क्या है षट-अंग योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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जिस
प्रकार महाराज पातांजलि ने अष्ट अंग वाले अष्टांग योग की बात कही है वहीं अमृतनादोपनिषद में योग के षट अंग यानि छह अंग बता कर ईश
प्राप्ति की बात की है। साथ ही भक्ति को योग की बहन बताया है।
योग सनातन की सबसे प्राचीन तथा सबसे समीचीन संपत्ति है।
यही एक ऐसी विद्या है जिसमें वाद-विवाद को कहीं स्थान नहीं,
यही वह एक कला है जिसकी साधना से
अनेक लोग अजर-अमर होकर देह रहते ही
सिद्ध-पदवी को पा गए। यह सर्वसम्मत अविसंवादि सिद्धांत है कि योग ही सर्वोत्तम मोक्षोपाय
है। भवतापतापित जीवों को सर्वसंतापहर भगवान से मिलाने में योग अपनी बहिन
भक्ति का प्रधान सहायक है। जिसको अंतरदृष्टि नहीं,
उसके लिए शास्त्र भारभूत है। यह
अंतरदृष्टि बिना योग के संभव नहीं। अत: इसमें संदेह नहीं कि
भारतीय तत्वज्ञान के कोश को पाने के लिए योग की कुंजी पाना परमावश्यक है।
इस
काल में सर्वसाधारण जन को योग का ज्ञान बहुत ही कम है। किसी को जो कुछ ज्ञान है, वह पातंजल योग का और वह भी दुरधीत तथा दुरध्यापित शास्त्ररूपेण। योगचर्या तथा योगाभ्यास से हमारा सभ्य
संघ उतना ही संपर्क रखता है जितना माया-परिष्वक्त जीव सर्वदु:खहर महेश्वर
से रखता है। यही एक प्रधान कारण है कि इस समय योग के संबंध में
विचित्र-विचित्र बातें विद्वज्जन के मुख से भी सुनने में आती है। अस्तु। इस
समय इसकी कैसी भी दुर्दशा अनात्मज्ञ लोगों में क्यों न हो, भारतवर्ष के आध्यात्मिक इतिहास में योग का सर्वदा विशिष्ट स्थान रहा है।
अमृतनादोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता
वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।
कृष्ण
यजुर्वेद
शाखा के इस अमृतनादोपनिषद, उपनिषद में 'प्रणवोपासना' के साथ योग के छह अंगों- प्रत्याहार,
धारणा,
ध्यान, प्राणायाम, तर्क और समाधि आदि- का वर्णन किया गया है। योग-साधना
के अन्तर्गत 'प्राणायाम' विधि, ॐकार की मात्राओं का ध्यान,
पंच प्राणों का स्वरूप,
योग करने वाले साधक की प्रवृत्तियां
तथा निर्वाण-प्राप्ति से ब्रह्मलोक तक जाने वाले मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है। इस
उपनिषद में उन्तालीस मन्त्र हैं।
प्राणोपासना
ॐकार के रथ पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुंचा जा सकता है-ॐकार-रूपी रथ पर आरूढ़ होकर और
भगवान विष्णु को सारथि बनाकर ब्रह्मलोक का चिन्तन करते हुए ज्ञानी
पुरुष देवाधिदेव भगवान रुद्र
की उपासना में निरन्तर तल्लीन रहें। तब
ज्ञानी पुरुष का प्राण निश्चित रूप से 'परब्रह्म' तक पहुंच जाता है।
योग-साधना (प्राणायाम)
जब मन अथवा प्राण नियन्त्रण में नहीं होता,
तब विषय-वासनाओं की ओर
भटकता है। विषयी व्यक्ति पापकर्मों में
लिप्त हो जाता है। यदि 'प्राणयाम' विधि से प्राण का नियन्त्रण कर लिया जाये,
तो पाप की सम्भावना नष्ट हो जाती
है।
आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि हठयोग के छह कर्म
माने गये हैं। इनके प्रयोग से शरीर का
शोधन हो जाता है। स्थिरता, धैर्य, हलकापन, संसार-आसक्तिविहीन और आत्मा का अनुभव होने लगता है।
सामान्य व्यक्ति 'प्राणायाम' का अर्थ वायु को अन्दर खींचना,
रोकना और निकालना मात्र
समझते हैं। यह भ्रामक स्थिति है।
प्राण-शक्ति संसार के कण-कण में व्याप्त है। वायु में
भी प्राण-शक्ति है। इसीलिए प्राणायाम द्वारा वायु में स्थित
प्राण-शक्ति को नियन्त्रित किया जाता है प्राण पर नियन्त्रण होते ही शरीर और मन
पर नियन्त्रण हो जाता है। प्राणायाम करने वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा
आरोग्य, बल, उत्साह और
जीवनी-शक्ति को श्वास द्वारा अपने भीतर
ले जाता है, उसे कुछ देर भीतर रोकता
है और फिर उसी वायु को बाहर की ओर
निकालकर अन्दर के अनेक रोगों और निर्बलताओं को बाहर फेंक देता है।
'प्राणायाम' के लिए साधक को स्थान,
काल,
आहार,
आदि का पूरा ध्यान रखना
चाहिए। 'शुद्धता' इसकी सबसे बड़ी शर्त है। 'प्राणायाम' करते समय तीन
स्थितियां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रेचक' होती हैं।
- 'पूरक' का अर्थ है- वायु को नासिका द्वारा शरीर में भरना,
- 'कुम्भक' का अर्थ है- वायु को भीतर रोकना और
- 'रेचक' का अर्थ है- उसे नासिका छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालना।
सीधे
हाथ के अंगूठे से नासिका के सीधे छिद्र को बन्द करें और बाएं छिद्र
से श्वास खींचें,
बायां छिद्र भी अंगुली से बन्द करके
श्वास को रोकें, फिर दाहिने छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। इस बीच 'ओंकार' का स्मरण करते
रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ाते
जायें। इसी प्रकार बायां छिद्र बन्द करके दाहिने छिद्र से श्वास खींचें,
रोकें और बाएं छिद्र से निकाल दें।
अभ्यास द्वारा इसे घण्टों तक किया जा
सकता है। शनै:-शनै: आत्मा में ध्यान केन्द्रित हो जाता है।
षट अंग :
1.
आसन: शरीर की वह अवस्था जिस में बैठकर ह्म स्थिरता के साथ ध्यान कर सकें।
2.
मुद्रा: शरीर की उंगलियों को और हथेली को किस प्रकार एक दुसरे के सम्पर्क में रखा जाये
कि हमारे शरीर में व्याप्त विभिन्न वायु चक्र सुव्यवस्थित रहकर ध्यान में सहायक हों।
3.
प्रत्याहार: प्रति आहार मतलब सांसारिक भोग
विलास व अन्य को त्यागने की आदत।
4.
प्रणायाम: प्राण वायु का आयाम।
5.
ध्यान
6
समाधि
उसके
बाद घटित हो सकता है योग। वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव”
ही योग है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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