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Wednesday, January 29, 2020

हे दुख भंजन रासबिहारी

      हे दुख भंजन रासबिहारी

                दास विपुल

हे दुख भंजन रासबिहारी,  करूं मैं विनती देवा॥

राधारमण श्री हरिनारायण,  कृपा करो हे देवा॥ 

 

तुम हो नर नारायण प्रभुजी,  हो जग पालन हारी।

शरण तुम्हारी आन पड़े हैं,  राखो लाज हमारी॥ 

दया के सागर नाम तुम्हारा, हो देवों के देवा॥

राधारमण श्री हरिनारायण,  कृपा करो हे देवा॥


नंद के लाला रूप विशाला,  बंसी मधुर सुना दो।

भक्तजनों के मन मंदिर में,  प्रेमल दीप जला दो॥

धेनु चराई रास रचाकर,  बन गोपालक देवा॥

राधारमण श्री हरिनारायण,  कृपा करो हे देवा॥


मीरा की तानों में बसते, भक्त की आह सजते॥

सूर की भक्ति ज्ञान की धारा, हरि हर श्वास में बसते॥

चक्रसुदर्शन धारी प्रभु जी,  हो योगेश्वर देवा।

 राधारमण श्री हरिनारायण,  कृपा करो हे देवा॥

तीर्थ शिवोम् की धारा प्रभु जी, नित्यबोधानन्द तुम्ही।

आन बसो अब सांवरे उर में, दास विपुल ध्यान तुम्ही॥ 

जग आधीन तुम्हारे प्रभुवर, भक्त आधीन हो देवा॥

राधारमण श्री हरिनारायण,  कृपा करो हे देवा॥ 

 

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

 

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Wednesday, January 15, 2020

भक्ति से मुक्ति और मोक्ष

भक्ति से मुक्ति और मोक्ष

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
 सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

जीवों की संख्या अनंत है। मूलत: वे चेतन और आनंदमय नित्य तत्व हैं पर भौतिक शरीर के संसर्ग से एवं कर्मबंधन से वे दुख भोगते हैं। ईश्वर जीवों का अंतर्यामी रूप से नियंता है, फिर भी वास्तविक कर्ता, भोक्ता तथा कर्म का उत्तरदायी जीव ही है।


ज्ञानपूर्वक ईश्वर से नित्य स्नेह करना भक्ति है जिससे ही जीव मुक्त हो सकता है।

निष्काम धर्म और कर्म से जीव को तत्वज्ञान में सहायता मिलती है - ध्यान से ईश्वरानुग्रह का लाभ होता है और अंत में उसे ईश्वर के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान हो जाता है।

जब ज्ञान की प्रतिष्ठा हो जाती है तब जीव बंधनमुक्त हो जाता है।

ईश्वर का अनुग्रह सबको नहीं मिलता - वह कुछ लोगों को मुक्ति के लिए चुनता है, बाकी लोगों को छोड़ देता है।

जिनको वह उनकी भक्ति के अनुसार मोक्ष देता है वे ईश्वर में लीन नहीं होते। उनको केवल ईश्वर की सन्निधि मिलती है।

मुक्त जीव ईश्वर की समानता भी नहीं प्राप्त कर सकते।

भक्ति की तीव्रता के अनुसार मुक्ति छह प्रकार की मानी गई है – सार्ष्टि, सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य या लीनता और साम्य ।

मुक्ति कर्म के बन्धन से मोक्ष पाने की स्थिति है। यह स्थिति जीवन में ही प्राप्त हो सकती है। मुक्ति निम्न छह प्रकार की होती हैं:

