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Wednesday, July 31, 2019

क्या है षट-अंग, सप्तांग और अष्टांग योग

क्या है षट-अंग,  सप्तांग और अष्टांग योग


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet


एक बात समझिये।

वेद का सार और उद्देश्य कि मनुष्य अपने आत्म स्वरूप को जानकर योगी बनें।

इन वेदों पर शोध ग्रंथ हजारों लिखे गये जिन्होने वेदों की बात अरक्षत: मानकर लिखा गया। वे कहलाये उपनिषद। समय के साथ अनेकों नष्ट हो गये।

वेदों की बात के प्रमाणों और तर्क के साथ जो लिखे गये। मतलब अपनी सोंच और बात का मसाला लगाकर जो शोध ग्रन्थ लिखे गये वे कहलाये दर्शन।


अंग्रेज़ी विचारक जब किसी तथ्य का विशलेषण करते हैं तो उस का तीन विमाओं का आंकलन करते हैं। लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई। किन्तु सही अनुमान लगाने के लिये लक्ष्य के लिये इनके विपरीत विमाओं को भी समझना होगा। जैसे आगे, पीछे, दाहिने, बाँयें, ऊपर और नीचे भी देखना पडता है।


दर्शन शास्त्रों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ऐसा ही किया था और विश्व में तर्क विज्ञान लोजिक की नींव डाली थी। तथ्यों की सच्चाई को देखना ही उन का दर्शन करना है अतः इस क्रिया को दर्शन ज्ञान की संज्ञा दी गयी है। सनातन धर्म विचारधारा केवल एक ही परम सत्य में विश्वास रखती है किन्तु उसी सत्य का छः प्रथक -प्रथक दृष्टिकोणों से आंकलन किया गया है। यही छः वैचारिक आंकलन  सनातन धर्म की दार्शनिकता पद्धति का आधार हैं। इन षट् दर्शनों में बहुत सी समानतायें भी हैं क्यों कि सभी विचारधारायें वेद और उपनिषद से ही उपजी हैं,  हलांकि विशलेषण की पद्धति में भिन्नता है।


षट्दर्शन यानि दार्शनिकता  के छः मुख्य स्त्रोत्र मीसांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग वेदों के उपांग कहलाते हैं। उपनिषद के साथ इनका भी उद्देश्य “अपने आत्म स्वरूप को जानने का अनुभव करना” ही है।


यहां पर योगशास्त्र दर्शन पातांजलि महाराज की देन है जो बताता है अष्टांग योग।

अब वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव” ही योग है। कुल मिलाकर जब मनुष्य को वेद महावाक्यों का अनुभव होता है तो योग घटित होता है।

जिस प्रकार महाराज पातांजलि ने अष्ट अंग वाले अष्टांग योग की बात कही है वहीं अमृतनादोपनिषद में योग के षट अंग यानि छह अंग बता कर ईश प्राप्ति की बात की है। साथ ही भक्ति को योग की बहन बताया है। वहीं घेरण्डसंहिता में,  जो हठयोग के तीन प्रमुख ग्रन्थों में से एक है। इसकी रचना १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गयी थी। हठयोग के तीनों ग्रन्थों में यह सर्वाधिक विशाल एवं परिपूर्ण है। इसमें सप्तांग योग की व्यावहारिक शिक्षा दी गयी है। अन्य दो ग्रंथ हैं - हठयोग प्रदीपिका तथा शिवसंहिता।


अमृतनादोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।


 कृष्ण यजुर्वेद शाखा के इस अमृतनादोपनिषद,   उपनिषद में 'प्रणवोपासना' के साथ योग के छह अंगों- प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, प्राणायाम, तर्क और समाधि आदि- का वर्णन किया गया है। योग-साधना के अन्तर्गत 'प्राणायाम' विधि, ॐकार की मात्राओं का ध्यान, पंच प्राणों का स्वरूप, योग करने वाले साधक की प्रवृत्तियां तथा निर्वाण-प्राप्ति से ब्रह्मलोक तक जाने वाले मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है। इस उपनिषद में उन्तालीस मन्त्र हैं।


 

प्राणोपासना


'प्रणव,' अर्थात् 'ॐकार' का चिन्तन समस्त सुखों को देने वाला है।


ॐकार के रथ पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुंचा जा सकता है-ॐकार-रूपी रथ पर आरूढ़ होकर और भगवान विष्णु को सारथि बनाकर ब्रह्मलोक का चिन्तन करते हुए ज्ञानी पुरुष देवाधिदेव भगवान रुद्र की उपासना में निरन्तर तल्लीन रहें। तब ज्ञानी पुरुष का प्राण निश्चित रूप से 'परब्रह्म' तक पहुंच जाता है।


 योग-साधना (प्राणायाम)


जब मन अथवा प्राण नियन्त्रण में नहीं होता, तब विषय-वासनाओं की ओर भटकता है। विषयी व्यक्ति पापकर्मों में लिप्त हो जाता है। यदि 'प्राणयाम' विधि से प्राण का नियन्त्रण कर लिया जाये, तो पाप की सम्भावना नष्ट हो जाती है।


आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि हठयोग के छह कर्म माने गये हैं। इनके प्रयोग से शरीर का शोधन हो जाता है। स्थिरता, धैर्य, हलकापन, संसार-आसक्तिविहीन और आत्मा का अनुभव होने लगता है। सामान्य व्यक्ति 'प्राणायाम' का अर्थ वायु को अन्दर खींचना, रोकना और निकालना मात्र समझते हैं। यह भ्रामक स्थिति है।


प्राण-शक्ति संसार के कण-कण में व्याप्त है। वायु में भी प्राण-शक्ति है। इसीलिए प्राणायाम द्वारा वायु में स्थित प्राण-शक्ति को नियन्त्रित किया जाता है प्राण पर नियन्त्रण होते ही शरीर और मन पर नियन्त्रण हो जाता है। प्राणायाम करने वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा आरोग्य, बल, उत्साह और जीवनी-शक्ति को श्वास द्वारा अपने भीतर ले जाता है, उसे कुछ देर भीतर रोकता है और फिर उसी वायु को बाहर की ओर निकालकर अन्दर के अनेक रोगों और निर्बलताओं को बाहर फेंक देता है।


'प्राणायाम' के लिए साधक को स्थान, काल, आहार, आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। 'शुद्धता' इसकी सबसे बड़ी शर्त है। 'प्राणायाम' करते समय तीन स्थितियां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रेचक' होती हैं।


    'पूरक' का अर्थ है- वायु को नासिका द्वारा शरीर में भरना,

    'कुम्भक' का अर्थ है- वायु को भीतर रोकना और

    'रेचक' का अर्थ है- उसे नासिका छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालना।


सीधे हाथ के अंगूठे से नासिका के सीधे छिद्र को बन्द करें और बाएं छिद्र से श्वास खींचें, बायां छिद्र भी अंगुली से बन्द करके श्वास को रोकें, फिर दाहिने छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। इस बीच 'ओंकार' का स्मरण करते रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ाते जायें। इसी प्रकार बायां छिद्र बन्द करके दाहिने छिद्र से श्वास खींचें, रोकें और बाएं छिद्र से निकाल दें। अभ्यास द्वारा इसे घण्टों तक किया जा सकता है। शनै:-शनै: आत्मा में ध्यान केन्द्रित हो जाता है।


 षट अंग :


1. आसन: शरीर की वह अवस्था जिस में बैठकर ह्म स्थिरता के साथ ध्यान कर सकें।


2. मुद्रा: शरीर की उंगलियों को और हथेली को किस प्रकार एक दुसरे के सम्पर्क में रखा जाये कि हमारे शरीर में व्याप्त विभिन्न वायु चक्र सुव्यवस्थित रहकर ध्यान में सहायक हों।


3. प्रत्याहार: प्रति  आहार मतलब सांसारिक भोग विलास व अन्य को त्यागने की आदत।


4. प्रणायाम: प्राण वायु का आयाम।


5. ध्यान


6 समाधि


उसके बाद घटित हो सकता है योग। वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव” ही योग है।

