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Thursday, January 10, 2019

संत या स्वतंत्रता सेनानी : आचार्य श्री राम शर्मा



संत या स्वतंत्रता सेनानी : आचार्य श्री राम शर्मा
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,


अखिल भारतीय गायत्री परिवार के संस्थापक पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितम्बर,1911 (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। उनका बाल्यकाल गांव में ही बीता। उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा जी जमींदार घराने के थे और दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे। आचार्य जी भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था।

साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । वह एक बार हिमालय की ओर भाग निकले और बाद में पकडे जाने पर बोले कि हिमालय ही उनका घर है और वहीं वे जा रहे थे ।

महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में ही लोगों ने उनके अंदर के अवतारी रूप को पहचान लिया था। उन्हें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं था। वह कुष्ठ रोगियों की भी सेवा करते थे। इस महान संत ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया।

आचार्य जी ने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी ।

भारत के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था।

1927  से 1933  तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै।

नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, आन्दोलन के दौरान फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे लेकिन उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये लेकिन झण्डा नहीं छोड़ा।उनकी सहनशक्ति देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी आगरा में उनके साथ रहे व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं । स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर मिलने वाली पेंशन को भी उन्होंने प्रधानमंत्री राहत फण्ड को समर्पित कर दिया।

1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंचो पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाये, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए उन्होंने "अखण्ड ज्योति" नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया । हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।

आसनसोल जेल में वे श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।

श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रभाव से राजनीति में प्रवेश करने के बाद शर्माजी धीरे-धीरे महात्मा गांधी के अत्यंत निकट हो गए थे। 1942 से पूर्व के आठ-दस वर्षों तक वे प्रति वर्ष दो मास सेवाग्राम में गांधीजी के पास रहा करते थे। बापू का उन पर अटूट विश्वास था। आचार्य कृपलानी, श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. गोविंदवल्लभ पंत, डॉ. कैलासनाथ काटजू आदि नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन के समय शर्माजी को उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) तथा मध्य प्रदेश का प्रभारी नेता नियुक्त किया गया था। इसके पूर्व मैनपुरी षड्यंत्र केस में उनका सहयोग रहा था। विचारों तथा कर्मों से क्रांतिकारी शर्माजी 1942 के आगरा षड्यंत्र केस के प्रमुख अभियुक्त थे। केस का नाम था King Emperor v/s Sri Ram Sharma and others. इस मुकदमे में 14 अभियुक्त थे। शर्माजी के बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, उनकी बेटी कमला शर्मा के साथ उनके बड़े भाई पं. बालाप्रसाद शर्मा पकड़े गए थे।

अंत में 1945 में सब लोग जेल से रिहा हुए। गिरफ्तारी और जेल-प्रवास के दौरान शर्माजी के तीन पुत्रों की मृत्यु हो गई और पुलिस की मारपीट के कारण उनका एक कान भी फट गया था। जेल से छूटने के बाद वे सीधे गांधीजी के पास गए थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे लेखन कार्य में ही अधिक रत रहे। जीवन के अंतिम 8-10 वर्षों में उन्होंने नेत्रहीन अवस्था में पांच पुस्तकें बोलकर लिखीं। ग्लोकोमा' के कारण उनके दोनों नेत्रों की ज्योति जाती रही थी।

अनमोल विचार
1.अवसर तो सभी को जिन्‍दगी में मिलते हैं, किंतु उनका सही वक्‍त पर सही तरीके से इस्‍तेमाल कुछ ही कर पाते हैं।
2.इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दुख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।
3. जब हम ऐसा सोचते हैं की अपने स्वार्थ की पूर्ती में कोई आंच न आने दी जाय और दूसरों से अनुचित लाभ उठा लें तो वैसी ही आकांक्षा दूसरे भी हम से क्यों न करेंगे.
4. जीवन में दो ही व्यक्ति असफल होते हैं- एक वे जो सोचते हैं पर करते नहीं,  दूसरे जो करते हैं पर सोचते नहीं।
5.विचारों के अन्दर बहुत बड़ी शक्ति होती है । विचार आदमी को गिरा सकतें है और विचार ही आदमी को उठा सकतें है । आदमी कुछ नहीं हैं ।
6. लक्ष्य के अनुरूप भाव उदय होता है तथा उसी स्तर का प्रभाव क्रिया में पैदा होता है।
7.लोभी मनुष्य की कामना कभी पूर्ण नहीं होती।
8.मानव के कार्य ही उसके विचारों की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है।
9.अव्यवस्थित मस्तिष्क वाला कोई भी व्यक्ति संसार में सफल नहीं हो सकता।
10.जीवन में सफलता पाने के लिए आत्मा विश्वास उतना ही ज़रूरी है, जितना जीने के लिए भोजन। कोई भी सफलता बिना आत्मा विश्वास के मिलना असंभव है।

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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महर्षि महेश योगी