सार्ष्टि : ईश के समान ऐश्वर्य की प्राप्ति

सालोक्य: जीव भगवान के साथ उनके लोक में ही वास करता हैं।

सामीप्य:  जीव भगवान के सन्निध्य में रहते हुये कामनायें भोगता हैं।

सारूप्य: जीव भगवान के साम्य (जैसे चतुर्भुज) रूप लिए इच्छायें अनुभूत करता हैं।

सायुज्य: भक्त भगवान मे लीन होकर आनंद की अनुभूति करता हैं।

साम्य : आपकी समता या समानता की प्राप्ति

ब्रह्मवैवर्त पुराण वेदमार्ग का दसवाँ पुराण है। अठारह पुराणों में प्राचीनतम पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण को माना गया है। इस पुराण में जीव की उत्पत्ति के कारण और ब्रह्माजी द्वारा समस्त भू-मंडल, जल-मंडल और वायु-मंडल में विचरण करने वाले जीवों के जन्म और उनके पालन पोषण का सविस्तार वर्णन किया गया है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन, श्रीराधा की गोलोक-लीला तथा अवतार-लीलाका सुन्दर विवेचन, विभिन्न देवताओं की महिमा एवं एकरूपता और उनकी साधना-उपासनाका सुन्दर निरूपण किया गया है। अनेक भक्तिपरक आख्यानों एवं स्तोत्रोंका भी इसमें अद्भुत संग्रह है।

इस पुराण में चार खण्ड हैं। ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, श्रीकृष्णजन्मखण्ड और गणेशखण्ड। इन चारों खण्डों से युक्त यह पुराण अठारह हजार श्लोकों का बताया गया है। यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य है प्रकृति के भिन्न-भिन्न परिणामों का जहां प्रतिपादन हो वही पुराण ब्रह्मवैवर्त कहलाता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में श्रीकृष्ण लीला का वर्णन 'भागवत पुराण' से काफी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन श्रृंगार रस से परिपूर्ण है। इस पुराण में सृष्टि का मूल श्रीकृष्ण को बताया गया है। ब्रह्म वैवर्त पुराण: यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए।

सृष्टि निर्माण के उपरान्त रास मण्डल में उनके अर्द्ध वाम अंग से राधा का जन्म हुआ। रोमकूपों से ग्वाल बाल और गोपियों का जन्म हुआ। गायें, हंस, तुरंग और सिंह प्रकट हुए। शिव वाहन के लिए बैल, ब्रह्मा के लिए हंस, धर्म के लिए तुरंग (अश्व) और दुर्गा के लिए सिंह दिए गए।


यह पुराण कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में असंख्य विश्व विद्यमान हैं। प्रत्येक विश्व के अपने-अपने विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं। इन सभी विश्वों से ऊपर गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण निवास करते
ब्रह्म खण्ड में कृष्ण चरित्र की विविध लीलाओं और सृष्टि क्रम का वर्णन प्राप्त होता है। कृष्ण के शरीर से ही समस्त देवी-देवताओं को आविर्भाव माना गया है। इस खण्ड में भगवान सूर्य द्वारा संकलित एक स्वतन्त्र 'आयुर्वेद संहिता' का भी उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद समस्त रोगों का परिज्ञान करके उनके प्रभाव को नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है। इसी खण्ड में श्रीकृष्ण के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में राधा का आविर्भाव उनके वाम अंग से दिखाया गया है। 


अध्याय 6: प्रभो! सार्ष्टि, सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, साम्य और लीनता– मुक्त पुरुष ये छः प्रकार की मुक्तियाँ बताते हैं। अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञता, दूरश्रवण, परकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, सृष्टिशक्ति, संहारशक्ति, अमरत्व और सर्वाग्रगण्यता – ये अठारह सिद्धियाँ मानी गयी हैं।
सर्वेश्वर! योग, तप, सब प्रकार के दान, व्रत, यश, कीर्ति, वाणी, सत्य, धर्म, उपवास, सम्पूर्ण तीर्थों में भ्रमण, स्नान, आपके सिवा अन्य देवता का पूजन, देव प्रतिमाओं का दर्शन, सात द्वीपों की परिक्रमा, समस्त समुद्रों में स्नान, सभी स्वर्गों के दर्शन, ब्रह्मपद, रुद्रपद, विष्णुपद तथा परमपद– ये तथा और भी जो अनिर्वचनीय, वांछनीय पद हैं, वे सब-के-सब आपकी भक्ति के कलांश की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं।

