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Tuesday, July 30, 2019

ईश्वर चर्चा से नहीं साधना से मिलता है

ईश्वर चर्चा से नहीं साधना से मिलता है। –दीक्षा दिन पर मनोगत

  माता जी “बा”

(वागीश्वरी से साभार)


मेरे द्वारा किसी मित्र के द्वारा की जानेवाली टिप्पणी “ शिव जी को सब्जी और मेरे पहले गुरूदेव मां काली को खाली कहने”  पर मेरे क्रोधपूर्ण आचरण और व्यवहार आप कई मित्रों ने आश्चर्य किया और कुछ ने टिप्पणियां भी की। यह भी सत्य है मेरा उन सदस्य के प्रति क्रोध कम भी नहीं हुआ है। क्योकिं अपने कुकृत्य पर उन्होने कुतर्क दिये पर क्षमा न मांगी। इन्होने पहले राम की फिर तुलसी की भी निंदा की थी। मैं सहन कर गया किंतु अपने गुरू का अपमान सहन न हुआ। वह भी उसके द्वारा जो ज्ञानी बनकर उपदेश देता हो। प्रस्तुत लेख में अंत मे स्पष्ट लिखा है कि अपने गुरू का अपमान नहीं सहना चाहिये। साथ ही जो इष्ट भी हो। ........ दास विपुल


माता “बा” जी महाराज की शक्तिपात दीक्षा पूणे के ब्रह्मलीन गुलवर्णी महाराज से हुई थी। सन्यास दीक्षा ब्रह्मलीन स्वामी शिव ओम तीर्थ जी महाराज से हुई थी। मैं माता जी के दर्शन मुम्बई आश्रम में कर चुका हूं। जब वह सन्यास दीक्षा की प्रार्थना हेतु आईं थी। ........ दास विपुल

एक बार फ़िर मेरा दीक्षा दिवस 7 जनवरी आ रहा है । एक और वर्ष बीत गया । मन में  लगता है कुछ भी नहीं किया । सद्गुरु ने हमें अनमोल वस्तु प्रदान की है किन्तु मैं हूँ कि …। आश्रम, संस्था, साधक, प्रवास, योजनाएं इन सभी में साधना, ध्यान और जाप कैसे पूरा करना? डर लगता है बाह्य कार्यों को करने में , जो जरूरी है वह छूट न जाए । सद्गुरु से प्रार्थना है और कुछ भी न रहे तो दिक्कत नहीं । बस मेरा ध्यान और जाप निरंतर चलता रहे । जिस दिन से दीक्षा ली है, उस क्षण से आज तक उन्हीं का सहारा है और उन्हीं का इशारा है । वे हरक्षण मेरे साथ साक्षात रहते हैं । हर पल, हर कदम मुझे उनके होने का प्रमाण मिलता है । मुझ अपात्र पर इतनी कृपा क्यों यह समझ से परे है? सद्गुरु के अलावा मैं कुछ नहीं जानती । न कोई देव, न कोई ईश्वर, मेरे शिव भी वही, मेरे नारायण वही, दत्त भी वही, प्रभु भी वही । शिव ही सद्गुरु है और सद्गुरु ही शिव है । सदगुरु की महिमा क्या बयान करूं? हर इच्छा वे पूरी करते हैं । वैसे उनकी कृपा से कोई इच्छा होती भी नहीं है किन्तु मन में सोचने की ही देर है कि तत्क्षण वह सामने हाजिर हो जाता है । वे मांगने का मौका ही नहीं देते ।