वहीं घेरण्डसंहिता सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रन्थ है , जिसमे योग की आसन , मुद्रा , प्राणायाम, नेति , धौति आदि क्रियाओं का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ के उपदेशक घेरण्ड मुनि हैं जिन्होंने अपने शिष्य चंड कपालि को योग विषयक प्रश्न पूछने पर उपदेश दिया था।

योग आसन , मुद्रा , बंध , प्राणायाम , योग की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन आदि का जैसा वर्णन इस ग्रन्थ में है , ऐसा वर्णन अन्य कही उपलब्ध नहीं होता। पतंजलि मुनि को भले ही योग दर्शन के प्रवर्तक माना जाता हो परन्तु महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में भी आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति, बंध आदि क्रियाओं कहीं भी वर्णन नहीं आया है। आज योग के जिन आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति, धौति, बंध आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम पर हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत यह घेरण्ड संहिता नामक प्राचीन ग्रन्थ ही है। उनके बाद गुरु गोरखनाथ जी ने शिव संहिता ग्रन्थ में तथा उनके उपरांत उसके शिष्य स्वामी स्वात्माराम जी ने हठयोग प्रदीपिका में आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का वर्णन किया है , परन्तु इन सब आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का मुख्य स्रोत यह प्राचीन ग्रन्थ घेरण्ड संहिता ही है।


 


घेरण्ड संहिता में कुल ३५० श्लोक हैं, जिसमे ७ अध्याय (सप्तोपदेश) |  जिनसे बनता है सप्तांग योग। षटकर्म आसन प्रकरणं, मुद्रा कथनं, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यानयोग, समाधियोग) का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ में प्राणायाम के साधना को प्रधानता दी गयी है।

पातंजलि योग दर्शन से घेरंड संहिता का राजयोग भिन्न है। महर्षि का मत द्वैतवादी है एवं यह घेरंड संहिता अद्वैतवादी है। जीव की सत्ता ब्रह्म सत्ता से सर्वथा भिन्न नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि का भाव इस संहिता का मूल सिद्धांत है। इसी सिद्धांत को श्री गुरु गोरक्षनाथ जी ने अपने ग्रन्थ योगबीज एवं महार्थमंजरी नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। कश्मीर के शैव दर्शन में भी यह सिद्धांत माना गया है।


घेरंड संहिता ग्रन्थ में सात उपदेशों द्वारा योग विषयक सभी बातों का उपदेश दिया गया है। पहले उपदेश में महर्षि घेरंड ने अपने शिष्य चंडकपाली को योग के षटकर्म का उपदेश दिया है।

पहला है षट्कर्म प्रकरणं: षट कर्म को शास्त्रों में छह वर्गों में बांटा गया है।


 १. शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों के ये छः कर्म-यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह।


२. स्मृतियों के अनुसार ये छः कर्म जिनके द्वारा आपातकाल में ब्राह्मण अपना निर्वाह कर सकते हैं- उछवृत्ति, दान लेका, भिक्षा, कृषि, वाणिज्य और महाजनी (लेन-देन)।


३. तंत्र-शास्त्र के अनुसार मारण, मोहन (या वशीकरण) उच्चारण, स्तंभन, विदूषण और शांति के छः कर्म।


४. योगशास्त्र में, धौति, वस्ति, नेती, नौलिक, त्राटक और कपाल भाती ये छः कर्म।


५. साधारण लोगों के लिए विहित ये छः काम जो उन्हें नित्य करने चाहिए-स्नान, संध्या, तर्पण, पूजन जप और होम।


६. लोक व्यवहार और बोल-चाल में व्यर्थ के झगड़े-बखेड़े या प्रपंच।

सप्त अंग


पहलावाला ही योग हेतु प्रयासरत मानव के लिये है। छः कर्म-यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह।


दूसरे में आसन और उसके भिन्न-भिन्न प्रकार का विशद वर्णन किया है। घेरण्ड ऋषि द्वारा 32 आसनों के बारे में बताया गया है | वह आसान इस प्रकार है।


1. सिद्धासन  2. पद्मासन 3. भद्रासन 4. मुक्तासन 5. वज्रासन 6. स्वस्तिकासन 7. सिंहासन 8.गोमुखासन 9. वीरासन 10. धनुरासन 11. शवासन 12. गुप्तासन 13. मत्स्यासन 14. अर्ध मत्स्येन्द्रासन `5. गोरक्षासन 16. पश्चिमोत्तासन 17. उत्कटासन 18. संकटासन 19. मयूरासन 20. कुक्कुटासन 21. कूर्मासन 22. उत्तान कूर्मासन 23, मण्डूकासन 24. उत्तान मण्डूकासन 25. वृक्षासन 26. गरुडासन 27. त्रिशासन 28. शलभासन 29. मकरासन 30. ऊष्ट्रासन 31. भुजंगासन 32. योगासन


यह 32 आसन ही मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी लोक में सिद्धि प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है|


इन सभी आसनों के बारे में घेरण्ड संहिता मैं आपको विस्तृत जानकारी मिल जाएगी


तीसरे में मुद्रा के स्वरुप, लक्षण एवं उपयोग बताया गया है।


चौथे में प्रत्याहार का विषय है।


पांचवे में स्थान, काल मिताहार और नाडी सुद्धि के पश्चात प्राणायाम की विधि बताई गयी है।


छठे में ध्यान करने की विधि और उपदेश बताये गए हैं।

सातवें में समाधी-योग और उसके प्रकार (ध्यान-योग, नाद-योग, रसानंद-योग, लय-सिद्धि-योग, राजयोग) के भेद बताएं गए हैं। इस प्रकार ३५० श्लोकों वाले इस छोटे से ग्रन्थ में योग के सभी विषयों का वर्णन आया है। इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली सरल, सुबोध एवं साधक के लिए अत्यंत उपयोगी है।

अष्टांग योग:

इस के आठ अंग हैं।

सदाचार तथा नैतिकता के सिद्धान्तों को “यम”  कहते हैं। यह पांच हैं। अहिंसा,  सत्य,  अस्तेय,  ब्रह्मचर्य,  अपरिग्रह। जिन्हे उपांग कहते हैं।


बिना स्वस्थ, स्वच्छ और निर्मल शरीर के योग मार्ग की प्रथम  सीढी पर पग धरना दुर्गम है।  स्वयं के प्रति अनुशासित और स्वच्छ रहना “नियम”  हैं। यह भी पांच हैं। शौच,  सन्तोष,  तपस,  स्वाध्याय,  ईश्वरप्रणिधान।  जिन्हे उपांग कहते हैं।


शरीर के समस्त अंगों को क्रियात्मिक रखना आसन के अन्तर्गत आता है।


प्राणायाम श्वासों को नियमित और स्वेच्छानुसार संचालित करना है। हर प्राणायाम शरीर और मन पर  अलग तरह के प्रभाव डालता है।


पंचेन्द्रियों को संसार से हटा कर आत्म केन्द्रित करने की कला प्रत्याहार है। वह नियन्त्रित ना हों तो उन की अंतहीन माँगे कभी पूरी नहीं हो सकतीं।


धारणा का अर्थ है मन का स्थिर केन्द्रण।


ध्यान में व्यक्ति शरीर और संसार से विलग हो कर आद्यात्मा में खो जाता है।


समाधि का अर्थ है साथ यानि जुडाव या योग हो जाना। यह परम जागृति है। यही योग का लक्ष्य है।

 

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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स्वास्तिक का महत्व

स्वास्तिक का महत्व

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक' शब्द की निरुक्ति है - 'स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।


स्वस्तिक को 'साथिया' या 'सातिया' भी कहा जाता है। वैदिक ऋषियों ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष चिह्नों की रचना की। मंगल भावों को प्रकट करने वाले और जीवन में खुशियां भरने वाले इन चिह्नों में से एक है स्वस्तिक। उह्नोंने स्वस्तिक के रहस्य को सविस्तार उजागर किया और इसके धार्मिक, ज्योतिष और वास्तु के महत्व को भी बताया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

 

यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिह्न व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि कई हजार वर्ष पूर्व मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा और बर्तनों में स्वस्तिक का चिह्न खुदा हुआ मिला है। उदयगिरि और खंडगिरि की गुफा में भी स्वस्तिक के चिह्न मिले हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।

 