महादेव जी का यह वचन सुनकर भगवान श्रीकृष्ण हँसे और उन योगिगुरु महादेव जी से यह सर्वसुखदायक सत्य वचन बोले–
श्रीभगवान ने कहा – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सर्वेश्वर शिव! तुम पूरे सौ करोड़ कल्पों तक निरन्तर दिन-रात मेरी सेवा करो। सुरेश्वर! तुम तपस्वीजनों, सिद्धों, योगियों, ज्ञानियों, वैष्णवों तथा देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो।


शम्भो! तुम अमरत्व लाभ करो और महान मत्युंजय हो जाओ। मेरे वर से तुम्हें सब प्रकार की सिद्धियाँ, वेदों का ज्ञान और सर्वज्ञता प्राप्त होगी। वत्स! तुम लीलापूर्वक असंख्य ब्रह्माओं का पतन देखोगे। शिव! आज से तुम ज्ञान, तेज, अवस्था, पराक्रम, यश और तेज में मेरे समान हो जाओ। तुम मेरे लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। तुमसे बढ़कर मेरा कोई प्रिय भक्त नहीं है: 


त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मनः परः ।
ये त्वां निन्दन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतनाः ।
पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
शिव! तुमसे बढ़कर अत्यन्त प्रिय मेरे लिये दूसरा नहीं है। तुम मेरी आत्मा से बढ़कर हो। जो पापिष्ठ, अज्ञानी और चेतनाहीन मनुष्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, वे तब तक कालसूत्र नरक में पकाये जाते हैं, जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है।


ये हुई मुक्ति, मानव की जगत के प्रपंच से मुक्ति किंतु मोक्ष नहीं। मोक्ष का अर्थ है सभी प्रकार के भावों और संस्कारों से मुक्त होकर ब्रह्म की निराकार ऊर्जा में विलीन हो जाना। कुछ उसी भांति जैसे समुद्र से एक बूंद अलग हुई। वाष्प बनी फिर वर्षा के रूप में धरती पर आई। फिर वह या तो तालाब में जायेगी या धरती में समायेगी या पेड़ पौधों की जड़ में समाकर फूल पत्ती या फल में चली जायेगी। अब बूंद कहां से आई और कहां गई। वह फल किसी ने खाया फिर उस बूंद को उत्सर्जित कर त्यागा फिर वह बूंद कहीं समा गई। उस बूंद का चक्र समुद्र में ना जाकर कहीं और चलता रहा। लेकिन यदि वह समुद्र में मिल गई तो उसका अस्तित्व ही समुद्र का हो। उसका स्वयं का कोई अस्तित्व न रहा। बस इसी भांति आप समुद्र को ब्रह्म का निराकार रूप समझें और पानी बूंद आप। जो पानी के गुण लेकर विभिन्न रूपों में भटकी। बस ऐसे ही हम और आप।
क्योंकि यह मुक्ति हमारे पुण्य क्षीण होने के कारण फिर हमें जगत में भेज सकती हैं। जैसे जल की बूंद जल का स्वभाव भूलकर और रूप बन गई। बस इसी भांति हम जगत में अपने मूल रूप को भूल कर भटक रहें हैं। 

 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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Tuesday, January 14, 2020

क्या हैं: द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत

क्या हैं: द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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जिस आचार्य ने जिस रूप में (ब्रह्म) को देखा उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएँ होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टी का नियंता है।


अद्वैत वेदान्त, वेदान्त की एक शाखा है। जिसको आदि शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया। उसे शांकराद्वैत भी कहा जाता है।

अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टी में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखों से पानी आता है और हाथ काँटा निकालने के लिए जाता है ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।


मधवाचार्य द्वारा प्रतिपादित तथा उनके अनुयायियों द्वारा उपबृंहित द्वैतवाद रामानुज के विशिष्ट द्वैतवाद से काफी मिलता-जुलता है। मधवाचार्य बिना संकोच द्वैत का प्रतिपादन करते हैं।

अद्वैत वेदांत को मध्व "मायावादी दानव' कहते हैं। इनके अनुसार जगत्प्रवाह पाँच भेदों से समन्वित है- (१) जीव और ईश्वर में, (२) जीव और जीव में, (३) जीव और जड़ में, (४) ईश्वर और जड़ में तथा (५) जड़ और जड़ में भेद स्वाभाविक है।

संसार सत्य है और इसमें होनेवाले भेद भी सत्य हैं। वस्तु का स्वरूप ही भेदमय है। ज्ञान में हम वस्तु को अन्य वस्तुओें से अलग करके एक विलक्षण रूप में जानते हैं। चूँकि ज्ञेय विषय भिन्न हैं अत: हमारा ज्ञान भी ज्ञेय के अनुसार भिन्न भिन्न होता है।


रामानुज की तरह द्वैतवाद में भी ईश्वर, चित्‌ और अचित्‌ इन तीन नित्य, परस्पर भिन्न तत्वों को सत्य माना गया है। इनमें से चित्‌ और अचित्‌ ईश्वराश्रित हैं। केवल ईश्वर अनाश्रित तत्व है। वह अनंत सद्गुणों से युक्त है। वही विश्व का स्रष्टा, पालक और संहारक है। वह दिव्य शरीरधारी विश्वातीत और विश्वांतर्यामी दोनों माना गया है। ईश्वर पूर्ण है- कर्मों का अधिष्ठाता ईश्वर केवल भक्ति से प्रसन्न होता है। वह अवतारों और व्यूहों में प्रकट होता है तथा मूर्तियों में निवास करता है। उसकी सहचरी लक्ष्मी उसी की तरह सर्वव्यापिनी है पर उसके गुण लक्ष्मीपति से कुछ न्यून हैं। उसी को ईश्वर की शक्ति कहते हैं।

वेदों के अध्ययन से ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है, अत: वह अनिर्वचनीय नहीं है। पर उसको पूर्ण रूप से जानना भी सहज नहीं है। ईश्वर के गुण अनंत हैं, अत: उसकी सत्ता सीमित नहीं है- असीमता के कारण उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। वही ईश्वर विष्णु है। अपनी इच्छा से वह विश्व का नियमन करता है- वह जीव और जड़ को नए सिरे से बना नहीं सकता और न ही उनका विनाश कर सकता है। वह केवल निमित्त कारण है - उपादान कारण नहीं।


ईश्वर को जब सृष्टि करने की इच्छा होती है, मूल प्रकृति नाना भौतिक पदार्थों के रूप में अपना विकास करती है। सृष्टि का अर्थ है सूक्ष्म का स्थूल रूप में परिणाम तथा जीवों को कर्मानुसार फल देने के लिए शरीरप्रदान। द्वैत वेदांत अद्वैत-मत-परक वैदिक वाक्यों का खींच तानकर अर्थ निकालता है - जैसे "एकमेवाद्वितीयम्‌' का अर्थ होगा - ब्रह्म के समान कोई दूसरा नहीं है। इसीलिए द्वैतवाद वेदों की अपेक्षा आगमों और पुराणों को अधिक महत्व देता है।


विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट+अद्वैत) आचार्य रामानुज (सन् 1037-1137 ईं.) का प्रतिपादित किया हुआ मत है। इसके अनुसार यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं। इस सिद्धांत में आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन है। शंकराचार्य ने जगत को माया करार देते हुए इसे मिथ्या बताया है। लेकिन रामानुज ने अपने सिद्धांत में यह स्थापित किया है कि जगत भी ब्रह्म ने ही बनाया है। परिणामस्वरूप यह मिथ्या नहीं हो सकता।


