछ और छोटी-छोटी रचनाएँ हैं। भक्ति के
प्रचार के लिए अपने द्वैताद्वैतवाद पर आधारित 'सनकादि-सम्प्रदाय' इन्होंने स्थापित किया। इसे हंस-सम्प्रदाय, सनातन-सम्प्रदाय और देवर्षि-सम्प्रदाय भी कहते हैं।
दक्षिण
के उपर्युक्त तीन आचार्यों के अतिरिक्त विष्णुस्वामी नाम के एक
और आचार्य प्रसिद्ध हैं। परन्तु उनके
समय, स्थान तथा धार्मिक विश्वास के
सम्बन्ध में इतना अधिक मतभेद है तथा
उसे दूर करने की सामग्री इतनी स्वल्प
है कि उनके सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित
रूप से कह सकना सम्भव नहीं जान पड़ता। कहा जाता है कि विष्णुस्वामी द्रविड़ देश के
किसी राजा के मन्त्री के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में धार्मिक
संस्कार दृढ़ हो गये थे। स्वयं वंशीधारी किशोर श्याम ने उन्है
दर्शन देकर बताया था कि निराकार रूप के अतिरिक्त मेरा साकार रूप भी होता
है। मुझे प्राप्त करने का सुगम उपाय साकार की भक्ति ही है। फलत: विष्णुस्वामी
ने बालकृष्ण की मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी और भक्ति का उपदेश देना
प्रारम्भ किया। भण्डारकर ने 'भक्तमाल* के उल्लेख के आधार पर विष्णु स्वामी का समय 13
वीं शती अनुमान किया है,
परंतु यह निर्णय बहुत मान्य नहीं कहा
जा सकता। विष्णुस्वामी नाम के कम-से-कम तीन भक्तों का पता चला है। इनमें से कौन
विष्णुस्वामी शुद्वाद्वैत मत के प्रतिपादक तथा भक्ति के 'रुद्रसम्प्रदाय' के संस्थापक थे, यह कहना
सम्भव नहीं है। वस्तुस्थिति यह जान
पड़ती है। कि शुद्धाद्वैत की प्राचीनता
प्रमाणित करने के लिए ही उसका सम्बन्ध
विष्णुस्वामी से जोड़ा जाता है।
दसवीं से तेरहवीं-चौदहवीं शती तक इस
प्रकार भक्ति का आन्दोलन दक्षिण में शास्त्रीय रूप धारण करके तथा आध्यात्मिक पक्ष में दृढ़ होकर पुन: उत्तर की ओर
आया और चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक प्रबल वेग के साथ देश के
विस्तृत भूभाग में महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मध्यदेश, मगध, उत्कल, असम और वंगदेश में फैलकर व्यापक लोकधर्म बन गया। उत्तरभारत में इसका नवीन रूप में
प्रचार करने वाले सबसे प्रथम और सबसे अधिक शक्तिशाली स्वामी रामानन्द हुए, जिन्होंने
आध्यात्मिक दृष्टि से रामानुज के विशिष्टाद्वैत को ही मानते हुए
भक्ति का पृथक् सम्प्रदाय स्थापित किया, जिसमें दाक्षिणात्य श्रीवैष्णवों की तरह स्पर्शास्पर्श के नियम कठोर नहीं थे। लक्ष्मीनारायण के स्थान
पर उन्होंने सीताराम को उपास्य देव बनाया। रामानन्दी वैष्णव वैरागी वैष्णव
कहे जाते हैं। रामानन्द की दो प्रकार की शिष्य-परम्पराए और थीं। एक में
निम्न जातियों के लोग थे और दूसरी में सवर्ण लोग। मध्ययुग में भक्ति का प्रचार
करने वाले भक्त-कवियों में एक के प्रतिनिधि कबीरदास और
दूसरी के तुलसीदास हुए।
चौदहवीं-पन्दहवीं शती में कबीर, रैदास
आदि निर्गुणोपासक सन्तों की भक्ति अधिक प्रबल रही, परन्तु
आगे की शताब्दियों में वल्लभाचार्य (1478-1530) के
शुद्धाद्वैत पर आधारित पुष्टिमार्ग, निम्बाचार्य
द्वारा प्रतिपादित निम्बार्क संप्रदाय और
उत्तरभारत में उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य, औदुम्बराचार्य, गौरमुखाचार्य और लक्ष्मण भट्ट द्वारा प्रचारित सनकादि सम्प्रदाय, मध्वाचार्य
के ब्रह्म या माध्व सम्प्रदाय, गोसाई
हितहरिवंश (1503) के राधावल्लभ सम्प्रदाय, स्वामी
हरिदास के हरिदासी या सखी सम्प्रदाय तथा चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय ने
कृष्णभक्ति-आन्दोलनों के रूप में भागवत धर्म को समय के आवश्यकतानुसार नवीन
रूप दिया और समग्र लोक-जीवन को आमूल प्रभावित करके उसे नयी आशा, उमंग और
क्रियात्मक शक्ति से अनुप्राणित किया। दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति
के रूप में प्रेम भक्ति और मर्यादा भक्ति का अपूर्व समन्वय करके भक्ति-धर्म
को एक नवीन सामाजिक शक्ति प्रदान की। मध्ययुग में भक्ति का प्रचार
करने वाले सभी सम्प्रदायों वर उनके अनुयायी भक्त कवियों ने 'श्रीमद्भागवत' ही
मध्ययुगीन भागवत धर्म का अक्षय स्त्रोत है। वल्लभ-सम्प्रदाय
में तो उसे प्रस्थानत्रयी के साथ सम्मिलित करके 'प्रस्थानचतुष्टय' नाम
से भक्ति-धर्म का आकार माना गया है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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