कैसे बनें वास्तविक ब्राह्मण और उत्तर
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
विपुल के
दोहे।
योग
योग तो सब रटै, योगी भया न कोय।
प्राणी
जब अंतर्मुखी, योग घटित तब होय।।
हाथ
पैर को मोड़कर, समझावै यह योग।
सरकस
जोकर सब करै, महागुरू फिर भोग ।।
चित्त
वृत्ति निरोध जब, योग तभी तू जान।
हाथ
पैर मोड़ा करै, क्रिया शरीर की मान।।
वैदिक ग्रंथ ‘मुंडक उपनिषद्’ में परब्रह्म के स्वरूप
और उसे प्राप्त करने के मार्ग का वर्णन किया गया है । माना जाता है कि यह ग्रंथ
प्रमुखतया उन आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है जो मोक्ष की
समझ और उसकी प्राप्ति का मार्ग जानना चाहते हैं । वैदिक दार्शनिेकों के मतानुसार
जीवधारियों का भौतिक पदार्थों से बना स्थूल शरीर तो नश्वर है, किंतु उसमें ‘निवास’ करने वाली
अमूर्त आत्मा अमर है । स्थूल स्तर पर नाशवान शरीर की जिस मृत्यु का अनुभव हम करते
हैं वह वस्तुतः आत्मा का शरीर छोड़ना भर है । वास्तव में आत्मा वारंवार शरीर धारण
करती है और कालांतर में उसे छोड़ती है । वह जन्म-मरण के चक्र से बंधी रहती है ।
प्राचीन वैदिक चिंतक मानने थे कि परमात्मा या परब्रह्म समस्त सृष्टि का मूल है और
आत्मा वस्तुतः उसका एक अंश है । परब्रह्म और आत्मा के बीच का संबंध कुछ-कुछ वैसा ही
है जैसा विशाल समुद्र और उससे विलग हुई जल की एक बूंद का । अपनी देह से संपादित
कर्मफलों के बंधन से आत्मा जन्ममरण के चक्र में तब तक भटकती रहती है जब तक कि उसे
अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् परब्रह्म का अंश होने का ज्ञान नहीं हो जाता है ।
ज्ञानप्राप्ति के पश्चात वह उसी में लीन हो जाती है । उस अवस्था को माक्ष की
संज्ञा दी गई है । सामान्य शब्दों में अभिव्यक्त इस दार्शनिक विचार के गहरे अर्थ
समझना किस-किस के लिए संभव है यह मैं नहीं कह सकता ।
आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किसे और कैसे मिलता है
इस बात का उल्लेख मुंडक उपनिषद के अधःप्रस्तुत तीन मंत्रों में मिलता है:
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष
वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्। (मुण्डकोपनिषद्, मुंडक
3, खंड 2)
अर्थ – यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही
बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है
उसेयह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।
यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक
स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन
से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान
नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता
है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में
केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का
हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं
प्राप्त हो सकता है ।
जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है। वह ब्राह्मण बन जाता है।
जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है। वह ब्राह्मण बन जाता है।
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो
वाप्यलिंगात्। एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।। (यथा
पूर्वोक्त)
(न अयम् आत्मा बल-हीनेन लभ्यः न च प्रमादात् तपसः वा अपि अलिंगात् एतैः
उपायैः यतते यः तु विद्वान् तस्य एषः आत्मा विशते ब्रह्म-धाम ।)
अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार
के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु
संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी
की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।
यहां पर बलहीन का अर्थ सामान्य दैहिक अथवा बौद्धिक बल से नहीं है । जिसके पास
आत्मसंयम का सामर्थ्य है वही बलवान है क्योंकि वह विपरीत परिस्थिति में भी अविचलित
रह सकता है । किंतु ऐसा व्यक्ति भी मोक्ष्य के योग्य नहीं होता । संन्यास का अर्थ
है सांसारिक बंधनों से स्वयं को मुक्त करना । जिस व्यक्ति को कोई लालसा नहीं,
जो संभी बंधन तोड़ चुका हो, जिसका न कोई अपना
रह गया हो और न पराया वह वीतराग संन्यासी कहलाता है । ऐसा संन्यासी बनना ही परब्रह्म
के ज्ञान का उपाय है ।
संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागः
प्रशान्ताः। ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ।।5।। (यथा
पूर्वोक्त)
(संप्राप्य एनम् ऋषयः ज्ञान-तृप्ताः कृत-आत्मानः वीत-रागः प्रशान्ताः ते
सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीराः युक्त-आत्मानः सर्वम् एव आविशन्ति ।)
अर्थ – आत्मा के यथार्थ को पा लेने पर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त,
और परम शान्त हो जाते हैं । वे धीर पुरुष उस सर्वव्यापी परब्रह्म को
सर्वत्र प्राप्त करते हुए और उससे युक्तचित्त होकर उसी संपूर्ण ब्रह्म में प्रवेश
कर जाते हैं, यानी उससे एकाकार हो जाते हैं ।वह ब्राह्मण बन जाता है।
इस मंत्र की व्याख्या में कहा गया है कि आत्मा के
मूलस्वरूप का ज्ञान पा चुकने वाले ऋषि के लिए उसका शरीर एक अस्थाई सांसारिक बंधन
रह जाता है । उसके लिए देहत्याग पर परब्रह्म में लीन होना वैसा ही होता है जैसा
किसी घड़े के टूटकर बिखरने पर उसके भीतर के आंशिक आकाश और बाह्य असीमित आकाश के बीच
का भेद समाप्त हो जाता है । युक्तचित्त की स्थिति में केवल ब्रह्म का ही भाव उसके
मन में रह जाता है और सांसारिक समस्त वस्तुओं में उसी ब्रह्म के दर्शन होने लगते
है । उसके लिए कुछ भी सांसारिक बांछनीय नहीं रह जाता है । प्राचीन काल में वैदिक
चिंतकों को कदाचित घड़े का दृष्टांत ही उपयुक्त लगा होगा । आज विकल्पतः हवा भरे
गुब्बारे का दृष्टांत सोचा जा सकता है जिसके, भीतर का आकाश बाह्य आकाश से पूरी तरह विभक्त रहता है।
में श्रीकृष्ण स्वयं कहते है सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मतलब कि मैँ सभी प्राणीयोँ के दिल में बसता हूँ। अहं ब्रह्मास्मि ये वाक्य
मानव को महसुस कराता है कि जिस भगवानने बडेबडे सागर, पर्वत,
ग्रह, ये पुरा ब्रह्मांड बनाया उस अखंड
शक्तिस्रोत का मैँ अंश हूँ तो मुझे भी उसका तेजोँऽश मुझमे भी जागृत कर उसका बननेका
प्रयत्न करना चाहिए। तभी उसकी नैतिक उन्नती की शुरूवात हो जाती है।
अहं ब्रह्मास्मि - यजुर्वेदः बृहदारण्यकोपनिषत् अध्याय
1 ब्राह्मणम् 4
मंत्र 10 ॥
सर कथाएं कहानी न पूछे। वास्तविक अनुभव
पूछे। कहानी कथाएं गूगल गुरू में ढूढ़ ले।
नैय्यर जी यह आसाराम बापू से दीक्षित
है। कुछ अंदर की बात जो लिखने से आसाराम जी के सभी शिष्य बुरा मानेंगे।
बस उस कारण लगभग सभी आसाराम जी के चेले
शक्तिहीन होते जा रहे है। कुछ को छोड़कर।
किन्ही कारणों से वह गुरू शक्ति कमजोर
हो रही है। आप चाहे तो नाप ले आसाराम जी की शक्ति।
यही इनके साथ हो रहा है। मैंने कुछ
सहारा दिया पर मेरी सीमाएं है। क्योकि मैं गुरू नही। ये बहुत रोई गिड़गिड़ाई। मैंने
सुख हेतु सामान्य मन्त्र दिया था। उससे सम्भल गई है। पर आगे आगे देखिए क्या होता