द्वैताद्वैत दर्शन के प्रणेता निम्बार्क हैं। उनके दर्शन को भेदाभेदवाद (भेद+अभेद वाद) भी कहते हैं। ईश्वर, जीव व जगत् के मध्य भेदाभेद सिद्ध करते हुए द्वैत व अद्वैत दोनों की समान रूप से प्रतिष्ठा करना ही निम्बार्क दर्शन (द्वैताद्वैत) की प्रमुख विशेषता रही है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद विपरीत स्मृतियाँ अमान्य हैं।

जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही धर्म हैं। किसी एक को उपादेय तथा अन्य को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की कल्पना करना उचित नहीं है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।

इस प्रकार भेद और अभेद दोनों विरुद्ध पदार्थों का निर्देश करने वाली श्रुतियों में से किसी एक प्रकार की श्रुति को उपादेय अथवा प्रधान कहें तो दूसरी को हेय या गौण कहना पड़ेगा। इससे शास्त्र की हानि होती है। क्योंकि वेद सर्वांशतया प्रमाण है। श्रुति स्मृतियों का निर्णय है। अतः तुल्य होने से भेद और अभेद दोनों को ही प्रधान मानना होगा, व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो जावे।


श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं। यथा- ‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८) ‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१) ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) । ‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३) अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८) इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।


‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १) आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा. ३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।


श्रीनिम्बार्काचार्यपाद ने उक्त समस्या का समाधान करके ऐसे ही अविरोधी समन्वयात्मक मार्ग का उपदेश किया है।  उनका कहना है– ‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। उसके बिना घडे की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप से रहते हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’

‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उतपत्ति होती है। सद्रूप होने से यह अभेद स्वाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है। वह दूध से दही जैसा नहीं है। दूध, दही बनकर अपने दुग्धत्व (दूधपने) को जिस प्रकार समाप्त कर देता है, वैसे ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत होकर अपने स्वरूप को समाप्त नहीं करता, अपितु मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं। ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल भुगताता है, अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत् का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही है।

इसी समन्वयात्मक दार्शनिक प्रणाली को स्वाभाविक भेदाभेद अथवा स्वाभाविक द्वैताद्वैत शब्द से अभिहित करते हैं, जिसका उपदेश श्रीनिम्बार्काचार्य चरण ने किया है।


शुद्धाद्वैत वल्लभाचार्य (1479-1531 ई) द्वारा प्रतिपादित दर्शन है। वल्लभाचार्य पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं। यह एक वैष्णव सम्प्रदाय है जो श्रीकृष्ण की पूजा अर्चना करता है। वल्लभाचार्य का जन्म बनारस में हुआ।बनारस में दीक्षा पूरी करके अपने गृहनगर विजयनगर चले गए जहां इनको कृष्णदेवराय का संरक्षण प्राप्त हुआ।


शुद्धाद्वैत दर्शन, आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। 'केवलाद्वैत' मत में जहां माया शबलित ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है एवं सम्पूर्ण जगत् को मिथ्या कहा गया है, वहीं शुद्धाद्वैत मत में माया सम्बन्धरहित नितान्त शुद्ध ब्रह्म को जगत् का कारण माना जाता है।


आचार्य शंकर अपने सिद्धान्त के अनुरूप अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु श्रीवल्लभाचार्यचरण भगवान् कृष्णद्वैपायनव्यास के मतानुसार ‘‘शुद्धाद्वैत साकार ब्रह्मवाद“ का प्रतिपादन करते हैं। ‘‘साकार ब्रह्मवादैकस्थापकः“ ।