साधन पथ पर चलते चलते कई ऐसे मौके आए कि कुछ अबोध व्यक्तियों ने उंगलियाँ भी उठाईं, प्रश्न किए, निंदा की । किन्तु हमने कभी प्रत्युत्तर नहीं दिया । न ही देना चाहते हैं । कुछ भी छिपा हुआ नहीं है । कोई कहता है संन्यासी हैं तो परिवार साथ में कैसे?  कोई कहता है – गहने आभूषण ये सब कैसे? कोई पूछता है- प्रवचन क्यों नहीं करते? कोई कहता है- क्या केवल पैसे वालों के पास ही जाते हैं? शिवपुरी में सामाजिक कार्यों को महत्त्व क्यों नहीं दिया जाता? समाज के लिए क्या किया? आदि-आदि। अब किस-किस को जवाब दें? कई साधक भी इन सवालों का निशान बनते हैं। कुछ नाराज होते हैं, तो कुछ दु:खी होते हैं। अपने सद्गुरु पर उठी अँगुली उन्हें पीड़ा देती है, यह स्वाभाविक भी है। श्रीगुरुदेव के आदेश से लोगों के बीच रहकर कार्य करना है तो यह सब स्वीकारना ही होगा। बिना कोई शिकायत किए। यही हमारी परीक्षा है।

संन्यास को परिभाषित कौन करेगा? संन्यास लेने वाला, संन्यास देने वाला या वह जिसे अतिश्रेष्ठ व्यवस्था की कोई जानकारी ही नहीं है। हमारे संन्यास गुरु परम आदरणीय श्री शिवोऽम तीर्थ स्वामी ने कहा था कि सबसे बड़ा संन्यास मन का है। जब तक मन संन्यासी न हो तो कोई अर्थ नहीं। बाहर से जो भी दिखावा कर लो, लेकिन सद्गुरु और ईश्वर तो मन देखते हैं। परिवार में  रहकर भी अगर मन निर्लिप्त हो तो फ़िर कोई हर्ज नहीं। संन्यास का अर्थ है व्यक्ति के सांसारिक मन की मृत्यु। आप दुनिया के लिए मृत हो गए। पुराना कुछ भी नहीं बचा। अब एक नया जीवन मिला है। फ़िर बेटा, बेटी नहीं, किन्तु वे दुश्मन भी नहीं हो जाते हैं। मन से अगर मुक्त हो तो उनसे भागना क्यों? अब तो सभी बेटा-बेटी। सभी एक विशाल परिवार। रही बात आभूषणों की तो संन्यासी काला धागा पहने या सोना, हीरे या मोती कॊई फ़र्क नहीं पड़ता। उसके लिए सभी बराबर है। असल में तो वो ही आभूषण पहनने का हकदार होता है। वो तो हीरे-मोती के खड़ाऊ भी पहन सकता है। एक पल पहने और अगले ही पल उतार भी दे तो क्या फ़र्क पड़ेगा? न तो उसे इनका मोह या अभिमान होता है और अगर ये नहीं भी रहे तो कोई रंज भी नहीं। जो भी साधक पहनाएं उनकी खुशी के लिए संन्यासी, सद्गुरु इन्हें धारण कर लेते हैं। भाव तो निस्पृह, निर्लिप्त ही होता है।

स्वामी शिवोऽम तीर्थ का आदेश था जैसे हो, वैसे ही रहो। यह शरीर ही सबसे बड़ा और श्रेष्ठ मंदिर है। उसे स्वच्छ रखना, सुंदर रखना, अलंकृत करना कोई गैर कार्य नहीं और फ़िर मेरे सद्गुरु पूज्य गुळवणीजी महाराज ने जब इस आदेश पर मोहर लगा दी तो फ़िर मुझे और विचार करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। सद्गुरु ने कभी प्रवचन नहीं किया और न हमें ही करने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि यह अनुभव का मार्ग है जिसके प्रारब्ध में होगा बिना कहे आएगा, जिसके प्रारब्ध में नहीं होगा उसे घंटो उपदेश दो, कोई फ़र्क पड़ेगा, फ़िर क्यों अपना समय व्यर्थ गंवाना। इससे तो अच्छा है आप नाम जप करो, सत्संग करो। स्वयं करते रहो, जिसकी रुचि होगी वह स्वयं खिंचा चला आएगा। नाम जप की ध्वनि जब उसके कानों में पड़ेगी तो वह स्वयं को रोक नहीं पाएगा। जगह-जगह जाओ और नाम जप करो। ईश्वर चर्चा से नहीं, तर्क से या उपदेश से नहीं वरन एकान्त साधना से मिलता है, अनुभव के माध्यम से मिलता है। साधना का सीधा रिश्ता एकान्त से है न कि संगठन से। समूह में जीने वाला व्यक्ति साधक नहीं बन सकता। दोनों विचारधाराओं में विरोधाभास है।