है।
सही होगी। क्या आप बहुत धनी अथवा किसी
से दुष्मनी या बहुत सुंदर है।
किस कारण यह सब।
नैय्यर जी यह सब न करे। यह आपके लिए
उचित होगा।
बस आगे नही।
ग्रुप के तांत्रिक नानू सिंह अवकाश पर
है।
बिना तन्त्र जाने या किसी शक्ति की
सिद्धि के यह गलत या उल्टा भी हो सकता है।
मित्र यह कट पेस्ट है। क्या आपने लिखा
है। गूगल में तमाम है। जो आप लिखे भक्ति गीत भाव अनुभव इत्यादि वो ही पोस्ट करे।
स्वतः प्राप्त ज्ञान। दूसरो का नही।
मतलब दूसरो का ज्ञान बिखेरने से क्या मिलेगा सिर्फ लाइक डिसलाइक। जो हमारा गर्व ही
बढ़ाएगी।
अतः आपकी स्वयं की अनुभूति और व्याख्या
का स्वागत है।
इस ग्रुप को आप धीरे धीरे जानेंगे।
डॉक्टर इंजीनियर साधू सन्यासी प्रणायाम विशेषज्ञ तमाम है अतः आपके गूगल के ज्ञान
गौण ही रहेगे।
फिर यदि हर आदमी कट पेस्ट डालने लगा तो
ग्रुप का वास्तविक उद्देश्य मार्ग दर्शन का भटक जाएगा।
किताबी ज्ञान दीमकी ज्ञान होता है।
वास्तविक नही।
आपके लिए
मैं यह जानना चाहता हूँ कोई आपके पति पर तन्त्र क्यो करेगा।
मित्र यह ग्रुप का नियम है। यहाँ पर
अधिकतर लोग आत्म अवलोकन हेतु आते है। आप देखेंगे कोई कट पेस्ट नही।
हा आप यह कर सकते है सुबह की पहली
पोस्ट में किसी श्लोक की व्याख्या जो छोटी सी हो पेस्ट कर दे।
बड़ी पोस्ट का लिंक डाल दे।
न पूछे। यार जगत की चिंता छोड़ो। अपना
कर्म करो।
अब प्रश्न न पूछे इससे सम्बंधित।
मैं एक किस्सा बताता हूँ। स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज, मेरे दादा गुरू महाराज,
और एक अन्य गुजरात के साधक साथ साथ थे। गुरु महाराज बिना गुरु आज्ञा
के गुरुपद पर नही बैठे।
उनके मित्र खुद आराधना करके स्वतः गुरु बन बैठे।
उनके शिष्य काफी अधिक हो गए। पर बुढापे में कुछ ऐसा हुआ कि मित्र गुरु को मनोवैज्ञानिक
समस्या हो गई। जीज कारण उनके सभी शिष्य भी उसी हालत में आने लगे।
अन्यथा न ले। मुझे आसाराम जी के प्रवचन सबसे अधिक अनुभवित और सत्य लगते थे।
आज भी मैं उनके ज्ञान का सम्मान करता हूँ।
पर मैंने एक बार ध्यान में देखा था कि आसाराम बापू लीलाशाह महाराज के सामने
बातचीत कर रहे है। जहां आसाराम जी अपनी साधना अनुभव बता कर गुरु पद हेतु आग्रह कर
रहे है। पर लीला शाह ने पहले मना किया पर बाद में बोला ठीक है जैसी तुम्हारी
मर्जी। मतलब उनकी सहमति नही थी।
पर परम् अनुभवी और ज्ञानी आसाराम जी न माने करोड़ो चेले बना डाले। आगे क्या
होगा समय बताएगा।
इससे अधिक संकेत मैं न कर सकूंगा।
यह जगह कुछ गुफा नुमा छोटी जगह नुमा
थी। लीला महाराज ऊपर पत्थर जैसे जगह पर बैठे थे। आसाराम जी उनके पैरों के पास बैठ
कर काली ढाढी बढ़ाये पैर दबाकर बात कर रहे थे।
जी ऐसा हमे लगता है पर है नही। हम
सिर्फ बासी भोजन करते है।
जी आत्म गुरु सही मार्ग दिखाता है। तुम
मानो या न मानो
बासी भोजन का अर्थ है कि हम जो कुछ भी
करते है उसका अधिकतर कर्मफल तुंरन्त नही भोगते हैं। वह युगों योगों तक संचित होते
है। अर्थात हम अपने संचित कर्म फल प्रारब्ध को भोगते है।
आपने भीष्म की शर शैय्या और 73 जन्मो की कहानी तो पढ़ी ही होगी।
यदि हम सुख भोगते है तो वह पूर्व में
किये गए अच्छे कर्मों का फल है।
दुख भोगते है तो भी।
जैसे हमने मन्त्र जप किये तो तुंरन्त
कुछ थोड़ी न हुआ। अनेको वर्षो या जन्मो के बाद देव दर्शन का सौभाग्य मिला तो यह एक
दिन की और तुंरन्त कई बात नही हुई।
आदमी कैसे देखता है आंख से। मतलब क्या आंख
देखती है। ठीक है।
एक व्यक्ति जिसे मृत्य बोला जाता है उसके
आंख तो होती है तो वह क्यो नही देखता??
