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Tuesday, July 30, 2019

शक्तिपात या दैवीय शक्ति संक्रमण

शक्तिपात या दैवीय शक्ति  संक्रमण (वागीश्वरी से साभार)

(प.पू. योगीराज गुलवर्णी महाराज, मूल मराठी लेख,
हिंदी रूपांतरण : प.पू. “बा” )

यह लेख आपको शक्तिपात की महता और महानता स्पष्ट कर देगा। अधिकतर लोग इसको समझ नहीं पाते और कुछ भी कयास लगाकर अपने को ज्ञानी बनते हैं। यह लेख उनको अल्पज्ञ ज्ञानियों को समर्पित है। .................  दास विपुल 


मेरे गुरूदेव ब्रह्मलीन स्वामी नित्यबोधानंद तीर्थ जी महाराज की शक्तिपात दीक्षा पूणे के ब्रह्मलीन गुलवर्णी महाराज से हुई थी। गुरूदेव की सन्यास दीक्षा ब्रह्मलीन स्वामी शिव ओम तीर्थ जी महाराज से हुई थी। ........ 
दास विपुल

 

(उपरोक्त लेख आज से करीबन ६२ वर्ष पहले योगीराज गुळवणी महाराज द्वारा अपने गुरु प.प.प. लोकनाथतीर्थ स्वामी महाराज के निर्देश पर अंग्रेजी में लिखकर कल्याण मासिक पत्रिका, गोरखपूर में उस समय प्रकाशित किया गया था| जब ‘शक्तिपात दिक्षा’ के संपादक श्री. त्र्यंबक भास्कर खरे ने १९३४ में कुंडलिनी महायोग पर लेख दिया था और उसमें स्वामी लोकनाथ तीर्थ का उल्लेख था और श्री. वामनरावजी गुळवणी, २० नारायण पेठ, इस प्रकार का पुरा पता दिया था । यह लेख स्वामीजीने काशी में पढा था और अधुरा लगने पर उन्होंने अपने शिष्य वामनराव गुळवणी, पूना को सही लेख लिखकर कल्याण मासिक पत्रिका को भेजने का निर्देश दिया।)


सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं–    “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।


‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं ।


श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं ।

तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।                 
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥



“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।  

    
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र  और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया ।


” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।
‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। )



 ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।
इस तरह से ज्ञान व शक्ति संक्रमण कर शिष्य की कुण्डलिनी जागृत करने का सामर्थ्य रखनेवाले गुरु कहीं- कहीं, कभी कभी मिलते हैं । ऐसे ही एक महात्मासे मेरी भेंट और उनसे प्राप्त अनुभव ही मेरे इस लेखका मूल कारण हैं।



1) यद्यपि यह पढकर सभी पाठकों को फ़ायदा न भी हो तो ऐसे महात्मा पूर्णत्व प्राप्त किये हुए भी हो सकते हैं। उनसे शक्ति संक्रमण द्वारा उनकी कृपा संपादन करके शिष्य को अपना कल्याण कर ही लेना चाहिये । इतना भी अगर शिष्य को विश्वास हो गया तो भी मैं समझूंगा की मेरा प्रयास सार्थक हुआ । क्योंकि किसी साधक की ऐसे पूर्ण महात्मा से भेंट होगी या मिलन होगा और वह कृपा संपादन कर सकता हैं तो वह साधक वास्तव में मनुष्य जीवन को सार्थक करेगा ।