महर्षि महेश योगी 
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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महर्षि महेश योगी भारत की उन आध्यात्मिक विभूतियों में से एक थे, जिन्होंने भावातीत ज्ञान योग की स्थापना की तथा इसके द्वारा मानवीय सेवा का जो कार्य उन्होंने किया, वह बहुत ही अमूल्य है । भारत देश में ही नहीं, अपितु विश्व-भर में उन्होंने इस ध्यान योग के साथ-साथ शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना भी की ।  इन शैक्षणिक संस्थाओं में भारतीय संस्कृति के धर्म, आध्यात्म के साथ-साथ जीवन के व्यावहारिक मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है।

कोई जबलपुर तो कोई  जन्म 12 जनवरी 1918 को छत्तीसगढ़ के राजिम शहर पांडुका गांव को जन्म स्थान बताता है। कोई उनका नाम  महेश श्रीवास्तव  तो कोई महेश प्रसाद वर्मा लिखता है। कुछ भी हो वो थे एक भारतीय महायोगी जिनको महऋषि की उपाधि दी गई। नाम तो वर्मा और श्रीवास्तव एक ही हैं क्योकि दोनों कायस्थ उपजाति के सर नेम हैं। महर्षि योगी के गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती शंकराचार्य थे । उनके देहान्त के उपरान्त महेश श्रीवास्तव महर्षि महेश योगी कहलाये । गुरु की आज्ञानुसार उन्होंने समस्त विश्व में वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने का बीड़ा उठाया ।

हिमालय के बद्रीकाश्रम तथा ज्योर्तिमठों में रहकर ध्यान, योग की साधना की । दक्षिण भारत में विशेषत: उन्होंने आध्यात्मिक विकास केन्द्र की स्थापना की । दिसम्बर 1957 को आध्यात्मिक पुनरुत्थान कार्यक्रम शुरू किया । 1960 में पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकल पड़े ।

वहां रहकर उन्होंने अमेरिका में भावातीत के रूप में मानवीय चेतना के विस्तार का कार्य किया । पश्चिम देशों में जाकर उन्होंने रासायनिक द्रव्यों के कुप्रभाव के साथ-साथ पदार्थवादी सभ्यता से बचने हेतु सन्देश दिया । ध्यान पद्धति के द्वारा मादक द्रव्यों के सेवन के बिना किस तरह तनाव पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसका व्यावहारिक रूप उन्होंने प्रस्तुत किया ।

इस भावातीत ध्यान से आकर्षित होकर हालीबुड की प्रसिद्ध फिल्म स्टार मिया फारो ने महर्षि को अपना गुरु बना लिया । विदेशों में तो उनके पास रातो-रात प्रसिद्धि के साथ-साथ काफी धनराशि का ढेर-सा लग गया । उन्होंने पश्चिम के वैज्ञानिकों को भी यह प्रमाणित करके बताया कि भावातीत ध्यान से किस तरह मनुष्य को शान्ति प्राप्त होती है ।

इसके द्वारा बुद्धि, ज्ञान तथा योग्यता की क्षमताओं में वृद्धि होती है । आत्मा को शक्ति और आनन्द का सागर बताते हुए उन्होंने ध्यान को ही प्रमुख माना है । विश्वशान्ति, विश्वबन्धुत्व, पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति, वैदिक शिक्षा का प्रचार, भावातीत ध्यान के महत्त्व को संसार में फैलाना उनका प्रमुख उद्देश्य था ।

वैदिक शिक्षा के माध्यम से आदर्श व्यक्ति, समस्याहीन, रोगहीन, दु:खविहीन, संघर्षविहीन, आदर्श समाज, आदर्श भारत का निर्माण करते हुए भारत सहित समस्त विश्व में दिव्य जागरण लाना उनका ध्येय था । अपने 30 से भी अधिक वर्षो की भ्रमण यात्रा के दौरान उन्होंने 1975 में स्वीटजरलैण्ड में मेरू महर्षि यूरोपियन रिसर्च यूनिवर्सिटी स्थापित की ।

उन्होंने तीन अन्तर्राष्ट्रीय भावातीत राजधानियों में स्वीटजरलैण्ड में सीलिसबर्ग, न्यूयार्क में साउथ फाल्सबर्ग और ऋषिकेश में शंकराचार्य नगर की स्थापना की । इन सब स्थानों पर विशाल भव्य भवनों की स्थापना हेतु अपार धन-सम्पदा अर्जित की ।
नयी दिल्ली के पास नोएडा में महर्षि नगर तथा आयुर्वेद विश्वविद्यालय और वैदिक विज्ञान महाविद्यालय की भी संकल्पना की । समस्त विश्व के 150 स्थानों में 4 हजार केन्द्र उनके द्वारा संचालित हो रहे हैं ।

महर्षि महेश योगी की भावातीत ध्यान साधना एवं वैदिक शिक्षा की महत्त्वपूर्ण विशेषता प्राचीन भारतीय शिक्षा के साथ-साथ पाश्चात्य शिक्षा का इसमें अनूठा समन्वय करना है । मनुष्य अपनी समस्त शक्तियों को भावातीत ज्ञान के माध्यम से एकीकृत चेतना में समाहित कर पूर्ण शान्ति और विकास को प्राप्त हो सकता है।  विश्व-भर में भारतीय वैदिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में महर्षि महेश योगी का नाम हमेशा अमर रहेगा।

आज के समय में तो लोग रामदेव और दूसरे योग गुरुओं के दीवाने हैं, लेकिन एक समय था जब पश्चिम में हिप्पी संस्कृति तेजी से फैल रही थी और लोग महर्षि महेश योगी के अनुयायी बन रहे थे. आपको बता दें कि महर्षि महेश योगी ने ही दुनिया के कई देशों में योग को पहुंचाया.

