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Wednesday, March 28, 2018

सहस्त्रसार चक्र क्या है



सहस्त्रसार चक्र क्या है

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब चैनल:  vipkavi
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/



नोट : मैं कोई महायोगी होने का। गुरु होने का । महाज्ञानी होने का अथवा महान आत्मा होने का दावा नही करता हूँ। मै एक खोजक हूँ और प्रभु कृपा का याचक हूँ जो भारतीय सनातन के रहस्यों को समझना चाहता हूँ और जन मानस तक पहुचाने का प्रयास करता हूँ। अतः आप मेरी बात को कोरी कल्पना और गप्प मानने के लिए स्वतंत्र है। किंतु यदि कोई मुझे भारतीय भारतीय ग्रंथों में से कुछ वर्णन लाकर देगा। मैं उसका आभार मानूँगा।
 
 
सहस्त्रसार चक्र के बारे में गूगल गुरु मुझे कुछ विशेष न बता सके। 
 
अतः मैने अपने ध्यान से इस चक्र को देखना चाहा और जो देखा वह गलत सही बताने का प्रयास करता हूँ। पर जैसा कि सुना यहाँ पर जाने से शरीर चमकता है जमीन से कुछ इंच उठ जाते है। ऐसा मेरे साथ कुछ नही है। मैं योग यानी कुण्डलनी के साथ वहाँ नही गया बस धारणा और ध्यान से पहुंचा था या यू कहो पातंजली महाराज जिंदाबाद। 
 
 
        कारण यह होता है हठयोग में जब हमारी कुण्डलनी शक्ति मूलाधार से उठकर सहस्त्रसार में पहुंचती है तो समाधि लगती है। जिसमें देहभान और सभी कुछ पीछे छूट जाता है। अब जब भान नहीं मन बुद्धि अहंकार ही नहीं। श्वास भी बेहद धीरे तो कुछ याद रह ही नहीं सकता। क्या हुआ क्या नहीं हुआ य्ह मालूम नहीं पड सकता। अत: मैंनें कृष्ण की प्रार्थना के साथ धारणा का सहारा लिया और ध्यान के सहारे वाहिक रूप से एक दर्शक बन कर वहां पर गया। 


मैने एक चन्द्रमा के तरह कुछ धीमा नीला प्रकाश वाला एक नशीला मादक बड़ा सा मैदान देखा। जिसके बीचो बीच एक फव्वारानुमा लगा था। जिसमे से कुछ धारायें चारो ओर निकल रही थी। उसमें जल जैसा कुछ रस था। मैं छू न पाया क्योकि मैं दूर था। 
 
 
उस मैदान के ऊपर एक उल्टी कढाई नुमा पर्दा पड़ा था। उस मैदान के बीचो बीच चार फलकनुमा आयताकार कन्दीलनुमा कुछ पीले प्रकाश को लिए घूमता था। वास्तव में यह मुझे उदाहरण देकर समझाया था कि यह ब्रह्मा के चार सिर है जो लगातार मध्य में घूमते रहते है। इनके हाथो में वेद यानी ज्ञान भरा है। ब्रह्मा फव्वारे के मध्य निकले एक डंढल ऊपर कमल फूल के मध्य बैठे थे। फव्वारे के नीचे चारो ओर पुष्प पराग का बडा मैदान जहां मैं खडा हो गया। मैदान के चारो कुछ कुछ सुरजमुखी के फूल जैसी पंखुडियां जिसमें पीले पीले पर छोटे छोटे अनगिनत पखुडियां जो हजारों में हो सकती है। 
 
 
अब वह कितनी परतें थी मैं जान न सका। तब किसी ने बताया यह तुम्हारी अनगिनत नाडियां है। (ओह जैसा कि कहते हैं कि मानव के शरीर में 72000 सूछ्म नाडिया है जो मां की नाभि से बच्चे को जाती हैं)  पर ब्रह्मा जी के चारो तरफ  नीचे 1062 पंखुड़ी का कमलनुमा फूल है। जिसके मध्य में ब्रह्मा विराजे है। उनके चारो ओर क्रमशः 3,7,15,31,63,127,255, 561 पुष्पदल घेरकर कमल का निर्माण करते है। जो कुल 8 आवरण या लेयर है समाधि की। 
 