तो प्रश्न है कि कौन देखता है।
आंख के माध्यम से कौन देखता है।
मतलब देखने का कर्म कौन रहा है। आंख पर कौन
देख रहा है?? आत्मा।
जब वह निकल गई शरीर एक लकड़ी का टुकड़ा। जो
धू धू कर जल उठता है।
मतलब साफ कार्य करने के पीछे किसका सहयोग।
आत्मा का। यह साकार शरीर उस निराकार आत्मा के सहयोग से कुछ कर पाता है। तो कारक
कौन।
कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।
जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में
तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है।
ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक
यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही
मिलती। मोक्ष नही मिलता।
नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना
और अनुभव करना ज्ञान है।
शरीर सिर्फ माध्यम है।
आत्मा तो शुध्द चैतन्य ही होती है
उसके ऊपर लेयर के रूप में चित्त की
तरंगें होती हैं
हा यही समझो।
कुछ भी कहो।
तब ही तो परमात्मा को कर्ता कहते है।
सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।
कर्ता
भर्ता
हर्ता
सब परमात्मा ही।
क्यो
क्योकि यह शरीर पदार्थ है
और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।
सत्य है। लोगो को समझाने के लिए कर्ता
लिखना पड़ता है।
मतलब एक बार ईश की ऊर्जा की आवृत्ति तक
छू कर भी आ गए। तो सब स्पष्ट हो जाता है।
यह उच्चतम अवस्था है। बंदा बैरागी और
तमाम सिख गुरुओ के साथ औरंगजेब ने क्या नही किया। पर उन्होंने अपना धर्म नही बदला।
रमन महृषि का ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया
के हुआ था।
वास्तव में जो वहाँ स्तिथ हो जाते है
वे ही इस अवस्था मे पहुचते है।
आम आत्मज्ञानी। वहाँ गए कुछ पल। फिर
वापिस। यही आना जाना लगा रहता है।
कलियुग में सेवा ही सबसे बड़ा कर्म माना
जाता है।
प्रायः बड़े बड़े गुरुओ के ऑपरेशन
एनस्थीसिया देकर ही होते थे है और रहेगे।
इस समय मातृ शक्ति की आराधना पूरे
विश्व मे होती है। अतः संकल्पों के कारण इस रूप में ईश शक्ति जागृत होती है। अतः
ईश की माँ के रूप में पूजा करनी चाहिए। देवी की आराधना मन्त्र नाम जप कैसे भी करना
बेहतर होगा।
इस जन्म में भी मनुष्य किसी न किसी
बहाने अपने पूर्व साथियों से मिल जाता है।
प्रभु के मार्ग में बनिया बुद्धि नहीं
चलती। लाभ हानि नही देखते।दोनों का महत्व है।
साधना एकान्तता का परिचायक है। अंदर की
ओर ले जाती है।
सत्संग वाहीक वातावरण से होनेवाले
दुष्प्रभावों से दूर रखता है।
अतः दोनो आवश्यक है।
क्योकि संगति ही सत्मार्ग या कुमार्ग पर ले जाती है। हमे दिखाती है।
साधना मार्ग पर बढ़ने का इंजन है। और सत्संग
मार्ग।
वेदान्त महावाक्य : आत्मा में परमात्मा की
एकात्मकता का अनुभव ही योग है।
पातञ्जलि : योगी के आंतरिक लक्षण : चित्त
में वृती का निरोध योग है
श्री कृष्ण : जिसमे समत्व है, जो स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ हो। यह योगी के लक्षण है।
जो अपने कार्य को कुशलता से करता हो। यह भी
लक्षण है।
तुलसीदास : जिसमे संतोष हो यह योगी के
लक्षण है।
जब हम द्वैत से अद्वैत का अनुभव करते है।
तब योग घटित होने को योग कहते है। सनातनपुत्र विपुल
जब हम अहम ब्रम्हास्मि का अनुभव कर लेते
है। तब योग घटित होता है। सनातनपुत्र विपुल खोजी
कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या
hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।
जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में
तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है।
ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक
यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही
मिलती। मोक्ष नही मिलता।
नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना
और अनुभव करना ज्ञान है।
तब ही ही तो परमात्मा को कर्ता कहते
है।
सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।
कर्ता
भर्ता
हर्ता
सब परमात्मा ही।
क्यो
क्योकि यह शरीर पदार्थ है
और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।
सत्य है। लोगो को समझाने के लिए कर्ता
लिखना पड़ता है।
मतलब एक बार ईश की ऊर्जा की आवृत्ति तक
छू कर भी आ गए। तो सब स्पष्ट हो जाता है।
यह उच्चतम अवस्था है। बंदा बैरागी और
तमाम सिख गुरुओ के साथ औरंगजेब ने क्या नही किया। पर उन्होंने अपना धर्म नही बदला।
रमन महृषि का ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया के
हुआ था।
वास्तव में जो वहाँ स्तिथ हो जाते है वे ही
इस अवस्था मे पहुचते है।
आम आत्मज्ञानी। वहाँ गए कुछ पल। फिर वापिस।
यही आना जाना लगा रहता है।
प्रभु के मार्ग में बनिया बुद्धि नहीं
चलती। लाभ हानि नही देखते।दोनों का महत्व है।
साधना एकान्तता का परिचायक है। अंदर की ओर
ले जाती है।
सत्संग वाहीक वातावरण से होनेवाले
दुष्प्रभावों से दूर रखता है।
अतः दोनो आवश्यक है।
क्योकि संगति ही सत्मार्ग या कुमार्ग पर ले जाती है। हमे दिखाती है।
साधना मार्ग पर बढ़ने का इंजन है। और सत्संग
मार्ग।
जय गुरूदेव महाकाली।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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