बता दें कि 5 फ़रवरी, साल 2008 के ही दिन महर्षि महेश योगी का निधन हुआ था. नीदरलैंड्स स्थित उनके घर में 91 साल की उम्र में उनका देहांत हुआ.

उन्होंने 'ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन' (अनुभवातीत ध्यान) के जरिए दुनिया भर में अपने लाखों अनुयायी बनाए थे. आपको बता दें कि 60 के दशक में मशहूर रॉक बैंड बीटल्स के सदस्य भी उनके ही अनुयायी थे, इसके साथ ही वो कई बड़ी हस्तियों के आध्यात्मिक गुरू हुए.

उन्होंने इलाहाबाद से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की थी. इसके बाद वो 40 और 50 के दशक में हिमालय में अपने गुरू के पास चले गए और वहां पर ध्यान और योग की शिक्षा लेते रहे.

एक बार की बात है जब महेश योगी ऋषिकेश में बनाए गए अपने अत्याधुनिक आश्रम में थे तो बीटल्स के सदस्य हेलिकॉप्टर से वहां पहुंचे थे. हालांकि बीटल्स म्यूजिक ग्रुप का महर्षि योगी से जल्दी ही मोह भंग हो गया लेकिन तब तक उनका साम्राज्य दिल्ली से अमरीका तक फैल चुका था.

जब वो दुनिया भर में प्रसिद्ध हो चुके थे तो उनसे लोग पूछा करते थे कि आखिर उनको संत क्यों कहा जाता है ? इस पर उनका जवाब ये होता था कि 'मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है. इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं. चूंकि पहले सभी संतों का यही संदेश रहा है इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं.'

एक पत्रकार ने उनसे एक इंटरव्यू में पूछा था कि वे और उनका ध्यान-योग पश्चिमी देशों में बहुत लोकप्रिय है लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, भारत में उन्हें ज्यादा लोग नहीं मानते हैं, ऐसा क्यों है ?

इस सवाल पर उनका कहना था कि 'इसकी वजह यह है कि यदि पश्चिमी देशों में लोग किसी चीज के पीछ वैज्ञानिक कारण देखते हैं तो उसे तुरंत अपना लेते हैं और मेरा ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन योग के सिद्धांतों पर कायम रहते हुए पूरी तरह वैज्ञानिक है.'

बीटल्स रॉक बैंड ने महर्षि महेश योगी के 18 एकड़ में फैले इस आश्रम में तीन महीने रहने की योजना बनाई थी, लेकिन उनकी ये योजना सफल नहीं हो सकी. लेकिन आज ये आश्रम उन दिनों की भुतहा निशानी बन कर रह गया है. आपको बता दें कि ये आश्रम नेशनल पार्क में बना हुआ है, जहां 1,700 हाथी और चीता एवं तेंदुआ जैसे जानवर रहते हैं.

लेकिन अब यहां की दीवारों पर जंगल के झाड़ और पेड़ उग आए हैं. कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार यह आश्रम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस बहुत सुंदर ढंग से बनाया गया था. यहां मेहमान हैलीकॉप्टर से आते जाते थे और यूरोपीय मॉडल के किचन में तीन वक्त का शाकाहारी भोजन दिया जाता था.

आपको जानकर हैरानी होगी कि महर्षि महेश योगी ने 'राम' नाम की एक मुद्रा भी जारी की थी. इस मुद्रा को नीदरलैंड्स ने साल 2003 में कानूनी मान्यता भी दी थी. राम नाम की इस मुद्रा में एक, पांच और दस के नोट थे. इस मुद्रा को महर्षि की संस्था 'ग्लोबल कंट्री ऑफ़ वर्ल्ड पीस' ने साल 2002 के अक्टूबर में जारी किया गया था.

नीदरलैंड्स के कुछ गाँवों और शहरों की सौ से अधिक दुकानों में ये नोट चलने लगे थे. इन दुकानों में कुछ तो बड़े डिपार्टमेंट स्टोर श्रृंखला का हिस्सा थे. अमरीकी राज्य आइवा के महर्षि वैदिक सिटी में भी 'राम' मुद्रा का प्रचलन था. वैसे 35 अमरीकी राज्यों में 'राम' पर आधारित बॉन्डस शुरू किए गए थे.

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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