2) योग का मुख्य हेतु समाधीतक पहुँचना ही हैं। जिस स्थिती में मन की सारी अवस्था व भाव नष्ट होते है एवं शांत होते हैं, वह साध्य होने के लिये अनुभवी सद्गुरु के मार्गदर्शन में शिष्य को ऐसे आठ प्रकार की कठिन योग की सिद्धियों से जाना पडता हैं । इस अभ्यास में जरा सी भी गलती हुई तो यह साधना शिष्य के लिये कष्टदायक हो सकती हैं । इस धोखे के डरसे बहुतसे शिष्य इस मार्ग को नहीं पकडते । क्योंकि इस मार्ग में आसन, प्राणायाम, मुद्राओं का अभ्यास, कुण्डलिनी शक्तिकी जागृति का समावेश होकर उसके बाद पृष्ठवंशरज्जूतंतू में जानेवाली मध्यवर्ती नाडीका प्रवेशद्वार खुलता हैं और उसमें से प्राण को उपर मस्तिष्क में जाने का मार्ग खुलता है | परंतु शक्तिपात मार्ग से ऊपर की सारी बातें बिना प्रयास के जल्दी प्राप्त की जा सकती हैं। जो शिष्य निरोगी, तरुण हैं और जिसका मन एवं इंन्द्रियों पर वश हैं और जो वर्णाश्रमधर्म के नियम पालन करता हैं, जिसकी भगवान व सद्गुरु पर पूरी श्रद्धा है ऐसे साधक पर शक्ति संक्रमण के परिणाम तुरंत होते हैं । सबसे महत्त्वपूर्ण बात अगर कुछ हैं तो वह सद्गुरु की प्रामाणिक सेवा (तन, मन, धन बिना स्वार्थसे) कर उनकी कृपा संपादन करना ही हैं ।


आगे के श्लोकों में शक्तिसंक्रमण की चार पद्धती बताई है । विद्धि स्थूलं सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतममपि क्रमत: । स्पर्शन- भाषण – दर्शन- संकल्पजने त्वतश्चतुर्धा तत् ॥
इस प्रकार 1) स्पर्शद्वारा 2) शब्दोच्चारद्वारा 3) दृष्टिकटाक्षद्वारा 4) संकल्पद्वारा संक्रमित की गयी शक्ति क्रमतः स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम रहती हैं ।



यथा पक्षी स्वपक्षाभ्यां शिशून् संवर्धयेच्छनै: ।
स्पर्शदीक्षोपदेशस्तु तादृश: कथित: प्रिये ॥
स्वापत्यानि यथा कूर्मी वीक्षणेनैव पोषयेत् ।                                               
दृग्दीक्षाख्योपदेशस्तु तादृश: कथित: प्रिये ॥
यथा मत्स्यी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् ।                                             
वेधदीक्षोपदेशस्तु मनस: स्यात्तथाविध: ॥



उपर के श्लोकों में दीक्षा की तीन पद्धती का वर्णन किया गया है।
1) स्पर्शदीक्षा – जिसकी तुलना पक्षी के बच्चे के अपने पंख के नीचे की गरमी से उसको बढानेसे की गयी है।
2) दृष्टिदीक्षा – जिस तरह कछुवा अपने बच्चोंपर सतत दृष्टि रखकर उसे बड़ा करता हैं ।
3) वेध दीक्षा – जिस प्रकार मछली अपने बच्चों का लालन पालन केवल चिंतन करके करती हैं । इस पद्धती में शब्ददीक्षा का उल्लेख नहीं हैं । इस पद्धती में मंत्रोच्चार के द्वारा या मुख से आशीर्वाद देकर शिष्य में शक्ति संक्रमण की जाती हैं ।



आगे के श्लोक में शिष्यों पर शक्तिसंक्रमण होने के लक्षणों का वर्णन किया हैं ।


देहपातस्तथा कम्प: परमानन्दहर्षणे । स्वेदो रोमाञ्च इत्येच्छक्तिपातस्य लक्षणम् ॥
शरीर का गिरना, कंपन, अतिआनंद, पसीना आना, कंपकंपी आना यह शक्तिसंचारण के लक्षण हैं।