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के समय एडोल्फ हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न अपनी सेना के प्रतीक के रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना के नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वस्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

 

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है। नेपाल में 'हेरंब' के नाम से पूजित होते हैं। बर्मा में इसे 'प्रियेन्ने' के नाम से जाना जाता है। मिस्र में 'एक्टन' के नाम से स्वस्तिक की पूजा होती है।

 

प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वह स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानती थी। उसके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था।

 

मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे 4 हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे। इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है।

 

मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य का सूचक माना जाता है। प्राचीन इराक (मेसोपोटेमिया) में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

 

उत्तर-पश्‍चिमी बुल्गारिया के व्रात्स  नगर के संग्रहालय में चल रही एक प्रदर्शनी में 7,000 वर्ष प्राचीन कुछ मिट्टी की कलाकृतियां रखी हुई हैं जिस पर स्वस्तिक का चिह्न बना हुआ है। व्रास्ता शहर के निकट अल्तीमीर नामक गांव के एक धार्मिक यज्ञ कुंड के खुदाई के समय ये कलाकृतियां मिली थीं।

स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।


स्वस्ति का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल. इसी प्रकार स्वस्तिक का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल करने वाला. स्वास्तिक एक विशेष आकृति है , जिसको किसी भी कार्य की शुरुआत के पूर्व बनाया जाता है. माना जाता है कि , यह चारों दिशाओं से शुभ और मंगल को आकर्षित करता है. चूँकि इसको कार्य की शुरुआत और मंगल कार्य में रखते हैं, अतः यह भगवान गणेश का रूप भी माना जाता है. माना जाता है कि इसके प्रयोग से सम्पन्नता, समृद्धि और एकाग्रता की प्राप्ति होती है. जिस पूजा उपासना में स्वस्तिक का प्रयोग नहीं होता, वह पूजा लम्बे समय तक अपना प्रभाव नहीं रख पाती.


वैज्ञानिक महत्व


- सही तरीके से बने हुए स्वस्तिक से ढेर सारी सकारात्मक उर्जा निकलती है


- यह उर्जा वस्तु या व्यक्ति की रक्षा , सुरक्षा करने में मददगार होती है


- स्वस्तिक की उर्जा का अगर घर , अस्पताल या दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाय तो व्यक्ति रोगमुक्त और चिंता मुक्त रह सकता है


- गलत तरीके से प्रयोग किया गया स्वस्तिक भयंकर समस्याएँ भी दे सकता है


- स्वास्तिक की रेखाएं और कोण बिलकुल सही होने चाहिए


- भूलकर भी उलटे स्वस्तिक का निर्माण और प्रयोग न करें


- लाल और पीले रंग के स्वस्तिक ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं


- अगर स्वस्तिक को धारण करना है तो इसके गोले के अन्दर धारण करें


- जहाँ जहाँ वास्तु दोष हो , या घर के मुख्य द्वार पर लाल रंग का स्वस्तिक बनाएं


- पूजा के स्थान, पढ़ाई के स्थान और वाहन में अपने सामने , स्वस्तिक बनाएं


- एकाग्रता के लिए , सोने या चांदी में बना हुआ स्वस्तिक , लाल धागे में धारण करें


- इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर छोटे छोटे स्वस्तिक लगाने से, वे जल्दी ख़राब नहीं होते


स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।


बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।


जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।


प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था।  


वर्ष 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों द्वारा स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले ‘क्रास’ के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था।

ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर इस चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।


लेकिन करीब 1930 के आसपास इसकी लोकप्रियता में कुछ ठहराव आ गया था, यह वह समय था जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ था। उस समय किए गए एक शोध में बेहद दिलचस्प बात निकल कर सामने आई। शोधकर्ताओं ने माना कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। इतना ही नहीं, भारतीय और जर्मन दोनों के पूर्वज भी एक ही रहे होंगे और उन्होंने देवताओं जैसे वीर आर्य नस्ल की परिकल्पना की।


इसके बाद से ही स्वास्तिक चिन्ह का आर्य प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया। आर्य प्रजाति इसे अपना गौरवमय चिन्ह मानती थी। लेकिन 19वीं सदी के बाद 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार के बाद इस चिन्ह को भय और दमन का प्रतीक माना गया था।


युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी। माना जाता है कि स्वास्तिक के चिह्न की जड़ें यूरोप में काफी गहरी थीं।


प्राचीन ग्रीस के लोग भी इसका इस्तेमाल करते थे। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक इसका इस्तेमाल देखा गया है। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में एक नेशनल म्यूज़ियम स्थित है। इस म्यूज़ियम में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं, जो 15 हज़ार साल तक पुराने हैं।


यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?


भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।


लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं। 

 

मेरे विचार से योगशास्त्र के अनुसार लाल रंग मूलाधार चक्र का प्रतीक हैं। इस चक्र के अधिष्ठाता श्री गणेश और शक्ति को दुर्गा शक्ति कहते हैं। अत:  जग्दम्बे और श्री गणेश के वस्त्र भी लाल ही रखे जाते हैं।

 

स्वास्तिक बनाते समय क्या गलतियां नहीं करनी चाहिए।


स्वास्तिक का निशान कभी भी उल्टा नहीं बनाना चाहिए, जबकि बहुत से लोग यह गलती कर बैठते हैं। आपको बता दें, मंदिरों में उलटा स्वास्तिक बनाया जाता है, इसके अलावा किसी विशिष्ट मनोकामना पूर्ति के लिए भी उलटा स्वास्तिक बनता है। 

 

मेरे विचार से यदि हम कांच की शीट पर स्वास्तिक बनायें तो एक तरफ से सीधा और दूसरी तरफ से उल्टा दिखाई देगा मतलब आप किधर से देखते हैं। यह उस पर निर्भर करेगा। अत: मन्दिर में द्वार पर उल्टा बनाने से यदि आप मन्दिर के अंदर से देखेंगे तो यह सीधा दिखेगा किंतु बाहर से उल्टा। मतलब मंदिर में विराजमान मूर्ती जब देखेगी तो यह सीधा ही दिखेगा। यही बात मनोकामना और तांत्रिक यज्ञ हेतु भी खरी उतरती है। मतलब जब अनुष्ठानिक देवता देखे तो उसे यह सीधा दिखे। उसकी ओर से सीधा ही रहे।

 

 


स्वास्तिक का निशान कभी भी टेढ़ा नहीं होना चाहिए, इसे एकदम सीधा और साफ बनाया जाना चाहिए। अन्यथा जिस मनोकामना की पूर्ति के लिए आप यह निशान बना रहे हैं, वह पूर्ण नहीं हो पाएगी।


घर या किसी अन्य स्थान पर, जहां भी आपने स्वास्तिक का निशान बनाना हो, एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि वह जगह एकदम साफ-सुथरी और पवित्र होनी चाहिए।


अगर विवाहित जीवन में आ रही परेशानियों से मुक्ति पाने हेतु आप पूजा करवा रहे हैं तो उसमें हल्दी का स्वास्तिक बनाया जाता है। अन्य किसी भी पूजा या हवन में कुमकुम या रोली से ही स्वास्तिक का निशान बनाया जाता है।

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Tuesday, July 30, 2019

ईश्वर चर्चा से नहीं साधना से मिलता है

ईश्वर चर्चा से नहीं साधना से मिलता है। –दीक्षा दिन पर मनोगत

  माता जी “बा”

(वागीश्वरी से साभार)


मेरे द्वारा किसी मित्र के द्वारा की जानेवाली टिप्पणी “ शिव जी को सब्जी और मेरे पहले गुरूदेव मां काली को खाली कहने”  पर मेरे क्रोधपूर्ण आचरण और व्यवहार आप कई मित्रों ने आश्चर्य किया और कुछ ने टिप्पणियां भी की। यह भी सत्य है मेरा उन सदस्य के प्रति क्रोध कम भी नहीं हुआ है। क्योकिं अपने कुकृत्य पर उन्होने कुतर्क दिये पर क्षमा न मांगी। इन्होने पहले राम की फिर तुलसी की भी निंदा की थी। मैं सहन कर गया किंतु अपने गुरू का अपमान सहन न हुआ। वह भी उसके द्वारा जो ज्ञानी बनकर उपदेश देता हो। प्रस्तुत लेख में अंत मे स्पष्ट लिखा है कि अपने गुरू का अपमान नहीं सहना चाहिये। साथ ही जो इष्ट भी हो। ........ दास विपुल