 
ब्रह्म के कुछ ऊपर माँ सरस्वती 7 तारो की वीणा बजाती है। जिनसे क्रमशः सं रें गं मं पं धं नीं निकलता है जो संगीत को जन्म देता है। लय की तरंगें छोड़ता है। यह संगीत और भाषा का ज्ञान देती है। 


फिर चारो ओर पर्दा रहता है जो महामाया का पर्दा है जब वह हटता है तो बाहर बैठे हुये शिव पार्वती को कुछ बताते हुए प्रतीत होते है। इनमें से किसी ने मुझको न देखा पर मैंनें उनको देखा। यह बीच वाला यानी ब्रह्मा वाला पूरा तन्त्र घूमता रहता है। जैसे आपने गोलाकार पर्दे जो सर्कस में होते थे। कुछ वैसे ही वह ढांककर ऊपर बंधे रहते है। परंतु शिव पार्वती स्थिर थे इसी भान्ति शिव के चारो जो पर्दा है वह महाकाली का है और उसके अंदर शिव किंतु बाहरी सतह पर रुद्र विराजमान है। और रुद्र के चारो ओर निराकार शक्ति यानी दुर्गा का आवरण रूपी धुंध है। फिर अपनी खोपड़ी की हड्डी की गोल दीवार पर सामने मत्था।


वास्तव में जब मनुष्य जन्म लेता है तो मानव शरीर उसकी नाभि से माँ को जुड़ी रहती है जिसमे 72 हजार नाड़ी रहती है। अर्थात विष्णु की यानी जननी की नाभि के मध्य निकला सहस्त्रसार कमल दल जिस पर ब्रह्मा विराजमान। वो ही जुड़ाव है यहाँ का। यहाँ पर फ़व्वरो से रस निकलता है। जो पूरे मैदान को सींच रहा था। पर कमलदल को नहीं भिगो रहा था। और यदि कोई इन पर्दो को हटाकर यह रस पान करता रहे तो  वह शायद महायोगी बन जायेगा।


वैसे मैं यह समझता हूं कि ध्यान चक्र से चार अंगुल दूरी पर और फिर दो अंगुल दूरी पर कोई चक्र होने चाहिये। यानी आज्ञा चक्र और सिर के मध्य ब्रह्म दार के बीच दो चक्र और होने चाहिये। 
 
 
यह ज्ञानी जन बतायें क्योकि सप्त चक्र की गणना समझ में नहीं आती हैं। जब नव दुर्गा यानी नौ प्रकार की शक्तियां जो अंतिम हैं तो नव चक्र भी होने चाहिये तब ही हमारे शरीर में नव दुर्गा का वास होगा।  
 
 
दूसरी बात जहां शिव पार्वती सम्वाद चलता है|। उनके चारो ओर चमक दार बिजलियां चमकती रहती हैं। जो 64 हैंनको योगिनी बताया गया। वह स्थान कैलाश पर्वत बताया गया जो स्थिर है। फिर रुद्र और काली का स्था


        अगर ध्यान चक्र और ब्रह्म संरन्ध्र के बीच दूरी आठ अंगुल हो तो बीचो बीच ब्रह्मा फिर परागकणो का मैदान फिर छोटे पंखुडीवाली सूरजमुखी फूल जैसी परिधि फिर परदा शिव पार्वती फिर परदा और उसके बिल्कुल नजदीक रुद्र और काली फिर मत्था और खोपडी के कवच की हड्डी। तो इसके हिसाब से केंद्र से तीन/चार अंगुल नीचे ध्यान चक्र की सीध जुदाई रेखा में एक चक्र, जिसका बीज मंत्र शं यानी शम्भु हुआ।  
 