प्रकाश दिखना, अंदर से आवाज सुनाई देना, आसन से शरीर ऊपर उठना इत्यादि बातें भी हैं । वैसे ही कुछ समय पश्चात प्राणायाम की अलग अलग अवस्था अपने आप शुरु होती हैं । साधकों को शक्ति मूलाधार चक्रसे ब्रह्मरंध्र तक जानेका अनुभव तुरंत होता हैं और मन को पूर्ण शांती मिलती हैं । वैसे ही साधक को उसके शरीर में बहुत बडा फ़र्क महसूस होता हैं । पहले दिन आनेवाले सभी अनुभव कितनेभी घंटे रह सकते हैं । किसी को सिर्फ़ आधा घंटा तो किसी को तीन घंटे तक भी होकर बाद में ठहरते हैं । जब तक शक्ति कार्य करती हैं, तब तक साधक की आँखे बंद रहती हैं और उसे आँखे खोलने की इच्छा ही नहीं होती । अगर स्वप्रयत्न से आँख खोलने का प्रयास किया तो आपत्ती हो सकती हैं । परंतु शक्ति का कार्य रुकने पर अपने आप आँखे खुल जाती है । आँख का खुलना और बंद होना आदि बातें ‘शक्ति का कार्य चालू हैं’ या ‘रुक गया है’ ये बताती हैं । साधक की आँखे बंद होते ही अपने शरीर में अलग अलग प्रकार की हलचल शुरु होने जैसा अहसास होने लगता हैं । उसे अपने आप होनेवाली हलचल का विरोध करना नहीं चाहिये । या फ़िर उसके मार्ग में बाधा ना लाये । उसे सिर्फ़ निरीक्षक की भाँती बैठकर क्रियाओं को नियंत्रित करने की जबाबदारीसे दूर रहना चाहिए । क्योंकि यह क्रियाएँ दैवी शक्ति द्वारा विवेक बुद्धिसे अंदरसे स्वत: प्रेरित होती हैं । इस स्थिती में उसे अध्यात्मिक समाधान मिलेगा और उसका विश्वास स्थिर एवं प्रबल होगा ।


एकबार जो सद्गुरु कृपासे शिष्य की योगशक्ति जागृत होती हैं तो साधक की दृष्टि में आसन, प्राणायाम, मुद्रा इत्यादि योग के प्रकारों का महत्त्व नहीं रहता । यह आसन, प्राणायाम व मुद्रा इत्यादि क्रियाएँ जागृत शक्ति को ब्रह्मरंध्र की ओर जाने में मदद करते हैं । ऊपर चढनेवाली शक्ति को एक बार ब्रह्मरंध्र में जाने का मार्ग खुल जाये तो फ़िर उसे क्रियाओं की जरूरत नहीं रहती और मन धीरे धीरे शांत होता चला जाता हैं ।



अशिक्षित और जिसे आसन, प्राणायाम इनकी कुछ भी जानकारी नहीं हो तो ऐसे साधक में गुरु के शक्तिसंक्रमण के कुछ सालों बाद योग- शिक्षण अनुसंधान, योग्यतानुसार योग के आसन आदि शास्त्रानुसार दृष्टिगोचर होने लगते हैं और साधक योगीकी तरह दिखने लगता है । एवं सत्य स्थिती तो यह हैं की उपरोक्त बातें कुण्डलिनी शक्ति स्वत: ही साधक की प्रगती उस साधक से आवश्यकतानुसार अपने आप करवा लेती हैं।


योग की कई क्रियाएँ बिना किसी प्रयत्न से अपने आप होती है । पूरक, रेचक और कुंभक आदि प्राणायाम क्रियाएँ अपने आप होती हैं । दो मिनट का कुंभक एक-दो सप्ताह में ही साध्य हो जाता हैं । यह सारी बातें साधकों को बिना किसी भी प्रकार की रुकावट से होती रहती हैं । क्योंकि जागृत हुई शक्ति साधक को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसकी चिंता वह स्वत: करती हैं । अपने आप होनेवाली क्रियाओंकी वजहसे साधक की साधना में प्रगति बिना रुकावट ही होती रहती हैं ।