श्रीवल्लभाचार्यजी स्पष्ट आज्ञा करते हैं ‘‘शब्द एव प्रमाणम्“ ‘‘तत्राप्यलौकिकज्ञापकमेंव, तत् स्वतः सिद्धप्रमाणभावं प्रमाणम्“। प्रत्यक्षादि प्रमाणों में भ्रान्तत्व का भी दर्शन होने से उनका प्रामाण्य एकान्तिक नहीं हो सकता। अतः उन सबों को न कहकर केवल ‘‘शब्द प्रमाण“ को ही स्वीकार किया गया है एवं उसमें भी अलौकिक ज्ञापक शब्द का ही स्वीकार है।


केवलाद्वैत में जहां द्वैत को सर्वथा मायिक मानते हुए जगत् को मिथ्या माना गया है तथा जीव को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब माना गया है ( अर्थात् जीव ही ब्रह्म है), वहीं शुद्धाद्वैत में ‘‘ब्रह्मसत्यं जगत्सत्यं अंशोजीवोहि नापरः“ (ब्रह्म सत्य है, जगत सत्य है, जीव ब्रह्म का अंश है) ऐसा कहा गया है।

सरल रूप में महान् सन्देश -

एकमेवाद्वितीयम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा एक ही है , अद्वितीय है ।  इस प्रकार आत्मा का #एक ही होना और #अद्वितीय होना वेदसिद्ध है ।

शान्तं_शिवमद्वैतम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा शान्त है , शिव है , #अद्वैत है ।

सत्यं_ज्ञानमनन्तम्- यह श्रुति आत्मा को सत्य , ज्ञान और #अनन्त लक्षण बताती है ।

सर्वं_खल्विदं_ब्रह्म - यह श्रुति कहती है कि यह सब आत्मा ही है ।

अहं_ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा_ब्रह्म इत्यादि  श्रुतियॉ जीव को भी ब्रह्म ही बताती हैं ।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मम् - यह श्रुति आत्मा को अत्यन्त सूक्ष्म बताती है ।

जब आत्मा एक ही है , वह सत्य है , ज्ञानस्वरूप है, अनन्त है   यह सब है ,  शान्त है, शिव है , अद्वैत है  और अत्यन्त सूक्ष्म है , तो  फिर  भेद का अवकाश ही कहॉ रहा ?

 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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Sunday, January 5, 2020

लटकते दोहे

 लटकते दोहे

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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ज्ञानी ज्ञानी जूझते, ज्ञानी समझ न पाय।