 
तोसका मतलब चक्र या द्वार का बीज मंत्र शिव शम्भो बनेगा। और उसके लगभग दो / तीन अंगुल नीचे फिर रुद्र चक्र, जिसका बीज शब्द अगर वीं है तो यह वीरद्र की ओर इशारा करता है। यानी रुद्र का भी वीरभद्र अवतार ही मृत्यु का निरमाण करता है। तो इस चक्र या द्वार का बीज मंत्र वीं वीरभद्राय नम: बनेगा। 
 
 
ह द्वार लगभग तीसरे खडे नेत्र के ऊपर की कोर पर। फिर उसके एक/दो अंगुल नीचे ध्यान चक्र। इसमें क्या खेल हैं यह तो समय के साथ ही पता चलेगा। 
 
 

वैसे मुझको लगता है जाने सही या गलत कुंडलनी मानव की नाभि में जुडती है और उल्टे ॐ का आकार लेती है। और इसकी जो धागा है यानी चक्रो को जोडनेवाला सिस्टम वह ब्रह्म द्वार से आगे झुक कर ध्यान चक्र तक आता है।  
 

यह सारा सिस्टम हमारी गोल खोपडी के केंद्र से कुछ सेमी नीचे मैदान के रुप में था। तो इसका मतलब यह हुआ जिसकी खोपडी जितनी गोल उतनी ही शक्ति का धुंध समायेगा। यानी वह उतना बडा ध्यानी बन सकेगा। ऐसा है क्या मुझे नहीं पता। 
 
 

हां उस केंद्र के फव्वारे की रसधार मैदान और फूल की पंखुड़ियों को ताजा रखती है। इन पर जो संगीत है वह क्रमबद्द है। यदि किसी के मस्तिष्क का संगीत बिगड़ेगा तो वह कई प्रकार के पागलपन रोग को जन्म देगा। पागलपन का कारण एक तो रस सूखना दूसरा संगीत की लय बिगड़ना हो सकता है।

                                                     हरि ॐ 
 


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल  


Tuesday, March 27, 2018

अंतर्मुखी बनाम योग



अंतर्मुखी बनाम योग

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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जैसा कि हम जानते हैं कि योग यानी जुडना। किससे जुडना। वेदांत महावाक्य प्राथमिक द्वैत के अनुसार अवस्था बतलाता है “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है”। जो भक्ति मार्ग से सहजता से प्राप्त होता है। मैं योग को परिभाषित करता हूं “जब हम द्वैत से अद्वैत का अनुभव करने लगे तब समझो योग हुआ है” पातंजली समझाते है जो काफी आगे की बात “चित्त में वृति का निरोध” यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य” जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग न पैदा हो हलचल न हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में र्हे। भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसका अर्थ समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग। 

वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्दी यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्दी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग। इनको जानने हेतु सत्युग में हजारो साल का तप द्वापर में कुछ सैकडो त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोडो में एक।

लेकिन आज के समय में योग की ऐसी की तैसी हो गई है। जरा सा पालथी मार कर बैठे पेट पिचकाया हो गये महायोगी। या जरा सी अनुभुति जैसे रोंगटे खडे हो गये, शरीर जरा सा प्रसन्नचित्त हुआ, हल्का हुआ, प्रकाश दिखा हो गये योगी। और उससे बडी मजे कि बात यदि रटकर शलोक बोलकर कहीं प्रवचक या राम कृष्ण कथाकार हो गये तो तो बोलो ही महायोगी के आगे। दुखद तो यह है वेद और भगवदगीता की तो रेड मार दी है। यहां तक अंतरमुखी होने की पद्द्तियां भी योग हो गई है। क्या कहूं ऐसे महाज्ञानियों को और जगतगुरुओं को। मैं सोंचता हूं प्रभु इनको कौन सी गति देगा वो ही जाने पर ढंग की मानव योनि तो बिल्कुल न मिलेगी। 