सद्गुरु द्वारा शिष्य में शक्तिपात करने के बाद कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर उसमें शक्तिपात का सामर्थ्य बढ़ता हैं। क्योंकि वह भी गुरु जैसा बन जाता है । इसी तरह से शक्तिपात करने की परंपरा गुरु से शिष्य तक अखंड रूप में चालू रहती हैं । शक्ति के बीज गुरु शिष्य में बोते ही हैं । इसलिए गुरुकी आज्ञा होते ही शिष्य भी शक्तिपात करके दूसरे शिष्य तैयार कर सकता है और इस प्रकार से यह क्रम अखंड रूप से चालू रहता हैं । परंतु यह अवसर प्रत्येक शिष्य को नहीं मिलता । किसी किसी के बारे में शिष्य उस शक्ति का स्वत: अनुभव ले सकता हैं । परंतु आगे दिये श्लोक में बताये अनुसार दूसरों में शक्तिसंक्रमण नहीं कर सकता।


स्थूलं ज्ञानं द्विविधं  गुरुसाम्यासाम्यतत्त्वभेदेन ।                                   दीपप्रस्तरयोरिव संस्पर्शास्निग्धवर्त्ययसो: ॥


दो प्रकार के गुरु होते हैं और उनमें रहस्य के अनुकुल शक्ति संक्रामित करने की पद्धति हैं । एक पद्धति ऐसी हैं जैसे एक दीप उसके सान्निध्य में आनेवाले दूसरे दीपक को तत्काल प्रज्वलित करता हैं । और उस दीपक को दूसरे दीपक को प्रज्वलित करने की शक्ति देता हैं और यह परंपरा अखंड चालू रहती हैं । दूसरी पद्धति मतलब लोह पारस जैसी हैं । उसमें पारस लोहे को स्पर्श करते ही सोने में परिवर्तित करता है उस लोहे को ( नया सोना ) अगर दूसरे लोहे के टुकडे का स्पर्श किया जाय तो वह सोना नहीं बनता । दूसरी पद्धति में परंपरा नहीं रहती यह कमी हैं । पहले प्रकार में गुरु का शिष्य, स्वत: का जीवन सार्थक करने का कारणीभूत होता हैं । परंतु दूसरे गुरु का शिष्य सिर्फ़ खुदका उद्धार कर लेता हैं, परंतु दूसरों का उध्दार कर नहीं सकता ।



शब्द दीक्षा के दो प्रकार हैं ।
तद्वद् द्विविधं सूक्ष्मं शब्दश्रवणेन कोकिलाभ्युदययो: ।
तत्सुतमयूरयोरिव तद्विज्ञेयं यथासंख्यम् ॥


जिस तरह कौंवे के घोसले में कोयल का छोटा बच्चा कोकिला का शब्द सुनतेही बोलने लगता है और आगे तो कोयल ही दूसरे बच्चों में जागृति ला कर कंठ स्वर दे सकती हैं । इस तरह से शब्द के माध्यम से यह क्रम शुरु रहता हैं। परंतु जो मोर बादल के गरजनेसे नाच उठता है वह मोर अपनी आवाज से दूसरे मोर को नहीं नचा सकता । और इस तरह यह क्रम आगे नहीं चलता हैं |


इत्थं सूक्ष्मतरमपि द्विविधं कूर्म्या निरीक्षणात्तस्या| 

पुत्र्यास्तथैव सवितुर्निरीक्षणात् कोकमिथुनस्य ॥


सूक्ष्मतर दीक्षा जो दृष्टिक्षेपद्वारा दी जाती हैं उसके भी दो प्रकार हैं  । एक पद्धती में जैसे कछुवा अपने बच्चे पर लगातार दृष्टि रखकर उसका पालन पोषण करता हैं और उस बच्चे में भी आगे जरूरत पड़ने पर शक्ति उत्पन्न करके उसे चला सकता हैं । परंतु उन बच्चों को उस शक्ति का एहसास उनके बच्चे होने तक नहीं होता । इस प्रकार शिष्य भी वैसेही उसके गुरु से दी गयी शक्ति के बारे में जागरुक नहीं रहता हैं और जब शिष्य गुरु के सान्निध्य में नहीं आता तब तक वह उसे शक्तिपात दीक्षा नहीं देता । पक्षी, लाल हंस के जोडे सूर्यदर्शनसे आनंदित होते हैं , पर वह स्वत: स्वजातीय हँसों को आनंदित नहीं कर सकते ।