माता “बा” जी महाराज की शक्तिपात दीक्षा पूणे के ब्रह्मलीन गुलवर्णी महाराज से हुई थी। सन्यास दीक्षा ब्रह्मलीन स्वामी शिव ओम तीर्थ जी महाराज से हुई थी। मैं माता जी के दर्शन मुम्बई आश्रम में कर चुका हूं। जब वह सन्यास दीक्षा की प्रार्थना हेतु आईं थी। ........ दास विपुल

एक बार फ़िर मेरा दीक्षा दिवस 7 जनवरी आ रहा है । एक और वर्ष बीत गया । मन में  लगता है कुछ भी नहीं किया । सद्गुरु ने हमें अनमोल वस्तु प्रदान की है किन्तु मैं हूँ कि …। आश्रम, संस्था, साधक, प्रवास, योजनाएं इन सभी में साधना, ध्यान और जाप कैसे पूरा करना? डर लगता है बाह्य कार्यों को करने में , जो जरूरी है वह छूट न जाए । सद्गुरु से प्रार्थना है और कुछ भी न रहे तो दिक्कत नहीं । बस मेरा ध्यान और जाप निरंतर चलता रहे । जिस दिन से दीक्षा ली है, उस क्षण से आज तक उन्हीं का सहारा है और उन्हीं का इशारा है । वे हरक्षण मेरे साथ साक्षात रहते हैं । हर पल, हर कदम मुझे उनके होने का प्रमाण मिलता है । मुझ अपात्र पर इतनी कृपा क्यों यह समझ से परे है? सद्गुरु के अलावा मैं कुछ नहीं जानती । न कोई देव, न कोई ईश्वर, मेरे शिव भी वही, मेरे नारायण वही, दत्त भी वही, प्रभु भी वही । शिव ही सद्गुरु है और सद्गुरु ही शिव है । सदगुरु की महिमा क्या बयान करूं? हर इच्छा वे पूरी करते हैं । वैसे उनकी कृपा से कोई इच्छा होती भी नहीं है किन्तु मन में सोचने की ही देर है कि तत्क्षण वह सामने हाजिर हो जाता है । वे मांगने का मौका ही नहीं देते ।

साधन पथ पर चलते चलते कई ऐसे मौके आए कि कुछ अबोध व्यक्तियों ने उंगलियाँ भी उठाईं, प्रश्न किए, निंदा की । किन्तु हमने कभी प्रत्युत्तर नहीं दिया । न ही देना चाहते हैं । कुछ भी छिपा हुआ नहीं है । कोई कहता है संन्यासी हैं तो परिवार साथ में कैसे?  कोई कहता है – गहने आभूषण ये सब कैसे? कोई पूछता है- प्रवचन क्यों नहीं करते? कोई कहता है- क्या केवल पैसे वालों के पास ही जाते हैं? शिवपुरी में सामाजिक कार्यों को महत्त्व क्यों नहीं दिया जाता? समाज के लिए क्या किया? आदि-आदि। अब किस-किस को जवाब दें? कई साधक भी इन सवालों का निशान बनते हैं। कुछ नाराज होते हैं, तो कुछ दु:खी होते हैं। अपने सद्गुरु पर उठी अँगुली उन्हें पीड़ा देती है, यह स्वाभाविक भी है। श्रीगुरुदेव के आदेश से लोगों के बीच रहकर कार्य करना है तो यह सब स्वीकारना ही होगा। बिना कोई शिकायत किए। यही हमारी परीक्षा है।

संन्यास को परिभाषित कौन करेगा? संन्यास लेने वाला, संन्यास देने वाला या वह जिसे अतिश्रेष्ठ व्यवस्था की कोई जानकारी ही नहीं है। हमारे संन्यास गुरु परम आदरणीय श्री शिवोऽम तीर्थ स्वामी ने कहा था कि सबसे बड़ा संन्यास मन का है। जब तक मन संन्यासी न हो तो कोई अर्थ नहीं। बाहर से जो भी दिखावा कर लो, लेकिन सद्गुरु और ईश्वर तो मन देखते हैं। परिवार में  रहकर भी अगर मन निर्लिप्त हो तो फ़िर कोई हर्ज नहीं। संन्यास का अर्थ है व्यक्ति के सांसारिक मन की मृत्यु। आप दुनिया के लिए मृत हो गए। पुराना कुछ भी नहीं बचा। अब एक नया जीवन मिला है। फ़िर बेटा, बेटी नहीं, किन्तु वे दुश्मन भी नहीं हो जाते हैं। मन से अगर मुक्त हो तो उनसे भागना क्यों? अब तो सभी बेटा-बेटी। सभी एक विशाल परिवार। रही बात आभूषणों की तो संन्यासी काला धागा पहने या सोना, हीरे या मोती कॊई फ़र्क नहीं पड़ता। उसके लिए सभी बराबर है। असल में तो वो ही आभूषण पहनने का हकदार होता है। वो तो हीरे-मोती के खड़ाऊ भी पहन सकता है। एक पल पहने और अगले ही पल उतार भी दे तो क्या फ़र्क पड़ेगा? न तो उसे इनका मोह या अभिमान होता है और अगर ये नहीं भी रहे तो कोई रंज भी नहीं। जो भी साधक पहनाएं उनकी खुशी के लिए संन्यासी, सद्गुरु इन्हें धारण कर लेते हैं। भाव तो निस्पृह, निर्लिप्त ही होता है।

स्वामी शिवोऽम तीर्थ का आदेश था जैसे हो, वैसे ही रहो। यह शरीर ही सबसे बड़ा और श्रेष्ठ मंदिर है। उसे स्वच्छ रखना, सुंदर रखना, अलंकृत करना कोई गैर कार्य नहीं और फ़िर मेरे सद्गुरु पूज्य गुळवणीजी महाराज ने जब इस आदेश पर मोहर लगा दी तो फ़िर मुझे और विचार करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। सद्गुरु ने कभी प्रवचन नहीं किया और न हमें ही करने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि यह अनुभव का मार्ग है जिसके प्रारब्ध में होगा बिना कहे आएगा, जिसके प्रारब्ध में नहीं होगा उसे घंटो उपदेश दो, कोई फ़र्क पड़ेगा, फ़िर क्यों अपना समय व्यर्थ गंवाना। इससे तो अच्छा है आप नाम जप करो, सत्संग करो। स्वयं करते रहो, जिसकी रुचि होगी वह स्वयं खिंचा चला आएगा। नाम जप की ध्वनि जब उसके कानों में पड़ेगी तो वह स्वयं को रोक नहीं पाएगा। जगह-जगह जाओ और नाम जप करो। ईश्वर चर्चा से नहीं, तर्क से या उपदेश से नहीं वरन एकान्त साधना से मिलता है, अनुभव के माध्यम से मिलता है। साधना का सीधा रिश्ता एकान्त से है न कि संगठन से। समूह में जीने वाला व्यक्ति साधक नहीं बन सकता। दोनों विचारधाराओं में विरोधाभास है।

अध्यात्म विशेषकर शक्तिपात साधना अपने आप में परिपूर्ण है। इस मार्ग में मनुष्य के भीतर परिवर्तन होता है। सोच बदलती है, व्यवहार बदलता है। यह परिवर्तन स्थायी होता है। इस साधन की विशेषता है कि यह व्यक्तिगत है। सामूहिक या सामाजिक स्तर पर नहीं अपितु व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव आता है। यही साधक फ़िर किसी अन्य साधक के जीवन में सकारात्मक बदलाव का निमित्त बनता है। इस तरह से यह कार्य अदृश्य और सहज रूप में होता है। शक्ति जाग्रत होने के पश्चात वह मन, बुद्धि और शरीर तीनों स्तरों पर कार्यरत होती है। यह शक्ति मन का मैल, कचरा साफ़ करती है, बुद्धि को अधिक कार्यशील करती है और शरीर को नीरोग बनाती है। अब आप ही सोचिए कि एक स्वस्थ मन, तीव्र बुद्धि और स्वस्थ शरीर  का व्यक्ति निर्मित करना वो भी बिना किसी आंदोलन के, बिना किसी खर्च के, क्या इससे बड़ी कोई समाज सेवा हो सकती है? फ़र्क इतना ही है कि यह क्रिया दिखती नहीं है। किन्तु आजकल दिखावे का जमाना है। चाहे नतीजा मिले या नहीं, दिखावा जरूरी हो गया है। आज की दुनिया में कार्य होने से ज्यादा शायद कार्य होते हुए दिखाई देना, प्रतीत होना और प्रचारित होना जरूरी हो गया है।

दीक्षा दिवस पर सभी साधकों से यही कहूँगी कि अगर उठना है तो सद्गुरु की नजरों में उठो, औरों की चिन्ता छोड़ो। दुनिया की नजरों में चढ़ना या उतरना अस्थायी है। लोगों की बातों की, निन्दा-स्तुति की परवाह करने से अच्छा है अपने अंतर्मन को सुनो। सद्गुरु के वचन निभाने में यदि दुनिया की आलोचना सहनी भी पड़े तो क्या सोचना?