चलिये कुछ चर्चा अंतर्मुखी यानी अपने अंदर जाने की जिसे कहें तो अंदर की बात पर करते हैं। 

     इस जगत में हम जो करते हैं वाहिक करते हैं यानी अपनी उर्जा निरंतर बाह्र दुनिया में निकालते रहते हैं। जिनमें इंद्रियो का योगदान होता है। जैसे देखना, सुनना, बोलना, सूंघना इत्यादि। इन कार्यो में हमारी उर्जा का निरंतर क्षय होता रहता हैं। हमको यही उर्जा जो बाहर खर्च हो हैं उसको अंदर की ओर प्रवाहित करना है। वह कैसे करें। इसका सबसे आसान तरीका है जिस मार्ग से उर्जा निकल रही है उसी मार्ग से उसको अंदर की ओर मोड कर हम भी अंदर घुस जायें। पर कैसे उस पर बात करता हूं।

जैसे सबसे ऊपर है आंखे। तो त्राटक विधि यानी लगातार घूरना। इस विधि को ही राजयोग बोल कर योग की धज्जियां उडा दी। जैसे मुम्बई से ट्रेन में बैठे कि बोलने  लगे हमारा गंतव्य दिल्ली आ गया। वही बात योग का कहीं नामो निशान नहीं पर हो गये राजयोगी। इसकी कम से कम छह विधि मैं बतलाऊंगा पर अलग लेख में।  यही कलियुग है। फिर कान से कर्ण सिद्दी जिसे भी शब्द योग का नाम देकर दुकानें चल रहीं है। इसकी भी आधा दर्जन विधियां है। फिर नासिका जिससे सासों के द्वारा विपश्यना, प्रेक्षा ध्यान, सुगंध, शीतो ऊष्ण विधि, कम से कम अपने हाथ की उंगलियों की गिनती के बराबर तो विधियां हैं ही। फिर मुख जिसमें सबसे सस्ता सुंदर टिकाऊ और सहज मार्ग है मंत्र जप। जिसे मंत्र योग, जप योग का नाम दिया है। साथ ही ह्ठ योग जैसे खेचरी इत्यादि और कहो तो मैं एक तरीका और बताऊं जिसे मैं बोलूं स्वाद योग।

यह सारी विधियां अलग अलग लेखों में बताता रहूंगा। फिलहाल इन इंद्रियों द्वारा अंदर गये। तो हमारी मन बुद्दी, चेतन सब धीरे धीरे अंदर हुये। अब फिर क्या। आगे विभिन्न अनुभूतियों के साथ आप शरीर की नाडियों में भी चले गये। पर फिर क्या। तो बाबा कुछ कुछ साधकों की कुंडलनी जाने अंजाने में खुली। खुल तो गई फिर क्या। फिर दिव्य अनुभव। पर फिर क्या। फिर यदि आप साकार मार्गी हैं तो देव दर्शन। बाप रे वह कैसे। देखो इब अंतर्मुखी पद्दतियों में जाने अंजाने तुम अपनी ध्यान शक्ति को बढा रहे हो। यानी तुम्हारी मस्तिष्क की उर्जा और शक्ति बढती जाती है पर तुमको पता नहीं। वह इतनी बढ जाती है कि तुम्हारी साकार की धारणा निराकार ब्रम्ह को रुप बनाने हेतु मजबूर कर देती है। यही तंत्र विधि में कुछ विशेष ध्वनि तरंगे जो संस्कृत के शब्दों में अपने शरीर के विभिन्न चक्रों को आंदोलित कर हमारी ध्यान शक्ति को और मजबूत कर उस निराकार को साकार बना कर अपने मन के मुताबिक काम भी करवा लेते हैं। जिससे तांत्रिक पैदा हैं यानी तंत्र भी। 