अब संकल्प दीक्षा के बारे में विचार करें ।
सूक्ष्मतममपि द्विविधं मत्स्या: संकल्पतस्तु तद्दहितु:।
तृप्तिर्नगरादिजनिर्मान्त्रिकसंकल्पतश्च भुवि तद्वत् ॥



 सूक्ष्मतम दीक्षा के प्रकार में संकल्प दीक्षा हैं वह भी दो प्रकार की होती हैं । उसमें से एक प्रकार ऐसा  -जिस तरहसे मछली अपना मन एकाग्र करके अपने बच्चे का चिंतन करके अपने बच्चोंका लालन पालन करती हैं । और दूसरा प्रकार जैसे जादूगर माया से शहर एवं गाँव तैयार कर दिखाता हैं । पहले प्रकार में मछलीद्वारा बच्चों को शक्ती मिलती है पर दूसरे प्रकार में उत्पन्न होने वाला आभास नवीन आभास उत्पन्न कर नहीं सकता।
ऊपर दिये गये उदाहरणों में शक्ति संक्रमण करने की परंपरा को चालू रखने की शक्ति निसर्गने गुरुमाता में दी हैं ऐसा देखने में आता हैं । इसलिए गुरु को ‘गुरु माँ’ यह नाम प्राप्त हुआ हैं ।



एकबार जो गुरुने अपने शिष्यपर शक्तिपात कर दैवी शक्ति का संक्रमण किया, तो शिष्य अपने आप ही आसन, प्राणायाम, मुद्रा, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान यह बात सहज आत्मसात करता हैं । यह करते समय उसे किसीका मार्गदर्शन लेना नहीं पडता और किसी भी प्रकार की मेहनत या तकलीफ़ करनी नहीं पडती, क्योंकि शक्ति स्वत: साधक को उपरी बाते करने में सहायता एवं मार्गदर्शन करती हैं ।


इस साधना का वैशिष्ट्य यह हैं कि इसमें साधक को किसी भी प्रकार की चोट या कष्ट होने का भय नहीं रहता। जो साधक अन्य किसी प्रकार की साधना से योगका अभ्यास करता हैं, उसे अलग अलग आपत्तियों का सामना करना पडता हैं और आखरी में अपना परम कल्याण होगा इस आशा में बहुतही कठोर नियमानुसार जीवन बिताना पड़ता हैं । परंतु इस साधना में परमानंद प्राप्त होता ही हैं, किंतु साधक में कुण्डलिनी शक्ति जागृत होते ही वह उसे आत्मप्रचीती देते जाती हैं। साधक को परमोच्च ब्राह्मी स्थिती में पहुँचने तक शक्तिका कार्य शुरु रहता ही हैं । बीचमें ही साधक को अपवादात्मक परिस्थितियों में अनेक जन्म लेना भी पड गया तो यह शक्ति सो नहीं जाती और अपना उद्देश्य पूरा कर लेती हैं । इस प्रकार के साधन मार्ग में सद्गुरुने विश्वास दिया हैं ।