ज्ञानी चुप बैठे रहे, ज्ञानी उठ भग जाय।।

मैं सही और तू गलत, कौन किसे बतलाय।

इते ब्रह्म देखा करें, उते ब्रह्म समझाय।।

गागर है जितनी बड़ी, उतना नीर समाय।

अधिक जल जो भर गया, बाहर बह बह जाय।।

ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है, ब्रह्म सर्वस्य है आप।

तू छोटा और मैं बड़ा, इसे समझना पाप।।

शब्द एक निष्काम है अर्थ अनेकों लोग।

जब समझे निष्काम क्या, नहीं लगावे भोग।।

मन संकल्प भाव उगे, जिसका फल संस्कार।

शुभ अशुभ सब गौण है, करे पुकार संस्कार।।

जगत कर्म न छोड़ना, छोड़ो फल क्या आय।

नहीं लिप्त जब कर्म करो, ताका फल मुरझाय।।

है आसक्ति ही बुरी, सत रज तम गुण रूप।

नष्ट करो आसक्ति को, यह निष्काम स्वरूप।।

काव्य नहीं आसान है, बिन कृपा रच न पाय।

गर इतना आसान हो, हर कबीर बन जाय।

मन मेरा हरिधाम है, तन मंदिर है आप।

एक यही विनती मेरी, रटू राम का जाप।।

दोनों रूप अलग सही, आत्म रूप है एक।

मूर्ख को दो दो दिखे, ब्रह्म नहीं है अनेक।।


जो कुछ जग में है घटित, गुरु की लीला जान।

गुरू प्रभु तो एक है, बस यही तू मान।।

परम आनंद तो तीर्थ है विष्णु है महाराज।

संग शिवोम तीर्थ नाम ले धाम चार करियाद।।

रक्ष रक्ष परमेश्वरी रक्षा कर फरियाद।

जीवन सुखमय होए तब जो करता है याद।।

जय किसकी करता फिरे, तेरी जय जग होय।

ब्रह्म रूप तू ही रहे, मूरख काहे रोय।

जय आतम की बोलकर, खोले मन के द्वार।

सारे संशय मिटे जब, मिट जाय मन भार।।

आतम भाव में लीन हो, भूलेगा संसार।

ब्रह्म वही मिल जायगा, मिल मुक्ति का द्वार।।

हरि हरि जपता रहे, मन हरियाली होय।

हरि नाम का जाप ही,  बिया मुक्ति का बोय।।

राम नाम को लूट ले, कर का सोना डार।

बना तिजोरी हृदय की, हो जावेगा पार।।

गली-गली मिल जायेंगे, भांति भांति के चोर।

 राम नाम ना ही मिला, कैसे होगी भोर।।

मन सूरज बन जायगा, तभी मिलेगी शीत।

जब जल जाय मन मेरा, तभी मिलेगी प्रीत।।

जतन किए बहु विधि फिरे, कहीं मिले न राम।

जब जग छोड़ा कर्म सब, प्रकट हुए भगवान।।

कर्म हीन जग को दिखे, कर्म हींन निष्काम।

सब जगती को खेल है, अविद्या विद्या जान।।

स्वयं प्रशंसा जो करें, आतम हत्या समान।

प्रभु कृष्ण बतला गये, अर्जुन को यह ज्ञान।।

बकरी मैं मैं कर फिरे, गले छुरी चलवाय।

ज्यादा मीठा सड़ गया, कीड़ा ही पड़ जाय।।

गन्ना कितना मीठ बन, कोल्हू पेरा जाय।

बकरी मैं मैं कर फिरे, गले छुरी चलवाय।।

लय बिन काव्य न बन सके, लय बिन न कोई जीव।

लय बिन धरा न टिक सके, देती प्रकृति सीख।।

जीवन की रफ्तार लय, लय बिन सुर न साज।

तोल मोल कर बोलना,  जीवन दे आवाज।।

नहीं समझते भाव जो, वह अभाव रह जाय।

मूरख कुछ समझे नहीं,  कैसे उसे समझाय।।

भावों की नदिया बहे, यह प्रभु की सौगात।

सदा लीन प्रभु में रहो, चाहे दिन या रात।।

प्रभु चिंतन के भाव है मैं मूरख क्या जान।

केवल मैंने सीखा है एक हरि का नाम।।

हर पल मैं सोचा करूं, जब भूलूं हरि नाम।

तब इस जगती को मिले, मेरा अंतिम प्रणाम।।

अर्थ अनेक बनते रहते, शब्द किंतु है एक।

अपना-अपना राग है अपनी अपनी टेक।।

मोर मोर को देखकर, आनंदित है मोर।

सुवरण को ढूंढत फिरें कवि व्यभिचारी चोर।।

मेरी भव बाधा हरो राधा नागर सोय।

जा तन की झाई पड़े शाम हरि दुत होय।।

जो दिखलाऊं बाहर मैं, वैसा भीतर होय।

पर ऐसा होता नहीं, डर दुकान को खोय।।