हाँ, यदि सद्गुरु कभी आपके हित में आपकी गलतियां या चूक बताएं या कभी कठोर शब्दों में कुछ कह दें तो उसका बुरा मत मानना। मन में क्लेश मत लाना। यह साधक के भले के लिए ही किया गया कार्य है। ध्यान रहे अगर बुखार चढ़ेगा तो चिकित्सक कड़वी दवा पिलाएगा ही। उसी से तो रोग कटेगा। कोई भी साधक कितना भी जोर लगा ले वो सद्गुरु से अपनी अँगुली छुड़ा नहीं सकता क्योंकि वह इस भ्रम में है कि अँगुली उसने पकड़ी है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही है।

एक अंतिम बात और कि भूल कर भी कभी अपने सद्गुरु की निंदा का पाप नहीं ओढ़ना । निंदा न सुनना और न करना।  इस शुभावसर पर पूज्य सद्गुरुदेव के श्रीचरणोंमें मेरी यही प्रार्थना है कि अपने वासुदेव कुटुम्ब के सभी साधकों पर सदैव अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें ।

–अपनी बा.

पूर्वप्रसिद्धी – शिवप्रवाह, नव्हम्बर 2009


शक्तिपात या दैवीय शक्ति संक्रमण

शक्तिपात या दैवीय शक्ति  संक्रमण (वागीश्वरी से साभार)

(प.पू. योगीराज गुलवर्णी महाराज, मूल मराठी लेख,
हिंदी रूपांतरण : प.पू. “बा” )

यह लेख आपको शक्तिपात की महता और महानता स्पष्ट कर देगा। अधिकतर लोग इसको समझ नहीं पाते और कुछ भी कयास लगाकर अपने को ज्ञानी बनते हैं। यह लेख उनको अल्पज्ञ ज्ञानियों को समर्पित है। .................  दास विपुल 


मेरे गुरूदेव ब्रह्मलीन स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज की शक्तिपात दीक्षा पूणे के ब्रह्मलीन गुलवर्णी महाराज से हुई थी। गुरूदेव की सन्यास दीक्षा ब्रह्मलीन स्वामी शिव ओम तीर्थ जी महाराज से हुई थी। ........ 
दास विपुल

 

(उपरोक्त लेख आज से करीबन ६२ वर्ष पहले योगीराज गुळवणी महाराज द्वारा अपने गुरु प.प.प. लोकनाथतीर्थ स्वामी महाराज के निर्देश पर अंग्रेजी में लिखकर कल्याण मासिक पत्रिका, गोरखपूर में उस समय प्रकाशित किया गया था| जब ‘शक्तिपात दिक्षा’ के संपादक श्री. त्र्यंबक भास्कर खरे ने १९३४ में कुंडलिनी महायोग पर लेख दिया था और उसमें स्वामी लोकनाथ तीर्थ का उल्लेख था और श्री. वामनरावजी गुळवणी, २० नारायण पेठ, इस प्रकार का पुरा पता दिया था । यह लेख स्वामीजीने काशी में पढा था और अधुरा लगने पर उन्होंने अपने शिष्य वामनराव गुळवणी, पूना को सही लेख लिखकर कल्याण मासिक पत्रिका को भेजने का निर्देश दिया।)


सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं–    “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।


‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं ।


श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं ।

तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।                 
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥



“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।  

    
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र  और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया ।


” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।
‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। )



 ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।
इस तरह से ज्ञान व शक्ति संक्रमण कर शिष्य की कुण्डलिनी जागृत करने का सामर्थ्य रखनेवाले गुरु कहीं- कहीं, कभी कभी मिलते हैं । ऐसे ही एक महात्मासे मेरी भेंट और उनसे प्राप्त अनुभव ही मेरे इस लेखका मूल कारण हैं।



1) यद्यपि यह पढकर सभी पाठकों को फ़ायदा न भी हो तो ऐसे महात्मा पूर्णत्व प्राप्त किये हुए भी हो सकते हैं। उनसे शक्ति संक्रमण द्वारा उनकी कृपा संपादन करके शिष्य को अपना कल्याण कर ही लेना चाहिये । इतना भी अगर शिष्य को विश्वास हो गया तो भी मैं समझूंगा की मेरा प्रयास सार्थक हुआ । क्योंकि किसी साधक की ऐसे पूर्ण महात्मा से भेंट होगी या मिलन होगा और वह कृपा संपादन कर सकता हैं तो वह साधक वास्तव में मनुष्य जीवन को सार्थक करेगा ।

2) योग का मुख्य हेतु समाधीतक पहुँचना ही हैं। जिस स्थिती में मन की सारी अवस्था व भाव नष्ट होते है एवं शांत होते हैं, वह साध्य होने के लिये अनुभवी सद्गुरु के मार्गदर्शन में शिष्य को ऐसे आठ प्रकार की कठिन योग की सिद्धियों से जाना पडता हैं । इस अभ्यास में जरा सी भी गलती हुई तो यह साधना शिष्य के लिये कष्टदायक हो सकती हैं । इस धोखे के डरसे बहुतसे शिष्य इस मार्ग को नहीं पकडते । क्योंकि इस मार्ग में आसन, प्राणायाम, मुद्राओं का अभ्यास, कुण्डलिनी शक्तिकी जागृति का समावेश होकर उसके बाद पृष्ठवंशरज्जूतंतू में जानेवाली मध्यवर्ती नाडीका प्रवेशद्वार खुलता हैं और उसमें से प्राण को उपर मस्तिष्क में जाने का मार्ग खुलता है | परंतु शक्तिपात मार्ग से ऊपर की सारी बातें बिना प्रयास के जल्दी प्राप्त की जा सकती हैं। जो शिष्य निरोगी, तरुण हैं और जिसका मन एवं इंन्द्रियों पर वश हैं और जो वर्णाश्रमधर्म के नियम पालन करता हैं, जिसकी भगवान व सद्गुरु पर पूरी श्रद्धा है ऐसे साधक पर शक्ति संक्रमण के परिणाम तुरंत होते हैं । सबसे महत्त्वपूर्ण बात अगर कुछ हैं तो वह सद्गुरु की प्रामाणिक सेवा (तन, मन, धन बिना स्वार्थसे) कर उनकी कृपा संपादन करना ही हैं ।


आगे के श्लोकों में शक्तिसंक्रमण की चार पद्धती बताई है । विद्धि स्थूलं सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतममपि क्रमत: । स्पर्शन- भाषण – दर्शन- संकल्पजने त्वतश्चतुर्धा तत् ॥
इस प्रकार 1) स्पर्शद्वारा 2) शब्दोच्चारद्वारा 3) दृष्टिकटाक्षद्वारा 4) संकल्पद्वारा संक्रमित की गयी शक्ति क्रमतः स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम रहती हैं ।