शक्तिपात मार्ग के द्वारा साधक को एक बार दिशा मिल गई फ़िर वह स्वत: योग के किसी भी मार्ग का अवलम्बन नहीं कर सकता अथवा ऐसा करनेसे उसे सुख भी प्राप्त नहीं होगा । वह सिर्फ़ अंदर से मिलने वाले शक्ति के आदेश का ही पालन कर सकता हैं । ऐसे आदेशों की अगर वह अवज्ञा करेगा तो उसके ऊपर आपत्ति आये बगैर रहेगी नहीं। जैसे मनुष्य को नींद आने लगे तो उसे नींद से ही शांती और सुख मिलेगा । उसी प्रकार जब साधक आसनपर बैठता है तो उसे अंदर से शक्ति के आदेश मिलने लगते हैं कि उसे क्या – क्या करना है अथवा अमुक प्रकार की क्रिया (हलचल ) करना है और उस प्रकार की उसे क्रिया करनी ही पडती हैं  । वह अगर वैसा नहीं करेगा तब उसे अस्वस्थता होगी और तकलीफ़ होगी । परंतु अगर वह खुले मन से अंदर से मिलनेवाले आदेश का पालन करेगा, तो शांती व सुख ही मिलेगा । खुद के प्रयत्नों पर श्रद्धा रखनेवाले साधक इस प्रकार की साधना में कम विश्वास रखते हैं और वे अंत:शक्ति पर निर्भर न होकर खुद बाहर की शक्ति पर आधारित रहेगा । परंतु शक्ति संक्रमण का मार्ग पूर्ण समर्पण एवं शक्ति पर आधारित रहने का ही हैं । जिसे इस प्रकार की दीक्षा मिली होगी उसे इस जनम में अपनी कितनी प्रगती होगी इसका विचार नहीं करना चाहिए । शक्ति जहाँ ले जायेगी, वहाँ जाने के लिये उसे तैयार रहना चाहिए और शक्ति सभी प्रकार के संकट से उसका रक्षण करती रहती हैं। वही उसे परमोच्च पद पर ले जाती है । जिनकी आज के इस युग में योग के बारे में उत्सुकता होगी उसे शक्तिपात मार्ग जैसा कोई भी दूसरा सरल मार्ग नहीं हैं ।


शक्ति -संक्रमण करने वाले अधिकारी महात्मा के सान्निध्य में जो कोई भी आयेगा, उसे उनकी मर्जी संपादन करके अपने जीवन को सार्थक करने के क्षण को खोना नहीं चाहिये । इस कलियुग में यह परंपरा याने मृत्युलोक में मनुष्य के लिए स्वर्ग से लाये गये अमृत जैसे हैं । इसके सिवाय सरल व ज्यादा परिणामकारी दूसरा कोई साधन नहीं । यह साधक को सभी दुखों से और दूषित मन, गलत प्रवृत्तिसे मुक्त कर उसे परमशांति देती है ।


हम सभी शंकराचार्य के शिवानंदलहरी के इस श्लोक को पढकर परमेश्वर से आखरी प्रार्थना करे :
 त्वत्पादाम्बुजमर्चयामि परमं त्वां चिन्तयाम्यन्वहम् ।
त्वामीशं शरणं व्रजामि वचसा त्वामेव याचे विभो ॥
दीक्षां मे दिश चाक्षुषीं सकरुणां दिव्यश्चिरं प्रार्थितां
शम्भो लोकगुरो मदीयमनस: सौख्योपदेशं कुरु ॥



हे सर्वश्रेष्ठ ! मैं तेरे चरणकमलों की पूजा करता हूँ और तेरा ध्यान करता हूँ । मैं तेरी शरण में आता हूँ ( तेरा आश्रय लेता हूँ ) और हे परमेश्वर, मधुर शब्दों से प्रार्थना करता हूँ की, तू मुझे स्वीकार करके, तेरी करुणापूर्ण दृष्टिसे मुझपर शक्तिपात कर मुझे ऐसी दीक्षा दें की, जिसका ध्यास देवलोकों में भी लगा हुआ हैं । हे शंभो, जगद्गुरो, मेरे मनको सच्चे सुख का मार्ग सिखा ।



ॐ शांति: शांति: शांति: ।



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