अध्यात्म विशेषकर शक्तिपात साधना अपने आप में परिपूर्ण है। इस मार्ग में मनुष्य के भीतर परिवर्तन होता है। सोच बदलती है, व्यवहार बदलता है। यह परिवर्तन स्थायी होता है। इस साधन की विशेषता है कि यह व्यक्तिगत है। सामूहिक या सामाजिक स्तर पर नहीं अपितु व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव आता है। यही साधक फ़िर किसी अन्य साधक के जीवन में सकारात्मक बदलाव का निमित्त बनता है। इस तरह से यह कार्य अदृश्य और सहज रूप में होता है। शक्ति जाग्रत होने के पश्चात वह मन, बुद्धि और शरीर तीनों स्तरों पर कार्यरत होती है। यह शक्ति मन का मैल, कचरा साफ़ करती है, बुद्धि को अधिक कार्यशील करती है और शरीर को नीरोग बनाती है। अब आप ही सोचिए कि एक स्वस्थ मन, तीव्र बुद्धि और स्वस्थ शरीर  का व्यक्ति निर्मित करना वो भी बिना किसी आंदोलन के, बिना किसी खर्च के, क्या इससे बड़ी कोई समाज सेवा हो सकती है? फ़र्क इतना ही है कि यह क्रिया दिखती नहीं है। किन्तु आजकल दिखावे का जमाना है। चाहे नतीजा मिले या नहीं, दिखावा जरूरी हो गया है। आज की दुनिया में कार्य होने से ज्यादा शायद कार्य होते हुए दिखाई देना, प्रतीत होना और प्रचारित होना जरूरी हो गया है।

दीक्षा दिवस पर सभी साधकों से यही कहूँगी कि अगर उठना है तो सद्गुरु की नजरों में उठो, औरों की चिन्ता छोड़ो। दुनिया की नजरों में चढ़ना या उतरना अस्थायी है। लोगों की बातों की, निन्दा-स्तुति की परवाह करने से अच्छा है अपने अंतर्मन को सुनो। सद्गुरु के वचन निभाने में यदि दुनिया की आलोचना सहनी भी पड़े तो क्या सोचना?

हाँ, यदि सद्गुरु कभी आपके हित में आपकी गलतियां या चूक बताएं या कभी कठोर शब्दों में कुछ कह दें तो उसका बुरा मत मानना। मन में क्लेश मत लाना। यह साधक के भले के लिए ही किया गया कार्य है। ध्यान रहे अगर बुखार चढ़ेगा तो चिकित्सक कड़वी दवा पिलाएगा ही। उसी से तो रोग कटेगा। कोई भी साधक कितना भी जोर लगा ले वो सद्गुरु से अपनी अँगुली छुड़ा नहीं सकता क्योंकि वह इस भ्रम में है कि अँगुली उसने पकड़ी है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही है।

एक अंतिम बात और कि भूल कर भी कभी अपने सद्गुरु की निंदा का पाप नहीं ओढ़ना । निंदा न सुनना और न करना।  इस शुभावसर पर पूज्य सद्गुरुदेव के श्रीचरणोंमें मेरी यही प्रार्थना है कि अपने वासुदेव कुटुम्ब के सभी साधकों पर सदैव अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें ।

–अपनी बा.

पूर्वप्रसिद्धी – शिवप्रवाह, नव्हम्बर 2009


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