यथा पक्षी स्वपक्षाभ्यां शिशून् संवर्धयेच्छनै: ।
स्पर्शदीक्षोपदेशस्तु तादृश: कथित: प्रिये ॥
स्वापत्यानि यथा कूर्मी वीक्षणेनैव पोषयेत् ।                                               
दृग्दीक्षाख्योपदेशस्तु तादृश: कथित: प्रिये ॥
यथा मत्स्यी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् ।                                             
वेधदीक्षोपदेशस्तु मनस: स्यात्तथाविध: ॥



उपर के श्लोकों में दीक्षा की तीन पद्धती का वर्णन किया गया है।
1) स्पर्शदीक्षा – जिसकी तुलना पक्षी के बच्चे के अपने पंख के नीचे की गरमी से उसको बढानेसे की गयी है।
2) दृष्टिदीक्षा – जिस तरह कछुवा अपने बच्चोंपर सतत दृष्टि रखकर उसे बड़ा करता हैं ।
3) वेध दीक्षा – जिस प्रकार मछली अपने बच्चों का लालन पालन केवल चिंतन करके करती हैं । इस पद्धती में शब्ददीक्षा का उल्लेख नहीं हैं । इस पद्धती में मंत्रोच्चार के द्वारा या मुख से आशीर्वाद देकर शिष्य में शक्ति संक्रमण की जाती हैं ।



आगे के श्लोक में शिष्यों पर शक्तिसंक्रमण होने के लक्षणों का वर्णन किया हैं ।


देहपातस्तथा कम्प: परमानन्दहर्षणे । स्वेदो रोमाञ्च इत्येच्छक्तिपातस्य लक्षणम् ॥
शरीर का गिरना, कंपन, अतिआनंद, पसीना आना, कंपकंपी आना यह शक्तिसंचारण के लक्षण हैं।



प्रकाश दिखना, अंदर से आवाज सुनाई देना, आसन से शरीर ऊपर उठना इत्यादि बातें भी हैं । वैसे ही कुछ समय पश्चात प्राणायाम की अलग अलग अवस्था अपने आप शुरु होती हैं । साधकों को शक्ति मूलाधार चक्रसे ब्रह्मरंध्र तक जानेका अनुभव तुरंत होता हैं और मन को पूर्ण शांती मिलती हैं । वैसे ही साधक को उसके शरीर में बहुत बडा फ़र्क महसूस होता हैं । पहले दिन आनेवाले सभी अनुभव कितनेभी घंटे रह सकते हैं । किसी को सिर्फ़ आधा घंटा तो किसी को तीन घंटे तक भी होकर बाद में ठहरते हैं । जब तक शक्ति कार्य करती हैं, तब तक साधक की आँखे बंद रहती हैं और उसे आँखे खोलने की इच्छा ही नहीं होती । अगर स्वप्रयत्न से आँख खोलने का प्रयास किया तो आपत्ती हो सकती हैं । परंतु शक्ति का कार्य रुकने पर अपने आप आँखे खुल जाती है । आँख का खुलना और बंद होना आदि बातें ‘शक्ति का कार्य चालू हैं’ या ‘रुक गया है’ ये बताती हैं । साधक की आँखे बंद होते ही अपने शरीर में अलग अलग प्रकार की हलचल शुरु होने जैसा अहसास होने लगता हैं । उसे अपने आप होनेवाली हलचल का विरोध करना नहीं चाहिये । या फ़िर उसके मार्ग में बाधा ना लाये । उसे सिर्फ़ निरीक्षक की भाँती बैठकर क्रियाओं को नियंत्रित करने की जबाबदारीसे दूर रहना चाहिए । क्योंकि यह क्रियाएँ दैवी शक्ति द्वारा विवेक बुद्धिसे अंदरसे स्वत: प्रेरित होती हैं । इस स्थिती में उसे अध्यात्मिक समाधान मिलेगा और उसका विश्वास स्थिर एवं प्रबल होगा ।


एकबार जो सद्गुरु कृपासे शिष्य की योगशक्ति जागृत होती हैं तो साधक की दृष्टि में आसन, प्राणायाम, मुद्रा इत्यादि योग के प्रकारों का महत्त्व नहीं रहता । यह आसन, प्राणायाम व मुद्रा इत्यादि क्रियाएँ जागृत शक्ति को ब्रह्मरंध्र की ओर जाने में मदद करते हैं । ऊपर चढनेवाली शक्ति को एक बार ब्रह्मरंध्र में जाने का मार्ग खुल जाये तो फ़िर उसे क्रियाओं की जरूरत नहीं रहती और मन धीरे धीरे शांत होता चला जाता हैं ।



अशिक्षित और जिसे आसन, प्राणायाम इनकी कुछ भी जानकारी नहीं हो तो ऐसे साधक में गुरु के शक्तिसंक्रमण के कुछ सालों बाद योग- शिक्षण अनुसंधान, योग्यतानुसार योग के आसन आदि शास्त्रानुसार दृष्टिगोचर होने लगते हैं और साधक योगीकी तरह दिखने लगता है । एवं सत्य स्थिती तो यह हैं की उपरोक्त बातें कुण्डलिनी शक्ति स्वत: ही साधक की प्रगती उस साधक से आवश्यकतानुसार अपने आप करवा लेती हैं।


योग की कई क्रियाएँ बिना किसी प्रयत्न से अपने आप होती है । पूरक, रेचक और कुंभक आदि प्राणायाम क्रियाएँ अपने आप होती हैं । दो मिनट का कुंभक एक-दो सप्ताह में ही साध्य हो जाता हैं । यह सारी बातें साधकों को बिना किसी भी प्रकार की रुकावट से होती रहती हैं । क्योंकि जागृत हुई शक्ति साधक को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसकी चिंता वह स्वत: करती हैं । अपने आप होनेवाली क्रियाओंकी वजहसे साधक की साधना में प्रगति बिना रुकावट ही होती रहती हैं ।


सद्गुरु द्वारा शिष्य में शक्तिपात करने के बाद कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर उसमें शक्तिपात का सामर्थ्य बढ़ता हैं। क्योंकि वह भी गुरु जैसा बन जाता है । इसी तरह से शक्तिपात करने की परंपरा गुरु से शिष्य तक अखंड रूप में चालू रहती हैं । शक्ति के बीज गुरु शिष्य में बोते ही हैं । इसलिए गुरुकी आज्ञा होते ही शिष्य भी शक्तिपात करके दूसरे शिष्य तैयार कर सकता है और इस प्रकार से यह क्रम अखंड रूप से चालू रहता हैं । परंतु यह अवसर प्रत्येक शिष्य को नहीं मिलता । किसी किसी के बारे में शिष्य उस शक्ति का स्वत: अनुभव ले सकता हैं । परंतु आगे दिये श्लोक में बताये अनुसार दूसरों में शक्तिसंक्रमण नहीं कर सकता।


स्थूलं ज्ञानं द्विविधं  गुरुसाम्यासाम्यतत्त्वभेदेन ।                                   दीपप्रस्तरयोरिव संस्पर्शास्निग्धवर्त्ययसो: ॥


दो प्रकार के गुरु होते हैं और उनमें रहस्य के अनुकुल शक्ति संक्रामित करने की पद्धति हैं । एक पद्धति ऐसी हैं जैसे एक दीप उसके सान्निध्य में आनेवाले दूसरे दीपक को तत्काल प्रज्वलित करता हैं । और उस दीपक को दूसरे दीपक को प्रज्वलित करने की शक्ति देता हैं और यह परंपरा अखंड चालू रहती हैं । दूसरी पद्धति मतलब लोह पारस जैसी हैं । उसमें पारस लोहे को स्पर्श करते ही सोने में परिवर्तित करता है उस लोहे को ( नया सोना ) अगर दूसरे लोहे के टुकडे का स्पर्श किया जाय तो वह सोना नहीं बनता । दूसरी पद्धति में परंपरा नहीं रहती यह कमी हैं । पहले प्रकार में गुरु का शिष्य, स्वत: का जीवन सार्थक करने का कारणीभूत होता हैं । परंतु दूसरे गुरु का शिष्य सिर्फ़ खुदका उद्धार कर लेता हैं, परंतु दूसरों का उध्दार कर नहीं सकता ।



शब्द दीक्षा के दो प्रकार हैं ।
तद्वद् द्विविधं सूक्ष्मं शब्दश्रवणेन कोकिलाभ्युदययो: ।
तत्सुतमयूरयोरिव तद्विज्ञेयं यथासंख्यम् ॥