खैर, जब हमको दर्शनाभूति होती है तो उसके पहले हम अपना देहाभान खो बैठते हैं। आंखें बंद पर नींद नहीं। कुछ पता नहीं कि अचानक दिव्य भगवा पीला अग्निवर्ण का तीव्र प्रकाश और फिर आपके मंत्र के अनुसार देव दर्शन। वहीं निराकार को सफेद प्रकाश के बाद काला धुंधला प्रकाश या आगे पीछे। देहाभान नहीं। सृष्टि का कोई सुंदर चित्र या घटती हुई कोई घटना। इसमें कई ध्वनियां, वार्तायें, आत्म गुरु का जागरण जिसे अल्ल्ह की बोली, आकाशिय बोली जो भी कहो। 

मेरे हिसाब से इसके बाद यात्रा आरम्भ होती है वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा या योग की यात्रा। इसी के साथ कुछ आगे पीछे मानव को अहम ब्र्म्हास्मि, एकोअहम दितियोनास्ति, सोअहम, शिवोहम, कृष्णोअहम इत्यादि अनुभुतियां हो सकती हैं। इन अनुभूतियों में मानव का दिल दिमाग सोंच मन बुद्दी अहंकार पूरा का पूरा आकाश तत्व अपने को ब्रह्म समझने लगता है। शरीर के विशालकाय होने का अनुभव होता है। एक अलग तरीके की अनुभूती होती है। पर यह कुछ समय से लम्बे समय तक हो सकती हैं। यह होता है वास्तविक योग। वेदांत वाक्य घट गया क्योकि “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो गया। द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो गया।  पर यह चला गया। पर योग की अनुभुतियां दे गया। पर अभी महायोगी नहीं हुये। क्यों ऐसा क्यों। क्योकिं पातंजलि महाराज के अनुसार “चित्त में वृत्ति का निरोध नहीं हुआ” बल्कि तुम्हारी वृत्ति भले ही सात्विक हो पर बढ गई। क्यों। क्योकि तुम गुरु बनने की सोंचने लगे। प्रवचक बन कर अपनी शोहरत धन इज्ज्त को खोजने लगे। जो अधिकतर लोग करते हैं। बिना परम्परा के गुरु बन बैठे। दुकान का निरमाण करने में जुट गये। तुम धर्म के व्यापारी हो गये। कुछ तो जो महामूर्ख पापी ज्ञानी होते हैं वह तो भगवान ही बन बैठते हैं जापानी भाषा में ओशो बन बैठते हैं। अपने मन की वाणी को अपनी आत्म गुरु की वाणी समझकर नये नये सिद्दात यहां तक परम्परायें और धर्म तक बना बैठते हैं जो भगवध गीता बन जाता है भग्वदगीता नहीं। भग्वद्गीता के विपरीत बोलता है। वेद वाणी को गलत बोलकर शक्तिहीन भोले भाले मानव को बहकाने का पाप करता है। मजे की बात है वह इसी धरा के कानून के अंतर्गत बेमौत जैसे जेल में सडकर, सूली पर चढकर या भुखा प्यासा किसी गुफा में छिपकर तडपकर मरता है। पर उसके अनुयायी इसको नहीं समझ पाते। कारण ईश वह जिसके अधीन माया। मानव वह जो माया के अधीन। यह तो अनुभव हुआ पर माया हमारे अधीन तो न हुई। पर यह मूर्ख भूल जाते हैं अभी यात्रा शुरु हुई है। खत्म नहीं। 

     पर प्राय: जो साकारवाले इसको प्रभु का खेल समझकर इन अनुभुतियों में न उलझकर आगे चलते रहते हैं तो उनको निराकार की अनुभुति स्वयं शिव कृष्ण या निराकार दुर्गा शक्ति स्वयं करा देती है। फिर उस मानव को किसी पद चाहे वह गुरु का हो या सन्यासी का हो या कोई जगत का पद, उसका लालच नहीं रहता। इअस तरह के मानव को रमता राम या आत्माराम ही कहते हैं।
                                               ॐ हरि ॐ 


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल  

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...