अंदर खस्ताहाल है, बाहर ऊंची दुकान।

अंदर तो विष भरा है, बाहर दिखे पकवान।।

थोथा ज्ञान दे रहे, सगुण निर्गुण बतलाय।

ऐसे मूरख ज्ञानी जन, हर घर मे मिल जाय।।

निराकार अंत रूप है, सगुण व्यक्त है रूप।

सगुण वही साकार है, रूप है तत्व अनूप।।

ईश्वर प्राप्ति मारग पर, ज्ञानी बढ़ता जाय।

मूरख पीटे लकीर यह, निर्गुण सगुण पगलाय।।

पढ़ किताबें दीमक सी, ज्ञानी यू पगराय।

जस ब्रह्म का ज्ञान सब, पानी भर कर जाय।।

जो जाने साकार सगुण, वैज्ञानिक कहलाय।

जो जाने निराकार है, ज्ञानी वह बन जाय।।

रात्रि गरजी वर्षा थमी, भादों की बरसात।

अंधकार देकर गया, कृष्ण रूप सौगात।।

ईश प्रेम ने ले लिया, कृष्ण रूप अवतार।

सन्तो को मालूम हुआ, करेगा जग उद्दार।।

सप्तम पुत्र हत्या हुई, माँ का पूछो हाल।

कांप कलेजा जग गया, सुन सत्ता का हाल।।

सृष्टि का जो करे जगत, पाप रूप ये काम।

मुक्ति सोचों दूर की, पाये नही विश्राम।।

हत्या करे जो जीव की, पूर्ण पाप यह काम।

मन को मिले न शांति, ईश्वर का अपमान।।

जन्माष्टमी का पर्व जो, पुनः स्मरण कराये।

दुष्ट कर्म तू छोड़ दे, कृष्ण प्रेम पा जाये।।

प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।

ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।। 

 

 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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Wednesday, January 1, 2020

मैं माटी का पुतला

मैं माटी का पुतला

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
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मैं माटी का पुतला केवल, मिट्टी मेरा धाम है।

हरिनाम की लीला दीखे, कोटि जिसे प्रणाम है।।

वर्ष बिताए तीन हजार, भटक भटक कर भटक रहा।

कितना समझाये सद्गुरूवर, मोह माया में अटक रहा।।

जाने कब तक मुक्ति होगी, नहीं पता कुछ मुझको है।

गुरुवर सदा मुस्काते रहते, लाख धता जस मुझको है।।

खेल जगत के देखा करता, नाटक लगता जग सारा।

इस नाटक ने लूटा जग को, जग को लगता यह प्यारा।।

मैं भी एक नाटक का हिस्सा, समय बिताता आया हूँ।

कृपा असीम देव गुरुवर की, प्रभु को अपने पाया हूँ।।

कैसे माया है भरमाती, चाल देखता बेबस हूँ।

माया को कोई पार न पाया, ढाल है टूटी नीरस हूँ।।

साँसों की माला को गिनता, एक सांस न आएगी।

नहीं रुकेगी यात्रा अपनी, जाने कहाँ ले जाएगी।।

इस चक्र का आवागमन, काल काल का ग्रास बने।

मूरख मनवा सत्य यह माने, भांति भांति के स्वप्न बुने।।

लोभ जगत का गहराया जब, नाम प्रभु का भूल गया।

साथ जो तेरे न जाएगा, उसको पाकर झूल गया।।

शब्दो की बाजार सजी है, सुंदर प्यारी भाषा।

पर माया से मोहित होवे, करनी न जो आशा।।

बड़े बड़े मंचो पर आसीन, सुंदर फोटो लगावै।

पर नोटों की गड्डी देखी, झटपट छोड़ें भागै।।

यही दिखावा बढ़ता जाय, चढ़ कानून के हत्थे।

बाहर आया जो था अंदर, रह गए हक्के बक्के।।

जो अंदर से भरे हुए है, बाहर दिखते खाली।

मूर्ख़ बने रहते दुनिया में, अंदर ज्ञान की प्याली।।

पर दुनिया की रीति निराली, बड़ी दुकान है भाए।

जहां ज्ञान पर मान दिखे न, उधर कौन है जाए।।

दास विपुल जगत की लीला, उलट फेर है मानी।

लाख जतन करता आया, न बन पाया ज्ञानी॥ 

 

 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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