जिस तरह कौंवे के घोसले में कोयल का छोटा बच्चा कोकिला का शब्द सुनतेही बोलने लगता है और आगे तो कोयल ही दूसरे बच्चों में जागृति ला कर कंठ स्वर दे सकती हैं । इस तरह से शब्द के माध्यम से यह क्रम शुरु रहता हैं। परंतु जो मोर बादल के गरजनेसे नाच उठता है वह मोर अपनी आवाज से दूसरे मोर को नहीं नचा सकता । और इस तरह यह क्रम आगे नहीं चलता हैं |


इत्थं सूक्ष्मतरमपि द्विविधं कूर्म्या निरीक्षणात्तस्या| 

पुत्र्यास्तथैव सवितुर्निरीक्षणात् कोकमिथुनस्य ॥


सूक्ष्मतर दीक्षा जो दृष्टिक्षेपद्वारा दी जाती हैं उसके भी दो प्रकार हैं  । एक पद्धती में जैसे कछुवा अपने बच्चे पर लगातार दृष्टि रखकर उसका पालन पोषण करता हैं और उस बच्चे में भी आगे जरूरत पड़ने पर शक्ति उत्पन्न करके उसे चला सकता हैं । परंतु उन बच्चों को उस शक्ति का एहसास उनके बच्चे होने तक नहीं होता । इस प्रकार शिष्य भी वैसेही उसके गुरु से दी गयी शक्ति के बारे में जागरुक नहीं रहता हैं और जब शिष्य गुरु के सान्निध्य में नहीं आता तब तक वह उसे शक्तिपात दीक्षा नहीं देता । पक्षी, लाल हंस के जोडे सूर्यदर्शनसे आनंदित होते हैं , पर वह स्वत: स्वजातीय हँसों को आनंदित नहीं कर सकते ।


अब संकल्प दीक्षा के बारे में विचार करें ।
सूक्ष्मतममपि द्विविधं मत्स्या: संकल्पतस्तु तद्दहितु:।
तृप्तिर्नगरादिजनिर्मान्त्रिकसंकल्पतश्च भुवि तद्वत् ॥



 सूक्ष्मतम दीक्षा के प्रकार में संकल्प दीक्षा हैं वह भी दो प्रकार की होती हैं । उसमें से एक प्रकार ऐसा  -जिस तरहसे मछली अपना मन एकाग्र करके अपने बच्चे का चिंतन करके अपने बच्चोंका लालन पालन करती हैं । और दूसरा प्रकार जैसे जादूगर माया से शहर एवं गाँव तैयार कर दिखाता हैं । पहले प्रकार में मछलीद्वारा बच्चों को शक्ती मिलती है पर दूसरे प्रकार में उत्पन्न होने वाला आभास नवीन आभास उत्पन्न कर नहीं सकता।
ऊपर दिये गये उदाहरणों में शक्ति संक्रमण करने की परंपरा को चालू रखने की शक्ति निसर्गने गुरुमाता में दी हैं ऐसा देखने में आता हैं । इसलिए गुरु को ‘गुरु माँ’ यह नाम प्राप्त हुआ हैं ।



एकबार जो गुरुने अपने शिष्यपर शक्तिपात कर दैवी शक्ति का संक्रमण किया, तो शिष्य अपने आप ही आसन, प्राणायाम, मुद्रा, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान यह बात सहज आत्मसात करता हैं । यह करते समय उसे किसीका मार्गदर्शन लेना नहीं पडता और किसी भी प्रकार की मेहनत या तकलीफ़ करनी नहीं पडती, क्योंकि शक्ति स्वत: साधक को उपरी बाते करने में सहायता एवं मार्गदर्शन करती हैं ।


इस साधना का वैशिष्ट्य यह हैं कि इसमें साधक को किसी भी प्रकार की चोट या कष्ट होने का भय नहीं रहता। जो साधक अन्य किसी प्रकार की साधना से योगका अभ्यास करता हैं, उसे अलग अलग आपत्तियों का सामना करना पडता हैं और आखरी में अपना परम कल्याण होगा इस आशा में बहुतही कठोर नियमानुसार जीवन बिताना पड़ता हैं । परंतु इस साधना में परमानंद प्राप्त होता ही हैं, किंतु साधक में कुण्डलिनी शक्ति जागृत होते ही वह उसे आत्मप्रचीती देते जाती हैं। साधक को परमोच्च ब्राह्मी स्थिती में पहुँचने तक शक्तिका कार्य शुरु रहता ही हैं । बीचमें ही साधक को अपवादात्मक परिस्थितियों में अनेक जन्म लेना भी पड गया तो यह शक्ति सो नहीं जाती और अपना उद्देश्य पूरा कर लेती हैं । इस प्रकार के साधन मार्ग में सद्गुरुने विश्वास दिया हैं ।



शक्तिपात मार्ग के द्वारा साधक को एक बार दिशा मिल गई फ़िर वह स्वत: योग के किसी भी मार्ग का अवलम्बन नहीं कर सकता अथवा ऐसा करनेसे उसे सुख भी प्राप्त नहीं होगा । वह सिर्फ़ अंदर से मिलने वाले शक्ति के आदेश का ही पालन कर सकता हैं । ऐसे आदेशों की अगर वह अवज्ञा करेगा तो उसके ऊपर आपत्ति आये बगैर रहेगी नहीं। जैसे मनुष्य को नींद आने लगे तो उसे नींद से ही शांती और सुख मिलेगा । उसी प्रकार जब साधक आसनपर बैठता है तो उसे अंदर से शक्ति के आदेश मिलने लगते हैं कि उसे क्या – क्या करना है अथवा अमुक प्रकार की क्रिया (हलचल ) करना है और उस प्रकार की उसे क्रिया करनी ही पडती हैं  । वह अगर वैसा नहीं करेगा तब उसे अस्वस्थता होगी और तकलीफ़ होगी । परंतु अगर वह खुले मन से अंदर से मिलनेवाले आदेश का पालन करेगा, तो शांती व सुख ही मिलेगा । खुद के प्रयत्नों पर श्रद्धा रखनेवाले साधक इस प्रकार की साधना में कम विश्वास रखते हैं और वे अंत:शक्ति पर निर्भर न होकर खुद बाहर की शक्ति पर आधारित रहेगा । परंतु शक्ति संक्रमण का मार्ग पूर्ण समर्पण एवं शक्ति पर आधारित रहने का ही हैं । जिसे इस प्रकार की दीक्षा मिली होगी उसे इस जनम में अपनी कितनी प्रगती होगी इसका विचार नहीं करना चाहिए । शक्ति जहाँ ले जायेगी, वहाँ जाने के लिये उसे तैयार रहना चाहिए और शक्ति सभी प्रकार के संकट से उसका रक्षण करती रहती हैं। वही उसे परमोच्च पद पर ले जाती है । जिनकी आज के इस युग में योग के बारे में उत्सुकता होगी उसे शक्तिपात मार्ग जैसा कोई भी दूसरा सरल मार्ग नहीं हैं ।


शक्ति -संक्रमण करने वाले अधिकारी महात्मा के सान्निध्य में जो कोई भी आयेगा, उसे उनकी मर्जी संपादन करके अपने जीवन को सार्थक करने के क्षण को खोना नहीं चाहिये । इस कलियुग में यह परंपरा याने मृत्युलोक में मनुष्य के लिए स्वर्ग से लाये गये अमृत जैसे हैं । इसके सिवाय सरल व ज्यादा परिणामकारी दूसरा कोई साधन नहीं । यह साधक को सभी दुखों से और दूषित मन, गलत प्रवृत्तिसे मुक्त कर उसे परमशांति देती है ।


हम सभी शंकराचार्य के शिवानंदलहरी के इस श्लोक को पढकर परमेश्वर से आखरी प्रार्थना करे :
 त्वत्पादाम्बुजमर्चयामि परमं त्वां चिन्तयाम्यन्वहम् ।
त्वामीशं शरणं व्रजामि वचसा त्वामेव याचे विभो ॥
दीक्षां मे दिश चाक्षुषीं सकरुणां दिव्यश्चिरं प्रार्थितां
शम्भो लोकगुरो मदीयमनस: सौख्योपदेशं कुरु ॥



हे सर्वश्रेष्ठ ! मैं तेरे चरणकमलों की पूजा करता हूँ और तेरा ध्यान करता हूँ । मैं तेरी शरण में आता हूँ ( तेरा आश्रय लेता हूँ ) और हे परमेश्वर, मधुर शब्दों से प्रार्थना करता हूँ की, तू मुझे स्वीकार करके, तेरी करुणापूर्ण दृष्टिसे मुझपर शक्तिपात कर मुझे ऐसी दीक्षा दें की, जिसका ध्यास देवलोकों में भी लगा हुआ हैं । हे शंभो, जगद्गुरो, मेरे मनको सच्चे सुख का मार्ग सिखा ।



ॐ शांति: शांति: शांति: ।



क्या हिंदू आतंकी : काव्याक्रोश

क्या हिंदू आतंकी : काव्याक्रोश


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

जन है बांटे मन हैं बांटे, देश की धरती बांटी है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


हिंदू कोई जाति नहीं न छोटी न ये आराजकता है।

ये भारत का सत्य सनातन हिंद देश की सभ्यता है॥

ज्ञान सम्मान भूमि की पूजा गंगा की यह माटी है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


जिसने हिंद में जनम लिया और नमक देश का खाया है।

वो हिन्दू है हिंद का बेटा जग में वो कहलाया है॥

हिंद से हिंदू जनम हुआ है हिंदी कितनी मदमाती है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


महावीर और बुद्ध की धरती अहिंसा का उपदेश दिया।

सत्य ज्ञान जीवन को जानो ये ही तो संदेश दिया॥

पर कुछ नालायक हैं बेटे बात समझ न आती है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


बिना वजह हिंदू आतंकी हिंदू आतंक नाम दिया।

राजनीति वोटों की खातिर हिंदू को बदनाम किया॥

बिना वजह संतो को फांसा मौत की हल्दीघाटी है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


है स्वर्णिम इतिहास देश का पर लुटेरों ने भी राज किया।

हिंदू का इतिहास सुनहरा उसको मटियामेट किया॥  

देश को लूटा अब कैसे लूटे यही चिंता बाकी है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


हिंदू मतलब विश्व है अपना शांति भाषा बोली है।

मानवजाति भाई भाई प्रेम की भाषा बोली है॥

विपुल गर्व से हिंदू बोलो भाषा यही सुहाती है।

भारत में हिंदू गर बोलो आतंक की परिपाटी है॥


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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“जातिप्रथा” वेद से नहीं उपजी

“जातिप्रथा”  वेद से नहीं उपजी


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


यदि मुझे किसी वेद  अथवा उपनिषद या षट दर्शन में एक भी शब्द जातिवाद का या जन्म से जाति का दिखा देगा मैं उसका जीवन भर दास बन जाऊंगा!!!!

आज एक फैशन है कि यदि वोट चाहिये तो वेदों को गाली दे दो। मनु को कोस दो। बस मूर्खों की लम्बी कतार खडी है जो बिना पढे बिना जाने तुमको मसीहा का खिताब दे देगी। राम का, कृष्ण का अपमान करो वोट ले लो।

हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि:

१.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं ।

2. मनुष्य जन्म से एक शूद्र ही होता है। परन्तु ब्रह्म के वरण से और ज्ञान बांटने के कारण ब्राह्मण,  शक्तिशाली होने के कारण क्षत्रिय, व्यापार निपुण होने के कारण वैश्य और ज्ञान हीन होना और सेवा में रुचि रखने के कारण शूद्र ही रह जाता है।

3.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती।

4.वेद ही एकमात्र ऐसे ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो। जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते।

चलिये चाय पर चर्चा की जाये। सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं:

यजुर्वेद 18/ 48 :  हे भगवन! हमारे ब्राह्मणों में,  क्षत्रियों में,  वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये। मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं।

यजुर्वेद 20/17:  जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों,  जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों,  जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों,  कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुडाइए।

यजुर्वेद 26/2:  हे मनुष्यों! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं,  इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण,  क्षत्रिय, शूद्र ,वैश्य,  स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो।  विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें।

अथर्ववेद 19/32/8:  हे ईश्वर! मुझे ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए।  मैं सभी से प्रसंशित होऊं।

अथर्ववेद 19/62/1:  सभी श्रेष्ट मनुष्य मुझे पसंद करें। मुझे विद्वान,  ब्राह्मणों,  क्षत्रियों,  शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ।

इन वैदिक प्रार्थनाओं से विदित होता है कि:

-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं।

-सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है।

-और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं।

-वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है।

-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है।  अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और न ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है।

इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है।

यह कहना कि वेदों में शूद्र का अर्थ कोई ऐसी जाति या समुदाय है जिससे भेदभाव बरता जाए – पूर्णतया निराधार है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने  मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा भी है कि नहीं।

दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर और उच्चता में अकड़े हुए लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है|  ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ एक गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जातिप्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे के बिलकुल विपरीत अनेक श्लोक हैं।

मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन मुख्य आक्षेप :

१. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया।

२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे।

३. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था। उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया।

मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था।  अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती।  महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है। (देखें – ऋग्वेद-10\10\ 11-12,  यजुर्वेद-31/ 10‌-11,  अथर्ववेद-19\ 6.5-6)।

यह वर्ण व्यवस्था है।  वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति,  जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है।

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है।  यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है,  कौन सी क्षत्रियों से,  कौन सी वैश्यों और शूद्रों से।

इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं।  ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे। जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है,  वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे?

मनुस्मृति 3/109 में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए।

अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए।

मनुस्मृति 2/136 : धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं।  इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है।

मनुस्मृति 9/335 : शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।

मनुस्मृति 10/60 : ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।

2/103 : जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।

2/172 : जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।

4/245  : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है | इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है।  इसका, किसी

भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।

2/168: जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है।  और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।

अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं।

2/126: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है।

2/238: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।

2/241: आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।

मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती। मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए।

कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है।  ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।

2/157 : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।

2/28 : पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।

मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है।  जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।

यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है,  इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।

2/148 : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है। यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है।  सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता।

इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा।

2/146 : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं।  पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।

2/147  : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है।  वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है।

अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है।  अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा।

10/4 : ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं।  विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।

इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता।  उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा।  और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा।  अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं।

किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं।

4/141 : अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और/या अधिकार से वंचित न करें। क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं।  यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था।  जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है,  तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है।

क.     ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को अंतर्मुखी होने की विधियां समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

ख.     ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे।  जुआरी और हीन चरित्र भी थे परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण 2/19)

ग.     सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

घ.     राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण 4/4/14)

अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

ङ.    राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4/1/13)

च.    धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4/2/2)

छ.    आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण 4/2/2)

ज.    भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।

1.     हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण 4/3/5 )

2.    क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण 4/8/1) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए।  इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।

3.    मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।

4.     ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।

5.     राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।

6.     त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।

7.    विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।

8.    विदुर दासी पुत्र थे। तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।

9.    वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण 2/19।

10.    मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं।  वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं।  इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक,  औड्र,  द्रविड,  कम्बोज, यवन,  शक,  पारद,  पल्हव,  चीन,  किरात,  दरद,  खश।

11.    महाभारत अनुसन्धान पर्व (35 /17-18) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल,  लाट,  कान्वशिरा,  शौण्डिक,  दार्व,  चौर,  शबर,  बर्बर।

12.    आज भी ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं।  इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज,  एक ही कुल की संतान हैं।  कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए।

मनु परम मानवीय थे।  वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते। जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो,  उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं।  उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं।

मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है।  अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं।

3/122 : शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर,  परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए।

3/116: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें।

2/137 : धन,  बंधू,  कुल,  आयु,  कर्म,  श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए।

अत: यह आवश्यक है कि हम समाज में फैली वेदों और मनु के बारे में फैली भांतियों का निवारण कर वेदों की सत्यता निर्धारित करें।



MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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